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चतुरदास कृत टीका सहित
[ ११३ मंदिर द्वार सुरूप निहारत, सीत लगें सिकलात डरयौ है। सोचहु रीति प्रमांन उहै जिम, माधवदास उधार धरयौ है ।।३३३ चैतनिकृष्ण सु आइस पाइ र, आइ बृदाबन कुंड बसे हैं। रूप चहंनि कहै न सके तन, भाव सरूप करयौ जु लसे हैं। चांबर दूध खवाय मनौमय, नारि लये रस बैद हसे हैं। संतन की महिमां न सकौं कहि, देहु वहै गति भक्त रसे हैं ॥३३४
मूल छौ . बृधमांन गंग लंगहर जन, राघो नारद ज्यूं नचे ॥
पीवत रस भागवत भक्ति, भू परि बिसतारी। परमारथ के पुंज, उभै भ्राता ब्रह्मचारी। संतन सं लैंलीन, दीन देखें कछू दीजै ।
राम राम रामेति, राति दिन सुमरन कीजै। भट भीखम सुत सांतकी, भक्ति काज भू पर रचे । , बृद्धमान गंग लंगहर, जन राघो नारद ज्यूं नचे ॥२२६ , मिश्र गदाधर ग्यांन पक्ष, जिन भ्रम बिध्वंसे भीव ज्यूं ॥
बसत बृदाबन बास, भजत हरि सुख को पाले। कर हंस ज्यूं अंस, खीर नीरहि निरवाले। पीवत रस भागौत अनि न निज धरम दिढ़ायौ।
प्रान धर्म सब त्यागि, गर्भ' गहि अधर उड़ायौ। राघो धरनि धमाल की, घरचौ निगम मत नीव ज्यूं। मिश्र गदाधर ग्यांन पक्ष, जिन भ्रम बिध्वंसे भीव ज्यूं ॥२३०
टीका इंदव स्याम रंगी रंग जीव सुन्यौं पद, साध उभै लिखि पत्र पठायौ । - रैणि बिनां चढियो रंग क्यौं करि, प्रेम-मढ्यो उरका उत आयो। कूप तहां पुर के ढिग बैठक, पूछत हे उन नांव बतायो । कौंन जगां बसिहौ जु बृदाबन, धांम सुन्यौं मुरछा गिर पायौ ॥३३५ कोउ कह्यौ भट येह गदाधर, बेगि उठे पतियांहि जिवाये । हाथि दयौ उरका सिर लावत, बांचि र चालि बूंदाबन पाये। जीउ मिले द्रिग तें जल ढारत, बेह गई सुधिवै फिर गाये । ग्रंथ पढ़े सब स्यांम कबादिब२, प्रेम उमंग न अंग सु छाये ॥३३६
छद
१. भरम। २. कथाविव ।
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