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चतुरदास कृत टीका सहित
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मात मुक्कति करी उपदेसि र सांखि सुनाइ कपिल्ल सो नांमी । च्यारि सरूप धरे सनकादिक, ऐक दिसा इकही लछि प्रांमी ॥१५ जो अवतार सबै सुखदाइक, जीव उधारन कौं क्रम कीला । तास सरूप लगै मन आपन, जासहि पाइ परं मति ढीला | ध्यान करे सब प्रापति है निति, रंकन ज्यौं वित ल्यांवन हीला । च्यारि रु बीस करौ बकसीस, सुदेवन ईस कही यह लीला || १६
मूल- छपै
अवतारन के अंघ्रि द्वै, इते चहन नित प्रति बसै ॥ टे० ध्वजा संख षटकरण, जंबु फल चक्र पदम जव ।
सुबासव । करणा ।
बज्र अम्बर अंकुश, घेन पद धनुष सुधा कुम्भ सुस्त्यक, मंछ बिंदु तय अरधचन्द्र अठ-कौंरण, पुरष उरध-रेखा होगां । राघव साध सधारणा, चरनन मैं प्रतिसं लसै । अवतारन के अंघ्रि द्वं, इते' चिहंनि निति प्रति बसै ॥१७
टीका
इंदव साध सहाइन कारन पाइन, रांम चित्र सदाहि छद मंन मतंग स हाथि न प्रावत, अंकुस यौं उर ध्यान
बसाये ।
कराये ।
सीत सतावत है जड़ता नर, अम्बर ध्यान धरे मिटि नाये । फोरन पाप पहारन बज्रहि, भक्ति समुद्र कवल्ल बुडाये ॥ १८ जौ जग मैं जन देत बहौ गुन, जो चित सौं निति प्रीति लगावै । होत सभीत कुचाल कलू करि, ध्यांन धुजा निरभै पद पावै । गो-पद भव-सागर नागर, नैंन लगे हरि त्रास मिटावै । माइक जाल कुचाल अकालन, संख सहाइ करै मन लावै ॥ १६ कांम निसाचर मारन चक्रहि, स्वस्त्यिक मंगलचार निमत्ता । च्यारि फलें करि है निति प्रापति, जंबु फलैं धरि है सुभ चित्ता । कुम्भ सुधा हरिभक्ति भरचौ रस, पांन करें पुट नैननिनित्ता । भक्ति बढ़ांवन ताप घटांवन, चन्द्र धरचौ अछ जांनि सुबित्ता ॥ २०
१. हवं । २. निमित्ता ।
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