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राघवदास कृत क्त माल
परखत साध सरांवहीं, मनौं दिवाकर यह दुती ॥
उत्म भजन प्रकासि किरिरिण, करणी करि पोखे। सीयाबर गुण नाम गाइ, प्रांन न संतोषे। जनक-सुता प्राधार अंघ्रि ग्रहि, यहधन धरियो। गुर नरहर की कृपा, पुत्र नांतीयौ करियो। रघुनाथ इष्ट निहत्चल सदा, प्रांन बात को ना हुती।
परखत साध सरांवहीं, मनौं दिवाकर यह दुति ॥१६२ इंदव पर की प्रभुता कर आप अमानक, असो भयौ दिव्य देव दिवाकर। छंद संत सुभाव श्रबंगी सिरोमनि, मां मिली दुरि दूध मैं साकर ।
जीवत मुक्ति दिपै दसहूं दिसि, ज्यूं नव-खंड उद्योत प्रभाकर ।
राघो कहै परमारथ सू रुचि, स्वारथ के सिर दै गयो टाकर ॥१६३ छपै श्री सौरंभ स्वामि प्रसाद सौं, पण ब्रत रह्यौ प्रियाग कौ ॥
मन बच क्रम भगवंत, उभै अंघ्री उर भायें । लीला मैं निर-जांन, भाव तन दोइ दिखाये। संतन सरस सनेह, मांनि दोऊ दल लीया। अंकू बलौ दे प्राडि, महोछा पूरण कीया। वोली' धुजां चढावहीं, क्यारे कलस भाग को। श्रीसौरंभ गुर प्रसाद ते, पण ब्रत रह्यौ प्रियाग कौ ॥१६४ हठ-जोग जमादिक साधिके, द्वारिकादास हरि सौं मिल्यौ ॥टे० कूकस की नदिका, नीर मैं लगी समाधी । प्रभु पद सुं रति अचल, येक प्रात्म प्राराधी । बांम जांम घर बित बंध, कुल जगत निरासा। काम क्रोध मद मोह, करम की काटी पासा। गुर कोल्ह करण प्रसाद तैं, भक्ति सक्ति भ्रम कौं गित्यौ । हठ-जोग जमादिक साधिके, द्वारिकादास हरि सू मिल्यौ ॥१६५ परम धरम धन धारि उर, पूरण बैराठी प्रसन ॥
ऊगरणौ प्राथूरण, सैल बिचि नदी बहांनी । जम-नेमा प्राणायांमसन, जहां साधे ध्यांनी।
१ वाली।
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