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राघवदासजी द्वारा
ग्रन्थ-समर्पण मगन महोदधि है भरचौ, जन पूजत डरपै । वह गंभीर गहरौ भरयौ, यह तुछ जल अरपै । रती यक किरची कंचन की, ले मेरहि परसै ।
देखत निजर न ठाहरै, कंचनमय दरसै। जैसे सुरतर कौं धजा, रचि पचि प्ररपै नैंक नर। त्यूं रघवा इत पूजिक है, उत हरिजन त्रिय-ताप-हर ॥
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