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चतुरदास कृत टीका सहित
[ ४३ गोद उठाइ दयो सिर मैं कर, देखि दया उर येह धरी है। दूरि करौ दुख या जग को सब, मौ अब द्यौ तव माय' बुरी है ।।८६
अक्र रजो को टोका अक्रर चले मथुरा पुर ते, दिग नीर बहै हरि कौं कब देखौं । सौंण मनावत देखन भावत, लोटत है लखि चिन्ह बसेखौं । बंदन भक्ति प्रबीन महा सुख, देव कही यह जीवन भेखौं । राम रु कृष्ण मिले सु फले मन, स्वारथ लाख जनंमहि लेखौं ॥८७
प्रोक्षत को टोका प्रीक्षत पीवत श्रुति कथामृत, बाढत है निति कोटि पियासा । जोगिन कै उर ध्यान न पावत, सो हरि देखि मया ग्रभवासा। भूप कहै सुखदेव सुनौं यह, चित्त कथा नहीं तक्षक त्रासा। पारिष ल्यौ मम बुद्धि रही पगि, जाहु जबै थमि होत उदासा ॥८८
सुकदेवजी को टोका होत जनम चले भजि आरन, ब्यास पिता हि सभाष न दीयौ । कान परे सुस-लोक दसंमहि, बुद्धि हरी सुनि भागुत लीयौ । जोगुन रूप करम्म करे हरि, भूप सभा कहिने भय हीयौ। बूझत संत उन्हें करि उत्तर, वांचित है सु जबै झर कीयौ ।।८६
छप
मूल हरि बिमुखन दंड देत है, जन राघो पाइक राम के ॥
नमो नव-गृह देव, आदि अनुचर हरिजी के। पौड़त प्राज्ञा पाई, रांम अनुन तें नीके। नमो बृहस्पति बुद्ध, नमो सनि सोम सहाइक ।
नमो भासकर सुकर, नमो मंगल बरदाइक । नमो राह धड़-केत, सिर प्राज्ञाकारी स्यांम के। हरि बिमुखन दंड देत है, जन राघो पाइक राम के ॥
१ माया। २. उत्तरा। ३. पाई।
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