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भूमिका प्रहलाददासजी के शिष्य हरिदासजी के शिष्य थे। राघवदास की रचनाओं में उनकी वाणी, १, (अंग १७), साखी भाग, २, (सा० १६३७), अरिल ३७०, ३, (पद १७६ राग २६), ४, लघु ग्रन्थ २० (छन्द ५०४)५, ग्रन्थ उत्पत्ति, स्थिति, चितावरणी, ज्ञान, निषेध, (छन्द संख्या ४००-७२) की सूचना स्वामी मंगलदासजी ने दी है। भक्तमाल काफी प्रसिद्ध ग्रन्थ है ही। करौली में उनकी परम्परा का स्थान है। ____मंगलाचरण के ७ वें पद्य में राघवदासजी का भी वर्णन है। प्रस्तुत ग्रन्थ के पृष्ठ २४० में राघवदास के गुरु, बाबा गुरु, काका गुरु, गुरु भ्राता आदि का विवरण भी उन्होंने दिया है। उन पंक्तियों की ओर पाठकों का ध्यान प्राकर्षित किया जाता है। टीकाकार चतुरदास
प्रस्तुत भक्तमाल के टीकाकार चतुरदास हैं। संवत् १८५७ के भादवा वदि १४ मंगलवार को उन्होंने यह टीका बनाई। प्रशस्ति में उन्होंने नारायणदास की भक्तमाल को देखकर राघवदास ने भक्तमाल बनाई और प्रियादास की टीका को देखकर चतुरदास ने इन्दव छन्द में इस टीका की रचना की, लिखा है। अपनी परम्परा बतलाते हुये वे अपने को संतोषदास के शिष्य बतलाते हैं। प्रारम्भ में भी दादू के बाद सुन्दर, नारायणदास, रामदास, दयाराम, सुखराम और संतोष नामोल्लेख किया है।
चतुरदासजी की अन्य किसी रचना की जानकारी नहीं मिली। स्वामी मंगलदासजी ने दादूद्वारा, रामगढ़ के महन्त शिवानन्दजी से विशेष जानकारी प्राप्त करने के लिये लिखा था, उन्हें पत्र भी दिया गया और 'वरदा" के सम्पादक श्री मनोहर शर्मा को भी चतुरदासजी सम्बन्धी विशेष जानकारी उनसे प्राप्त कर भेजने के लिये लिखा गया, पर सफलता नहीं मिली।
इस तरह यथा-साध्य लम्बे समय तक प्रयत्न करने पर भी जो सामग्री प्राप्त नहीं हो सकी, उसके लिये विवशता है। खोज चालू है, अतः फिर कभी प्रास होगी, तो उसे लेख द्वारा प्रकाशित की जायगी। चतुरदासजी की टोका में मूल ग्रन्थ की अपेक्षा विशेष और नई जानकारी भी है, इसलिये इस टीका की महत्ता स्वयं सिद्ध है।
ग्रन्थ के अन्त में मूल भक्तमाल और टीका में आये हुये नामों की सूची देने । का विचार था, जिससे इस ग्रन्थ में कितने सन्त एवं भक्तजनों का उल्लेख हुआ
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