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चतुरदास कृत टाका सहित
[ ५१
सिष पट तारचौ सुर धुनो, गुर मंजन करत टेरचौ मधर । जन राघो राखे रांमजी, जन के पग जल तें अधर ॥१२०
टोका
इंदव संत रहैं बहु देव धुनि तटि, है गुर-भक्त जुदौ न छंद जात गुरु परदक्षण देवन, मो मति छाड़हु गंग कूप करे सब न्हांवन धोवन, गंग गुरू मनि ध्यान करा । दे परदक्षण ग्रात भये जन, पाइ सबै दुख साध सुनावै ॥ १०१ जांनि चले सिष लै करि गंगहि, धारहि पैठि अंगोछ मंगायौ । सोच करे नहि पाव धरे जब, गंगहि बोलि उपाइ बतायौ । अंबुज पनि पाव धरे, अधरे चलि जाइ त पकरायौ । भीर हुती तटि बाहरि श्रावत, पाइ परे सबही गुन गायौ ॥ १०२
छपै
घनाक्षरी
छद
[ मूल]
बड़ौ ।
पढ़ौ ॥१२१
इम रांमांनुज के पाटि, पटंतर देवाचारिय | देवाचारिय के दियौ, हंस हरियानंद आरिय । हरियानंद करि हेत, राघवानंद निवाजे । ताकै रामानंद महंत, महिपुर मैं बाजे | अब राघौ रामानंद के है, अनंतानंद सिष येकादस सिष और है, श्रादिपधित अनुक्रम इम रांमांनंद प्रताप तैं, इतनें दिग अनंतानंद, कबीर, सुखानंद, सुख सुमरि सुरसुरानंद, राम, रैदास न धना, सेन, पद्मावति, पीपा पुनि नरहरदासा । भावानंद, सुरसुरी, कोयौ हरि घर मैं बासां । परमार्थ कौं अवतरे, राघो मिलि रांम रहंत । इस रामानंद प्रताप तैं, इतने दिग द्वादस महंत ॥१२२
द्वादस महंत ॥०
मैं
भूलै ।
भूलें ।
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रहावे ।
वतावै ।
रामानंद रांम कांम सावधान श्राठौ जांम,
कायागढ़ करि तमाम जोत्यो मन घेरि कै । जाति-पांति ऊंच-नीच मेटिकै अकाल- मीच, सार बस्त सार गहि लीन्हौं हंरि हेरि कैं ।
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