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राघवदास कृत भक्तमाल काटत ही जमुना स किरारनि, बंसिबडं तटि देखि अनपं । दौरि लगे पगि र' आप भये जड़, है अजहूं गोपिनाथ सरूपं ॥३४७
कृष्णदास ब्रह्मचारी की टीका मोहन काम सरूप सनातन, सीस धरे भल पूजन कीजै । कृष्ण सुदास मनुं ब्रह्मचारिहु, भट्ट नरांइन सिष्ष जु भीजै । चारु सिगार करैहु निहारत, चेत गहि नहि यों मन दीजै। राग रु भोग बखांन करूं किम, है अजहूं उन देखि र जीजै ॥३४८
कृष्णदास पंडित को टीका गोविंद देव सरूप सिरोमनि, पंडित कृष्ण सुदास प्रमांनौ । सेवन सूं अनुराग सु अंगनि, पागि रही मति है मन जानौं । प्रीत करै हरि भक्तन सौं बहु, दे परसाद सुपद्धित मांनौं । रीति सुते प्रतीति बिनी तिहु, चाल चले वहि और न आनौं ॥३४८
___ भूप्रभ गुसांई को टोका भूप्रभ जू बसिक रु बृदाबन, कुंजन को सुख गोबिंद लोयो। है बिरकतहि रूप सुमाधुर, स्वाद लयो मिलि भक्तन जीयो। मानसि भोग लगाइ निहारत, तवै हि जुगल सरूप सु पीयो। बुद्धि समांन बखांन करयौ बहु, रंग भरयौ रस जांनि र कीयौ ॥३४९
मूल राघो रिसिक मुरारि धनि, प्रति प्रमोध पूरब कोयौ ॥
राजा खल खंडेत दक्षत, करि करम छुड़ाया। भाव भगति पन थप्यो, भरम गहि अधर उड़ाया। तन मन धन सर्बस, अरपि साधन कौं दीजै।
मनिख जनम फल येह, देह धरि लाहा लीजे। करहि कोरतन रैनि दिन, प्रेम प्रोति उमगै होयौ । राघो रसिक मुरारि पनि, अति प्रमोघ पूरब कीयौ ॥२३२
टीका इंदव 'संतन सेव बिचारि करै विधि, पार न पावत कौंन मुरारी। छंद साधन के चरणांमृत के घरि, माट भरे रहि पूजन धारी।
१. गरि।
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