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________________ ११० ] राघवदास कृत भक्तमाल अंतर गति को प्रीति, प्रभुजी प्रगट पिछानी । दोऊ भुजन कै चक्र, बात सर्ब ही जग जांनी। राघो अति रुचि स्यांम सूं, भक्त भावनां सूं नयौ। मध्वाचारिज मधुपुरी, दुती कवलाकर भट भयौ ॥२२५ सपतदीप नवखंड मैं, भक्त जक्त की नांव ॥ मथुरा सदन सुथांन, पुरी पूरण श्रुति गावै। सुकृत बिनां सथांन बस, कोई मुक्ति न पावें । संत सुकिरती बररिण, काल-क्रम जिन तै डरपै । तन मन धन सरबंस, साध साहिब कौं अरपै । राघौ रटवै रामजी, जहां जहां धारै पाव । सपतदीप नवखंड मैं, भक्त जक्त की नांव ॥२२६ ब्यास द्विती माधौ प्रगट, सर्व को भलो बिचारियौ ॥टे० श्रुति समृति पौरांण, अगम भारथ मथि लीयो। ग्रंथ सबै पुनि देखि, प्ररथ रस भाषा कीयो। गाई लीला जैति, कृतम जै जै उचरयौ। श्रवनां सुनि करि कंठ, जीव जग निरभै बिचरयौ। निरबेद अवधि सिर जगनाथ, रस करुणा उर धारियौ। ब्यास द्विती माधौ प्रगट, सर्व को भलो बिचारियौ ॥२२७ इंदव सारह मैं ततसार सिरोतर, लीन्हौं महा मथि माधौ गुसांई। छंद लीला र जैति जपै दुख दूरि है, काज सरै महामंत्र की नाई। भैरव भूत पिरेतर पाखंड, व्याधि टरै बपु नै सब बाईं। राघो कहै निति नेम निरंतर, असे मिले दुरि सेवग सांई ॥२२८१ टीका माधवदास तिया तन त्यागत, यौं दिज जांनि मिथ्या बिवहारा। पुत्र बड़ी हुइ जाइ तजौ गृह, और भई दिखई करतारा। १ छाई। प्रिति लेखक ने इसे टीकाकार का पद्य मानकर ३२० की संख्या देदी है, पर 'राघों' की छाप होने से मूल ग्रन्थकार का ही है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003832
Book TitleBhaktmal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghavdas, Chaturdas
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1965
Total Pages364
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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