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राघवदास कृत भक्तमाल
ज्ञांनी गिलौ न उच्चरहि, निंदत नहि मुख मोरि । ततबेता जिनतर कही, निपट तगा ज्यूं तोरि ॥१० महापुरष मदि तक रहि, तब पलटहि चक्षु दोई। प्रात्म अनभव ऊपज, सबद संचौ यौं' होइ ॥११ इह जीव जंबूरा बापरौ, करै कौन सौं टेक । राघो तउ कबि कहेंगे, तेरी कला न माने येक ॥१२॥५५२ माया को मद ऊतर, सुनि साधन की साखि । कथा कीरतन भजन पन, हित सू हिरदै राखि ॥१३ अठसिठ तीरथ कोटि जगि, सहस गऊ दे दांन । इन सबहिन सूं अधिक है, सत-सगति फल मान ॥१४ भगवत गीता भागवत, त्रितय सहसर-नांम । चतुर स्तोतर अवर सब, पंचम पूजा धाम ॥१५॥५५३ गाइत्री गुर-मंत्र लखि, अठसाठ तीरथ न्हाइये । भक्तमाल पोथी पढत, इतनौं तत फल पाइये ॥१६ भक्त बछल कृत भक्त कृत, श्रब कृत श्रब धर्म को गलौ। राघो करि है रामजी, श्रोता वक्ता को भलौ ॥१७ भक्तबहल बृद रावरौ, बदत बेद च्यारूं बरण । जन राघो रटि राति-दिन, भक्तमाल कलिमल-हरण ॥१८॥५५४ संबत सत्रह-सै सत्रौंतरा, सुकल पक्ष सनिबार ।
तिथि त्रितीया आषाड़ की, राघो कोयौ बिचार ॥१६ चौपाई दीपा बंसी चांगल गोत। हरि हिरदे कीन्हौं उद्योत ॥
भक्तमाल कृत कलिमल-हरणो । प्रादि अंति मधि अनुक्रम बरणीं ॥२० सीखे सुरणे तिर बैतरणी। चौरासी की होइ निसरणी ॥ साध-संगति सति सुरग निसरणी। राघो अगतिन कौं गति करणों ॥२१॥५५५
इति श्री राघोदासजी कृत भक्तमाल संपूर्ण ॥ समाप्त मनहर अग्र गुर नामा जू कौं आज्ञा दीन्हीं कृपा करि, छंद
प्रथमहि साखि छपै कीन्ही भक्तमाल है। .. पीछ प्रहलाद जू बिचार कही राघो जू सू,
करो संत आवली सु बात यौ रसाल है।
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