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राघवदास कृत भक्तमाल
जो तुक छंद र अक्षर मातर अर्थ मिले बिन साध सुधारै । चातुरदास करें बिनती नवि, मांनि कबीसुर चूक निवारे ।। ६३५. संबत येक रु आठ लिखे सुभे, पांच र सातहि फेरि मिलावै । भद्र की बदि है तिथि चौदसि, मंगलवार सु बार सुहावे । तां दिन पूरन होतु भयौ यह टिप्पण चातुरदास सुनावै ।
बांचि बिचारि सुनैरु सुनावत, सो नर-नारि भगतिहि पावे ||६३६
मनहर
छंद
इति श्री भक्तमाल की टीका संपूरण समापत । सुभमस्तु कल्यांणरस्तु ।। लेखक पाठकयो || छ । ३३८ ॥ मनहर ।।१५२।। हंसाल ||४|| साखी ||३८|| | चौपाई ॥२॥ इंदव ॥७५॥ राघोदासजी कृत संपूर्ण ॥ इंदव छंद ॥ सर्व ६२१ ।। चतुरदासजी कृत टीका छै सर्ब कबित || १२०४ ॥ ग्रंथ संख्या श्लोक ||४१०१ || लिखतं बाबाजी श्री चतुरदासजी तिनका सिष बाबाजी श्री नंदरामजी तिनको सिष गोकलदास बांचे ताक रांम रांम ।
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बर्स दस ग्राठा साठा उपरंत्य येक पुनि,
मास बयसाख बदि त्रितिया बखांनियें । कौ मोर गुरंधर बर भक्तमाल बनी,
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याको भनि सुनि प्रांनी नीर द्रिग प्रांनियें | याही तैं बिचारि कैं संभारि सार लीन्हों धारि,
लिखि डीsait विधि नीकीं मन मांनियें । मोरा मति भोरी प्रति कीजियों जु बुद्ध सुद्ध,
खोट ठोठ लिख्यौ कछू सोऊ अब मांनियें ||१||
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नोट : प्रति नं० 'B' की पुष्पिका इस प्रकार है
इति श्री भक्तमाल की टीका सम्पूररण- समाप्त | लेखक पाठकयो ॥ छपं - ३३८ ॥ मनहर- १५२ ॥ चौपई-२ ॥ इंदव ७५ ॥ कृत टीका का छ । सर्व कवित - १२०४ ॥ राम । बांचं पढ़ि तिनकौं सत राम ॥ राम राम ॥ श्री दादू ||
नोट : नं० 'C' की पुष्पिका इस प्रकार है
इति श्री भक्तमाल की टीका समाप्त संपूर्ण । सुभमस्तु ॥ कल्याणमस्तु ॥ लेखकपाठकयो ब्रह्मभवतु ।
अदि गुर ब्रह्म जानि सति चिदानंद मानि, सोउ अब दादुदास प्रगट्यो सिस्ये । तिन के तो सिषब नवारी हरिदास सिध, छवीलदास ताके सिख प्रमद सू लेषिये । प्रामदास ताके सिष स्वामी ही की ध्यावे दिसि श्रारणदास तिन सिष प्रचे ब्रह्म देखिये । तिन सिष हरिदास, जग में जिहाज रूप, चरणदास ताके सिष, जोगेसुर पेखिये ॥ १॥ दोहा ॥ छपे छन्द ' ३३३ ॥ मनहर १४१ ॥ हंसाल- ४॥ साखी ३८॥ चौपई २॥ इंदव छंद ७५॥ राघौदासजी कृत भक्तमाल सम्पूर्ण ॥ ५५३ इंदव छंद चतुरदास कृत टोका का ॥६२॥ सरवस कवित २१८५॥ ग्रन्थ की श्लोक संख्या ४१०१ ॥ लिखतम् " शुभस्थान • पीतगरे मानीदास उदय लिपि कृते संवत १८८६ मिति बैसाख सुदी १०॥
सुभमस्तु ॥ हंसाल-४ ॥ राघौदासजी कृत संपूर्ण ॥ ॥ इंदव छंद ६२१ ॥ ग्रन्थ संख्या श्लोक-४१०१ ॥
कल्याणरस्तु ॥ साखी - ३८ ॥
चतुरदासजी लिखतं बोलता
संवत १८६७ भादवा सुद८ - राम राम
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