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राघवदास कृत भक्तमाल भूप लख्यौ परभाव परयौ पग, दुष्टपणौ तजि यौं मति भीनीं। नौतम गांव दयौ उन केतक, भाग फल्यौ मम आजहि चीन्ही ॥३५७ भक्त भयौ गज संतन सेवत, देखि प्रनाम करें जननी के। ल्यावत गौनि उठाइ र बार न, नाइक जाइ पुकारत पोकै। आवत उच्छत्र सीतहि पांवन, आप दुयें कहि निंद कही के। छोड़ि दई गति भक्तन सू मति, संग समूह रहै सुख जीके ॥३५८ संग रहै जन पांच सतंछय, जाइ जहां नर ल्यावत सीधा। बात भई दसहूं दिसि कौं यह, सूरज चाहि न पावत गीधा। संत गयौ इक प्रांनि दयौ गहि, नीर न पीवत सीतहि बीधा। बीति गये दिन तीन र च्यारिहु, गंग गये तन त्यागन कीधा ॥३५६
छपै
जकरी जन गोपाल को, जगत मांहि पर्वत भई ॥ नरहड़ सहर न्यावजि' देस, वागड़ बर कीयौं । नवधा भक्ति बखांनि, येक दासत्व बर्त लीयो। बक्ता बड़ भागौत, साध परखत मैं सोहै।
छेदक संसय गृन्थि, भक्ति बल सब कौं मोहै। संत दया उर निति चहै, भावत स्यांमां स्यांम ई। जकरी जन गोपाल की, जगत मांहि परबर्त भई ॥२३३ कृष्णदास की चरचरी२, सकल जगत मैं बिसतरी॥
चालक कीयौ चरित, कोप वासव को नीकौ । पंचाध्याई पाठ प्रगट, प्यारौ प्रिया पीकौ । केलि रुकमनी कृष्ण, कहो भोजन सघराई ।
परबतधरकी छाप, काबि मैं जहां तहां लाई। जाडौ संग्या पाइ के, जग की सब जड़ता हरी। कृष्णदास की चरचरी, सकल जगत मैं बिसतरी ॥२३४ संतदास को सेव हरि, प्राइ निवाई पाइ है॥ बिमलानंद प्रबोध, बंस उपज्यौ धर्म सीवां । प्रभु जन जांनि समान, दोइ बल गाये ग्रीवां ।
१. निवाज । २. टी. राग। ३. सुघुराई।
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