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राघवदास कृत भक्तमाल खांहि पुवा सु मदन-गुपाल जु, प्रेम पग्यौ छकरा पहुचाये। रैनि पहुंचत स्यांम कही अब, भोग करौ उठिके फिरि पाये ॥३६१ लै पद गावत भक्ति दिखावत, संतन की पनही रखवारौ। सीख लयौ किनि पारख चाहत, खोलि गयो दर राखि संभारौ। बैठि रह्यौ जब हाथि उठावत, आस भई सिधि मैं हु बिचारौ। मांहि गुसाईं बुलात न जावत, सेवन सौंपि गये जन सारौ ॥३६२ संपति संतन कौं सुखुवाय र, नांहि डरे जु निसंक रहे हैं। लैन खजानहि प्रात भगे निसि, पाथर घालि सिंदूख गये हैं। मेल्हि रुका धन साध गटक्कहु, यौं सटके हम आप कहे हैं। भूपति खौलि सिदूषहि देखत, कागद बांचि खुसी स भये हैं ॥३६३ लैन पठायहु मोहि रिझायहु भक्त लिख्यौ बन में तन डारयौ। टोडर फेरि कही धन खोवत, बांधि र त्यावहु मूढ़ हकारयौ। ल्यांत हजूर कही नृप दूरिहि, सौंपत दुष्टन कष्ट न धारयौ । साखि लिखी अकबर पिकी भल, जाहु वही धन तो परि वारयौ ॥३६४
साखि इक तम अंधियारी करै, सुन्नि दई पुनि ताहि ।
दश तम तें रक्षा करौ, दिनमनि अकबर साहि ? प्राइ बृदाबन माधुर मैं मन, सब्द कह्यौ सुनि सो रस रासै । जा दिन तें उचरयौ मुख तें सत जोजन जात बढ़ी जग प्यासै । सो र दिजै द्विज म्हैल चहै लहु, चैल' पहैल जुगल्ल प्रकासै। मोहन जू सिर इष्ट महा प्रभु, आश्चर्य नांहि दया अनयासै ।।३६५
छपै
मूल संसार सलित निसतारने, नवका ये जन जानियौं ।
तिलोचन रहरिनाम, इधीर ४ाधारूं ५सोझा। ६सीवां ७सधनां आसाधर, डूंगर गुण गोझा । १०कासीस्वर अवधूत, ११नीरद्यौ १२राज १३पदारथ । १४ऊदा १५सोभू १६पदम, १७कृष्ण किंकर परिथ ।
१. कैल।
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