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भक्तमाल
२७४ ] पृ० २४६, प० ५५५ के बाद
अनन्यशरणता मनहर . दादू को सेवक हं दादूजी सहाय मेरे, छन्द . दादूजी को ध्यान धरू दादू मेरे धन्न हैं ।
दादूजी रिझाऊं नित नाम लेऊ दादूजी को,
दादू-गुन गाऊं वडो दादूजी सों पन्न हैं। दादूजी सों नातो रसमातो रहूं दादूजी सों,
दादूजी अधार मेरे दादू तन मन्न हैं । कहै दादूदास मोहि भरोसो एक दादूजी को,
दादूजी सों काम दादू अघ के हरन हैं ।।१२८० इति राघौदासजी कृत मूल भक्तमाल सम्पूर्ण ॥
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