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चतुरदास कृत टीका सहित
छपे
छपै
छंद
काछ बाच निकलंक है, संतन कौं सर्बस दीयो, जन
मूल
खेवा ।
येवा ।
संतन को सरबस दीयो, जन राघो हरि की प्रीति कौं । कुर सारत करतार सूं, भक्ति जिहाज के राम कांम सरखरू, पोता पृथीराज के भगवानदास भगवंत भज्यो, करि भक्ति छाप छहूं दरसन बिषै भयो बैरागी रूपं । महा-निपुन धर्म-नोति कौं । राघो हरि की प्रीति कौं ॥ १६३
श्रनूपं ।
इंदव भजनीक भलौ सत सूर सदा, हरदास की तेग महा श्रति सारी । चंद भोग की भावनां नारि के ऊपनी, बालक ऐक द्वं तौ भलौ भारी । जेहरि लै जल के मिसि नीसरी, बांधि के पाव कूवा मैं उसारी । राघो कहै बढी मांनि महंत की, चित्र के दीप ज्यौं सो जिहि टारी ॥१६४ मालि करी बनमालि की बंदगी, भक्ति की वाड़ी निपा गयो नापो । ध्यान को धोरो कियो उर अंतर, पांरंगी पताल सूं काढ्यौ श्रमापो । यौं निज नीर परेरचौ निरंजन, रांम रट्यौ रसना निहपायो । राघो रसाल बिसाल बयारौ लै, यौं हरि कौं मिल्यौ मेटिक आपो ॥१६५ काच तर कुलि कंचन देखहु, कोर तें हीर भयौ कलि कालू । ऊसर सूसर भूमि ह्वै ज्यूं, उपजे श्रन-ईष गोधूम ज्यूं सुद्धक श्रंग कोयो गुर, दूर करे
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अनंत उन्हाल |
कुल - क्रम के सालू ।
राघो कहै गुण गोबिंद के पढ़, तैं कहु जीभ लगी नहीं तालू ॥१६६ इति श्री रामानुज संप्रद्रा
१. पड़ी ।
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श्रथ विष्णु स्वामि संप्रदा लिखतं
क्यूं करि बरनौं श्रादि घर, खबर न येकौ अंक की ॥ विष्णु स्वामि स्यंभू मतौं, मनौं बच क्रम करि धारयौ । भाव भगति भगवंत भज, जसै जग मधि बिसतारचौ । पैड़ी' बंध प्रवाह घरगो, घट सौं घट सीके | खुली सुकतिर की पौरि, जास गुर गोबिंद री ।
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२. मुकति ।
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