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________________ चतुरदास कृत टीका सहित [ २२१ दुखदलन मरदन मदन, नेह नेम हरि लाल कौ। संतन सेवा कारनें, यहु तन माधौ ग्वाल कौ ॥४६८ विदत बहुत लछि प्रेतनिधि, नम दिज तिन संग्या धरी॥ उत्म सहज सुहिद, मिष्ट गिर पानंद दाता। संतन कौं सुखकार, प्रेमां नौमांतर राता। भवन मांहि बैराग, तत्वग्र ही भव न्यारा। नेम सनातन धर्म, भक्त निति लगे पियारा । सहर आगर करि कृपा, कथा पृथी पावन करी। बिदत बहुत लछि प्रेमनिधि, नम दिज तिन संग्या धरी ॥४६६ टोका इंदव प्रेमनिधी बसि है पुर आगर, सेवन कौं तरकै जल ल्यावै । छंद चातुरमास जहं-तहि कर्दम, सोच करें किम अप्रस प्रांवें ! जो चलि हौं तम मै बिगरै सब, तौ हु चले नर छूत न भावै । द्वारहु ते सुकुमार लख्यौ इक, हाथि चिराक इनै लगि जावें ।।६०४ मांनत यू पहुचाइ चल्यौ किन, जो टलि है सुख को उघरी है। आत भयो जमुना लग पात्रज, न्हात भये बुद्धि 4 सु हरी है। कुंभ धरयौ सिर आइ गयौ वह, छोड़ि गयो कौंन करी है। होत भई चित चिंत गयौ बित', मित बिनरं दिग होत झरी है ॥६०५ कैत कथा सु हरै चित भाव, भरै किरणा करि दुष्ट जरै है। जाइ कही पतिस्याह रिसावत, लोग बड़े तिय धांम भरै है। चौपहिदार पठाय बुलावत, तोइ धरौं वह सोर करै है। लेर गयौ नृप बूझत रंगहि, नारि करौ परसंग बुरौ है ॥६०६ गाथ कहौं प्रभु कान्हहि की नर, नारिहु आइ रहै उन प्यारो। ना बरजै न बुलावन जावत, नांहि बिष तिय है महतारी। बात भली तुम तौ कहि दीन सु, तो ढिग के नर कैत नियारी। भूप कही इन राखहु देखहि, रोकि दथे तब तो हरि धारी ॥६०७ पौढत हौ पतिस्याह कही निसि, इष्ट धरयौ वहि को कहि प्यासे । आब पिवौ कित है सु परै ढिह, पांवहि कौंन खिजे पुनि खासे । १. छित। २. किन । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003832
Book TitleBhaktmal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghavdas, Chaturdas
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1965
Total Pages364
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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