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राघवदास कृत भक्तमाल गांव गये जित भेट भई बहु, म्हौर दई भरि गोहन गाडी। चौरन खोसि लये स चले जब, दौरि कही तुम म्हौर न छाडी। पाइन ये पहुचाइ दये फिर, सिष्य भये दय भैसि रु पाडी। ल्यात घरां जन सीत खिजै उन, आवत है सब संतन पाड़ी ॥१५१ पांचहि गांवन तें दल आवत, मांनि लये जन जाइ रिझाये । गांवहु ते सिष दोइक डेरनि, देखि लगी पगि आनन्द पाये । आप तज्यौ तंन जारि दये उन, होइ उदास चली हरि ध्याये । दूसर गांव मिलेस तज्यौ तन, पांच जगां जरते दिखराये ॥१५२ वैबपुरी चलि टोडहु आवत, देखि सियाबर नैन सिराये। बात सुनौं बनियां रिधि लेवत, सात सतौ रुपयाह बताये। कागद हाथि दयो अरु खीजत, लोग बंचावत अांक नसायें। सोच भयो बनियां मुख सूकत, आवत भेट दये सु लिखाये ॥१५३ स्वामि कहै सिय त्यागि करौ गृह, ठीक यहै मन मैं सु करीजै । कै नृबिति जहां तह बैठि रु, मांग भिक्षा हरि ध्यान धरीजै। छोड़ि चले घर संपति ही बहु, तीन दिना मह लूटि परीजै। जाइ रहे इक ऊजड़ गांवही, आइ सन्यास जमाति भरीजै ॥१५४ ब्राह्मन येक हत्या डर पावत, स्वांमिन सूं सब बात कही है। गंगहि न्हाइ र पाक जिमावत, ब्राह्मन तौ मम लेत नहीं हैं । सामगरी इत ल्याव जिमावहि, दूरि करें तव पाप सही है। बिप्र र साध सन्यास खुवावत, पांति भई फिरिजैस लही है ॥१५५ सूरज कौं अवसेर भई नर, भेजि बुलावत स्वामि पधारे। भेट करी बहु संपति आदिक, आप महौछव गांव सिधारे। पीछहि साथ सिया ढिग आवत, देहु हमैं धन धीह वधारे। दे दइ संपति थी घर मैं सब, होत खुसी मनि भौतल धारे ॥१५६ कागद आवत श्री रंग को ढिग, जात भये दिवसा जन द्वारा। बैठि लख्यो मन ध्यान करै हरि, भावहि रूप चढ़ावत हारा। कांन रह्यौ चित प्रांन बह्यौ तब, पीप कह्यौ मन ल्याव सिंगारा। पूजन छाडि सिताबहि प्रावत, पूछत को तुम नाम उचारा ॥१५७
१. रया।
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