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चतुरदास कृत टीका सहित
मनहर
छद
राम भजनीक राघो कहै बालमीक जीमतां
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सुपचतन, बहि
गये हैं सकल बल डारि कुल राज तेज, स्वामीजी पधारौ मम काज श्राजि जांनि कैं । हंस ज्यूं हस्त बिग बस्त रूपी प्रायो द्वारि,
भोजन - छपन भरि थार धरौ प्रांति के । श्रब अंन तीवन र घृत दधि दूध भात,
अपि अबिनासीजी कौं ऐक कीये सांनि के । राघो कहै रांम धनि राखत है जन पन,
पांचौं ग्रास पंच बेर बाज्यौ संख तांनि ॥८५ भूधर कहैत तोहि भांजि डारौ भाठिन सौं,
जन के जीमत कन बाज्यौ क्यूं न पातकी । देवजी दयाल ह्व जे मेरौ कछू नांहीं दोष,
द्रौपदी कूं श्राईभिन श्रंति देखि जातिकी । बाजतौ प्रसंखि बेर भाव मैं परचौ है फेर,
१. छजहि सूरौ ।
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तूरौ ॥८४
नारि न निहारि देख्यौ साध सील सातकी । राघो कहै संख नैं सुधारि कही साहिब सूं,
मोकौंकित ठौर है जु आज्ञा मेौं तातकी ॥ ८६
करन को टोका [ मूल ]
बासुर की आदि भयें रजनी कौ अंत जब, पढ़त जाचिग श्रब पहर करन कौ । सवा भार कंचन क्रिया सूं देतौ निति प्रति, जासूं होत प्रतिपाल दुबल बिप्रन कौ । अरजन को रथ प्रवटायो जिन हूठ पेंड,
जामैं बंठे कृष्ण देव नाइक नरन कौ । राघो कहै रवि-सुत दाग्यौ हरि हाथन पैं,
साधिगौ श्रबस दे के मांमलौ मरन कौ ॥८७
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