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चतुरदास कृत टीका सहित
[ ७३ सीह बघेरा गरिजि रहे, मन संक्या नहीं।
बाइ तलै संचरै, तास कौं ऊंचे लांहीं। पद साखी उजल करे, राम नाम उचरयौ रसन । परम धरम धन धारि उर, पूरण बैराठी प्रसन ॥१६६ पूरण पूरा ज्ञान सूं, बैराठी गुर-गम लयौ ॥टे०
अष्टांग-जोग अभ्यास, गुफा कंदर के बासी। कनक कामनी रहत सदा, हरि नाम उपासी। बाचा छले मलेछ, कपट करि ब्याह करायो। त्यागी तिरिया रहत नहीं, तन कलंक लगायो। अनल पंख के पुत्र ज्यूं, उलटि अपूठौ बन गयो। पूरण पूरा ज्ञान सौं, बैराठी गुर-गम लयो ॥१६७ सिंध-सुता संप्रदाइ मैं, लक्षमन भट भारी भगत ॥
धर्म सनातन धारि, भक्ति करि जग मैं जान्यौं। संतन सेती हेत, नेम प्रेमां मन मांन्यौं । जथा-लाभ संतुष्ट, सुह्निद परमारथ कीन्हौं।
उत्म इष्ट थापि, साध मारग कहि दोन्हौं । सारा-सार बिचार उर, सदा कथन श्रीभागवत । सिंधु-सुता संप्रदाइ मैं, लक्षमन भट भारी भगत ॥१६८ खेम गुसांई राम पन, राम रासि गुर सीस धरि ॥टे०
रामचंद्र को अनुग, जगत मैं नाहीं छांनै । उर मैं और न ध्यान, येक सीयारांमहि जांचें । कारमुक बांमैं हाथि, दाहिनै साईक राजै। यह प्रीय लागै रूप, दरस ते सर्ब दुख भाजै । हनुमंत समां सो साहिसी, गद गद बांरणी प्रेम करि । खेम गुसांईं राम पन, रांम रासि गुर सीस धरि ॥१६६ तुलसी राम उपास की, रामचरित बरनन करचौ ॥टे०
बालमोक कीयो सहंस, कृत श्रीफल सम जांनौं । भाषा दाष समान, पात परिश्रम मति मांनौं । नर नारी सुख भयो, प्रेम तूं गावै निस दिन । पातक सब कटि जात, सुनत निर्मल तन मन जन ।
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