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राघवदास कृत भक्तमाल
तोरचौ ।
बन्यौं महत समाज, तहां नृषि नौ गुन नंपर गुह्यौ निसंक, कांन्ह के चरन चहौरयौ । इम राघो रीति बड़ेन की, पन के तांई दें श्रि । ब्यास गुसांईं बिमलचित, बांनां सूं प्रतिसै बिनें ॥ २५७ टीका ब्यास जू गुसांईं को
इदव प्रत भये ग्रह छाड़ि बृन्दाबन, हेत इसौ रन त्यागत खीजै । छंद भूप चलावत आप न भावत, सेव किसोरहु मैं मन भीजै । पाग जरीन रहै सिर चीकन, बांधन द्यौ नाहि आप बधो । कुंज गये उठि प्रत भई सुधि मंजु रह्यौ बंधि क्यूं मम री ॥ ३८६ साधन साथि प्रसाद करें जन, घालत है सुतिया परबीनी । पै बताइ थरें निज डारत, कोप करयौ पति पोषत चीनी । दूरि करी तब रोइ मरी दिन, तीनहु भूख सही तन खीनी । कँत सबै भरि दंड अब सब, भूख न देरि करी जुरे अधीनी ॥ ३६० ब्याह सुताहि उछाह करयौ, पकवांन सबै बर आप कराये । संतन यादि करे मति लावत, भाव सहेतहु भोग लगाये | यात भये जन बेगि बुलावत मोटन बांधि र कुंज पठाये। बस दई द्विज भक्ति करौ चिरि, यां धरि संपट साध बसाये || ३६१ रास रच्यो सर पिय प्यारि ये, रंग बढ्यौ किम जात सुनायो । प्यारि लई गति दांमनि-सी दुति, ह्वे चकचौधिरु मंडल छायो । नूपर टूटि गिरयौ मन सोचत, तोरि जनेऊ करौ उहि भायौ । कैत सबै यह कांम सुप्रावत, बोझ सह्यौ निति सो फल पायौ ॥ ३६२ भक्तन इष्ट सुन्यौं इक म्हंतहु, आवत पारख कौं जन भीरा । भूख जनावत ब्यास सुनावत, आप सुनी झट ल्यावत मांनत नांहि धरी मन संकहु, पात उठे मनु होवत पीरा । पातरि लेवत सीत दयौ मम, और भजो पग ले द्रिग नीरा ॥३६३ तीन भये सुत बांटित है बित. पूजन येकन धन्न धरौ है । छाप रुस्यांम धरी बिंदनी इक, रीति निहारि र सौच परयौ है । येक किसोर लये इक नै बसु, दास किसोर तिलक करयौ है । छाप दई हरिदास सु रास करयौ है, ललितादिक चित्त हरयौ है || ३६४
धीरा ।
१. गुह ।
२. सु । ३. गिह्यौ ।
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