________________
भक्तमाल
है, उसकी जानकारी मिल जाती। पर उन नामों की अधिकांश सूचना आगे विस्तृत अनुक्रमणिका में दे ही दी गई है, इसलिये अन्त में नामानुक्रमणिका देने की उतनी आवश्यकता नहीं रह गई।
चतुरदास ने मंगलाचरण में राघवदासजी का वर्णन करते हुवे ठीक हो लिखा है कि इसमें सन्तों का यथार्थ स्वरूप बहुत थोड़े में कह दिया गया है :
सन्त सरूप जथारथ गाइउ, कीन्ह कवित्त मनू यह हीरा । साध अपार कहे गुण ग्रन्थन, थोरहु अांकन में सुख सोरा। सन्त सभा सुनि है मन लाइ र, हंस पिवे पय छाडि र नोरा ।
राघवदास रसाल विसाल सु, सन्त सबे चलि पावत के रा॥ प्रस्तुत ग्रन्थ का सम्पादन और प्राप्त हस्तलिखित प्रतियाँ
करीब १५-२० वर्ष पहले की बात है, मेरे विद्वान् मित्र श्री नरोत्तमदासजी स्वामी के पास स्वामी मगलदासजी के यहाँ से लाई हुई राघवदास के भक्तमाल को टोका सहित प्रेस कापी मुझे देखने को मिली। मुझे वह ग्रन्थ बहत ही उपयोगी और महत्त्व का लगा इसलिये उसकी प्रतिलिपि मैंने उसी समय करवा ली। तदनन्तर स्वामी मंगलदासजी को प्रेरणा दी कि वे इस महत्वपूर्ण ग्रन्थ को शीघ्र ही प्रकाश में लावें। पर उन्होंने कहा कि इसके प्रकाशन का प्रयत्न किया गया, पर अभी तक कहीं से कोई भी व्यवस्था नहीं हो पाई। इसके कुछ समय बाद मुनि जिनविजयजी से मैंने इस ग्रन्थ के प्रकाशन की चर्चा की और उन्होंने राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान की ग्रन्थमाला द्वारा इसे प्रकाशित करना स्वीकार कर लिया। मैंने उन्हें अपनी करवाई हुई प्रतिलिपि को भेज दिया और प्रेस की व्यवस्था भी कर दी गई। फर्मा कम्पोज भो हो गया, इसी बीच मुनिजो ने पुरोहित हरिनारायणजी के संग्रह में इसकी दो महत्वपूर्ण हस्तलिखित प्रतियाँ देखी, तो उनका आदेश हुआ कि उन प्रतियों के आधार से पाठ-भेद सहित उसका पुनः सम्पादन किया जाय, क्योंकि स्वामी मंगलदासजो वाली प्रेस-कॉपी में हस्तलिखित प्रतियों में प्राप्त पाठ से कुछ भिन्नता थी।
प्राचीनतम प्रति
__ मुनिजी के आदेशानुसार गोपालनारायणजी बहुरा द्वारा पुरोहित हरिनारायणजी के संग्रह की उपरोक्त दोनों प्रतियों को प्राप्त करके उनमें से जो प्रति
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org