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राघवदास कृत भक्तमाल देवल जाइ रु पाट मंगावत, बाटि गुह्यौ गलि नावत घूट्यौ । गाइ दिखावहु ख्याल हमैं अब, गावत राग दुती नहि खूट्यौ ।।२९७ देखि खुसी खल देत उराहन, नौख नई हरि कौं बहु भाखें । आखिर' ग्वाल गही उरमाल, सुहावत लाल कहौ किन लाखें । रांम भले सु लख्यौ क्रम पावत, कौन मिटावत है अभिलाखें। जाइ कहा मम तोहि कहै धिक, जाहु यहै तन भक्ति न नांखें ॥२६८ साह रहै जुग नारि बिवाहत, भक्त इकै हरदेव दिखावो । आप कही सति जांनि गये प्रभु, ल्यौ रुपया वह राग दिवावो । देखि निहाल भई प्रभु को मुख, जाइ जगो रुपया गिनवावो । दांम लिये र दयो वह कागद, भोजन देत भई प्रभु पावो ॥२९६ साहक राग धरयौ गहनै, नरसी करि रूप सजाइ छुड़ायौ । गोदहि नांखि दयौ वह कागद, आइ हरी जन हार गहायौ । सब्द हुवो जयकार सभा मधि, भूप परयौ पगि भाव सवायौ । दुष्ट गये मुरझाइ नये नहि, राम दया बिन पंथ न पायौ ॥३०० ब्राह्मन हेरत डोल भलौ बर, पायौ नहिं नरसीह बतायौ। बूझत आई सु पुत्र दिखावत, देत तिलक्कहि देखि लुभायौ। नांहि बरोवरि हौ सब सौं बर, बेगि गयो द्विज नांव जनायो । सीस धुनै सुनि ता लकुटा भनि, बोरि सुता फिर जाहु कहायौ ॥३०१ ढारहु काटि अगूठहि कौं, जब जाइ कहूं कर कौं कमलायौ। भाग सुता लखि बैठि रहे. कहि ब्याहन आवत दें बहरायौ। देत लगंन सु ब्राह्मन भेजत, जाई दयौ कर लैर डरायौ । ताल बजावत च्यारि रहे दिन, सोच नहीं मन सावल आयौ ॥३०२
है पकवान बजैहु निसांन, सुनै नहि कांन-स उच्छव भारी। मांडत है मुख कृष्ण बधू रुख, चौढ़ि तुरी निसि गात सु नारी।
है जिवनार अपार भये नर, मोट न बांधत बिप्र बिचारी। हाथिन घोरन ऊंटन हूं रथ, वैस किसोर जनै तपधारी ।।३०३ कृष्ण कहै नरसी चलिये तुम, आवत हूं नभ मारग मांनौं । आपहि जानहु मैं उर प्रांनहु, है सुख फैटहि ताल रखांनौं।
१. गिर।
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