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चतुरदास कृत टोका सहित
[१९ पाव पतिसाहि रा परसि चाकर थक्यौ,
__ अलि थक्यौ परसि परजात' फल चाड़। आन रौ ग्यांन सुनि थिर न प्रात्म भई,
यौं रजब री कथा सुनि परी अनि पाड़। भूख भागो जबै भेटि अन तूं भई,
प्यास भागी तब नीर पीयौ । रजब री रहम सूं फहम लाधो सबै,।
यौं अटल रटि मोह नौंर कजीयौ ॥३८४
साखो
रज्जब दोऊ राह बिच, करड़ी तुभझ कारण ।
मनमथ राख्यौ मुरड़ि के, जुरड़ि न दीधो जाण ॥[३८५] इंदव ज्यूं बसि मंत्रक पावत बीर, जहां जस योग तहां तस मूं। वंद ज्यूं धर्मराजक काज करै सब, दूत अनेक रहै ढिग ढूके ।
ज्यूं नप के तप तेजत कंपत, पास रहैं नर प्राइ कहूं के। असहि भांति सबै दृसटंत सु, प्राग खड़े रहि रज्जबजू के ॥३८६ संझ समैं जु सबै सु रही धरि, प्रात चली जस बछक रागें । भूपति को भय मांनि दुनी जु, अनीति बिसारी सुनीति सु लागें । मोहन ज्यूं बसि मंत्र क बीर, प्रभाति चटा-चट सार कु जागे । यौंहि कथाक समैं दिसटतस, प्राइ रहै घिरि रज्जब प्रागें ॥३८७
छपै
___ मोहनदास मेवाड़ा को बरनन दादू दीनदयाल के, मोहन मेवाड़ौ भलौ ॥ . कीयौ स्वरोदय ज्ञान, सूर ससि कला बताई। . नाड़ी त्रिय तत पंच, रंग अंगुल मपबाई। रोगी गरभ प्रदेस, जुद्ध पग बार गणाये।
लगन काल अकाल, असुभ सुभ काज लखायें। हठ जोग निपुन राघो कहै, समाधिवंत गुण को गलौ। दादू दीनदयाल के, मोहन मेवाड़ौ भलौ ॥३८८
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१. परिजात=कल्पवृक्ष ।
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