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राघवदास कृत भक्तमाल
नांखि दयो पट पीत लयो करि, प्राइ गयी सुधि बेस बनायो । बैठि खंवावत केरन छीलक, आइ खिज्यौ पति यौं दुख पायो ।।५४ आप लग्यौ फलसार खवावन, चैन भयौ तिय कौं समझाई। कृष्ण कहै यह स्वाद लगै मम, प्रेम मिल्यौ वह हौं सरसाई । नारि कही जरि जाहु यहैं कर, छचौंत खवाइ महा पछिताई। हेत बखांनि करयौ उन दंपति, जांनत सो हरि भक्ति कराई ॥५५
चंदरहास को टोका भूपति कै सुत चंदरहास जु, खोसि लियो पुर औरस ल्याई । धृष्टि वुधी घरि आप रहै सुत, बालन मैं निति केलि कराई। बिप्रन को सम दाइ भयौ जित, जाइ कुमारन धूम मचाई। बोलि उठे दिज ह कवर बर, बालन यौं सुनि लाज न माई ॥५६ सोच परचौ अति येह बिचारत, होइ इसौ पति मोर सुता कौ। प्रांन बिनां करिये उर मैं यह, नीच वुलाइ लये सउ ताको। आरनि चालि गये छबि देखि र, जो निजरौ हम सोचिहु ताकौ । मारत हैं अब कौंन सहाइक, बाहन मैं कर नैंन जु ताकौ ॥५७ मांनि लई यक गोल कपोलन, काटिरु' सेव करी अति नीकी। होइ गयो हरि रूप ततत्पर, जोरि लये कर वाहि कही की। आइ दया मुर्छाइ परे धर, भक्ति भई क्रम दाट न पीकी । काटि लई छटई अगुरी उन, जाइ दई दुखदाइक जी की ॥५८ देस रहै लघु भूप सबै सुख, पुत्र बिनां दुख पावत भारी। आरनि आइर देखत बालक, छांह करै खग सी रखवारी । दौरि उठाइ लयो सु गयो पुर, मांनत मोद घरणी श्रियवारी। होत घणे दिन जांनि लयो मन, राज दयो इन भक्ति पियारी ॥५६ देसपती कछू भूप न पावत, फौज दई र दिवांन पठायो। आंनि मिल्यौ वह जांनि लयो उन, मारन कौं इक फम उपायो। कागद हाथि दयो सुत दीजिये, बात करौ वह मोहि खनायो। पासि गयो पुर बाग बिराज र, सेव करी फिर सैन करायो ॥६०
१. काठि
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