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चतुरदास कृत टीका सहित
[ १११ छाडि दयौ गृह पालत है वह, मांनत हूं कर तास गवारा।। आइ परे जगनाथ पुरी तटि, धीरज भूखन प्यास बिचारा ॥३२१ तीन दिनांस भये न नही खुत, लीन रहै हरि सोच परयौ है। सैन सु भोग पठात भये, कवलाकर हाथ क थार धरयौ है। बैठि कूटी मधि पीठ दई मग, दांमनि सी दमकी न फिरयौ है। देखि प्रसाद बड़े मन मोदत, मांनत भाग सुपात्र परयौ है ॥३२२ खोलि किवार निहारत थारन, सोच परयौ उत ढूंढत पायौ। बांधि र बेत दई सु लई प्रभु, जांनत पीठि चिहन दिखायौ । आप कही हम देत लयौ इन, पाव गहे अपराध खिमायो। बात बिख्यात नमावत कीरति, साध लजावत सील बतायौ ॥३२३ रूप निहारत सुद्धि बिसारत, मंदिर मैं रह जात न जांन । सीत लग्यौ जन कांपि उठे हरि, देसि कला तउ हैं दुख भांन। बेग लगे तटि सिंध गये चलि, चाहत नीर तबै प्रभु ांन । जांनि लये हरि दूरि करौ दुख, ईस्वरता तुम खोवत क्यान ॥३२४ नाथ कही सब काम करौं तव, देत मिटाइ बिथा यह भारी। भोग रहें तन फेरि धरौ नहि, मेटत हूं प्रभुता हम हारी। बात वहै सति गांस सुनौं इक, साधन कू न हस सु बिचारी। देखत ही दुख दूरि गयौ सब, नौतम भक्ति कथा बिसतारी ॥३२५ कीरति देखि अभंगहि मांगत, खोजि तिया रु चलावत पोता। देण लयौ गुण सो कर धोवत', बाति बनाइ करी दिव जोता।। मंदिर मांहि उजास भयो, तम नास गयौ उर देखत नौता। साध दयाल निहाल करै, दुख देत उनै सुख सेवत होता ॥३२६ पंडित जीतत आत भयो वत, बात करौ हम सौं नहीं हारी। हारि लिखि पुनि बांचि बनारस, माधव जीतत खुवार जमारौ । आय कही फिरि माधव सौं अब, हारि गधै चढ़ितौ पतियारौ। बांधि उपानत कानन हूं, जगनांथह राय खराहि चढारौ ॥३२७ गावत है बृज की रचनां, गिर नील सवै चलि नैंन निहारें। चालि परे इक गांव तिया जन, ल्यावत भोजन चाव पियारें।
१. धावत ।
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