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राघवदास कृत भक्तमाल... नांव कल्यांन हुती रजपून सू, आत कथा सुनिबे मन लाग्यो। गांव नजीकहि धौरहरा उन, भोग तजे तिय कौं दुख पाग्यौ। सील लिवाय दयौ भट मो पति, ख्वार करौं इन कामहि जाग्यौ । मांगत ही जुवती ग्रभवंतहु, बीस दये रुपये कहि राग्यौ ॥३३७ भट्ट गदाधर की हु कथा कहि, है तुमरी किरपा सुधि लीजै । लोभ करयो मन भंग गई वत, यौंहि कही मम काज करीजै। आप कहै तव ध्यान करौं निति, दोष नहीं हम मांगत दीजै । श्रोतन के दुख होत भयो सुनि, झूठ कही इन मार नखीजै ॥३३८ । भूमि फठ बरि जांहि कहै सिष, नीर बहै द्रिग बुद्धि गई है। वल्लभदास प्रकास भयौ दुख, राम सुनी स बुलाइ लई है। साच कहौ तन अांच करें बहु, मार डरी सब कैत भई है। . मारन कौं जु कल्यांन गयौ तिय, भट्ट कही मम सीख दई है ॥३३६ देस महंत कथा महि आवत, पासि पठात' सबै जन भीजै। आंसु न प्रांवहि सोच मुचे जल, लावत लाल मिरच्चि ह खोजै। साध लखे भटजूहि जनावत, ऊठि गये सब ले मिलि रीझे। चाहि इसी उर होइ जबै मम, रोइ भरें द्रिग प्रेम सु धीजे ॥३४० चोर धस्यौ घर संपति बांधत, जोर कर नहीं ऊठत भारी। अाइ उठाई दई सु लई लखि, नाम सुन्यौ हम भूलि बिचारी। लै धन जाहु उजास करै रवि, आत गुनी दस तेरि जिवारी। सीस उतारि बिचार करौ यह, कैत भयौ सिष बात निवारी ॥३४१ सेव करै प्रभु की निज हाथनि, भक्ति प्रतीति पुरांनहु गाई। देत हुते चवका सिख ले धन, आवत ही भृति सैन जनाई। हाथ पखारि बिराजहु आसन, चाव उही खिजिकै समझाई। हेत हरो परि पास तजी जग, प्रेम गये पग रीति दिखाई ॥३४२
मूल श्री वृन्दावन को मधुर रस, इन सबहिन मिलि चाखियो। १भट गोपाल २भूभृति, प्रभु मैं सरबस देखें। थानेसुरो ३जगनाथ, बिपुल ४बीठल रस रेख।
१. बठात । २. डुबं। ३. मिच्चि ।
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