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चतुरदास कृत टीका सहित
मुक्ति
लीये रछौंड़ी काच, मरदन कीयो तेल, राइ बहौं सेंन देखि नृप सिष भयो, आज जगत मांहि यह प्रकट है, सेन सर्म इंदव एक समैं जन सैन के संत, पधारे हु ते उन प्रीति लगाई । मंजन बेर भई नृप टेरत, श्रापन श्राइ भये तहां नाई । सैन सुन्यौ सम्जो' जब बीतिगौ, राजा के रामजी दाबिगौ पाई । राघो कहै अपने जन की, महिमां हरि श्रापन प्राप बधाई ॥१४०
छंद
छपै
१. समवो ।
भूप पैं प्रभु
भये
टोका
सेन भगत्त सु बांधू रहै गढ, नांपिक जाति रु संतन सेवै । नेमहि साधि चल्यौ नृप न्हांवन, प्रावन साध फिरयौ मन देवै । सेव करें जन नांहि डरै हरि, भूप नहावत पाइन भेवै । मैंन चल्यो फिरि जाइ मिल्यौ नृप, जांनि अचंभ कहा यह टेवे ।। १६७ भूप कही फिर क्यूं करि श्रावन, ढील भई घरि संत पधारे। मैं अब प्रावत भूप लग्यौ पगि, आप कृपा मम रांम सिधारे । सिष्ष भयो उर भाव लयो अर, प्रेम छ्यो सब पित्र उधारे । रीति वह अजहूं सुत नांतिन, और कुटंब करयौ निरधारे ॥। १६८
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मूल
गाये ।
पाये ।
चोखो ।
यम रसन' राम रस पीवतें, सही सुखानंद निसतरचौ ॥ गौड़ी राग गंभीर, हेत सूं हरि जस गगन मगन गलतांन, तृषि नृभं पद निज तन निगम रसाल, चाखि रस चित दे चौथौ फर फारीक, गहत कछू रहत न धोखो । जन राघो तर तृभवन- धरणी, सर्ब-घट - ब्यापक बिसतरचौ । यम रसन रांम रस पीवतैं, सही सुखानंद निसतरचौ ॥१४१ यौं रांमांनंद प्रताप तैं, जन राघो भेटे रांम कौं ॥ बड़ौ बित ब्रिद भक्ति-कंद भावानंद पायौ । यौं प्रखंड निज जाप, अहौं - निसि हरि हरि गायौ ।
२. रसिक । ३. तत ।
पधारे ।
सुखारे ।
मेरी करी ।
राखी हरी ॥ १३६
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