________________
चतुरदास कृत टीका सहित
[ १६५ जै हरिबंसहि राधिहु बल्लभ, नांव कहौ सिष पूछत लीयौ। देत भये सब बात कहौ मति, जाइ हुवो सिष छाड़त बीयो ।।५१०
मूल
छपै साधन की सेवा सरस, श्रीमुख प्रापन सौं कहै ॥
बूंदी बनियां राम, गांव रीदास विराजै । भाऊ जटियां नै, मंडौते मेह' न छाजै। मांडोठी जगदीस, दास पुनि दाऊ बारी। लक्षमन चढि थाबलि, गोपाल सलखांन उधारी। सुनि पति मैं भगवानदास, जोबनेरि गोपाल रहे। साधन की सेवा सरस, श्रीमुख प्रापन सौं कहै ॥३१६
गुपालभक्त की टीका इंदव जोबहिनेरि गुपाल रहैं जन, संतन इष्ट निबाह करयौ है। छंद बृक्कत होइ गयो कुल मैं, परक्षा करनें घर-द्वारि परयौ है।
आइ कही जन मांहि पधारहु, सुंदरि देखु न नेम धरयौ है। दूरि करौं तिय जाइ छिपावत, नैंन लखी मुख कौं स जरयौ है ।।५११ येक दई इक मानत है रिस, देहु कपोलहि दूसर प्यारी । नैन झरे सुनि जाइ लये पग, भक्तन की कछु रीति नियारी। संतन इष्ट सुन्यौ चलि आवत, पारिख लेत भई सिष भारी । आप कही जन भाव कहां हुत, संत सराहत सो मम ज्यारी ।।५१२
छपै
मूल जन राघौ रामहि मिले, येते बिग भये बांदरा ॥ इम गरीबदास गुर गोबिंद गायो, दीन भयो नहीं और सूं। मानदास जोरयो मन-बच-क्रम, हित चित जुगलकिसोर सूं। स्यांमदास के हरिनारांइण, स्यांमदीन सर्बगि भयो।
खेम रिसकजन हरिया हरि भजि, सर्व संतन को मत लयौ। तजि बृखलीपति कुल करतव्यता, कोयौ भगवत घरि सांदरा । जन राघौ रामहि मिले, येते बिग भये बांदरा ॥३१६
१. मोह।
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org