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राघवदास कृत भक्तमाल रास करै मनि हीर जरै नग, लाल धरै नृति गांन र तालं । रूप प्रकास मयंक उजासज, जीव हुलास लई गति लालं । कंठ ढरै अगुरी सु पुरै, मधुरे सु सुरै सुनिक रति पालं। ढोल बजै मृदंग सज, मुहचंग र जै दरियावजु हालं ॥२८३ हाथि चिराक दई गति देखत, कांन्ह लई लखि येह नई है । संकर-सैचरि जानत है हरि, मंद हसे द्रिग सैन दई है। टारन चाहत स्यौ नहि भावत, आइ कही ढिग मांनि लई है। जाई भजौ घरि टेरत प्रावत, देस गये जन ध्यानमई है ॥२८४ धांम जुदौ करि बिप्र-कन्यां बरि, दोइ सुता इक पुत्र भयौ है। साध पधारत लै धन वारत, ये पन पारत स्यांम नयो है। ब्राह्मन बंस भये सब कंसन, जांनत अंस सदोष लयो है। ये हरि लीन रहै जल मीन, महा परिवीन न पार दयौ है ॥२८५ संत पधारत तीरथ या पुर, पूछत है स हुंडी लिखि देव । बिप्र कहै इक सा नरसी बड़, जाइ धरौ रुपया पग लेवै । बारहि बार कहौ-र रहौ गिरि, पात पर्छ उनकी यहे टेवै । धांम बतावत ये चलि जावत, वेहि करी उठि अंक भरे वै ॥२८६ सात सतै रुपया गन देवत, लागत है पग बेगि लिखीजें। जांन लये बहकाइ दये इन, हूंडि लिखी यह सांवल दीजै। जात भये जान द्वारवती फिरि, पूछत चौटन पा तन खीजै । हेरत हारि रहे मरि भूखन, प्यास लगी जल बाहरि पीजै ।।२८७ सांवल साह बने हरि अावत, ल्यौ रुपया वह कागल ल्यावो। हे रत हारत भूख मरे कहि, मैं सुनि दौरत लाज मरावो। बास इकंत लखै हरि संत, लिखौं अब कागद दद्यौ उन जावो । है रुपया बह फेरि लिखौ ग्रह, जाइ दयो उरका सिर नावो ॥२८८ ऊठि मिले इन सांवल देखत, वैहु छके सतसंग यसौ है। व रुपया सब साध खुवावत, काम भये सिधि राम वसौ है। ठूछक को समयो-स सुता घरि, सास दुखावत भाव नसौहैं। बाप लिखावत मोहिं जरावत, द्यौ कछू पाइ र तौहु र सौहै ।।२८९ भल पुरातन आप पुरातन, बैल पुरातन जोइ र ल्याये। भेटन कौ पुतरी हु गई सुनि, नाहि कछू ढिग क्यु तुम आये।
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