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भगतन की पंकति बिषै, लाखे भाग बंटाइयौं ॥
मारू कौ बसिया | संत-श्रंध्री-रज- रसिया ।
अधिक बनाई ।
बंस बानरै भयौ, देस नरपति प्राग्यां मांहि, राम नांम सूं मगन, सुमरनी नीलाचल जगनाथ, दंडौता राघौ प्रभु प्रष्ण भये, हूंडी पंकत बिषै, लाखे
करतौ
जाई ।
भक्तन को
इंदव बांनर बंस कौ जन' छंद संतन सेव करै बिधि
देरु
भाग
लाखा-भक्त को टोका
लाखहि, डौंम भयौ सबकै सिर मौरा । भोजन, पावत है सुख सांझ र भौरा । काल परचौ धरि स्वांग न ग्रावत, होइ निबाह न ताकत औौरा ।
१. अब ।
राघवदास कृत भक्तमाल
राति कही हरि गौहर भैसिहु, ल्यावत हैं करिये जन गौरा ।। ५१३ कोठि धरौ अन खूटत नाहि न काढि पिसाइ र रोट बनावौ । दूध जमाइ वीलोइरि चौपर, छाछि करौ फिरि यौ र जिमावौ । नैंन गये खुलि सो तिय भाखत, आइ स देत भये प्रभु गावौ । प्रातहि श्रावत गाडि र भैंसिहुं, रीति करी वह सन्त न भावी ॥ ५१४ क्यूं करि आवत गेहुर भैंसिहि, प्रीति कहौं ऊनकी नर धारै । गांव हुतौ ढिग होत सभा उत, टूटि गये भइया सु बिचार | भक्त कही इक दंड चुक्यौ ग्रह, त्यौ खबरें जन लाखहि तारें । गेहु पचास दये मन भैसिहु संग चले सबही सिरदारे ।।५१५ मुरधर तैं चलियो सुं दंडौतन, श्रीजगनाथ इसे पन जावें । वारि दयो तन हेत घनौं मन, देह धरें अनि तौ मुरभावे ।
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चलाइयौ ।
बटाइयौ ॥ ३१८
जाइ नर्जक लगे सुखपालहि, भेजि दई हरि लाखहि नांवे । देत बताइ गह्यौ कर जाइ, चलौ प्रभु पाइ सु बेग बुलावै ॥५१६ नांहि चढौं सुखपाल लयो पन, यौं करिये इन भांति निहारीं । स्यांम कही पहराइ सुमनहि, ल्यात बनाइ गरे महि धारौं । बैठि चले सुखपाल लखी मन, ग्राप बढावत है जन तारौं । जाइ निहारत श्रीजगनाथहि, जांनत सो द्रिग तें नहि टारों ॥५१७
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