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________________ ११२ । राघवदास कृत भक्तमाल बैठि प्रसाद करें सु भरै द्रिग, है किम बात कही जु उचारे । सांवर बाल भुराइ चलावत, मात न जीवत देह बिसारै ॥३२८ गांव चले अनि भक्त महाजन, ही मनमैं बिनतीहु करी है। जात भये घर वौ जु गयौ, अनि भाव भरी तिय पाइ परी है। म्हंत रहै इक बूझत आसन, नाटि गयौ मन मांहि डरी है। ल्यौ परसाद सु दूधहि पीवत, माधव नांव सु आस भरी है ॥३२६ आप गये तब आत महाजन नाम सुन्यौ पुनि म्हंत भगत्ता। जाइ परे पगि आप मिले झिलि, हौ धनि दंपति धाम सपत्ता। म्हंत कहै अपराध करचौ हम, सेव करौ हरि संत महत्ता। पात मिलाप बनें सुधरौ मन, जात बृदाबन है प्रभु सत्ता ॥३३० देखि बृदाबन मोद भयो मन, जात बिहारी चनां कु छपाये। ल्यौं परसाद कही प्रतिहार, गये जमना तटि भोग लगाये। भोजन कौं अरपात भये जन, पाप नहीं हरि वै हि बताये। बूझत आप जनाइ दयो फिरि, ल्याइ कह्यौ रस हास गहाये ॥३३१ देखन कौं बृज जात भये दुरि, खेम भखै निसि कृम दिखाये। जैत गये सुनिबे हरियानह, गोबर पाथि निलागिर धाये। आइ घरां सुत मात मिले, मग मैं सुपनां कहि बैसि मिलाये। या बिधि भांति अनेक चरित्रहु, कान परे हम गाइ सुनाये ॥३३२ मल रघुनाथ गुसांई की रहणि, श्रीजगनाथ के मनि बसी ॥ स्यंघ पौरि सत सूर, रहै गरुड़ासन ठाढ़ौ । प्रति धीरज प्रति ध्यान, प्राहि अति पण को गाढ़ौ । सीत समैं सकलात, जगतपति प्रांनि उढ़ाई । श्रब कू अचिरज भयौ, महंत की मांनि बढ़ाई। ज्यूं जननी सुत सुचि कर, जन राघौ रीति करी इसी। रघुनाथ गुसांई की रहरिण, श्रीजगनाथ के मनि बसी ॥२२८ टीका संपति सूं घर पागि रह्यौ उन, त्यागि निलाचल बास करयौ है। बाप पठावत है धनकू, नहि लेत महाप्रभु पास परयौ है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003832
Book TitleBhaktmal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghavdas, Chaturdas
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1965
Total Pages364
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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