Book Title: Bhagvati Sutra Part 02
Author(s): Ghevarchand Banthiya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र द्वितीय भाग शतक ३,४,५,६ प्रकाशक श्री अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ, जोधपुर शाखा - नेहरू गेट बाहर, ब्यावर - 305901 (01462) 251216, 257699, 250328 For Personal & Private Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ************************* ********* श्री अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ साहित्य रत्नमाला का १५ वाँरल गणधर भगवान् सुधर्मस्वामि प्रणीत भगवती सूत्र ********************************************* 米米米米米 ( व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र ) द्वितीय भाग ( शतक ३-४-५-६ ) सम्पादक पं. श्री घेवरचन्दजी बांठियाँ “वीरपुत्र " ( वर्तमान पं. श्री वीरपुत्र जी महाराज) न्याय व्याकरणतीर्थ, जैन सिद्धांत शास्त्री -प्रकाशक श्री अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ, जोधपुर शाखा - नेहरू गेट बाहर, ब्यावर - 305901 T (01462) 251216, 257699 Fax No. 250328 ********************************** ******************************* For Personal & Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्य सहायक उदारमना श्रीमान् सेठ जशवंतलाल भाई शाह, बम्बई प्राप्ति स्थान 251216 १. श्री अ. भा. सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ, सिटी पुलिस, जोधपुर २. शाखा- अ. भा. सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ, नेहरू गेट बाहर, ब्यावर ३. महाराष्ट्र शाखा-माणके कंपाउंड, दूसरी मंजिल आंबेड़कर पुतले के बाजू में, मनमाड़ ४. श्री जशवन्तभाई शाह एदुन बिल्डिंग पहली धोबी तलावलेन पो० बॉ० नं० 2217, बम्बई - 2 ५. श्रीमान् हस्तीमल जी किशनलालजी जैन प्रीतम हाऊ० कॉ० सोसा० ब्लॉक नं० १० स्टेट बैंक के सामने, मालेगांव (नासिक) 252097 ६. श्री एच. आर. डोशी जी - ३६ बस्ती नारनौल अजमेरी गेट, दिल्ली-६ 23233521 ७. श्री अशोकजी एस. छाजेड़, १२१ महावीर क्लॉथ मार्केट, अहमदाबाद 35461234 ८. श्री सुधर्म सेवा समिति भगवान् महावीर मार्ग, बुलडाणा ६. श्री श्रुतज्ञान स्वाध्याय समिति सांगानेरी गेट, भीलवाड़ा 236108 १०. श्री सुधर्म जैन आराधना भवन २४ ग्रीन पार्क कॉलोनी साउथ तुकोगंज, इन्दौर ११. श्री विद्या प्रकाशन मन्दिर, ट्रांसपोर्ट नगर, मेरठ (उ. प्र. ) 2626145 १२. श्री अमरचन्दजी छाजेड़, १०३ वाल टेक्स रोड़, चैन्नई 25357775 १३. श्री संतोषकुमार बोथरा वर्द्धमान स्वर्ण अलंकार ३१४, शांपिग सेन्टर, कोटा 2360950 सम्पूर्ण सेट मूल्य : ३००-०० चतुर्थ आवृत्ति १००० मुद्रक वीर संवत् २५३२ विक्रम संवत् २०६३ अप्रेल २००६ स्वास्तिक प्रिन्टर्स प्रेम भवन हाथी भाटा, अजमेर के 2423295 For Personal & Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | निवेदन । सम्पूर्ण जैन आगम साहित्य में भगवती सूत्र विशाल रत्नाकर है, जिसमें विविध रत्न समाये हुए हैं। जिनकी चर्चा प्रश्नोत्तर के माध्यम से इसमें की गई है। प्रस्तुत द्वितीय भाग में तीन, चार, पांच और छह शतक का निरूपण हुआ है। प्रत्येक शतक के कितने उद्देशक हैं और उनकी विषय सामग्री क्या है? इसका संक्षेप में यहाँ वर्णन किया गया है - शतक ३ - तीसरे शतक में १० उद्देशक हैं, उनमें से पहले उद्देशक में चमर की विकुर्वणा, दूसरे उद्देशक में उत्पात, तीसरे में क्रिया, चौथे में देव द्वारा विकुर्वित यान को साधु जानता है? पाँचवें में साधु द्वारा स्त्री आदि के रूपों की विकुर्वणा, छठे में नगर सम्बन्धी वर्णन, सातवें में लोकपाल, आठवें में अधिपति, नववें में इन्द्रियों संबंधी वर्णन और दसवें में चमरेन्द्र की सभा संबंधी वर्णन है। शतक ४ - चौथे शतक में १० उद्देशक हैं। इनमें से पहले के चार उद्देशकों में विमान सम्बन्धी कथन किया गया है। पाँचवें से लेकर आठवें उद्देशक तक के चार उद्देशकों में राजधानियों का वर्णन है। नवमें उद्देशक में नैरयिकों का वर्णन है और दसवें उद्देशक में लेश्या सम्बन्धी वर्णन है। शतक ५ - पाँचवें शतक में १० उद्देशक हैं। प्रथम उद्देशक में सूर्य सम्बन्धी प्रश्नोत्तर हैं। ये प्रश्नोत्तर चंपानगरी में हुए थे। दूसरे उद्देशक में वायु सम्बन्धी वर्णन हैं। तीसरे उद्देशक में जालग्रन्थि का उदाहरण देकर वर्णन किया गया है। चौथे उद्देशक में शब्द सम्बन्धी प्रश्नोत्तर है। पाँचवें उद्देशक में छद्मस्थ सम्बन्धी वर्णन है। छटे उद्देशक में आयुष्य सम्बन्धी, सातवें उद्देशक में पुद्गलों के कंपन सम्बन्धी, आठवें उद्देशक में निर्ग्रन्थ-पुत्र अनगार सम्बन्धी, नववें उद्देशक में राजगृह सम्बन्धी और दसवें उद्देशक में चन्द्र सम्बन्धी वर्णन है, यह वर्णन चम्पा नगरी में किया गया था। शतक ६ - छठे शतक में १० उद्देशक हैं। इनमें क्रमशः १. वेदना, २. आहार, ३. महाआस्रव, ४. सप्रदेश, ५. तमस्काय, ६. भव्य, ७. शाली, ८. पृथ्वी, ६. कर्म और १०. अन्ययूथिक वक्तव्यता है। For Personal & Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [4] ••••••••••••••••••••rrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrs.srkstrom.... उक्त चारों शतक एवं उद्देशकों की विशेष जानकारी के लिए पाठक बंधुओं को इस पुस्तक का पूर्ण रूपेण पारायण करना चाहिये। ___ संघ की आगम बत्तीसी प्रकाशन में आदरणीय श्री जशवंतभाई शाह, मुम्बई निवासी का मुख्य सहयोग रहा है। आप एवं आपकी धर्म सहायिका श्रीमती मंगलाबेनशाह की सम्यग्ज्ञान के प्रचार-प्रसार में गहरी रुचि है। आपकी भावना है कि संघ द्वारा प्रकाशित सभी आगम अर्द्ध मूल्य में पाठकों को उपलब्ध हो तदनुसार आप इस योजना के अंतर्गत सहयोग प्रदान करते रहे हैं। अतः संघ आपका आभारी है। : आदरणीय शाह साहब तत्त्वज्ञ एवं आगमों के अच्छे ज्ञाता हैं। आप का अधिकांश समय धर्म साधना, आराधना में बीतता है। प्रसन्नता एवं गर्व तो इस बात का है कि आप स्वयं तो आगमों का पठन-पाठन करते ही हैं, साथ ही आपके सम्पर्क में आने वाले चतुर्विध संघ के सदस्यों को भी आगम की वाचनादि देकर जिनशासन की खूब प्रभावना करते हैं। आज के इस हीयमान युग में आप जैसे तत्त्वज्ञ श्रावक रत्न का मिलना जिनशासन के लिए गौरव की बात है। आपके पुत्र रत्न मयंकभाई शाह एवं श्रेयांसभाई शाह भी आपके पद चिह्नों पर चलने वाले हैं। आप सभी को आगमों एवं थोकड़ों का गहन अभ्यास है। आपके धार्मिक जीवन को देख कर प्रमोद होता है। आप चिरायु हों एवं शासन की प्रभावना करते रहें, इसी शुभ भावना के साथ। इसके प्रकाशन में जो कागज काम में लिया गया है वह उच्च कोटि का मेफलिथो है साथ ही पक्की सेक्शन बाईडिंग है बावजूद आदरणीय शाह साहब के आर्थिक सहयोग के कारण अर्द्ध मूल्य ही रखा गया है। जो अन्य संस्थानों के प्रकाशनों की अपेक्षा अल्प है। ___ संघ की आगम बत्तीसी प्रकाशन योजना के अन्तर्गत भगवती सूत्र भाग २ की यह चतुर्थ आवृत्ति श्रीमान् जशवंतलाल भाई शाह, मुम्बई निवासी के अर्थ सहयोग से ही प्रकाशित हो रही है। आपके अर्थ सहयोग के कारण इस आवृत्ति के मूल्य में किसी प्रकार की वृद्धि नहीं की गयी है। संघ आपका आभारी है। पाठक बन्धुओं से निवेदन है कि वे इस चतुर्थ आवृत्ति का अधिक से अधिक लाभ उठावें। ब्यावर (राज.) संघ सेवक दिनांकः ४-४-२००६ नेमीचन्द बांठिया अ. भा. सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ, जोधपुर For Personal & Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धि-पत्र M.N.MAARAAN - ... पंक्ति गुद्ध अशुद्ध सदपरिवाराणं पुद्गलों के विशेरुता दिध्य -मंगललंक्कारेण छारियभूया संगइस्स सुमहल्लवि पव्वज्जाए पुढवीसिलावट्टए कपात सपरिवाराणं पुद्गलो को विशेषता दिव्य -मंगललंकारेण अंतिम रयम्भूया संगइयस्स सुमहल्लमवि पव्वज्जाए पव्वइत्तए पुढवीसिलावट्टए कंपता भंग भंग किन्तु ७०० ७०६ ते णं ७३१ मूलपाठ में अंतिम ७४७ ७५४ कित्तु तं णं मूलपाठ त्रिभागणा तत्स्पर्शभूमण्लड दिन परिमाण स च्चेव मनुष्यों से अनणंरागमे तिभागणा तत्स्पर्शपने परिणम जाती है। भूमण्डल दिन के परिमाण सच्चेव मनुष्यों में से अणंतरागमे ७७० ८१९ For Personal & Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंक्ति पृष्ठ ८५० १४ ९३८ ९३९ ९६८ ९६८ ९७० १०३९ १०५८ १०६५ अशुद्ध शुद्ध को से को ये न होने · न होने से. और और क्पोंकि क्योंकि कम्मरणे कम्मकरणे अणायं असायं धौर और वांधता बांधता जीहों जीवों सागरोवमकोडाकोडीओ सागरोवमकोडाकोडीओ कालो क्षोम क्षोभ वाले वाले वाले अंतिम For Personal & Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमांक ११० विषयानुक्रमणिका शतक- ३ पृष्ठ क्रमांक १०५ चमरेन्द्र की ऋद्धि १०६ वैरोचनराज बलीन्द्र नागराज धरणेन्द्र १०७ १०८ देवराज शकेन्द्र की ऋद्धि १०९ ईशानेन्द्र आदि क़ी ऋद्धि और विकुर्वणा कुरुदत्तपुत्र अनगार आदि की ऋद्धि १११ ईशानेन्द्र का भगवद्वंदन ११२ ईशानेन्द्र का पूर्व भव ११३ बलिचंचा के देवों का आकर्षण विषय उद्देशक - १ और निवेदन ११४ तामली द्वारा अस्वीकार ११५ ईशानकल्प में उत्पत्ति ११६ असुरकुमारों द्वारा तामली के शव की कदर्थना ५३३ ५४८ ५५० ५५३ ५६१ ५६२ ५६७ ५७१ ५८१ ५८५ '૮૬ ५८७ ५८९ ५९१ ११७ ईशानेन्द्र का कोप ११८ असुरों द्वारा क्षमा-याचना ११९ शकेन्द्र और ईशानेन्द्र के विमानों की ऊँचाई १२० दोनों इन्द्रों का शिष्टाचार १२१ सनत्कुमारेन्द्र की मध्यस्थता १२२ सनत्कुमारेन्द्र की भवसिद्धिकता ६०१ ५९९ विषय उद्देशक-२ असुरकुमार देवों के स्थान ६०६ असुरकुमारों का गमन सामर्थ्य ६०८ असुरकुमारों के नन्दीश्वर गमन का कारण १२६ असुरकुमारों के सौधर्मकल्प में जाने का कारण आश्चर्य कारक 253 १२४ १२५ १२७ १२८ १२९ १३० १३१ १३२ १३३ १३४ ५९५ १३५ ५९६ १३६ १३७ चमरेन्द्र का पूर्वभव चमरेन्द्र का उत्पात फैकी हुई वस्तु को पकड़ने की देव-शक्ति इन्द्र की ऊर्ध्वादि गति चमरेन्द्र की चिन्ता और वीर वन्दन उद्देशक - ३ कायिकी आदि पांच क्रिया क्रिया और वेदना जीव की एजनादि क्रिया प्रमत्त संयत और अप्रमत्त संयत का समय लवण समुद्र का प्रवाह For Personal & Private Use Only पृष्ठ ६१० ६१२ ६१४ ६१७ ६२२ ६३७ ६४० ६४५ ६५१ ६५५ ६५६ ६६५ ६६८ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमांक विषय पृष्ठ । क्रमांक विषय उद्देशक-४ उद्देशक-९ १३८ अनगार की वैक्रिय शक्ति ६७० | १५४ इन्द्रियों के विषय "७३२ १३९ वायुकाय का वैक्रिय ६७३ उद्देशक-१० मेघ का विविध रूपों में परिणमन १५५ इन्द्र की परिषद् ७३४ १४१ उत्पन्न होने वाले जीव की लेश्या ६७६ शतक-४ १४२ अनगार की पर्वत लाँघने की शक्ति उद्देशक-१, २, ३, ४ १४३ प्रमादी मनष्य विकुणिा करते हैं ६८३ ८२ | १५६ ईशानेन्द्र के लोकपाल ७३९ उद्देशक-५ उद्देशक-५, ६, ७, ८ १४४ अनगार की विविध प्रकार की | १५७ लोकपालों की राजधानियाँ ७४२ वैक्रिय शक्ति ६८६ १४५ अनगार के अश्वादि रूप ६९२ उद्देशक-९ | १५८ नैरयिक ही नरक में जाता है ७४४॥ उद्देशक-६ उद्देशक-१० १४६ मिथ्यादृष्टि की विकुर्वणा ६९७ | | १५६ लेश्या का परिवर्तन ७४६ १४७ सम्यग्दृष्टि अनगार की विकूर्वणा ७०१ शतक-५ १४८ चमरेन्द्र के आत्म-रक्षक ७०६ उद्देशक-७ उद्देशक-१ १४९ लोकपाल सोम देव १६० सूर्य का उदय अस्त होना ७५१ १५० लोकपाल यम देव | १६१ दिन-रात्रि मान ७५६ १५१ लोकपाल वरुण देव १६२ वर्षा का प्रथम समय ७६१ ७२० १५२ लोकपाल वैश्रमण देव १६३ हेमन्तादि ऋतुएँ और अयनादि ७६४ १६४ लवण समुद्र में सूर्योदय ७६८ उद्देशक-८ १६५ धातकी खंड और पुष्करार्द्ध में : १५३ देवेन्द्र सूर्योदय ७७० ७०८ ७२३ ७२७ For Personal & Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमांक १६६ स्निग्ध पथ्यादि वायु १६७ वायु का स्वरूप १६८ ओदन आदि के शरीर १६९ लवण समुद्र १७० १७१ पिपय उद्देशक - २ १७२ १७३ उद्देशक - ३ - अन्यतीर्थियों की आयु-बन्ध विषयक मान्यता आयुष्य सहित गति उद्देशक-४ पृष्ठ ७७४ ७७८ ७८१ ७८५ ७८७ ७९० शब्द श्रवण छद्मथ और केवली का हंसना व निद्रा लेना ७९८ १७४ शक्रदूत हरिर्नंगमेषी देव ८०२ १७५ श्री अतिमुक्तक कुमार श्रमण ८०५ १७६. दो देवों का भगवान् महावीर से मौन प्रश्न ७९४ ८०९ ८१४ ८१६ ८१७ ८१९ ८२१ १७७ देव, नोमयत १७८ देवों की भाषा १७९ छद्मस्थ सुनकर जानता है। १८० प्रमाण १८१ केवली का ज्ञान १८२ अनुत्तरौपपातिक देवों का मनोद्रव्य ८२४ १८३ केवली का असीम ज्ञान ८२६ १८४ केवली के अस्थिर योग ८२८ १८५ चौदह पूर्वधर - मुनि का सामर्थ्य ८३० श्रमांक १८६ १८७ वेदना १८८ कुलकर आदि १९० १९१ १९२ १६३ १९४ १९५ १९६ १९७ १९८ १९९ २०० २०१ २०२ उद्देशक - ६ १८९ अल्पायु और दीर्घायु का कारण ८३९ भाण्ड आदि से लगनेवाली क्रिया ८४५ अग्निकाय का अल्पकर्म महाकर्म ८५१ ८५२ ८५६ आधाकर्मादि आहार का फल ८५८ आचार्य उपाध्याय की गति २०३ २०४ २०५ २०६ विषय २०७ उद्देशक - ५ केवलज्ञानी ही सिद्ध होते हैं ८३२ अन्यतीर्थियों का मत - एवंभूत पृष्ठ धनुर्धर की क्रिया अन्यतीथिक का मिथ्यावाद 633 ८३६ ८६१ मृषावादी अभ्याख्यानी को बन्ध ८६२ उद्देशक- ७ परमाणु का कम्पन ८६४ परमाणु पुद्गलादि अछेद्य ८६६ परमाणु पुद्गलादि के विभाग ८६८ परमाणु पुद्गलादि की स्पर्शना ८७० परमाणु पुद्गलादि की संस्थिति ८७७ परमाणु पुद्गलादि का अन्तर काल For Personal & Private Use Only ८७९ नैरयिक आरंभी परिग्रही ८८४ असुरकुमार आरंभी परिग्रही ८८५ इंद्रिय आदि का परिग्रह ८८७ हेतु अहेतु ८९० उद्देशक - ८ निग्रंथी पुत्र अनगार के प्रश्न ८६३ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमांक विषय . २०८ जीवों की हानि और वृद्धि ९५७ स ६७५ उद्देशक-९ २०९ राजगृह का अर्थ २१. प्रकाश और अन्धकार २११ नैरयिकादि का समय ज्ञान २१२ पापित्य स्थविर और श्रीमहावीर २१३ देवलोक . पृष्ठ क्रमांक विषय ९०२ | २२० कर्म और उनकी स्थिति २२१ कर्मों के बन्धक वेदक का अल्पबहत्व ९१४ ९१५ उद्देशक-४ ६१९ २२३ जीव प्रदेश निरूपण २२४ जीव और प्रत्याख्यान २२५ प्रत्याख्यान निबद्ध आयु ९७७ ९९५ & & ୨ .. उद्देशक-१० . उद्देशक-५ २२६ तमस्काय २२७ कृष्णराजि २२८ लोकान्तिक देव शतक-६ १०११ १०१८ उद्देशक-६ उद्देशक-१ २२९. पृथ्वियां और अनुत्तर विमान १०२४ २१४ वेदना और निर्जरा में वस्त्र | २३० मारणान्तिक समुद्घात १०२५ का दृष्टांत ९३२ २१५ जीव और करण ९३८ उद्देशक-७ २१६ वेदना और निर्जरा की सहचरत। ९४१ २३१ धान्य की स्थिति उद्देशक-२ २३२ गणनीय काल २३३ उपमेय काल १०३६ उद्देशक-३ . २३४ सुषमसुषमा काल १०४२ । २१७ महाकर्म और अल्पकर्म २१८ वस्त्र और जीव के पुद्गलोपचय ९४९ उद्देशक-८ २१६ वस्त्र और जीव की सादि |२३५ पृथ्वियों के नीचे ग्रामादि नहीं है सान्तता ९५३ १०४४ ९४४ For Personal & Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पष्ट कमांक विषय पात १०४७ क्रमांक विषय २३६ देवलोकों के नीचे २३७ आयुष्य का बंध २३८ असंख्य द्वीप समुद्र उद्देशक-९ २३९ कर्मबन्ध के प्रकार १०५९ २४० महद्धिक देव और विकुर्वणा १०६० २४१ देव का जानना और देखना १.६३ उद्देशक-१० २४२ दुःख-मुग्व प्रदर्शन' अशक्य, । २८३ जीव और प्राण २४४ अन्ययूथिक और जीवों का सुख दुःख २४५ नैरयिकादि का आहार २४६ केवली अनिन्द्रिय होते हैं १०७४ १०:५ SONRVAD For Personal & Private Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्वाध्याय : * निम्नलिखित बत्तीस कारण टालकर स्वाध्याय करना चाहिये। आकाश सम्बन्धी १० अस्वाध्याय काल मर्यादा १. बड़ा तारा टूटे तो एक प्रहर २. दिशा-दाह * जब तक रहे ३. अकाल में मेघ गर्जना हो तो दो प्रहर ४. अकाल में बिजली चमके तो एक प्रहर ५. बिजली कड़के तो आठ प्रहर ६. शुक्ल पक्ष की १, २, ३ की रात प्रहर रात्रि तक ७. आकाश में यक्ष का चिह्न हो जब तक दिखाई दे ८-६. काली और सफेद धूअर जब तक रहे १०. आकाश मंडल धूलि से आच्छादित हो जब तक रहे औदारिक सम्बन्धी १० अस्वाध्याय ११-१३. हड्डी, रक्त और मांस, ये तिर्यंच के ६० हाथ के भीतर हो। मनुष्य के हो, तो १०० हाथ के भीतर हो। मनुष्य की हड्डी यदि जली या धुली न हो, तो १२ वर्ष तक। १४. अशुचि की दुर्गंध आवे या दिखाई दे तब तक १५. श्मशान भूमि सौ हाथ से कम दूर हो, तो। * आकाश में किसी दिशा में नगर जलने या अग्नि की लपटें उठने जैसा दिखाई दे और प्रकाश हो तथा नीचे अंधकार हो, वह दिशा-दाह है। For Personal & Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६. चन्द्र ग्रहण - खंड ग्रहण में तो १२ प्रहर १७. सूर्य ग्रहण ( चन्द्र ग्रहण जिस रात्रि में लगा हो उस रात्रि के प्रारम्भ से ही अस्वाध्याय गिनना चाहिये । ) खंड ग्रहण में १२ प्रहर, पूर्ण हो तो १६ प्रहर (सूर्य ग्रहण जिस दिन में कभी भी लगे उस दिन के प्रारंभ से ही उसका अस्वाध्याय गिनना चाहिये ।) १८. राजा का अवसान होने पर, [13] १६. युद्ध स्थान के निकट जब तक युद्ध चले २०. उपाश्रय में पंचेन्द्रिय का शव पड़ा हो, जब तक पड़ा रहे (सीमा तिर्यंच पंचेन्द्रिय के लिए ६० हाथ, मनुष्य के लिए १०० हाथ । उपाश्रय बड़ा होने पर इतनी सीमा के बाद उपाश्रय में भी अस्वाध्याय नहीं होता । उपाश्रय की सीमा के बाहर हो तो. यदि दुर्गन्ध न आवे या दिखाई न देवे तो अस्वाध्याय नहीं होता । ) २१-२४. आषाढ़, आश्विन, कार्तिक और चैत्र की पूर्णिमा २५-२८. इन पूर्णिमाओं के बाद की प्रतिपदा२६-३२. प्रातः, मध्याह्न, संध्या और अर्द्ध रात्रिइन चार सन्धिकालों में १-१ मुहूर्त उपरोक्त अस्वाध्याय को टालकर स्वाध्याय करना चाहिए। खुले मुंह नहीं बोलना तथा सामायिक, पौषध में दीपक के उजाले में नहीं वांचना चाहिए । नोट - नक्षत्र २८ होते हैं उनमें से आर्द्रा नक्षत्र से स्वाति नक्षत्र तक नौ नक्षत्र वर्षा के गिने गये हैं। इनमें होने वाली मेघ की गर्जना और बिजली का चमकना स्वाभाविक है। अतः इसका अस्वाध्याय नहीं गिना गया है। ॐ ॐ ॐ For Personal & Private Use Only प्रहर, पूर्ण हो जब तक नया राजा घोषित न हो दिन रात दिन रात Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ, जोधपुर आगम बत्तीसी प्रकाशन योजना के अन्तर्गत प्रकाशित आगम अंग सूत्र क्रं. नाम आगम मूल्य १. आचारांग सूत्र भाग-१-२ ५५-०० २. सूयगडांग सूत्र भाग-१,२ ६०-०० ३. स्थानांग सूत्र भाग-१, २ ६०-०० ४. समवायांग सूत्र २५-०० ५. भगवती सूत्र भाग १-७ ३००-०० ६. ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र भाग-१, २ ८०-०० ७. उपासकदशांग सूत्र २०-०० ८. अन्तकृदशा सूत्र २५-०० ६. अनुत्तरोपपातिक दशा सूत्र १५-०० १०. प्रश्नव्याकरण सूत्र ३५-०० ११. विपाक सूत्र ३०-०० २५-०० २५-०० ८०-०० १६०-०० २०-०० ५०-०० उपांग सूत्र १. उववाइय सुत्त २. राजप्रश्नीय सूत्र ३. जीवाजीवाभिगम सूत्र भाग-१,२ ४. प्रज्ञापना सूत्र भाग-१,२,३,४ ५-६. निरयावलिका (कल्पिका, कल्पवतंसिका, पुष्पिका पुष्पचूलिका, वृष्णिदशा) १०. जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति मूल सूत्र १. उत्तराध्ययन सूत्र भाग-१-२ २. दशवैकालिक सूत्र ३. नंदी सूत्र ४. अनुयोगद्वार सूत्र छेद सूत्र १-३. त्रीणिछेदसुत्ताणि (दशाश्रुतस्कन्ध, बृहत्कल्प, व्यवहार) १. निशीथ सूत्र १. आवश्यक सूत्र ८०-०० ४०-०० २५-०० ५०-०० ५०-०० ५०-०० ३०-०० For Personal & Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोत्थुणं समणस्स भगवओ महावीरस्स गणधर भगवान सुधर्मस्वामि प्रणीत श्री भगवती सूत्र ( द्वितीय भाग ) शतक ३ उद्देशक १ चमरेन्द्र को ऋद्धि १ गाहा - arat arcaणा चमर किरिय जाणित्थि नगरपाला य । अहिवs इंदिय परिसा तइयम्मि सए दस उद्देसा ॥ भावार्थ – तीसरे शतक में दस उद्देशक हैं । उनमें से पहले उद्देशक में चमर की विकुर्वणा, दूसरे उद्देशक में उत्पात, तीसरे में क्रिया, चौथे में देव द्वारा विकुवित यान को साधु जानता है ? पांचवें में साधु द्वारा स्त्री आदि के रूपों की विकुर्वणा, छठे में नगर सम्बन्धी वर्णन, सातवें में लोकपाल, आठवें में अधिपति, नववें में इंद्रियों संबंधी वर्णन और दसवें में चमरेन्द्र की सभा संबंधी वर्णन है । For Personal & Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ३ उ. १ चमरेन्द्र की ऋद्धि २ - तेणं कालेणं, तेणं समएणं मोया णामं णयरी होत्था । वण्णओ । तीसे णं मोयाए नगरीए बहिया उत्तरपुर स्थिमे दिसिभागे द णामं चेह होत्था । वण्णओ । तेणं कालेणं, तेणं समएणं सामी समोसढे । परिसा णिग्गच्छइ, पडिगया परिसा । ३ प्रश्न - तेणं कालेणं, तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स दोच्चे अंतेवासी अग्गिभूई णामं अणगारे गोयमगोत्तेणं सत्तुस्सेहे, जाव -- पज्जुवासमाणे एवं वयासी —– चमरे णं भंते ! - असुरिंदे, असुरराया के महिढीए, के महज्जुईए, के महाबले, के महायसे, के महासोक्खे, के महाणुभागे, केवइयं च णं पभू विउव्वित्तर ? ५३४ ३ उत्तर - गोयमा ! चमरे णं असुरिंदे, असुररांया महिड्ढीए, जाव - महाणुभागे । से णं तत्थ चतीसाए भवणावाससयसहस्साणं, चउसट्टीए सामाणियसाहस्सीणं, तायत्तीसाए तायत्तीसगाणं, जाव - विहरइ | एवं महिड्ढीए, जाव - महाणुभागे । एवइयं च णं पभू विव्वित्तए, से जहा नामए जुवई जुवाणे हत्थेणं हत्थे गेण्हेज्जा, चक्कस्स वा णाभी अरगाउत्ता - सिआ, एवामेव गोयमा ! चमरे असुरिंदे, असुरराया वेडव्वियसमुग्धापणं समोहण्णइ, समोहणित्ता संखेज्जा इं जोयणाई दंडं निस्सरइ, तंजहा रयणाणं जाव - रिट्ठाणं अहाबायरे पोग्गले परिसाडेह, परिसाडित्ता अहामुहुमे पोग्गले परियाएइ, परि For Personal & Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ३ उ. १ चमरेन्द्र की ऋद्धि ५३५ याइता दोच्चं पि वेउब्बियसमुग्यायेणं समोहण्णइ समोहणित्ता पभू णं गोयमा ! चमरे असुरिंदे, असुरराया केवलकप्पं जंबूदीवं दीवं बहूहिँ असुरकुमारहिं देवेहिं, देवीहि य आइण्णं, वितिकिण्णं उवत्थडं, संथडं, फुडं, अवगाढावगाढं करेत्तए; अदुत्तरं च णं गोयमा ! पभू चमरे असुरिंदे असुरराया तिरियमसंखेने दीवसमुद्दे बहूहिं असुरकुमारेहिं देवेहि, देवीहि य आइण्णे, वितिकिण्णे, उवत्थडे, संथडे, फुडे अवगाढावगाढे करेत्तए, एस णं गोयमा ! चमररस असुरिंदस्स, असुररण्णो अयमेयारूवे विसए, विसयमेत्ते बुइए, णो चेव णं संपत्तीए विउव्विंसु वा, विउव्वइ वा, विउव्विस्सइ वा । कठिन शब्दार्थ-सत्तुस्सेहे-सात हाथ ऊँचे शरीर वाले, के महिड्ढीए-कैसी महान् ऋद्धिवाला, के महज्जूईए-कैसी महान् द्युति-कान्तिवाले, सामाणिय-बराबरी के, पभू बिउम्वित्तए-विकुर्वणा करने में समर्थ, साणं साणं-अपने अपने, तायत्तीसगाणं-वायस्त्रिंशक पुरोहित (मन्त्री) के समान, एवतियं-इतनी, जुवई जुवाणे-युवती और युवक, चक्कस्स वा णामी अरगाउत्ता-सिआ-चक्र-पहिये की नाभि में आरे संलग्न हो-संबद्ध हो उस प्रकार, . निस्सरइ-निकालता है, परिसाडेइ-गिरा देता है, परियाएइ-ग्रहण करता है, केवलकप्पंपरिपूर्ण-पूर्ण, पभू-शक्तिमान्, आइणं-आकीर्ण-व्याप्त, वितिकिण्णं-व्यतिकीर्ण-विशेष रूप रूप से व्याप्त, उवत्थडं-उपस्तीर्ण, संथडं-संस्तीर्ण, फुडं-स्पृष्ट, अवगाढावगाढं-अवगाढावगाढ़-अत्यंत ठोस-जकड़े हुए, अदुत्तरं-इसके बाद, बुइए - कही है, संपत्तीए-संप्राप्तिक्रिया रूप से। ___ भावार्थ-२-उस काल उस समय में 'मोका' नाम की नगरी थी। उसका वर्णन करना चाहिए। उस नगरी के बाहर उत्तर-पूर्व के दिशाभाग में अर्थात् ईशान कोण में नन्दन नाम का.चैत्य (उद्यान) था। उसका वर्णन करना चाहिए। उस काल उस समय में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी वहां पधारे । भगवान् के आगमन को सुन कर परिषद् दर्शनार्थ निकली । भगवान् का धर्मोपदेश सुन For Personal & Private Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३६ भगवती सूत्र-श. ३ उ. १ चमरेन्द्र की ऋद्धि कर परिषद् वापिस चली गई। . ३ प्रश्न-उस काल उस समय में श्रमण भगवान महावीर स्वामी के दूसरे अन्तेवासी अग्निभूति अनगार, जिनका गौतम गोत्र है, सात हाथ ऊँचा शरीर है, यावत् पर्युपासना करते हुए इस प्रकार बोले हे भगवन् ! असुरेन्द्र असुरराज चमर कितनी बडी ऋद्धिवाला है ? कितनी बडी कान्तिवाला है ? कितना बलशाली है ? कितनी बडी कीर्ति वाला है ? कितने महान् सुखों वाला है ? कितने महान् प्रभाव वाला है ? वह कितनी विकुर्वणा कर सकता है ? ३ उत्तर-हे गौतम ! असुरेन्द्र असुरराज चमर महाऋद्धि वाला है यावत् महाप्रभाव वाला है । चौतीस लाख भवनावास, चौसठ हजार सामानिक देव और तेंतीस त्रायस्त्रिंशक, इन सब पर वह अधिपतिपना (सत्ताधीशपना) करता हुआ विचरता है। अर्थात् वह चमर ऐसी मोटी ऋद्धि वाला है यावत् ऐसा महाप्रभाव वाला है । उसके वैक्रिय करने की शक्ति इस प्रकार है-हे गौतम ! विकुर्वणा करने के लिए असुरेन्द्र असुरराज चमर, वैक्रिय समुद्घात द्वारा समवहत होता है, समवहत होकर संख्यात योजन का लम्बा दण्ड निकालता है। उसके द्वारा रत्नों के यावत् रिष्टरत्नों के पुद्गल ग्रहण किये जाते है उनमें से स्थल पुद्गलों को झटक देता है (गिरा देता है-झड़का देता है) तथा सूक्ष्म पुद्गलों को ग्रहण करता है । दूसरी बार फिर वैक्रिय समुद्घात द्वारा समवहत होता है। समवहत होकर हे गौतम ! जैसे कोई युवा पुरुष, युवती स्त्री के हाथ को दृढ़ता के साथ पकड़ कर चलता है, तो वे दोनों संलग्न मालूम होते है अथवा जैसे गाडी के पहिये की धुरी में आरा संलग्न सुसंबद्ध एवं आयुक्त होते हैं। इसी प्रकार असुरेन्द्र असुरराज चमर, बहुत असुरकुमार देवों द्वारा तथा असुरकुमार देवियों द्वारा इस सम्पूर्ण जम्बूद्वीप को आकीर्ण कर सकता है एवं व्यतिकीर्ण, उपस्तीर्ण, संस्तीर्ण, स्पष्ट और गाढ़ावगाढ़ कर सकता है अर्थात् ठसाठस भर सकता है। फिर हे गौतम ! असुरेन्द्र असुरराज चमर . बहुत असुरकुमार देवों और For Personal & Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ३ उ. १ चमरेन्द्र की ऋद्धि ५३७ देवियों द्वारा इस तिर्छालोक के असंख्य द्वीप और समद्रों तक के स्थल को आकीर्ण, व्यतिकीर्ण, उपस्तीर्ण, संस्तीर्ण, स्पृष्ट और गाढ़ावगाढ़ कर सकता है अर्थात् चमर इतने रूपों की विकुर्वणा कर सकता है कि असंख्य द्वीप समुद्रों तक के स्थल को भर सकता है । हे गौतम ! असुरेन्द्र असुरराज चमर की ऐसी शक्ति है-विषय है-विषयमात्र है, परन्तु चमरेन्द्र ने ऐसा किया नहीं, करता नहीं और करेगा भी नहीं। विवेचन-दूसरे शतक में अस्तिकायों का कथन सामान्य रूप से किया गया था । अब इस तीसरे शतक में अस्तिकायों का विशेषरूप से कथन करने के लिए जीवास्तिकाय के विविध धर्मों का कथन किया जाता है । इस प्रकार दूसरे और तीसरे शतक का संकलनरूप संबंध है। तीसरे शतक में दस उद्देशक हैं। उन दस उद्देशकों में किन किन विषयों का वर्णन किया गया है ? इम बात को सूचित करने के लिए संग्रह गाथा कही गई है अर्थात् संग्रह गाथा में दस उद्देशकों की विषय सूची दी गई है । पहले उद्देशक में चमरेन्द्र की विकुर्वणा शक्ति, दूसरे में चमरेन्द्र का उत्पात, तीसरे में कायिकी आदि क्रिया, चौथे में देव द्वारा विकुर्वित यान को क्या साधु जानता है, इत्यादि का निर्णय । पाँचवें में क्या साधु बाहर के पुद्गलों को लेकर स्त्री आदि के रूपों की विकुर्वणा कर सकता हैं, इत्यादि अर्थ का.. निर्णय । छठे में जिस साधु ने वाराणसी (बनारस) में समुद्घात किया है क्या वह राजगृह नगर में रहे हुए रूपों को जानता है, इत्यादि का निर्णय । सातवें में लोकपालों के स्वरूपादि का कथन । आठवें में असुरकुमारादि देवों पर कितने देव अधिपतिपना करते, इत्यादि वर्णन । नववें में इन्द्रियों के विषय सम्बन्धी वर्णन और दसवें में चमरेन्द्र की परिषद् (सभा) संबंधी वर्णन है। चमरेन्द्र कितनी मोटी ऋद्धिवाला है, इस बात को बतलाने के लिए कहा गया है कि-चौतीस लाख भवनावास, चौसठ हजार सामानिक देव, और तेतीस त्रायस्त्रिशक देवों पर सत्ताधीशपना करता हुआ चमरेन्द्र यावत् विचरता है । यहाँ मूलपाठ में 'जाव' शब्द • दिया है जिससे इतने पाठ का ग्रहण करना चाहिए - "चउण्हं लोगपालाणं, पंचण्हं अग्गमहिसीणं सदपरिवाराणं, तिण्हं परिसाणं, सत्तण्हं अणियाणं, सत्तण्हं अणियाहिवईणं, चउण्डं चउसठ्ठीणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं अण्णेसि च For Personal & Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३८ भगवती सूत्र-श. ३ उ. १ चमरेन्द्र की ऋद्धि + + 4 . बहूणं चमरचंचारायहाणिवत्थव्वाणं देवाणं य देवीणं य आहेवच्चं, पोरेवच्चं, सामित्तं, भट्टित्तं, आणाईसरसेणावच्चं कारेमाणे पालेमाणे महयाहयणट्ट-गीय-वाइय-तंती-तल-तालतुडियघण-मुइंग पडुप्पवाइयरवेणं दिव्वाइं भोगभोगाई भुंजमाणे।" ___ अर्थ-चार लोकपाल, परिवार सहित पांच अग्रमहिषियाँ (पट्टरानियाँ) तीन परिषद् (सभा) सात सेना, सात सेनाधिपति, दो लाख छप्पन हजार (२,५६०००) आत्मरक्षक देव, इन सब पर अधिपतिपना, पुरपतिपना, स्वामीपना, भर्तृपना (पालकपना) आज्ञा की प्रधानता से सेनाधिपतिपना करवाता हुआ, पलवाता हुआ, बड़ी आवाज पूर्वक निरन्तर होते हुए नाटक, गीत और वादिन्त्रों के शब्दों से, वीणा, झालर, कांस्य आदि अनेक प्रकार के वाद्यों के शब्दों से तथा चतुर पुरुषों द्वारा बजाये जाते हुए मेघ के समान गम्भीर मृदंग के शब्दों से दिव्य भोगों (भोगने योग्य शब्दादि) को भोगता हुआ इन्द्र + विचरता है। ___ वह चमरेन्द्र वैक्रियकृत बहुत-से असुरकुमार देव और देवियों द्वारा इस सम्पूर्ण जम्बूद्वीप को ठसाठस भर देता है । 'किस प्रकार ठसाठस भरता है'-इसके लिए शास्त्रकार ने दो दृष्टांत दिये हैं “से जहा णामए जुवई जुवाणे हत्थेणे हत्थे गेण्हेज्जा, चक्कस्स वा णाभी अरगा+ देवों के दस भेद होते हैं । यथा(१) इन्द्र-सामानिक आदि सभी प्रकार के देवों का स्वामी 'इन्द्र' कहलाता है । (२) सामानिक-आयु आदि में जो इन्द्र के बराबर होते हैं, उन्हें 'सामानिक' देव कहते है। केवल इन में इन्द्रत्व नहीं होता है। शेष सभी बातों में ये इन्द्र के समान होते हैं। .. (३) त्रायस्त्रिंश-जो देव, मन्त्री और पुरोहित का काम करते हैं, वे श्रायस्त्रिंश कहलाते है। (४) पारिषद्य-जो देव, इन्द्र के मित्र सरीखे होते हैं, वे पारिषद्य कहलाते हैं। (५) आत्मरक्षक-जो देव, शस्त्र लेकर इन्द्र के चौतरफ खड़े रहते हैं, वे 'आत्मरक्षक' कहलाते हैं । यद्यपि इन्द्र को किसी प्रकार की तकलीफ या अनिष्ट होने की सम्भावना नहीं है, तथापि आत्मरक्षक देव अपना कर्त्तव्य पालन करने के लिए हर समय हाथ में शस्त्र लेकर खड़े रहते हैं। .... (६) लोकपाल-सीमा की रक्षा करने वाले देव, लोकपाल कहलाते हैं। ' (७.) अनीक-जो देव, सैनिक का काम करते है, वे 'अनीक' कहलाते है और जो सेनापति का काम करते हैं, वे 'अनीकाधिपति' कहलाते हैं। (८) प्रकीर्णक-जो देव, नगर निवासी अथवा साधारण जनता की तरह रहते है, वे 'प्रकीर्णक' कहलाते हैं। (९) आभियोगिक-जो देव, दास के समान होते हैं, वे 'आभियोगिक' (सेवक) कहलाते है। (१०) फिल्विषिक---अन्त्यज (चाण्डाल) के समान जो देव होते हैं, वे 'किल्विषिक' कहलाते हैं। For Personal & Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ३ उ. १ चमरेन्द्र की ऋद्धि उत्ता सिया ।" इस पाठ का टीकाकार ने इस तरह से अर्थ किया है - " जैसे कोई जवान पुरुष, काम के वशवर्ती होकर जवान स्त्री के हाथ को जोर से दृढ़तापूर्वक पकड़ता है । जैसे गाड़ी के पहिये की धुरी आराओं से युक्त होती है ।" वृद्ध पुरुषों ने तो इस प्रकार व्याख्या की है— जैसे यात्रा (मेला) आदि के प्रसंग में बहुत से मनुष्यों की भीड़ होती है, वहाँ जवान स्त्री, जवान पुरुष के हाथ को दृढ़ता से पकड़ कर उसके साथ संलग्न होकर चलती है । वह उसके साथ संलग्न होकर चलती हुई भी उस पुरुष से अलग दिखाई देती हैं, उसी तरह से वे वैक्रियकृत रूप वैक्रिय करने वाले के साथ संलग्न होते हुए भी उससे पृथक् दिखाई देते हैं । जैसे बहुत से आराओं से युक्त नाभि (गाड़ी के पहिये की धुरी ) बिलकुल पोलार रहित होती है । इसी तरह से वह असुरेन्द्र असुरराज चमर, अपने शरीर के साथ प्रतिबद्ध वैक्रिय कृत अनेक असुरकुमार देवों से और असुरकुमार देवियों से इस सम्पूर्ण जम्बूद्वीप को ठसाठस भर देता है । ५३९ क्रिय करने के लिए वह असुरेन्द्र असुरराज चमर, वैक्रिय समुद्घात द्वारा समवहत होता है और संख्येय योजन तक लम्बा दण्ड निकालता ( बनाता ) है । अर्थात् वह दण्ड ऊंचे नीचे संख्येय योजन का लम्बा होता है और मोटाई में शरीर परिमाण मोटा होता है । उसके द्वारा कर्केतन, रिष्ट आदि रत्नों के जैसे पुद्गलों के ग्रहण करके उनमें से स्थूल पुद्गलों को झटक देता है और सूक्ष्म पुद्गलों को ग्रहण करता है । शंका - रत्न आदि के पुद्गल तो औदारिक होते हैं । वैयि समुद्घात में तो वैक्रिय पुद्गल काम आते हैं । फिर यहाँ रत्नादि पुद्गलों का ग्रहण किस प्रकार किया गया है । समाधान-जो पुद्गल वैक्रियसमुद्घात में लिये जाते हैं, वे पुद्गल रत्नों सरीखे सारयुक्त होते हैं, इस बात को बतलाने के लिए यहाँ 'रत्न' आदि का ग्रहण किया गया है । इसलिए 'रत्नपुद्गलों' का अर्थ - ' रत्न सरीखे पुद्गल' ऐसा करना चाहिए । सारांश यह है कि वैयि समुद्घात में जो पुद्गल लिये जाते हैं, वे पुद्गल वैक्रिय पुद्गल ही होते हैं, किन्तु वे रत्नों सरीखे सार युक्त होते हैं । किन्हीं आचार्यों का तो ऐसा मत है कि - जब वैक्रिय समुद्घात द्वारा औदारिक पुद्गल ग्रहण किये जाते हैं, तब वे औदारिक पुद्गल भी वैक्रिय पुद्मल बन जाते हैं । मूलपाठ में 'रयणाणं जाव रिट्ठाणं' यहाँ 'जाव' शब्द दिया है, उससे इतना पाठ और ग्रहण करना चाहिए । For Personal & Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र—शः ३ जं. १ चमरेन्द्र की ऋद्धि "वइराणं, वेरुलियाणं, लोहियक्खाणं, मसारगल्लाणं, हंसगब्भाणं, पुलयाणं, सोगंधियाणं, जोईरसाणं, अंकाणं, अंजणाणं, रयणाणं, जायरूवाणं, अंजणपुलयाणं, फलिहाणं ।" ५४० इसका अर्थ यह है-वज्र, वैडूर्य, लोहिताक्ष, मसारगल्ल, हंसगर्भ, पुलक, सौगन्धिक ज्योतिरस, अंक, अंजन, रत्न, जातरूप, अञ्जनपुलक और स्फटिक । ये सब रत्नों के भेद हैं। वैक्रिय करने वाला जीव, दण्ड निसर्ग द्वारा ग्रहण किये हुए यथाबादर (असार स्थूल) पुद्गलों को खंखेर देता है—झड़क देता है और यथासूक्ष्म (सार युक्त ) पुद्गलों को ग्रहण करता है अर्थात् दण्ड निसर्ग द्वारा ग्रहण किये हुए पुद्गलों को सामस्त्य से (सर्व प्रकार से ) ग्रहण करता है । शंका- यहाँ कहा गया है कि दण्ड निसर्ग द्वारा ग्रहण किये गये असार पुद्गलों को . खंखेर देता है और प्रज्ञापना सूत्र के छतीसवें पद की टीका में कहा है कि पहले बंधे हुए वैक्रिय शरीर नाम कर्म के यथास्थूल पुद्गलों को झाड़ देता है । अर्थात् उपरोक्त दोनों स्थलों में झटके जाने वाले पुद्गल भिन्न भिन्न बतलाये हैं। इसलिए इन दोनों स्थलों में परस्पर विरुद्धता कैसे नहीं आती है ? समाधान- ये दोनों बातें भिन्न-भिन्न है, इसलिए किसी प्रकार विरोध नहीं आता है । क्योंकि प्रज्ञापना सूत्र की टीका में जो बात कही है, वह 'समुद्घात' शब्द का समर्थन करने के लिए अनाभोगिक (अनजानपने में होने वाली ) वैक्रिय शरीर नामकर्म के पुद्गलों की निर्जरा की अपेक्षा से कही गई है और यहाँ इच्छापूर्वक वैक्रिय करने विषयक वर्णन है, अतः उक्त दोनों बातों में परस्पर कोई विरोध नहीं है । चमरेन्द्र, इच्छित रूप बनाने के लिए दूसरी बार फिर समुद्घात करता है और इससे वह अनेक रूप बनाने में समर्थ होता है । वह वैक्रियकृत बहुत से असुरकुमार देवों और देवियों से इस सम्पूर्ण जम्बूद्वीप को भर देता है । मूलपाठ में "आइण्णं वितिकिण्णं उवत्थडं, संथडं, फूड, अवगाढावगाढं" शब्द प्रायः "एकार्थक हैं और 'अत्यन्त रूप से भर देता है - इस अर्थ को सूचित करने के लिए आये हैं । असुरेन्द्र असुरराज चमर इतने रूपों की विकुर्वणा कर सकता है कि जिनसे तिर्च्छा लोक में असंख्य द्वीप और समुद्रों तक का स्थल भरा जा सकता है, किन्तु यह उसकी शक्तिमात्र है, विषयमात्र (क्रिया बिना का विषयमात्र ) है, किन्तु चमर ने सम्प्राप्ति द्वारा इतने रूपों की कभी विकुर्वणा की नहीं, करता नहीं और भविष्यत्काल में भी कभी करेगा नहीं । For Personal & Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ३ उ. १ चमरेन्द्र की ऋद्धि ४ प्रश्न-जइ णं भंते ! चमरे असुरिंदे, असुरराया एमहिड्ढीए, जाव-एवइयं च णं पभू विउवित्तए, चमरस्स णं भंते ! असुरिंदस्स, असुररण्णो, सामाणिया देवा के महिड्डीया, जाव-केवइयं च णं पभू विउवित्तए ? ४ उत्तर-गोयमा ! चमरस्स असुरिंदस्स, असुररण्णो सामाणिया देवा महिड्ढीया, जाव-महाणुभागा। ते णं तत्थ साणं साणं भवणाणं, साणं साणं सामाणियाणं, साणं साणं अग्गमहिसीणं, जावदिव्वाइं भोगभोगाइं भुंजमाणा विहरंति, एमहिड्ढीया, जावएवइयं च णं पभू विउवित्तए । से जहा नामए जुवइं जुवाणे हत्थेणं हत्थे गेण्हेजा, चक्कस्स वा णाभी अरगाउत्ता-सिया, एवामेव गोयमा ! चमरस्स असुरिंदस्स, असुररण्णो एगमेगे सामाणियदेवे वेउब्वियसमुग्घाएणं समोहण्णइ, समोहणित्ता जाव-दोच्चं पि वेउव्वियसमुग्धाएणं समोहण्णइ, समोहणित्ता पभू णं गोयमा ! चमरस्स असुरिंदस्स असुररण्णो एगमेगे सामाणियदेवे केवलकप्पं जंबूदीवं दीवं बहूहिं असुरकुमारेहिं देवेहिं देवीहि य आइण्णं, वितिकिण्णं, उवत्थडं, संथडं, फुडं अवगाढावगाढं करेत्तए । अदुत्तरं च णं गोयमा ! पभू चमरस्स असुरिंदस्स, असुररण्णो एगमेगे सामाणियदेवे तिरियमसंखेजे दीवसमुद्दे बहूहिं असुरकुमारेहि देवेहि, देवीहि य आइण्णे, वितिकिण्णे. उवत्थडे, संथडे, फुडे, अवगाढावगाढे करे For Personal & Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ३ उ. १ चमरन्द्र की ऋद्धि तए, एस णं गोयमा ! चमरस्स असुरिंदस्स, असुररण्णो एगमेगस्स सामाणियदेवस्स अयमेयारूवे विसए, विसयमेत्ते बुझ्ए, णो चेवणं सपंत्ती विव्विसुवा, विव्व वा, विव्विस वा । ५४२ कठिन शब्दार्थ - अग्ग महिसीओ – पटरानियों - महारानियों । भावार्थ - ४ प्रश्न - हे भगवन् ! असुरेन्द्र असुरराज चमर ऐसी मोटी ऋद्धि वाला है यावत् इतनी विकुर्वणा कर सकता है, तो हे भगवन् ! असुरेन्द्र असुरराज चमर के सामानिक देवों की कितनी मोटी ऋद्धि है यावत् उनकी विकुर्वणा शक्ति कितनी है ? ४ उत्तर - हे गौतम ! असुरेन्द्र असुरराज चमर के सामानिक देव, महा ऋद्धि वाले यावत् महाप्रभाव वाले हैं। वे अपने अपने भवनों पर, अपने अपने सामानिक देवों पर और अपनी अपनी अग्रमहिषियो ( पटरानियों) पर अधिपतिपना (सत्ताधीशपना) करते हुए यावत् दिव्य भोग भोगते हुए विचरते हैं । ये इस प्रकार की महाऋद्धि वाले हैं। इनकी विकुर्वणा करने की शक्ति इस प्रकार हैहे गौतम! विकुर्वणा करने के लिए असुरेन्द्र असुरराज चमर का एक एक सामानिक देव, वैक्रिय समुद्धात द्वारा समवहत होता है और यावत् दूसरी बार भी वैक्रिय समुद्घात द्वारा समवहत होता है । हे गौतम! जैसे कोई युवा पुरुष, युवती स्त्री के हाथ को दृढ़ता के साथ पकड़ कर चलता है, तो वे दोनों संलग्न मालूम होते हैं अथवा जैसे गाडी के पहिये की धुरी में आरा संलग्न, सुसंबद्ध एवं आयुक्त होते हैं, इसी प्रकार असुरेन्द्र असुरराज चमर के सामानिक देव, बहुत असुरकुमार देवों द्वारा तथा असुरकुमार देवियों द्वारा इस सम्पूर्ण जम्बूद्वीप को आकीर्ण, व्यतिकीर्ण, उपस्तीर्ण, संस्तीर्ण, स्पृष्ट और गाढ़ावगाढ कर सकता है अर्थात् ठसाठस भर सकता है । समुद्घात करके फिर हे गौतम ! असुरेन्द्र असुरराज चमर के एक एक .. सामानिक देव, बहुत असुरकुमार देवों और देवियों द्वारा इस तिच्र्च्छा लोक के For Personal & Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ३ उ. १ चमरेन्द्र की ऋद्धि ५४३ + + + असंख्य द्वीप और समुद्रों तक के स्थल को आकीर्ण, व्यतिकीर्ण, उपस्तीर्ण, संस्तीर्ण स्पृष्ट और गाढावगाढ़ कर सकता है अर्थात् इतने रूपों की विकुर्वणा कर सकता है कि असंख्य द्वीप समुद्रों तक के स्थल को ठसाठस भर सकता है। हे गौतम ! उन सामानिक देवों की ऐसी शक्ति है, विषय है, विषयमात्र है, परन्तु सम्प्राप्ति द्वारा उन्होंने ऐसा कभी किया नहीं, करते नहीं और करेंगे भी नहीं। ५ प्रश्न-जइ णं भंते ! चमरस्स असुरिंदस्स, असुररण्णो सामाणियदेवा एमहिड्ढीया, जाव-एवइयं च णं पभू विउवित्तए चमरस्स णं भंते ! असुरिंदस्स असुररण्णो तायत्तीसया देवा के महिड्ढीया ? ५ उत्तर-तायत्तीसया देवा जहा सामाणिया तहा णेयव्वा । लोयपाला तहेव, णवरं-संखेजा दीव-समुद्दा भाणियव्वा । (बहूहिं असुरकुमारेहिं देवेहि, देवीहि य आइण्णे, जाव-विउव्विस्संति वा ।) - ६ प्रश्न-जइ णं भंते ! चमरस्स असुरिंदस्स, असुररण्णो लोगपाला देवा एमहिड्ढीया, जाव-एवइयं च णं पभू विउवित्तए, चमरस्स णं भंते ! असुरिंदस्स, असुररण्णो अग्गमहिसीओ देवीओ के महिड्ढीयाओ, जाव-केवइयं च णं पभू विउवित्तए ? ६ उत्तर-गोयमा ! चमरस्स णं असुरिंदस्स, असुररण्णो अग्गमहिसीओ महिड्ढीयाओ, जाव-महाणुभागाओ, ताओ णं तत्थ साणं साणं भवणाणं, साणं साणं सामाणियसाहस्सीणं, साणं साणं For Personal & Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४४ भगवती सूत्र-श. ३ उ. १ चमरेन्द्र की ऋद्धि महत्तरियाणं, साणं साणं परिसाणं, जाव-एमहिड्ढीयाओ, अण्णं जहा लोगपालाणं अपरिसेसं । कठिन शब्दार्थ-महत्तरियाणं--महत्तरिका-मित्ररूप । __५ प्रश्न-हे भगवन् ! असुरेन्द्र असुरराज चमर के सामानिक देव ऐसी महा ऋद्धि वाले हैं यावत् इतनी बिकुर्वणा करने में समर्थ हैं, तो हे भगवन् ! असुरेन्द्र असुरराज चमर के त्रास्त्रिशक देव कितनी मोटी ऋद्धि वाले हैं ? ५ उत्तर-हे गौतम ! जैसा सामानिक देवों के लिए कथन किया, वैसा ही त्रास्त्रिशक देवों के लिए कहना चाहिए । लोकपाल देवों के लिए भी इसी तरह कहना चाहिए। किन्तु इतना अन्तर है कि अपने द्वारा वैक्रिय किये हुए असुरकुमार देव और देवियों के रूपों से वे संख्येय द्वीप समुद्रों को भर सकते हैं। यह उनका विषय है, विषयमात्र है, परन्तु उन्होंने कभी ऐसा किया नहीं, करते नहीं और करेंगे भी नहीं। ६ प्रश्न-हे भगवन् ! असुरेन्द्र असुरराज चमर के लोकपाल ऐसी महाऋद्धि वाले हैं यावत् वे इतना वैक्रिय करने की शक्ति वाले हैं, असुरेन्द्र असुरराज चमर की अग्रमहिषियां (पटरानी देवियाँ) कितनी बडी ऋद्धि वाली हैं यावत् विकुर्वणा करने की कितनी शक्ति है ? ६ उत्तर-हे गौतम ! असुरेन्द्र असुरराज चमर की अग्रमहिषियाँ महाऋद्धि वाली हैं यावत् महाप्रभाव वाली हैं। वे अपने अपने भवनों पर, अपने अपने एक एक हजार सामानिक देवों पर, अपनी अपनी सखी महत्तरिका देवियों पर और अपनी अपनी परिषदाओं पर अधिपतिपना भोगती हुई विचरती हैं यावत् वे अग्रमहिषियाँ ऐसी महाऋद्धि वाली हैं । इस विषय में शेष वर्णन लोकपालों के समान कहना चाहिए। ७ प्रश्न-सेवं भंते !, सेवं भंते !! त्ति । भगवं दोच्चे गोयमे For Personal & Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ३ उ. १ चमरेन्द्र की ऋद्धि ५४५ समणं भगवं महावीरं वंदइ, णमंसइ । वंदित्ता णमंसित्ता जेणेव तच्चे गोयमे वाउभूई अणगारे, तेणेव उवागच्छछ, उवागच्छित्ता तच्च गोयमं वा अणगारं एवं वयासी एवं खलु गोयमा ! चमरे असुरिंदे, असुरराया एमहिड्ढीए, तं चैव एवं सव्वं अपुवागरणं णेयव्वं अपरिसेसियं जाव - अग्गमहिसीणं जाव - वत्तव्वया सम्मत्ता । तेणं से तच्चे गोयमे वाउभूई अणगारे दोस्स गोयमस्स अग्गिभूइस्स अणगारस्स एवमाइवखमाणस्स भासमाणस्स, पण्णवेमाणस्स, परूवेमाणस्स, एयमहं णो सद्दes, णो पत्तियs, णो रोएइ एयम असद्दहमाणे, अपत्तियमाणे अरोपमाणे उट्ठाए उट्ठेह, उट्टाए उट्ठित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छ, जाव - पज्जुवासमाणे एवं वयासी एवं खलु भंते ! दोच्चे गोयमे अग्गभई अणगारे ममं एवमाइक्खड़, भासइ, पण्णवेइ, परूवेइ - एवं खलु गोयमा ! चमरे असुरिंदे असुरराया महिड्ढीए, जाव - महाणुभागे, से णं तत्थ चोत्तीसाए भवणावाससय सहस्साणं, एवं तं चैव सव्वं अपरिसेसं भाणियव्वं, जाव - अग्गमहिसीणं, वत्तव्वया सम्मत्ता, से कहमेयं भंते ! एवं । ७ उत्तर - गोयमाई ! समणे भगवं महावीरे तच्चं गोयमं वाउभूइं अणगारं एवं वयासी जं णं गोयमा ! दोच्चे गोयमे अग्गिभूई अणगारे तव एवमाक्खर, भासह, पण्णवेइ, परूवेइ, एवं खलु For Personal & Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ३ उ. १ चमरेन्द्र की ऋद्धि गोयमा ! चमरे असुरिंदे, असुरराया महिड्ढीए, एवं तं चैव सव्वं जाव - अग्गमहिसीणं वत्तव्वया सम्मत्ता" सच्चे णं एसमट्टे, अहं पिणं गोयमा ! एवमाइक्खामि, भासामि, पण्णवेमि, परूवेंमि - एवं खलु गोयमा ! चमरे असुरिंदे असुरराया, जाव - महिड्ढीए, सो चेव बीइओ गमो भाणियव्वो, जाव- अग्गमहिसीओ, सच्चे. णं समट्ठे । ५४६ सेवं भंते ! सेवं भंते !! त्ति तच्चे गोयमे वाउभई अणगारे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता णमंसित्ता जेणेव दोच्चे गोयमे अग्गभूइ अणगारे तेणेव उवागच्छह, उवागच्छित्ता दोच्चं गोयमं अग्भूिई अणगारं वंदड़ णमंसह, वंदित्ता णमंसित्ता एयमहं सम्मं विणणं भुज्जो भुज्जो खामेह | कठिन शब्दार्थ - अट्ठवागरणं- अपृष्टव्याकरण - बिना पूछे उत्तर । यध्वं कना । अपरिसेसियं - बाकी कुछ नहीं रहे, एयमट्ठठं- इस अर्थ को, भुज्जोभुज्जो - बारबार, खामेइखमाता है - क्षमा मांगता है, वत्तव्वया वक्तव्यता, सम्मत्ता- -पूरी, कहमेयं - किस प्रकार | भावार्थ - ७ प्रश्न - हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है' ऐसा कह कर द्वितीय गौतम अग्निभूति अनगार श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वन्दना नमस्कार कर जहाँ तृतीय गौतम वायुभूति अनगार थे, वहाँ गये । वहाँ जाकर अग्निभूति अनमार ने वायुभूति अनगार से इस प्रकार कहाहे गौतम ! असुरेन्द्र असुरराज चमर ऐसी महाऋद्धि वाला है । इत्यादि सारा वर्णन ( चमरेन्द्र सामानिक, त्रायस्त्रशक, लोकपाल और पटरानी देवियों तक का सारा वर्णन ) अपृष्ट व्याकरण के रूप में अर्थात् प्रश्न पूछे बिना ही उत्तर के For Personal & Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ३ उ. १ चमरेन्द्र की ऋद्धि ५४७ रूप में कहना चाहिए। इसके बाद अग्निभूति अनगार द्वारा कथित, भाषित, प्रज्ञापित और प्रतापत उपर्युक्त बात पर तृतीय गौतम वायुभूति अनगार को श्रद्धा, प्रतीति (विश्वास) और रुचि नहीं हुई। इस बात पर श्रद्धा, प्रतीति और रुचि न करते. हुए वे तृतीय गौतम वायुभूति अनगार, अपनी उत्थान शक्ति द्वारा उठे, उठकर श्रमण भगवान महावीर स्वामी के पास आये और यावत् उनकी पर्युपासना करते हुए इस प्रकार बोले-हे भगवन् ! द्वितीय गौतम अग्निमति अनगार ने मुझ से इस प्रकार कहा, विशेष रूप से कहा, बतलाया और प्ररूपित किया कि'असुरेन्द्र असुरराज चमर ऐसी बडी ऋद्धि वाला है, यावत् ऐसा महान् प्रभाव वाला है कि वहाँ चौतीस लाख भवनावासों पर स्वामीपना करता हुआ विचरता है (यहाँ उसको अग्रमहिषियों तक का पूरा वर्णन कहना चाहिए)। तो हे भगवन् ! यह बात किस प्रकार है ? ७ उत्तर-हे गौतम ! आदि इस प्रकार सम्बोधित करके श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने तीसरे गौतम वायुभूति अणगार से इस प्रकार कहा-हे गौतम ! द्वितीय गौतम अग्निभूति अनगार ने जो तुमसे इस प्रकार कहा, भाषित किया, बतलाया और प्ररूपित किया कि-हे गौतम ! असुरेन्द्र असुरराज चमर ऐसी महा ऋद्धि वाला है इत्यादि (उसकी अग्रमहिषियाँ तक का सारा वर्णन यहाँ कहना चाहिए) । हे गौतम ! यह बात सच्ची है । हे गौतम ! मैं भी इसी तरह कहता हूं, भाषण करता हूँ, बतलाता हूँ और प्ररूपित करता हूँ कि असुरेन्द्र असुरराज चमर ऐसी महाऋद्धि वाला है, इत्यादि उसको अग्रमहिषियों पर्यन्त सारा वर्णन रूप द्वितीय गमा (आलापक) यहाँ कहना चाहिए । इसलिए है गौतम ! द्वितीय गौतम अग्निभूति द्वारा कही हुई बात सत्य है । सेवं भंते ! सेवं भंते !! हे भगवन् ! जैसा आप फरमाते हैं वह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! जैसा आप फरमाते हैं वह इसी प्रकार है । ऐसा कह कर तृतीय गौतम वायुभूति अनगार ने श्रमण 'भगवान् महावीर स्वामी को For Personal & Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४८ भगवती सूत्र-श. ३ उ. १ वैरोचनराज बलिन्द्र वन्दना नमस्कार किया। वन्दना नमस्कार करके जहां द्वितीय गौतम अग्निभूति अनगार थे वहाँ आये, वहाँ आकर उन्हें वन्दना नमस्कार किया, वन्दना नमस्कार करके पूर्वोक्त बात के लिए अर्थात् उनकी कही हुई बात नहीं मानी थी, इसके लिए उनसे बार बार विनयपूर्वक क्षमा याचना की। विवेचन-जिस प्रकार चमरेन्द्र का कथन किया गया है, उसी प्रकार उसके सामानिक और त्रास्त्रिशक देवों का भी वर्णन करना चाहिए । इसी प्रकार चमरेन्द्र के लोकपाल और अग्रमहिषियों का भी कथन जानना चाहिए, किन्तु विशेषता यह है कि इनकी शक्ति संख्यात द्वीप समुद्रों तक के स्थल को भरने की है, असंख्यात की नहीं। चमरेन्द्र, सामानिक और त्रायस्त्रिश की अपेक्षा लोकपाल और अग्रमहिषियाँ अल्प ऋद्धि वाली हैं। इसलिए इनकी वैक्रिय करने की ठाक्ति भी उनकी अपेक्षा अल्प है। वैरोचनगज बलिन्द्र ८ प्रश्न-तएणं से तच्चे गोयमे वाउभूई अणगारे दोच्चेणं गोयमेणं अग्गिभूइणामेणं अणगारेणं सद्धि जेणेव समणे भगवं महावीरे, जाव-पज्जुवासमाणे एवं वयासी-जहणं भंते ! चमरे असुरिंदे, असुरराया एमहिड्ढीए, जाव-एवइयं च णं पभू विउवित्तएबली णं भंते ! वहरोयाणंदे, वइरोयणराया के महिड्ढीए, जाव-केवइयं च णं पभू विउवित्तए ? ८ उत्तर-गोयमा ! बली णं वहरोयाणिदे, वइरोयणराया महिड्डीए जाव-महाणुभागे, से णं तत्थ तीसाए भवणावाससयसहस्साणं, सट्टीए सामाणियसाहस्सीणं, सेसं जहा चमरस्स तहा बलिस्स वि For Personal & Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ३ उ. १ वैरोचनेन्द्र की ऋद्धि णेयव्वं, णवरं - साइरेगं केवलकप्पं जंबूद्दीवं ति भाणियव्वं, सेसं तं चैव णिरवसेसं यव्वं, णवरं णाणत्तं जाणियव्वं भवणेहिं, सामाणिएहिं य । सेवं भंते ! सेवं भंते! त्ति तच्चे गोयमे वाउभूई जाव - विहरह । कठिन शब्दार्थ –सद्ध – साथ, वइरोर्याणदे – वैरोचनेन्द्र, वइरोयणराया - वैरोचनराज, पभू - प्रभु- समर्थ, साइरेगं सातिरेक-साधिक- कुछ अधिक, केवलकप्पं - केवलकल्प - सम्पूर्ण, णिरवसेसं - अवशेष रहित - पूरा । ५४९ भावार्थ - ८ प्रश्न - - इसके बाद वे तीसरे गौतम वायुभूति अनगार, दूसरे गौतम अग्निभूति अनगार के साथ जहाँ श्रमण भगवान् महावीर स्वामी बिराजे हुए थे, वहाँ आये । वहाँ आकर उन्हें वन्दना नमस्कार किया, वन्दना नमस्कार करके उनकी पर्युपासना करते हुए इस प्रकार बोले कि हे भगवन् ! यदि असुरेन्द्र असुरराज चमर ऐसी बडी ऋद्धिवाला है यावत् इतनी विकुर्वणा करने की शक्ति वाला है, तो हे भगवन् ! वैरोचनेन्द्र वैरोचन राज बलि कितनी बडी ऋद्धि वाला है ? यावत् वह कितनी विकुर्वणा करने की शक्ति वाला है ? ८ उत्तर - हे गौतम ! वरोचनेन्द्र वैरोचन राज बलि महा ऋद्धि वाला है यावत् महानुभाग है । वह तीस लाख भवनों का तथा साठ हजार सामानिक देवों का अधिपति है । जिस प्रकार चमर के सम्बन्ध में वर्णन किया गया है। उसी तरह बलि के विषय में भी जानना चाहिए। विशेषता यह है कि बलि अपनी विकुर्वणा शक्ति से सातिरेक जम्बूद्वीप को अर्थात् जम्बूद्वीप से कुछ अधिक स्थल को भर देता है। बाकी सारा वर्णन यह है कि भवन और सामानिक देवों के विषय में भिन्नता है । उसी तरह से है । अन्तर सेवं भंते ! सेवं भंते !! हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । ऐसा कह कर यावत् तृतीय गौतम वायुभूति अनगार विचरते हैं । For Personal & Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ३ उ. १ धरणेन्द्र की ऋद्धि विवेचन - 'वैरोचनेन्द्र' शब्द का अर्थ करते हुए टीकाकार ने लिखा है" दाक्षिणात्यासुरकुमारेभ्यः सकाशाद् विशिष्टं रोचनं दीपनं येषामस्ति ते वैरोचना औदीच्यासुराः, तेषु मध्ये इन्द्रः परमेश्वरो वैरोचनेन्द्रः ।" ५५० अर्थ- दक्षिण दिशा के असुरकुमारों की अपेक्षा जिनकी कान्ति विशिष्ट अधिक है उनको वैरोचन कहते है अर्थात् दक्षिण दिशा के असुरकुमारों की अपेक्षा उत्तर दिशा के असुरकुमारों की कान्ति विशेष है, इसलिए उत्तर दिशा के असुरकुमारों को वैरोचन कहते हैं और उनके इन्द्र को 'वैरोचनेन्द्र' कहते हैं । उनकी शक्ति चमरेन्द्र की अपेक्षा अधिक है । इसलिए वह अपने वैक्रियकृत रूपों से सम्पूर्ण जम्बूद्वीप से कुछ अधिक भाग को भर देता है । नागराज धरणेन्द्र ९ प्रश्न - 'भंते!' त्ति भगवं दोच्चे गोयमे अग्निभूई अणगारे समणं भगवं महावीरं वंद णमंसह, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासीजड़ णं भंते ! बली बहरोयणिंदे, वइरोयणराया एमहिड्ढीए, जावएवइयं च णं पभू विउव्वित्तए, धरणे णं भंते ! णागकुमारिंदे, णागकुमारराया केमहिड्ढीए जाव - केवइयं च णं पभू विउब्वितए ? ९ उत्तर - गोयमा ! धरणे णं णागकुमारिंदे, णागकुमारराया एवं महिड्ढीए, जाव - से णं तत्थ चोयालीसाए भवणावाससयसहस्साणं, छण्हं सामाणियसाहस्सीणं, तायत्तीसाए, तायत्तीसगाणं चउन्हं लोगपालाणं, छहं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं, तिह परिमाणं, सत्तण्हं अणियाणं, सत्तण्हं अणियाहिवईणं चउव्वीसाए For Personal & Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-श .३ उ. १ धरणेन्द्र की ऋद्धि आयरक्खदेवसाहस्सीणं, अण्णेसिं च जाव-विहरइ । एवइयं च णं पभू विउवित्तए, से जहा नामए जुवई जुवाणे जाव-पभू केवलकप्पं जंबूदीवं, दीवं जाव-तिरियं संखेजे दीवसमुद्दे बहूहिं णागकुमारीहिं जाव-विउव्विस्संति वा, सामाणिया, तायत्तीसलोगपाला,अग्गमहिसीओ य तहेव जहा चमरस्स णवरं-संखेजे दीवे समुद्दे भाणियब्वे, एवं जाव-थणियकुमारा, वाणमंतरा, जोई. सिया वि, णवरं-दाहिणिल्ले सव्वे अग्गिभूई पुच्छइ, उत्तरिल्ले सब्वे वाउभई पुच्छ्इ । कठिन शब्दार्थ-अणियाणं-सेना पर, अणियाहिवइणं-सेनाधिपति पर, दाहिणिल्लेदक्षिण दिशा के, उत्तरिल्ले-उत्तर दिशा के । भावार्थ-९ प्रश्न-इसके बाद दूसरे गौतम अग्निभूति अनगार ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वन्दना नमस्कार किया, वन्दना नमस्कार करके वे इस प्रकार बोले-हे भगवन् ! यदि वैरोचनेन्द्र वैरोचनराज बलि ऐसी महा ऋद्धि वाला है यावत् इतनी वैक्रिय शक्ति वाला है, तो नागकुमारेन्द्र नागकुमार-राज धरण कितनी बडी ऋद्धि वाला है यावत् कितनी वैक्रिय शक्ति वाला है ? ९ उत्तर-हे गौतम ! वह नागकुमारेन्द्र नागकुमार-राज धरण, महाऋद्धि वाला है यावत् वह चवालीस लाख भवनावासों पर, छह हजार सामानिक देवों पर, तेतीस त्रास्त्रिशक देवों पर चार लोकपालों पर, परिवार सहित छह अग्रमहिषियों पर, तीन सभा पर, सात सेना पर, सात सेनाधिपतियों पर और चौबीस हजार आत्मरक्षक देवों पर तथा दूसरों पर स्वामीपना भोगता हुआ यावत् विचरता है। उसकी विकर्वणा शक्ति इतनी है कि युवती युवा के For Personal & Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५२ भगवती सूत्र - श. ३ उ. १ धरणेन्द्र की ऋद्धि दृष्टान्त से (जैसे वे दोनों संलग्न दिखाई देते हैं उसी तरह से ) यावत् वह अपने द्वारा वैकिकृत बहुत से नागकुमार देवों से तथा नागकुमार देवियों से सम्पूर्ण जम्बूद्वीप को ठसाठस भरने में समर्थ है और तिर्छा संख्यात् द्वीप समुद्रों जितने स्थल को भरने की शक्ति वाला है । संख्यात द्वीप समुद्र जितने स्थल को भरने की मात्र शक्ति है, मात्र विषय है, किन्तु ऐसा उसने कभी किया नहीं, करता नहीं और भविष्यत् काल में करेगा भी नहीं । इनके सामानिक देव, त्रायस्त्रशक देव, लोकपाल और अग्रमहिषियों के लिए चमरेन्द्र की तरह कथन करता चाहिए, विशेषता यह है कि इनकी विकुर्वणा शक्ति के लिये संख्यात द्वीप - समुद्रों का ही कहना चाहिए । इसी तरह यावत् स्तनितकुमारों तक सब भवनवासी देवों के विषय में भी कहना चाहिए। विशेष यह है कि दक्षिण दिशा के सब इन्द्रों के विषय में द्वितीय गौतम अग्निभूति अनगार ने पूछा है और उत्तर दिशा के सब इन्द्रों के विषय में तृतीय गौतम श्री वायुभूति अनगार ने पूछा है । विवेचन - जिस प्रकार धरण का वर्णन किया गया है, उसी तरह भूतानन्द से लेकर महाघोष पर्यन्त भवनपति के इन्द्रों के विषय में कहना चाहिए। भवनपति देवों के इन्द्रों के नामों को सूचित करने वाली गाथाएँ इस प्रकार हैं चमरे धरणे तह वेणुदेव - हरिकंत अग्गिसी य । पुणे जलकंते वि य अमिय-विलंबे य घोसे य ॥ - भूयादे वेणुदालि-हरिस्सहे अग्गिमाणव वसिट्ठे । जलप्प अभियवाहणे पहंजणे महाघोसे || अर्थ- चमर, धरण, वेणुदेव, हरिकान्त, अग्निशिख, पूर्ण, जलकान्त, अमित, विलम्ब और घोष, ये दस दक्षिण निकाय के इन्द्र हैं । बलि, भूतानन्द, वेणुदालि, हरिस्सह, अग्निमाणव, वशिष्ट, जलप्रभ, अमितवाहन, प्रभंजन और महाघोष, ये दस उत्तरनिकाय इन्द्र हैं । इनके भवनों की संख्या- 'चउत्तीसा चउचत्ता' इत्यादि पहले कही हुई दो गाथाओं में बतलाई गई है । इनके सामानिक और आत्मरक्षक देवों की संख्या इस प्रकार हैचउसट्ठी सट्ठी खलु छच्च सहस्साओ असुरवज्जाणं । सामाणियाओ एए चउग्गुणा For Personal & Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ३ उ. १ केन्द्र की ऋद्धि ५५३ आयरक्खा उ। ___ अर्थ- चमरेन्द्र के चौसठ हजार सामानिक हैं, बलीन्द्र के साठ हजार सामानिक हैं । असुरकुमार के सिवाय सब के छह छह हजार सामानिक हैं । जिसके जितने सामानिक होते हैं, उससे चौगुने आत्मरक्षक देव होते हैं। धरण आदि प्रत्येक के छह छह अग्रमहिषियाँ हैं । धरणेन्द्र की तरह वाणव्यन्तरेन्द्रों का भी परिवार सहित वर्णन कहना चाहिए। वाणव्यन्तर देवों के एक दक्षिण दिशा का और एक उत्तर दिशा का, इस तरह प्रत्येक निकाय के दो दो इन्द्र होते हैं। वे इस प्रकार हैं काले य महाकाले, सुरूवपडिरूवपुण्णभद्देय । अमरवइमाणिभद्दे भीमे य तहा महाभीमे ।। किण्णर किंपुरिसे खलु सप्पुरिसे चेव तह महापुरिसे । अइकाय महाकाए गीयरई चेव गोयजसे ।। अर्थ-काल और महाकाल, सुरूप और प्रतिरूप, पूर्णभद्र और अमरपति (इन्द्र) मणिभद्र, भीम और महाभीम । किन्नर और किम्पुरुष, सत्पुरुष और महापुरुष, अतिकाथ और महाकाय, गीतरति और गीतयश । वाणव्यन्तर देवों में और ज्योतिषी देवों में त्रायस्त्रिंश और लोकपाल नहीं होते हैं । इसलिए उनका यहां कथन नहीं करना चाहिए । इनके चार हजार सामानिक देव होते हैं और इनसे चौगुने अर्थात् सोलह हजार आत्मरक्षक देव होते हैं । प्रत्येक इन्द्र के चारचार अग्रमहिषियाँ होती हैं । इन सब में दक्षिण के इन्द्रों के विषय में और सूर्य के विषय में द्वितीय गणधर श्री अग्निभूति ने पूछा है और उत्तर दिशा के इन्द्र के विषय में तथा चन्द्रमा के विषय में तृतीय गणधर श्री वायुभूति अनगार ने पूछा है । इनमें से दक्षिण के देव और सूर्य देव अपने वैक्रियकृत रूपों से सम्पूर्ण जम्बूद्वीप को ठसाठस भरने में समर्थ हैं और उत्तर दिशा के देव और चन्द्रदेव अपने वैक्रियकृत रूपों से सम्पूर्ण जम्बूद्वीप से कुछ अधिक स्थल को भरने में समर्थ हैं। देवराज शाम देवराज शक्रेन्द्र की ऋद्धि १० प्रश्न-'भंते !' ति भगवं दोच्चे गोयमे अग्गिभूई अण For Personal & Private Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ३ उ. १ शकेन्द्र की ऋद्धि गारे समणं भगवं महावीरं वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी-जइ णं भंते ! जोइसिंदे, जोइसराया एमहिड्ढीए, जावएवइयं च णं पभू विउवित्तए, सक्के णं भंते ! देविंदे, देवराया केमहिड्ढीए, जाव-केवइयं च णं पभू विउवित्तए ? १० उत्तर-गोयमा ! सक्के णं देविंदे, देवराया एवं महिड्ढीए, जाव-महाणुभागे, से णं तत्थ बत्तीसाए विमाणावाससयसहस्साणं, चउरासीए सामाणियसाहस्सीणं, जाव-चउण्हं चउरासीणं आयरक्खसाहस्सीणं अण्णेसिं जाव-विहरइ, एमहिड्ढीए, जाव- एवइयं च णं पभ विउवित्तए, एवं जहेव चमरस्स तहेव भाणियव्वं, नवरंदो केवलकप्पे जंबूदीवे दीवे, अवसेसं तं चेव, एस णं गोयमा ! सकस्स देविंदस्स, देवरण्णो इमेयारूवे विसए, विसयमेत्ते णं बुइए, नो चेव णं संपत्तीए विउब्बिसु वा, विउव्वइ वा, विउविरसइ वा । कठिन शब्दार्थ-जोइसिदे-ज्योतिषी के इन्द्र, सक्के-शक, देविदे-देवेन्द्र,अवसेसं-बाकी। भावार्थ-१० प्रश्न-हे भगवन् ! ऐसा कह कर द्वितीय गौतम भगवान् अग्निभूति अनगार ने श्रमण भगवान महावीर स्वामी को वन्दना नमस्कार किया, वन्दना नमस्कार करके वे इस प्रकार बोले-हे भगवन् ! यदि ज्योतिषीइन्द्र, ज्योतिषीराज ऐसी महा ऋद्धि वाला है और इतना वैक्रिय करने की शक्ति वाला है, तो देवेन्द्र देवराज शक्र कितनी बडी ऋद्धिवाला है और कितना वैक्रिय करने की शक्ति वाला है। १० उत्तर-हे गौतम ! देवेन्द्र देवराज शक मोटी ऋद्धि वाला है यावत् For Personal & Private Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ३ उ. १ शकेन्द्र की ऋद्धि ५५५ महा प्रभावशाली है । वह वहाँ बत्तीस लाख विमानावासों पर तथा चौरासी हजार सामानिक देवों पर यावत् तीन लाख छत्तीस हजार आत्मरक्षक देवों पर एवं दूसरे बहुत से देवों पर स्वामीपना भोगता हुआ विचरता है । अर्थात् शक्रेन्द्र ऐसी बडी ऋद्धि वाला है। उसकी वैक्रिय शक्ति के सम्बन्ध में चमरेन्द्र की तरह जानना चाहिए, किन्तु विशेषता यह है कि-वह अपने वैक्रियकृत रूपों से सम्पूर्ण दो जम्बूद्वीप जितने स्थल को भरने में समर्थ है । तिर्छा असंख्यात द्वीप समुद्रों जितने स्थल को भरने की शक्ति है, किन्तु यह तो. उसका विषय मात्र हैं, केवल शक्ति रूप है अर्थात् बिना क्रिया की शक्ति है, किन्तु सम्प्राप्ति द्वारा अर्थात् साक्षात् क्रिया द्वारा उन्होंने कभी ऐसा वैक्रिय किया नहीं, करते नहीं और भविष्यत्काल में करेंगे भी नहीं। विवेलन-शक्रेन्द्र के प्रकरण में 'जाव चउण्हं चउरासीणं' में 'जाव' शब्द दिया है, उससे इतने पाठ का ग्रहण करना चाहिए 'अटण्हं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं, चउण्हं लोगपालाणं, तिहं परिसाणं, सत्तण्हं अणियाणं. सत्तण्हं अणियाहिवईणं ।' __ अर्थ-देवेन्द्र देवराज शक के परिवार सहित आठ अग्रहिषियाँ, चार लोकपाल, तीन परिषद्, सात अनीका (सेना) और सात अनीकाधिपति (सेनापति) हैं । ११ प्रश्न-जइ णं भंते ! सक्के देविंदे, देवराया एमहिड्ढीए, जाव-एवइयं च णं पभू विउवित्तए, एवं खलु देवाणुप्पियाणं अते. वासी तीसए नामं अणगारे पगइभदए, जाव-विणीए, छटुंछटेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावमाणे बहुपडिपुण्णाइं अट्ठ संवच्छराइं सामण्णपरियागं पाउणिता. मासियाए संलेहणाए .. अत्ताणं झसित्ता, सर्द्धि भत्ताई अणसणाए छेदित्ता, आलोइयपडिकंते, समाहिपत्ते, कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे सयंसि For Personal & Private Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ३ उ. , शक्रेन्द्र की ऋद्धि विमाणंसि, उववायसभाए देवसयणिजंसि देवदूसंतरिए अंगुलस्स असंखेजइभागमेत्ताए ओगाहणाए सवकस्स देविंदस्स, देवरण्णो सामाणियदेवत्ताए उववण्णे, तएणं से तीसए देवे अहुणोववण्णमेत्ते समाणे पंचविहाए पजत्तीए पजत्तिभावं गच्छइ, तं जहा-आहारपजत्तीए, सरीर-इंदिय-आण-पाणपजत्तीए, भासा-मणपजत्तीए; तएणं तं तीसयं देवं पंचविहाए पजत्तीए पजत्तिभावं गयं समाणं सामाणियपरिसोववंण्णया देवा करयलपरिग्गहियं दसणहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु जएणं, विजएणं वद्धाविति, वद्धावित्ता एवं वयासीः-अहो ! णं देवाणुप्पिएहिं दिव्वा देविड्ढी, दिव्वा देवज्जुई, दिव्वे देवाणुभावे लधे, पत्ते, अभिसमण्णागए; जारिसिया णं देवाणुप्पिएहिं दिव्या देविड्ढी, दिव्वा देवज्जुई, दिव्वे देवाणुभावे लधे, पत्ते, अभिसमण्णागए तारिसिया णं सक्केण वि देविदेण देवरण्णा दिव्वा देविड्ढी, जाव-अभिसमण्णागया जारिसिया णं सक्केणं देविदेणं, देवरण्णा दिव्या देविड्ढी, जाव-अभिसमण्णागया, तारिसिया णं देवाणुप्पिएहिं वि दिव्वा देविड्ढी, जावअभिसमण्णागया; से णं भंते ! तीसए देवे केमहिढीए, जाव-केवइयं च णं पभू विउवित्तए ? ११ उत्तर-गोयमा ! महिड्ढीए, जाव-महाणुभागे; से णं तत्थ सयस्स विमाणस्स, चउण्हं सामाणियसाहस्सीणं, चउण्हं अग्गम For Personal & Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ३ उ. १ तिष्यक देव की ऋद्धि हिसीणं सपरिवाराणं, तिन्हं परिसाणं, सत्तण्हं अणियाणं, सत्तण्हं अणिया हिवईणं, सोलसहं आयरक्खदेवसाहस्सीणं, अण्णेसिं च बहूणं वेमाणियाणं देवाणं, देवीणं य जाव - विहरइ, एवं महिड्ढीए जाव - एवइयं, चणं पभू विउव्वित्तए, से जहा णामए जुवई जुवाणे हत्थे हत्थे गेहेज्जा, जहेव सकस्स तहेव जाव - एस णं गोयमा ! तीसयस्स देवस्स अयमेयारूवे विसए, विसयमेत्ते बुझ्ए, णो चेवणं संपत्ती विविंस वा विउब्वह वा विउव्विस्सह वा । १२ प्रश्न - जड़ णं भंते! तीसए देवे महिड्ढीए, जाव - एवइयं चणं पभू विउब्वित्तए, सक्क्स्स णं भंते ! देविंदस्स देवरण्णो अवसेसा सामाणिया देवा के महिड्ढीया ? ५५७ १२ उत्तर - तहेव सव्वं, जाव - एस णं गोयमा ! सक्क्स्स देविदस्स देवरण्णो एगमेगस्स सामाणियस्य देवस्स इमेयारूवे विसए, विसयमेत्ते बुइए, णो चेव णं संपत्तीए विउव्विसु वा, विउव्वंति वा, विउव्विस्संति वा, तायत्तीसा य लोगपाल अग्गमहिसी णं जहेव चमरस्स, नवरं - दो केवलकप्पे जंबूदीवे दीवे, अण्णं तं चेव । सेवं भंते ! सेवं भंते! त्ति दोच्चे गोयमे जाव - विहरइ | कठिन शब्दार्थ - तीसए - तिष्यक अनगार, पगइ भद्दए- प्रकृति से भद्र, अणिक्खित्तेणंअनिक्षिप्त- निरन्तर सित्ता-संयुक्त करके सेवन करके आलोइयपडिक्कते - आलोचना प्रतिक्रमण करके, समाहिपत्ते - समाधि प्राप्त कर, उववायसभाए - उपपात - उत्पन्न होने की सभा में, देवदूतरिए - देव वस्त्र से ढके हुए, ओगाहणाए - अवगाहना, उबवनो - उत्पन्न हुआ For Personal & Private Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५८ भगवती सूत्र-श. ३ उ. १ तिष्यक देव की ऋद्धि अहुणोववण्णमेते-अधुनोपपन्नमात्र-तत्काल उत्पन्न हुआ, पज्जत्तीए-पर्याप्ति-पूर्णता से, पज्जत्तिभावं--पर्याप्ति भाव से, आणपाण-पज्जत्तीए-श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति से, करयलपरिग्गहियं-करतल परिगृहीत-दोनों हाथ जोड़कर, वसणहं-दस नखों को, सिरसावत्तं-- मस्तक पर आवर्तन करते हुए, लद्धे--लब्ध हुआ-मिला, पत्ते--प्राप्त हुआ, अभिसमण्णागए--अभिसमन्वागत हुआ-सम्मुख आया, जारिसिया--जसी, तारिसिया--वैसी, बुइएकहा गया है, संपत्तीए-सम्प्राप्ति द्वारा अर्थात् साक्षात् क्रिया द्वारा। भावार्थ-११ प्रश्न-हे भगवन् ! यदि देवेन्द्र देवराज शक्र ऐसी महान ऋद्धि वाला है, यावत् इतना वैक्रिय करने की शक्ति वाला है, तो आपका शिष्य 'तिष्यक' नामक अनगार जो प्रकृत्ति से भद्र यावत् विनीत, निरन्तर छठ छठ तप द्वारा अर्थात् निरन्तर बेले बेले पारणा करने से अपनी आत्मा को भावित करता हुआ, सम्पूर्ण आठ वर्ष तक साधु पर्याय का पालन करके मासिक संलेखना के द्वारा अपनी आत्मा को संयुक्त करके तथा साठ भक्त अनशन का छेदन कर (पालन कर) आलोचना और प्रतिक्रमण करके, समाधि को प्राप्त होकर, काल के समय में काल करके सौधर्म देवलोक में गया है। वह वहाँ अपने विमान में उपपात सभा के देव-शयनीय में (देवों के बिछौने में) देवदूष्य (देववस्त्र) से ढंके हुए अंगुल के असंख्यातवें भाग जितनी अवगाहना में देवेन्द्र देवराज शक्र के सामानिक देवरूप से उत्पन्न हुआ है। तत्पश्चात् तत्काल उत्पन्न हुआ वह तिष्यक देव, पाँच प्रकार की पर्याप्तियों से पर्याप्तपने को प्राप्त हुआ अर्थात् आहारपर्याप्ति, शरीरपर्याप्ति, इन्द्रियपर्याप्ति, आनप्राणपर्याप्ति (श्वासोच्छ्वासपर्याप्ति) और भाषामनःपर्याप्ति, इन पाँच पर्याप्तियों से उसने अपने शरीर की रचना पूर्ण की। जब वह तिष्यक देव, पाँचों पर्याप्तियों से पर्याप्त बन गया, तब सामानिक परिषद् के देव, दोनों हाथों को जोड़ कर एवं दसों अंगुलियों के दसों नखों को इकट्ठे करके मस्तक पर अञ्जलि करके जय विजय शब्दों द्वारा बधाया। इसके बाद वे इस प्रकार बोले कि-अहो ! आप देवानुप्रिय को यह दिव्य देवऋद्धि, दिव्य देव-कान्ति और दिव्य देव-प्रभाव मिला है, प्राप्त हुआ है और सम्मुख आया है । हे For Personal & Private Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ३ उ. १ तिष्यक देव की ऋद्धि देवानुप्रिय ! जैसी दिव्य देवऋद्धि, दिव्य देवकान्ति और दिव्य देवप्रभाव आप देवानुप्रिय को मिला है, प्राप्त हुआ है, सम्मुख आया है, वैसी ही दिव्य देवऋद्धि, दिव्य देवकान्ति और दिव्य देवप्रभाव, देवेन्द्र देवराज शक्र को भी मिला है, प्राप्त हुआ है और सम्मुख आया है.। जैसी दिव्य देव ऋद्धि, दिव्य देवकान्ति और दिव्य देवप्रभाव, देवेन्द्र देवराज शक को मिला है, प्राप्त हुआ है और सम्मुख आया है, वैसी ही दिव्य देवऋद्धि, दिव्य देवकान्ति और दिव्य देवप्रभाव आप देवानुप्रिय को मिला है, प्राप्त हुआ है और सम्मुख आया है। (अब अग्निभूति अनगार भगवान् से पूछते हैं) हे भगवन् ! तिष्यक देव कितनी महाऋद्धि वाला है और कितनी वैक्रिय शक्ति वाला है ? __११ उत्तर-वह तिष्यक देव महा ऋद्धि वाला है यावत् महाप्रभाव वाला है । वह अपने विमान पर, चार हजार सामानिक देवों पर, परिवार सहित चार अग्रमहिषियों पर, तीन सभा पर, सात सेना पर, सात सेनाधिपतियों पर, सोलह हजार आत्मरक्षक देवों पर और दूसरे बहुत से वैमानिक देवों पर तथा देवियों पर सत्ताधीशपना भोगता हुआ यावत् विचरता है। वह तिष्यक देव ऐसी महाऋद्धि वाला है यावत् इतना वैक्रिय करने की शक्ति वाला हैं । युवति युवा के दृष्टान्तानुसार एवं आरों युक्त नाभि के दृष्टान्तानुसार वह शक्रेन्द्र जितनी विकुर्वणा करने की शक्ति वाला है । हे गौतम ! तिष्यक देव की जो विकुर्वणा शक्ति कही है, वह उसका सिर्फ विषय है, किन्तु सम्प्राप्ति द्वारा कभी उसने इतनी विकुर्वणा की नहीं, करता भी नहीं और भविष्यत् काल में करेगा भी नहीं। १२ प्रश्न-हे भगवन् ! यदि तिष्यक देव इतनी महाऋद्धि वाला है यावत् इतनी विकुर्वणा करने की शक्ति वाला है, तो देवेन्द्र देवराज शक्र के दूसरे सब सामानिक देव कितनी महा ऋद्धि वाले हैं, यावत् कितनी विकुर्वणा शक्ति वाले हैं ? १२ उत्तर-हे गौतम ! जिस तरह तिष्यक देव का कहा, उसी तरह For Personal & Private Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ३ उ. १ तिष्यक देव की ऋद्धि शक्रेन्द्र के सब सामानिक देवों का जानना चाहिए। किन्तु हे गौतम ! यह विकुर्वणा शक्ति उनका विषयमात्र है, परन्तु सम्प्राप्ति द्वारा इन्होंने कभी इतनी विकुर्वणा की नहीं, करते नहीं और भविष्यत् काल में भी करेंगे नहीं । शकेन्द्र के त्रास्त्रिशक, लोकपाल और अग्रमहिषियों के विषय में चमरेन्द्र की तरह कहना चाहिए, किन्तु इतनी विशेषता है कि ये अपने वैक्रियकृत रूपों से सम्पूर्ण दो जम्बूद्वीप को भरने में समर्थ हैं । बाकी सारा वर्णन चमरेन्द्र की तरह कहना चाहिए। सेवं भंते ! सेवं भंते !! हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, ऐसा कह कर द्वितीय गौतम अग्निभूति अनगार यावत् विचरते हैं। विवेचन-पहले शकेन्द्र की ऋद्धि और विकुर्वणा. शक्ति का वर्णन किया गया, इसलिए उसके बाद उसके सामानिक देवों की ऋद्धि और विकुर्वणा के सम्बन्ध में पूछा गया है, यह प्रसंग प्राप्त ही है । इसके बाद प्रश्नकर्ता ने अपने परिचित श्री तिष्यक अनगार-जो कि काल करके शकेन्द्र के सामानिक देव रूप से उत्पन्न हुए हैं, उनकी ऋद्धि और विकुर्वणा के सम्बन्ध में पूछा है, यह भी प्रसंग प्राप्त ही है। शङ्का-आहार पर्याप्ति, शरीर पर्याप्ति, इन्द्रिय पर्याप्ति, श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति, भाषा पर्याप्ति और मनः पर्याप्ति, य छह पयोप्तियाँ कही गई हैं, किंतु यहाँ पर पांच ही. पर्याप्तियां कही गई हैं, इसका क्या कारण है ? समाधान-"इह तु पञ्चधा भाषामन:-पर्यात्योबहुश्रुताभिमतेन केनापि कारणेन एकत्वविवक्षणात्।" , अर्थ-बहुश्रुत महापुरुषों ने अपने इष्ट किसी कारण से यहाँ (देवों में.) भाषा पर्याप्ति और मनः पर्याप्ति को अलग अलग नहीं गिना है, किंतु दोनों को शामिल रूप में एक ही गिना है । क्योंकि देवों में भाषा पर्याप्ति और मनः पर्याप्ति, दोनों पर्याप्तियां शामिल ही (बहुत कम अंतर से) बंधती हैं । इसलिए यहां पर पांच ही पर्याप्तियां कही गई हैं। मूलपाठ में 'लद्धे, पत्ते, अभिसमण्णागए' ये तीन शब्द आये हैं । इनका विशेषार्थ For Personal & Private Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ३ उ. १ ईशानेन्द्र की ऋद्धि ५६१ करते हुए टीकाकार ने लिखा है कि "लद्धे ति जन्मान्तरे तदुपार्जनापेक्षया, 'पत्ते' ति प्राप्त देवभवाऽपेक्षया, अभिसमvणागए' ति तद्भोगाऽपेक्षया" । अर्थ-लब्धः अर्थात् मिला, पूर्व जन्म में उनका उपार्जन किया। प्राप्त अर्थात् देवभव की अपेक्षा प्राप्त । अभिसमन्वागत अर्थात् प्राप्त हुई भोग सामग्री को भोगना । इसी बात को स्पष्ट करने के लिए मूलपाठ में उपरोक्त तीन शब्द आये हैं। ईशानेन्द्र आदि की ऋद्धि और विकुर्वणा १३ प्रश्न-भंते !' त्ति भगवं तच्चे गोयमे वाउभूई अणगारे समणं भगवं जाव-एवं वयासी-जइ णं भंते ! सक्के देविंदे देवराया एवं महिड्ढीए, जाव-एवइयं च णं पभू विउवित्तए, ईसाणे णं भंते ! देविंदे देवराया के महिड्ढीए ? १३ उत्तर-एवं तहेव, नवरं-साहिए दो केवलकप्पे जंबूदीवे दीवे, अवसेसं तहेव । भावार्थ-प्रश्न-१३ हे भगवन् ! ऐसा कह कर तृतीय गौतम गणधर भगवान् वायुभूति अनगार श्रमण भगवान महावीर स्वामी को वन्दना नमस्कार करके इस प्रकार बोले-हे भगवन् ! यदि देवेन्द्र देवराज शक्र यावत् ऐसी महाऋद्धि वाला है यावत् इतनी विकुर्वणा करने की शक्ति वाला है, तो देवेन्द्र देवराज ईशान कितनी महा ऋद्धि वाला है यावत् कितना वैक्रिय करने की शक्ति वाला है ? १३ उत्तर-हे गौतम ! जैसा शकेन्द्र के विषय में कहा, वैसा ही सारा वर्णन ईशानेन्द्र के लिए जानना चाहिए। विशेषता यह है कि वह अपने For Personal & Private Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६२ भगवती सूत्र-श. ३ उ. १ कुरुदत्त देव की ऋद्धि वैक्रियकृत रूपों से सम्पूर्ण दो जम्बूद्वीप से कुछ अधिक स्थल को भर देता है । बाकी सारा वर्णन पहले की तरह जानना चाहिए । विवेचन-यहाँ ईशानेन्द्र के प्रकरण को शकेन्द्र के प्रकरण के समान बतलाया है । इसका कारण यह है कि शक्रेन्द्र के प्रकरण में कही हुई बहुत सी बातों के साथ ईशानेन्द्र के प्रकरण में कही हुई बहुतसी बातों की समानता है, जो विशेषता है वह इस प्रकार है । ईशानेन्द्र के अट्ठाईस लाख विमान, अस्सी हजार सामानिक देव और तीन लाख बीस हजार आत्मरक्षक देव हैं। कुरुदत्तपुत्र अनगार आदि की ऋद्धि १४ प्रश्न-जइ णं भंते ! ईसाणे देविंदे देवराया एमहिड्डीए, जाव-एवइयं च णं पभू विउवित्तए, एवं खलु देवाणुप्पियाणं अंतेवासी कुरुदत्तपुत्ते नामं अणगारे पगइभद्दए, जाव-विणीए, अट्ठमंअट्ठः मेणं अणिक्खितेणं पारणए आयंबिलपरिग्गहिएणं तवोकम्मेणं उड्ढे बाहाओ पगिझिय पगिज्झिय सूराभिभहे आयावणभूमिए आयावेमाणे बहुपडिपुण्णे छम्मासे सामण्णरियाणं पाउणित्ता। अद्धमासिआए संलेहणाए अत्ताणं झूसित्ता, तीसं भत्ताई अणसणाई छेदित्ता, आलोइयपडिक्कते, समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा ईसाणे कप्पे सयंसि विमाणंसि, जा तीसए वत्तव्वया सा सव्वेव अपरिसेसा कुरुदत्तपुत्ते ? १४ उत्तर-नवरं साइरेगे दो केवलकप्पे जंबूदीवे दीवे, अवसेसं For Personal & Private Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ३ उ. १ शकेन्द्र की ऋद्धि तं चैव एवं सामाणिय-तायत्तीसग-लोगपाल-अग्गमहिसीणं, जाव एम णं गोयमा ! ईसाणस्स देविंदस्स देवरण्णो एवं एगमेगाए अग्गमहिसीए देवीए अयमेयारूवे विसए, विसयमेत्ते बुझए, नो चेवणं संपत्तीए विउव्विंसु वा, विउव्वंति वा, विउब्विस्संति वा । एवं सणकुमारेवि, नवरं - चत्तारि केवलकप्पे जंबूदीवे दीवे, अदुत्तरं च णं तिरियमसंखेज्जे, एवं सामाणिय-तायत्तीस- लोगपालअग्गमहिसीणं असंखेज्जे दीव-समुद्दे सव्वे विउव्वंति, सणकुमाराओ आरद्धा उवरिल्ला लोगपाला सव्वे वि असंखेज्जे दीव-समुद्दे विउव्वंति, एवं माहिंदे वि नवरं - सातिरेगे चत्तारि केवलकप्पे जंबूदीवे दीवे, एवं बंभलोए वि, नवरं - अट्ठ केवलकप्पे, एवं लंतए वि, नवरं साइरेगे अलकप्पे, महासुक्के सोलस केवलकप्पे, सहस्सारे साइरेगे सोलस, एवं पाणए वि, नवरं बत्तीसं केवलकप्पे, एवं अच्चुए वि, नवरं साइरेगे बत्तीसं केवलकप्पे जंबूदीवे दीवे, अण्णः तं चैव । सेवं भंते! सेवं भंते! ति तच्चे गोयमे वाउभूई अणगारे समणं - भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, जाव - विहरइ । ५६३ कठिन शब्दार्थ-पगिज्झिय - ग्रहण करके, सूराभिमुहे - सूर्य की तरफ मुख करके, आवणभूमि- आतापन भूमि में आयावेयाणे - आतापना लेते हुए, आरद्धा उवरिल्ला से लेकर ऊपर के, अण्णं - अन्य सब । भावार्थ - १४ प्रश्न - हे भगवन् ! यदि देवेन्द्र देवराज ईशान ऐसी महा ऋद्धि वाला है, यावत् इतना वैक्रिय करने की शक्ति वाला है, तो प्रकृति से भद्र For Personal & Private Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ३ उ. १ कुरुदत्तपुत्र देव की ऋद्धि यावत् विनीत तथा निरन्तर अट्टम यानी तेले तेले की तपस्या और पारणे में आयम्बिल ऐसी कठोर तपस्या से अपनी आत्मा को भावित करने वाला, दोनों हाथ ऊँचे रख कर सूर्य की तरफ मुंह करके आतापना की भूमि में आतापना लेने वाला, आपका अन्तेवासी - शिष्य कुरुदत्तपुत्र नामक अनगार पूरे छह महीने तक श्रमण पर्याय का पालन करके, पन्द्रह दिन की संलेखना से अपनी आत्मा को संयुक्त करके, तीस भक्त तक अनशन का छेदन करके, आलोचना और प्रतिक्रमण करके समाधिपूर्वक काल के अवसर पर काल करके, ईशान कल्प में अपने विमान में ईशानेन्द्र के सामानिक देव रूप से उत्पन्न हुआ है । इत्यादि सारा वर्णन जैसा तिष्यक देव के लिए कहा है, वह सारा वर्णन कुरुदत्तपुत्र देव के विषय में भी जानना चाहिए, तो हे भगवन् ! वह कुरुदत्तपुत्र देव, कितनी महाऋद्धि वाला यावत् कितना वैक्रिय करने की शक्ति वाला है ? ५६४ १४ उत्तर - हे गौतम ! इस सम्बन्ध में सब पहले की तरह जान लेना चाहिए । विशेषता यह है कि कुरुदत्तपुत्र देव, अपने वैक्रियकृत रूपों से सम्पूर्ण दो जम्बूद्वीप से कुछ अधिक स्थल को भरने में समर्थ है, इसी तरह दूसरे सामानिक देव, त्रायस्त्रशक देव, लोकपाल और अग्रमहिषियों के विषय में भी जानना 'चाहिए । हे गौतम! देवेन्द्र देवराज ईशान की अग्रमहिषियों की यह विकुर्वणा शक्ति है, वह केवल विषय है, विषय मात्र है, परन्तु सम्प्राप्ति द्वारा कभी इतना वैक्रिय किया नहीं, करती नहीं और भविष्यत् काल में करेगी भी नहीं । इसी तरह सनत्कुमार आदि देवलोकों के विषय में भी समझना चाहिए, किन्तु विशेषता इस प्रकार है:- सनत्कुमार देवलोक के देव सम्पूर्ण चार जम्बूद्वीप जितने स्थल को भरने और तिर्छा असंख्यात द्वीप समुद्रों जितने स्थल को भरने की शक्ति है । इसी तरह सामानिक देव, त्रायस्त्रशक देव, लोकपाल और अग्रमहिषियाँ, ये सब असंख्यात द्वीप समुद्र जितने स्थल को भरने की शक्ति वाले हैं । सनत्कुमार से आगे सब लोकपाल असंख्येय द्वीप समुद्रों जितने स्थल को भरने की शक्ति वाले हैं। इसी तरह माहेन्द्र नामक चौथे देवलोक में भी For Personal & Private Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ३ उ. १ कुरुदत्तपुत्र देव आदि की ऋद्धि ५६५ समझना चाहिए, किंतु इतनी विशेषता है कि ये सम्पूर्ण चार जम्बूद्वीप से कुछ अधिक स्थल को भरने में समर्थ हैं । इसी तरह ब्रह्मलोक नामक पांचवें देवलोक में भी जानना चाहिए, किंतु इतनी विशेरुता है कि वे सम्पूर्ण आठ जम्बूद्वीप जितने स्थल को भरने में समर्थ हैं। इसी प्रकार लान्तक नामक छठे देवलोक में भी जानना चाहिए, किंतु इतनी विशेषता है कि ये सम्पूर्ण आठ जम्बूद्वीप से कुछ अधिक स्थल को भरने में समर्थ हैं। इसी तरह महाशुक्र नामक सातवें देवलोक के विषय में भी जानना चाहिए, किंतु इतनी विशेषता है कि ये सम्पूर्ण सोलह जम्बूद्वीप जितने क्षेत्र को भरने में समर्थ हैं। इसी तरह सहस्रार नामक आठवें देवलोक के विषय में जानना चाहिए, किंतु इतनी विशेषता है कि ये सम्पूर्ण सोलह जम्बूद्वीप से कुछ अधिक क्षेत्र को भरने में समर्थ हैं। इसी तरह प्राणत देवलोक के विषय में भी कहना चाहिए, किंतु इतनी विशेषता है कि ये सम्पूर्ण बत्तीस जम्बूद्वीप जितने क्षेत्र को भरने में समर्थ हैं। इसी तरह अच्युत देवलोक के विषय में भी जानना चाहिए, किंतु इतनी विशेषता है कि ये सम्पूर्ण बत्तीस जम्बूद्वीप से कुछ अधिक क्षेत्र को भरने में समर्थ हैं । बाकी सारा वर्णन पहले की तरह कहना चाहिए। __ सेवं भंते ! सेवं भंते !! हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । ऐसा कह कर तृतीय गौतम वायुभूति अनगार श्रमण भगवान महावीर स्वामी को वन्दना नमस्कार कर यावत् विचरने लगे। _ विवेचन-ईशानेन्द्र के पश्चात् उसके सामानिक देवों के विषय में प्रश्न पूछना प्रसंग प्राप्त है । तत्पश्चात् प्रश्नकार ने अपने परिचित कुरुदत्तपुत्र अनगार, जो काल करके ईशानेन्द्र के सामानिक देव रूप से उत्पन्न हुए हैं, उनकी ऋद्धि और विकुर्वणा शक्ति आदि के विषय में पूछा है, जो कि प्रसंग प्राप्त ही है। सनत्कुमार के प्रकरण में मूलपाठ में 'अग्गमहिसीणं' शब्द दिया है । इसका कारण यह है कि यद्यपि सनत्कुमार देवलोक में देवियों की उत्पत्ति नहीं होती है, तथापि सौधर्म देवलोक में जो अपरिगृहीता देवियां उत्पन्न होती है और जिनकी स्थिति समयाधिक पल्योपम से लेकर दस पल्योपम तक की होती है, वे अपरिगृहीता देवियाँ सनत्कुमार देवों के भोग के काम में आती है । इसलिए यहां 'अग्रमहिषी' का उल्लेख हुआ है। For Personal & Private Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र- श. ३ उ. .१ ईशानेन्द्र का भगवद् वदन यद्यपि टीकाकार ने सनत्कुमार इन्द्र के लिए ' अग्रमहिषी' की संगति बिठाई है। तथापि यह शब्द प्रमादापतित ही संभव लगता है । क्योंकि पहले देवलोक की दस पल्योपम तक की स्थिति वाली देवियाँ इनके उपभोग में तो आती हैं किन्तु उनकी विकुर्वणा शक्ति का विषय संख्यात द्वीप समुद्र ही है । सागरोपम की स्थितिवालों का हो असंख्यात द्वीप समुद्र जितना विषय बताया गया है । अतः ‘अग्रमहिषी' का विकुर्वणा का विषय संख्यात द्वीप समुद्र से अधिक नहीं हो सकता है । मूलपाठ से असंख्यात द्वीप समुद्र का विषय स्पष्ट होता है जो उचित नहीं है। इसलिए यहां पर 'अग्रमहिषी' पाठ नहीं होना चाहिए। क्योंकि इसके आगे के पाठ में ही लोकपालों के लिए असंख्यात द्वीप समुद्र विषय होना बताया है। इसमें 'अग्रमहिषी' को ग्रहण नहीं किया गया है। इस प्रकार इस पाठ को गहराई से देखने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि वहाँ 'अग्रमहिषी' पाठ नहीं होना चाहिए। प्रायः सभी प्रतियों में होने के कारण मूलपाठ से इस शब्द को नहीं निकाला है। इन देवलोकों के विमानों की संख्या बताने वाली गाथाएँ इस प्रकार है बत्तीस अट्ठावीसा बारस अट्ठ चउरो सयसहस्सा। आरणे बंभलोया विमाणसंखा भवे एसा ।। पण्णासं चत्त छच्चेव सहस्सा लंतक सुक्क सहस्सारे । सय चउरो आणय पाणएसु तिणि आरण्णच्चुयओ ।। अर्थ-(१) सौधर्म में बत्तीस लाख, (२) ईशान में अट्ठाईस लाख, (३) सनत्कुमार में बारह लाख, (४) माहेन्द्र में आठ लाख, (५) ब्रह्मलोक में चार लाख, (६) लान्तक में पचास हजार, (६) महाशुक्र में चालीस हजार, (८) सहस्रार में छह हजार, (९-१०) आणत और प्राणत में चार सौ, (११-१२) आरण और अच्युत में तीन सौ विमान हैं। . इनके सामानिक देवों की संख्या बतलाने वाली गाथा यह है; चउरासीई असीई बावत्तरी सत्तरी य सट्ठी य.।। पण्णा चत्तालीसा तीसा वीसा दस सहस्सा ॥ अर्थ-पहले देवलोक में इन्द्र के चौरासी हजार, दूसरे में अस्सी हजार, तीसरे में बहत्तर हजार, चौथे में सित्तर हजार, पाँचवें में साठ हजार, छठे में पचास हजार, सातवें में चालीस हजार, आठवें में तीस हजार, नववें और दसवें देवलोक के इन्द्र के बीस हजार, ग्यारहवें और बारहवें देवलोक के इन्द्र के दस हजार सामानिक देव हैं। यहां शक्रेन्द्र आदि एकान्तरित पांच इन्द्रों के विषय में अग्निभूति अनगार ने पूछा और ईशानेन्द्र आदि एकान्तरित पाँच इन्द्रों के विषय में वायुभूति अनगार ने पूछा है । For Personal & Private Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ३ उ. १ ईशानेन्द्र का भगवद् वंदन ईशानेन्द्र का भगवद् वंदन १५ प्रश्न-तए णं समणे भगवं महावीरे अण्णया कयाई मोयाओ नयरीओ नंदणाओ चेइयाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता बहिया जणवयविहारं विहरइ । तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नाम णयरे होत्था । (वण्णओ०) जाव-परिसा पज्जु. वासइ । तेणं कालेणं तेणं समएणं ईसाणे देविंदे देवराया, सूलपाणी, वसहवाहणे, उत्तरड्ढलोगाहिवई, अट्ठावीसविमाणावाससयसहस्साहिवई, अरयंबरवत्थधरे, आलइयमालमउडे, नवहेमचारुचित्तचंचलकुंडलविलिहिजमाणगंडे; जाव दस दिसाओ उज्जोवेमाणे; पभासेमाणे, ईसाणे कप्पे, ईसाणवडिंसए विमाणे, जहेव रायप्पसेणइजे जाव-दिव्वं देविडिंढ जाव-जामेव दिसि पाउब्भूए, तामेव दिसिं पडिगए । 'भंते !' त्ति, भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासीः-अहो ! णं भंते ! ईसाणे देविंदे देवराया महिड्ढीए, ईसाणस्स णं भंते ! सा दिव्वा देविड्ढी कहिं गया, कहिं अणुपविट्ठा ? १५ उत्तर-गोयमा ! सरीरं गया । सरीरं अणुपविट्ठा ।। १६ प्रश्न-से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-सरीरं गया ? सरीरं अणुपविट्ठा ? १६ उत्तर-गोयमा ! से जहा णामए कूडागारसाला सिया दुहओ लित्ता, गुत्ता, गुत्तदुवारा णिवाया णिवायगंभीरा, तीसे णं कूडागारसालाए दिटुंतो भाणियव्वो। कठिन शब्दार्थ-अण्णया कयाई-अन्यदा कभी-बाद में किसी दिन, पडिणिक्खमइ For Personal & Private Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ३ उ. १ ईशानेन्द्र का भगवद् वंदन निकलकर, सूलप्राणी – शूलपाणि - हाथ में शूल नामक शस्त्र धारण करने वाला, वसहवाहणे - वृषभवाहन - बैल पर सवारी करने वाला, उत्तरडलोगाहिवई - लोक के उत्तरार्द्ध का स्वामी, अरयंबरवत्थधरे - आकाश के समान रजरहित-निर्मल वस्त्रों को पहनने वाला, आलइयमालमउडे - माला से सुशोभित मुकुट को मस्तक पर धारण करने वाला, नवहेभचारचित्तचंचलकुंडलविलि हिज्जमाणगंडे - कानों में पहने हुए नवीन सोने के सुन्दर, विचित्र एवं चंचल कुण्डलों से जिसका गण्डस्थल सुशोभित हो रहा है, पाउब्भूए- प्रादुर्भूत - प्रकट हुआउपस्थित हुआ, कूडागारसाला - कूटाकार शाला-शिखर के आकार वाला घर, सिया - स्याद्, दुहाओ - दोनों ओर से, लित्ता - लिप्त - लीपा हुआ, गुत्ता – गुप्त, निवायानिर्वात - हवा रहित, दिट्ठतो दृष्टान्त । भावार्थ - १५ प्रश्न - इसके बाद किसी एक समय श्रमण भगवान् महावीर स्वामी 'मोका' नगरी के उद्यान से बाहर निकल कर कर जनपद (देश) में विचरने - लगे। उस काल उस समय में 'राजगृह' नामक नगर था । ( वर्णन करने योग्य ) । भगवान् वहाँ पधारे यावत् परिषद् भगवान् की पर्युपासना करने लगी । उस काल उस समय में देवेन्द्र देवराज शूलपाणि- ( हाथ में शूल धारण करने वाला) वृषभ वाहन - बैल पर सवारी करने वाला, लोक के उत्तरार्द्ध का स्वामी, अट्ठाईस लाख विमानों का अधिपति, आकाश के समान रज रहित निर्मल वस्त्रों को धारण करने वाला, माला से सुशोभित, मुकुट को शिर पर धारण करने वाला, नवीन सोने के सुन्दर विचित्र और चञ्चल कुण्डलों से सुशोभित मुख वाला यावत् दसों दिशाओं को प्रकाशित करता हुआ ईशानेन्द्र, ईशानकल्प के ईशानावतंसक विमान में ( रायपसेणीय सूत्र में कहे अनुसार ) यावत् दिव्य देव ऋद्धि का अनुभव करता हुआ विचरता है । वह भगवान् के दर्शन करने के लिये आया और यावत् जिस दिशा से आया था, उसी दिशा में वापिस चला गया । इसके पश्चात् हे भगवन् ! इस प्रकार सम्बोधित करके गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वन्दना नमस्कार करके इस प्रकार पूछा कि-हे भगवन् ! अहो ! ! देवेन्द्र देवराज ईशान ऐसी महाऋद्धि वाला हैं । हे भगवन् ! ईशानेन्द्र की वह दिध्य देवऋद्धि कहाँ गई और कहाँ प्रविष्ट हुई ? ५६८ For Personal & Private Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ३ उ. १ ईशानेन्द्र का भगवद् वंदन , १५ उत्तर-हे गौतम ! वह दिव्य देवऋद्धि शरीर में गई, और शरीर में ही प्रविष्ट हुई। ____ १६ प्रश्न-हे. भगवन् ! वह दिव्य देवऋद्धि शरीर में गई और शरीर में प्रविष्ट हुई, ऐसा किस कारण से कहा जाता है ? १६ उत्तर-हे गौतम ! जैसे कोई कूडागार (कूटाकार) शाला हो, जो कि दोनों तरफ से लिपी हुई हो, गुप्त हो, गुप्तद्वार वाली हो, पवन रहित हो, पवन के प्रवेश से रहित . गम्भीर हो । ऐसी फूटाकारशाला का दृष्टान्त यहाँ कहना चाहिए। ___ विवेचन-इस चालू प्रकरण में इन्द्रों की वैक्रिय शक्ति, तेजोलेश्या आदि का वर्णन किया गया है। एक समय दूसरे देवलोक का अधिपति देवेन्द्र देवराज ईशान, भगवान् की सेवा में आया और उसने बत्तीस प्रकार के नाटक बतलाये। जिसके लिए रायपसेणीय सूत्र में वर्णित सूर्याभदेव की वक्तव्यता की भलामण दी गई है । उसका संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार हैसुधर्मा सभा के ईशान नाम के सिंहासन पर बैठा हुआ देवन्द्र देवराज ईशान, महा अखण्ड नाटकों आदि के शब्दों द्वारा दिव्य और भोगने योग्य भोगों को भोगता हुआ रहता है। वह ईशानेन्द्र वहाँ अकेला नहीं है, किन्तु परिवार सहित है । उसका परिवार इस प्रकार है-अस्सी हजार सामानिक देव, चार लोकपाल, परिवार सहित आठ अग्रमहिषियां, सात सेना, सात सेनाधिपति, तीन लाख बीस हजार आत्मरक्षक देव और अनेक वैमानिक देव तथा देवियाँ । इस प्रकार के परिवार से वह ईशानेन्द्र परिवृत्त है। एक समय उस ईशानेन्द्र ने अपने अवधिज्ञान के द्वारा जम्बूद्वीप को देखा और देखते ही श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को राजगृह नगर में पधारे हुए देखा । भगवान् को देखते ही वह इन्द्र, एकदम अपने आसन से उठा, उठकर सात आठ कदम तीर्थङ्कर भगवान् के सामने गया, फिर दोनों हाथ जोड़कर भगवान् को वन्दना नमस्कार किया। इसके बाद अपने आभियोगिक देवों को बुलाया और बुलाकर इस प्रकार कहा-'हे देवानुप्रियों ! तुम राजगृह नगर में जाओ वहां श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वन्दना नमस्कार करो। इसके बाद एक योजन जितने विशाल क्षेत्र को साफ करो। यह कार्य करके मुझे वापिस शीघ्र सूचित करो।" इन्द्र की आज्ञा पाकर उन आभियोगिक देवों ने वह सारा For Personal & Private Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७० भगवती सूत्र-श. ३ उ. १ ईशानेन्द्र का भगवद् वंदन कार्य करके. वापिस इन्द्र को सूचित कर दिया । इसके बाद इन्द्र ने अपने सेनाधिपति को बुलाकर इस प्रकार कहा कि-"हे देवानुप्रिय!" तुम ईशानावतंसक नाम के विमान में घण्टा बजाओ और सब देव और देवियों को इस प्रकार कहो कि-हे देव और देवियों ! ईशानेन्द्र, श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वन्दना नमस्कार करने के लिए जाता है, इसलिए तुम शीघ्र ही अपनी महान् ऋद्धि से संयुक्त होकर इन्द्र के पास जाओ। ___ जब सेनाधिपति ने इस प्रकार जाहिर किया, तो बहुत से देव और देवियाँ ईशानेन्द्र के पास उपस्थित हुए । उन समस्त देव और देवियों से परिवृत्त होकर एक लाख योजन परिमाण वाले विमान में बैठ कर ईशानेन्द्र, श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वन्दना करने के लिए निकला । नन्दीश्वर द्वीप में पहुँच कर ईशानेन्द्र ने अपने विमान को छोटा बनाया। फिर वह राजगृह नगर में आया । श्रमण भगवान् महावीर स्वामी की तीन बार प्रदक्षिणा की। फिर अपने विमान को जमीन से चार अगुल ऊँचा रख कर, भगवान के पास जाकर उन्हें वन्दना नमस्कार कर पर्युपासना करने लगा। फिर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास धर्म श्रवण करके इन्द्र ने इस प्रकार निवेदन किया कि-हे भगवन् ! आप तो सर्वज्ञ सर्वदर्शी हैं । सब जानते हैं और सब देखते हैं । मैं तो सिर्फ गौतमादि महर्षियों को दिव्य नाटक विधि दिखलाना चाहता हूँ। ऐसा कह कर ईशानेन्द्र ने दिव्य मण्डप की विकुर्वणा की। उस मण्डप में मणिपीठिका और सिंहासन की भी विकुर्वणा की । फिर भगवान् को प्रणाम करके इन्द्र सिंहासन पर बैठा। इसके बाद उसके दाहिने हाथ से एक सौ आठ देवकुमार निकले और बाएं हाथ से एक सौ आठ देवकुमारियाँ निकलीं । फिर अनेक वादिन्त्रों और गीतों के साथ जन-मानस को रजित करने वाला बत्तीस प्रकार का नाटक बतलाया । फिर उस दिव्य देवऋद्धि, दिव्य देवकान्ति और दिव्य देवप्रभाव को वापिस समेट लिया और एक क्षण में ही वह पहले था वैसा अकेला हो गया। इसका विस्तृत वर्णन रायपसेणीय सूत्र से जानना चाहिए । फिर अपने परिवार सहित देवेन्द्र देवराज ईशान ने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दना नमस्कार किया और जिस दिशा से आया था, उस दिशा में वापिस चला गया अर्थात् अपने स्थान पर चला गया । तब गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से पूछा कि-हे भगवन् ! ईशानेन्द्र की वह दिव्य देवऋद्धि, दिव्य देवकान्ति एवं दिव्य देवप्रभाव कहाँ गया ? कहाँ For Personal & Private Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ३ उ. १ ईशानेन्द्र का पूर्व भव ५७१ प्रविष्ट हुआ। . भगवान् ने फरमाया कि-हे गौतम! कूटा कार शाला के दृष्टान्तानुसार, वह दिव्य देवऋद्धि, दिव्य देवकान्ति और दिव्य देवप्रभाव, ईशानेन्द्र के शरीर में गया, उसके शरीर में ही प्रविष्ट हुआ। कूटाकार शाला के दृष्टान्त का आशय इस प्रकार है । जैसे—शिखर के आकार वाली कोई शाला (घर) हो और उसके पास बहुत से मनुष्य खड़े हों । इतने में बादलों की काली घटा चढ़ आई ही और वर्षा बरसने की तैयारी हो । उस काली घटा को देखते ही जैसे वे सब मनुष्य उस शाला में प्रवेश कर जाते हैं । इसी प्रकार ईशानेन्द्र की वह दिव्य देवऋद्धि, दिव्य देवकान्ति और दिव्य देवप्रभाव, ईशानेन्द्र के शरीर में ही प्रविष्ट हो गया। ईशानेन्द्र का पूर्व भव १७ प्रश्न-ईसाणेणं भंते ! देविंदेणं देवरण्णा सा दिव्वा देविड्ढी, दिव्वा देवज्जुई, दिव्वे देवाणुभागे किण्णा लदुधे, किण्णा पत्ते, किण्णा अभिसमण्णागए ? के वा एस आसी पुव्वभवे, किंणामए वा, किंगोत्ते वा, कयरंसि वा गामंसि वा नगरंसि वा, जाव सण्णिवेसंसि वा, किंवा सोचा, किं वा दचा, कि वा भोचा, किं वा किचा, किं वा समायरित्ता, कस्स वा तहारूवस्स वा समणस्सवा, माहणस्स वा अंतिए एगमवि आरियं, धम्मियं सुवयणं सोचा, निसम्म जं णं ईसाणेणं देविदेणं, देवरण्णा सा दिव्वा देविड्ढी जाव-अभिसमण्णागया ? . १७ उत्तर-एवं खलु गोयमा ! तेणं काले णं, तेणं समए णं गमा For Personal & Private Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७२ भगवती सूत्र-श. ३ उ. १ ईशानेन्द्र का पूर्व भव इहेव जंबूदीवे दीवे, भारहे वासे, तामलित्ती नामं णयरी होत्था । (वण्णओ०) तत्थ णं तामलित्तीए णयरीए तामली णामं मोरियपुत्ते गाहावई होत्था, अड्ढे, दित्ते, जाव-बहुजणस्स अपरिभूए या वि होत्या, तए णं तस्स मोरियपुत्तस्स तामलिस्स गाहावइस्स अण्णया कयाइं पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि कुटुंबजागरियं जागरमाणस्स इमेयारूवे अज्झथिए, जाव-समुप्पजित्था, अस्थि ता मे पुरा पोराणाणं, सुचिण्णाणं, सुपरिवकंताणं, सुभाणं कल्लाणाणं, कडाणं कम्माणं कल्लाणफलवित्तिविसेसो, जेणाहं हिरण्णेणं वड्ढामि, सुवण्णेणं वड्ढामि, धणेणं वड्ढामि, धण्णेणं वड्ढामि, पुत्तेहिं वढामि पसूहि वढामि, विपुलधण-कणगरयण-मणि-मोत्तिय संख-सिलप्पवाल-रत्तरयण-संतसारसावएजेणं अईव अईव अभिवड्ढामि । कठिन शब्दार्थ-एस-यह, आसि-था, कयरंसि-किस, दच्चा-दिया, मोच्चा-खाया, किच्चा-किया, समायरित्ता-आचरण किया, पुव्यरत्तावरत्तकालसमयंसि-पूर्वरात्राऽपररात्रकाल समये-पिछली रात्रि में, अज्झथिए-आध्यात्मिक-संकल्प, सुचिण्णाणं-उत्तम आचार पाल कर, सुपरिक्कंताणं-अच्छे पराक्रम से, कल्लाणफलवित्तिविसेसो-कल्याणकारी फल विशेष, वड्डामि-बढ़ रहा है। 'भावार्थ-१७ प्रश्न-हे भगवन् ! देवेन्द्र देवराज ईशान को वह दिव्य देवऋद्धि, दिव्य देवकान्ति और दिव्य देवप्रभाव किस प्रकार लब्ध हुआ, प्राप्त हआ और अभिसमन्वागत हुआ (सम्मुख आया) ? यह ईशानेन्द्र पूर्वभव में कौन था ? उसका नाम और गोत्र क्या था ? वह किस ग्राम, नगर यावत् सन्निवेश में रहता था ? उसने क्या सुना ? क्या दिया ? क्या खाया ? क्या किया ? क्या आचरण किया ? किस तथारूप के श्रमण या माहन के पास एक For Personal & Private Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ३ उ. १ ईशानेन्द्र का पूर्व भव ५७३ भी आर्य और धार्मिक वचन सुना था एवं हृदय में धारण किया था, जिससे कि देवेन्द्र देवराज ईशान को यह दिव्य देवऋद्धि यावत् मिली है, प्राप्त हुई है और सम्मुख आई है ? " १७ उत्तर-हे गौतम ! उस काल उस समय में इसी जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में ताम्रलिप्ती नाम को नारो थी । उस नगरी का वर्णन करना चाहिए। उस ताम्रलिप्ती नपरी में तामली नाम का मौर्यपुत्र (मौर्यवंश में उत्पन्न) गृहपति रहता था। वह तामली गृहपति धनाढ्य और दीप्ति वाला था यावत् वह बहुत से मनुष्यों द्वारा अपराभवनीय (नहीं दबने वाला) था। किसी एक समय में उस मौर्यपुत्र तामली गृहपति को रात्रि के पिछले भाग में कुटुम्बजागरण करते हुए ऐसा विचार उत्पन्न हुआ कि मेरे द्वारा पूर्वकृत सुआचरित, सुपराक्रमयुक्त, शुभ और कल्याणरूप कर्मों का कल्याणफल रूप प्रभाव अभी तक विद्यमान है, जिसके कारण मेरे घर में हिरण्य (चाँदी) बढ़ता है, सुवर्ण बढ़ता है, रोकड़ रुपया रूप धन बढ़ता है, धान्य बढ़ता है एवं में पुत्रों द्वारा, पशुओं द्वारा और पुष्कल धन, कनक, रत्न, मणि, मोती, शंख, चन्द्रकान्त आदि मणि, प्रवाल आदि द्वारा वृद्धि को प्राप्त हो रहा हूं। ___तं किं णं अहं पुरा पोराणाणं, सुचिण्णाणं, जाव- कडाणं कम्माणं एगंतसो खयं उवेहमाणे विहरामि, तं जाव-ताव अहं हिरण्णेणं वड्ढामि, जाव-अईव अईव अभिवड्ढामि, जावं च णं मे मित्त-णाइ-णियगसंबंधि-परियणो आढाइ, परियाणाइ, सक्कारेइ, सम्माणेइ, कल्लाणं, मंगलं, देवयं, चेइयं विणएणं पज्जुवासइ, तावता मे सेयं कलं पाउप्पभायाए रयणीए जाव-जलंते, सयमेव दारुमयं पडिग्गहं करेत्ता, विउलं असणं, पाणं, खाइमं, साइमं, उवक्खडावेत्ता, मित्त-णाइ-णियग-सयण-संबंधि-परियणं आमं For Personal & Private Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७४ भगवती सूत्र - . ३ उ. १ ईशानेन्द्र का पूर्व भव तेत्ता, तं मित्त-णाइ-णियग-संबंधिपरियणं विउलेणं असण-पाणखाइम-साइमेणं, वत्थ-गंध- मल्ला-लंकारेण य सकारेत्ता, सम्मात्ता तस्लेव मित-गाइ-णियग-संबंधि-परियणस्स पुरओ जेट्टपुत्तं कुटुंबे ठावेत्ता, तं मित्त-णाइ-णियग-संबंधि-परियणं, जेट्टपुत्तं च आपुच्छित्ता सयमेव दारुमयं पडिग्गहं गहाय मुंडे भवित्ता पाणामाए पव्वज्जाए पव्वइत्तए, पव्वइए वि य णं समाणे इमं एयारूवं अभिग्गहं अभिगिहिस्सामि - कप्पड़ मे जावज्जीवाए छटुंछट्टेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं उडूढं बाहाओ पगिज्झिय पगिज्झिय सूराभिमुहस्स आयावणभूमीए आयावेमाणस्स विहरित्तए, छट्टस्स वियणं पारणंसि आयावणभूमीओ पचोरुहित्ता सयमेव दारुमयं पडिग्गहं गहाय तामलित्तीए नयरीए उच्च णीय-मज्झिमाई कुलाई घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए अडित्ता सुद्धोदणं पडिगाहेत्ता, तं तिसत्तक्खुत्तो उदरणं पक्खालेत्ता तओ पच्छा आहारं आहा रित्तए' त्ति कट्टु एवं संपेes | कठिन शब्दार्थ - उवेहमाणे - उपेक्षा करता हुआ, आढाइ आदर करते, दारुमयंलकड़ी का बना हुआ, पडिग्गहं-प्रतिग्रहइ-पात्र, उवक्खडावेत्ता - तैयार करवा कर आमंतेत्ता - बुलाकर, पुरओ-समक्ष, पाणामाए पव्वज्जाए - प्राणामा नामक प्रव्रज्या से, अभिग्गहंअभिग्रह - प्रतिज्ञा विशेष, अणिक्खित्तेणं- निरंतर - बिना रुके, परिज्झय ग्रहण करके, तिसतक्खुत्तो इक्कीस बार, संपेहेइ - विचार करके । भावार्थ- पूर्वकृत, सुआचरित, यावत् पुराने कर्मों का नाश हो रहा है, इस बात को देखता हुआ भी यदि में उपेक्षा करता रहूं अर्थात् भविष्यत् कालीन For Personal & Private Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र -श. ३ उ. १ ईशानेन्द्र का पूर्व भव लाभ की तरफ उदासीन बना रहं, तो यह मेरे लिये ठीक नहीं है। किन्तु जबतक मैं सोने चाँदी आदि द्वारा वृद्धि को प्राप्त होरहा हूं और जबतक मेरे मित्र, ज्ञातिजन, कुटुम्बीजन, दास, दासी आदि मेरा आदर करते हैं, मुझे स्वामीरूप, से मानते हैं, मेरा सत्कार, सन्मान करते हैं और मुझे कल्याणरूप, मंगलरूप, देवरूप, चैत्यरूप, मान कर विनयपूर्वक मेरी सेवा करते हैं, तब तक मुझे अपना कल्याण कर लेना चाहिए । यही मेरे लिये श्रेयस्कर है । अतः कल प्रकाशवाली रात्रि होने पर अर्थात् प्रातःकाल का प्रकाश होने पर सूर्योदय के पश्चात् में स्वयं ही अपने हाथसे लकडी का पात्र बनाऊं और पर्याप्त अशन, पान, खादिम, स्वादिमरूप चार प्रकार का आहार तैयार करके मेरे मित्र, ज्ञातिजन, स्वजन सम्बन्धी और दास दासी आदि सब को निमन्त्रित करके उनको सम्मानपूर्वक अशनादि चारों प्रकार का आहार जीमाकर, वस्त्र सुगंधित पदार्थ, माला और आभषण आदि द्वारा उनका सत्कार सम्मान करके, उन मित्र ज्ञातिजनादि के समक्ष मेरे बडे पुत्र को कुटुम्ब में स्थापित करके अर्थात् उसके ऊपर कुटुम्ब का भार डालकर और उन सब लोगों को पूछकर में स्वयं लकडी का पात्र लेकर एवं मुण्डिरा होकर 'प्राणामा' नाम को प्रव्रज्या अंगीकार करूँ और प्रव्रज्या ग्रहण करते ही इस प्रकार का अभिग्रह धारण करूं कि मैं यावज्जीवन निरन्तर छठ छठ अर्थात् बेले बेले तपस्या करूं और सूर्य के सम्मुख दोनों हाथ ऊंचे करके आतापनाभूमि में आतापना लूं और बेले की तपस्या के पारणे के दिन आतापना की भूमि से नीचे उतर कर लकडी का पात्र हाथ में लेकर ताम्रलिप्ती नगरी में ऊंच, नीच और मध्यम कुलों से भिक्षा की विधि द्वारा शुद्ध ओदन अर्थात् केवल पकाये हुए चावल लाऊं और उनको पानी से इक्कीस बार धोकर फिर खाऊँ, इस प्रकार उस तामली गृहपति ने विचार किया। संपेहित्ता, कल्लं पाउप्पभायाए जाव-जलंते, सयमेव दारुमयं पडिग्गहं करेइ, करित्ता विउलं असण-पाण-खाइम-साइमं For Personal & Private Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७६ - भगवती सूत्र-श. ३ उ. १ ईशानेन्द्र का पूर्व भव उवक्खडावेइ, उवक्खडावित्ता तओ पच्छा पहाए, कयवलिकम्मे, कयकोउय-मंगल्ल-पायच्छित्ते, सुद्धप्पावेसाई मंगल्लाइं वस्थाई पवरपरिहिए, अप्पमहग्याभरणालंकियसरीरे, भोयणवेलाए भोयणमंडवंसि सुहासणवरगए, तएणं मित-गाइ-णियग-सयण-संबंधि-परिजणेणं. सधिं तं विउलं असण-पाण-खाइमं साइमं आसाएमाणे, वीसाएमाणे, परिभाएमाणे, परिभुजेमाणे विहरइ, जिमियभुत्तत्तरागए वि य णं समाणे आयंते, चोक्खे, परमसुइन्भूए, तं मित्तं जावपरियणं विउलेणं असण-पाण-खाइम-साइम-पुप्फ-वस्थ-गंध-मल्लाऽ लंकारेण य सक्कारेइ, सम्माणेइ, तस्सेव मित्त-णाइ-जाव-परियणस्स पुरओ जेट्टपुत्तं कुटुंबे ठावेइ, ठावेत्ता ते मित्त-णाइ-जाव-परियणस्स, जेटुं पुत्तं च आपुच्छइ, आपुच्छिता, मुंडे भवित्ता, पाणामाए पवजाए पव्वइए। कठिन शब्दार्थ-अप्पमहग्घाभरणालंकियसरीरे-अल्पभार और महामूल्य के आभरण से शरीर को अलंकृत करके, आसाएमाणे-स्वाद लेते हुए, विसाएमाणे-विशेष रूप से चखते हुए, परिभाएमाणे-परिभोग करते हुए, जिमियभुत्तुत्तरागए-जीमने के बाद, आयंते-कुल्ले किये, चोक्खे-साफ-पवित्र हुए, परमसूइन्भूए-परम शूचिभूत हुए। ___ भावार्थ-फिर प्रातःकाल होने पर सूर्योदय के पश्चात् स्वयं लकडी का पात्र बनाकर पर्याप्त अशन, पान, खादिम, स्वादिमरूप चारों प्रकार का आहार तैयार करवाया, फिर स्नान, बलिकर्म करके कौतुक मंगल और प्रायश्चित्त करके शुद्ध और उत्तम मांगलिक वस्त्र पहने और अल्पभार और महामूल्य वाले आभूषणों से अपने शरीर को अलंकृत किया, फिर भोजन के समय वह For Personal & Private Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ३ उ. १ ईशानेन्द्र का पूर्व भव ५७७ तामली गहपति भोजन मण्डप में आकर उत्तम आसन पर सुखपूर्वक बैठा । इसके बाद मित्र, ज्ञातिजन, स्वजन, सगेसम्बन्धी और दास दासी के साथ उस चारों प्रकार के आहार का स्वाद लेता हुआ, विशेष स्वाद लेता हुआ परस्पर देता हुआ अर्थात् जीमाता हुआ और स्वयं जीमता हुआ वह तामली गृहपति विचरने लगा। जीमने के पश्चात् उसने हाथ धोये और चुल्लु किया । अर्थात् . मुख साफ करके शुद्ध हुआ। फिर उन सब स्वजन सम्बन्धी आदि का वस्त्र, सुगंधित पदार्थ और माला आदि से सत्कार सम्मान करके उनके समक्ष अपने ज्येष्ठ पुत्र को 'कुटुम्ब में स्थापित किया अर्थात् कुटुम्ब का भार संभलाया । फिर उन सब स्वजनादि को और ज्येष्ठ पुत्र को पूछकर, उस तामली गृहपति ने मुण्डित होकर 'प्राणामा' नाम की प्रव्रज्या अंगीकार को। पव्वइए वि य णं समाणे इमं एयारूवं अभिग्गहं अभिगिण्हइ;'कप्पइ मे जावजीवाए छटुंछटेणं, जाव-आहारित्तए त्ति कटु' इमं एयारूवं अभिग्गहं अभिगिण्हइ, अभिगिण्हित्ता जावजीवाए छटुं. छटेणं अणिखितेणं तवोकम्मेणं उड्ढे बाहाओ पगिझिय पगिज्झिय सूराभिमूहे आयावणभूमीए आयावेमाणे विहरइ, छटुस्स, वि य णं पारणयंसि आयावणभूमीओ पचोरुहइ पच्चोरुहिता सयमेव दारुमयं पडिग्गहं गहाय तामलित्तीए णयरीए उच्च-णीयमज्झिमाइं कुलाई घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए अडइ, अडित्ता सुद्धोयणं पडिग्गाहइ, तिसत्तक्खुत्तो उदएणं पक्खालेइ, तओ पच्छा आहारं आहारे।। १८ प्रश्न-से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ पाणामा पव्वजा ? For Personal & Private Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७८ भगवती सूत्र-श. ३ उ. १ ईशानेन्द्र का पूर्व भव १७ उत्तर-गोयमा ! पाणामाए णं पव्वजाए पव्वइए समाणे जं जत्थ पासइ-इंदं वा, खंदं वा, रुदं वा, सिवं वा, वेसमणं वा, अजं वा, कोट्टकिरियं वा, रायं वा, जाव-सत्थवाहं वा, काकं वा, साणं वा, पाणं वा, उच्चं पासइ उच्चं पणामं करेइ, णीयं पासइ णीयं पणामं करेइ, जं जहा पासइ, तं तहा पणामं करेइ, से तेण. टेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ पाणामा पव्वजा । कठिन शब्दार्थ-सुद्धोयणं-सुद्धोदन केवल चावल ही, पडिग्गाहइ-ग्रहण करे, उदएणं-उदक-पानी से, पक्खालेइ-धोवे, जं जत्थ पासइ-जिसे जहां देखे, खंद-स्कन्द, रुई-रुद्र, अज्ज-आर्या-पार्वती, कोट्टकिरियं-महिषासुर को पीटती हुई चंडिका, साणंश्वान-कुत्ता। भावार्थ-जिस समय तामली गृहपति ने 'प्राणामा' नाम की प्रव्रज्या अंगीकार की, उसी समय उसने इस प्रकार का अभिग्रह धारण किया-यावज्जीवन मैं बेले बेले की तपस्या करूँगा यावत् पूर्व कथितानुसार भिक्षा की विधि द्वारा केवल ओदन (पकाये हुए चावल) लाकर उन्हें इक्कीस बार पानी से धोकर उनका आहार करूंगा। इस प्रकार अभिग्रह धारण करके यावज्जीवन निरन्तर बेले बेले की तपस्यापूर्वक दोनों हाथ ऊंचे रखकर सूर्य के सामने आतापना लेता हुआ वह तामली तापस विचरने लगा। बेले के पारणे के दिन आतापना भूमि से नीचे उत्तर कर स्वयं लकडी का पात्र लेकर ताम्रलिप्ती नगरी में ऊंच, नीचे और मध्यम कुलों में भिक्षा की विधिपूर्वक भिक्षा के लिए फिरता था। भिक्षा में केवल ओदन लाता था और उन्हें इक्कीस बार पानी से धोकर खाता था। भावार्थ-१८ प्रश्न-हे भगवन् ! तामली तापस द्वारा ली हुई प्रव्रज्या का नाम 'प्राणामा' किस कारण से कहा जाता है ? उत्तर-हे गौतम ! जिस व्यक्ति ने 'प्राणामा' प्रवज्या ली हो, वह For Personal & Private Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ३ उ. ५ ईशानेन्द्र का पूर्व भव जिसको जहाँ देखता है वहीं प्रणाम करता है अर्थात् इन्द्र, स्कन्द (कार्तिकेय) रुद्र (महादेव) शिव, वैश्रमण (उत्तर दिशा के लोकपाल-कुबेर) शान्त रूपवाली चाण्डका (पार्वती) रौद्र रूपवाली चण्डिका अर्थात् महिषासुर को पीटती चण्डिका (पार्वती) राजा, युवराज, तलवर, माडम्बिक, कौटुम्बिक, सार्थवाह, कौआ, कुत्ता, चाण्डाल, इत्यादि सब को प्रणाम करता है । इनमें से उच्च व्यक्ति को देखकर उच्च रीति से प्रणाम करता है और नीच को देखकर नीची रीति से प्रणाम करता है अर्थात् जिस को जिस रूप में देखता है उसको उसी रूप में प्रणाम करता है । इस कारण हे गौतम ! इस प्रवज्या का नाम 'प्राणामा' प्रव्रज्या है। तएणं से तामली मोरियपुत्ते तेणं ओरालेणं, विपुलेणं, पयत्तेणं, पग्गहिएणं बालतवोकम्मेणं सुक्के, लुक्खे, जाव-धमणिसंतए जाए यावि होत्था, तए णं तस्स तामलिस्स बालतवस्सिस्स अण्णया कयाइं पुब्बरत्तावरत्तकालसमयंसि अणिचजागरियं जागरमाणस्स इमेयारूवे अज्झथिए, चिंतिए, जाव-समुप्पजित्था, एवं खलु अहं इमेणं ओरालेणं, विपुलेणं, जाव-उदग्गेणं, उदत्तेणं, उत्तमेणं, महाणुभागेणं तवोकम्मेणं, सुक्के, लुक्खे जाव-धमणिसंतए जाए, तं अस्थि जा मे उट्ठाणे, कम्मे, बले, वीरिए, पुरिसक्कारपरक्कमे. तावता मे सेयं, कल्लं जाव-जलंते, तामलित्तीए णगरीए, दिट्टाभट्टे य, पासंडत्थे य, गिहत्थे य, पुव्वसंगतिए य, पच्छासंगतिए य, परियायसंगतिए य आपुच्छित्ता तामलित्तीए णगरीए मझमझेणं णिग्गच्छित्ता, पाउगं कुंडियामाइयं उवगरणं, दारुमयं च पडिग्गहं For Personal & Private Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८० भगवती सूत्र-श. ३ उ. १ ईशानेन्द्र का पूर्व भव एगंते एडित्ता तामलित्तीणयरीए उत्तरपुरथिमे दिसिभाए णियत्तणियं मंडलं आलिहिता संलेहणा झूसणाझसिअस्स भत्त-पाणपडियाइक्खिअस्स, पाओवगयरस कालं अणवकंखमाणस्स विहरित्तए त्ति कटु एवं संपेहेइ, संपेहेत्ता कल्लं जाव-जलंते जाव-आपुच्छइ, आपुच्छित्ता तामलित्तीए एगते जाव-एडेइ, जाव-भत्त-पाणपडियाइक्खिए पाओवगमणं णिवण्णे । कठिन शब्दार्थ-पयत्तेणं-प्रदत्त, पग्गहिएणं-प्रगृहीत, बालतवोकम्मेणं-अज्ञान पूर्वक तपस्या, अणिच्च जागरियं-अनित्य का चिन्तन करते हुए, उदग्गेणं-उदग्र, उदत्तेणं-उदात्त, दिट्राभठे-दृष्ट भाषित-देखकर बुलाये हुए अथवा देखे हुए बुलाये हुए, एगंते एडित्ता-एकांत में रखकर, नियत्तणियं मंडलं-निवर्तनिक मंडल अपने शरीर प्रमाण, आलिहिता-आलेखकर, णिवणे-निष्पन्न किया। भावार्थ-इसके पश्चात् वह मौर्यपुत्र तामली तापस उस उदार, विपुल, प्रदत्त और प्रगृहीत बाल तप द्वारा शुष्क (सूखा) बन गया, रूक्ष बन गया यावत् ' इतना दुबला हो गया कि उसकी नाडियाँ बाहर दिखाई देने लग गई । इसके पश्चात् किसी एक दिन पिछली रात्रि के समय अनित्य जागरणा जागते हुए तामली बाल तपस्वी को इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ कि में इस उदार, विपुल यावत् उदग्र, उदात्त, उत्तम और महा प्रभावशाली तपकर्म के द्वारा शुष्क और रूक्ष होगया हूं यावत् मेरा शरीर इतना कृश हो गया है कि नाडियाँ बाहर दिखाई देने लग गई है। इसलिये जबतक मुझ में उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और परुषकारपराक्रम है, तबतक मेरे लिए यह श्रेयस्कर है कि कल प्रातःकाल यावत् सर्योदय होने पर मैं ताम्रलिप्ती नगरी में जाउँ । वहाँ पर दृष्टभाषित (देख कर जिनके साथ बातचीत की गई हो) पाखण्डी जन, गहस्थ, पूर्व परिचित (कुमारावस्था के परिचित) पश्चात् परिचित (विवाह होने के बाद परिचय में आये हए)और पर्याय परिचित (तपस्वी होने के बाद परिचय में आये हुए) तापसों For Personal & Private Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ३ उ. १ बलिचंचा के देवों का आकर्षण और निवेदन को पूछकर, ताम्रलिप्ती नगरी के बीचोबीच से निकल कर, पादुका (खड़ाऊ ) तथा कुण्डी आदि उपकरणों को और लकडी के पात्र को एकांत में डालकर ताम्रलिप्ती नगरी के उत्तर पूर्व दिशा भाग में अर्थात् ईशान कोण में 'निर्वर्तनिक' ( एक परिमित क्षेत्र अथवा अपने शरीर परिमाण जगह ) मण्डल को साफ करके संलेखना तप के द्वारा आत्मा को सेवित कर आहार पानी का सर्वथा त्याग करके पादपोपगमन संथारा करूँ एवं मृत्यु की चाहना नहीं करता हुआ शान्त चित्त से स्थिर रहूं | यह मेरे लिये श्रेयस्कर है । ऐसा विचार कर यावत् सूर्योदय होने पर यावत् पूर्व कथितानुसार पूछकर उस तामली बाल-तपस्वी ने अपने उपकरणों को एकांत में रखकर यावत् आहार- पानी का त्याग करके पादपोपगमन नाम का अनशन कर दिया । बलिचचा के देवों का आकर्षण और निवेदन तेणं कालेणं तेणं समएणं बलिचंचा रायहाणी आणंदा, अपुरोहिया या वि होत्था, तरणं ते बलिचंचा रायहाणिवत्थव्वया बहवे असुरकुमारा देवा य देवीओ य तामलिं बालतवस्सि ओहिणा आभोएंति, आभोत्ता अण्णमण्णं सदावेंति, अण्णमण्णं सदावेत्ता एवं वयासि - एवं खलु देवाणुप्पिया ! बलिचंचा रायहाणी अंनिंदा. अपुरोहिया, अम्हे य णं देवाणुप्पिया ! इंदाहीणा, इंदाहिट्टिया, इंदाहीणकज्जा, अयं च देवाणुप्पिया ! तामली बालतवस्सी तामलित्तीए णयरीए बहिया उत्तरपुरत्थिमे दिसिभागे नियत्तणियमंडलं आलिहित्ता संलेहणानूसणाहूसिए, भत्तपाणपडियाइक्खिए, ५८१ For Personal & Private Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८२ . भगवती सूत्र-श. ३ उ. १ बलिचंचा के देवों का आकर्षण और निवेदन पाओवगमणं णिवण्णे; तं सेयं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हे तामलिं बालतवस्सिं बलिचंचाए रायहाणीए ठितिपकप्पं पकरावेत्तए त्ति कटु अण्णमण्णस्स अंतिए एयमढे पडिसुणेति, पडिसुणिता बलिचंचारायहाणीए. मझमझेणं णिगच्छंति जेणेव रुयगिंदे उप्पायपव्वए तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता वेउब्वियसमुग्धाएणं समोहणंति, जाव उत्तरवेउब्बियाई रूवाई विउव्वंति, ताए उकिट्ठाए, तुरियाए, चवलाए, चंडाए, जहणाए, छेयाए, सीहाए, सिग्याए, दिवाए, उधुयाए, देवगईए तिरियं असंखेजाणं दीवसमुदाणं मझमझेणं जेणेव जंबूदीवे दीवे, जेणेव भारहे वासे जेणेव तामलित्ती णयरी, जेणेव तामली मोरियपुत्ते तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छिता तामलिस्स बालतवस्सिस्स. उप्पिं, सपक्खि, सपडिदिसि ठिचा दिव्वं देविइिंढ, दिव्वं देवज्जुई, दिव्वं देवाणुभाग, दिव्वं बत्तीसविहं गटविहं उवदंसेंति, तामलिं बालतवस्सि तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेंति, वंदंति, णमंसंति, वंदित्ता णमंसित्ता। कठिन शब्दार्थ-अणिन्दा-इन्द्र रहित, ओहिणा आभोएंति-अवधिज्ञान से देखा, वत्यव्वया-बसनेवाले-रहनेवाले, इंदाहिटिया–इन्द्राधिष्ठित, उप्पि- ऊपर, सपक्खिसपक्ष--सामने, सपडिविसि-सप्रतिदिश--ठीक उसी दिशा में, ठिच्चा-खड़े रह कर, ठितिपकप्पं पकरावेत्तए--स्थिति करावें (संकल्प करावें) तुरियाए--त्वरित, जहणाए-- जयवाली, छयाए-निपुण, उखुयाए--उद्धृत, गतिविशेष, उवयंसेइ--दिखाया। भावार्थ-उस काल उस समय में बलिचंचा (उत्सर विशा के असुरेन्द्र For Personal & Private Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ३ उ. १ बलिचंचा के देवों का आकर्षण और निवेदन ५८३ असुरराज बलि की राजधानी) इन्द्र और पुरोहित से रहित थी। तब बलिचंचा राजधानी में रहने वाले बहुत से असुरकुमार देव और देवियों ने उस तामली बाल तपस्वी को अवधिज्ञान द्वारा देखा । देख कर उन्होंने परस्पर एक दूसरे को आमन्त्रित कर इस प्रकार कहा-हे देवानुप्रियों ! इस समय बलिचंचा राजधानी इन्द्र और पुरोहित से रहित है । हे देवानुप्रियों ! अपन सब इन्द्राधीन और इन्द्राधिष्ठित हैं अर्थात् इन्द्र की अधीनता में रहने वाले हैं । अपना सारा कार्य इन्द्र की अधीनता में होता है । हे देवानुप्रियों ! यह तामली बाल तपस्वी ताम्रलिप्ती नगरी के बाहर ईशान कोण में निवर्तनिक मंडल को साफ करके संलेखना के द्वारा अपनी आत्मा को संयुक्त करके आहार पानी का त्याग कर और पादपोपगमन अनशन को स्वीकार करके रहा हुआ है । तो अपने लिये यह श्रेयस्कर है कि अपनी इस बलिचंचा राजधानी में इन्द्ररूप से आने के लिये इस तामली बाल तपस्वी को संकल्प करावें । ऐसा विचार करके तथा परस्पर एक दूसरे की बात को मान्य करके वे सब असुरकुमार, बलिचंचा राजधानी के बीचोबीच से निकल कर रूचकेन्द्र उत्पात पर्वत पर आये। वहाँ आकर वैक्रिय समुद्घात द्वारा समवहत होकर यावत् उत्तर वैक्रिय रूप बनाकर उत्कृष्ट, त्वरित चपल, चण्ड, जयवती, निपुण, श्रम रहित, सिंह सदृश, शीघ्र, उद्धत और दिव्य देवगति द्वारा तिर्छ असंख्येय द्वीप समद्रों के बीचोबीच होते हुए इस जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र की ताम्रलिप्ती नगरी के बाहर जहाँ मौर्यपुत्र तामली बाल तपस्वी था, वहाँ आये । वहाँ आकर ऊपर आकाश में तामली बाल तपस्वी के ठीक सामने खडे रहे । खडे रहकर दिव्य देव ऋद्धि, दिव्य देवकान्ति, दिव्य देवप्रभाव और बत्तीस प्रकार के दिव्य नाटक बतलाये। फिर तामली बाल तपस्वी को तीनबार प्रदक्षिणा करके वन्दना नमस्कार किया। एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हे बलिचंचारायहाणीवत्थव्वया बहवे असुरकुमारा देवा य, देवीओ य देवाणुप्पियं वंदामो, For Personal & Private Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८४ भगवती सूत्र-श. ३ उ. १ बलिचंचा का आकर्षण और निवेदन णमंसामो, जाव-पज्जुवासामो, अम्हाणं देवाणुप्पिया ! बलिचंचा रायहाणी अणिंदा, अपुरोहिया, अम्हे वि य णं देवाणुप्पिया ! इंदाहीणा, इंदाहिट्ठिया, इंदाहीणकजा, तं तुम्भे णं देवाणुप्पिया ! बलिचंचारायहाणिं आढाह, परियाणह, सुमरह, अटुं बंधह, णियाणं पकरेह, ठिइपकप्पं पकरेह, तए णं तुम्भे कालमासे कालं किच्चा बलिचंचारायहाणीए उववजिस्सह, तएणं तुब्भे अम्हं इंदा भविस्सह, तएणं तुम्भे अम्हेहिं सद्धि दिव्वाइं भोगभोगाइं भुंजमाणा विहरिस्सह । ____ कठिन शब्दार्थ-आढाह-आदर करें, अळं बंधह-अर्थ को बांधलो-दृढ निश्चय करलो, णियाणं पकरेह-निदान करलो, ठिइपकप्पं करेह-स्थिति का संकल्प करो। भावार्थ-वन्दना नमस्कार करके वे इस प्रकार बोले-हे देवानुप्रिय ! हम बलिचंचा राजधानी में रहने वाले बहुत से असुरमार देव और देवियां आपको वन्दना नमस्कार करते हैं, यावत् आपकी पर्युपासना करते हैं। हे देवानुप्रिय ! अभी हमारी बलिचंचा राजधानी इन्द्र और पुरोहित से रहित है । हे देवानुप्रिय ! हम सब इन्द्राधीन और इन्द्राधिष्ठित रहने वाले हैं। हमारा सारा कार्य इन्द्राधीन होता है । इसलिये हे देवानु प्रिय ! आप बलिचंचा राजधानी का आदर करो, उसका स्वामीपन स्वीकार करो, उसका मन में स्मरण करो, उसके लिये निश्चय करो, निदान (नियाणा) करो और बलिचंचा राजधानी का स्वामी बनने का संकल्प करो। हे देवानुप्रिय ! यदि आप हमारे कथनानुसार करेंगे, तो यहाँ काल के अवसर काल करके आप बलिचंचा राजधानी में उत्पन्न होंगे और वहाँ उत्पन्न होकर हमारे इन्द्र बनेंगे, तथा हमारे साथ दिव्य भोग भोगते हुए आनन्द का अनुभव करेंगे। For Personal & Private Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ३ उ. १ तामली द्वारा अस्वीकार . ५८५ . तामली द्वारा अस्वीकार तएणं से तामली बालतवस्सी तेहिं बलिचंचारायहाणिवत्थव्वेहि बहूहिं असुरकुमारेहिं देवेहिं, देवीहि य एवं वुत्ते समाणे एयमटुं णो आढाइ, णो परियाणेइ, तुसिणीए संचिट्ठइ, तएणं ते बलिचंचारायहाणिवत्थव्वया बहवे असुरकुमारा देवा य, देवीओ य तामलिं मोरियपुत्तं दोच्चं पि तच्चंपि तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेंति, जाव अम्हं च णं देवाणुप्पिया ! बलिचंचारायहाणी अणिंदा, जावठिइपकप्पं पकरेह, जाव-दोच्चं पि तच्चं पि एवं वुत्ते समाणे तुसिणीए संचिट्ठइ, तए णं से बलिचंचारायहाणिवत्थव्वया कहवे असुरकुमारा देवा य, देवीओ य तामलिणा बालतवस्सिणा अणाढाइजमाणा, अपरियाणिजमाणा, जामेव दिसि पाउन्भूया तामेव दिसिं पडिगया। कठिन शब्दार्थ-तुसिणीए संचिट्ठइ-चुपचाप रहा, वुत्ते समाणे-कहने पर, अणाढाइज्जमाणा-अनादर किये हुए, पाउन्भूया-प्रादुर्भूत-प्रकट हुए। - भावार्थ-जब बलिचंचा राजधानी में रहने वाले बहुत से असुरकुमार देव और देवियों ने उस तामली बाल-तपस्वी को पूर्वोक्त प्रकार से कहा, तो उसने उनकी बात का आदर नहीं किया, स्वीकार नहीं किया, परन्तु मौन रहा। तब वे बलिचंचा राजधानी में रहने वाले बहुत से असुरकुमार देव और देवियों ने उस तामली बाल-तपस्वी की फिर तीन बार प्रदक्षिणा करके दूसरी बार, तीसरी बार इसी प्रकार कहा कि आप हमारे स्वामी बनने का संकल्प For Personal & Private Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ५८६ भगवती सूत्र - श. ३ उ. १ ईशान कल्प में उत्पत्ति करें, इत्यादि । किन्तु उस तामली बाल-तपस्वी ने उनकी बात का कुछ भी उत्तर नहीं दिया और मौन रहा । इसके पश्चात् जब तामली बालतपस्वी के द्वारा उस बलिचंचा राजधानी में रहनेवाले बहुत से असुरकुमार देव और देवियों का अनादर हुआ और उनकी बात मान्य नहीं हुई, तब वे देव और देवियाँ जिस दिशा से आये थे, उसी दिशा में वापिस चले गये । ईशान कल्प में उत्पत्ति तेणं कालेणं तेणं समएणं ईसाणे कप्पे अणिंदे, अपुरोहिए या वि होत्या, तर णं से तामली बालतवस्ती बहुपडिपुण्णाई सद्धिं वाससहस्साइं परियागं पाउणित्ता, दोमासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसित्ता, सवीसं भत्तसयं अणसणाए छेदित्ता, कालमासे कालं किचा ईसाणे कप्पे, ईसाणवडिंसए विमाणे, उववायसभाए देवसयणिजंसि, देवदूसंतरिए अंगुलस्स असंखेज्जभागमेत्तीए ओगाहणाए ईसाणे देविंदविरहकालसमयंसि ईसाणे देविंदत्ताए उववण्णे । तए णं से ईसाणे देविंदे, देवराया अहुणोववण्णे पंचविहाए पज्जत्तीए पजत्तीभावं गच्छ्छ, तं जहा - आहारपज्जत्तीए, जावभासा -मणपज्जत्तीए । कठिन शब्दार्थ - देविदविरहकालसमयंसि - देवेन्द्र के विरहकाल में, अहुणोववले - अधुनोपपन्न - तत्काल उत्पन्न हुआ । भावार्थ - उस काल उस समय में ईशान देवलोक इन्द्र और पुरोहित For Personal & Private Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ३ उ. १ तामली के शव की कदर्थना ५८७ रहित था। वह तामली बालतपस्वी पूरे साठ हजार वर्ष तक तापस पर्याय का पालन करके दो महीने की संलेखना से आत्मा को संयुक्त करके एक सौ बीस भक्त अनशन का छेदन करके और काल के अवसर काल करके ईशान देवलोक के ईशानावतंसक विमान की उपपात सभा की देवशय्या-जो कि देववस्त्र से ढकी हुई हैं, उसमें अंगुल के असंख्येय भाग जितनी अवगाहना में ईशान देवलोक के इन्द्र के विरह काल (अनुपस्थिति) में ईशानेन्द्र रूप से उत्पन्न हुआ। तत्काल उत्पन्न हुआ वह देवेन्द्र देवराज ईशान, पांच प्रकार की पर्याप्तियों से पर्याप्त बना । अर्थात् १ आहार पर्याप्ति २ शरीर पर्याप्ति ३ इन्द्रिय पर्याप्ति ४ श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति और ५ भाषा मनःपर्याप्ति (देवों के भाषा और मनःपर्याप्ति शामिल बंधती है इसलिये) इन पांच पर्याप्तियों से पर्याप्त बना। असुरकुमारों द्वारा तामली के शव की कदर्थना तएणं ते बलिचंचारायहाणिवत्थव्वया बहवे असुरकुमारा देवा य, देवीओ य तामलिं बालतवस्सिं कालगयं जाणित्ता, ईसाणे य कप्पे देविंदताए उववण्णं पासित्ता आसुरुत्ता, कुविया, चंडिकिया, मिसिमिसेमाणा बलिचंचारायहाणीए मज्झमज्झेणं णिग्गच्छंति, ताए उकिटाए, जाव-जेणेव भारहे वासे, जेणेव तामलित्ती णयरी, जेणेव तामलिस्स बालतवस्सिस्स सरीरए तेणेव उवागच्छंति, वामे पाए सुंबेण बंधति, बंधित्ता तिक्खुत्तो मुहे उठ्ठहति, उठुहिता तामलित्तीए णयरीए सिंघाडग-तिग-चउक्क-चच्चर चउम्मुह-महापहेसु आकड्ढ-विकड्ढि करेमाणा, महया महया सद्देणं For Personal & Private Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८८ भगवती सूत्र-श ३ उ. १ तामली के शव की कदर्थना उग्घोसेमाणा उग्धोसेमाणा एवं वयासी-केस णं भो ! से तामली बालतवस्सी सयंगहियलिंगे पाणामाए पध्वजाए पवइए ? केस णं से ईसाणे कप्पे ईसाणे देविंद देवराया ति कटु तामलिरस बालतवस्सिस्स सरीरयं हीलंति, जिंदंति, खिसंति, गरिहंति, अवमण्णंति, तजति, तालेति, परिवहति, पव्वहेंति, आकड्ढ-विकइिंढ करेंति, होलेता जाव-आकड्ढ-विकडिंढ-करेत्ता एगंते एडंति, जामेव दिसिं पाउन्भूया तामेव दिसिं पडिगया। कठिन शब्दार्थ-आसुरुत्ता-क्रोधित हुए, कुविया-कुपित हुए, चंडिक्किया-भयंकर आकृति बनाई. मिसिमिसेमाणा-मिसमिसायमान-दाँत पीसते हुए, सुंबेण बंधइ-डोरी से बांधा, उहंति-धुंका, आकविकड्डि करेमाणा-घसीटते हुए,उग्घोसेमाणे-घोषणा करते हुए, सयंगहिलिगे-बिना गुरु के स्वयं लिंग ग्रहण करनेवाला, अवमण्णंति-अपमान करते हैं, एगते एडंति-एकान्त में डालदिया। भावार्थ-इसके बाद बलिचंचा राजधानी में रहनेवाले बहुत से असुरकुमार देव और देवियों ने जब यह जाना कि तामली बाल-तपस्वी काल धर्म को प्राप्त हो गया है और ईशान देवलोक में देवेन्द्र रूप से उत्पन्न हुआ है, तब उनको बड़ा क्रोध एवं कोप उत्पन्न हुआ। क्रोध के वश अत्यन्त कुपित हुए। तत्पश्चात वे सब बलिचंचा राजधानी के बीचोबीच निकले यावत् उत्कृष्ट देव गति के द्वारा इस जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र की ताम्रलिप्ति नगरी के बाहर जहाँ तामली बाल-तपस्वी का मृत शरीर था वहाँ आये। फिर तामली बाल-तपस्वी के मत शरीर के बाएं पैर को रस्सी से बांधा । और उसके मुख में तीन बार की फिरताम्रलिप्ती नगरी के सिंघाडे के आकार के तीन मार्गों में, चार मार्गों के चौक में (चतुर्मुख मार्गों में) एवं महा मार्गों में अर्थात् ताम्रलिप्ती नगरी के . सभी प्रकार के मार्गों में उसके मत शरीर को घसीटने लगे। और महा ध्वनि For Personal & Private Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ३ उ. १ ईशानेन्द्र का कोप ५८९ द्वारा उद्घोषणा करते हुए इस प्रकार कहने लगे कि "स्वयमेव तपस्वी का वेष : पहन कर 'प्राणामा' प्रव्रज्या अंगीकार करनेवाला यह तामली बाल-तपस्वी हमारे सामन क्या है ? तथा ईशान देवलोक में उत्पन्न हुआ देवेन्द्र देवराज ईशान भी हमारे सामने क्या है ?" इस प्रकार कह कर उस तामली बाल तपस्वी के मृत शरीर की हीलना, निन्दा, खिसा, गर्हा, अपमान, तर्जना, ताड़ना, कदर्थना और भर्त्सना की और अपनी इच्छानुसार आडा टेढ़ा घसीटा । ऐसा करके उसके शरीर को एकान्त में डाल दिया और जिस दिशा से आये थे उसी दिशा में वापिस चले गये। ईशानेन्द्र का कोप तएणं ते ईसाणकप्पवासी बहवे वेमाणिमा देवा य देवीओ य बलिवचारायहाणिवत्थव्वएहिं बहूहिं असुरकुमारेहिं देवेहिं देवीहि य तामलिस्स बालतवस्सिस्स सरीरयं हीलिजमाणं, प्रिंदिजमाणं जाब-आकड्ढ-विकडिंढ कीरमाणं पासंति, पासित्ता आसुस्त्ता,जावमिसिमिसेमाणा जेणेव ईसाणे देविंदे देवराया तेणेव उवागच्छंति, करयलपरिग्गहियं दसणहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु जएणं, विजएणं वद्धावेंति, एवं वयासीः-एवं खलु देवाणुप्पिया ! बलिचंचारायहाणिवत्थव्वया बहवे असुरकुमारा देवा य देवीओ य देवाणुप्पिए कालगए जाणित्ता ईसाणे कप्पे इंदत्ताए उववण्णे पासिता आसुरुत्ता, जाव-एगते एउंति, जामेव दिसि पाउब्भूया For Personal & Private Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९० भगवती सूत्र-श. ३ उ. १ ईशानेन्द्र का कोप तामेव दिसिं पडिगया, तएणं से ईसाणे देविंदे देवराया तेसिं ईसाणकप्पवासीणं बहूणं वेमाणियाणं देवाण य, देवीण य अंतिए एयमटुं सोच्चा, णिसम्म आसुरुत्ते, जाव-मिसिमिसेमाणे तत्थेव सयणिजवरगये तिवलियं भिउडि पिडाले साहट्टु बलिचंचारायहाणिं अहे, सपक्खि, सपडिदिसिं समभिलोएइ । तएणं सा बलिचंचा रायहाणी ईसाणेणं देविदेणं देवरण्णा अहे, सपक्खि, सपडिदिसिं समभिलोइआ समाणी तेणं दिव्वपभावेणं इंगालब्भूया, मुम्मुर भूया, छारियभूया, तत्तकवेलगभूया, तत्ता समजोइन्भूया जाया या वि होत्था । . कठिन शब्दार्थ-सयणिज्जवरगये-शय्या में रहा हुआ, तिवलियं भिड निडाले साहटु-ललाट पर-तीन रेखाएँ बनजाय ऐसी भृकुटी चढ़ाई, इंगालन्भूया-अंगारे जैसी, मुमुरब्भूया-आग के कण जैसी, छारियम्भूया-राख जैसी, तत्तकवेलगभूया-तपे हुए खपरैल जैसी, तत्तासमजोईयब्भूया-तपी हुई ज्योति के समान । भावार्थ-इसके पश्चात् ईशान देवलोक में रहने वाले बहुत से वैमानिक देव और देवियों ने इस प्रकार देखा कि बलिचञ्चा राजधानी में रहने वाले बहुत से असुरकुमार देव और देवियाँ तामली बालतपस्वी के मृत शरीर की होलना, निन्दा, खिसनादि कर रहे हैं और यावत् उस मृतकलेवर को अपनी इच्छानुसार आहाटेढ़ा घसीट रहे हैं। __ इस प्रकार देखने से उन देव और देवियों को बड़ा क्रोध आया । क्रोध से मिसमिसाट करते हुए वे देवेन्द्र देवराज ईशान के पास आकर दोनों हाथ जोड़ कर मस्तक पर अञ्जाल करके इन्द्र को जय विजय शब्दों से बधाया, फिर वे इस प्रकार बोले-“हे देवानुप्रिय ! बलिचञ्चा राजधानी में रहने वाले बहुत For Personal & Private Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ३ उ. १ असुरों द्वारा क्षमा याचना ५९१ ।। से असुरकुमार देव और देवियां आप देवानुप्रिय को काल धर्म प्राप्त हुए एवं ईशान कल्प में इन्द्र रूप से उत्पन्न हुए देखकर बहुत कुपित हुए हैं, यावत् आपके मत शरीर को अपनी इच्छानुसार आडाटेढ़ा घसीट कर एकांत में डाल दिया है । और वे जिस दिशा से आये उसी दिशा में वापिस चले गये हैं। जब देवेन्द्र देवराज ईशान ने ईशान कल्प में रहने वाले बहुत से वैमानिक देव और देवियों से इस बात को सुना तब वह बड़ा कुपित हुआ और क्रोध से मिसमिसाट करता हुआ देवशय्या में रहा हुआ ही वह ईशानेन्द्र, ललाट में तीन सल डालकर एवं भृकुटी चढ़ाकर बलिचंचा राजधानी की ओर एकटक दृष्टि से देखने लगा। इस प्रकार क्रोध से देखने पर उसके दिव्यप्रभा से बलिचंचा राजधानी अंगार, अग्नि के कण, राख एवं तपे हुए कवेलू के समान अत्यन्त तप्त हो गई। . असुरों द्वारा क्षमा याचना तएणं ते बलिचंचारायहाणिवत्थव्वया बहवे असुरकुमारा देवा य देवीओ य तं बलिचंचारायहाणिं इंगालब्भूयं, जाव-समजोइ भूयं पासंति, पासित्ता भीया, *तत्था, तसिया, उव्विग्गा, संजायभया, सव्वओ समंता आधाति, परिधावेंति, अण्णमण्णस्स कार्य समतुरंगेमाणा चिटुंति, तए णं ते बलिचंचारायहाणिवत्थव्वया बहवे असुरकुमारा देवा य देवीओ य ईसाणं देविदं देवरायं परिकुब्वियं जाणित्ता ईसाणस्स देविंदस्स, देवरण्णो तं दिव्यं देविड्ढेि, दिव्वं देवज्जुई, दिव्वं देवाणुभागं, दिव्वं तेयलेस्सं असहमाणा सव्वे सपक्खि सपडिदिसं ठिच्चा करयलपरिग्गहियं दसणहं * टीका में ये शब्द 'उत्तत्था' और 'मुसिआ' लिखे हैं । पं. बेचरदासजी ने मल में ये ही शब्द दिये हैं-डोशी For Personal & Private Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९२ भगवती सूत्र-श. ३ उ. १ असुरों द्वारा क्षमा याचना सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु जएणं विजएणं वद्धाविति, एवं वयासी-अहो ! णं देवाणुप्पिएहिं दिव्वा देविड्ढी, जाव-अभिसमण्णा. गया, तं दिव्वा णं देवाणुप्पियाणं दिव्वा देविड्ढी, जाव-लद्धा, पत्ता, अभिसमण्णागया, तं खामेमोणं देवाणुप्पिया! खमंतु णं देवाणुप्पिया ! खमंतुमरिहंतु णं देवाणुप्पिया ! णाई भुज्जो भुज्जो एवं करणयाए णं तिकटु एयमटुं सम्मं विणएणं भुज्जो भुज्जो खाति, तएणं से ईसाणे देविंदे देवराया तेहिं बलिचंचारायहाणिवत्थव्वेहि बहूहि असुरकुमारेहि देवेहिं देवीहि य एयमटुं सम्मं विणएणं भुज्जो भुज्जो खामिए समाणे तं दिव्वं देविइिंढ, जाव तेयलेस्सं पडिसाहरइ, तप्पभिई च णं गोयमा ! ते बलिचंचारायहाणिवत्थव्वया बहवे असुरकुमारा देवा य देवीओ य ईसाणं देविंदं देवरायं आढ़ति, जाव-पज्जुवासंति, ईसाणस्स देविंदस्स देवरण्णो आणा-उववायवयण-णिद्देसे चिटुंति, एवं खलु गोयमा ! ईसाणेणं देविंदेणं, देवरण्णा सा दिव्या देविड्ढी जाव-अभिसमण्णागया। कठिन शब्दार्थ-भीया-डरे, तत्या-त्रास पाये, तसिया-शुष्क हो गए, उम्विग्गा-उद्विग्न हुए, संजायभया-भय से व्याप्त, सम्वओसमंता-सभी ओर, आधाति परिधावेंति-दौड़ने और भागने लगे, अन्नमन्नस्स-अन्योन्य-एक दूसरे को, समतुरंगेमाणा-आलिंगन करने लगे-सोड़ में घुसने लगे, परिकुम्वियं-कोपायमान, असहमाणा-सहन नहीं करते हुए, खमंतुमरिहंतु क्षमा करने योग्य, भुज्जो भुज्जो-बारबार, पडिसाहरई-वापिस खींची, तप्पभिई-तभी से, आणा-उववाय-वयण-णिद्देसे-आज्ञा, सेवा, आदेश और निर्देश में। For Personal & Private Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ३ उ. १ असुरों द्वारा क्षमा याचना ५९३ भावार्थ-बलिचंचा राजधानी को तप्त हुई जानकर वे असुरकुमार देव और देवियाँ अत्यन्त भयभीत हुए, त्रस्त हुए, उद्विग्न हुए और भय के मारे चारों तरफ इधर उधर दौड़ने लगे, भागने लगे और एक दूसरे के पीछे छिपने लगे। जब असुरकुमार देव और देवियों को पता लगा कि ईशानेन्द्र के कुपित होने से यह हमारी राजधानी इस प्रकार तप्त बन गई है, तब वे सब ईशानेन्द्र की उस दिव्य देवऋद्धि, दिव्य देवकान्ति, दिव्य देवप्रभाव और दिव्य तेजोलेश्या को सहन नहीं करते हुए, देवेन्द्र देवराज ईशान के ठीक सामने ऊपर की . ओर मुख करके दोनों हाथ जोड़ कर, मस्तक पर अञ्जलि करके ईशानेन्द्र को जय विजय शब्दों द्वारा बधाया और इस प्रकार निवेदन किया कि "हे देवानप्रिय ! आपको जो दिव्य देवऋद्धि यावत् देवप्रभाव मिला है, प्राप्त हुआ है, सम्मुख आया है, उसको. हमने देखा । हे देवानुप्रिय ! हम अपनी भूल के लिये आप से क्षमा चाहते हैं। आप क्षमा प्रदान करें। आप क्षमा करने योग्य हैं। हम फिर कभी इस प्रकार की भल नहीं करेंगे। इस प्रकार उन्होंने ईशानेन्द्र से अपने अपराध के लिये विनयपूर्वक क्षमा माँगी। उनके क्षमा मांगने पर ईशानेन्द्र ने उस दिव्य देवऋद्धि यावत् अपनी छोडी हुई तेजोलेश्या को वापिस खींच लिया। हे गौतम ! तब से बलिचंचा राजधानी में रहने वाले असुरकुमार देव और देवियाँ, देवेन्द्र देवराज ईशान का आदर करते हैं यावत् उसकी पर्युपासना करते हैं और तभी से उनकी आज्ञा, सेवा, आदेश और निर्देश में रहते हैं। हे गौतम ! देवेन्द्र देवराज ईशान को वह दिव्य देवऋद्धि यावत् इस प्रकार मिली है। विवेचन-मूलपाठ 'में किं वा दच्चा, किं वा भोच्चा, कि वा किच्चा, किं वा समायरित्ता' शब्द आये हैं । इनका आशय इस प्रकार है-दच्चा-देकर अर्थात् दीन दुःखी को आहार पानी आदि देकर, भोच्चा-खाकर-अर्थात् अन्त प्रान्त (रूखा सूखा) खाकर, किच्चा-करके-तप एवं शुभ ध्यानादि करके । समायरित्ता-आचरण करके-प्रतिलेखना प्रमार्जन आदि करके। For Personal & Private Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ३ उ १ ईशानेन्द्र सिद्ध होंगे 1 'धन' शब्द का अर्थ करते हुए यहाँ चार प्रकार का धन बतलाया गया है - गणिम, धरिम, मेय और परिच्छेद्य । गणिम-जिस चीज का गिनती से व्यापार होता है उसे 'गणिम' कहते हैं, जैसे-नारियल आदि, धरिम-तराजू में तोल कर जिस वस्तु का व्यवहार अर्थात् लेन देन होता है, उसे 'धरिम' कहते हैं । जैसे-गेहूँ, चावल, शक्कर आदि । मेय- जिस चीज का व्यवहार पायली (प्रस्थक) आदि से माप कर या हाथ, गज आदि से नाप कर होता है, उसे 'मेय' कहते हैं । जैसे कपड़ा आदि । जहाँ पर धान वगैरह पायली (प्रस्थक) आदि से माप कर लिये और दिये जाते हैं, वहाँ पर वे भी 'मेय' हैं। परिच्छेद्य गुण की परीक्षा करके जिस चीज का मूल्य निश्चित किया जाता है और तदनुसार उनका लेन देन होता है उसे 'परिच्छेद्य' कहते हैं । जैसे-रत्न आदि जवाहरात । बढ़िया वस्त्र आदि जिनके गुण की परीक्षा प्रधान है, वे भी 'परिच्छेद्य' गिने जाते हैं । ताली गृहपति ने प्राणामा' • प्रव्रज्या अंगीकार की । 'प्राणामा' प्रव्रज्या का यह अर्थ है कि जो व्यक्ति 'प्राणामा' प्रव्रज्या को अंगीकार करता है, वह जिस किसी प्राणी को जहाँ कहीं भी देखता है, वहीं उसे प्रणाम करता है । ५९४ १९ प्रश्न - ईसाणस्स णं भंते! देविंदस्स देवरण्णो केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ?. १९ उत्तर - गोयमा ! साइरेगाहं दो सागरोवमाहं ठिई पण्णत्ता । ● वर्तमान समय में भी वैदिक लोग 'प्राणामा' प्रव्रज्या के व्रत को अंगीकार करते हैं। इस व्रत में दीक्षित बने हुए सज्जन के विषय में 'सरस्वती' नाम की मासिक पत्रिका भाग १३ अक १ पृष्ट १८० में इस प्रकार के समाचार छपे हैं "इसके बाद सब प्राणियों में भगवान् की भावना दृढ़ करने और अहंकार छोड़ने के इरादे से प्राणीमात्र को ईश्वर समझ कर आपने साष्टांग प्रणाम करना शुरू किया। जिस प्राणी को आप आगे देखते, उसी के सामने उसके पैरों पर आप जमीन पर लेट जाते। इस प्रकार ब्राह्मण से लेकर चाण्डाल तक और गौ से लेकर गधे तक को आप साष्टांग नमस्कार करने लगे । ( सरस्वती मासिक ) यहाँ पर बतलाई हुई 'प्राणामा' प्रव्रज्या और उपरि लिखित । यह विनयवादी मत है । ३६३ पाषण्डी मत में इनके ३२ भेद अभाव में ऐसी प्रवृत्ति की जाती हैं। वास्तव में तो गुण प्रकट होने पर समाचार, ये दोनों समान मालूम बतलाये गये हैं । सम्यग्ज्ञान के होते ही आदर दिया जाना चाहिए । For Personal & Private Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ३ उ. १ शकेन्द्र और ईशानेन्द्र के विमानों की ऊँचाई .५९५ ___भावार्थ-१९ प्रश्न-हे भगवन् ! देवेन्द्र देवराज ईशान की स्थिति कितने काल की कही गई है ? १९ उत्तर-हे गौतम ! देवेन्द्र देवराज ईशान की स्थिति दो सागरोपम से कुछ अधिक की कही गई है। __ २० प्रश्न-ईसाणे णं भंते ! देविंदे देवराया ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं, जाव-कहिं गच्छिहिइ, कहिं उववजिहिइ ? ___२० उत्तर-गोयमा ! महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ, जाव-अंतं काहिइ। . कठिन शब्दार्थ-उववज्जिहिइ-उत्पन्न होंगे, सिमिहिइ-सिद्ध होंगे। ___ भावार्थ-२० प्रश्न-हे भगवन् ! देवेन्द्र देवराज ईशान, उस देवलोक की आयु पूर्ण होने पर यावत् कहाँ जाएगा और कहाँ उत्पन्न होगा? २० उत्तर-हे गौतम ! वह महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्ध होगा यावत् समस्त दुःखों का अन्त करेगा। शकेन्द्र और ईशानेन्द्र के विमानों की ऊँचाई २१ प्रश्न-सक्कस्स णं भंते ! देविंदस्स देवराणो विमाणेहितो ईसाणस्स देविंदस्स देवरण्णो विमाणा ईसि उच्चयरा चेव, ईसिं उण्णयतरा चेव, ईसाणस्स वा देविंदस्स, देवरण्णो विमाणेहितो सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो विमाणा ईसिं णीययरा चेव, ईसिं णिण्णयरा चेव ? For Personal & Private Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९६ भगवती सूत्र-श. ३ उ. १ दोनों इन्द्रों का शिष्टाचार २१ उत्तर-हंता, गोयमा ! सकस्स तं चेव सव्वं णेयव्वं । २२ प्रश्न-से केणटेणं ? २२ उत्तर-गोयमा ! से जहा णामए करयले सिया देसे उच्चे, देसे उण्णए, देसे णीए, देसे णिण्णे; से तेणटेणं गोयमा ! सकस्स देविंदस्स देवरण्णो जाव-ईसि णिण्णयरा चेव । ___ कठिन शब्दार्थ-ईसि-ईषत्-थोड़ा सा, “उच्चयरा-ऊँचे, उण्णयतरा-उन्नत, णीययतरा-नीचे, णिण्णयरा-निम्न, करयले-करतल-हथेली, देसे-भाग-हिस्सा। भावार्थ-२१ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या देवेन्द्र देवराज शक्र के विमानों से देवेन्द्र देवराज ईशान के विमान कुछ (थोडे से) ऊंचे हैं, कुछ उन्नत हैं ? क्या देवेन्द्र देवराज ईशान के विमानों से देवेन्द्र देवराज शक्र के विमान कुछ नीचे हैं ? कुछ निम्न हैं ? २१ उत्तर-हाँ, गौतम ! यह इसी तरह से है। यहाँ ऊपर का सूत्रपाठ उत्तर रूप से समझना चाहिए। अर्थात् शक्रेन्द्र के विमानों से ईशानेन्द्र के विमान कुछ थोडे से ऊंचे हैं, कुछ थोडे से उन्नत हैं और ईशानेन्द्र के विमानों से शवेन्द्र के विमान कुछ थोडे नीचे हैं, कुछ थोडे निम्न है। २२ प्रश्न-हे भगवन् ! इसका क्या कारण है ? २२ उत्तर-हे गौतम ! जैसे--हथेली का एक भाग कुछ ऊंचा और उन्नत होता है और एक भाग कुछ नीचा और निम्न होता है । इसी तरह शकेन्द्र और ईशानेन्द्र के विमानों के विषय में जानना चाहिए । इसी कारण से पूर्वोक्त प्रकार से कहा जाता है। दोनों इन्द्रों का शिष्टाचार २३ प्रश्न-पभू णं भंते ! सक्के देविंदे देवराया ईसाणस्स For Personal & Private Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-ग. ३ उ. १ दोनों इन्द्रों का शिष्टाचार . ५९७ देविंदस्स देवरण्णो अंतिअं पाउ भवित्तए ? २३ उत्तर-हंता,पभू। २४ प्रश्न-से णं भंते ! किं आढायमाणे पभू, अणाढायमाणे पभू ? २४ उत्तर-गोयमा ! आढायमाणे पभू, नो अणाढायमाणे पभू। २५ प्रश्न-पभू णं भंते ! ईसाणे देविंदे देवराया, सकस्स देविं. दस्स देवरण्णो अंतिअं पाउभवित्तए ? २५ उत्तर-हंता, पभू। २६ प्रश्न-से णं भंते ! किं आढायमाणे पभू, अणाढायमाणे पभू ? ____२६ उत्तर-गोयमा ! आढायमाणे वि पभ, अणाढायमाणे वि पभू । ___२७ प्रश्न-पभू णं भंते ! सक्के देविंदे देवराया, ईसाणं देविंद देवरायं सपक्खिं, सपडिदिसिं समभिलोइत्तए ? २७ उत्तर-जहा पाउब्भवणा, तहा दो वि आलावगा णेयंव्वा । २८ प्रश्न-पभू णं भंते ! सक्के देविंदे देवराया, ईसाणेणं देविंदेणं देवरण्णा सदिध आलावं वा, संलावं वा करेत्तए ? २८ उत्तर-हंता, गोयमा ! पभू जहा पाउन्भवो । For Personal & Private Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९८ भगवती सूत्र-श. ३ उ. १ दोनों इन्द्रों का शिष्टाचार कठिन शब्दार्थ-पभू-समर्थ, अंतियं-निकट-पास, पाउभवित्तए-प्रकट होने के लिए, हंता-हाँ, आढायमाणे-आदर करता हुआ, सपक्खिं--सपक्ष-चारों तरफ, सपडिदिसिं-सप्रतिदिश-सब तरफ, समभिलोइत्तए-देखने के लिए, आलावगा-आलापक । भावार्थ-२३ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या देवेन्द्र देवराज शक्र, देवेन्द्र देवराज ईशान के पास आने में समर्थ है ? २३ उत्तर-हाँ, गौतम ! शकेन्द्र, ईशानेन्द्र के पास आने में समर्थ है। २४ प्रश्न-हे भगवन् ! जब शकेन्द्र ईशानेन्द्र के पास आता है, तो क्या ईशानेन्द्र का आदर करता हुआ आता है, या अनादर करता हुआ आता है ? २४ उत्तर-हे गौतम ! जब शकेन्द्र, ईशानेन्द्र के पास आता है, तब वह उसका आदर करता हुआ आता है, किन्तु अनादर करता हुआ नहीं आता है। २५ प्रश्न-हे भगवन् ! देवेन्द्र देवराज ईशान, देवेन्द्र देवराज शक्र के पास आने में समर्थ है ? २५ उत्तर-हाँ, गौतम ! ईशानेन्द्र, शकेन्द्र के पास आने में समर्थ है। २६ प्रश्न-हे भगवन् ! जब ईशानेन्द्र, शक्रेन्द्र के पास आता है, तो क्या वह शकेन्द्र का आदर करता हुआ आता है, या अनादर करता हुआ आता है ? २६ उत्तर-हे गौतम ! जब ईशानेन्द्र, शक्रेन्द्र के पास आता है, तब आदर करता हुआ भी आ सकता है और अनादर करता हुआ भी आ सकता है। २७ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या देवेन्द्र देवराज शक्र, देवेन्द्र देवराज ईशान के सपक्ष (चारों तरफ) सप्रतिदिश (सब तरफ) देखने में समर्थ है ? २७ उत्तर-हे गौतम! जिस तरह से पास आने के सम्बन्ध में दो आलापक कहे हैं, उसी तरह से देखने के सम्बन्ध में भी दो आलापक कहने चाहिए। २८ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या देवेन्द्र देवराज शक्र, देवेन्द्र देवराज ईशान के साथ आलाप संलाप-बातचीत करने में समर्थ है ? For Personal & Private Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मुत्र-श. ३ उ. १ सनत्कुमारेन्द्र की मध्यस्थता ५९९ २८ उत्तर-हाँ गौतम ! वह आलाप-संलाप-बातचीत करने में समर्थ है। जिस तरह पास आने के सम्बन्ध में दो आलापक कहे हैं, उसी तरह आलाप संलाप के विषय में भी दो आलापक कहने चाहिए। २९ प्रश्न-अस्थि णं भंते ! तेसिं सक्की-साणाणं देविंदाणं, देवराईणं किच्चाई, करणिज्जाइं समुप्पजंति ? . २९ उत्तर-हंता, अस्थि । ३० प्रश्न-से कहमियाणिं पकरंति ? ३० उत्तर-गोयमा ! ताहे चेवं णं से सक्के देविंदे देवराया ईसाणस्स देविंदस्स देवरण्णो अंतिअं पाउन्भवइ, ईसाणे वा देविंदे देवराया सक्कस्स देविंदस्स, देवरण्णो अंतिअं पाउम्भवइ-इति “भो ! सक्का ! देविंदा ! देवराया ! दाहिणड्ढलोगाहिवई” ! इति “भो ! ईसाणा ! देविंदा ! देवराया ! उत्तरड्ढलोगाहिबई" ! इति भो ! इति भो !” त्ति ते अण्णमण्णस्स किच्चाई, करणिज्जाइं पञ्चणुव्भवमाणा विहरति । सनत्कुमारेन्द्र की मध्यस्थता ३१ प्रश्न-अस्थि णं भंते ! तेसिं सक्की-साणाणं देविंदाणं, देवराईणं विवादा समुप्पाजंति ? ३१ उत्तर-हंता, अस्थि । For Personal & Private Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०० भगवती सूत्र - - . ३२ प्रश्न - से कहमियाणिं पकरेंति ? ३२ उत्तर - गोयमा ! ताहे चेव णं ते सक्की-साणा देविंदा देवरायाणो सणकुमारं देविंदं देवरायं मणसी- करेंति, तरणं से सकुमारे देविंदे देवराया तेहिं सक्की-साणेहिं देविंदेहिं देवराई हिं मणसी-व - कए समाणे खिप्पामेव सक्कीसाणाणं देविंदाणं देवराईणं अंतिअं पाउब्भवइ, जं से वयइ तस्स आणा उववाय-वयण- णिसे चिट्ठन्ति । कठिन शब्दार्थ - आलावं संलावं - आलाप - संलाप - बातचीत, किच्चाई करणियाइं - कार्य होता है - प्रयोजन होता है, कहमियाणि पकरेंति - किस प्रकार करते हैं, अण्णमण्णस्स - एक दूसरे को, पच्चणुभवमाणा - प्रत्यनुभव - अपना काम करते हुए, विवादा- विवाद - झगड़ा, मणसीकरेंति-मन से स्मरण करते हैं, खिप्पामेव - शीघ्र ही, वयइ - कहते हैं । भावार्थ - २९ प्रश्न - हे देवराज ईशान के बीच में कार्य) होता है ? श. ३ उ. १ सनत्कुमारेन्द्र की मध्यस्थता २९ उत्तर भगवन् ! उन देवेन्द्र देवराज शक और देवेन्द्र परस्पर कोई कृत्य ( प्रयोजन) करणीय ( विधेय र - हाँ, गौतम ! होता है । ३० प्रश्न - हे भगवन् ! जब उहें कृत्य और करणीय होते हैं, तब वे किस प्रकार व्यवहार करते हैं ? वह ३० उत्तर - हे गौतम ! जब देवेन्द्र देवराज शक्र को कार्य होता है, तब देवेन्द्र देवराज ईशान के पास आता है और जब देवेन्द्र देवराज ईशान को कार्य होता है, तब वह देवेन्द्र देवराज शक्र के पास आता है । उनके परस्पर सम्बोधित करने का तरीका यह है-ईशानेन्द्र पुकारता है कि- “हे दक्षिण लोकार्द्धपति देवेन्द्र देवराज शक्र ! " शक्रेन्द्र पुकारता है कि- " हे उत्तर लोकार्द्धपति देवेन्द्र देवराज ईशान ! ( यहाँ 'इति' शब्द कार्य को सूचित करने के लिए है For Personal & Private Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ३ उ. १ सनत्कुमारेन्द्र की भवसिद्धिकता और 'भो' शब्द आमन्त्रणवाची है । ' इति भो ! इति भो!' यह उनके परस्पर सम्बोधित करने का तरीका है।) इस प्रकार सम्बोधित करके वे परस्पर अपना कार्य करते रहते हैं। ३१ प्रश्न--क्या देवेन्द्र देवराज शक और देवेन्द्र देवराज ईशान, इन दोनों में परस्पर विवाद भी होता है ? ३१ उत्तर-हाँ, गौतम! उन दोनों इन्द्रों के बीच में विवाद भी होता है। ३२ प्रश्न-हे भगवन् ! जब उन दोनों इन्द्रों के बीच में विवाद हो जाता है, तब वे क्या करते हैं ? ३२ उत्तर-हे गौतम ! जब शक्रेन्द्र और ईशानेन्द्र, इन दोनों के बीच में विवाद हो जाता है, तब वे दोनों, देवेन्द्र देवराज सनत्कुमार का मन में स्मरण करते हैं । उनके स्मरण करते ही सनत्कुमारेन्द्र उनके पास आता है। वह आकर जो कहता है उसको वे दोनों इन्द्र मान्य करते हैं। वे दोनों इन्द्र उसकी आज्ञा, सेवा, आदेश और निर्देश में रहते हैं। - सनत्कुमारेन्द्र की भवसिद्धिकता ३३ प्रश्न-सणंकुमारे णं भंते ! देविंदे देवराया, किं भवसिद्धिए, अभवसिद्धिए ? सम्मट्ठिी, मिच्छदिट्ठी ? परित्तसंसारए, अणंतसंसारए ? सुलभबोहिए, दुल्लभवोहिए ? आराहए, विराहए ? चरिमे, अचरिमे ? ३३ उत्तर-गोयमा ! सणंकुमारे णं देविंदे देवराया भवसिद्धिए, नो अभवसिद्धिए। एवं सम्मट्टिी, परित्तसंसारए, सुलभ For Personal & Private Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०२ भगवती सूत्र-श. ३ उ. १ सनत्कुमारेन्द्र की भवसिद्धिकता बोहिए, आराहए, चरिमे-पसत्थं णेयध्वं । . ३४ प्रश्न-से केणटेणं भंते ! ? ३४ उत्तर-गोयमा ! सणंकुमारे देविंदे देवराया बहूणं समणाणं, बहूणं समणीणं, बहूणं सावयाणं, बहूणं सावियाणं, हियकामए, सुहकामए, पत्थकामए, आणुकंपिए, णिस्सेयसिए, हिय-सुह-(निस्सेयसिए) निस्तेसकामए से तेणटेणं गोयमा ! सणंकुमारे णं भवसिद्धिए, जाव-नो अचरिमे। ३५ प्रश्न-सणंकुमारस्स णं भंते ! देविंदस्स देवरण्णो केवड्यं कालं ठिई पण्णता ? ३५ उत्तर-गोयमा ! सत्त सागरोवमाणि ठिई पण्णत्ता । ३६ प्रश्न-से णं भंते ! ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं जावकहिं उववजिहिइ ? __ ३६ उत्तर-गोयमा ! महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ, जाव-अंतं करेहिइ । सेवं भंते ! सेवं भंते !। गाहाओ-- छट्ट-ट्टममासो, अद्धमासो वासाइं अट्ठ छम्मासा । तीसग-कुरुदत्ताणं, तव-भत्तपरिण्ण-परियाओ॥ For Personal & Private Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र---श. ३ उ. १ मनत्कुमारेन्द्र को भवामिद्धिकता ६०३ उच्चत्त विमाणाणं, पाउम्भव पेच्छणा य संलावे । किचि विवादुप्पत्ती, सणंकुमारे य भवियत्तं ॥ ॥ मोया सम्मत्ता ॥ कठिन शब्दार्थ - परित्तसंसारए—संसार परिमित करनेवाला, विराहए-विराधक, चरिमे-अंतिम, पसत्यं णेयव्वं-प्रशस्त जानना चाहिए, हियकामए-हित चाहनेवाले, पत्थकामए --पथ्य चाहने वाले, आणुकंपिए-अनुकम्पा-कृपा करनेवाले, णिस्सेयसिएनिःश्रेयस-मोक्ष चाहने वाले । भावार्थ-३३ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या देवेन्द्र देवराज सनत्कुमार भवसिद्धिक है, या अभवसिद्धिक है ? सम्यग्दृष्टि है या मिथ्यादृष्टि है ? परित्त संसारी (परिमित संसारी) है, या अनन्त संसारी है ? सुलभबोधि है, या दुर्लभबोधि है ? आराधक है, या विराधक है ? चरम है, या अचरम है ? ___ ३३ उत्तर-हे गौतम ! देवेन्द्र देवराज सनत्कुमार, भवसिद्धिक है, अभवसिद्धिक नहीं। इसी तरह वह सम्यगदृष्टि है, मिथ्यादृष्टि नहीं, परित्तसंसारी है, अनन्त संसारी नहीं, सुलभबोधि है, दुर्लभबोधि नहीं, आराधक है, विराधक नहीं, चरम है, अचरम नहीं। अर्थात् इस सम्बन्ध में सब प्रशस्त पद ग्रहण करने चाहिए। ३४ प्रश्न-हे भगवन् ! इसका क्या कारण है ? ३४ उत्तर-हे गौतम ! देवेन्द्र देवराज सनत्कुमार, बहुत साधु, बहुत साध्वी, बहुत श्रावक, बहुत श्राविका, इन सब का हितकामी (हितेच्छु-हित चाहने वाला), सुखकामी (सुखेच्छु-सुख चाहने वाला), पथ्यकामी (पथ्येच्छुपथ्य का चाहने वाला), अनुकम्पक (अनुकम्पा करने वाला), निःश्रेयस्कामी (निःश्रेयस् अर्थात् कल्याण चाहने वाला) है। हित, सुख और निःश्रेयस् का कामी (चाहने वाला) है । इस कारण हे गौतम ! सनत्कुमार देवेन्द्र देवराज भव For Personal & Private Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०४ भगवती सूत्र-श. ३ उ. १ सनत्कुमारेन्द्र की. भवसिद्धिकता . सिद्धिक है यावत् चरम है, किन्तु अचरम नहीं है। ३५ प्रश्न-हे भगवन् ! देवेन्द्र देवराज सनत्कुमार की स्थिति कितने काल की कही गई है ? ____३५ उत्तर-हे गौतम ! सनत्कुमार देवेन्द्र की स्थिति सात सागरोपम को कही गई हैं। ३६ प्रश्न-हे भगवन् ! सनत्कुमार देवेन्द्र को. आयु पूर्ण होने पर वह वहाँ से चव कर यावत् कहाँ उत्पन्न होगा? ३६ उत्तर-हे गौतम ! सनत्कुमार वहाँ से चव कर महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्ध होगा यावत् सब दुःखों का अन्त करेगा। सेवं भंते ! सेवं भंते !! हे. भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। ऐसा कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। दो गाथाओं का अर्थ इस प्रकार है-तिष्यक श्रमण का तप. छठ छठ (निरन्तर बेला बेला) था और एक मास का अनशन था। कुरुदत्तपुत्र श्रमण का तप अट्टम अट्टम (निरन्तर तेला तेला) था और अर्द्धमास (पन्द्रह दिन) का अनशन था। तिष्यक श्रमण की दीक्षापर्याय आठ वर्ष की और कुरुदत्त पुत्र की दीक्षापर्याय छह मास की थी। यह विषय इस उद्देशक में आया है। इसके अतिरिक्त दूसरे विषय भी आये हैं। वे इस प्रकार हैं-विमानों की ऊँचाई, एक इन्द्र का दूसरे इन्द्र के पास आना, उन्हें देखना, परस्पर आलाप संलाप (बातचीत) करना, उनका कार्य, विवाद की उत्पत्ति, उसका निपटारा, सनत्कुमार का भवसिद्धिकपन, इत्यादि विषयों का वर्णन इस उद्देशक में किया गया है। ॥ मोका+ समाप्त ॥ विवेचन-शकेन्द्र के विमानों से ईशानेन्द्र के विमान कुछ उच्चतर और उन्नततर + इस उद्देशक में बतलाये गये प्रारंभिक विषयों का वर्णन भगवान् ने 'मोका' नगरी में किया था। इसलिए इस उद्देशक का नाम 'मोआ उद्देसो'-मोका उद्देशक रखा गया है। For Personal & Private Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ३ उ. १ सनत्कुमारेन्द्र की भवसिद्धिकता ६०५ हैं । अर्थात् प्रमाण की अपेक्षा ऊंचे हैं और गुण की अपेक्षा उन्नत हैं । अथवा प्रासाद की अपेक्षा ऊंचे हैं और पीठ (शिखर) की अपेक्षा उन्नत हैं । शंका—पहले और दूसरे देवलोक के विमानों की ऊंचाई के विषय में कहा हैपंचसय उच्चत्तेणं आइमकप्पेसु होति विमाणा। एक्केक्कवुड्डि सेसे दु दुगे य दुगे चउक्के य ।। अर्थात्-पहले और दूसरे देवलोक में विमानों की ऊँचाई पांच पांच सौ योजन है। तीसरे चौथे में छह सौ, पांचवे छठे में सात सौ, सातवें आठवें में आठ सौ और नववें दसवें ग्यारहवें बारहवें देवलोक में नौ सौ नौ सौ योजन ऊँचे विमान हैं। नवग्रैवेयक में एक हजार योजन और पांच अनुत्तर विमानों में ग्यारह सौ योजन ऊँचे विमान हैं । यहाँ पर शंका यह होती है कि पहले और दूसरे देवलोक के विमानों की ऊँचाई पाँच सौ पांच सौ योजन की बतलाई गई है, तो फिर यहाँ यह कैसे कहा गया है कि पहले देवलोक के विमानों से दूसरे देवलोक के विमान कुछ ऊँचे और उन्नत हैं। समाधान-इस शंका का समाधान यह है कि-पांच सौ योजन की ऊँचाई का कथन सामान्य की अपेक्षा है और कुछ ऊँचे और कुछ उन्नत का कथन विशेष की अपेक्षा है । इसलिए दूसरे देवलोक के विमान चार छह अंगुल ऊँचे एवं उन्नत हों, तो भी किसी प्रकार का विरोध नहीं। सामान्य रूप से विमानों की ऊँचाई पांच सौ योजन ही बतलाई गई है । अर्थात् पांच सौ योजन की ऊँचाई का कथन सामान्य कथन है और कुछ ऊँचे और कुछ उन्नत का कथन विशेष कथन है। ये दोनों कथन भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं से (सामान्य अपेक्षा से और विशेष अपेक्षा से) कहे गये होने के कारण दोनों में किसी प्रकार का विरोध नहीं है। केरिसी विउठवणा'-विकुर्वणा कितने प्रकार की है ? इस विषय का सारा वर्णव भगवान् ने 'मोका' नाम की नगरी में फरमाया था । इसलिए यह प्रथम उद्देशक 'मोआ उद्देस' 'मोका उद्देशक' इस नाम से कहा जाता है। 'सेवं भंते ! सेवं भंते !! 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है जैसा कि आप फरमाते हैं। ॥ तीसरे शतक का प्रथम उद्देशक समाप्त ॥ For Personal & Private Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०६ शतक ३ -- उद्देशक २ असुरकुमार देवों के स्थान १ प्रश्न - तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे णामं णयरे होत्था जाव - परिसा पज्जुवासह । तेणं कालेणं तेणं समएणं चमरे असुरिंदे असुरराया चमरचंचाए रायहाणीए, सभाए सुहम्माए, चमरंसि सीहासणंसि, चउसट्ठीए सामाणियसाहस्सीहिं जाव - णट्टविहिं उवदंसेत्ता, जामेव दिसिं पाउन्भूए तामेव दिसिं पडिगए । 'भंते !' ति भगवं गोयमे समण भगवं महावीरं वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी-अत्थि णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए अहे असुरकुमारा देवा परिवसंति ? १ उत्तर - गोयमा ! णो इणट्ठे समट्ठे, एवं जाव - अहेसत्तमाए पुढवीए, सोहम्मस्स कप्पस्स अहे जाव | २ प्रश्न - अत्थि णं भंते ! ईसिप्प भाराए पुढवीए अहे असुरकुमारा देवा परिवसंति ? २ उत्तर - णो ण सम | ३ प्रश्न - से कहिं खाइ णं भैते ! असुरकुमारा देवा परिवसंति ? ३ उत्तर - गोयमा ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए असीउत्तर ' भगवती सूत्र - श. ३. उ. २ असुरकुमार देवों के स्थान For Personal & Private Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ३ उ. २ असुरकुमार देवों के स्थान ६०७ जोयणसयसहस्सवाहल्लाए, एवं असुरकुमारदेववत्तव्वया, जावदिव्वाइं भोगभोगाइं भुंजमाणा विहरति । कठिन शब्दार्थ-अहे-नीचे, इमीसे-इस । भावार्थ-१ प्रश्न-उस काल उस समय में राजगृह नाम का नगर था यावत् परिषद् पर्युपासना करने लगी। उस काल उस समय में चौसठ हजार सामानिक देवों से परिवृत (घिरे हुए) और चमर नामक सिंहासन पर बैठे हुए चमरेन्द्र ने भगवान् को देख कर यावत् नाटय-विधि बतलाकर जिस दिशा से आया था, उसी दिशा में वापिस चला गया । हे भगवन् ! ऐसा कह कर गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान महावीर स्वामी को वन्दना नमस्कार करके इस प्रकार पूछा कि-हे भगवन् ! क्या असुरकुमार देव, इस रत्नप्रभा पृथ्वी के नीचे रहते हैं ? १ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है अर्थात् असुरकुमार देव, इस रत्नप्रभा पृथ्वी के नीचे नहीं रहते हैं, यावत् सातवीं पृथ्वी के नीचे भी नहीं रहते हैं। इसी तरह सौधर्म देवलोक के नीचे यावत् दूसरे सभी देवलोकों के नीचे भी असुरकुमार देव नहीं रहते हैं। .. २ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या ईषत्प्रागभारा पृथ्वी के नीचे असुरकुमार देव रहते हैं ? २ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं अर्थात् ईषत्प्रागभारा पृथ्वी के नीचे भी असुरकुमार देव नहीं रहते हैं। ३ प्रश्न-हे भगवन् ! तब ऐसा कौनसा प्रसिद्ध स्थान है जहाँ असुरकुमार देव निवास करते हैं ? ३ उत्तर-हे गौतम ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी की मोटाई (जाडाई) एक लाख अस्सी हजार योजन की है। इसके बीच में असुरकुमार देव रहते हैं। (यहाँ पर असुरकुमार सम्बन्धी सारी वक्तव्यता कहनी चाहिए । यावत् वे दिव्य भोग भोगते हुए विचरते हैं ।) For Personal & Private Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०८ भगवती सूत्र-श. ३ उ. २ असुरकुमारों का गमन सामर्थ्य विवेचन-पहले उद्देशक में देवों की विकुर्वणा शक्ति के विषय में कहा गया है। दूसरे उद्देशक में भी असुरकुमार आदि देवों की गमनशक्ति के विषय में कहा गया है । असुरकुमार आदि भवनवासी देव कहाँ रहते हैं ? इसके लिये कहा गया है;'उरि एगं जोयणसहस्सं ओगाहिता, हेट्ठा चेगंजोयणसहस्सं वज्जेत्ता, मज्झे अट्ठहत्तरे जोयणसयसहस्से, एत्थ णं असुरकुमाराणं देवाणं चउट्टि भवणावाससयसहस्सा भवंतीति अक्खायं ।" ___ अर्थात्-रत्नप्रभा का पृथ्वीपिण्ड एक लाख अस्सी हजार योजन है। उसमें से ऊपर एक हजार योजन अवगाहन करके और नीचे एक हजार योजन छोड़ कर बीच में एक लाख अठहत्तर हजार योजन के भाग में असुरकुमार देवों के चौसठ लाख भवनावास हैं । असुरकुमारों का गमन सामर्थ्य ४ प्रश्न-अस्थि णं भंते ! असुरकुमारा देवाणं अहेगइ विसए ? ४ उत्तर-हंता, अस्थि । ५ प्रश्न केवइयं च णं पभू ते असुरकुमाराणं देवाणं अहेगइ विसर पण्णत्ते ? ५ उत्तर-गोयमा ! जाव-अहे सत्तमाए पुढवीए, तच्चं पुण पुढविं गया य, गमिस्संति य। ६ प्रश्न-किंपत्तियं णं भंते ! असुरकुमारा देवा तच्चं पुढविं गया य, गमिस्संति य ? ६ उत्तर-गोयमा ! पुव्ववेरियस्स वा वेदणउदीरणयाए, पुव For Personal & Private Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ३ उ. २ असुरकुमारों का गमन सामर्थ्य ६०९ संगइस्स वा वेदणउवसामणयाए, एवं खलु असुरकुमारा देवा तच्च पुढविं गया य, गमिस्संति य । कठिन शब्दार्थ - अहेगइ विसए - नीचे जाने का विषय-शक्ति, केवइयं - कितनी, किपत्तियं -- किस कारण से, पुब्ववेरिस्स - पूर्व शत्रु का, पुव्वसंगइयस्स - - पूर्व संगतिक - मित्र का, वेदणउदीरणयाए – दुःख देने के लिए, वेदणउवसामणयाए – दुःख का शमन करने के लिए --सुखी करने के लिए । - भावार्थ - ४ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या असुरकुमारों का सामर्थ्य अपने स्थान से नीचे जाने का है ? ४ उत्तर - हाँ, गौतम ! उनमें अपने स्थान से नीचे जाने का सामर्थ्य है । ५ प्रश्न - हे भगवन् ! वे असुरकुमार, अपने स्थान से कितने नीचे जा सकते हैं ? ५ उत्तर - हे गौतम ! असुरकुमार, सातवीं पृथ्वी तक नीचे जाने की शक्ति वाले हैं, परंतु वे वहाँ तक कभी गये नहीं, जाते नहीं और जायेंगे भी नहीं, किंतु तीसरी पृथ्वी तक गये हैं, जाते हैं और जायेंगे । ६ प्रश्न - हे भगवन् ! असुरकुमार देव, तीसरी पृथ्वी तक गये, जाते है और जायेंगे, इसका क्या कारण है ? ६ उत्तर - हे गौतम ! असुरकुमार देव अपने पूर्व शत्रु को दुःख देने के लिए और पूर्व मित्र का दुःख दूर कर सुखी बनाने के लिए तीसरी पृथ्वी तक गये हैं, जाते हैं और जायेंगे । ७ प्रश्न - अस्थि णं भंते! असुरकुमाराणं देवाणं तिरिय गइविसए पण्णत्ते ? ७ उत्तर - हंता, अस्थि । ८ प्रश्न - केवइयं च णं भंते ! असुरकुमाराणं देवाणं तिरियं For Personal & Private Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१० भगवती सूत्र - श. ३ उ. २ असुरकुमारों के नन्दीश्वर गमन का कारण गइविस पण्णत्ते ? ८ उत्तर - गोयमा ! जाव - असंखेज्जादीव-समुद्दा, दिस्सरवरं पुण दीवं गया य, गमिस्संति य । भावार्थ- ७ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या असुरकुमार देव, तिरछी गति करने में समर्थ हैं ? ७ उत्तर - हाँ, गौतम ! असुरकुमार देव, तिरछी गति करने में समर्थ हैं। ८ प्रश्न - हे भगवन् ! असुरकुमार देव, अपने स्थान से कितनी दूर तक तिरछी गति करने में समर्थ हैं ? ८ उत्तर - हे गौतम! असुरकुमार देव, अपने स्थान से यावत् असंख्य द्वीप समुद्रों तक तिरछी गति करने में समर्थ हैं, किंतु वे नन्दीश्वर द्वीप तक गये हैं, जाते हैं, और जाएँगे । असुरकुमारों के नन्दीश्वर गमन का कारण ९ प्रश्न - किंपत्तियं णं भंते! असुरकुमारा देवा णंदिस्सरवरं दीव गया य, गमिस्संति य ? ९ उत्तर - गोयमा ! जे इमे अरिहंता भगवंता एएसि णं जम्मणमहेसुवा, णिक्खमणमहेसुवा, णाणुप्पायमहिमासु वा, परिणिव्वाणमहिमासु वा, एवं खलु असुरकुमारा देवा णंदीसरवरं दीवं गया य, गमिस्संति य । कठिन शब्दार्थ - नंदीसरवरं - नन्दीश्वर द्वीप को, जम्मणमहेसु – जन्म - महोत्सव पर, निक्खमणमहेसु - निष्क्रमण – संसार त्याग कर प्रव्रज्या लेते समय होने वाले महोत्सव पर, णाणुप्पायमहिमासु - केवलज्ञान उत्पन्न होने पर महिमा करने, परिनिव्वाणमहिमासुमोक्ष गमन पर महिमा करने । For Personal & Private Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ३ उ. २ असुरकुमारों के नन्दीश्वर गमन का कारण ६११ भावार्थ-९ प्रश्न-हे भगवन् ! असुरकुमार देव नन्दीश्वर द्वीप तक गये हैं, जाते हैं और जायेंगे। इसका क्या कारण हैं ? ९ उत्तर-हे गौतम ! अरिहंत भगवंतों के जन्म महोत्सव में, निष्क्रमण (दीक्षा) महोत्सव में, केवलज्ञानोत्पत्ति महोत्सव में और परिनिर्वाण महोत्सव में असुरकुमार देव, नन्दीश्वर द्वीप में गये हैं, जाते हैं और जायेंगे । अरिहन्त भगवन्तों के जन्म-महोत्सव आदि असुरकुमार देवों के नन्दीश्वर द्वीप जाने में कारण है। १० प्रश्न-अस्थि णं असुरकुमाराणं देवाणं उड्ढे गइविसए ? १० उत्तर-हंता, अस्थि । ११ प्रश्न-केवइयं च णं भंते ! असुरकुमाराणं देवाणं उड्ढे गइविसए ? ११ उत्तर-गोयमा ! जावऽच्चुए कप्पे, सोहम्मं पुण कप्पं गया य, गमिस्संति य । __ कठिन शब्दार्थ-अच्चुए कप्पे-अच्युतकल्प-बारहवां देवलोक । भावार्थ-१० प्रश्न-हे भगवन् ! क्या असुरकुमार देव, अपने स्थान से ऊर्ध्व (ऊँची) गति करने में समर्थ है ? १० उत्तर-हाँ, गौतम ! वे अपने स्थान से ऊर्ध्व गति करने में समर्थ है। ११ प्रश्न-हे भगवन् ! असुरकुमार देव, अपने स्थान से कितने ऊँचे जाने में समर्थ हैं ११ उत्तर-हे गौतम ! असुरकुमार देव, अपने स्थान से यावत् अच्युत कल्प तक ऊपर जाने में समर्थ हैं । यह उनकी ऊँचे जाने की शक्ति मात्र है, किंतु - वे वहां तक कभी गये नहीं, किंतु सौधर्मकल्प तक वे गये है, जाते हैं और जावेंगे। For Personal & Private Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१२ भगवती सूत्र-श. ३ उ. २ असुरकुमारों के सौधर्मकल्प में जाने का कारण!- . असुरकुमारों के सौधर्मकल्प में जाने का कारण १२ प्रश्न-किंपत्तियं णं भंते ! असुरकुमारा देवा सोहम्म कप्पं गया य, गमिस्संति य ? ... १२ उत्तर-गोयमा ! तेसि णं देवाणं भवपञ्चइयवेराणुबंधे, ते णं देवा विउव्वेमाणा, परियारेमाणा, वा आयरक्खे देवे वित्तासेंति, अहालहुसगाई रयणाइं गहाय आयाए एगंतमंतं अवक्कमंति। १३ प्रश्न-अस्थि णं भंते ! तेसिं देवाणं अहालहुसगाई रयणाइं? १३ उत्तर-हंता, अस्थि । १४ प्रश्न-से कहमियाणि पकरेंति ? १४ उत्तर-तओ से पच्छा कायं पव्वहंति । कठिन शब्दार्थ-भवपच्चइयवेराणुबंधे-भवप्रत्यय वैरानुबन्ध से (जातिं गत वैर से) आयरक्खेदेवे-आत्म रक्षक देव, वित्तासेंति-त्रास देते हैं, अहालहुसगाई-छोटे छोटे, एंगंतमंतं-एकान्त में, कहमियाणि पकरेंति-क्या करते हैं, कायं पव्यहंति-शरीर पर व्यथा भोगते हैं। भावार्थ-१२ प्रश्न-हे भगवन् ! असुरकुमार देव, ऊपर सौधर्म देवलोक तक गये हैं, जाते हैं और जायेंगे, इसका क्या कारण है ? १२ उत्तर-हे गौतम ! असुरकुमार देवों का उन वैमानिक देवों के साथ भवप्रत्ययिक वैर (जन्म से ही वैरानुबन्ध) है, इसलिए वैक्रिय रूप बनाते हुए तथा दूसरों की देवियों के साथ भोग भोगते हुए वे असुरकुमार देव, उन आत्मरक्षक देवों को त्रास पहुंचाते हैं तथा यथोचित छोटे-छोटे रत्नों को लेकर (चुरा For Personal & Private Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र – श. ३ उ. २ असुरकुमारों के सौधर्मकल्प में जाने का कारण ६१३ कर) एकान्त स्थान में भाग जाते हैं । १३ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या उन वैमानिक देवों के पास यथोचित छोटे छोटे रत्न होते हैं ? १३ उत्तर - हाँ, गौतम ! उन वैमानिक देवों के पास यथोचित छोटे छोटे रत्न होते हैं ? १४ प्रश्न - हे भगवन् ! जब वे असुरकुमार देव, वैमानिक देवों के छोटे छोटे रत्न चुरा कर ले जाते हैं, तो वैमानिक देव उनका क्या करते हैं ? १४ उत्तर - हे गौतम! जब असुरकुमार देव, वैमानिक देवों के रत्न चुरा कर भाग जाते हैं, तब वे वैमानिक देव, असुरकुमारों को शारीरिक पीड़ा पहुँचाते हैं अर्थात् प्रहारों के द्वारा उनको पीटते हैं । विवेचन - जब वे असुरकुमार देव, वैमानिक देवों के रत्नों को चुराकर एकान्त प्रदेश में भाग जाते हैं, तब वैमानिक देव, उन रत्न चुराने वाले असुरकुमार देवों के शरीर पर प्रहार करते हैं और इस प्रकार वे उन्हें पीड़ा पहुंचाते हैं । उस मार की वेदना कम से कम अन्तर्मुहूर्त्त तक और अधिक से अधिक छह महीने तक रहती है। १५ प्रश्न - पभू णं भंते! असुरकुमारा देवा तत्थ गया चेव समाणा ताहिं अच्छराहिं सधि दिव्वाई भोग भोगाई भुंजमाणा विहरित्तए । १५ उत्तर - णो इट्टे समट्ठे, तं णं तओ पडिनियत्तंति, तओ पडिनियत्तित्ता इहमागच्छंति, आगच्छित्ता जइ णं ताओ अच्छ राओ आढायंति परियाणंति, पभू णं ते असुरकुमारा देवा ताहिं अच्छाहिं सधि दिव्वाई भोग भोगाई भुंजमाणा विहरित्तए, अह णं ताओ अच्छराओ णो आढायंति, णो परियाणंति, णो णं पभू For Personal & Private Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ३ उ. २ आश्चर्य कारक ummmmmmm ते असुरकुमारा देवा ताहिं अच्छराहिं सद्धि दिव्वाइं भोगभोगाई भुंजमाणा विहरित्तए; एवं खलु गोयमा ! असुरकुमारा देवा सोहम्म कप्पं गया य, गमिस्संति य।। कठिन शब्दार्थ-अच्छराहि सद्धि-अप्सराओं के साथ, पडिनियत्तंति-पीछे फिरकर । भावार्थ-१५ प्रश्न-हे भगवन् ! ऊपर (सौधर्म देवलोक में) गये हुए वे असुरकुमार देव, क्या वहाँ रही हुई अप्सराओं के साथ दिव्य और भोगने योग्य भोग भोगने में समर्थ है ?अर्थात् वहाँ भोग, भोग सकते हैं ? १५ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है अर्थात् वे वहाँ उन अप्सराओं के साथ दिव्य और भोगने योग्य भोग नहीं भोग सकते हैं, किन्तु वे वहाँ से वापिस लौटते हैं और अपने स्थान पर आते हैं। यदि कदाचित् वे अप्सराएँ उनका आदर करें और उन्हें स्वामी रूप से स्वीकार करें तो वे असुरकुमार देव, उन वैमानिक अप्सराओं के साथ दिव्य और भोगने योग्य भोग, भोग सकते हैं परन्तु यदि वे अप्सराएँ उनका आदर नहीं करें और उन्हें स्वामी रूप से स्वीकार नहीं करें, तो वे असुरकुमार देव, उन वैमानिक अप्सराओं के साथ दिव्य और भोगने योग्य भोग नहीं भोग सकते हैं। हे गौलम ! इस कारण से असुरकुमार देव सौधर्म कल्प तक गये हैं, जाते हैं, और जावेंगे। आश्चर्य कारक १६ प्रश्न केवइयकालस्स णं भंते ! असुरकुमारा देवा उड्ढं उप्पयंति, जाव-सोहम्मं कप्पं गया य, गमिस्संति य ? १६ उत्तर-गोयमा ! अणंताहिं उस्सप्पिणीहि, अणंताहिं अवसप्पिणीहि समइक्कंताहिं, अस्थि णं एस भावे लोयच्छेरयभूए For Personal & Private Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श ३ उ. २ आश्चर्य कारक समुप्पज्जइ, जं णं असुरकुमारा देवा उड्ढं उपयंति, जाव - सोहम्मो कप्पो । १७ प्रश्न - किं णिस्साए णं भंते ! असुरकुमारा देवा उड्ढ उपयंति, जाव - सोहम्मो कप्पो ? ६१५ १७ उत्तर - गोयमा ! से जहा नामए इह सवरा हवा, बच्चरा इवा, टंकणा इवा, भुत्तुआ इ वा, पण्हया ( पल्हया) इ वा, पुलिंदा इ वा एगं महं रण्णं वा, गड्डे वा, खड्डं वा, दुग्गं वा, दरिं वा, विसमं वा, पव्वयं वा णीसाए सुमहलमवि आसवलं वा, हत्थिबलं वा, जोहबलं वा, धणुबलं वा, आगलेति, एवामेव असुरकुमारा वि देवा णण्णत्थ अरिहंते वा अरिहंतचेइयाणि वा अणगारे वा भावि पण णिस्साए उडूढं उप्पयंति, जाव - सोहम्मो कप्पो । कठिन शब्दार्थ - उप्पयंति-ऊँचे उछलते हैं, गमिस्संति- जावेंगे, समइक्कंताहि- बीत जाने के बाद, लोयच्छेरयभूए - लोक में आश्चर्यकारक, णिस्साए - निश्रा - आश्रय लेकर, रणं - अटवी - जंगल, दुग्गं - जलदुर्ग, दरि-स्थल दुर्ग-पर्वत कन्दरा, सुमहल्लवि - अति विशाल, आसबलं - अश्व-बल, जोहबलं - योद्धाओं का बल, आगलेंति - अकुलाते हैं, थकाते हैं, णण्णत्थनान्यत्र - अन्यत्र कहीं नहीं - निश्चित रूप से 1 भावार्थ - १६ प्रश्न - हे भगवन् ! कितने समय में अर्थात् कितना समय बीतने पर असुरकुमार देव उत्पतित होते हैं अर्थात् सौधर्म कल्प तक ऊपर जाते हैं ? गये हैं और जावेंगे ? १६ उत्तर - हे गौतम ! अनन्त उत्सर्पिणी और अनन्त अवसर्पिणी व्यतीत होने के पश्चात् लोक में आश्चर्यजनक यह समाचार सुना जाता है कि असुरकुमार देव ऊपर जाते हैं यावत् सौधर्म कल्प तक जाते हैं । For Personal & Private Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१६ भगवती सूत्र - श. ३ उ. २ आश्चर्यकारक १७ प्रश्न - हे भगवन् ! असुरकुमार देव, किस की निश्रा (आश्रय ) लेकर सौधर्म कल्प तक ऊपर जाते हैं ? १७ उत्तर - हे गौतम! जिस प्रकार * शबर, बब्बर, ढंकण, भुत्तुअ, पण्हय और पुलिंद जाति के मनुष्य किसी घने जंगल, खाई, जलदुर्ग, गुफा या सघन वृक्षपुंज का आश्रय लेकर, एक सुव्यवस्थित विशाल अश्ववाहिनी, गजवाहिनी, पदाति और धनुर्धारी मनुष्यों की सेना, इन सब सेनाओं को पराजित करने का साहस करते हैं, इसी प्रकार असुरकुमार देव भी अरिहंत, अरिहंत चैत्य तथा भावितात्मा अनगारों की निश्रा लेकर सौधर्म कल्प तक ऊपर जाते हैं, किन्तु afबिना निश्रा के ऊपर नहीं जा सकते हैं । विवेचन - जिस प्रकार शबर बर्बर आदि अनार्य जाति के लोग पर्वत की गुफा, विषम स्थान आदि का आश्रय लेकर, हाथी, घोड़ा पैदल आदि से युक्त सेना को पराजित करने का साहस करते हैं, किन्तु किसी का आश्रय लिये बिना वे ऐसा साहस नहीं कर सकते, इसी तरह असुरकुमार देव भी अरिहन्त भगवान् का, अरिहन्त चैत्यों का अर्थात् छद्मस्थावस्था में रहे हुए तीर्थङ्कर भगवान् का अथवा भावितात्मा अनगार का आश्रय लेकर ही ऊपर जा सकते हैं, आश्रय लिये बिना ऊपर नहीं जा सकते हैं। १८ प्रश्न - सव्वे विणं भंते! असुरकुमारा देवा उड्ढं उप्पयंति, जाव - सोहम्मो कप्पो ? १८ उत्तर - गोयमा ! णो इणट्टे समट्ठे, महिड्ढिया णं असुरकुमारा देवा उड् उपयंति, जाव - सोहम्मो कप्पो । १९ प्रश्न - एस वि णं भंते ! चमरे असुरिंदे, असुरकुमारराया उड्ढं उप्पइयपुव्विं जाव - सोहम्मो कप्पो ? १९ उत्तर - हंता, गोयमा ! • शब्बर, बब्बर आदि उस समय की अनायं जातियों के नाम है। For Personal & Private Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ३ उ. २ चमरेन्द्र का पूर्व भव २० प्रश्न - अहो णं भंते ! चमरे, असुरिंदे, असुरकुमारराया महिड्डिए, महज्जुईए, जाव कहिं पविट्ठा ? २० उत्तर - कूडागारसालादिट्टंतो भाणियव्वो । कठिन शब्दार्थ - उप्पइयपुव्वि - पहले ऊँचा गया था ? दिट्ठतो- दृष्टान्त । भावार्थ - १८ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या सभी असुरकुमार देव, सौधर्म कल्प तक ऊपर जाते हैं ? १८ उत्तर - हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है अर्थात् सभी असुरकुमार देव ऊपर नहीं जाते हैं, किन्तु महाऋद्धि वाले असुरकुमार देव ही यावत् सौधर्म कल्प तक ऊपर जाते हैं । ६१७ १९ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या यह असुरेन्द्र असुरराज चमर भी पहले किसी समय ऊपर यावत् सौधर्म कल्प तक गया था ? १९ उत्तरर-हाँ, गौतम ! गया था । २० प्रश्न - हे भगवन् ! आश्चर्य है कि असुरेन्द्र असुरराज चमर ऐसी महाऋद्धि वाला है, ऐसी महाद्युति वाला है, तो हे भगवन् ! वह दिव्य देवऋद्धि, दिव्य देवकान्ति, दिव्य देव प्रभाव कहाँ गया ? कहाँ प्रविष्ट हुआ ? २० उत्तर - हे गौतम! पूर्व कथितानुसार यहाँ पर भी कूटाकारशाला का दृष्टान्त समझना चाहिए। यावत् वह दिव्य देवप्रभाव, कूटाकारशाला के दृष्टान्तानुसार चमरेन्द्र के शरीर में गया और शरीर में ही प्रविष्ट हो गया । चमरेन्द्र का पूर्व भव २१ प्रश्न - चमरेण भंते ! असुरिंदेणं असुररण्णा सा दिव्वा देविड्ढी, तं चैव जाव - किण्णा लद्धा, पत्ता, अभिसमण्णागया ? For Personal & Private Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१८ भगवती सूत्र-श. ३ उ. २ चमरेन्द्र का पूर्व भव . . २१ उत्तर-एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबूदीवे दीवे भारहे वासे विंझगिरिपायमूले बेभेले णामं सण्णिवेसे होत्था, वण्णओ। तत्थ णं बेभेले सण्णिवेसे पूरणे नामं गाहावई परिवसइ-अड्ढे, दित्ते, जहा तामलिस्स वत्तव्वया तहा णेयव्वा, णवरं-चउप्पुडयं दारुमयं पडिग्गहं करेत्ता, जाव-विपुलं असणं, पाणं, खाइमं, साइमं जाव-सयमेव चउप्पुडयं दारुमयं पडिग्गहं गहाय मुंडे भवित्ता दाणामाए पव्वजाए पव्वइए वि य णं समाणे तं चेव जाव-आयावणभूमीओ पचोरुहिता सयमेव चउप्पुडयं दारुमयं पडिग्गहं गहाय बेभेले सण्णिवेसे उच्च-णीय-मज्झिमाई कुलाई घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए अडेत्ता, ज मे पढमे पुडए पडइ कप्पइ मे तं पंथे पहियाणं दलइत्तए, जं मे दोच्चे पुडए पडइ कप्पइ मे तं काग-सुणयाणं दलइत्तए, जं मे तच्चे पुडए पड़इ कप्पइ मे तं मच्छ-कच्छभाणं दलइत्तए, ज मे चउत्थे पुडए पडइ कप्पइ मे तं अप्पणा आहारेत्तए त्ति कटु एवं संपेहेइ संपेहिता कल्लं पाउप्पभाए रयणीए तं चेव गिरवसेसं जाव-जं मे चउत्थे पुडए पडइ त अप्पणा आहारं आहारेइ । तएणं से पूरणे बालतवस्सी तेणं ओरालेणं, विउलेणं, पयत्तेणं पग्गहिएणं, बालतवोकम्मेणं तं चेव जाव-बेभेलस्स सण्णिवेसस्स मज्झमझेणं णिग्गच्छइ, णिगच्छित्ता पाउयकुंडियमाईयं उवगरणं, चउप्पुडयं दारुमयं पडिग्गहं एगतमंते For Personal & Private Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ३ उ. २ चमरेन्द्र का पूर्व भव एडेइ, एडित्ता वेभेलस्स सण्णिवेसस्स दाहिणपुरथिमे दिसीभागे अद्धणियत्तणियमंडलं आलिहित्ता सलेहणासणाासिए, भत्तपाणपडियाइक्खिए पाओवगमणं णिवण्णे। ___ कठिन शब्दार्थ -चउप्पुडयं - चार पुट-चार खानावाला, दाणामा-'दानामा' नामक एक तापस प्रव्रज्या, पहियाणं-पथिक, काग-सुणयाणं-कौए और कुत्ते । भावार्थ-२१ प्रश्न-हे भगवन् ! अमरेन्द्र असुरराज चमर को वह दिव्य देवऋद्धि यावत् किस प्रकार लब्ध हुई-मिली, प्राप्त हुई और अभिसमन्वागत हुईसम्मुख आई ? २१-उत्तर-हे गौतम ! उस काल उस समय में इस जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में विन्ध्याचल पर्वत की तलहटी में 'बेभेल' नामक सन्निवेश था। वहां 'पूरण' नाम का एक गृहपति रहता था । वह आढ्य और दीप्त था । (उसका सब वर्णन तामली की तरह जानना चाहिए।) उसने भी समय आने पर किसी समय तामली के समान विचार कर कुटुंब का सारा भार अपने ज्येष्ठ पुत्र को संभला दिया। फिर चार खण्ड वाला लकडी का पात्र लेकर, मुण्डित होकर 'दानामा' नामक प्रव्रज्या अंगीकार की। (यहां सारा वर्णन पहले की तरह समझना चाहिए) यावत् बेले के पारणे के दिन वह आतापना की भूमि से नीचे उतरा। स्वयं लकडी का चार खण्ड वाला पात्र लेकर 'बेभेल' नाम के सन्निवेश में ऊँच, नीच और मध्यम कुलों में मिक्षा की विधि से भिक्षा के लिये फिरा और भिक्षा के चार विभाग किये । पहले खण्ड में जो भिक्षा आवे वह मार्ग में मिलने वाले पथिकों को बाँट दी जाय, किंतु उसमें से स्वयं कुछ नहीं खाना । दूसरे खण्ड में जो भिक्षा आवे वह कौए और कुत्तों को खिला दी जाय और तीसरे खण्ड में जो भिक्षा आवे वह मछलियों और कछुओं को खिला दो जाय और चौथे खण्ड में जो भिक्षा आवे वह स्वयं आहार करना । पारणे के दिन मिली हुई भिक्षा का इस प्रकार विभाग करके वह पूरण बाल तपस्वी विचरता था। For Personal & Private Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२० भगवती सूत्र-श. ३ उ. २ चमरेन्द्र का पूर्व भव वह पूरण बाल तपस्वी उस उदार, विपुल प्रदत्त और प्रगहीत बाल तप कर्म के द्वारा शुष्क रुक्ष हो गया (यहां सब वर्णन पहले की तरह जानना चाहिए)। वह भी बेभेल सनिवेश के बीचोबीच होकर निकला, निकल कर पादुका (खड़ाऊ) और कुण्डी आदि उपकरणों को तमा चार खण्ड वाले लकडों के पात्र को एकान्त में रख दिया। फिर बेभेल सन्निवेश के अग्निकोण में अर्द्ध निवर्तनिक मण्डल को साफ किया। फिर संलेखना झूषणा से अपनी आत्मा को युक्त करके, आहार पानी का त्याग करके उस पूरण बाल-तपस्वी ने 'पादपोपगमन' अनशन स्वीकार किया। - विवेचन-'दानामा' प्रवज्या उसको कहते हैं जिसमें दान की प्रधानता होती है । 'पूरण' तापस ने इस प्रव्रज्या को अंगीकार किया था। उसने चार खण्डवाला लकड़ी का पात्र ग्रहण किया था। उसके तीनखण्डों में आये हुए आहार का वह दान कर देता था, केवल चौथे खण्ड में आये हुए आहार को वह स्वयं भोगता था। जब पूरण ने देखा कि अब मेरो शरीर शुष्क, अशक्त और निर्बल हो गया है, तो वह धीरे धीरे बेभेल सन्निवेश के बाहर गया और पादपोपगमन अनशन कर लिया। - तेणं कालेणं तेणं समएणं अहं गोयमा ! छउमत्थकालियाए एक्कारसवासपरियाए छटुंछटेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे, पुवाणुपुञ् िचरमाणे, गामाणुगाम दुइजमाणे जेणेव सुसुमारपुरे णयरे जेणेव असोयवणसंडे उजाणे, जेणेव असोयवरपायवे, जेणेव पुढवीसिलावट्ठए तेणेव उवागच्छामि, असोगवरपायवस्स हेट्ठा पुढवीसिलावट्टयंसि अट्ठमभत्तं परिंगिण्हामि, दो वि पाए साहटु वग्धारियपाणी, एगपोग्गलणिविट्ठदिट्ठी, अणिमिसणयणे ईसिंपन्भारगएणं कारणं, अहापणिहिएहिं गत्तेहिं, सर्दिव For Personal & Private Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ३ उ. २ चमरेन्द्र का पूर्वभव ६२१ दिएहिं गुत्तेहिं एगराइयं महापडिमं उपसंपज्जेत्ता णं विहरामि। कठिन शब्दार्थ-असोयवरपायवस्स-अशोक का उत्तम वृक्ष, साह?--संकुचित करके, वग्धारियपाणी-दोनों हाथों को नीचे की तरफ लम्बा करके, एगपोग्गलनिविट्ठदिट्ठी-एक पुद्गल पर दृष्टि स्थिर रखकर, अणिमिसणयणे-आँखों को नहीं टमकाते हुए, ईसिंपन्भारगएणं कारणं-शरीर के अग्रभाग को थोड़ा आगे झुकाकर, अहापणिहिए गतेहियथास्थित गात्रों से। भावार्थ-(अब श्रमण भगवान महावीरस्वामी अपनी हकीकत कहते हैं) -हे गौतम ! उस काल उस समय में छदमस्थ अवस्था में था। मुझे दीक्षा लिये हुए ग्यारह वर्ष हुए थे। उस समय मैं निरन्तर छट्ठ छट्ठ अर्थात् बेले बेले की तपस्या करता हुआ, तप सयम से आत्मा को भावित करता हुआ पूर्वानुपूर्वी से विचरता हुआ, ग्रामानुग्राम चलता हुआ सुंसुमारपुर नगर के अशोक वनखण्ड उद्यान में अशोक वृक्ष के नीचे पृथ्वीशिलापट्ट के पास आया। वहाँ आकर मैंने उस उत्तम अशोक वृक्ष के नीचे पथ्वीशिलापट्टक के ऊपर अट्ठम अर्थात् तेले की तपस्या स्वीकार करके, दोनों पांव कुछ संकुचित करके, हाथों को नीचे की तरफ लम्बा करके, सिर्फ एक पुद्गल पर दृष्टि स्थिर करके, आंखों की पलकें न टमकाते हुए, शरीर के अग्रभाग को कुछ झुका कर, सर्व इन्द्रियों को गुप्त करके एकरात्रिकी महाप्रतिमा को अंगीकार कर ध्यानस्थ रहा । तेणं कालेणं तेणं समएणं चमरचंचा रायहाणी अणिंदा, अपुरोहिया या वि होत्था । तएणं से पूरणे बालतवस्सी बहुपडिपुण्णाई दुवालसवासाइं परियागं पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झुसेत्ता सर्द्धि भत्ताइं अणसणाए छेदेत्ता कालमासे कालं किचा चमरचंचाए रायहाणीए उववायसभाए जाव-इंदत्ताए उववण्णे। For Personal & Private Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२२ भगवती सूत्र-श. ३ उ. २ चमरेन्द्र का उत्पात . भावार्थ--उस काल उस समय में चमरचञ्चा राजधानी इन्द्र और पुरोहित रहित थी। वह 'पूरण' नाम का बाल-तपस्वी पूरे बारह वर्ष तक तापस पर्याय का पालन करके, एक मास की संलेखना से आत्मा को सेबित करके, साठ भक्त तक अनशन रख कर काल के अबसर काल करके चमरचञ्चा राजधानी को उपपांतसभा में इन्द्र के रूप से उत्पन्न हुआ। चमरेन्द्र का उत्पात तएणं से चमरे असुरिंदे, असुरराया अहुणोववण्णे पंचविहाए पज्जत्तीए पजत्तिभावं गच्छइ, तं जहा-आहारपजत्तीए, जावभास-मणपजत्तीए । तएणं से चमरे असुरिंदे, असुरराया पंचविहाए पजत्तीए पजत्तिभावं गए समाणे उड्ढं वीससाए ओहिणा आभोएइ जाव-सोहम्मो कप्पो, पासइ य तत्थ सपकं देविंदं देवरायं, मघवं, पागसासणं, सयकडं, सहस्सक्खं, वजपाणिं, पुरंदरं, जाव-दस दिसाओ उज्जोवेमाणं, पभासेमाणं सोहम्मे कम्पे सोहम्मे वडिंसए विमाणे सक्कंसि सोहासणंसि, जाव-दिव्वाइं भोगभोगाई भुंजमाणं पासइ, पासित्ता इमेयारूवे अन्झथिए, चिंतिए, पत्थिए, मणोगए संकप्पे समुप्पजित्था के स गं एस अपत्थियपत्थए, दुरंतपंतलक्खणे, हिरिसिरिपरिवजिए, हीणपुण्णचाउद्दसे जं णं ममं इमाए एयारूवाए दिव्याए देविड्ढीए, जाव-दिव्वे देवाणुभावे लः, पत्ते, अभिसमण्णागए उप्पिं अप्पुस्सुए दिव्वाइं भोगभोगाई भुंजमाणे For Personal & Private Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-श. ३ उ. २ चमरेन्द्र का उत्पात ६२३ विहरइ, एवं संपेहेइ, संपेहित्ता सामाणियपरिसोववण्णए देवे सद्दावेइ, एवं वयासी-के स णं एस देवाणुप्पिया ! अपत्थियपत्थए, जाव-मुंजमाणे विहरइ ? तएणं ते सामाणियपरिसोववण्णगा देवा चमरेणं असुरिंदेणं असुररण्णा एवं वुत्ता समाणा हट्टतुट्ठा जाव-हयहियया करयलपरिग्गहियं दसणहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु जएणं विजएणं वद्धावेंति, एवं वयासी-एसणं देवाणुप्पिया ! सक्के देविंदे देवराया जाव-विहरइ। . कठिन शब्दार्थ-वीससाए -स्वाभाविकरूप से, आभोएइ-उपयोग लगाकर-जानकर, मघवं - मघवा, पाकसांसणं-पाकशासन, सयक्कउं-शतक्रतु, सहस्सक्खं-सहस्राक्ष-हजार आंख वाला, वज्जपाणि-वज्रपाणी-हाथ में वज्र रखने वाला, पुरंदरं-पुरन्दर, अपत्थियपत्थएमृत्यु को चाहने वाला, दुरंतपंतलक्खणे-बुरे लक्षणवाला, हिरिसिरिपरिवज्जिए-लज्जा और शोभा से रहित, हीणपुण्णचाउद्दसे-अपूर्ण चतुर्दशी के दिन जन्मा हुआ, अप्पुस्सुए-घबराहट रहित, हयहियया-हृत हृदयवाले । भावार्थ-तत्काल उत्पन्न हुआ वह असुरेन्द्र असुरराज चमर, पांच प्रकार को पर्याप्तियों से पर्याप्त बना । वे पांच पर्याप्तियां इस प्रकार हैं-आहारपर्याप्ति, शरीरपर्याप्ति, इन्द्रियपर्याप्ति, श्वासोच्छ्वासपर्याप्ति और भाषा-मनः पर्याप्ति (देवों के भाषा पर्याप्ति और मनः पर्याप्ति शामिल बंधती है) । जब असुरेन्द्र असुरराज चमर, उपर्युक्त पांच पर्याप्तियों से पर्याप्त होगया, तब स्वाभाविक अवधिज्ञान के द्वारा सौधर्मकल्प तक ऊपर देखा । सौधर्मकल्प में देवेन्द्र देवराज मघवा, पाकशासन, शतक्रतु, सहस्राक्ष, वज्रपाणि, पुरन्दर, शक, को यावत् दस दिशाओं को उदयोतित एवं प्रकाशित करते हुए सौधर्म कल्प में सौधर्मावतंसक नामक विमान में, शक नाम के सिंहासन पर बैठकर यावत् दिव्य भोग भोगते हुए देखा । देखकर उस चमरेन्द्र के मन में इस प्रकार का आध्यात्मिक, चितित प्रार्थित मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ कि-अरे! यह अप्रार्थितप्रार्थक अर्थात् मरण For Personal & Private Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२४ भगवती सूत्र - श. ३ उ. २ चमरेन्द्र का उत्पात की इच्छा करनेवाला कुलक्षणी ही श्री परिवर्जित अर्थात् लज्जा और शोभा से रहित, हीन पूर्ण (अपूर्ण) चतुर्दशी का जन्मा हुआ यह कौन है ? मुझे यह दिव्य देवऋद्धि, दिव्य देवकान्ति और दिव्य देवप्रभाव मिला है, प्राप्त हुआ है, सम्मुख आया है, ऐसा होते हुए भी मेरे सिर पर बिना किसी हिचकिचाहट के विव्य भोग भोगता हुआ विचरता है। ऐसा विचार कर चमरेन्द्र ने सामानिक सभा में उत्पन्न हुए देवों को बुला कर इस प्रकार कहा कि हे देवानुप्रियों ! यह अप्रार्थित प्रार्थक ( मरण का इच्छुक ) यावत् भोग भोगने वाला कौन है ? चमरेन्द्र का प्रश्न सुनकर हृष्टतुष्ट बने हुए उन सामानिक देवों ने दोनों हाथ जोड़ कर शिरसावर्तपूर्वक मस्तक पर अञ्जलि करके चमरेन्द्र को जय विजय शब्दों से बधाया । फिर वे इस प्रकार बोले कि - हे देवानुप्रिय ! यह देवेन्द्र देवराज शक्र यावत् भोग भोगता है । विवेचन - वह पूरण तापस मृत्यु पाकर चमरेन्द्र के रूप में उत्पन्न हुआ और उसने स्वभाव से ही अपने अवधिज्ञान से ऊपर देखा, तो अपने ऊपर शक्रेन्द्र दिव्य-भोग भोगता हुआ दिखाई दिया । मूलपाठ में शक्रेन्द्र के लिए जो विशेषण रूप शब्द दिये हैं, उसका अर्थ इस प्रकार है - 'मघवा' - महामेघ जिसके वश में हों उसे 'मघवा' कहते हैं । 'पाकशासन''पाक' नाम के बलवान् शत्रु को शिक्षा देनेवाला अर्थात् उसको परास्त करनेवाला । 'शतऋतु' - शक्रेन्द्र के जीव ने कार्तिक के भव में श्रमणोपासक की पांचवीं प्रतिमा का एक बार आचरण किया था, इसलिए शक्रेन्द्र को 'शतक्रतु' कहते हैं । यह ( शतक्रतु) विशेषण सभी केन्द्रों के लिए नहीं है । 'सहस्राक्ष' - जिसके हजार आँखें हों उसको 'सहस्राक्ष' कहते हैं । शक्रेन्द्र के पाँच सौ मन्त्री हैं, उनके एक हजार आँखे हैं, वे सब शक्रेन्द्र के काम आती हैं। इसलिए औपचारिक रूप से वे सब आँखें शक्रेन्द्र की कहलाती हैं। इस कारण से शक्रेन्द्र को सहस्राक्ष कहते हैं । 'पुरन्दर' - असुरादि के नगरों का विनाश करने वाला होने से शक्रेन्द्र . को 'पुरन्दर' कहते हैं । वह दक्षिणार्द्ध लोक का स्वामी है । बत्तीस लाख विमानों का अधिपति है । ऐरावण हाथी उसका वाहन हैं। वह सुरेन्द्र अर्थात् सुरों का इन्द्र है । वह रज रहित एवं आकाश के समान निर्मल वस्त्रों को पहनने वाला है । मस्तक पर माला युक्त मुकुट को धारण करने वाला है। कानों में नवीन, सुन्दर, विचित्र और चंचल स्वर्णकुण्डलों को 'पहनने से जिसके कपोलभाग ( गाल) चमक रहे हैं। इस प्रकार के शक्रेन्द्र को अपने ऊपर For Personal & Private Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ३ उ २. चमरेन्द्र का उत्पात ६२५ दिव्य भोग भोगते हुए चमरेन्द्र ने देखा । देख कर वह अत्यन्त कुपित हुआ और उसने कहा कि यह अप्रार्थित प्रार्थक अर्थात् अनिष्ट वस्तु की प्रार्थना करने वाला-मरण का इच्छुक दुरन्तपन्तलक्षण अर्थात् खराब लक्षणों वाला, होनपुण्यचतुर्दशी का जन्मा हुआ कौन है ? ___ हीनपुण्यचतुर्दशी का जन्मा हुआ' का आशय यह है-जन्म के लिए चतुर्दशी (चौदस) तिथि पवित्र मानी गई है । अत्यन्त पुण्यवान् पुरुष के जन्म के समय ही पूर्ण चतुर्दशी होती है, किन्तु हीन चतुर्दशी (अपूर्ण चतुर्दशी) नहीं होती है । चमरेन्द्र ने शक्रेन्द्र के लिए यह विशेषण देकर अपना आक्रोश. प्रकट किया है। तएणं से चमरे असुरिंदे असुरराया तेसिं सामाणियपरिसोववण्णगाणं देवाणं अंतिए एयमटुं सोचा, णिसम्म आसुरुत्ते, रुटे, कुविए, चंडिकिए, मिसिमिसेमाणे ते सामाणियपरिसोववण्णगे देवे एवं वयासी'अण्णे खलु भो ! से सक्के; देविंदे देवराया; अण्णे खलु भो ! से चमरे असुरिंदे असुरराया, महिड्डीए खलु भो ! से सक्के देविंदे देवराया, अप्पिड्ढीए खलु भो ! से चमरे असुरिंदे असुरराया; तं इच्छामि णं देवाणुप्पिया ! सक्कं देविंदं देवरायं सयमेव अचासाइत्तए त्ति कटु उसिणे, उसिणभूए जाए यावि होत्था । तएणं से चमरे असुरिंदे, असुरराया ओहिं पउंजइ, पउंजित्ता ममं ओहिणा आभोएइ, आभोएत्ता इमेयारूवे अज्झथिए जाव-समुप्पजित्था-एवं खलु समणे भगवं महावीरे जंबूदीवे दीवे भारहे वासे, सुंसुमारपुरे णयरे असोगवणसंडे उजाणे, असोगवरपायवस्स अहे पुढविसिलावट्टयंसि अट्ठमभतं पगिण्हिचा एगराइयं महापडिमं उवसंपजित्ता णं. विहरइ, तं सेयं खलु मे समणं भगवं महावीरं णीसाए For Personal & Private Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ३ उ. २ चमरेन्द्र का उत्पात सक्कं देविंदं देवरायं सयमेव अच्चासाइत्तए त्ति कट्टु एवं संपेहेह, संपेहित्ता सयपिज्जाओ अन्भुट्ठेह, अन्भुट्टेत्ता देवदूसं परिहेह, परिहित्ता उववायसभाए पुरत्थिमिल्लेणं णिग्गच्छछ, णिगच्छित्ता जेणेव सभा सुहम्मा, जेणेव चोप्पाले पहरणकोसे, तेणेव उवागच्छह, उवागच्छित्ता फलिहरयणं परामुसइ, परामुसित्ता एगे अबीए; फलिहरयणमायाय महया अमरिसं वहमाणे चमरवंचाए सयहाणीए मज्झमज्झेणं णिग्गच्छछ, णिगच्छित्ता जेणेव तिमिच्छ्कूडे उप्पायपव्वए तेणेव उवागच्छछ, उवामच्छित्ता जाव - वेउब्वियसमुग्धारणं समोहणइ, समोहणित्ता संखेज्जाई जोयणाई जाव - उत्तरविउब्वियरूवं विवर, ताए उकिट्टाए जाव - जेणेव पुढविसिलापट्टए, जेणेव ममं अंतिए तेणेव उवागच्छछ, उवागच्छित्ता ममं तिक्खुतो आयाहिणं पयाहिणं करेs, जाव - मंसित्ता एवं वयासी- इच्छामि णं भंते ! तुभं णीसाए सक्कं देविंद देवरायं सयमेव अबासाइत्तएं ६२६ कठिन शब्दार्थ - अण्णे--अन्य दूसरा, अभ्यासात्तए- नष्ट भ्रष्ट करने के लिए, उस उणिए- - उष्ण हुआ उष्णता को प्राप्त हुआ- रुष्ठ हुआ, ओहि पउंजइअवधिज्ञान का प्रयोग किया, परिहेइ-पहना, चोप्पाले पहरणकोसे - चतुष्पाल - चतुष्खण्ड नवम का शस्त्र रखने का भण्डार, फलिहरयणं परिधरन नाम का शस्त्र, परामुसद्द - लिया, अमरिसं वहमाणे – रोष को धारण करता हुआ । भावार्थ - सामानिक देवों के उत्तर को सुनकर, अवधारण करके असुरेन्द्र असुरराज चमर, आशुरक्त हुआ अर्थात् क्रुद्ध हुआ, रुष्ट हुआ, अर्थात् रोष में भरा, कुपित हुआ, चण्ड बना अर्थात् भयङ्कर आकृतिवाला बना और क्रोध के For Personal & Private Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ३ उ. २ चमरेन्द्र का उत्पात ६२७ आवेश में दांत पीसने लगा। फिर उसने सामानिक सभा में उत्पन्न हए देवों से इस प्रकार कहा-“हे देवानुप्रियों! देवेन्द्र देवराज शक्र कोई दूसरा है और असुरेन्द्र असुरराज चमर कोई दूसरा है। देवेन्द्र देवराज शक्र जो महाऋद्धि वाला है वह कोई दूसरा है और असुरेन्द्र असुरराज चमर जो अल्प ऋद्धि वाला है, वह कोई दूसरा है । हे देवानुप्रियों ! मैं स्वयं देवेन्द्र देवराज शक्र को उसकी शोभा से भ्रष्ट करना चाहता हूं" ऐसा कह कर वह चमर गर्म हुआ, और उस अस्वाभाविक गर्मी को प्राप्त कर वह अत्यन्त कुपित हुआ। इसके बाद उस असुरेन्द्र असुरराज चमर ने अवधिज्ञान का प्रयोग किया। अवधिज्ञान के प्रयोग द्वारा चमरेन्द्र ने मुझे (श्रीमहावीर स्वामी को) देखा । मुझे देख कर चमरेन्द्र को इस प्रकार का आध्यात्मिक यावत् संकल्प उत्पन्न हुआ कि-'श्रमण भगवान महावीर स्वामी, द्वीपों में के जम्बूद्वीप के भस्तक्षेत्र के सुसुमारपुर नाम के नगर के अशोक वन खण्ड नामक उद्यान में एक उत्तम अशोक वृक्ष के नीचे पृथ्वीशिलापट्टक पर तेले के तप को स्वीकार करके, एक रात्रि की महाप्रतिमा अंगीकार करके स्थित हैं। मेरे लिए यह श्रेयस्कर है कि मैं श्रमण भगवान् महावीर स्वामी का आश्रय लेकर देवेन्द्र देवराज शक्र को उसकी शोभा से भ्रष्ट करने के लिए जाऊँ ।' ऐसा विचार कर वह चमरेन्द्र अपनी शय्या से उठा, उठ कर देवदूष्य (देव वस्त्र) पहना। पहन कर उपपात सभा से पूर्व दिशा की तरफ गया। फिर सुधर्मा में चोप्पाल (चतुपाल-चारों तरफ पाल वाला, चौखण्डा) नामक शस्त्रागार की तरफ गया। वहाँ जाकर परिध-रत्न नामक शस्त्र लेकर किसी को साथ लिये बिना अकेला ही अत्यन्त कोप के साथ चमरचञ्चा राजधानी के बीचोबीच होकर निकला । फिर तिगिच्छकूट नामक उत्पात पर्वत पर आया। वहां वैक्रिय समुद्घात द्वारा समवहत होकर संख्येय योजन पर्यन्त उत्तरवैक्रिय रूप बनाया। फिर उत्कृष्ट देवगति द्वारा वह चमर, उस पृथ्वीशिलापट्टक की तरफ मेरे (श्री महावीर स्वामी के) पास आया । फिर मेरी तीन बार प्रदक्षिणा करके मुझे वन्दना नमस्कार किया। वन्दना नमस्कार कर वह इस प्रकार बोला-"हे भगवन् ! में आपका आश्रय लेकर स्वयमेव अकेला ही देवेन्द्र देवराज शक्र को उसकी शोभा से भ्रष्ट करना चाहता हूँ।" For Personal & Private Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२८ भगवती सूत्र-श. ३ उ. २ चमरेन्द्र का उत्पात त्ति कटु उत्तरपुरस्थिमं दिसीभागं अवक्कमेइ,वेउब्वियसमुग्धारणं समोहणइ, जाव-दोच्चं पि वेउव्वियसमुग्धाएणं समोहणइ, एगं, महं, घोरं, घोरागारं, भीमं, भीमागारं, भासुरं, भयाणीयं, गंभीरं, उत्तासणयं, कालड्ढरत्त-मासरासिसंकासं जोयणसयसाहस्सीयं महाबोंदि विउब्बइ विउवित्ता अफोडेइ, अप्फोडित्ता वग्गइ, वग्गित्ता गजइ, गजित्ता हयहेसियं करेइ, करित्ता हत्थिगुलगुलाइयं करेइ, करित्ता, रहघणघणाइयं करेइ, पायदद्दरगं करेइ, भूमिचवेडयं दलयह, सीहणादं नदइ, उच्छोलेइ, पच्छोलेइ तिवई छिदइ, वामं भुअं ऊसवेइ, दाहिणहत्थपदेसिणीए अंगुट्ठणहेण य वितिरिच्छमुहं विडंबेइ, बिडंवित्ता महया महया सद्देण कलकलवं करेइ, एगे, अबीए फलिहरयणमायाय उड्ढं वेहास उप्पइए । खोभंते चेव अहोलोअं, कंपेमाणे च मेइणीयलं, आकड्ढेते व तिरियलोअं, फोडेमाणे व अंबरतलं, कत्थइ गजते, कत्थइ विज्जुयायंते, कत्थइ वासं वासमाणे, कत्थइ रयुग्घायं पकरेमाणे, कत्थइ तमुक्कायं पकरेमाणे, वाणमंतरे देवे वित्तासमाणे, जोइसिए देवे दुहा विभयमाणे, आयरवखे देवे विपलायमाणे, फलिहरयणं अंबरतलंसि वियट्टमाणे, वियट्टमाणे, विउभाएमाणे, विउन्माएमाणे ताए उक्किट्ठाए जाव-तिरियमसंखेजाणं दीव समुदाणं मझमझेणं वीईवयमाणे जेणेव सोहम्मे कप्पे, जेणेव सोहम्मवडेंसए विमाणे, जेणेव सभा सुहम्मा तेणेव For Personal & Private Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ३ उ. २ चमरेन्द्र का उत्पात ६२९ उवागच्छइ, उवागच्छित्ता एगं पायं पउमवरवेइयाए करेइ, एगं पायं सभाए सुहम्माए करेइ; फलिहरयणेणं महया महया सद्देणं तिक्खुत्तो इंदकीलं आउडेइ, आउडित्ता एवं वयासी-“कहि णं भो ! सक्के देविंदे देवराया ? कहि णं ताओ चउरासीइसामाणियसाहस्सीओ ? जाव-कहि णं ताओ चत्तारि चउरासीईओ आयरक्खदेवसाहस्सीओ ? कहि णं ताओ अणेगाओ अच्छाकोडीओ ?” अज हणामि, अज महेमि, अज्ज वहेमि, अज ममं अवसाओ अच्छाओ वसमुवणमंतु त्ति कटु तं अणिटुं, अकंतं, अप्पियं, असुभ, अमणुण्णं, अमणाम, फरुसं गिरं णिसिरइ । ___ कठिन शब्दार्थ-घोरं घोरागारं-घोर और घोर आकारवाला, भीमं भीमागारंभयानक, भयानक आकृतिवाला, भासुर-भास्वर, उत्तासणयं-त्रास उत्पन्न करने वाला, कालडरत्तमासरासि संकासं-कृष्ण पक्ष की काली अर्द्धरात्रि और उड़द के ढेर के समान काला, महाबोंदि -बड़ा शरीर, अप्फोडेइ-हाथों को पछाड़ता है, वग्गइ-व्यग्र होता है, पायदद्दरगं-पैर पछाड़ता है, गज्जइ-गर्जना करता है, हयहेसियं करेइ-घोड़े की तरह हिनहिनाने लगा, उच्छोलेइ-उछलने लगा, तिवई छिदइ-त्रिपदी छेदने लगा, वामं भयं ऊसवेइ–बाँई भुजा ऊंची करने लगा, दाहिण हत्थ पदेसिणीए-दाहिने हाथ की तर्जनी अंगुली और अंगुठे के नख से, तिरिच्छमुहं विडंबेइ - मुंह को तिरछा करके विडंबित करने लगा, वेहासं-आकाश को, मेइणीयलं-भूमितल को, आकड्ढते-संमुख खींचता हो वैसे, रयग्घायं पकरेमाणे--धूलि की वर्षा करता हुआ, तमुक्कायं-अन्धकार करता हुआ, वित्तासमाणे-त्रासित करता हुआ, विपलायमाणे-भगाता हुआ, विउन्मायमाणे-उछालता हुआ, इंदकीलं आउडेइ-इन्द्रकील को ठोका, अवसाओ-वश में नहीं है, वसमुवणमंतु--वश में हो जावे, गिरं णिसिरइ--वचन निकाले-शब्द कहे। भावार्थ-ऐसा कह कर चमरेन्द्र उत्तर पूर्व के दिग्विभाग में अर्थात् ईशान For Personal & Private Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३० भगवती सूत्र-श. ३ उ. २ चमरेन्द्र का उत्पात . कोण में चला गया। फिर उसने वैक्रिय समुद्घात किया यावत् वह दूसरी बार भी वैक्रिय समुद्घात द्वारा समवहत हुआ। ऐसा करके चमरेन्द्र ने एक महान घोर, घोर आकृतिवाला, भयंकर, भयंकर आकृतिवाला, भास्वर, भयानक, गंभीर त्रासजनक, कृष्णपक्ष की अर्द्धरात्रि तथा उड़दों के ढेर के समान काला, एक लाख योजन का ऊँचा मोटा शरीर बनाया। ऐसा करके वह चमरेन्द्र अपने हाथों को पछाड़ने लगा, उछलने कूदने लगा, मेघ की तरह गर्जना करने लगा, घोडे की तरह हिनहिनाने लगा, हाथी की तरह चिंघाड़ने लगा, रथ की तरह घनघनाहट करने लगा, भूमि पर पैर पटकने लगा। भूमि पर चपेटा मारने लगा, सिंहनाद करने लगा, उछलने लगा, पछाड़ मारने लगा, त्रिपदी छेदने लगा, बाँई भुजा को ऊँचा करने लगा, दाहिने हाथ की तर्जनी अंगुली और अंगूठे के नख द्वारा अपने मुंह को विडंबित करने लगा (टेढ़ा मेढ़ा करने लगा) और महान् शब्दों द्वारा कलकल शब्द करने लगा। इस प्रकार करता हुआ मानो अधोलोक को क्षुभित करता हुआ, भूमितल को कम्पाता हुआ, तिरछा लोक को खींचता हुआ, गगनतल को फोड़ता हुआ, इस प्रकार करता हुआ वह चमरेन्द्र, कहीं गर्जना करता हुआ, कहीं बिजली की तरह चमकता हुआ, कहीं वर्षा के सदृश बरसता हुआ, कहीं पर धूलि की वर्षा करता हुआ, कहीं पर अन्धकार करता हुआ वह चमर ऊपर जाने लगा। जाते हुए उसने वाणव्यन्तर देवों को त्रासित किया, ज्योतिषी देवों के दो विभाग कर दिये और आत्मरक्षक देवों को भगा दिया। ऐसा करता हुआ वह चमरेन्द्र परिध रत्न को फिराता हुआ (घुमाता हुआ) शोभित करता हुआ, उस उत्कृष्ट गति द्वारा यावत् तिरछे असंख्येय द्वीप समुद्रों के बीचोंबीच होकर निकला। निकल कर सौधर्मकल्प के सौधर्मावतंसक विमान की सुधर्मा सभा में पहुंचा। वहां पहुंच कर उसने अपना एक पैर पद्मवर वेदिका के ऊपर रखा और दूसरा पैर सुधर्मा सभा में रखा । महान् हुंकार शब्द करते हए उसने अपने परिध रत्न द्वारा इन्द्रकील को तीन बार पीटा । फिर उसने चिल्ला कर कहा कि-"वह देवेन्द्र देवराज शक्र कहां है ? वे चौरासी हजार ' सामानिक देव कहां हैं ? वे तीन लाख छत्तीस हजार आत्मरक्षक देव कहां है ? For Personal & Private Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ३ उ. २ चमरेन्द्र का उत्पात तथा वे करोडों अप्सराएँ कहाँ हैं ? आज में उनका हनन करता हूँ। जो अप्स - राएँ अब तक मेरे वश में नहीं थीं, वे आज मेरे वश में हो जावें ।" ऐसा करके चमरेन्द्र ने इस प्रकार के अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अशुभ, असुन्दर, अमनोम ( अमनोहर) और अमनोज्ञ शब्द कहे । ६३१ तणं से सक्के देविंदे देवराया तं अणिट्टं जाव- अमणामं असुयपुव्वं फरुसं गिरं सोच्चा, णिसम्म आसुरुते, जाव - मिसिमिसेमाणे तिवलियं भिडं णिडाले साहट्टु चमरं असुरिंदं असुररायं एवं वयासी - "हं भो ! चमरा ! असुरिंदा ! असुरराया ! अपत्थियपत्थया ! जाव - हीणपुण्णचाउदसा ! अज्ज न भवसि न हि ते सुहमत्थीति कट्टु तत्थेव सीहासणवरगए वज्जं परा मुसह, परामुंसित्ता, तं जलतं, फुडतं, तडतडतं उक्कासहस्साइं विणिम्मुयमाणं, जालासहस्साई पहुंचमाणं इंगालसहस्साई पविक्खिरमाणं पविक्खिरमाणं, फुलिंगजालामालासहस्सेहिं चक्खुविक्खेवदिट्ठिपडिघायं पिपकरेमाणं हुयवहअइरेगतेयदिप्पंतं, जइणवेगं फुल्लकिंसुयसमाणं, महव्भयं भयंकरं चमरस्स असुरिंदस्स असुररण्णो वहाए वज्जं निसिर । तपणं से असुरिंदे असुरराया तं जलंतं, जाव-भयंकरं वज्जमभिमुहं आवयमाणं पासइ, पासित्ता झियाइ, पिहाइ, झियायित्ता पिहाइत्ता तहेव संभग्गमउडविडए, सालंबहत्था भरणे, उडूढपाए, अहोसिरे, कक्खा - गतेअपि विणिम्यमाणे विणिम्मुयमाणे ताए उक्किट्टाए, जाव For Personal & Private Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३२ भगवती सूत्र-श. ३ उ. २ चमरेन्द्र का उत्पात तिरियमसंखेजाणं दीव-समुद्दाणं मझंमज्झेणं वीईवयमाणे जेणेव जबूदीवे, जाव-जेणेव असोगवरपायवे, जेणेव मम अंतिए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता भीए भयगग्गरसरे 'भगवं सरणं' इति वुयमाणे ममं दोण्ह वि पायाणं अंतरंसि झत्ति वेगेण समोवडिए। . _____ कठिन शब्दार्थ-अणिठं-अनिष्ट, असुयपुव्वं पहले कभी नहीं सुनी ऐसी. सुहमत्थिति-सुख का अस्तित्व नहीं रहेगा, वज्ज-वज्र, उक्कासहस्साई विणिम्मुयमाणं-हजारों उल्काएँ छोड़ता हुआ, पविक्खिरमाणं-खिराता हुआ, चक्खुविखेवदिद्विपडिग्घायं-आँखों की देखने की शक्ति को रोकने वाला, हुयवहअइरेगतेयदिपंतं-हुतवह-अग्नि से भी अधिक तेज से दीप्त, जइणवेगं-बहुत वेगवाला, फुल्लकिसुयसमाणं-खिले हुए केसु के फूल के समान लाल, वहाए-वध करने के लिए, पिहाइ-स्पृहा करता है, संभग्गमउडविडए-मुकुट का तुर्रा टूट गया, सालंबहत्याभरणे-आलब सहित हाथ के आभूषण वाला, कक्खागयसेअंजिसकी काँख (बगल) में पसीना आ गया, भयगग्गरसरे-भय से कातर स्वर वाला, समोवडिए-गिर गया। ___ भावार्थ-इसके बाद देवेन्द्र देवराज शक्र ने चमरेन्द्र के उपर्युक्त अनिष्ट यावत् अमनोज्ञ एवं अश्रुतपूर्व (पहले कभी नहीं सुने ऐसे) कर्णकटु शब्दों को सुना, अवधारण किया, सुन कर और अवधारण करके अत्यन्त कुपित हुआ, यावत् कोप से धमधमायमान हुआ (मिसमिसाट करने लगा) ललाट में तीन सल डाल कर एवं भृकुटि तान कर शक्रेन्द्र ने चमरेन्द्र से इस प्रकार कहा" भो ! अप्रार्थितप्रार्थक-जिसकी कोई इच्छा नहीं करता, ऐसे मरण की इच्छा करने वाला यावत् हीन पूर्ण (अपूर्ण) चतुर्दशी का जन्मा हुआ. असुरेन्द्र असुरराज चमर ! आज तू नहीं है अर्थात् आज तेरा कल्याण नहीं है, आज तेरी खैर नहीं है, सुख नहीं है । ऐसा कह कर उत्तम सिंहासन पर बैठे हुए ही शकेन्द्र ने अपना वज्र उठाया उस जाज्वल्यमान, स्फुटिक, तड़तडाट करते हुए हजारों उल्कापात को छोड़ते हुए, हजारों अग्नि ज्वालाओं को छोड़ते हुए, हजारों अंगारों को बिखेरते हुए, हजारों स्फुलिंगों (शोलों) से आँखों को चुंधिया देने वाले, अग्नि For Personal & Private Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ३ उ. २ चमरेन्द्र का उत्पात ६३३ से भी अत्यधिक दीप्ति वाले, अत्यन्त वेगवान्, किंशुक (टेसु) के फूल के समान लाल, महाभयावह भयंकर वज्र को चमरेन्द्र के वध के लिए छोड़ा। इस प्रकार के जाज्वल्यमान यावत् भयंकर वज्र को चमरेन्द्र ने अपने सामने आता हुआ देखा । देखते ही वह विचार में पड़ गया कि 'यह क्या है ?' तत्पश्चात् वह बार बार स्पृहा करने लगा कि-'ऐसा शस्त्र मेरे पास होता, तो कैसा अच्छा होता ?' ऐसा विचार कर जिसके मुकुट का छोगा (तुर्रा) भग्न हो गया है ऐसा तथा आलंबवाले हाथ के आभूषणवाला वह चमरेन्द्र, ऊपर पैर और नीचे शिर करके, कांख (कक्षा) में आये हुए पसीने की तरह पसीना टपकाता हुआ वह उत्कृष्ट गति द्वारा यावत् तिरछे असंख्येय द्वीप समुद्रों के बीचोबीच होता हुआ जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र के संसुमारपुर नगर के अशोक वनखण्ड उदयान में उत्तम अशोक वृक्ष के नीचे पृथ्वीशिलापट्ट पर जहाँ मैं (श्री महावीर स्वामी) था, वहाँ आया। भयभीत बना हुआ, भय से कातर स्वर वाला-'हे भगवन् ! आप मेरे लिए शरण हैं।' ऐसा कह कर वह चमरेन्द्र, मेरे दोनों पैरों के बीच में गिर पड़ा अर्थात् छिप गया । तएणं तस्स सकस्स देविंदस्स देवरण्णो इमेयारूवे अझथिए, जाव-समुप्पजित्था-"णो खलु पभू चमरे असुरिंदे असुरराया, णो खलु समत्थे चमरे असुरिंदे असुरराया, णो खलु विसए चमरस्स असुरिंदस्स असुररण्णो अप्पणो णिस्साए उड्ढं उप्पइत्ता जाव सोहम्मो कप्पो, णण्णत्थ अरिहंते वा, अरिहंतचेइयाणि वा, अण गारे वा भाविअप्पणो णीसाए उड्ढं उप्पयइ जाव-सोहम्मो कप्पो, • तं महादुक्खं खलु तहारूवाणं अरिहंताणं भगवंताणं, अणगाराण य अचासायणाए त्ति कट्टु ओहिं पउंजइ, पउंजित्ता ममं ओहिणा For Personal & Private Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ३ उ. २ चमरेन्द्र का उत्पात आभोएइ आभोइत्ता हा ! हा ! अहो ! हतो अहमंसि” त्ति कटु ताए उकिट्ठाए जाव-दिव्वाए देवगईए वजस्स वीहि अणुगच्छमाणे अणुगच्छमाणे तिरियमसंखेजाणं दीव-समुद्दाणं मज्झं. मज्झेणं, जाव-जेणेव असोगवरपायवे, जेणेव ममं अंतिए तेणेव उवागच्छइ, ममं चउरंगुलमसंपत्तं वजं पडिसाहरइ, अवियाई मे गोयमा ! मुट्ठिवाएणं केसग्गे वीइत्था । तएणं से सक्के देविंदे देवराजा वजं पडिसाहरित्ता ममं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ, करित्ता वंदइ - णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी-एवं खलु भंते ! अहं तुभं णीसाए चमरेणं असुरिंदेणं, असुररण्णा सयमेव अबासाइए, तएणं मए परिकुविएणं समाणेणं चमरस्स असुरिदस्स, असुररण्णो वहाए वजे णिसट्टे, तएणं ममं इमेयारूवे अज्झथिए जाव-समुप्पजित्था-णो खलु पभू चमरे असुरिंदे असुरराया, तहेव जाव-ओहिं पउंजामि, देवाणुप्पिए ओहिणा आभोएमि, हा ! हा ! अहो ! हओ म्हि ति कटु ताए उक्ट्ठिाए जाव-जेणेव देवाणुप्पिए तेणेव उवागच्छामि । देवाणुप्पियाणं चउरंगुलमसंपत्तं वजं पडिसाहरामि, वजपडिसाहरणट्ठयाए णं इहमागए, इह समोसढे, इह संपत्ते, इहेव अज उवसंपजित्ता णं विहरामि, तं खामेमि णं देवाणुप्पिया ! खमंतु णं देवाणुप्पिया ! खमंतुमरहंति णं देवाणुप्पिया ! णाइ भुजो एवं करणयाए त्ति कटु ममं वंदइ णमंसइ, For Personal & Private Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ३ उ. २ चमरेन्द्र का उत्पात वंदित्ता णमंसित्ता, उत्तरपुरस्थिमयं दिसीभागं अवक्कमइ, वामेणं पादेणं तिक्खुत्तो भूमिं दलेइ, चमरं असुरिंदं असुररायं एवं वयासी" मुक्को सिणं भो चमरा ! असुरिंदा ! असुरराया ! समणस्स भगवओ महावीरस्स पभावेणं-ण हि ते इयाणिं ममाओ भयं अस्थि त्ति कट्टु जामेव दिसिं पाउ भए तामेव दिसिं पडिगए । ६३५ कठिन शब्दार्थ - अच्चासायणाए - अत्यन्त आशातना, हतो अहमंसि- मैं मारा गया, चउरंगुलमसंपत्तं - पास पहुंचने में चार अंगुल की दूरी रही, वज्जस्स वीहिं-व - वज्र के रास्ते, मुट्ठिवाएणं केसग्गे वीइत्था - मुट्ठी के वायु से मेरे केशाग्र हिले, परिकुविएणं- विशेष कुपित होकर, सिट्ठे - फेंका, खमंतुमरहंति क्षमा करने योग्य हैं, भूमि दलेइ - पृथ्वी पर ठोका, मुक्की - मुक्त है। - भावार्थ - उसी समय देवेन्द्र देवराज शक को इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ कि असुरेन्द्र असुरराज चमर का इतना सामर्थ्य, इतनी शक्ति और इतना विषय नहीं है कि वह अरिहन्त भगवान्, अरिहन्त चैत्य या किसी भावि - तात्मा अनगार का आश्रय लिये बिना स्वयं अपने आप सौधर्म कल्प तक ऊंचा आ सकता है । इसलिए यदि यह चमरेन्द्र किसी अरिहन्त भगवान् यावत् भावि - तात्मा अनगार का आश्रय लेकर यहाँ आया है, तो उन महापुरुषों की आशातना मेरे द्वारा फेंके हुए वज्र से होगी। यदि ऐसा हुआ, तो यह मुझे महान् दुःख रूप होगा । ऐसा विचार कर शकेन्द्र ने अवधिज्ञान का प्रयोग किया और उससे मुझे (श्री महावीर स्वामी को ) देखा । मुझे देखते ही उसके मुख से ये शब्द निकल पडे कि- " हा ! हा !! में मारा गया ।" ऐसा कह कर वह शक्रेन्द्र, अपने वज्र को पकड़ लेने के लिये उत्कृष्ट तीव्र गति से वज्र के पीछे चला । वह शक्रेन्द्र, असंख्येय द्वीप समुद्रों के बीचोबीच होता हुआ यावत् उस उत्तम अशोक वृक्ष के नीचे जहाँ मैं था उस तरफ आया और मेरे से सिर्फ चार अंगुल दूर रहे हुए वज्र को पकड़ लिया । हे गौतम ! जिस समय शक्रेन्द्र ने वज्र को पकड़ा उस समय For Personal & Private Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -श. ३ उ. २ चमरेन्द्र का उत्पात उसने अपनी मुट्ठी को इतनी तेजी से बन्द किया कि मुट्ठी की वायु से मेरे केशान हिलने लग गये । इसके बाद देवेन्द्र देवराज शक्र ने वज्र को लेकर मेरी तीन बार प्रदक्षिणा की और मुझे वन्दना नमस्कार कर के इस प्रकार कहा कि-"हे भगवन् ! आपका आश्रय लेकर असुरेन्द्र असुरराज चमर मुझे मेरी शोभा से भ्रष्ट करने के लिए आया था। इससे कुपित होकर मैंने उसे मारने के लिए वज्र फैका । इसके बाद मुझे इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ कि असुरेन्द्र असुरराज चमर स्वयं अपनी शक्ति से इतना ऊपर नहीं आ सकता है।" (इत्यादि कह कर शक्रेन्द्र ने पूर्वोक्त सारी बात कह सुनाई) । फिर शकेन्द्र ने कहा कि-हे भगवन् ! फिर अवधिज्ञान के द्वारा मैंने आपको देखा । आपको देखते ही मेरे मुख से ये शब्द निकल पडे कि-"हा ! हा !! मैं मारा गया"-"ऐसा विचार कर उत्कृष्ट दिव्य देवगति द्वारा जहां आप देवानुप्रिय बिराजते हैं, वहां आया और आप से चार अंगुल दूर रहे हुए वज्र को पकड़ लिया। वज्र को लेने के लिए में यहाँ आया हूँ, समवसृत हुआ हूँ, सम्प्राप्त हुआ हूँ, उपसम्पन्न होकर विचरण कर रहा हूँ। हे भगवन् ! मैं अपने अपराध के लिए क्षमा मांगता हूँ। आप क्षमा करें। आप क्षमा करने के योग्य हैं। मैं ऐसा अपराध फिर नहीं करूँगा।" ऐसा कह कर मुझे वन्दना नमस्कार करके शकेन्द्र उत्तरपूर्व के दिग्विभाग (ईशानकोण) में चला गया। वहां जाकर शकेन्द्र ने अपने बाँए पैर से तीन बार भूमि को पीटा। फिर उसने असुरेन्द्र असुरराज चमर को इस प्रकार कहा-“हे असुरेन्द्र असुरराज चमर ! तू आज श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के प्रभाव से बच गया है । अब तुझे मेरे से जरा भी भय नहीं है।" ऐसा कह कर वह शक्रेन्द्र जिस दिशा से आया था, उसी दिशा में वापिस चला गया। विवेचन-आक्रोश प्रकट करके चमरेन्द्र, शक्रेन्द्र को अपनी शोभा से भ्रष्ट करने के लिए ऊपर सौधर्म देवलोक में गया। वहाँ शक्रेन्द्र ने उस पर अपना वज्र छोड़ा। चमरेन्द्र तीव्र गति से दौड़ कर नीचे आया और भगवान् के चरणों के बीच में छिप गया। अपने वज्र को लेने के लिए शकेन्द्र वहाँ आया । वहाँ आकर भगवान् को वन्दना नमस्कार करके For Personal & Private Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र – श. ३ उ. २ फेंकी हुई वस्तु को पकड़ने की देव शक्ति तथा अपने अपराध की क्षमा याचना करके एवं चमरेन्द्र को अपनी तरफ से अभय देकर वापिस अपने स्थान पर चला गया । फैकी हुई वस्तु को पकड़ने की देव-शक्ति २२ प्रश्न - 'भंते !' त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी - देवे णं भंते ! महिड्ढीए, जाव - महाणुभागे पुव्वामेव पोग्गलं खिवित्ता पभू तमेव अणुपरियट्टित्ता णं गेव्हित्तए ? २२ उत्तर - हंता, पभू । २३ प्रश्न - सेकेणट्टेणं जाव - गिण्हित्तए ? २३ उत्तर - गोयमा ! पोग्गले णं खित्ते समाणे पुव्वामेव सिग्घगई भविता तओ पच्छा मंदगइ भवह, देवे णं. महिsढीए पुव्विं पिय, पच्छा विसीहे सीहगई चेव, तुरिए तुरियगई चेव, से तेणणं जाव - पभू गेण्हित्तए । २४ प्रश्न - जड़ णं भंते! देवे महिड्ढीए, जाव - अणुपरियट्टित्ता णं हित्तए, कम्हा णं भंते! सक्केणं देविंदेण देवरण्णा, चमरे असुरिंदे असुरराया णो संचाइए साहत्थिं गेण्हित्तए ? २४ उत्तर - गोयमा ! असुरकुमाराणं देवाणं अहे गइ विसए . ६३७ For Personal & Private Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३८ भगवती सूत्र-ग. ३ उ. २ फैकी हुई वस्तु को पकड़ने की देवशक्ति सीहे सीहे चेव तुरिए तुरिए चेव; उड्ढे गइविसए अप्पे अप्पे चेव, मंदे मंदे चेव, वेमाणियाणं देवाणं उड्ढे गइविसए सीहे सीहे चेव, तुरिए तुरिए चेव, अहे गइविसए अप्पे अप्पे चेव, मंदे मंदे चेव, जावइयं खेत्तं सक्के देविंद देवराया उड्ढं उप्पयइ एक्केणं समएणं, तं वजे दोहिं, जं वजे दोहिं, तं चमरे तिहिं । सव्वत्थोवे सकस्स देविंदस्स देवरण्णो उड्ढलोयकंडए, अहेलोयकंडए संखेजगुणे । जावइयं खेत्तं चमरे असुरिंदे असुरराया अहे उवयइ एक्केणं समएणं, तं सक्के दोहिं, जं सक्के दोहिं तं वजे तीहिं । सव्वत्थोवे चमरस्स असुरिंदस्स, असुररण्णो अहेलोयकंडए, उड्ढलोयकंडए संखेजगुणे, एवं खलु गोयमा ! सक्केणं देविंदेणं देवरण्णा, चमरे असुरिंदे असुरराया णो संचाइए साहत्थिं गेण्हित्तए। ____ कठिन शब्दार्थ-खिवित्ता-फैक कर, अणुपरियट्टित्ता-पीछे जाकर, खिते समाणे-फेंकते समय, साहत्थि-अपने हाथ से, पुवामेव सिग्घगई भवित्ता-पहले शीघ्र गति होती है, सोहे-शीघ्र, तुरिए-त्वरित, णो संचाइए-समर्थ नहीं हुए, जावइयंजितने, सव्वत्थोवे-सब से थोड़े, उड्ढलोयकंडए-उर्द्धलोक कंडक-ऊँचा जाने का समय मान । . भावार्थ-२२ प्रश्न-'हे भगवन् !' ऐसा कह कर भगवान् गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वन्दना नमस्कार किया और इस प्रकार कहा-'हे भगवन् ! देव महा ऋद्धि वाला है, महा कान्तिवाला यावत् महाप्रभाव वाला है, तो क्या वह किसी पुद्गल को पहले फेंक कर फिर उसके पीछे जाकर उसको पकड़ने में समर्थ हैं ?' २२ उत्तर-हाँ, गौतम ! पकड़ने में समर्थ है। For Personal & Private Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ३ उ २ फैंकी हुई वस्तु को पकड़ने की देव शक्ति ६३९ २३ प्रश्न - हे भगवन् ! देव, पहले फेंके हुए पुद्गल को उसके पीछे जा कर ग्रहण कर सकता है, इसका क्या कारण है ? २३ उत्तर - हे गौतम! जब पुद्गल फेंका जाता है. तब पहले उसकी गति शीघ्र होती है और पीछे उसकी गति मन्द हो जाती है। महा ऋद्धिवाला देव पहले भी और पीछे भी शीघ्र और शीघ्र गति वाला होता है, त्वरित और त्वरित गति वाला होता है । इसलिए देव फेंके हुए पुद्गल के पीछे जाकर उसे पकड़ सकता है। २४ प्रश्न - हे भगवन् ! महा ऋद्धिवाला देव यावत् पीछे जाकर पुद्गल को पकड़ सकता है, तो देवेन्द्र देवराज शत्र, अपने हाथ से असुरेन्द्र असुरराज चमर को क्यों नहीं पकड़ सका ? २४ उत्तरर हे गौतम! असुरकुमार देवों का नीचे जाने का विषय शीघ्र, शीघ्र, तथा त्वरित त्वरित होता है । ऊँचे जाने का विषय अल्प, अल्प तथा मंद, मंद होता है । वैमानिक देवों का ऊँचा जाने का विषय शीघ्र, शीघ्र तथा त्वरित, त्वरित होता है और नीचे जाने का विषय अल्प, अल्प तथा मन्द मन्द होता है । एक समय में देवेन्द्र देवराज शक जितना क्षेत्र ऊपर जा सकता हैं, उतना क्षेत्र ऊपर जाने में वज्र को दो समय लगते हैं और उतना ही क्षेत्र ऊपर जाने में चमरेन्द्र की तीन समय लगते हैं । अर्थात् देवेन्द्र देवराज शक्र का ऊर्ध्वलोक कण्डक ( ऊंचा जाने का काल मान) सब से थोड़ा है और अधोलोक ausa (नीचे जाने का काल मान) उसकी अपेक्षा संख्येय गुणा है । एक समय में असुरेन्द्र असुरराज चमर, जितना क्षेत्र नीचा जा सकता है, उतना क्षेत्र नीचा जाने में शन्द्र को दो समय लगते हैं और उतना ही क्षेत्र नीचा जाने में वज्र को तीन समय लगते हैं अर्थात् असुरेन्द्र असुरराज चमर का अधोलोक कण्डक ( नीचा जाने का काल मान) सब से थोड़ा है और ऊर्ध्वलोक कण्डक ( ऊंचा जाने का काल मान) उससे संख्येय गुणा है । हे गौतम ! इस कारण से देवेन्द्र . देवराज शऋ, अपने हाथ से असुरेन्द्र असुरराज चमर को पकड़ने में समर्थ नहीं हो सका । For Personal & Private Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४० भगवती सूत्र-श. ३ उ. २ इन्द्र की ऊर्ध्वादि गति इन्द्र की ऊर्ध्वादि गति २५ प्रश्न-सक्कस्स णं भंते ! देविंदस्स देवरण्णो उड्डं, अहे, तिरियं च गइविसयस्स कयरे कयरोहितो अप्पे वा, बहुए वा, तुल्ले वा, विसेसाहिए वा ? २५ उत्तर-गोयमा ! सव्वत्थोवं खेत्तं सक्के देविंदे देवराया अहे उवयइ एक्केणं समएणं, तिरियं संखेजे भागे गच्छद, उड्ढे संखेजे भागे गच्छद। २६ प्रश्न-चमरस्स णं भंते ! असुरिंदस्स, असुररण्णो उड्ढे, अहे तिरियं च गइविसयस्स कयरे कयरोहितो अप्पे वा, बहुए वा, तुल्ले वा, विसेसाहिए वा ? ____२६ उत्तर-गोयमा ! सव्वत्थोवं खेत्तं चमरे असुरिंदे, असुरराया उड्ढे उप्पयइ एक्केणं समएणं, तिरियं संखेजे भागे गच्छइ, अहे संखेजे भागे गच्छइ । ___-चजं जहा सक्कस्स तहेव, नवरं-विसेसाहियं कायव्वं । कठिन शब्दार्थ-अप्पे-अल्प, बहुए-बहुत, तुल्ले-तुल्य-बराबर, विसेसाहिए-विशेषाधिक, उप्पयइ-जाता है। भावार्थ-२५ प्रश्न- हे भगवन् ! देवेन्द्र देवराज शक्र का ऊर्ध्वगति विषय, अधोगति विषय और तिर्यग्गति विषय, इन सब में कौनसा विषय किस विषय से अल्प हैं, बहुत है, तुल्य (समान) है और विशेषाधिक है ? For Personal & Private Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ३ उ. २ इन्द्र की ऊर्ध्वादि गति २५ उत्तर - हे गौतम! एक समय में देवेन्द्र देवराज शत्र, सब से कम क्षेत्र नीचे जाता है, उससे तिच्र्च्छा संख्येय भाग जाता है और उससे संख्येय भाग ऊपर जाता है । २६ प्रश्न - हे भगवन् ! असुरेन्द्र असुरराज चमर का ऊर्ध्व गति विषय, अधोगति विषय और तिर्यग्गति विषय, इन सब में कौनसा विषय, किस विषय से अल्प, बहुत, तुल्य और विशेषाधिक है ? ६४१ २६ उत्तर - हे गौतम ! असुरेन्द्र असुरराज चमर एक समय में जितना भाग (क्षेत्र) ऊपर जाता है, उससे तिच्र्च्छा संख्येय भाग जाता है और उससे नीचे संख्येय भाग जाता है । वज्र सम्बन्धी गति का विषय शक्रेन्द्र की तरह जानना चाहिए, किन्तु इतनी विशेषता है कि गति का विषय विशेषाधिक कहना चाहिए । २७ प्रश्न - सकस्स णं भंते! देविंदस्स देवरण्णो उवयणकालस्स य, उप्पयणकालस्स य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा, बहुआ वा, तुल्ला वा, विसेसाहिया वा ? २७ उत्तर - गोयमा ! सव्वत्थोवे सकस्स देविंदस्स देवरपणे उड्टं उप्पयणकाले, उवयणकाले संखेज्जगुणे । - चमरस्स वि जहा सकस्स, णवरं सव्वत्थोवे उवयणकाले, उप्पयणकाले संखेज्जगुणे । २८ प्रश्न - वज्जस्स पुच्छा ? २८ उत्तर - गोयमा ! सव्वत्थोवे उप्पयणकाले, उवयणकाले विसेसाहिए । For Personal & Private Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श ३ उ. २ इन्द्र की ऊर्ध्वादि गति २९ प्रश्न - एयस्स णं भंते! वज्जस्स, वज्जाहिवइस्स, चमरस्स य, असुरिंदरस असुररण्णो उवयणकालस्स य, उप्पयणकालस्स य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा, बहुआ वा, तुल्ला वा, विसेसाहिया वा ? २९ उत्तर - गोयमा ! सक्क्स्स य उप्पयणकाले, चमरस्स य उवयणकाले, एए णं दोणि वि तुल्ला सव्वत्थोवा, सकस्स य उव यणकाले, वज्जरस य उप्पयणकाले एस णं दोण्ह वि तुल्ले संखेज्ज - गुणे, चमरस्य उपयणकाले, वज्जस्स य उवयणकाले एस णं दोन्ह वितुल्ले विसेसाहिए । ६४२ कठिन शब्दार्थ - उवयणकाले – अवपतनकाल - नीचे जाने का समय, उप्पयणकाले- उत्पतनकाल - ऊपर जाने का समय । भावार्थ - २७ प्रश्न - हे भगवन् ! देवेन्द्र देवराज शक्र का नीचे जाने का काल और ऊपर जाने का काल इन दोनों कालों में से कौन सा काल, किस . काल से अल्प है, बहुत है, तुल्य है या विशेषाधिक है ? २७ उत्तर - हे गौतम ! देवेन्द्र देवराज शक्र का ऊपर जाने का काल सब से थोड़ा हे और नीचे जाने का काल संख्येघ गुणा है । चमरेन्द्र का कथन भी शक्रेन्द्र के समान ही जानना चाहिए, किन्तु इतनी विशेषता है कि चमरेन्द्र का नीचे जाने का काल सब से थोड़ा है और ऊपर जाने का काल संख्येय गुणा 1 २८ प्रश्न - हे भगवन् ! वज्र का नीचे जाने का काल और ऊपर जाने काल, इन दोनों कालों में से कौनसा काल अल्प यावत् विशेषाधिक है ? २८ उत्तर - हे गौतम ! वज्र का ऊपर जाने का काल सब से थोड़ा है, नीचे जाने का काल उससे विशेषाधिक है । For Personal & Private Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ३ उ. २ इन्द्र की ऊर्ध्वादि गति ६४३ २९ प्रश्न-हे भगवन् ! वज्र, वज्राधिपति (शकेन्द्र) और चमरेन्द्र, इन सब का नीचे जाने का काल और ऊपर जाने का काल, इन दोनों कालों में से कौनसा काल किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक है ? २९ उत्तर-हे गौतम ! शकेन्द्र का ऊपर जाने का काल और चमरेन्द्र का नीचे जाने का काल, ये दोनों तुल्य हैं और सब से थोडे हैं । शक्रेन्द्र का नीचे जाने का काल और वज्र का ऊपर जाने का काल, ये दोनों काल तुल्य हैं और संख्येय गुणा हैं । चमरेन्द्र का ऊपर जाने का काल और वज्र का नीचे जाने का काल, ये दोनों काल परस्पर तुल्य हैं और विशेषाधिक हैं। विवेचन- यहाँ यह देखा जाता है कि कोई पुरुष पत्थर या गेंद आदि को फेंक कर जाते हुए उसको पीछे जाकर नहीं पकड़ सकता है, तो क्या देवों में भी यही बात है ? अथवा फेंके हुए पदार्थ के पीछे जाकर देव उसको पकड़ सकते हैं ? शकेन्द्र ने अपने फेंके हुए वज्र को उसके पीछ. जाकर पकड़ लिया, तो वह चमरेन्द्र को क्यों नहीं पकड़ सका ? इत्यादि शंकाओं से प्रेरित होकर ये प्रश्नोत्तर किये गये हैं ? शकेन्द्र को ऊँचा जाने में सब से थोड़ा काल लगता है. क्योंकि ऊँचा जाने में उसकी गति अति शीघ्र होती है । 'ऊर्ध्वलोक कण्डक' शब्द का अर्थ यह है-ऊर्ध्वलोक अर्थात् ऊपर का क्षेत्र । कण्डक का अर्थ है-काल-विभाग । शकेन्द्र का अधोलोक कण्डक संख्यात गुणा है अर्थात् ऊर्ध्वलोक कण्डक की अपेक्षा अधोलोक कण्डक दुगुना है, क्योंकि नीचे के क्षेत्र में जाने में शकेन्द्र की गति मन्द होती है । शकेन्द्र का ऊपर जाने का काल और चमरेन्द्र का नीचे जाने का काल बराबर है। चमरेन्द्र एक समय में जितना क्षेत्र नीचे जाता है, उतना नीचा क्षेत्र जाने में शक्रेन्द्र को दो समय लगते हैं । शकेन्द्र एक समय में सब से थोड़ा क्षेत्र नीचे जाता है, क्योंकि नीचे जाने में उसकी गति मन्द होती है । कल्पना कीजिये-शकेन्द्र एक समय में एक योजन नीचे जाता है, डेढ़ योजन तिर्छा जाता है, और ऊपर दो योजन जाता है। शंका-सूत्र में तो सिर्फ संख्यात भाग लिखा है, परन्तु कोई नियमित भाग नहीं बतलाया गया है, तो यहां नियमितता किस प्रकार बतलाई गई है। समाधान-"चमरेन्द्र" एक समय में जितना क्षेत्र नीचे जाता है, उतना ही क्षेत्र नीचे जाने में शकेन्द्र को दो समय लगते हैं। तथा शक्रेन्द्र का ऊपर जाने का काल और चमरेन्द्र For Personal & Private Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४४ भगवती सूत्र-श. ३ उ. २ इन्द्र की ऊर्ध्वादि गति का नीचे जाने का काल बराबर है," इस कथन से यह निश्चित होता है कि शक्रेन्द्र जितना नीचा क्षेत्र दो समय में जाता है, उतना ही क्षेत्र ऊंचा एक समय में जाता है अर्थात् नीचे के क्षेत्र की अपेक्षा ऊपर का क्षेत्र दुगुना है । तिर्छा क्षेत्र, ऊर्ध्व क्षेत्र और अधःक्षेत्र के बीच में हैं, इसलिए उसका परिमाण भी बीच का होना चाहिए । इसलिए तिर्छ क्षेत्र का परिमाण डेढ़ योजन निश्चित किया गया है । चूर्णिकार ने भी यही बात कही है;- . ___ "एगणं समएणं उवयइ अहे णं जोयणं, एगेणेव समएणं तिरियं दिवढं गच्छइ, उड्ढं दो जोयणाणि सक्को।" । अर्थ-शकेन्द्र एक समय में नीचे एक योजन जाता है, तिर्छा डेढ़ योजन जाता है, और ऊपर दो योजन जाता है। चमरेन्द्र एक समय में सब से थोड़ा क्षेत्र ऊपर जाता है, क्योंकि ऊपर जाने में उसकी गति मन्द होती है । कल्पना कीजिये-एक समय में वह त्रिभाग न्यन तीन गाऊ (कोस) ऊपर जाता है । तिी उसकी गति शीघ्रतर होती है, इसलिए एक समय में वह तिर्छा त्रिभागद्वयन्यून छह गाऊ होती है । और एक समय में नीचे आठ कोस की (दो योजन) होती है। शंका-सूत्र में तो सिर्फ संख्यात भाग लिखा, परन्तु कोई नियमित परिमाण नहीं बतलाया गया है, तो यहाँ जो क्षेत्र की परिमितता बतलाई गई है, वह कैसे ? समाधान-शकेन्द्र की ऊर्ध्वगति और चमरेन्द्र की अधोगति बराबर (तुल्य) बतलाई गई है। शकेन्द्र एक समय में ऊपर दो योजन जाता है, तो चमरेन्द्र का अधोगमन एक समय में दो योजन बतलाना उचित ही है । तथा शक्रेन्द्र एक समय में जितना क्षेत्र ऊपर जाता है, उतना क्षेत्र ऊपर जाने में वज्र को दो समय और चमरेन्द्र को तीन समय लगते हैं । इस कथन से यह जाना जा सकता है कि शक्रेन्द्र का जितना ऊर्ध्वगति क्षेत्र है, उसका त्रिभाग जितना ऊर्ध्वगति क्षेत्र चमरेन्द्र का है । इसीलिए विभाग न्यून तीन गाऊ यह नियत ऊर्ध्वगति क्षेत्र बतलाया गया है। ऊर्ध्वक्षेत्र और अधःक्षेत्र के बीच का तिर्यग्क्षेत्र है, इसलिए उसका प्रमाण त्रिभाग द्वय न्यून छह गाऊ बतलाया गया है । और अधोगति क्षेत्र दो योजन बतलाया गया है। वज्र, एक समय में नीचे सब से थोड़ा क्षेत्र जाता है, क्योंकि नीचे जाने में उसकी मन्द शक्ति है (कल्पनानुसार-वज्र का अधोगमन क्षेत्र, त्रिभाग न्यून योजन होता है । वह वज तिर्छा विशेषाधिक दो भाग जाता है, क्योंकि तिर्छा जाने में उसकी गति शीघ्रतर For Personal & Private Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - ३ उ. २ चमरेन्द्र की चिन्ता और वीर वन्दन होती है । विशेषाधिक दो भाग का मतलब है-योजन के विशेषाधिक दो विभाग अर्थात् त्रिभाग सहित तीन गाऊ । वह वज्र ऊंचा भी विशेषाधिक दो भाग जाता है । यहाँ विशेषाधिक दो भाग का मतलब यह है कि तिच्र्च्छा क्षेत्र में कहे हुए दो भाग से कुछ विशेषाधिक समझना चाहिये । वज्र, एक समय में ऊंना एक योजन जाता है, क्योंकि ऊंचा जाने में वज्र की शीघ्रतम गति होती है । ६४५ शंका -- मूलसूत्र में तो सामान्य रूप से विशेषाधिकता कही गई है, तो यहाँ नियमितता वाली विशेषाधिकता किस प्रकार कही गई है ? समाधान - एक समय में चमरेन्द्र जितना नीचे जाता है, उतना ही नीचा जाने में शकेन्द्र को दो समय लगते हैं और वज्र को तीन समय लगते हैं । इस कथन से शक्रेन्द्र की अधोगति की अपेक्षा वज्र की अधोगति त्रिभाग न्यून हैं । इसलिए वज्र की अधोगति त्रिभाग न्यून योजन कही गई है । शकेन्द्र का अधोगमन का समय और वज्र का ऊर्ध्वगमन का समय, ये दोनों तुल्य बतलाये गये हैं । इस कथन से जाना जाता है कि- एक समय में शकेन्द्र जितना नीचे जाता है, उतना क्षेत्र, वज्र एक समय में ऊपर जाता है । शक्रेन्द्र एक समय में नीचे एक योजन जाता है और वज्र एक समय में ऊपर एक योजन जाता है, इसलिए वज्र की ऊर्ध्वगति एक योजन कही गई है । ऊर्ध्वगति और अधोगति के बीच में तिर्यग् गति है, इसलिए उसका परिमाण बीच का होना चाहिए. इसलिए उसका परिमाण विभाग सहित तीन गाऊ बतलाया गया है । यह गतिविषयक क्षेत्र की अल्पवहुत्त्र कही गई है । इसके बाद गति के काल विपयक अल्पबहुत्व कही गई है । जो भावार्थ में बतला दी गई है । चमरेन्द्र की चिन्ता और वीर वन्दन तरणं से चमरे असुरिंदे असुरराया वज्जभयविप्पमुक्के, सक्केणं देविंदेणं देवरण्णा महया अवमाणेणं अवमाणिए समाणे चमरचंचाए रायहाणीए सभाए सुहम्माए चमरंसि सीहासणंसि For Personal & Private Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४६ भगवती सूत्र - श ३ उ. २ चमरेन्द्र की चिन्ता और वीर वन्दन ओहयमणसंकपे चिंतासोगसागरसंपविडे, करयल पल्हत्थमुहे अट्टज्झाणो गए भूमिगयाए दिट्ठीए झियाइ, तरणं चमरं असुरिंद असुररायं सामाणियपरिसोववण्णया देवा ओहयमणसंकल्पं जावझियायमाणं पासंति, पासित्ता करयल - जाव एवं वयासी - किं णं देवाणुप्रिया ! ओहयमण संकप्पा जाव - झियायह ? तरणं से चमरे असुरिंदे असुरराया ते सामाणियपरिसोववण्णा देवे एवं वयासीएवं खलु देवाणुप्पिया ! मए समणं भगवं महावीरं णीसाए सक्के देविंदे देवराया संयमेव अचासाइए, तओ तेणं परिकुविएणं समा णं ममं वहाए वज्जे णिसिट्टे । तं भदं णं भवतु देवाणुप्पिया ! समणस्स भगवओ महावीरस्स, जस्स म्हि पभावेणं अकिंट्टे, अव्वहिए, अपरिताविए, इहमागए, इह समोसढे; इह संपत्ते, इहेव अज्ज उवसंपज्जित्ता णं विहरामि । कठिन शब्दार्थ - वज्जनयविप्प मुक्के - वज्र के भय से मुक्त होकर, अवमाणेणंअपमान से, ओहयमणसं कप्पे अपहृतमनः संकल्प अर्थात् जिसके मन का संकल्प नष्ट हो गया है, चितासोगसागरसंपविट्ठे - चिंता और शोक रूपी सागर में डुबा हुआ, करयलपल्हत्य मुहे - मुख को हथेली पर रख कर, अट्टज्झाणो गए - आर्त्तध्यान को प्राप्त, भूमिगया दिट्ठी - पृथ्वी की ओर नीची दृष्टि किये, अव्वहिए - बिना व्यथा के - अव्यथित, अकिट्ठे - क्लेश पाये बिना, अपरिताविए - बिना संताप के । भावार्थ - इसके बाद वज्ज्र के भय से मुक्त बना हुआ, देवेद्र देवराज श द्वारा महान् अपमान से अपमानित बना हुआ, नष्ट मानसिक संकल्प वाला, चिन्ता और शोक समुद्र में प्रविष्ट, मुख को हथेली पर रखा हुआ, दृष्टि को नीची झुका For Personal & Private Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ३ उ. २ चमरेन्द्र की चिन्ता और वीर वन्दन ६४७ कर आर्तध्यान करता हुआ असुरेन्द्र असुरराज चमर, चमरचञ्चा नामक राजधानी में, सुधर्मा सभा में, चमर नामक सिंहासन पर बैठ कर विचार करता है। इसके बाद नष्ट मानसिक संकल्प वाले यावत् विचार में पड़े हुए असुरेन्द्र असुरराज चमर को देख कर सामानिक सभा में उत्पन्न हुए देवों ने हाथ जोड़ कर इस प्रकार कहा कि-'हे देवानुप्रिय ! आज आप इस तरह आर्तध्यान करते हुए क्या विचार करते हैं ?' तब असुरेन्द्र असुरराज चमर ने उन सामानिक सभा में उत्पन्न हुए देवों से इस प्रकार कहा कि-'हे देवानुप्रियों ! मैंने अपने आप अकेले ही श्रमण भगवान महावीर स्वामी का आश्रय लेकर, देवेन्द्र देवराज शक को उसकी शोभा से भ्रष्ट करने का विचार किया था। तदनुसार मै सुधर्मा सभा में गया था । तब शकेन्द्र ने अत्यन्त कुपित होकर मुझे मारने के लिए मेरे पीछे वज्र फेंका। परन्तु हे देवानुप्रियों ! श्रमण भगवान महावीर स्वामी का भला हो कि जिनके प्रभाव से में अक्लिष्ट रहा हूँ, अव्यथित (व्यथा-पीड़ा रहित) रहा हूँ तथा परिताप पाये बिना यहां आया हूँ, यहाँ समवसत हुआ हूँ, यहाँ सम्प्राप्त हुआ हूँ, यहाँ उपसम्पन्न होकर विचरता हूँ। तं गच्छामो णं देवाणुप्पिया ! समणं भगवं महावीरं वंदामो, णमंसामो जाव-पज्जुवासामो ति कटु चउसट्ठीए सामाणियसाहस्सीहिं, जाव सब्विड्ढीए, जाव-जेणेव असोगवरपायवे, जेणेव ममं अंतिम तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता ममं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं जाव-णमंसित्ता एवं वयासी-एवं खलु भंते ! मए तुम्भं णीसाए सक्के देविंद देवराया सयमेव अच्चासाइए, जाव-तं भदं णं भवतु देवाणुप्पियाणं जस्स म्हि पभावेणं अकिटे जाव विहरामि, तं खामेमि णं देवाणुप्पिया ! जाव उत्तरपुरथिमं दिसीभागं For Personal & Private Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४८ भगवती सूत्र - श. ३ उ. २ असुरकुमारों का सौधर्मकल्प में जाने का दूसरा कारण अवक्कमइ, जाव - बतीसइबध णट्टविहिं उवदंसेइ, जामेव दिसिं पाउए, तामेव दिसिं पडिगए । एवं खलु गोयमा ! चमरेणं असुरिंदेणं असुररण्णा सा दिव्वा देविडूढी लढा, पत्ता, जाव - अभिसमण्णागपा, ठिई सागरोवमं, महाविदेहे वासे सिज्झिहिड, जावअंतं काहि । भावार्थ- हे देवानुप्रियों! अपन सब चलें और श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वन्दना नमस्कार करें यावत् उनकी पर्युपासना करें। ( भगवान् महावीर स्वामी फरमाते हैं कि हे गौतम ! ) ऐसा कह कर वह चमरेन्द्र चौसठ हजार सामानिक देवों के साथ यावत् सर्व ऋद्धि पूर्वक, यावत् उस उत्तम अशोक वृक्ष के नीचे, जहाँ में था वहाँ आया । मुझे तीन बार प्रदक्षिणा करके यावत् वन्दना नमस्कार करके इस प्रकार बोला- “हे भगवन् ! आपका आश्रय लेकर में स्वयं अपने आप अकेला ही देवेन्द्र देवराज शत्र को उसकी शोभा से भ्रष्ट करने के लिये सौधर्मकल्प में गया था, यावत् आप देवानुप्रिय का भला हो कि जिनके प्रभाव से में क्लेश पाये बिना यावत् विचरता हूँ । हे देवानुप्रिय ! मैं उसके लिए "आप से क्षमा मांगता हूँ," यावत् ऐसा कह कर वह ईशानकोण में चला गया, यावत् उसने बत्तीस प्रकार की नाटक विधि बतलाई । फिर वह जिस दिशा से आया था, उसी दिशा में चला गया । हे गौतम ! उस असुरेन्द्र असुरराज चमर को वह दिव्य देवऋद्धि, दिव्य देवकान्ति और दिव्य देवप्रभाव इस प्रकार मिला है, प्राप्त हुआ है, सम्मुख आया है । चमरेन्द्र की स्थिति एक सागरोपम की है । वहाँ से चव कर महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्ध होगा, यावत् सब दुःखों का अन्त करेगा । असुरकुमारों का सौधर्मकल्प में जाने का दूसरा कारण ३० प्रश्न - किंपत्तियं णं भंते! असुरकुमारा देवा उड्ढं उपयंति, For Personal & Private Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ३ उ. २ असुरकुमारों का सौधर्मकला में जाने का दूसरा कारण ६४९ जाव-सोहम्मो कप्पो ? ३० उत्तर-गोयमा ! तेसि णं देवाणं अहुणोववण्णाण वा चरिमभवत्थाण वा इमेयारूवे अज्झथिए, जाव-समुप्पजइ-अहो ! णं अम्हेहिं दिव्वा देविड्ढी लद्धा, पत्ता जाव-अभिसमण्णागया, जारिसिया णं अम्हेहिं दिव्वा देविड्ढी जाव-अभिसमण्णागया, तारिसिया णं सक्केणं देविदेण देवरण्णा दिव्या देविड्ढी जाव-अभिसमण्णागया। जारिसिया णं सक्केणं देविदेण देवरण्णा जावअभिसमण्णागया, तारिसिया णं अम्हेहि वि जाव-अभिसमण्णागया। तं गच्छामो णं सकस्स देविंदस्स, देवरण्णो अंतियं पाउब्भवामो, पासामो ताव सकस्स देविंदस्स देवरण्णो दिव्वं देविइिंढ जाव-अभिसमण्णागयं, पासउ ताव अम्हे वि सक्के देविंदे देवराया दिव्वं देविइिंढ जाव अभिसमण्णागयं, तं जाणामो ताव सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो दिव्यं देविइिंढ जाव-अभिसमण्णागयं, जाणउ ताव अम्हे वि सक्के देविंदे, देवराया दिव्वं देविइिंढ जाव-अभिसमण्णागयं । एवं खलु गोयमा ! असुरकुमारा देवा उड्ढं उप्पयंति, जाव-सोहम्मो कप्पो। .. -सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति । ॥ चमरो सम्मत्तो॥ For Personal & Private Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५० भगवती सूत्र - श. ३ उ २ असुरकुमारों का सौधर्मकल्प में जाने का दूसरा कारण कठिन शब्दार्थ - अहुणो ववण्णाण- - तत्काल उत्पन्न हुए, चरिमभवत्थाण --भव का अंत होते समय, पासउ -- देखें, जाणउ - - जानें | भावार्थ - ३० प्रश्न - - हे भगवन् ! असुरकुमार देव यावत् सौधर्मकल्प तक ऊपर जाते हैं, इसका क्या कारण है ? ३० उत्तर - हे गौतम ! अधुनोत्पन्न अर्थात् तत्काल उत्पन्न हुए तथा चरम भवस्थ अर्थात् च्यवन की तैयारी वाले देवों को इस प्रकार का आध्यात्मिक यावत् संकल्प उत्पन्न होता है कि अहो ! हमें यह दिव्य देवऋद्धि यावत् मिली है, प्राप्त हुई है, सम्मुख आई है। जैसी दिव्य देवऋद्धि यावत् हमें मिली है, यावत् सम्मुख आई है, वैसी ही दिव्य देवऋद्धि यावत् देवेन्द्र देवराज शक को मिली है, यावत् सम्मुख आई है, और जंसी दिव्य देवऋद्धि देवेन्द्र देवराज शक को मिली है यावत् सम्मुख आई है, वैसी ही दिव्य देवऋद्धि यावत् हमें भी मिली है यावत् सम्मुख आई है । तो हम जावें और देवेन्द्र देवराज शत्र के सामने प्रकट होवें और देवेन्द्र देवराज शक्र द्वारा प्राप्त उस दिव्य देवऋद्धि को हम देखें तथा देवेन्द्र देवराज शक्र भी हमारे द्वारा प्राप्त दिव्य देवऋद्धि को देखें । देवेन्द्र देवराज शत्र द्वारा प्राप्त दिव्य देवऋद्धि को हम जानें तथा हमारे द्वारा प्राप्त दिव्य देवऋद्धि को देवेन्द्र देवराज शत्र जाने । इस कारण से है गौतम ! असुरकुमार देव यावत् सौधर्मकल्प तक ऊपर जाते हैं । सेवं भंते ! सेवं भंते !! अर्थात् हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । है भगवन् ! यह इसी प्रकार है । चमरेन्द्र सम्बन्धी वृत्तान्त सम्पूर्ण हुआ । विवेचन - पहले के प्रकरण में यह बतलाया गया था कि भवप्रत्यय वैरानुबन्ध अर्थात् भव सम्बन्धी वैर के कारण असुरकुमार देव सौधर्मकल्प तक जाते हैं। इस प्रकरण में उनके सौधर्मकल्प तक जाने का दूसरा कारण बतलाया गया है । वह यह है कि असुरकुमार देव शकेन्द्र की दिव्य देवऋद्धि को देखने और जानने के लिए तथा अपनी दिव्य देवऋद्धि शन्द्र को दिखलाने और बतलाने के लिए ऊपर सौधर्म कल्प तक जाते हैं । ॥ इति तृतीय शतक का द्वितीय उद्देशक समाप्त ॥ For Personal & Private Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श ३ उ. ३ कायिकी आदि पाँच क्रिया शतक ३ – उद्देशक - ३ कायिको आदि पांच क्रिया तेणं कालेणं तेणं समरणं रायगिहे णामं णयरे होत्था । जाव - परिसा पडिगया । तेणं कालेणं तेणं समएणं जाव - अंतेवासी मंडियपुत्ते णामं अणगारे पगड़भद्दए जाव - पज्जुवासमाणे एवं वयासी १ प्रश्न - क णं भंते! किरियाओ पण्णत्ताओ ? १ उत्तर - मंडियपुत्ता ! पंच किरियाओ पण्णत्ताओ । तं जहाकाइया, अहिगरणिया, पाओसिया, पारिआवणिया, पाणाइवायकिरिया । ६५१ २ प्रश्न - काइया णं भंते! किरिया कड़विहा पण्णत्ता ? २ उत्तर - मंडियपुत्ता ! दुविहा पण्णत्ता । तं जहा - अणुवरयकायकिरिया य, दुप्पउत्तकायकिरिया य । ३ प्रश्न - अहिगरणियाणं भंते! किरिया कड़विहा पण्णत्ता ? ३ उत्तर - मंडियपुत्ता ! दुविहा पण्णत्ता । तं जहा - संजोयणाहिगरणकिरिया य, वित्तणाहिगरणकिरिया य । ४ प्रश्न - पाओसिया णं भंते ! किरिया कड़विहा पण्णत्ता ? For Personal & Private Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ३ उ. ३ कायिकी आदि पाँच क्रिया ४ उत्तर - मंडियपुत्ता ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा - जीवपाओसिया य, अजीवपाओसिया य । ५ प्रश्न - पारियावणिया णं भंते! किरिया कइविहा पण्णत्ता ? ५ उत्तर - मंडियपुत्ता ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा - सहत्थपारियावणिया य, परहत्थपारियावणिया य । ६५२ ६ प्रश्न - पाणावायकिरिया णं भंते ! कहविहा पण्णत्ता ? ६ उत्तर - मंडियपुत्ता ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा - सहत्थपाणाइवायकिरिया य, परहत्थपाणाइवायकिरिया य । कठिन शब्दार्थ - काइया- कायिकी, अहिगरणिया-आधिकरणिकी, पाओसिआ-प्राषिकी, पारियावणिया – पारितापनिकी, पाणाइवाय किरिया -- प्राणातिपातिकी क्रिया, अणुवरयकायकिरिया -- अनुपरत - अविरत काय क्रिया, दुप्पउत्तकार्याकिरिया - दुष्प्रयुक्त काय क्रिया, संजोयणाहिगरणया - पृथक् रहे हुए अधिकरण के हिस्सों को जोड़ना, निवत्तणाहिगरणया-नये अधिकरण बनाना । भावार्थ - उस काल उस समय में राजगृह नामका नगर था, यावत् परिषद् धर्मकथा सुन कर वापिस चली गई । उस काल उस समय में भगवान् के अन्तेवासी मण्डितपुत्र नामक अनगार ( भगवान् के छठे गणधर ) प्रकृति भद्र अर्थात् भद्र स्वभाववाले थे, यावत् पर्युपासना करते हुए वे इस प्रकार बोले १ प्रश्न - हे भगवन् ! क्रियाएँ कितनी कही गई हैं ? १ उत्तर - हे मण्डितपुत्र ! क्रियाएँ पाँच कही गई हैं। वे इस प्रकार हैं— कायिकी, अधिकरणिकी, प्राद्वेषिकी, पारितापनिकी और प्राणातिपातिकी क्रिया | २ प्रश्न - हे भगवन् ! कायिकी क्रिया कितने प्रकार की कही गई है ? २ उत्तर - हे मण्डितपुत्र ! कायिकी क्रिया दो प्रकार की कही गई है । For Personal & Private Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ३ उ. ३ कायिकी आदि पांच क्रिया यथा-१ अनुपरत-काय क्रिया और २ दुष्प्रयुक्त-काय क्रिया। ३ प्रश्न-हे भगवन् ! आधिकरणिको क्रिया कितने प्रकार की कही गई ३ उत्तर-हे मण्डितपुत्र ! आधिकरणिकी क्रिया दो प्रकार की कही गई है । यथा-१ संयोजनाधिकरण क्रिया और २ निर्वर्तनाधिकरण क्रिया। ४ प्रश्न-हे भगवन् ! प्राद्वेषिकी क्रिया कितने प्रकार की कही गई है ? ४ उत्तर-हे मण्डितपुत्र ! प्राद्वेषिकी क्रिया दो प्रकार की कही गई है। यथा-१ जीव प्राद्वेषिकी क्रिया और २ अजीव प्राद्वेषिकी क्रिया। ५ प्रश्न-हे भगवन् ! पारितापनिकी क्रिया कितने प्रकार की कही गई है ? ५ उत्तर-हे मण्डितपुत्र ! पारितापनिकी क्रिया दो प्रकार की कही गई है। यथा-१ स्वहस्त पारितापनिकी और २ परहस्त पारितापनिकी। ६ प्रश्न-हे भगवन् ! प्राणातिपात क्रिया कितने प्रकार की कही गई है। ६ उत्तर-हे मण्डितपुत्र ! प्राणातिपात क्रिया दो प्रकार की कही गई है । यथा-१ स्वहस्त प्राणातिपात क्रिया और २ परहस्त प्राणातिपात क्रिया। विवेचन-दूसरे उद्देशक में चमर के उत्पात. के सम्बन्ध में कथन किया गया है। उत्पात. का अर्थ है-ऊपर जाना। यह एक प्रकार की क्रिया है। इस पर यह सहज शंका हो सकती है कि क्रिया किसे कहते हैं ? इस शंका के समाधान के लिए इस तीसरे उद्देशक के प्रारम्भ में ही क्रिया का स्वरूप बताया जाता है। कर्म बन्ध की कारण रूप चेष्टा को क्रिया कहते हैं । यहाँ क्रिया के पाँच भेद बतलाये गये हैं। यथा-कायिकी, आधिकरणिकी प्रादेषिकी, पारितापनिकी और प्राणातिपातिकी । जो चय रूप हो, संगृहीत हो उसे 'काय' (शरीर) कहते हैं। उस काया में होने वाली अथवा काया द्वारा होने वाली क्रिया को 'कायिकी क्रिया' कहते हैं । इसके दो भेद हैं-अनुपरत-काय क्रिया और दुष्प्रयुक्त-काय क्रिया । विरति (त्याग वृत्ति) रहिस प्राणी की जो शारीरिक क्रिया होती है, 'उसे अनुपरत-काय क्रिया' कहते हैं । यह क्रिया विरति रहित सब प्राणियों को लगती है । दुष्ट रीति से प्रयुक्त शरीर द्वारा होने वाली क्रिया को, अथवा दुष्ट मनुष्य की काया द्वारा होने वाली क्रिया को 'दुष्प्रयुक्त-काय क्रिया' कहते हैं । यह क्रिया प्रमत्त संयत तक होती है, For Personal & Private Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५४ भगवती सूत्र-श. ३ उ. ३ कायिकी आदि पांच क्रिया क्योंकि विरति वाले प्राणी के भी प्रमाद होने से उसकी काया दुष्प्रयुक्त हो जाती है । "जिस अनुष्ठान से अथवा बाह्य खड्गादि शस्त्र से आत्मा नरकादि दुर्गतियों का अधिकारी होता है, उसे 'अधिकरण' कहते हैं । उस अधिकरण द्वारा होने वाली क्रिया को 'आधिकरणिकी क्रिया' कहते हैं । इसके दो भेद हैं-संयोजनाधिकरण क्रिया और निर्वर्तनाधिकरण क्रिया । संयोजन का अर्थ है-जोड़ना । जैसे कि हल के अलग अलग विभागों को इकट्ठे करके हल तैयार करना, किसी पदार्थ में विष (जहर) मिला कर एक मिश्रित पदार्थ तैयार करना, तथा पक्षियों को और मृगों को पकड़ने लिए तैयार किये जाने वाले यन्त्र के अलग अलग भागों को जोड़कर एक यन्त्र तैयार करना । इन सब क्रियाओं का समावेश 'संयोजन' शब्द के अर्थ में होता है । इस प्रकार संयोजन रूप अधिकरण क्रिया को 'संयोजनाधिकरण क्रिया' कहते हैं। तलवार, भाला, बर्डी इत्यादि शस्त्रों को बनाने को 'निर्वतन' कहते हैं, उस निर्वर्तन रूप अधिकरण क्रिया को निर्वर्तनाधिकरण क्रिया' कहते हैं । प्राद्वेषिकी क्रिया-मत्सर भाव को प्रदेष कहते हैं। मत्सर रूप निमित्त को लेकर होने वा क्रिया अथवा मत्सर द्वारा होने वाली क्रिया अथवा मत्सर रूप क्रिया को 'प्राद्वेषिकी' क्रिया कहते हैं। इसके दो भेद हैं-'जीव प्राद्वेषिकी' क्रिया और 'अजीव प्राद्वेषिकी' क्रिया। अपने जीव पर तथा दूसरे जीव पर द्वेष करने से लगने वाली क्रिया को 'जीव प्राद्वेषिकी' क्रिया कहते हैं । अजीव पर द्वेष करने से लगने वाली क्रिया को 'अजीव प्राद्वेषिकी' क्रिया कहते हैं। पारितापनिकी क्रिया-परिताप अर्थात् पीड़ा पहुंचाने से लगने वाली क्रिया अथवा परिताप रूप क्रिया को 'पारितापमिकी' क्रिया कहते हैं । इसके दो भेद हैं-स्वहस्त पारितापनिकी और परहस्त पारितापनिकी । अपने हाथ से अपने जीव को, दूसरे के जीव को तथा दोनों को परिताप (दुःख की उदीरणा) पहुंचाने से लगने वाली क्रिया को 'स्वहस्त पारितापनिकी क्रिया' कहते हैं । इसी तरह परहस्तपारितापनिकी क्रिया भी समझनी चाहिए । प्राणातिपात क्रिया-श्रोत्रेन्द्रिय आदि पांच इन्द्रियां, मनोबल, वचन बल और कायाबल, ये तीन बल, श्वासोच्छ्वास बल-प्राण और आयुष्य बलप्राण, इन दस प्राणों को जीव से सर्वथा पृथक् कर देना 'प्राणातिपात' कहलाता है । प्राणातिपात से लगने वाली अथवा प्राणातिपात रूप क्रिया को 'प्राणातिपात क्रिया' कहते हैं । इसके भी दो भेद हैं-स्वहस्त प्राणातिपात क्रिया और परहस्त प्राणातिपात क्रिया । अपने हाथ से अपने प्राणों का तथा दूसरों के प्राणों का एवं दोनों के प्राणों का अतिपात करना, स्वहस्त प्राणातिपात क्रिया कहलाती है। इसी तरह परहस्त प्राणातिपात क्रिया के विषय में भी समझना चाहिए । For Personal & Private Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ३ उ. ३ क्रिया और वेदना किया और वेदना ७ प्रश्न - पुव्वं भंते! किरिया, पच्छा वेयणा ? पुव्वं वेयणा, पच्छा किरिया ? ७ उत्तर - मंडियपुत्ता ! पुव्विं किरिया, पच्छा वेयणा । णो पुवि वेयणा पच्छा किरिया । ८ प्रश्न - अत्थि णं भंते ! समणाणं णिग्गंथाणं किरिया कज्जइ ? ८ उत्तर - हंता, अस्थि । ९ प्रश्न - कहं णं भंते ! समणाणं णिग्गंथाणं किरिया कज्जह ? ९ उत्तर - मंडियपुत्ता ! पमायपचया, जोगनिमित्तं च; एवं खल समणाणं णिग्गंथाणं किरिया कज्जइ । कठिन शब्दार्थ - यणा - वेदना, पमायपच्चया - प्रमाद के कारण । भावार्थ- -७ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या पहले क्रिया होती हं और पीछे वेदना होती हे ? अथवा पहले वेदना होती है और पीछे क्रिया होती है ? ७ उत्तर—हे मण्डितपुत्र ! पहले क्रिया होती है और पीछे वेदना होती है, परन्तु पहले वेदना और पीछे क्रिया होती है, यह बात नहीं है । ८ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या श्रमण निर्ग्रन्थों को क्रिया होती है ? ८ उत्तर - हां, मण्डितपुत्र ! होती है । ९ प्रश्न - हे भगवन् ! श्रमण निर्ग्रन्थों को क्रिया किस प्रकार होती है ? अर्थात् श्रमण निर्ग्रन्थ किस प्रकार क्रिया करते हैं ? ६५५ For Personal & Private Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ३ उ. ३ जीव की एजनादि क्रिया उत्तर-हे मण्डितपुत्र ! प्रमाद के कारण और योग निमित्त (शरीरादि की प्रवृत्ति)से श्रमण निर्ग्रन्थों को क्रिया होती है। विवेचन-अगले प्रकरण में क्रिया के विषय में कहा गया है । अब क्रियाजन्य कर्म और कर्म जन्य वेदना के सम्बन्ध में कहा जाता है। 'क्रियते इति क्रिया' अर्थात् जो की जाय, उसे क्रिया कहते हैं । क्रिया से कर्म उत्पन्न होता है । इसलिए जन्य और जनक में अभेद की विवक्षा करने से कर्म भी क्रिया कहा जा सकता है । अथवा यहाँ 'क्रिया' शब्द का अर्थ 'कर्म' है और कर्म के अनुभव को 'वेदना' कहते हैं । कर्म के बाद वेदना होती है, क्योंकि कर्मपूर्वक ही वेदना होती है । कर्म का सद्भाव पहले होता है और उसके बाद वेदना (कर्म का अनुभव) होती है । अब क्रिया का स्वामित्व बतलाते हुए कहा जाता है कि श्रमण निर्ग्रन्थों के भी क्रिया होती है। इसके दो कारण हैं-प्रमाद और योग । जैसे कि-प्रमाद-दुष्प्रयुक्त शरीर की चेष्टा जन्य कर्म । योग से-जैसे कि ईर्यापथिकी (मार्ग में चलने की) क्रिया से लगने वाला कर्म । अतः प्रमाद और योग, इन दो कारणों से श्रमण निर्ग्रन्थों के भी क्रिया होती है। जीव की एजनादि क्रिया १० प्रश्न-जीवे णं भंते ! सया समियं एयइ, वेयइ, चलइ, फंदइ, घट्टइ, खुम्भइ, उदीरइ, तं तं भावं परिणमइ ? - १० उत्तर-हंता, मंडियपुत्ता ! जीवे णं सया समियं एयइ, जाव-तं तं भावं परिणमइ। ११ प्रश्न-जावं च णं भंते ! से जीवे सया समियं जावपरिणमइ, तावं च णं तस्स. जीवस्स अंते अंतकिरिया भवह ? For Personal & Private Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ३ उ. ३ जीव की ए जनादि क्रिया ६५७ ११ उत्तर-णो इणढे समढे। १२ प्रश्न-से केणटेणं एवं वुच्चइ-जावं च णं से जीवे सया समियं जाव-अंते अंकिरिया ण भवइ ? ___१२ उत्तर-मंडियपुत्ता ! जावं च णं से जीवे सया समियं जावपरिणमइ, तावं च णं से जीवे आरंभइ, सारंभइ, समारंभइ; आरंभे वट्टइ, सारंभे वट्टइ, समारंभे वट्टइ; आरंभमाणे, सारंभमाणे, समारंभमाणे, आरंभे वट्टमाणे, सारंभे वट्टमाणे, समारंभे वट्टमाणे बहूणं पाणाणं, भूयाणं, जीवाणं, सत्ताणं, दुक्खावणयाए, सोयावणयाए, जूरावणयाए, तिप्पावणयाए, पिट्टावणयाए, परियावणयाए वट्टइ, से तेणटेणं मंडियपुत्ता ! एवं वुचइ जावं च णं से जीवे सया समियं एयइ जाव-परिणमइ, तावं च णं तस्स जीवस्स अंते अंतकिरिया ण भवइ। .' कठिन शब्दार्थ-समियं-समित-परिमाण पूर्वक, एयइ-कंपता है, वेयइ-विविध प्रकार से कंपता है, चलइ-चलता है, फंदइ-स्पन्दन क्रिया करता है-थोड़ा चलता है, घट्टइ-घटित होता है-सब दिशाओं में जाता है, खुन्मइ-क्षोभ को प्राप्त होता है, उदीरइ-उदीरता हैप्रबलता पूर्वक प्रेरणा करता है, परिणमइ-परिणमता है--उन उन भावों को प्राप्त होता है, आरंभइ-आरम्भ करता है अर्थात् पृथ्वीकायादि को उपद्रव करता है, सारंमइ-संरम्भ करता है अर्थात् पृथ्वीकायादि जीवों के नाश का संकल्प करता है, समारंभइ-समारम्भ करता है अर्थात् पृथ्वीकायादि जीवों को दुःख पहुँचाता है, वट्टइ-वर्तता है, सोयावणयाएशोक उत्पन्न करके, जूरावणयाए-झूराने-रुलाने, तिप्पावणयाए-आंसू गिराने, पिट्टावणयाएपिटवाना, अंतकिरिया-अन्तक्रिया अर्थात् मुक्ति । भावार्थ-१० प्रश्न-हे भगवन् ! क्या जीव, सदा समित रूप से परिमाण For Personal & Private Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ३ उ. ३ जीव की एजनादि क्रिया पूर्वक कंपता है ? विविध प्रकार से कंपता है ? चलता है अर्थात् एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाता ? स्पन्दन क्रिया करता है अर्थात् थोड़ा चलता है ? घटित होता है अर्थात् सब दिशाओं में जाता है ? क्षोभ को प्राप्त होता है ? उदीरता है अर्थात् प्रबलतापूर्वक प्रेरणा करता है ? और उन उन भावों में परिणमता है ? ६५८ १० उत्तर - हाँ, मण्डितपुत्र ! जीव सदा परिमित रूप से कंपता है, यावत् उन उन भावों में परिणमता है । ११ प्रश्न - हे भगवन् ! जब तक जीव, परिमित रूप से कंपता है, यावत् उन उन भावों में परिणमता है तब तक क्या उस जीव की अन्तिम समय में ( मरण समय में ) अन्तक्रिया (मुक्ति) होती है ? ११ उत्तर - हे मण्डितपुत्र ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, क्योंकि सक्रिय जीव की अन्त क्रिया नहीं होती है । १२ प्रश्न - हे भगवन् ! जब तक जीव, परिमित रूप से कंपता है यावत् तब तक उसकी अन्तक्रिया नहीं होती है, ऐसा कहने का क्या कारण है ? १२ उत्तर - हे मण्डितपुत्र ! जब तक जीव, सदा परिमित रूप से कंपता है, यावत् उन उन भावों में परिणमता है, तब तक वह जीव, आरम्भ करता है, संरम्भ करता है, समारम्भ करता है, आरम्भ में प्रवर्तता है, संरम्भ में प्रवर्तता है, समारम्भ में प्रवर्तता है, आरम्भ, संरम्भ, समारम्भ करता हुआ, आरम्भ, संरम्भ, समारम्भ में प्रवर्तता हुआ जीव, बहुत से प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों को दुःख पहुँचाने में, शोक कराने में, झूराने में, टपटप आँसू गिराने में, पिटाने में, त्रास उपजाने में और परिताप कराने में प्रवृत्त होता है, निमित्त कारण बनता है । इसलिए हे मण्डितपुत्र ! इस कारण से ऐसा कहा जाता है कि जब तक जीव, सदा परिमित रूप से कंपात है, यावत् उन उन भावों में परिणमता है, तब तक वह जीव, मरण समय में अन्तक्रिया नहीं कर सकता है । विवेचन - यहां क्रिया का प्रकरण होने से जीव की एजनादि क्रिया के विषय में कहा जाता है । यद्यपि यहाँ सामान्य जीव का कथन किया गया है, तथापि यहां सयोगी (मनोयोगी, For Personal & Private Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ३ उ. ३ जीव की एजनादि क्रिया ६५९ वचनयोगी, काययोगी) जीव का ही ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि अयोगी जीव के एजनादि क्रियाएं नहीं होती हैं । सयोगी जीव एजन (कम्पन), विशेष एजन (विशेष कम्पन) चलन (एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाना), स्पन्दन (थोड़ा चलना),घट्टन (सब दिशाओं में चलना), क्षुभित होता उदीरण आदि क्रियाएँ करता है और उत्क्षेपण, अवक्षेपण, आकुञ्चन प्रसारण आदि पर्यायों को प्राप्त होता है। पूर्वोक्त क्रियाओं को करनेवाला जीव सकल कर्म क्षय रूप अन्तक्रिया नहीं कर सकता है । इसका कारण यह है कि उपर्युक्त क्रियाएँ करने वाला जीव आरम्भ, संरम्भ, समारम्भ करता है, इनमें प्रवृत्त होता है । आरम्भादि करता हुआ तथा आरम्भादि में प्रवृत्त होता हुआ जीव, बहुत से प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों को पीड़ित करता है, दुःखित करता है, त्रास पहुंचाता है, यावत् उनकी हिंसा करता है । संरम्भ आदि का स्वरूप इस प्रकार बतलाया गया है संकप्पो संरंभो, परितावकरो भवे समारंभो। आरंभो उद्दवओ सम्वनया णं विसुद्धाणं ॥ अर्थ-पृथ्वीकायादि जीवों की हिंसा करने का संकल्प करना 'संरम्भ' कहलाता है। उन्हें परिताप उपजाना-सन्ताप देना 'समारम्भ' कहलाता है । उन जीवों की हिंसा करना 'आरम्भ' कहलाता है । यह सर्व विशुद्ध नयों का मत है। क्रिया और कर्ता में कथञ्चित् भेद और कथञ्चित् अभेद होता है। यहाँ पर 'आरंभ, संरम्भ, समारम्भ करता हुआ जीव' इस वाक्य द्वारा क्रिया और कर्ता में अभेद (एकता) वतलाया गया है । और 'आरम्म, संरम्भ, समारम्भ में प्रवर्तता हुआ जीव' इस वाक्य द्वारा क्रिया और कर्ता में भेद बतलाया गया है। 'आरंभमाणे, आरंभे वट्टमाणे' इत्यादि क्रियाओं का जो दूसरी बार प्रयोग किया गया है, वह उपर्युक्त भेदाभेद की बात को पुष्ट करने के लिए किया गया है । ___ १३ प्रश्न-जीवे णं भंते ! सया समियं णो एयह जाव-णो तं तं भावं परिणमइ ? १३ उत्तर-हंता, मंडियपुत्ता ! जीवे णं सया समियं जावणो परिणमइ। For Personal & Private Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ३ उ. ३ जीव की एजनादि क्रिया १४ प्रश्न - जावं च णं भंते! से जीवे नो एयइ जाव - णो तं तं भावं परिणमइ, तावं च णं तस्स जीवस्स अंते अंतकिरिया भवइ ? ६६० १४ उत्तर - हंता, जाव - भवइ । १५ प्रश्न - से केणट्टेणं जाव - भवइ ? १५ उत्तर - मंडियपुत्ता ! जावं च णं से जीवे सया समियं णो एयह, जाव णो परिणमइ, तावं च णं से जीवे णो आरंभइ, णो सारंभइ, णो समारंभइ; णो आरंभे वट्टह, णो सांरंभे वट्टह, णो समारंभे वट्ट; अणारंभमाणे, असारंभमाणे, असमारंभमाणे; आरंभे अवट्टमाणे, सारंभे अवट्टमाणे, समारंभे अवट्टमाणे बहूणं पाणाणं, भूयाणं, जीवाणं, सत्ताणं अदुक्खावणयाए, जाव - अपरितावणयाए वट्टइ । कठिन शब्दार्थ - अणारंभमाणे- आरंभ नहीं करता हुआ, अवट्टमाणे – प्रवृत्ति नहीं करता हुआ । भावार्थ - १३ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या जीव, सदा समित रूप से नहीं कंपता हैं, यावत् उन उन भावों में परिणत नहीं होता है ? १३ उत्तर - हे मण्डितपुत्र ! हाँ, जीव, सदा समित नहीं कंपता है, यावत् उन उन भावों को नहीं परिणमता है अर्थात् जीव, निष्क्रिय होता है । १४. प्रश्न - हे भगवन् ! जब तक वह जीव, सदा समित नहीं कंपता है, यावत् उन उन भावों को नहीं परिणमता है, तब तक उस जीव की मरण समय में अन्तक्रिया (मुक्ति) होती है ? For Personal & Private Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ३ उ. ३ जीव की एजनादि क्रियाएँ १४ उत्तर-हाँ, मण्डितपुत्र ! ऐसे जीव को अन्तक्रिया (मुक्ति) होती है। १५ प्रश्न-हे भगवन् ! ऐसे जीव को यावत् मुक्ति होती है, इसका क्या कारण है ? १५ उत्तर-हे मण्डितपुत्र ! जब वह जीव, सदा समित नहीं कंपता है, यावत् उन उन भावों में नहीं परिणमता है, तब वह जीव, आरम्भ नहीं करता है, संरम्भ नहीं करता है, समारम्भ नहीं करता है, आरम्भ, संरम्भ, समारम्भ में प्रवृत्त नहीं होता है, आरंभ, संरम्भ, समारंभ नहीं करता हुआ तथा आरम्भ, संरम्भ, समारम्भ में नहीं प्रवर्तता हुआ जीव, बहुत से प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों को दुःख पहुंचाने में यावत् परिताप उपजाने में निमित्त नहीं बनता है। विवेचन-अब अक्रिया के सम्बन्ध में कहा जाता है--शैलेशी अवस्था में योग का निरोध हो जाता है । इसीलिए एजनादि क्रिया नहीं होती । एजनादि क्रिया न होने से वह आरंभादि में प्रवृत्त नहीं होता और इसीलिए वह प्राणियों के दुःखादि का कारण नहीं बनता है । इसलिए योग-निरोध रूप शुक्लध्यान द्वारा अक्रिय आत्मा की सकल कर्मक्षय रूप अन्तक्रिया होती है। से जहा णामए केइ पुरिसे सुक्कं तणहत्थयं जायतेयंसि पविखवेजा, से णूणं मंडियपुत्ता ! से सुक्के तणहत्थए जायतेयंसि पक्खित्ते समाणे खिप्पामेव मसमसाविजइ ? हंता, मसमसाविजइ । से जहा णामए केइ पुरिसे तत्तंसि अयकवल्लंसि उदयबिंदु पक्खिवेजा, से गूणं मंडियपुत्ता ! से उदयविंदू तत्तंसि अयकवल्लंसि पक्खित्ते समाणे खिप्पामेव विद्धसमागच्छइ ? हंता विधंसमागच्छइ । से जहा णामए हरए सिया पुण्णे, पुण्णप्पमाणे, वोलट्टमाणे, For Personal & Private Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ३ उ. ३ जीव की एजनादि क्रिया वोसट्टमाणे समभरघडत्ताए चिट्ठइ ? हंता चिट्ठइ । अहे णं केइ पुरिसे तंसि हरयंसि एगं महं णावं सयासवं, सयच्छिदं ओगाहेजा, से पूर्ण मंडियपुत्ता ! सा णावा तेहिं आसवदारहिं आपूरेमाणी आपूरेमाणी, पुण्णा, पुण्णप्पमाणा, वोलट्टमाणा, वोसट्टमाणा, समभरघडताए चिट्ठइ ? हंता चिट्ठइ । अहे णं केइ पुरिसे तीसे णावाए सव्वओ समंता आसवदाराइं पिहेइ, पिहित्ता णावा-उसिंचणएणं उदयं उसिंचिजा, से णूणं मंडियपुत्ता ! सा णावा तंसि उदयंसि उसिंचिजंसि समाणंसि खिप्पामेव उड्ढे उद्दाइ ? हंता, उद्दाइ। कठिन शब्दार्थ-तणहत्थयं-घास के पुले को, जायतेयंसि-अग्नि में, मसमसाविज्जइजल जाता है, तत्तंसि अयकवलंसि--लोहे की तप्त कड़ाई में, उदयबि, पक्खिवेज्जा-पानी की बूंद डाले, खिप्पामेव-शीघ्र, विद्धंसमागच्छइ-नष्ट हो जाती है, हरए-पानी का द्रह, पुणे–पूर्ण, वोलट्टमाणे-लबालब भरा हो, वोसट्टमाणे-पानी छलक रहा हो, सयासव सयच्छि-सैकड़ों छिद्र वाली, आसवदाराई-पानी आने के मार्ग को, पिहेइ-ढक दे, बन्द करदे, उस्सिचणएणं-उलीचने के साधन से, उड्ढे उद्दाइ-ऊपर आवे । भावार्थ-जैसे कोई पुरुष, सूखे घास के पूले को अग्नि में डाले, तो क्या हे मण्डितपुत्र ! वह सूखे घास का पूला अग्नि में डालते ही जल जाता है ? हां, भगवन् ! वह जल जाता है। जैसे कोई पुरुष, पानी की बूंद को तपे हुए लोह कडाह पर डाले, तो क्या हे मण्डितपुत्र ! तपे हुए लोह कडाह पर डाली हुई वह जलबिन्दू तुरन्त नष्ट हो जाती है ? हाँ, भगवन् ! वह तुरन्त नष्ट हो जाती है। कोई एक सरोवर-जो पानी से परिपूर्ण हो, पूर्ण भरा हुआ हो, लबालब भरा हुआ हो, बढ़ते हुए पानी के कारण उससे पानी छलक रहा हो, पानी से For Personal & Private Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ३ उ. ३ जीव की एजनादि क्रिया - ६६३ भरे हुए घडे के समान वह सर्वत्र पानी से व्याप्त हो । उस सरोवर में कोई पुरुष, सैकडों छोटे छिद्रोंवाली तथा सैकडों बडे छिद्रोंवाली एक बडी नौका को डाल दे, तो क्या हे मण्डितपुत्र ! वह नाव, उन छिद्रों द्वारा पानी से भराती हुई पानी से परिपूर्ण भर जाती है ? वह पानी से लबालब भर जाती है ? उससे पानी छलकने लगता है ? तथा पानी से भरे हुए घडे की तरह सर्वत्र पानी से व्याप्त हो जाती है ? हाँ, भगवन् ! वह पूर्वोक्त प्रकार से भर जाती है । हे मण्डितपुत्र ! कोई पुरुष, उस नाव के समस्त छिद्रों को बन्द करदे, तथा नाव में भरे हुए पानी को उलीच दे तो क्या वह तुरन्त पानी के ऊपर आजाती है ? हाँ, भगवन् ! वह तुरन्त पानी के ऊपर आजाती है। विवेचन-इस विषय को विशेष सरल करने के लिए सूखे घास के पूले को अग्नि में डालने का और तपे हुए लोह कड़ाह पर डाली गई जलबिन्दू का, ये दो उदाहरण दिये गये हैं । इस प्रकार एजनादि रहित मनुष्य के शुक्लध्यान के चतुर्थ भेद रूप अग्नि द्वारा कर्म रूप ईन्धन जल कर भस्म हो जाता है, तब उस जीव की मुक्ति हो जाती है। ___निष्क्रिय मनुष्य की ही अन्तक्रिया (मुक्ति) होती है। यह बात नाव के तीसरे उदाहरण द्वारा भी बतलाई गई है । आत्म-संवृत पुरुष की गमनादि क्रिया तो क्या, किन्तु उसके नेत्र का उन्मेष और निमेष रूप क्रिया भी सावधानता पूर्वक होती है । इसलिए उसको केवल ईर्यापथिकी क्रिया लगती है । उपशान्त-मोह, क्षीण-मोह और सयोगी-केवली, इन तीन गुणस्थानों में रहे हुए जीव को एक सातावेदनीय कर्म का बन्ध होता है, क्योंकि वह सक्रिय है । उसे ईर्यापथिकी क्रिया लगती है । वह ईर्यापथिकी क्रिया प्रथम समय में बद्ध-स्पृष्ट होती है अर्थात् प्रथम समय में वह कर्म रूप से उत्पन्न होती है, इसलिए वह 'बद्ध' कहलाती है और जीव-प्रदेशों के साथ उसका स्पर्श होता है, इसलिए वह 'स्पृष्ट' कहलाती है । दूसरे समय में उसका वेदन (अनुभव) हो जाता है, इसलिए वह 'वेदित •' कहलाती है । तीसरे समय में वह जीव-प्रदेशों से पृथक् हो जाती है, इसलिए वह 'निर्जीर्ण' कहलाती है । तीसरे समय में जब वह निर्जीर्ण हो जाती है, तो भविष्यत् काल में वह अकर्म' रूप हो जाती है। यद्यपि तीसरे समय में ही कर्म, अकर्म रूप हो जाता है, तथापि उस समय भाव-कर्म की • एक समय में उदीरणा और उदय संभवित नहीं है । इसलिए यहाँ 'उदीरित' शब्द का अर्थ 'वेदित' किया गया हैं। For Personal & Private Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ३ उ. ३ जीव की एजनादि क्रिया रहितता होने से और द्रव्य कर्म का सद्भाव होने से 'तीसरे समय में कर्म निर्जीर्ण हुआ' - ऐसा व्यवहार होता है और तत्पश्चात् चतुर्थ आदि समयों में 'कर्म अकर्म हुआ' - ऐसा व्यवहार होता है । ६६४ एवामेव मंडियपुत्ता ! अत्तत्तासंवुडस्स अणगारस्स ईरियासमियस्स जाव - गुत्तबं भयारिस्स, आउतं गच्छमाणस्स, चिट्ठमाणस्स, णिसीयमाणस्स, तुयट्टमाणस्स, आउत्तं वत्थ- पडिग्गह- कंबल-पाय-. पुंछणं गेहमाणस्स, णिक्खिवमाणस्स, जाव - चक्खुप म्हणिवायमवि वेमाया सुहुमा ईरियावहिया किरिया कज्जइ, सा पढमसमयबद्धपुट्ठा, बिइयसमयवेइया, तइयसमयणिज्जरिया, सा बद्धा, पुट्ठा, उदीरिया, वेइया, णिज्जिण्णा, सेयकाले अकम्मं वा वि भवइ । से तेणट्टेणं मंडियपुत्ता ! एवं बुचइ - जावं च णं से जीवे सया समियं णो एयह, जाव - अंते अंतकिरिया भवः । कठिन शब्दार्थ - अत्तत्ता संवुडस्स - आत्मा में ही संवृत हुए, आउ-उपयोग युक्त, चिट्ठमाणस्स - ठहरता हुआ, णिसीयमाणस्स -- बैठता हुआ, तुयट्टमाणस्स - सोता हुआ, चक्खुम्हणिवायमवि - आँखों की पलकों को टमकाते, वेमाया-विमात्रा से । भावार्थ - हे मण्डितपुत्र ! इसी तरह अपनी आत्मा द्वारा आत्म संवृत, ईर्यासमिति आदि पांच समितियों से समित, मनोगुप्ति आदि तीन गुप्तियों से गुप्त, ब्रह्मचारी तथा उपयोगपूर्वक गमन करने वाले, सावधानी पूर्वक ठहरने वाले, सावधानता सहित बैठनेवाले, सावधानतापूर्वक सोनेवाले तथा सावधानतापूर्वक वस्त्र, पात्र, कम्बल, रजोहरण आदि को उठानेवाले और रखनेवाले अनगार को अक्षिनिमेष ( आँख की पलक टमकारने) मात्र में विमात्रापूर्वक सूक्ष्म afrat क्रिया लगती है । वह प्रथम समय में बद्ध-स्पृष्ट, दूसरे समय में वेदित For Personal & Private Use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ३ उ. ३ प्रमत्त संयत और अप्रमत्त संयत का समय ६६५ और तीसरे समय में निर्जीर्ण हो जाती है । अर्थात् बद्ध-स्पृष्ट, उदीरित, वेदित और निर्जीर्ण हुई वह क्रिया, भविष्यकाल में अकर्म रूप हो जाती है। इसलिए हे मण्डितपुत्र ! जब तक वह जीव, सदा समित नहीं कंपता है, यावत् उन उन भावों को नहीं परिणमता है, तब मरण के समय में उसकी अन्तक्रिया (मुक्ति) हो जाती है। इस कारण से ऐसा कहा गया है। विवेचन- 'अत्तत्तासंवुडस्स' इस पद से यह सूचित किया गया है कि आश्रववाला संयत भी कर्म का बन्ध करता है, तब असंयत जीव कर्म का बन्ध करे, इनमें कहना ही क्या ? अर्थात् असंयत जीव तो निरन्तर कर्मों का बन्ध करता ही है । इससे यह बतलाया गया है कि कर्म रूप पानी से भरी जाती हुई जीव रूप नौका, नीचे डूबती ही है । जो नौका छिद्र रहित होती है. वह पानी में डूबती नहीं, किन्तु पानी पर तैरती है। इसी प्रकार आश्रव रहित निष्क्रिय जीव, संसार समुद्र से तिर जाता है। प्रमत्त सयत और अप्रमत्त संयत का समय १६ प्रश्न-पमत्तसंजयस्स णं भंते ! पमत्तसंजमे वट्टमाणस्स सव्वा वि य णं पमत्तद्धा कालओ केवच्चिरं होइ ? _१६ उत्तर-मंडियपुत्ता ! एगजीवं पडुच्च जहण्णेणं एक्कं समयं, उकोसेणं देसूणा पुव्वफोडी । णाणाजीवे पडुच्च सव्वद्धा । १७ प्रश्न-अप्पमत्तसंजयस्स णं भंते ! अप्पमत्तसंजमे वट्टमाणस्स सव्वा वि य णं अप्पमत्तद्धा कालओ केवच्चिरं होइ ? १७ उत्तर-मण्डियपुत्ता ! एगजीवं पडुच्च जहण्णेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं देसूणा पुवकोडी । णाणाजीवे पडुच्च सव्वधं । –सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति मंडियपुत्ते अण For Personal & Private Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६६ भगवती सूत्र-श. ३ उ. ३ प्रमत्त-संयत और अप्रमत्त-संयत का समय गारे समणं भगवं महावीरं वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणे विहरइ । कठिन शब्दार्थ--पमत्तद्धा--प्रमत्त-काल, केवच्चिरं--कितना, पडुच्च-अपेक्षा से, देसूणा-कुछ कम, णाणाजीवे-अनेक प्रकार के जीव, सम्वद्धा-सर्व-काल । भावार्थ-१६ प्रश्न-हे भगवन् ! प्रमत्त-संयम का पालन करते हुए प्रमत्त-संयमी का सब काल कितना होता है ? १६ उत्तर-हे मण्डितपुत्र ! एक जीव की अपेक्षा जघन्य एक समय और उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि, इतना प्रमत्त-संयम का काल होता है । अनेक जीवों की अपेक्षा सर्वाद्धा (सब काल) प्रमत्त-संयम का काल होता है। १७ प्रश्न-हे भगवन् ! अप्रमत्त-संयम का पालन करते हुए अप्रमत्तसंयमी का सब मिल कर अप्रमत्त-संयम काल कितना होता है ? . १७ उत्तर-हे मण्डितपुत्र ! एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि, इतना अप्रमत्त-संयम का काल होता है । अनेक जीवों की अपेक्षा सर्वाद्धा (सर्वकाल) अप्रमत्त-संयम का काल है। सेवं भंते ! सेवं भंते !! हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । ऐसा कह कर मण्डितपुत्र अनगार श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वन्दना नमस्कार करते हैं, वन्दना नमस्कार करके संयम और तप से अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे। _ विवेचन-श्रमण निर्ग्रन्थों को प्रमाद के कारण क्रिया लगती है, यह बात पहले बतलाई गई थी। अब यह बतलाया जाता है कि-संयत में प्रमत्तता और अप्रमत्तता कितने समय तक रहती हैं ? इस विषय में प्रश्न करते हुए कहा गया है कि-प्रमत्त-संयत का सब काल, काल की अपेक्षा कितना होता है ? ___ शंका-यहाँ यह शंका उत्पन्न होती है कि इस सूत्र में "कालओ" और "कियच्चिरं" ये दो शब्द क्यों दिये गये हैं ? क्योंकि 'कालओ' इस शब्द का अर्थ 'कियच्चिरं' इस शब्द में आ जाता है । फिर सूत्र में 'कालओ' शब्द देने की क्या आवश्यकता है ? For Personal & Private Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ३ उ. ३ प्रमत्त संयत और अप्रमत्त संयत का समय ६६७ समाधान- 'कालओ' यह शब्द 'क्षेत्र' का व्यवच्छेद करने के लिये दिया गया है, क्योंकि क्षेत्र विषयक प्रश्नों में भी 'कियच्चिरं' शब्द का प्रयोग किया गया है । जैसे कि - 'ओहिणाणं 'खेत्तओ कियच्चिरं' अर्थात् अवधिज्ञान क्षेत्र की अपेक्षा कहाँ तक होता है ? अवधिज्ञान क्षेत्र अपेक्षा असंख्यात द्वीप समुद्र पर्यन्त होता है । काल की अपेक्षा अवधिज्ञान, साधिक ( कुछ अधिक) छासठ सांगरोपम होता है। इसलिए सूत्र में जो 'कालओ' शब्द दिया है, वह ठीक है और आवश्यक है । प्रमत्त संयम का काल एक जीव की अपेक्षा एक समय और उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि है । अनेक जीवों की अपेक्षा सर्वाद्धा ( सर्व काल ) है । प्रमत्तसंयम का जघन्य काल एक समय, इस प्रकार घटित होता है कि-प्रमत्त संयम को प्राप्त करने के पश्चात् तुरन्त ही एक समय बीतने पर उसका मरण हो जाय। इस अपेक्षा जघन्य काल एक समय है । प्रमत्तगुणस्थानक और अप्रमत्त गुणस्थानक, इन दोनों गुणस्थानों का प्रत्येक का समय अन्तर्मुहूर्त है । अन्तर्मुहूर्त प्रमाण काल वाले ये दोनों गुणस्थानक क्रम क्रम से बदलते रहते हैं, इन दोनों का सम्मिलित उत्कृष्ट काल देशोन पूर्वकोटि है, क्योंकि संयमी मनुष्य की उत्कृष्ट आयु पूर्वकोटि होती है । इस प्रकार पूर्वकोटि आयुष्य वाला मनुष्य आठ वर्ष बीतने पर संयम अंगीकार करता है । अप्रमत्त अन्तर्मुहूर्तों की अपेक्षा प्रमत्त के अन्तर्मुहूर्त बड़े होते हैं। इस प्रकार प्रमत्त के सब अन्तर्मुहूर्तों को मिलाने 1. से देशोनपूर्व कोटि काल होता है । इस विषय में अन्य आचार्यों का तो ऐसा कहना है कि प्रमत्त संयत का उत्कृष्ट काल साधिक आठ वर्ष कम पूर्व-कोटि होता है । जिस प्रकार प्रमत्त संयत का कथन किया गया है, उसी प्रकार अप्रमत्त संयत के सम्बन्ध में भी कहना चाहिये, किन्तु इतनी विशेषता है कि अप्रमत्त संयत का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है । क्योंकि अप्रमत्त गुणस्थानक में रहा हुआ जीव, अन्तर्मुहूर्त के बीच में मरता नहीं है । इस विषय में चूर्णिकार का मत तो इस प्रकार है कि-प्रमत्त संयत को छोड़कर बाकी सब सर्वविरत मनुष्य, अप्रमत्त होते हैं, क्योंकि उनमें प्रमाद का अभाव है । ऐसा कोई उपशम श्रेणी करता हुआ जीव एक मुहूर्त के बीच में ही काल कर जाय, तो उसके लिये जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त लब्ध होता है । और देशोन पूर्व-कोटि काल तो केवलज्ञानी की अपेक्षा से घटित होता है । For Personal & Private Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६८ भगवती सूत्र-श. ३.उ. ३ लवण समुद्र का प्रवाह + + + + + + + + + + + + + + लवण समुद्र का प्रवाह १८ प्रश्न-"भंते !" त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी-कम्हा णं भंते ! लवणसमुद्दे चाउद्दस-ट्टमु-ट्टि-पुण्णमासिणीसु अइरेगं वड्ढइ वा ? हायइ वा ? १८ उत्तर-जहा जीवाभिगमे लवणसमुद्दवत्तव्वया णेयव्वा । जाव-लोयट्टिई, लोयाणुभावे। सेवं भंते ! सेवं भत्ते ! ति जाव विहरइ । ॥ तइओ किरिआ उद्देसो सम्मत्तो ॥ कठिन शब्दार्थ-कम्हाणं-किसलिए, अइरेगं-अधिक, हायइ-कम होता है, लोयट्टिई -लोक स्थिति, लोयाणुभावे-लोकानुभाव । भावार्थ-१८ प्रश्न-हे भगवन् ! ऐसा कहकर भगवान् गौतम ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वन्दना नमस्कार किया। वन्दना नमस्कार करके इस प्रकार कहा- हे भगवन् ! लवण समुद्र चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या और पूर्णिमा के दिन कसे अधिक बढ़ता है और कैसे अधिक घटता है ? १८ उत्तर-हे गौतम ! जैसा जीवाभिगम सूत्र में लवण समुद्र के संबंध में कहा है, वैसा यहां पर भी जान लेना चाहिए, यावत् 'लोकस्थिति, लोकानभाव' इस शब्द तक कहना चाहिए। ___ सेवं भंते ! सेवं भंते !! हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! For Personal & Private Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ३ उ. ३ लवण समुद्र का प्रवाह यह इसी प्रकार है, ऐसा कह कर यावत् गौतम स्वामी विचरते हैं । विवेचन - प्रमत्तता और अप्रमत्तता को लेकर 'सर्वाद्धा' का कथन किया गया है । अतः अब सर्वाद्धाभावी अन्य पदार्थों का निरूपण करने के लिये लवण समुद्र की जल वृद्धि और हानि विषयक प्रश्न किया गया है। इस प्रश्न के उत्तर के लिये जीवाभिगम सूत्र की भलामण दी गई है । जीवाभिगम सूत्र में कही हुई लवण समुद्र सम्बन्धी वक्तव्यता इस प्रकार है प्रश्न- -हे भगवन् ! चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या और पूर्णिमा के दिन लवण समुद्र का जल अधिक क्यों बढ़ता है और अधिक क्यों घटता है ? ६६९ उत्तर - लवण समुद्र के बीच में चारों दिशाओं चार महापाताल कलश हैं । प्रत्येक का परिमाण एक लाख योजन है । उनके नीचे के विभाग में वायु है । बीच के भाग में जल और वायु है और ऊपर के भाग में केवल जल है । इन चार महापाताल कलशों के अतिरिक्त और भी छोटे-छोटे पाताल कलश हैं । उनकी संख्या ७८८४ है । उनका परिमाण एक-एक हजार योजन का है । उनमें भी पूर्वोक्त रीति से वायु, जलवायु और जल है । उनके वायु विक्षोभ से लवण समुद्र के जल में पूर्वोक्त तिथियों में वृद्धि और हानि होती है । लवण समुद्र की शिखा का विष्कंभ (चौड़ाई) दस हजार योजन है और उसकी ऊंचाई सोलह हजार योजन है । उसके ऊपर आधा योजन जल वृद्धि और जल हानि होती है । इत्यादि । प्रश्न - हे भगवन् ! लवण समुद्र जम्बूद्वीप को अपने पानी के प्रवाह से नहीं डूबाता है । इसका क्या कारण है ? उत्तर - अरिहन्त आदि महापुरुषों के प्रभाव से वह नहीं डूबाता है तथा लोक की स्थिति ही ऐसी है । लोक का प्रभाव ही ऐसा है । ॥ इति तृतीय शतक का तृतीय उद्देशक समाप्त ॥ For Personal & Private Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७० भगवती सूत्र- श. ३ उ. ४ अनगार की वैक्रिय शक्ति . . . शतक ३-उद्देशक-४ अनगार की वैक्रिय शक्ति १ प्रश्न-अणगारे णं भंते ! भावियप्पा देवं वेउव्वियसमुग्धाएणं समोहयं जाणरूवेणं जायमाणं जाणइ पासइ ? १ उत्तर-गोयमा ! अत्थेगइए देवं पासइ, णो जाणं पासइ; अत्थेगइए जाणं पासइ, णो देवं पासइ, अत्थेगइए देवं पि पासइ, जाणंपि पासइ; अत्थेगइए णो देवं पासइ णो जाणं पासइ । २ प्रश्न-अणगारे णं भंते ! भावियप्पा देविं वेउब्वियसमुग्धाएणं समोहयं जाणरूवेणं जायमाणं जाणइ पासइ ? . २ उत्तर-गोयमा ! एवं चेव । ३ प्रश्न-अणगारे णं भंते ! भावियप्पा देवं सदेवीयं वेउब्वियसमुग्धाएणं समोहयं जाणरूवेणं जायमाणं जाणइ पासइ ? ३ उत्तर-गोयमा ! अत्थेगइए देवं सदेवीयं पासइ, णो जाणं पासइ; एएणं अभिलावेणं चत्तारि भंगा। . ४ प्रश्न-अणगारे णं भंते ! भावियप्पा रुक्खस्स किं अंतो पासइ; बाहिं पासइ ? . ___४ उत्तर-चउभंगो। एवं-किं मूलं पासइ, कंदं पासइ ? चउ- . भंगो । मूलं पासइ, खंधं पासह, ? चउभंगो । एवं मूलेणं बीयं For Personal & Private Use Only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ३ उ. ४ अनगार की वैक्रिय शक्ति ६७१ संजोएयव्वं, एवं कंदेण वि समं संजोएयव्वं जाव-बीयं । एवं जावपुप्फेण समं बीयं संजोएयव्वं । ५ प्रश्न-अणगारे णं भंते ! भावियप्पा रुक्खस्स किं फलं पासइ, बीयं पासइ ? . ५ उत्तर-चउभंगो। कठिन शब्दार्थ-भावियप्पा-भावितात्मा-संयम और तप से आत्मा को प्रभावित रखने वाले, समुग्धाएणं-समुद्घात-एकाग्रता युक्त प्रयत्न, जाणरूघेणं-यान रूप से, जायमाणं-जाते हुए, अत्लेगइए-कोई एक, अभिलावेणं-अभिलाप से-कथन से, चउभंगो-चतुभंग, संजोएयव्वं-संयोग करना । ___ भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या भावितात्मा अनगार, वैक्रिय समुद् घात से समवहत होकर यान रूप से जाते हुए देव को जानते और देखते हैं ? १ उत्तर-हे गौतम ! कोई तो देव को देखते हैं, किन्तु यान को नहीं देखते हैं; कोई यान को देखते हैं, किन्तु देव को नहीं देखते हैं; कोई देव को भी देखते है और यान को भी देखते हैं और कोई देव को भी नहीं देखते और यान को भी नहीं देखते है। ___ २ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या भावितात्मा अनगार, वैक्रिय समुद्घात से समवहत यान रूप से जाती हुई देवी को जानते और देखते हैं ? ___ २ उत्तर-हे गौतम ! जैसा देव के विषय में कहा, वैसा ही देवी के विषय में भी जानना चाहिए। ३ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या भावितात्मा अनगार, वैक्रिय समुद्घात से समवहत यान रूप से जाते हुए देवी सहित देव को जानते और देखते हैं ? __३ उत्तर-हे गौतम ! कोई तो देवी सहित देव को देखते हैं, परन्तु यान को नहीं देखते हैं । इत्यादि चार भंग कहना चाहिए। ४ प्रश्न- हे भगवन् ! क्या भावितात्मा अनगार, वृक्ष के आन्तरिक भाग For Personal & Private Use Only Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७२ भगवती सूत्र-श. ३ उ. ४ अनगार की वैक्रिय शक्ति को देखते हैं या बाहरी भाग को देखते हैं ? ___४ उत्तर-हे गौतम ! यहाँ भी पूर्वोक्त प्रकार से चार भंग कहना चाहिए । इसी तरह क्या मूल को देखते हैं ? क्या कन्द को देखते हैं ? हे गौतम ! पहले की तरह चार भंग कहने चाहिए । क्या मूल को देखते हैं ? क्या स्कन्ध को देखते हैं ? हे गौतम ! यहाँ भी चार भंग कहना चाहिए। इस तरह मूल के साथ बीज तक संयुक्त करके कहना चाहिए । इसी प्रकार कन्द के साथ यावत् बीज तक कहना चाहिए । इसी तरह यावत् पुष्प का बीज तक संयोग करके कहना चाहिए। ५ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या भावितात्मा अनगार, वृक्ष के फल को देखते हैं, या बीज को देखते हैं ? ५ उत्तर-हे गौतम ! यहाँ भी पूर्वोक्त प्रकार से चार भंग कहना चाहिए। विवेचन-तीसरे उद्देशक में क्रिया के सम्बन्ध में कथन किया गया है । वह क्रिया ज्ञानियों के प्रत्यक्ष होती है । इसलिये अब उस क्रिया की विचित्रता का कथन इस चौथे उद्देशक में किया जाता है। यहाँ प्रश्न में अनगार के लिये 'भावितात्मा' विशेषण दिया गया है । इसका अभिप्राय यह है कि प्रायः करके तप संयम से भावितात्मावाले अनगारों को ही अवधिज्ञानादि लब्धियाँ होती हैं । प्रश्न यह किया गया है कि भावितात्मा अनगार, वैक्रिय रूप बनाकर विमात द्वारा जाते हुए देव को अपने ज्ञान द्वारा जानते हैं और दर्शन से देखते हैं ? इसके उत्तर में चौभंगी कही गई है, क्योंकि अवधिज्ञान की विचित्रता है । कोई अवधिज्ञानी, देव को देखता है, किंतु विमान को नहीं । कोई विमान को देखता है, किन्तु देव को नहीं। कोई देव और विमान दोनों को देखता है और कोई देव और विमान दोनों को ही नहीं देखता है । इसी तरह देवी की और देव सहित देवी की, प्रत्येक की चौभंगी कहनी चाहिए। इसी प्रकरण में मूल, कन्द यावत् बीज तक प्रश्न किये गये हैं । मूल आदि दस पद ये हैं:-मूल, कन्द, स्कन्ध, त्वचा (छाल), शाखा, प्रवाल (कोंपल), पत्र, पुष्प, फल, बीज।। इन दस पदों के द्विक संयोगी ४५ भंग होते हैं यथा१ मूल-कन्द (धड़) २ मूल-स्कन्ध (मोटा डाल) ३ मूल-छाल (त्वचा) ४ मूल For Personal & Private Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र- - श. ३ उ. ४ वायुकाय का वैक्रिय शाखा ( डाली ) ५ मूल-प्रवाल ( कोंपल ) ६ मूल-पत्र ७ मूल-पुष्प ८ मूल-फल ९ मूलबीज | १० कन्द-स्कन्ध ११ कन्द-छाल १२ कन्द - शाखा १३ कन्द-प्रवाल १४ कन्द-पत्र १५ कन्द - पुष्प १६ कन्द - फल १७ कन्द - बीज । १८ स्कन्ध - छाल १९ स्कन्ध - शाखा २० स्कन्ध - प्रवाल २१ स्कन्ध-पत्र २२ स्कन्ध - पुष्प २३ स्कन्ध - फल २४ स्कन्ध - बीज । २५ छाल - शाखा २६ छाल - प्रवाल २७ छाल - पत्र २८ छाल - पुष्प २९ छाल – फल ३० छाल - बीज । ३१ शाखा - प्रवाल ३२ शाखा - पत्र ३३ शाखा – पुष्प ३४ शाखा- फल ३५ शाखा - बीज । ३६ प्रवाल- पत्र ३७ प्रवाल- पुष्प ३८ प्रवाल- फल ३९ प्रवाल- बीज | ४० पत्र-पुष्प ४१ पत्र - फल ४२ पत्र - बीज । ४३ पुष्प फल ४४ पुष्प - बीज ४५ फल - बीज । इस ४५ ही पदों में से प्रत्येक पद को लेकर चौभंगी कहनी चाहिये । वायुकाय का वैक्रिय ६ प्रश्न - पभू णं भंते ! वाउकाए एगं महं इत्थिरूवं वा पुरिसरूवं वा हत्थिरूवं वा जाणरूवं वा एवं जुग्ग-गिल्लि - थिल्लि-सीयसंमाणियरूवं वा विउव्वित्तए ? ६ उत्तर - गोयमा ! णो इणट्ठे समट्ठे, वाउकाए णं विउव्वेमाणे एगं महं पडागासंठियरूवं विउब्वर । ६७३ ७ प्रश्न - पभू णं भंते! वाउकाए एगं महं पडागासंठियं रूवं विउब्वित्ता अगाई जोयणाई गमित्तए । ७ उत्तर - हंता, पभू । ८ प्रश्न - से भंते! किं आयइटीए गच्छछ, परिड्ढीए गच्छछ ? ८ उत्तर - गोयमा ! आयड्ढीए गच्छछ, णो परिड्ढीए गच्छछ, For Personal & Private Use Only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ३ उ. ४ वायुकाय का वैक्रिय जहा आयड्ढीए, एवं चेव आयकम्मुणा वि, आयप्पयोगेण वि भाणि - यव्वं । ९ प्रश्न - से भंते! किं ऊसिओदयं गच्छ्छ, पयओदयं गच्छछ ? ९ उत्तर - गोयमा ! ऊसिओदयं पि गच्छछ, पयओदयं पि गच्छइ ? १० प्रश्न - से भंते! किं एगओपडागं गच्छछ, दुहओपडागं गच्छइ ? १० उत्तर - गोयमा ! एगओपडागं गच्छइ, नो दुहओपडागं ६७४ गच्छइ । ११ प्रश्न - से णं भंते ! किं वाउंकाए पडागा ? ११ उत्तर - गोयमा ! वाउकाए णं से, णो खलु सा पडागा । कठिन शब्दार्थ - महं-बड़ा, जाणं- यान- शंकट - गाड़ी, जुग्ग-युग्य- वेदिका से युक्त दो हाथ लम्बा वाहन +, गिल्ली - हाथी की अंबाड़ी, थिल्ली - घोड़े का पलाण, लाट देश में इसे 'थिल्ली' कहते हैं, सीअ-शिविका - पालखी, संदमाणीय – स्यन्दमानिका - पुरुष जितनी लम्बाई वाला एक वाहन विशेष जिसको 'म्याना' कहते हैं, पडागा संठियं-पताका- ध्वजा के आकार, आयडीए - अपनी लब्धि से परिढीए-दूसरे की शक्ति से, आयप्पयोगेणआत्म प्रयोग से, ऊसिओषयं - उच्छितोदय - ऊँची उठी हुई, पयओवयं- नीचे गिरी हुई । भावार्थ - ६ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या वायुकाब एक बड़ा स्त्री रूप, पुरुष रूप, हस्ति रूप, यान रूप और इसी तरह युग्य (रिक्शागाडी) गिल्ली (अम्बारी) थिल्ली (घोडे का पलाण ) शिविका ( शिखर के आकार से ढका हुआ एक प्रकार + वर्तमान में सिंहलद्वीप ( सिलोन - कोलम्बो ) में 'गोल' नाम का एक तालुका (जिला ) है । उसमें प्राय: इस 'युग्य' सवारी का ही विशेष प्रचलन है, जिसको 'रिक्शागाड़ी' कहते हैं । For Personal & Private Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ३ उ. ४ वायुकाय का वैक्रिय का वाहन-पालखी) स्यन्दमानिका (म्याना) इन सब के रूपों की विकुर्वणा कर सकती है ? ६ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं हैं, अर्थात् वायुकाय, उपर्युक्त रूपों की विकुर्वगा नहीं कर सकती। किन्तु विकुर्वणा करती हुई वायुकाय, एक बडी पताका के आकार जैसे रूप की विकुर्वणा करती है। ७ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या वायुकाय, एक बडी पताका के आकार जैसे रूप को विकुर्वणा करके अनेक योजन तक गति कर सकती है ? ७ उत्तर-हाँ, गौतम ! वायुकाय ऐसा कर सकती है। ८ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या वह वायुकाय, आत्मऋद्धि से गति करती है, या परऋद्धि से गति करती है ? ८ उत्तर-हे गौतम ! वह वायुकाय, आत्म ऋद्धि से गति करती है, किन्तु परऋद्धि से गति नहीं करती। इसी तरह से वह आत्मकर्म से और आत्मप्रयोग से भी गति करती है । इस तरह कहना चाहिए। ९. प्रश्न-हे भगवन् ! क्या वह वायुकाय, उच्छित-पताका (उठी हुई ध्वजा) के आकार से गति करती है ? या पतित-पताका (पडी हुई ध्वजा.) के . आकार से गति करती है ? . ९ उत्तर-हे गौतम ! वह उच्छित-पताका और पतित-पताका, इन दोनों आकार से गति करती है। . १० प्रश्न-हे भगवन् ! क्या वायुकाय, एक दिशा में एक पताका के समान रूप बना कर गति करती है, या दो दिशाओं में दो पताका के समान रूप बना कर गति करती है ? १० उत्तर-हे गौतम ! वह वायुकाय, एक दिशा में एक पताका के आकार रूप बना कर गति करती है, किन्तु दो दिशाओं में पताका के आकार वाला रूप बना कर गति नहीं करती। ११ प्रश्न-हे भगवन् ! तो क्या वह वायुकाय, पताका है ? . For Personal & Private Use Only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७६ भगवती सूत्र-श. ३ उ. ४ मेघ का विविध रूपों में परिणमन ११ उत्तर-हे गौतम ! वह वायुकाय पताका नहीं हैं, किन्तु वायुकाय विवेचन-वैक्रिय शक्ति का प्रकरण चल रहा है, इसलिए उसीसे सम्बन्धित बात यहाँ कही जाती है। वायुकाय का स्वरूप 'पताका' के आकार है, इसलिए वैक्रिय अवस्था में भी वायु पताका के आकार ही रहती है । वह ऊँची पताका के आकार अर्थात् हवा से उड़ती हुई ध्वजा के आकार और पतित-पताका हवा से न उड़ती हुई ध्वजा, दोनों के आकार होकर गति करती है । वह एक दिशा में एक ध्वजा के आकार होकर गति करती है, किंतु दो दिशाओं में दो ध्वजा के आकार होकर गति नहीं करती। वह अपनी लब्धि द्वारा, अपनी क्रिया द्वारा और अपने प्रयोग द्वारा गति करती है, किन्तु परऋद्धि, परक्रिया और पर-प्रयोग द्वारा गति नहीं करती। वह शकट पालखी, पलाण, अम्बारी, स्यन्दमानिका (म्याना) के आकार रूप नहीं बना सकती। किन्तु वैक्रिय रूप बनाती हुई वायुकाय, पताका के आकार ही रूप बनाती है । मेघ का विविध रूपों में परिणमन १२ प्रश्न-पभू णं भंते ! बलाहए एगं महं इत्थिरूवं वा, जावसंदमाणियरूवं वा परिणामेत्तए ? १२ उत्तर-हंता, पभू। १३ प्रश्न-पभू णं भंते ! बलाहए एगं महं इत्थिरूवं परिणामेत्ता अणेगाइं जोयणाई गमित्तए ? १३ उत्तर-हंता, पभू। १४ प्रश्न-से भंते ! किं आयड्ढीए गच्छह, परिड्ढीए गच्छइ ? For Personal & Private Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ३ उ. ४ मेघ का विविध रूपों में परिणमन ६७७ १४ उत्तर-गोयमा ! णो आयड्ढीए गच्छइ, परिड्ढीए गच्छड्; एवं णो आयकम्मुणा, परकम्मुणा; णो आयप्पयोगेणं, परप्पयोगेणं ऊसिओदयं वा गच्छद, पययोदयं वा गच्छइ । १५ प्रश्न-से भंते ! किं बलाहए इत्थी ? १५ उत्तर-गोयमा ! बलाहए णं से, णो खलु सा इत्थी, एवं पुरिसे, आसे, हत्थी। __१६ प्रश्न-पभू णं भंते ! बलाहए एगं महं जाणरूवं परिणामेत्ता अणेगाइं जोयणाइं गमेत्तए ? . १६ उत्तर-जहा इत्थिरूवं तहा भाणियव्वं । णवरं-एगओ. चकवालं पि, दुहओचकवालं पि गच्छइ-भाणियव्वं । जुग्ग-गिल्लिथिल्लि-सीया-संदमाणियाणं तहेव । कठिन शब्दार्थ- (बलाहए) बलाहक-मेघ । (आसे) अश्व-घोड़ा । (चक्कवालं) चक्रवाल-पहिया। भावार्थ-१२ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या बलाहक (मेघ) एक बड़ा स्त्रीरूप यावत् स्यन्दमानिका रूप में परिणत होने में समर्थ है ? १२ उत्तर-हाँ, गौतम ! बलाहक ऐसा परिणत होने में समर्थ है। १३ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या बलाहक, एक बड़ा स्त्रीरूप बनकर अनेक योजन तक जा सकता है ? १३ उत्तर-हाँ, गौतम ! वह जा सकता है। १४ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या वह बलाहक, आत्मऋद्धि से गति करता है, या परऋद्धि से गति करता है ? . For Personal & Private Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७८ भगवती सूत्र-श. ३ उ. ४ मेघ का विविध रूपों में परिणमन १४ उत्तर-हे गौतम ! वह आत्मऋद्धि से गति नहीं करता, किन्तु परऋद्धि से गति करता है। इसी तरह आत्मकर्म (आत्म क्रिया) से और आत्मप्रयोग से गति नहीं करता, परन्तु परकर्म और पर-प्रयोग से गति करता है। वह उच्छित-पताका (ऊंची ध्वजा-हवा से उड़ती हुई ध्वजा) और पतित-पताका (हवा से नहीं उड़ती हुई ध्वजा-गिरी हुई ध्वजा) दोनों के आकार रूप से गति करता है। १५ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या वह बलाहक स्त्री है ? १५ उत्तर-हे गौतम ! वह बलाहक स्त्री नहीं है, परन्तु बलाहक (मेघ) है। जिस प्रकार स्त्री के सम्बन्ध में कहा, उसी तरह पुरुष, घोड़ा, हाथी के विषय में भी कहना चाहिये । अर्थात् वह बलाहक पुरुष, घोड़ा और हाथी नहीं है, किन्तु बलाहक (मेघ) है। १६ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या वह बलाहक, एक बड़ा यान (शकट-गाडी) का रूप बनकर अनेक योजन तक जा सकता है ? १६ उत्तर-हे गौतम ! जैसे स्त्रीरूप के सम्बन्ध में कहा उसी तरह यान के सम्बन्ध में भी कहना चाहिये। परन्तु इतनी विशेषता है कि वह यान (गाडी) के एक तरफ चक्र (पहिया) रख कर भी चल सकता है और दोनों तरफ चक्र रखकर भी चल सकता है। इसी तरह युग्य (रिक्शा गाडी) गिल्ली (अम्बारी) थिल्लि (घोडे का पलाण) शिविका (पालखी) सयन्दमानिका (म्याना) के रूपों के सम्बन्ध में भी जानना चाहिये। विवेचन-रूप बदलने की क्रिया का प्रकरण चल रहा है । इसलिए आकाश में मेघों के जो अनेक रूप दिखाई देते हैं, उनके विषय में कहा जाता है । मेघ अजीव होने से उसमें विकुर्वणा शक्ति नहीं है । इसलिये उसके लिये 'विउवित्तए' शब्द न देकर 'परिणामेत्तए' शब्द दिया है । क्यों कि स्वभाव रूप परिणाम तो मेघों में भी होता है। मेघ अचेतन है । इसलिये वह आत्म ऋद्धि, आत्मकर्म (आत्म क्रिया) और आत्म प्रयोग से गति नहीं करता, परन्तु वायु अथवा देवादि द्वारा प्रेरित होकर गति करता है । इसलिये कहा . गया है कि मेघ परऋद्धि, परकर्म (पर क्रिया) और पर प्रयोग से गति. करता है । For Personal & Private Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ३ उ. ४ उत्पन्न होने वाले जीवों की लेश्या जैसा स्त्री के रूप के सम्बन्ध में कहा गया है वैपा ही युग्य, गिल्लि, थिल्लि, शिविका और सयन्दमानिका इन सब के रूप परिणमन सम्बन्धी सूत्र कहना चाहिये । केवल यान ( शकट - गाड़ी) के विषय में विशेषता है। जो कि ऊपर सूत्र द्वारा कही गई है। क्योंकि चक्र ( पहिया ) सिर्फ गाड़ी के ही होता है । युग्य, गिल्लि, थिल्लि आदि के पहिया नहीं होता, इसलिये उनका कथन तो स्त्री रूप परिणमन के समान ही कहना चाहिये । उत्पन्न होनेवाले जीवों की लेश्या ६७९ १७ प्रश्न - जीवे णं भंते ! जे भविए नेरइएसु उववज्जित्तए से णं भंते ! किं लेसेसु उववज्जइ ? १७ उत्तर - गोयमा ! जल्लेसाई दव्वाई परियाइत्ता कालं करेह, तल्लेसेसु उववज्जइ, तं जहा - कण्हलेसेसु वा णीललेसेसु वा, काउलेने वा; एवं जस्स जा लेस्सा सा तस्स भाणियव्वा । १० प्रश्न - जाव - जीवे णं भंते ! जे भविए जोइसिएस उववजित्तए पुच्छा ? १८ उत्तर - गौयमा ! जल्लेसाई दव्वाई परियाहत्ता कालं करेह तल्लेसेसु उववज्जइ, तं जहा - तेउलेसेसु । १९ प्रश्न - जीवे णं भंते ! जे भविए वेमाणिएंसु उववज्जित्तए से णं भंते! किं लेसेसु उववज्जइ ? १९ उत्तर - गोयमा ! जल्लेसाई दव्वाईं परियाइत्ता कालं करेइ तल्लेसेसु उववज्जइ, तं जहा - तेउलेसेसु वा, पम्हलेसेसु वा सुक्क For Personal & Private Use Only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८० लेसेसु वा । योग्य भगवती सूत्र - श. ३ उ. ४ उत्पन्न होनेवाले जीवों की लेश्या कठिन शब्दार्थ - जलेसाई - जिस लेश्या के, परियाइत्ता ग्रहण करके, भविए होने भावार्थ - १७ प्रश्न - हे भगवन् ! जो जीव, नैरयिकों में उत्पन्न होने योग्य । वह कैसी लेश्यावालों में उत्पन्न होता है ? है १७ उत्तर - हे गौतम! जीव, जैसी लेश्या के द्रव्यों को ग्रहण करके काल करता है, वैसी ही लेश्यावालों में वह उत्पन्न होता है। वे इस प्रकार हैं- कृष्ण लेश्या, नील लेश्या और कापोत लेश्या । इस तरह जिसकी जो लेश्या हो, उसकी वह लेश्या कहनी चाहिए। यावत् व्यन्तर देवों तक कहना चाहिए । १८ प्रश्न - हे भगवन् ! जो जीव, ज्योतिषी देवों में उत्पन्न होने योग्य होता है, वह कैसी लेश्यावालों में उत्पन्न होता है ? १८ उत्तर - हे गौतम! जो जीव, जैसी लेश्या के द्रव्यों को ग्रहण करके काल करता है वह वैसी ही लेश्या वालों में उत्पन्न होता है । यथा- एक तेजोलेश्या । १९ प्रश्न - हे भगवन् ! जो जीव, वैमानिक देवों में उत्पन्न होने योग्य होता है, वह कैसी लेश्यावालों में उत्पन्न होता है ? १९ उत्तर - हे गौतम! जो जीव जैसी लेश्या के द्रव्यों को ग्रहण करके काल करता है, वह वैसी ही लेश्या वालों में उत्पन्न होता है । यथा-तेजो लेश्या, पद्म लेश्या और शुक्ल लेश्या । विवेचन - परिणमन ( परिवर्तन) सम्बन्धी प्रकरण चल रहा है, इसलिये उसी के सम्बन्ध में दूसरी बात कही जाती है । जिससे आत्मा, कर्मों के साथ रिलष्ट होती है, उसे 'लेश्या' कहते हैं । लेश्या के सम्बन्ध में कहा जा रहा है। जिस किसी भी लेश्या के द्रव्यों को भाव परिणाम पूर्वक ग्रहण करके ही अर्थात् आत्मा में अमुक नियत लेश्या का असर होने के पश्चात् ही जीव मरण को प्राप्त होता है और जिस लेश्या के द्रव्य ग्रहण किये होते है, उसी लेश्यावाले नारक आदि में जीव उत्पन्न होता है। जैसा कि कहा है For Personal & Private Use Only www.jalnelibrary.org Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ३ उ. ४ अनगार की पर्वत लांघने की शक्ति · ६८१ सव्वाहि लेसाहिं पढमे समयम्मि संपरिणयाहि । नो कस्स वि उववाओ परे भवे अस्थि जीवस्स ।। सव्वाहि लेसाहिं चरिमे समयम्मि संपरिणयाहि । म वि कस्स वि उववाओ परे भवे अत्थि जीवस्स ॥ अंतमुत्तम्मि गये अंतमुहुत्तम्मि सेसए चेव । लेसाहिं परिणयाहिं जीवा गच्छंति परलोयं ॥ अर्थ-जिस समय लेश्या के परिणाम का प्रथम समय होता है, उस समय किसी भी जीव का परभव में उपपात (जन्म) नहीं होता और जिस समय लेश्या के परिणाम का अन्तिम समय होता है, उस समय भी किसी भी जीव का परभव में उपपात नहीं होता। लेश्या के परिणाम को अन्तर्मुहूर्त बीत जाने पर और अन्तर्मुहूर्त शेष रहने पर-जीव, परलोक में जाते हैं। मूल में नारक सम्बन्धी सूत्र कह कर फिर ‘एवं' शब्द से चौबीस दण्डकों में से जो दण्डक शेष रहे हैं, उन सब का अतिदेश हो जाता है, तथापि ज्योतिषी और वैमानिक देवों के लिये जो अलग सूत्र कहा गया है, इसका कारण यह है कि ज्योतिषी और वैमानिक देवों में प्रशस्त (उत्तम) लेश्या होती है । इस बात को दिखलाने के लिये अलग सूत्र कहा गया है । अथवा विचित्रत्वात् सूत्रगतेः' अर्थात् सूत्र की गति विचित्र होती है। अतः ज्योतिषी और वैमानिक देवों का अलग कथन किया गया है। अनगार को पर्वत लाँघने को शक्ति २० प्रश्न-अणगारे णं भंते ! भावियप्पा बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता पभू वेभारं पव्वयं उल्लंघेत्तए वा, पल्लंघेत्तए वा ? २० उत्तर-गोयमा ! णो इणटे समटे ।। २१ प्रश्न-अणगारे णं भंते ! भावियप्पा बाहिरए पोग्गले परियाइत्ता पभू वेभार पव्वयं उल्लंघेत्तए वा, पल्लंघेत्तए वा । For Personal & Private Use Only Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८२ भगवती सूत्र - अ. ३ उ. ४ अनगार की पर्वत लाँघने की शक्ति २१ उत्तर - हंता, पभू । २२ प्रश्न - अणगारे णं भंते! भावियप्पा बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता जावइयाई रायगिहे णयरे रुवाई, एवइयाई विउब्वित्ता वेभारं पव्वयं अतो अणुष्पविसित्ता प्रभू समं वा विसमं करेत्तए, विसमं वा समं करेत्तर ? २२ उत्तर - गोयमा ! णो इणट्टे समट्टे, एवं चेव बिईओ वि आलावगो, णवरं - परियाइत्ता पभू । कठिन शब्दार्थ - पल्लंघेत्तए - प्रलंघना - विशेष रूप से अथवा बारबार लांघना, अपरियाइत्ता - लिये बिना ही । भावार्थ - २० प्रश्न - हे भगवन् ! क्या भावितात्मा अनगार, बाहर के पुद्गलों को ग्रहण किये बिना वैभार पर्वत को उल्लंघ सकता है और प्रलंघ सकता है ? २० उत्तर- - हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । २१ प्रश्न न - हे भगवन् ! क्या भावितात्मा अनगार, बाहर के पुद्गलों को ग्रहण करके वैमार पर्वत को उल्लंघ सकता है और प्रलंघ सकता है ? २१ उत्तर - हाँ, गौतम ! वह वैसा कर सकता है । २२ प्रश्न-- - हे भगवन् ! क्या भावितात्मा अनगार, बाहर के पुद्गलों को ग्रहण किये बिना ही राजगृह नगर में जितने रूप हैं, उतने रूपों की विकुर्वणा करके और वैभार पर्वत में प्रवेश करके, सम पर्वत को विषम कर सकता है ? अथवा विषम पर्वत को सम कर सकता है ? २२ उत्तर - हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है अर्थात् वह बाहर के पुद्गलों को ग्रहण किये बिना ऐसा नहीं कर सकता है । इसी तरह दूसरा आलापक भी कहना चाहिये, किन्तु इतनी विशेषता For Personal & Private Use Only Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ३ उ. ४ प्रमादी मनुष्य विकुर्वणा करते हैं ६८३ है कि वह बाहर के पुद्गलों को ग्रहण करके पूर्वोक्त प्रकार से कर सकता है । विवेचन-पहले के प्रकरण में देवों के लेश्या-परिणाम के सम्बन्ध में कहा है। अब आगे के प्रकरण में भव्य-द्रव्य-देवरूप अनगारों द्वारा कृत पुद्गल परिणाम को सूचित किया जाता है। __ कोई भी भावित आत्मा अनगार, बाहरी अर्थात् औदारिक शरीर से भिन्न वैक्रिय पुद्गलों को ग्रहण किये बिना राजगृह नगर के समीपस्थ क्रीड़ा स्थल रूप वैभार पर्वत को उल्लंघन (एक बार उल्लंघना) और प्रलंघन (बार बार उल्लंघन करना) नहीं कर सकता। इसका कारण यह है कि वैक्रिय पुद्गलों को ग्रहण किये बिना वैक्रिय शरीर बन नहीं सकता और पर्वत का उल्लंघन करने वाले मनुष्य का शरीर पर्वतातिकमी बड़ा वैक्रिय शरीर हुए निना पर्वत का उल्लंघन और प्रलंघन नहीं हो सकता और इतना बड़ा वैक्रिय शरीर बाहरी वैक्रिय पुद्गलों को ग्रहण किये बिना बन ही नहीं सकता है। इसलिये बाहरी वैक्रिय पुद्गलों को ग्रहण करने के पश्चात् ही वह पर्वत का उल्लंघन और प्रलंघन करने में समर्थ होता है। प्रमादी मनुष्य विकुर्वणा करते हैं २३ प्रश्न-से भंते ! किं माई विउब्वइ, अमाई विउब्वइ ? २३ उत्तर-गोयमा ! माई विउव्वइ, णो अमाई विउव्वइ । २४ प्रश्न-से कणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ, जाव-णो अमाई विउव्वइ ? २४ उत्तर-गोयमा ! माई णं पणीयं पाण-भोयणं भोच्चा भोचा वामेइ, तस्स णं तेणं पणीएणं पाणभोयणेणं अट्ठि-अट्ठिः मिंजा बहलीभवंति, पयणुए मंस-सोणिए भवइ; जे वि य से अहाबायरा पोग्गला ते वि य से परिणमंति, तं जहा-सोइंदियत्ताए, For Personal & Private Use Only Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८४ भगवती सूत्र-श. ३ उ.४ प्रमादी मनुष्य विकुर्वणा करते हैं M जाव-फासिंदियत्ताए; अट्ठि अट्ठिमिंज-केस-मंसु-रोमणहत्ताए सुक्कताए, सोणियत्ताए । अमाई णं लूहं पाण-भोयणं भोचा भोचा णो वामेइ, तस्स णं तेणं लूहेणं पाण-भोयणेणं अद्वि-अद्विमिंजा पयणुभवंति, बहले मंस-सोणिए; जे वि य से अहाबायरा पोग्गला ते वि य से परिणमंति, तं जहा-उच्चारत्ताए पासवणत्ताए, जावसोणियत्ताए, से तेणटेणं जाव-णो अमाई विउव्वइ । -माई णं तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिक्कंते कालं करेइ, णत्थि तस्स आराहणा । अमाई णं तस्स ठाणस्स आलोइयपडिकंते कालं करेइ, अत्थि तस्स आराहणा। -सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति । । ॥ चउत्थो उद्देसो सम्मत्तो ॥ कठिन शब्दार्थ-पणीयं-प्रणीत-घृतादि रस से भरपूर, वामेइ-वमन करता है, बहली भवंति-धन-दृढ़ होती है, पयणुए-पतले, अहाबायरा-यथा बादर, सुक्कत्ताए-शुक्र-वीर्य के रूप में, लुहेणं-रुक्ष-लूखा, अणालोइयपडिक्कते-आलोचना और प्रतिक्रमण किये बिना, आराहणा-आराधना। २३ प्रश्न- हे भगवन् ! क्या मायो (प्रमत) मनुष्य विकुर्वणा करता है ? या अमायी (अप्रमत्त) विकुर्वणा करता है ? २३ उत्तर-हे गौतम ! मायो (प्रमत्त) मनुष्य विकुर्वणा करता है, किंतु अमायी (अप्रमत्त) मनुष्य विकुर्वणा नहीं करता। ___२४ प्रश्न-हे भगवन् ! मायी मनुष्य विकुर्वणा करता है और अमायो मनुष्य विकुर्वणा नहीं करता, इसका क्या कारण है ? For Personal & Private Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ३ उ. ४ प्रमादी मनुष्य विकुर्वणा करते हैं २४ उत्तर - हे गौतम ! मायी मनुष्य प्रणीत ( सरस ) पान भोजन करता है । इस प्रकार बार बार प्रणीत पान भोजन करके वमन करता है । उस प्रणीत पान भोजन द्वारा उसकी हड्डियाँ और हड्डियों में रही हुई मज्जा, घन ( गाढ़ ) होती है। उसका रक्त और मांस प्रतनु होता है । उस भोजन के जो यथा - बादर पुद्गल होते हैं, उनका उस उस रूप में परिणमन होता है । यथा -- श्रोत्रेन्द्रिय रूप में यावत् स्पर्शनेन्द्रिय रूप में परिणमन होता है । तथा हड्डियाँ, हड्डियों की मज्जा, केश, श्मश्रु, रोम, नख, वीर्य और रक्त रूप में परिणमते हैं । अमायी मनुष्य तो रुक्ष ( रूखा सूखा ) पान भोजन करता है और ऐसा भोजन करके वह वमन नहीं करता । उस रूखे सूखे भोजन द्वारा उसकी हड्डियाँ और हड्डियों की मज्जा प्रतनु ( पतली ) होती है और उसका रक्त और माँस घन ( गाढ़ा ) होता है । उस आहार के जो यथाबादर पुद्गल होते हैं, उनका परिणमन उच्चार ( विष्ठा) प्रश्रवण (मूत्र) यावत् रक्त रूप से होता है। इस कारण से वह अमायी मनुष्य, विकुर्वणा नहीं करता । माय मनुष्य अपनी की हुई प्रवृत्ति की आलोचना और प्रतिक्रमण किये बिना यदि काल कर जाय तो उसके आराधना नहीं होती, किन्तु अपनी की हुई प्रवृत्ति का पश्चात्ताप करने से अमायी बना हुआ वह मनुष्य यदि आलोचना और प्रतिक्रमण करके काल करता है, तो उसके आराधना होती है । ६८५ सेवं भंते ! सेवं भंते !! हे भगवन् ! यह इसी तरह है । हे भगवन् ! यह इसी तरह है । ऐसा कह कर यावत् गौतम स्वामी विचरते हैं । : विवेचन – आगे मायी और अमायी के सम्बन्ध में कथन किया गया है । यहाँ मायी का अर्थ 'प्रमत्त मनुष्य' लेना चाहिये, क्योंकि अप्रमत्त मनुष्य वैक्रिय नहीं करता है । प्रमत्तः मनुष्य वर्ण, गन्धादि के लिये तथा शारीरिक बल, वृद्धि आदि के लिये विक्रिया स्वभाव रूप प्रणीत ( गरिष्ठ) भोजन करता है । और उसका वमन विरेचन करता है । इससे वैक्रियकरण भी होता है । वह गरिष्ठ भोजन के पुद्गलों को श्रोत्रेन्द्रिय आदि रूप में परिणमाता है । इसीसे उसके शरीर में रक्त मांस आदि की वृद्धि होती है और शरीर दृढ़ और पुष्ट बनता है । अमायी (अप्रमत्त) मनुष्य विक्रिया करने का इच्छुक नहीं होता । इसलिये For Personal & Private Use Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८६ भगवती सूत्र-श. ३ उ. ५ अनगार की विविध प्रकार की वैक्रिय शक्ति वह प्रणीत (गरिष्ट) आहार आदि नहीं करता, किन्तु रूखा, सूखा आहार करता है और वह उसके उच्चार, प्रश्रवण आदि रूप में परिणत होता है। जिस अनगार ने पहले मायी (प्रमत्त) होने के कारण वैक्रिय रूप बनाया था अथवा प्रणीत भोजन किया था, तत्पश्चात् वह उस विषयक पश्चाताप करने से अमायी (अप्रमत्त) हो जाता है और फिर वह आलोचना और प्रतिक्रमण करने के पश्चात् काल करता है, तो वह आराधक होता है। . ॥ इति तीसरे शतक का चौथा उद्देशक समाप्त ॥ शतक ३ उद्देशक ५ अनगार की विविध प्रकार की वैक्रिय शक्ति १ प्रश्न-अणगारे णं भंते ! भावियप्पा बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता पमू एगं महं इत्थीरूवं वा, जाव-संदमाणियरूवं वा विउवित्तए ? , १ उत्तर-णो इणटे समटे । २ प्रश्न-अणगारे णं भंते ! भावियप्पा बाहिरए पोग्गले परियाइत्ता पभू एगं महं इत्थीरूवं वा, जाव-संदमाणियरूवं वा विउवित्तए ? २ उत्तर-हंता, पभू। For Personal & Private Use Only Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ३ उ. ५ अन गार की विविध प्रकार की वैक्रिय शक्ति ६८७ ३ प्रश्न-अणगारे णं भंते ! भावियप्पा केवइयाइं पभू इथिरूवाइं विउवित्तए ? ____३ उत्तर-गोयमा ! से जहा णामए जुवई जुवाणे हत्थेणं हत्थे गेण्हेजा, चक्कस्स वा णाभी अरगाउत्ता सिया, एवामेव अणगारे वि भावियप्पा वेउव्वियसमुग्घाएणं समोहणइ, जाव-पभू णं, गोयमा ! अणगारे णं भावियप्पा केवलकप्पं जंबूदीवं दीवं बहूहिं इत्थिरूवेहिं आइण्णं, वितिकिण्णं, जाव-एस णं गोयमा ! अणगा. रस्स भावियप्पणो अयमेयारूवे विसए, विसयमेत्ते बुइए, णो चेव णं संपत्तीए विउठिबसु वा, विउबिति वा, विउव्विस्संति वा-एवं परिवाडीए णेयव्यं, जाव-संदमाणिया । ____ कठिन शब्दार्थ-अपरियाहत्ता-लिये बिना, केवइयाइं-कितने, अयमेयारूवे-इसी प्रकार, परिवाडीए-परिपाटी पूर्वक-क्रमपूर्वक । भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या भावितात्मा अनगार, बाहर के पुदगल ग्रहण किये बिना एक बड़ा स्त्रीरूप यावत् स्यन्दमानिका रूप की विकुर्वणा कर सकता है ? १ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । अर्थात् वह ऐसा नहीं कर सकता। २ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या भावितात्मा अनगार, बाहर के पुद्गलों को ग्रहण करके एक बड़ा स्त्रीरूप यावत् स्यन्दमानिका रूप की विकुर्वणा कर सकता २ उत्तर-हाँ, गौतम ! वह वैसा कर सकता है। ३ प्रश्न-हे भगवन् ! भावितात्मा अनगार, कितने स्त्री रूपों की विकु For Personal & Private Use Only Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८८ भगवती सूत्र-श. ३ उ. ५ अनगार की विविध प्रकार की वैक्रिय शक्ति + + + र्वणा कर सकते हैं ? ३ उत्तर-हे गौतम ! युवति युवा के दृष्टान्त से तथा आराओं से युक्त पहिये की धुरी के दृष्टान्त से भावितात्मा अनगार वैक्रिय समुद्घात से समवहत होकर सम्पूर्ण एक जम्बुद्वीप को, बहुत से स्त्रीरूपों द्वारा आकीर्ण व्यतिकीर्ण यावत् कर सकता है अर्थात् ठसाठस भर सकता है । हे गौतम ! भावितात्मा अनगार का यह मात्र विषय है, परन्तु इतना वैक्रिय कभी किया नहीं, करता नहीं और करेगा भी नहीं । इस प्रकार क्रमपूर्वक यावत् स्यन्दमानिका सम्बन्धी रूप बनाने तक कहना चाहिए । विवेचन-चौथे उद्देशक में विकुर्वणा के सम्बन्ध में वर्णन किया गया है। और इस पांचवें उद्देशक में भी विकुर्वणा विषयक ही वर्णन किया जाता है। .. उपर्युक्त प्रश्नोत्तरों में वैक्रिय द्वारा बनाये जानेवाले नाना रूपों का वर्णन किया गया है। भावितात्मा अनगार भी विक्रिया द्वारा नाना रूप बना सकता है । ४ प्रश्न-से जहा णामए केइ पुरिसे असि-चम्मपायं गहाय गच्छेजा, एवामेव अणगारे वि भावियप्पा असि-चम्मपायहत्थकिचगएणं अप्पाणेणं उड्ढं वेहासं उप्पइजा ? ४ उत्तर-हंता, उप्पइन्जा। ५ प्रश्न-अणगारे णं भंते ! भावियप्पा केवइयाइं पभ, असिचम्मपायहत्यकिचगयाइं रूवाई विउवित्तए ? ५ उत्तर-गोयमा ! से जहा णामए जुवई जुवाणे हत्थेणं हत्थे गेण्हेजा, तं चेव जाव-विउव्विसु वा, विउव्वंति वा, विउव्विस्संति वा। For Personal & Private Use Only Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ३ उ. ५ अनगार की विविध प्रकार की वैक्रिय शक्ति ६८९ कठिन शब्दार्थ - असिचम्मपायं - तलवार और ढाल अथवा म्यान, किच्चगएणंकिसी कार्यवश । भावार्थ- - ४ प्रश्न - हे भगवन् ! जैसे कोई पुरुष, हाथ में तलवार और ढाल अथवा म्यान लेकर जाता है, क्या उसी प्रकार कोई भावितात्मा अनगार भी उस पुरुष की तरह किसी कार्य के लिए स्वयं आकाश में ऊंचे उड़ सकता है ? ४ उत्तर - हाँ, गौतम ! उड़ सकता है । ५ प्रश्न - हे भगवन् ! भावितात्मा अनगार तलवार और ढाल लिये हुए पुरुष के समान कितने रूप बना सकता है ? ५ उत्तर - हे गौतम ! युवति युवा के दृष्टान्त से यावत् सम्पूर्ण एक जम्बूद्वीप को ठसाठस भर सकता है, किन्तु कभी इतने वेक्रिय रूप बनाये नहीं, बनाता नहीं और बनावेगा भी नहीं । ६ प्रश्न - से जहा णामए केइ पुरिसे एगओपडागं काउं गच्छेजा वामेव अणगारे वि भावियप्पा एगओपडागाहत्थकिञ्चगएणं अप्पा - णं उड्ढं वेहासं उप्पएज्जा ? ६ उत्तर - हंता, गोयमा ! उप्पएज्जा । ७ प्रश्न - अणगारे णं भंते ! भावियप्पा केवइयाई पभू एगओपडागाहत्थकिच्चगयाई रुवाई विउव्वित्तए ? ७ उत्तर - एवं चैव जाव - विउव्विंसु वा, विउब्वंति वा, विउव्विस्संति वा । एवं दुहओपडागं पि । भावार्थ - ६ प्रश्न - हे भगवन् ! जैसे कोई पुरुष, हाथ में एक पताका लेकर For Personal & Private Use Only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९० भगवती सूत्र-श. ३ उ. ५ अनगार की विविध प्रकार की वैक्रिय शक्ति गमन करता है, क्या उसी तरह से भावितात्मा अनगार भी हाथ में पताका लिए हुए पुरुष के समान रूप बना कर स्वयं ऊपर आकाश में उड़ सकता है ? ६ उत्तर-हाँ, गौतम ! उड़ सकता है। ७ प्रश्न-हे भगवन् ! भावितात्मा अनगार, हाथ में पताका लेकर गमन करने वाले पुरुष के समान कितने रूप बना सकता है ? ७ उत्तर-हे गौतम ! पहले कहा वैसे ही जानना चाहिए अर्थात् वह ऐसे रूपों से सम्पूर्ण एक जम्बूद्वीप को ठसाठस भर देता है, यावत् परन्तु कभी इतने रूप बनाये नहीं, बनाता नहीं और बनायेगा भी नहीं । इसी तरह दोनों तरफ पताका लिये हुए पुरुष के रूप के सम्बन्ध में कहना चाहिए। ८ प्रश्न-से जहा णामए केइ पुरिसे एगओजण्णोवइयं काउं गच्छेजा, एवामेव अणगारे णं भावियप्पा एगओजण्णोवइयकिच्चगएणं अप्पाणेणं उड्ढं वेहासं उप्पएजा ? ८ उत्तर-हंता, उप्पएजा। - ९ प्रश्न-अणगारे णं भंते ! भावियप्पा केवइयाइं पभू एगओ. जण्णोवइयकिचगयाइं रूवाइं विउवित्तए ? ____९ उत्तर-तं चेव जाव विउव्विसुवा, विउव्वंति वा, विउन्विसंति वा । एवं दुहओजण्णोवइयं पि । कठिन शब्दार्थ-जण्णोवइयं-जनेऊ । भावार्थ-८ प्रश्न-हे भगवन् ! जैसे कोई पुरुष एक तरफ जनेऊ (यज्ञो. पवीत)पहन कर गमन करता है। क्या उसी तरह भावितात्मा अनगार भी एक तरफ जनेऊ (यज्ञोपवीत) पहने हुए पुरुष की तरह रूप बना कर ऊपर For Personal & Private Use Only Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ३ उ. ५ अनगार की विविध प्रकार की वैक्रिय शक्ति ६९१ आकाश में उड़ सकता है ? ८ उत्तर-हाँ, गौतम ! उड़ सकता है। ९ प्रश्न-हे भगवन् ! भावितात्मा अनगार, एक तरफ जनेऊ धारण करने वाले पुरुष के समान कितने रूप बना सकता है ? ९ उत्तर-हे गौतम ! पहले कहे अनुसार जानना चाहिए अर्थात् वह . ऐसे रूपों से सम्पूर्ण एक जम्बूद्वीप को ठसाठस भर देता है, यावत् परन्तु कभी इतने रूप बनाये नहीं, बनाता नहीं और बनायेगा भी नहीं। १० प्रश्न-से जहा णामए केइ पुरिसे एगओपल्हस्थिय काउं चिद्वेजा, एवामेव अणगारे वि भावियप्पा • ? १० उत्तर-एवं चेव जाव-विउव्विसु वा, विउव्वंति वा, विउ. विस्संति वा; एवं दुहओपल्हत्थियं पि। ११ प्रश्न-से जहा णामए केइ पुरिसे एगओपलियंकं काउं चिडेजा ? .... ११ उत्तर-तं चेव जाव-विउव्दिसु वा, विउव्वंति वा, विउवि. स्संति वा; एवं दुहओपलियकं पि । कठिन शब्दार्थ-पल्हत्थियं-पलाठी, पलियंक-पर्यङ्कासन । भावार्थ-१० प्रश्न-हे भगवन् ! जैसे कोई पुरुष, एक तरफ पलाठी लगाकर बैठे, इसी तरह क्या भावितात्मा अनगार भी उस पुरुष के समान रूप बनाकर स्वयं आकाश में उड़ सकता है ? ___ १० उत्तर-हे गौतम ! पहले कहे अनुसार जानना चाहिये । यावत् इतने रूप कभी बनाये नहीं, बनाता नहीं और बनायेगा भी नहीं । इसी तरह . For Personal & Private Use Only Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९२ भगवती सूत्र-श. ३ उ. ५ अनगार के अश्वादि रूप दोनों तरफ पलाठी लगानेवाले पुरुष के रूप के सम्बन्ध में भी जानना चाहिए। ११ प्रश्न-हे भगवन् ! जैसे कोई पुरुष एक तरफ पर्यङ्कासन करके बैठे, उसी तरह भावितात्मा अनगार भी उस पुरुष के समान रूप बनाकर स्वयं आकाश में उड़ सकता है ? ११ उत्तर-हे गौतम ! पहले कहे अनुसार जानना चाहिये, यावत् इतने रूप कभी बनाये नहीं, बनाता नहीं और बनावेगा भी नहीं। इसी तरह दोनों तरफ पर्यङ्कासन करके बैठे हुए पुरुष के सम्बन्ध में भी जानना चाहिये। .. अनगार के अश्वादि रूप १२ प्रश्न-अणगारे णं भंते ! भावियप्पा बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता पभू एगं महं आसरूवं वा, हत्थिरूवं वा, सीहरूवं वा, वग्घरूवं वा, विगरूवं वा, दीवियरूवं वा, अच्छरूवं वा, तरच्छरूवं परासररूवं वा अभिजित्तए ? १२ उत्तर-णो इणटे समटे । - १३ प्रश्न-अणगारे णं . ? १३ उत्तर-एवं बाहिरए पोग्गले परियाइत्ता पभू । १४ प्रश्न-अणगारे णं भंते ! भावियप्पा एगं महं आसरूवं वा अभिजुंजित्ता अणेगाइं जोयणाई पभू गमित्तए ? १४ उचर-हंता, पभू। १५ प्रश्न-से भंते ! किं आयड्ढीए गच्छ, परिड्डीए गच्छइ ? . For Personal & Private Use Only Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ३ उ. ५ अनगार के अश्वादि रूप ६९३ . ___ १५ उत्तर-गोयमा ! आयड्ढीए गच्छइ, णो परिड्ढिए; एवं आयकम्मुणा, णो परकम्मुणा, आयप्पओगेणं, णो परप्पओगेणं । उस्सिओदयं वा गच्छइ, पयओदयं वा गच्छइ । १६ प्रश्न-से णं भंते ! किं अणगारे आसे ? __१६ उत्तर-गोयमा ! अणगारे णं से, णो खलु से आसे; एवं जाव परासररूवं वा। कठिन शब्दार्थ--आसरूवं--अश्वरूप, अभिमुंजित्ता-संयुक्त करके । भावार्थ-१२ प्रश्न-है भगवन् ! क्या भावितात्मा अनगार, बाहर के पुद्गलों को ग्रहण किये बिना घोड़ा, हाथी, सिंह, व्याघ्र, वृक (भेडिया) द्वीपी (गेंडा) रीछ, तरच्छ (चीता) और पराशर (शरभ.-अष्टापद) आदि के रूप बना सकता है ? १२ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है अर्थात् बाहर के पुद्गलों को ग्रहण किये बिना उपर्युक्त रूप नहीं बना सकता। ...... १३ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या भावितात्मा अनगार, बाहर के पुदगलों को ग्रहण करके उपर्युक्त रूप बना सकता है ? १३ उत्तर-हे गौतम ! बाहर के पुद्गलों को ग्रहण करके वह मावितात्मा अनगार उपर्युक्त रूपों को बना सकता है। १४ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या भावितात्मा अनगार, एक महान् अंश्व का रूप बनाकर अनेक योजन तक जा सकता है ? १४ उत्तर--हां, गौतम ! वह वैसा कर सकता है। १५ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या वह भावितात्मा अनगार, आत्म ऋद्धि से जाता है, या परऋद्धि से जाता है ? १५ उत्तर-हे गौतम ! आत्मऋद्धि से जाता है, किन्तु. परऋद्धि से For Personal & Private Use Only Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९४ भगवती सूत्र-श. ३ उ. ५ अनगार के अश्वादि रूप नहीं जाता। इसी तरह आत्म-कर्म (आत्म-क्रिया) और आत्म-प्रयोग से जाता है, किन्तु पर-कर्म और पर-प्रयोग से नहीं जाता । वह सीधा (खड़ा) भी जा सकता है और इसे विपरीत (गिरा हुआ) भी जा सकता है। १६ प्रश्न-हे भगवन् ! इस तरह का रूप बनाया हुआ वह भावितात्मा अनगार, क्या अश्व कहलाता है ? १६ उत्तर-हे गौतम ! वह अनगार है, परन्तु अश्व नहीं। इसी तरह यावत् पराशर (शरभ-अष्टापद)तक के रूपों के सम्बन्ध में भी कहना चाहिये । १७ प्रश्न-से भंते ! किं माई विउव्वइ, अमाई वि विउव्वइ ! १७ उत्तर-गोयमा ! माई विउव्वइ, णो अमाई विउव्वइ । १८ प्रश्न-माई णं भंते ! तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिक्कते कालं करेइ, कहिं उववजह ? ___ १८ उत्तर-गोयमा ! अण्णयरेसु आभिओगेसु देवलोएसु देवताए उववजइ। ___ १९ प्रश्न-अमाई णं भंते ! तस्स ठाणस्स आलोइय-पडिक्कते कालं करेइ, कहिं उववजह ? १९ उत्तर-गोयमा ! अण्णयरेसु अणाभिओगिएसु देवलोएसु देवत्ताए उववजह। -सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति। For Personal & Private Use Only Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ३ उ. ५ अनगार के अश्वादि रूप गाहा-इत्थी असी पडागा जण्णोवइए य होइ बोधव्वे, पल्हथिय पलियंके अभिओग विकुव्वणा माई । ॥ तइयसए पंचमो उद्देसो सम्मत्तो॥ कठिन शब्दार्थ-मायी-प्रमादी, आभियोगिक-सेवक, अमायो-अप्रमत्त । भावार्थ-१७ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या मायी अनगार, विकुर्वणा करता , है, या अमायी अनगार, विकुर्बणा करता है ? १७ उत्तर-हे गौतम ! मायी अनगार, विकुर्वणा करता है, किन्तु अमायी अनगार, विकुर्वणा नहीं करता। . १८ प्रश्न- हे भगवन् ! पूर्वोक्त प्रकार से विकुर्वणा करने के पश्चात् उस सम्बन्धी आलोचना और प्रतिक्रमण किये बिना यदि वह विकुर्वणा करने वाला मायी अनगार, काल करे तो कहाँ उत्पन्न होता है ? १८ उत्तर-हे गौतम ! वह अनगार, किसी एक प्रकार के आभियोगिक देवलोकों में देवरूप से उत्पन्न होता है। १९ प्रश्न-हे भगवन् ! पूर्वोक्त प्रकार की विकुर्वणा सम्बन्धी आलोचना और प्रतिक्रमण करके जो अमायो साधु, काल करे तो कहाँ उत्पन्न होता है ? १९ उत्तर-हे गौतम ! वह अनगार किसी एक प्रकार के अनाभियोगिक देवलोकों में देवरूप से उत्पन्न होता है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। गाथा का अर्थ इस प्रकार है-स्त्री, तलवार, पताका, जनेऊ, पलाठी और पर्यङ्कासन, इन सब रूपों के अभियोग और विकुर्वणा सम्बन्धी वर्णन इस उद्देशक में है । तथा इस प्रकार मायी अनगार करता है । यह बात भी बतलाई गई है। विवेचन-इन प्रश्नोत्तरों में भी विकुर्वणा सम्बन्धी वर्णन किया गया है । यह 'मायी विकुम्वइ' पाठ है और किन्ही प्रतियों में 'मायी अभिमुंजइ' पाठ है। 'अभिमुंजइ' का अर्थ है 'अभियोग' करना अर्थात् विद्या आदि के बल से घोड़ा, हाथी, आदि के रूपों में प्रवेश For Personal & Private Use Only Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ३ उ. ५ अनगार के अश्वादि रूप wwwwwwwww करके उनके द्वारा नाना प्रकार की क्रिया करवाना । 'विकुव्वई' का अर्थ है 'विकुर्वणा करना' अर्थात् नाना प्रकार के रूप बनाना । सामान्य रूप से देखने पर अभियोग और विकुर्वण । के अर्थों में अन्तर मालूम होता है । परन्तु वास्तव में क्रिया के फल की ओर देखा जाय, तो दोनों शब्दों के अर्थ में कोई भिन्नता नहीं है । क्योंकि अभियोग करनेवाला भी नवीन नवीन रूप बनाता है और विकुर्वणा करने वाला भी नवीन नवीन रूप बनाता है । इस अपेक्षा से अभियोग और विकुर्वणा में कोई अन्तर नहीं है । अभियोगादि करनेवाला मायी साधु, आभियोगिक देवों में उत्पन्न होता है । आभियोगिक देव, अच्युत देवलोक तक होते हैं। विद्या और लब्धि आदि से आजीविका करनेवाला साधु, आभियोगिकी भावना करता है। यथाः मंता-जोगं काउं भूइकम्मं तु जे पजेति । साय-रस-इडिहेलं, अभियोगं भावणं कुणइ ।। अर्थ-जो जीव साता, रस और समृद्धि के लिए मन्त्र और योग करके भूति-कर्म का प्रयोग करते हैं, वे आभियोगिकी भावना करते हैं अर्थात् जो मात्र वैषयिक सुखों के लिये और स्वादु आहार की प्राप्ति के लिये मन्त्र साधना करता है और भूतिकर्म का प्रयोग करता है, वह आभियोगिकी भावना करता है । ऐसी आभियोगिकी भावना करने वाला साधु, आभियोगिक अर्थात् सेवक जाति के देवों में उत्पन्न होता है। ___ जो अनगार, उपर्युक्त प्रकार की विकुर्वणा करके फिर पश्चात्ताप करता है, वह अमायी बन जाता है। ऐसा अमायी साधु, आलोचना और प्रतिक्रमण करके काल करता है, तो आराधक होता है और अनाभियोगिक देवों में उत्पन्न होता है । सेवं मंते ! सेवं भंते ! ॥ ॥ इति तीसरे शतक का पांचवा उद्देशक समाप्त ॥ AuditS TATTA For Personal & Private Use Only Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ३ उ. ६ मिथ्यादृष्टि की विकुर्वणा शतक ३ उद्देशक मिथ्यादृष्टि को विकुर्वणा १ प्रश्न-अणगारे णं भंते ! भावियप्पा माई, मिच्छदिट्ठी वीरियलद्धीए, वेउब्वियलद्धीए, विभंगणाणलद्धीए वाणारसिं णयरिं समोहए, समोहणित्ता रायगिहे णयरे रूवाइं जाणइ, पासइ ? १ उत्तर-हंता, जाणइ, पासइ । २ प्रश्न-से भंते ! कि तहाभावं जाणइ पासइ, अण्णहाभावं जाणइ पासइ ? २ उत्तर-गोयमा ! णो तहाभावं जाणइ पासइ, अण्णहाभावं जाणइ पासइ। ३ प्रश्न-से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-णो तहाभावं जाणइ पासइ; अण्णहाभावं जाणइ पासइ ? , ३ उत्तर-गोयमा ! तस्स णं एवं भवइ-एवं खलु अहं रायगिहे णयरे समोहए, समोहणित्ता वाणारसीए णयरीए रूवाई जाणामि पासामि; से से दंसणे विवच्चासे भवइ, से तेणटेणं जावपासइ। ४ प्रश्न-अणगारे णं भंते ! भावियप्पा माई, मिन्छदिट्ठी जाव For Personal & Private Use Only Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ३ उ. ६ मिथ्यादृष्टि की विकुर्वणा रायगिहे णयरे समोहए, समोहणित्ता वाणारसीए णयरीए रूवाइं जाणइ पासइ ? ४ उत्तर-हंता, जाणइ पासइ; तं चेव जाव-तस्स णं एवं भवइएवं खलु अहं वाणारसीए णयरीए समोहए, समोहणित्ता रायगिहे णयरे रूवाइं जाणामि पासामि, से से दंसणे विवच्चासे भवइ, से तेणटेणं जाव-अण्णहाभावं जाणइ पांसइ । ५ प्रश्न-अणगारे णं भंते ! भावियप्पा माई मिच्छदिट्टी वीरियलद्धीए, वेउन्वियलद्धीए, विभंगणाणलद्धीए वाणारसी णयरी रायगिहं च णयरं अंतरा एगं महं जणवयवग्गं समोहए, समोहणित्ता वाणारसिं गयरिं, रायगिहं च णयरं अंतरा एंगं महं जणवयवग्गं जाणइ पासइ ? ५ उत्तर-हंता, जाणइ पासइ । ६ प्रश्न-से भंते ! किं तहाभावं जाणइ पासइ; अण्णहाभावं जाणइ पासइ ? . ६ उत्तर-गोयमा ! णो तहाभावं जाणइ पासइ; अण्णहाभावं जाणइ पासइ। ७ प्रश्न-से केणटेणं जाव-पासइ ? ७ उत्तर-गोयमा ! तस्स खलु एवं भवइ-एस खलु वाणारसी पयरी, एस खलु रायगिहे णयरे, एस खलु अंतरा एगे महं जण For Personal & Private Use Only Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ३ उ. ६ मिथ्यादृष्टि की विकुर्वणा वयवग्गे; णो खलु एस महं वीरियलद्धी, वेडव्वियलद्धी, विभंगणाणलडी, इड्ढी, जुत्ती, जसे, बले, वीरिए, पुरिसक्कारपरक्कमे लधे पत्ते, अभिसमण्णागए; से से दंसणे विवच्चासे भवइ, से तेणट्टेणं जाव - पासइ ? कठिन शब्दार्थ - - तहाभावं -- -- तथा भाव - यथार्थ रूप, अण्णहाभावं - - अन्यथा भावविपरीत रूप, विवच्चासे--विपरीत, अंतरा-बीच में, जणवयवग्गे - जनपद - वर्ग । भावार्थ - १ प्रश्न - हे भगवन् ! में राजगृह नगर रहा हुआ मिथ्यादृष्टि और मायी भावितात्मा अनगार, वीर्यलब्धि से वैक्रियलब्धि से और विभंगज्ञान लब्धि से वाणारसी नगरी की विकुर्वणा करके क्या तद्गत रूपों को जानता और देखता है ? ६९९ १ उत्तर - हाँ, गौतम ! वह उन रूपों को जानता और देखता है । २ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या वह तथाभाव ( यथार्थ रूप ) से जानता देखता है, या अन्यथाभाव (विपरीत रूप ) से जानता देखता है ? २ उत्तर - हे गौतम ! वह तथाभाव से नहीं जानता है और नहीं देखता है, किन्तु अन्यथा भाव से जानता और देखता है । ३. प्रश्न - हे भगवन् ! ऐसा किस भाव से नहीं जानता और नहीं देखता, देखता है ? कारण से कहा जाता है कि वह तथाकिन्तु अन्यथा भाव से जानता और ३ उत्तर - हे गौतम! उस साधु के मन में इस प्रकार विचार होता है कि वाराणसी में रहे हुए मैंने राजगृह नगर की विकुर्वणा की है और विकुर्वणा करके तद्गत अर्थात् वाणारसी के रूपों को जानता और देखता हूँ, इस प्रकार उस का दर्शन विपरीत होता है । इस कारण से ऐसा कहा जाता है कि वह तथा भाव से नहीं जानता नहीं देखता, किन्तु अन्यथा भाव से जानता देखता है । ४ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या वाणारसी में रहा हुआ मायी मिथ्यादृष्टि For Personal & Private Use Only Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ३ उ. ६ मिथ्यादृष्टि की विकुर्वणा भावितात्मा अनगार, यावत् राजगृह नगर की विकुर्वणा करके वाणारसी के रूपों को जानता और देखता है ? ७०० ४ उत्तर - हाँ, वह उन रूपों को जानता और देखता है । यावत् उस साधु के मन में इस प्रकार का विचार होता है कि राजगृह में रहा हुआ में वाणारसी नगरी की विकुर्वणा करके राजगृह के रूपों को जानता हूं और देखता हूं। इस प्रकार उसका दर्शन विपरीत होता है । इस कारण से यावत् वह अन्यथा भाव से जानता है और देखता है । ५ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या मायी मिथ्यादृष्टि भावितात्मा अनगार अपनी वीर्य लब्धि से, वैक्रिय लब्धि से और विभंगज्ञान लब्धि से बाणारसी नगरी और राजगृह नगर के बीच में एक बडे जनपद वर्ग ( देश समूह) की विकुर्वणा करके उस ( वाणारसी नगरी और राजगृह नगर के बीच में) बड़े जनपद वर्ग को जानता है और देखता है ? ५ उत्तर - हाँ, गौतम ! वह उस जनपद वर्ग को जानता और देखता है । ६ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या वह उस जनपद वर्ग को तथाभाव से जानता और देखता है अथवा अन्यथाभाव से जानता और देखता है ? ६ उत्तर - हे गौतम ! वह उस जनपद वर्ग को तथाभाव से नहीं जानता और नहीं देखता, कित्तु अन्यथा भाव से जानता और देखता है । ७ प्रश्न - हे भगवन् ! वह उनको अन्यथाभाव से जानता और देखता है, इसका क्या कारण है ? ७ उत्तर - हे गौतम! उस साधु के मन में इस प्रकार का विचार होता है कि यह वाणारसी नगरी है और यह राजगृह नगर है तथा इन दोनों के बीच में यह एक बड़ा जनपद वर्ग हैं। परन्तु मेरी वीर्य लब्धि, वैक्रिय लब्धि और विभंगज्ञान लब्धि नहीं है। मुझे मिली हुई, प्राप्त हुई और सम्मुख आई हुई ऋद्धि, द्युति, यश, बल, वीर्य और पुरुषकार पराक्रम नहीं है । इस प्रकार उस साधु का दर्शन बिपरीत होता है । इस कारण से यावत् वह अन्यथाभाव से For Personal & Private Use Only Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ३ उ. ६. सम्यग्दृष्टि अनगार की विकुर्वणा .७०१ जानता और देखता है। सम्यग्दृष्टि अनगार को विकुर्वणा - ८ प्रश्न-अणगारे णं भंते ! भावियप्पा अनाई सम्मदिट्ठी वीरियलद्धीए, वेउब्वियलद्धीए, ओहिणाणलद्धीए रायगिहं णयरं समोहए, समोहणित्ता वाणारसीए णयरीए रूवाइं जाणइ पासइ ? ८ उत्तर-हंता, जाणइ पासइ।। ९ प्रश्न-से भंते ! किं तहाभावं जाणइ पासइ; अण्णहामावं जाणइ पासइ ? ९ उत्तर-गोयमा ! तहाभावं जाणइ पासह; णो अण्णहाभावं जाणइ पासइ। १० प्रश्न-से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ ? १० उत्तर-गोयमा ! तस्स णं एवं भवइ-एवं खलु अहं सयगिहे णयरे समोहए, समोहणित्ता वाणारसीए गयरीए रूवाई जाणामि पासामि; से से दसणे अविवच्चासे भवइ, से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ । पीओ आलावगो एवं चेव । णवरं-वाणारसीए णयरीए समोहणा णेयव्वा रायगिहे णयरे रूवाई जाणा, पासइ। . For Personal & Private Use Only Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०२ भगवती सूत्र-श ३ उ. ६ सम्यग्दृष्टि अनगार की विकुर्वणा ११ प्रश्न-अणगारे णं भंते ! भावियप्पा अमाई सम्मदिट्ठी वीरियलद्धीए, वेउन्वियलद्धीए, ओहिणाणलद्धीए रायगिहं णयर, वाणारसिं णयरी च अंतरा एगं महं जणवयवग्गं समोहए, समोहणित्ता रायगिहं णयरं वाणारसिं णयरी, तं च अंतरा एगं महं जणवय- . वग्गं जाणइ पासइ ? ११ उत्तर-हंता, जाणइ पासइ । १२ प्रश्न-से भंते ! किं तहाभावं जाणइ पासइ, अण्णहाभावं जाणइ पासइ ? ___१२ उत्तर-गोयमा ! तहाभावं जाणइ पासइ, णो अण्णहाभावं जाणइ पासइ। १३ प्रश्न-से केणटेणं? १३ उत्तर-गोयमा ! तस्स णं एवं भवइ णो खलु एस रायगिहे णयरे, णो खलु एस वाणारसी णयरी, णो खलु एस अंतरा एगे जणवयवग्गे, एस खलु ममं बीरियलद्धी, वेउब्धियलद्धी, ओहि. णाणलद्धी, इड्ढी जुत्ती, जसे, बले, वीरिए, पुरिसकारपरकमे लधे, पत्ते, अभिसमण्णागए, से से दंसणे अविवचासे भवइ, से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-तहाभावं जाणइ पासइ; णो अण्णहाभावं जाणइ पासइ । १४ प्रश्न-अणगारे णं भंते ! भावियप्पा बाहिरए पोग्गले For Personal & Private Use Only Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ३ उ ६ सम्यग्दृष्टि अनगार की विकुर्वणा अपरियाइत्ता पभू एगं महं गामरूवं वा, णयररूवं वा, जाव - सणवेरूवं वा विउव्वित्तए ? १४ उत्तर - णो इणट्टे समट्ठे एवं बिईओ वि आलावगो, वरं - बाहिरए पोग्गले परियाइत्ता पभू । ७०३ १५ प्रश्न - अणगारे णं भंते ! भावियप्पा केवइयाई पभू गामरुवाई विउव्वित्तए ? १५ उत्तर - गोयमा ! से जहा णामए जुवई जुवाणे हत्थेणं हत्थे गेण्हेजा, तं चैव जाव - विउब्विंसु वा विउब्वंति वा, विउब्विस्संति वा, एवं जाव-सण्णिवेसरूवं वा । भावार्थ - ८ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या वाणारसी नगरी में रहा हुआ अमायी सम्यग्दृष्टि भावितात्मा अनगार, अपनी वीर्य लब्धि से वैक्रिय लब्धि से और अवधिज्ञान लब्धि से राजगृह नगर की विकुर्वणा करके वाणारसी के रूपों को जानता और देखता है ? ८ उत्तर - हाँ, वह उन रूपों को जानता और देखता है । ९ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या वह उन रूपों को तथाभाव से जानता और देखता है ? अथवा अन्यथाभाव से जानता और देखता है ? ९ उत्तर - हे गौतम! वह उन रूपों को तथाभाव से जानता और देखता हैं, किन्तु अन्यथाभाव से नहीं जानता और नहीं देखता । १० प्रश्न - हे भगवन् ! इसका क्या कारण है ? १० उत्तर - हे गौतम ! उस साधु के मन में इस प्रकार का विचार होता है कि वाणारसी नगरी में रहा हुआ में राजगृह नगर को विकुर्वणा करके वाणारसी के रूपों को जानता और देखता हूं । उनका दर्शन अविपरीत (सम्यक् ) For Personal & Private Use Only Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०४ भगवती सूत्र-श. ३ उ. ५ सम्यग्दृष्टि अनगार की विकुर्वणा होता हैं। इस कारण से वह तथाभाव से जानता और देखता है-ऐसा कहा जाता है। दूसरा आलापक भी इसी तरह कहना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि उसमें वाणारसी नगरी की विकुर्वणा और राजगृह नगर में रहे रूपों का देखना जानना कहना चाहिये। ११ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या अमायी सम्यग्दृष्टि भावितात्मा अनगार अपनी वीर्य लब्धि से, वैक्रिय-लब्धि से और अवधिज्ञान-लब्धि से, राजगह नगर और वाणारसी नगरी के बीच में एक बडे जनपद वर्ग की विकुर्वणा करके उस (राजगृह नगर और वाणारसी नगरी के बीच में) एक बड़े जनपद वर्ग को जानता और देखता है ? .. ११ उत्तर-हां, गौतम ! वह उस जनपद वर्ग को जानता और देखता है। १२ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या वह उस जनपद वर्ग को तथाभाव से जानता और देखता है, अथवा अन्यथाभाव से जानता और देखता है ? १२ उत्तर-हे गौतम ! वह उस जनपद वर्ग को तथाभाव से जानता और देखता है, किन्तु अन्यथाभाव से नहीं जानता और नहीं देखता। १३ प्रश्न-हे भगवन् ! इसका क्या कारण है ? १३ उत्तर-हे गौतम ! उस साधु के मन में इस प्रकार का विचार होता है कि न तो यह राजगृह नगर है और न यह वाणारसी नगरी है, तथा न यह . इन दोनों के बीच में एक बड़ा जनपद वर्ग है, किन्तु यह मेरी वीर्यलब्धि है, वैक्रिय-लब्धि है, यह मुझे मिली हुई, प्राप्त हुई, और सम्मुख आई हुई ऋद्धि, धति, यश, बल, वीर्य और पुरुषकार पराक्रम है । उसका दर्शन अविपरीत होता है। इस कारण से हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि वह साधु तयाभाव से जानता और देखता है, परन्तु अन्यथाभाव से नहीं जानता और नहीं देखता है। १४ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या भावितात्मा अनगार, बाहर के पुद्गलों को ग्रहण किये बिना एक बडे ग्राम, नगर यावत् सन्निवेश के रूपों की विकुर्वणा कर सकता है ? For Personal & Private Use Only Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ३ उ. ६ सम्यग्दृष्टि अनगार की विकुर्वणा - ७०५ १४ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। इसी प्रकार दूसरा आलापक भी कहना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि बाहर के पुद्गलों को ग्रहण करके वह साधु, उस प्रकार के रूपों की विकुर्वणा कर सकता है। १५ प्रश्न-हे भगवन् ! वह भावितात्मा अनगार, कितने ग्राम रूपों की विकुर्वणा कर सकता है ? १५ उत्तर-हे गौतम ! युवति युवा के दृष्टान्त से पहले कहे अनुसार सारा वर्णन जान लेना चाहिये । अर्थात् वह इस प्रकार के रूपों से सम्पूर्ण एक जम्बूद्वीप को ठसाठस भर देता है । यह उसका मात्र विषय सामर्थ्य है । इसी तरह से यावत् सन्निवेश रूपों पर्यन्त कहना चाहिये। विवेचन-पांचवें उद्देशक के समान इस छठे उद्देशक में भी विकुर्वणा सम्बन्धी कथन किया गया है। यहाँ पर अन्यमतावलम्बी साधु के विषय में कथन किया गया है। अतएव घर बार आदि का त्यागी होने से उसे अनगार तथा उसके (अन्यमत के) शास्त्र में कहे हुए शम, दम आदि नियमों को धारण करने वाला होने से भावितात्मा कहा गया है। वह मायी अर्थात् क्रोधादि कषाय वाला है और मिथ्यादृष्टि है । वह वीर्यलब्धि आदि से विकुर्वणा करता है। राजगृह नगर में रहा हुआ वह वाणारसी नगरी की विकुर्वणा करके राजगृह के. पशु, पुरुष तथा महल आदि वस्तुओं को विभंगज्ञान द्वारा जानता और देखता है। वह विकुर्वणा करने वाला विभंगज्ञानी जानता है कि मैने राजगृह नगर की विकुर्वणा की है और मैं वाणारसी में रहे हुए रूपों को जानता और देखता हूं। उसका यह ज्ञान विपरीत है । क्योंकि वह अन्य रूपों को दूसरी तरह से जानता और देखता है । जैसे कि-दिग्मूढ मनुष्य, पूर्व दिशा को पश्चिम दिशा मानता है । इसी प्रकार उस अनगार का अनुभव विपरीत है। इसी प्रकार दूसरा सूत्र भी कहना चाहिये । तीसरे सूत्र में वाणारसी और राजगृह नगर के बीच में जनपद वर्ग (देश के समह) की विकुर्वणा का है । विभंगज्ञानी बक्रियकृत रूपों को भी स्वाभाविक रूप मानता है । इसलिये उसका वह दर्शन भी विपरीत है। For Personal & Private Use Only Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०६ भगवती सूत्र-श. ३ उ. ६ चमरेन्द्र के आत्मरक्षक चमरेन्द्र के आत्म-रक्षक १६ प्रश्न-चमरस्स णं भंते ! असुरिंदस्स असुररण्णो कह आयरक्खदेवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ? १६ उत्तर-गोयमा ! चत्तारि चउसट्टीओ आयरक्खदेवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ, तं णं आयरक्खा वण्णओ जहा रायप्पसेणइजे एवं सव्वेसि इंदाणं जस्स जत्तिआ आयरक्खा ते भाणियव्वा । -सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति। कठिन शब्दार्थ-आयरक्खा-आत्मरक्षक, जत्तिआ–जितने । भावार्थ-१६ प्रश्न-हे भगवन् ! असुरेन्द्र असुरराज चमर के कितने हजार आत्मरक्षक देव हैं ? . : १६ उत्तर-हे गौतम ! असुरेन्द्र असुरराज चमर के २,५६,००० दो लाख छप्पन हजार आत्मरक्षक देव हैं। यहाँ आत्मरक्षक देवों का वर्णन समझना चाहिये और जिस इन्द्र के जितने आत्मरक्षक देव हैं। उन सब का वर्णन करना चाहिये। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। ऐसा कह कर यावत् गौतम स्वामी विचरते हैं। विवेचन-पहले के प्रकरण में विकुर्वणा सम्बन्धी वर्णन किया गया है। अब विकुर्वणा करने में समर्थ देवों के सम्बन्ध में कथन किया जाता है । जो देव शस्त्र लेकर इन्द्र के चौतरफ खड़े रहते हैं, वे 'आत्मरक्षक' कहलाते हैं । यद्यपि इन्द्र को किसी प्रकार का कष्ट या अनिष्ट होने की संभावना नहीं है, तथापि आत्मरक्षक देव, अपना कर्तव्य पालन करने के For Personal & Private Use Only Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ३ उ. ६ चमरेन्द्र के आत्मरक्षक. लिये हर समय हाथ में शस्त्र लेकर खड़े रहते हैं । जिस प्रकार यहाँ स्वामी की रक्षा लिये सेवकजन, (अंगरक्षक आदि ) वस्त्रादि से सज्जित होकर शस्त्रादि से सन्नद्ध बद्ध होकर सेवा में तत्पर रहते हैं, उसी प्रकार वे आत्मरक्षक देव भी बराबर सजधज कर बख्तर आदि पहन कर हाथ में धनुष आदि शस्त्र लेकर, अपने स्वामी की रक्षा में दत्तचित होकर खड़े रहते हैं । इस प्रकार आत्मरक्षक देवों सम्बन्धी सारा वर्णन यहां जानलेना चाहिये। जिस प्रकार चमरेन्द्र के आत्मरक्षक देवों का वर्णन किया है, उसी तरह सब इन्द्रों के आत्मरक्षक देवों का कथन करना चाहिये। उनकी संख्या इस प्रकार है चउसट्ठी सट्ठी खलु छच्च सहस्साओ असुरवज्जाणं । सामाणिया उ एए चउग्गुणा आयरक्खाओ || चउरासी असीई बावर्त्तारि सत्तरि य सट्ठी य । पण्णा चत्तालीसा तीसा वीसा दस सहस्स ति ॥ अर्थ — चमरेन्द्र के ६४ हजार सामानिक देव हैं । बलीन्द्र के ६० हजार सामानिक देव हैं। बाकी भवनपति देवों के शेष इन्द्रों के प्रत्येक के छह, छह हजार सामानिक देव हैं। शक्रेन्द्र के ८४ हजार सामानिक देव हैं। ईशानेन्द्र के ८० हजार, सनत्कुमारेन्द्र के ७२ हजार, माहेन्द्र के ७० हजार, ब्रह्मेन्द्र के ६० हजार, लान्तकेन्द्र के ५० हजार, शुक्रेन्द्र के ४० हजार, सहस्रारेन्द्र के ३० हजार, प्राणतेन्द्र के २० हजार और अच्युतेन्द्र के १० हजार सामानिक देव हैं । सामानिक देवों से चार गुणा आत्मरक्षक देव होते हैं । सेवं भंते ! सेवं भंते ! ७०७ ॥ इति तीसरे शतक का छठा उद्देशक समाप्त ॥ For Personal & Private Use Only Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०८ भगवती सूत्र-श. ३ उ. ७ लोकपाल सोमदेव शतक ३ उद्देशक ७ लोकपाल सोमदेव १ प्रश्न-रायगिहे णयरे जाव-पज्जुवासमाणे एवं वयासीसक्कस्स णं भंते ! देविंदस्स देवरण्णो कह लोगपाला पणत्ता १ उत्तर-गोयमा ! चत्तारि लोगपाला पण्णत्ता, तं जहा-सोमे जमे, वरुणे, वेसमणे । २ प्रश्न-एएसि णं भंते ! चउण्हं लोगपालाणं कइ विमाण पण्णत्ता ? २ उत्तर-गोयमा ! चत्तारि विमाणा पण्णत्ता, तं जहा-संझ प्पभे, वरसिटे, सयंजले, वग्गू। ३ प्रश्न कहि णं भंते ! सक्कस्स देविंदस्स, देवरण्णो सोमस्स महारण्णो संझप्पभे णामं महाविमाणे पण्णते ? ३ उत्तर-गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणे णं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिजाओ भूमिभागाओ उड्ढं चंदिम-सूरिय गहगण-णक्खत्त-तारा:रूवाणं बहूई जोयणाई, जाव-पंच वडेंसिया पण्णत्ता, तं जहा-असोगवडेंसए, सत्तवण्णवडे. सए, चंपयवडेंसए, चूयवडेंसए, मज्झे सोहम्मवडेंसए; तस्स णं सोह. For Personal & Private Use Only Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श ३ उ. ७ लोकपाल सोमदेव म्मवडेंसयस्स महाविमाणस्स पुरत्थिमे णं सोहम्मे कप्पे असंखेजाई जोयणाई वीवइत्ता एत्थ णं सकस्स देविंदस्स देवरण्णो सोमस्स महारणो संझप्पभे णामं महाविमाणे पण्णत्ते - अद्भुतेरसजोयणसयसहस्सा आयामविक्खंभेणं, उणयालीसं जोयणसयसहस्साईं, बावण्णं च सहस्साई, अटु य अडयाले जोयणसए किंचि विसेसा - हिए परिक्खेवेणं पण्णत्ते, जा सूरियाभविमाणस्स वत्तव्वया सा अपरिसेसा भाणियव्वा, जाव- अभिसेओ; णवरं - सोमो देवो । संझप्पभस्स णं महाविमाणस्स अहे, सपक्खि, सपडिदि सिं असंखेज्जाई जोयणसहस्सा ओगाहित्ता एत्थ णं सकस्स देविंदस्स, देवरण्णो सोमस्स महारण्णो सोमा णामं रायहाणी पण्णत्ता - एगं जोयणसयसहस्सं आयामविक्खंभेणं जंबुद्दीव पमाणा; वेमाणियाणं पमाणस्स अद्धं यव्वं, जाव-ओवारियलेणं, सोलस जोयणसहस्साई आयामविक्खभेणं, पण्णासं जोयणसहस्साई, पंच य सत्ताणउए जोयणसए किंचि विसेसू परिक्खेवेणं पण्णत्ते; पासायाणं चत्तारि परिवाडीओ वाओ, सेसा णत्थि । कठिन शब्दार्थ --- वर्डेसिया -- अवतंसक | भावार्थ - १ प्रश्न - राजगृह नगर में यावत् पर्युपासना करते हुए गौतम स्वामी ने इस प्रकार पूछा कि - हे भगवन् ! देवेन्द्र देवराज शत्र के कितने लोकपाल कहे गये हैं ? १ उत्तर - हे गौतम ! उसके चार लोकपाल कहे गये हैं । यथा-सोभ, ७०९ For Personal & Private Use Only Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१० भगवती सूत्र - श. ३ उ. ७ लोकपाल सोमदेव यम, वरुण और वैश्रमण । २ प्रश्न - हे भगवन् ! इन चार लोकपालों के कितने विमान कहे गये हैं ? २ उत्तर - हे गौतम ! इन चार लोकपालों के चार विमान कहे गये हैं । यथा - सन्ध्याप्रभ, वरशिष्ट, स्वयंज्वल और वल्गु । ३ प्रश्न - हे भगवन् ! देवेन्द्र देवराज शत्र के लोकपाल सोम नामक महाराज का सन्ध्याप्रभ नाम का महोत्वमान कहो है ? ३ उत्तर - हे गौतम! जम्बूद्वीप नामवाले द्वीप के मेरु पर्वत से दक्षिण दिशा में इस रत्नप्रभा पृथ्वी के बहुसम रमणीय भूमिभाग से ऊपर चन्द्र, सूर्य, ग्रहगण, नक्षत्र और तारागण आते हैं। उनसे बहुत योजन ऊपर यावत् पाँच अवतंसक है । यथा - अशोकावतंसक, सप्तपर्णावतंसक, चंपकावतंसक, चूतावतंसक और बीच में सौधर्मावतंसक है । उस सौधर्मावतंसक महाविमान के पूर्व में, सौधर्म कल्प में असंख्य योजन दूर जाने के बाद वहाँ पर देवेन्द्र देवराज शत्र के लोकपाल सोम नामक महाराज का सन्ध्याप्रभ नाम का महाविमान आता है । उसकी लम्बाई चौड़ाई साढे बारह लाख योजन की है । उसका परिक्षेप ( परिधि ) उनचालीस लाख बावन हजार आठ सौ अड़तालीस (३९५२८४८ ) योजन से कुछ अधिक है । इस विषय सूर्याभ देव के विमान की वक्तव्यता की तरह सारी वक्तव्यता अभिषेक तक कहनी चाहिए, इतना फर्क है कि यहाँ सूर्याभ देव के स्थान पर 'सोमदेव' कहना चाहिए। सन्ध्याप्रभ महाविमान के सपक्ष प्रतिदेश अर्थात् ठीक बराबर नीचे असंख्य योजन जाने पर देवेन्द्र · देवराज शक्र के लोकपाल सोम महाराज की सोमा नाम की राजधानी है । उस राजधानी की लम्बाई और चौड़ाई एक लाख योजन की है। वह राजधानी जम्बूद्वीप जितनी है। इस राजधानी के किले आदि का परिमाण वैमानिक देवों के किले आदि के परिमाण से आधा कहना चाहिए। इस तरह यावत् घर के पीठबन्ध तक कहना चाहिए। घर के पीठबन्ध का आयाम और विष्कम्भ अर्थात् लम्बाई चौड़ाई सोलह हजार योजन है । उसका परिक्षेप (परिधि ) पचास For Personal & Private Use Only Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ३ उ: ७ लोकपाल सोमदेव हजार पाँच सौ सत्तानवें ( ५०५९७ ) योजन से कुछ कम है । प्रासादों की चार परिपाटी कहनी चाहिए, शेष नहीं । ७११ सक्करस णं देविंदस्स, देवरण्णो सोमस्स महारष्णो इमे देवा आणा-उववाय-वयण- णिद्देसे चिट्टंति, तं जहा- सोमकाइया इवा, सोमदेवयकाइया इवा, विज्जुकुमारा, विज्जुकुमारीओ; अग्गिकुमारा, अग्गिकुमारीओ; वायुकुमारा, वायुकुमारीओ चंदा, सूरा, गहा, णक्खत्ता, तारारूवा - जे यावण्णे तहप्पगारा सव्वे ते तन्भत्तिया, तपक्खिया, तभारिया सक्कस्स देविंदस्स, देवरण्णो सोमरस महारण्णो आणा उववाय-वयण- णिसे चिट्ठेति । , कठिन शब्दार्थ - तब्भत्तिया उसके भक्त, तपक्खिया - उसके पक्ष के तब्भारियाउसके अधिकार में । भावार्थ- देवेन्द्र देवराज शक्र के लोकपाल सोम महाराज की आज्ञा में, उपपात ( समीपता ) में, कहने में और निर्देश में ये देव रहते है, यथा-सोमकायिक, सोमदेवकायिक, विद्युत्कुमार, विद्युत्कुमारियाँ, अग्निकुमार, अग्निकुमारियाँ, वायुकुमार, वायुकुमारियाँ, चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र, तारारूप और इसी प्रकार के दूसरे भी सब उसके भक्त देव, उसके पक्ष के देव, और उसकी अधीनता में रहने वाले, ये सब देव उसकी आज्ञा में, उपपात में, कहने में और निर्देश में रहते हैं । जंबूदीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेणं जाई इमाई समुप्पजंति, तं जहा - गहदंडा इवा, गहमुसलाइ वा, गहगज्जिया इ For Personal & Private Use Only Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१२ भगवती सूत्र-श. ३ उ. ७ लोकपाल सोमदेव वा, एवं गहजुद्धा इ वा, गहसिंघाडगा इवा, गहावसव्वा इ वा, अब्भा इ वा, अब्भरुक्खा इ वा, संझा इ वा, गंधव्वणयरा इ वा, उक्कापाया इ वा, दिसिदाहा इ वा, गजिआ इ वा, विज्जू इ वा, पंसुवुट्ठी इ वा, जूवे इ वा, जक्खालित्तए त्ति वा, धूमिया इ वा, महिया इ वा, रयुग्घाए त्ति वा, चंदोवरागा इवा, सूरोवरागा इ वा, चंदपरिवेसा इ वा, सूरपरिवेसा इ वा, पडिचंदा इ वा, पडिसूरा इ वा, इंदधणू इं वा, उदगमच्छ कपिहसिय--अमोह-पाईणवाया इ वा, पडीणवाया इ वा, जाव-संवट्टयवाया इ वा, गामदाहा इ वा, जाव सण्णिवेसदाहा इ वा, पाणक्खया, जणक्खया, धणक्खया, कुलक्खया, वसणभूया अणारिया-जे यावण्णे तहप्पगारा ण ते सक्करस देविं. दस्स देवरण्णो सोमस्स महारण्णो अण्णाया, अदिट्ठा, असुया, अस्सु(मु)या अविण्णाया; तेसिं वा सोमकाइयाणं देवाणं सक्कस्स णं देविंदस्स देवरण्णो सोमस्स महारण्णो इमे देवा अहावचा अभिण्णाया होत्था, तं जहा-इंगालए, वियालए, लोहिअक्खे, सणिचरे, चंदे, सूरे, सुक्के, बुहे, बहस्सई, राहू । सक्कस्स णं देविं. दस्स देवरण्णो सोमस्स महारणो सत्तिभागं पलिओवमं ठिई पण्णता, अहावच्चा-भिण्णायाणं देवाणं एगं पलिओवमं ठिई पण्णत्ता । एवं महिड्ढीए, जाव-महाणुभागे सोमे महाराया । कठिन शब्दार्थ-अब्मा-अभ्र, उक्कापाया-उल्कापात, दिसिदाहा-दिग्दाह, धूमिआ For Personal & Private Use Only Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ३ उ. ७ लोकपाल सोमदेव ७१३ धूमिका, महिआ-महिका, रयुग्घाए-रजोद्घात, चंदोवरागा- चन्द्र ग्रहण, कपिहसिय-कपिहसित, वसणभूया-व्यसनभूत, अण्णाया-अज्ञात, असुआ-अश्रुत, अहावच्चा-अपत्य रूप । भावार्थ- इस जम्बूद्वीप के मेरु पर्वत की दक्षिण दिशा में जो ये कार्य होते हैं । यथा-ग्रहदण्ड, ग्रहमूसल, ग्रहजित इसी तरह ग्रहयुद्ध, ग्रहश्रृंगाटक, ग्रहापसव्य, अभ्र, अभ्रवृक्ष, सन्ध्या, गन्धर्वनगर, उल्कापात, दिग्दाह, जित, विद्युत, धूल की वृष्टि, यूप, यक्षोद्दीप्त, धूमिका, महिका, रजउद्घात, चन्द्रग्रहण, सूर्यग्रहण, चन्द्र परिवेष, सूर्यपरिवेष, प्रतिचन्द्र, प्रतिसूर्य, इन्द्रधनुष, उदकमत्स्य, कपिहसित, अमोघ, पूर्वदिशा के पवन, पश्चिम दिशा के पवन, यावत् संवर्तक पवन, ग्रामदाह, यावत् सन्निवेश-दाह, प्राणक्षय, जनक्षय, धनक्षय, कुलक्षय यावत् व्यसनभूत, अनार्य (पापरूप) तथा उस प्रकार के दूसरे भी सब कार्य देवेन्द्र देवराज शक्र के लोकपाल सोम महाराज से अज्ञात (नहीं जाने हुए) अदृष्ट (नहीं देख हुए) अश्रुत नहीं सुने हुए) अस्मृत (स्मरण नहीं किये हुए) तथा अविज्ञात (विशेष रूप से न जाने हुए) नहीं होते हैं। अथवा ये सब कार्य सोमकायिक देवों से भी अज्ञात आदि नहीं होते हैं। देवेन्द्र देवराज शक्र के लोकपाल सोम महाराज को यह देव, अपत्य रूप से अभिमत ह । यथा-अंगारक (मंगल) विकोलिक, लोहिताक्ष, शनैश्चर, चन्द्र, सूर्य, शुक्र, बुध, वृहस्पति और राहु ।। देवेन्द्र देवराज शक्र के लोकपाल सोममहाराज़ की स्थिति तीन भाग सहित एक पल्योपम की है। और उसके अपत्य रूप से अभिमत देवों की स्थिति एक पल्योपम को होती है। इस प्रकार सोम महाराज, महाऋद्धि, यावत् महाप्रभाव वाला है। . विवेचन-छठे उद्देशक में इन्द्रों के आत्म-रक्षक देवों का वर्णन किया गया है । अब इस सातवें उद्देशक में इन्द्रों के लोकपालों का वर्णन किया जाता है । इस जम्बूद्वीप के मेरु पर्वत से दक्षिण दिशा में, इस रत्नप्रभा पृथ्वी के बहु समरमणीय भूमि भाग से ऊँचे चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र, ताराओं से बहुत सैकड़ों योजन, हजारों योजन, लाखों योजन, करोड़ों योजन, और बहुत कोटाकोटि योजन ऊंचा जाने पर सौधर्म कल्प आता है । वह कल्प, पूर्व For Personal & Private Use Only Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१४ भगवती सूत्र-श. ३ उ. ७ लोकपाल सोम देव पश्चिम में लम्बा है और उत्तर दक्षिण में विस्तृत (चौटा है । वह अर्ध चन्द्राकार है । सूर्य की कान्ति के समान उसका वर्ण है। उसकी लम्बाई और चौड़ाई असंख्य कोटाकोटि योजन है । और उसकी परिधि भी असंख्य कोटाकोटि योजन है । उसमें ३२ लाख विमान हैं । वे वज्रमय है और निर्मल यावत् प्रतिरूप हैं । उस सौधर्म-कल्प के बीचोबीच होकर सौधर्मावतंसक से पूर्व में असंख्य योजन दूर जाने पर शकेन्द्र के लोकपाल 'सोम' नाम के महाराज का 'सन्ध्याप्रभ' नामका महाविमान है। जिस प्रकार रायपसेणी सूत्र में सूर्याभ देव के विमान का वर्णन है, उसी तरह इसके विमान का भी वर्णन कहना चाहिये, यावत् अभिषेक तक कहना चाहिए । वह वक्तव्यता बहुत विस्तृत है । अतः यहाँ नहीं लिखी गई है। वैमानिक देवों के सौधर्म विमान में रहे हुए महल, किला, दरवाजा आदि का जो . परिमाण बतलाया गया है, उससे आधा परिमाण सोम लोकपाल की राजधानी में समझना चाहिये । इसमें सुधर्मा सभा आदि स्थान नहीं है, क्योंकि वे सब स्थान तो सोम की उत्पत्ति के स्थान पर ही होते हैं। सोम.लोकपाल के परिवार रूप जो देव हैं, वे सोमकायिक' कहलाते हैं। सोम लोकपाल के जो सामानिक देव हैं, वे 'सोमदेव' कहलाते हैं तथा सोमदेवों के परिवाररूप जो देव हैं, वे सोमदेव कायिक' कहलाते हैं । ये सब देव तथा सोम में भक्ति रखने वाले तथा उसकी सहायता करने वाले देव तथा उसको अधीनता में रहने वाले ये सब देव सोम की आज्ञा में रहते हैं। ___जम्बूद्वीप के मेरु पर्वत से दक्षिण दिशा में होने वाले ग्रह, दाउ आदि सारे कार्य सोम महाराज से अज्ञात नहीं है अर्थात् अनुमान की अपेक्षा अज्ञात नहीं हैं । अदृष्ट-(प्रत्यक्ष की अपेक्षा नहीं देखे हुए)नहीं है । अश्रुत (दूसरे के पास से नहीं सुने हुए) नहीं हैं। अस्मत (मन की अपेक्षा याद नहीं किये हुए) नहीं है । तथा अविज्ञात (अवधिज्ञान की अपेक्षा नहीं जाने हुए)नहीं है। अंगारक (मंगलं ग्रह) आदि देव, सोम महाराज के अपत्य रूप से अभिमत हैं । अर्थात् वे अभिमत वस्तु का संपादन करने वाले हैं। यहाँ अपत्य रूप से अभिमत देवों की स्थिति एक पल्योपम कही गई है। इनमें यद्यपि चन्द्र और सूर्य के नाम भी आये हैं और उनकी स्थिति अर्थात् चन्द्र की स्थिति एक पल्योपम एक लाख वर्ष है और सूर्य की स्थिति एक पत्योपम एक हजार वर्ष की है । तथापि उस ऊपर की बढ़ी हुई स्थिति को यहां नहीं मिना गया है। अंगारक आदि तो ग्रह है। उनकी For Personal & Private Use Only Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ३ उ. ७ लोकपाल यम देव ७१५ स्थिति एक पल्योगम की है । इसलिये यहां उनकी स्थिति एक पल्योपम की बतलाई गई है। लोकपाल यम देव ४ प्रश्न-कहि णं भंते ! सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो, जमस्स महारण्णो वरसिटे णामं महाविमाणे पण्णत्ते ? . ४ उत्तर-गोयमा ! सोहम्मवडिंसयस्स महाविमाणस्स दाहिणेणं सोहम्मे कप्पे असंखेजाइं जोयणसहरसाई वीईवइत्ता एत्थ णं सक्कस्स देविंदस्स, देवरण्णो जमस्स महारण्णो वरसिटे णामं महाविमाणे पण्णत्ते-अद्धतेरसजोयणंसयसहस्साइं, जहा सोमरस विमाणं तहा जाव-अभिसेओ; रायहाणी तहेव, जाव-पासायपंतीओ, सबक स्स णं देविंदस्स देवरण्णो जमस्स महारण्णो इमे देवा आणा, जावचिटुंति; तं जहा-जमकाइया इ वा, जमदेवकाइया इ वा; पेयकाइया इ वा, पेयदेवयकाइया इ वा; असुरकुमारा, असुरकुमारीओ; कंदप्पा णिरयवाला, आभिओगा; जे यावण्णे तहप्पगारा सव्वे ते तभत्तिया, तप्पक्खिया, तब्भारिया सकस्स देविंदस्स, देवरष्णो जमस्स महारण्णो आणाए जाव-चिटुंति; कठिन शब्दार्थ-णिरयवाला-नरकपाल, आभिओगा-सेवा करनेवाले । भावार्थ-४ प्रश्न-हे भगवन् ! देवेन्द्र देवराज शक्र के लोकपाल यम महाराज का वरशिष्ट नाम का महाविमान कहाँ है ? For Personal & Private Use Only Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ३ उ. ७ लोकपाल यम देव ४ उत्तर-हे गौतम ! सौधर्मावतंसक नाम के महाविमान से दक्षिण में सौधर्मकल्प में असंख्य हजार योजन आगे जाने पर, देवेन्द्र देवराज शक्र के लोकपाल यम महाराजा का वरशिष्ट नाम का महान् विमान है। उसकी लम्बाई चौड़ाई साढ़े बारह लाख योजन है, इत्यादि सारा वर्णन सोम महाराजा के सन्ध्याप्रभ महाविमान की तरह कहना चाहिये, यावत् अभिषेक तक । राजधानी और प्रासादों की पंक्तियों के विषय में भी उसी तरह कहना चाहिये । देवेन्द्र देवराज शक्र के लोकपाल यम महाराज की आज्ञा में यावत् ये देव रहते हैं:-यमकायिक, यमदेव-कायिक, प्रेतकायिक, प्रेतदेव-कायिक, असुरकुमार, असुरकुमारियाँ, कन्दर्प, नरकपाल, अभियोग और इसी प्रकार के वे सब देव जो यम महाराज की भक्ति, पक्ष और अधीनता रखते हैं, ये सब यम महाराज की आज्ञा में यावत् रहते हैं। जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेणं जाइं इमाइं समुप्पजंति, तं जहा-डिंबा इ वा, डमरा इ वा, कलहा इ वा, बोला इ वा, खारा इ वा, महाजुद्धा इ वा, महासंगामा इ वा, महासत्थणिवडणा इ वा, एवं महापुरिसणिवडणा इ वा, महारुहिरणिवडणा इ वा, दुब्भूआ इ वा, कुलरोगा इवा, गामरोगा इ वा, मंडल. रोगा इ वा, नगररोगा इ वा, सीसवेयणा इ वा, अच्छिवेयणा इ वा, कण्णवैयणा इ वा, णहवेयणा इ वा, दंतवेयणा इ वा, इंदग्गहा इ वा, खंदग्गहा इ वा, कुमारग्गहा इ वा, जक्खग्गहा इ वा, भूयग्गहा इवा, एगाहिया इवा, बेयाहिया इवा, तेयाहिया इवा, चाउत्थहिया इ वा, उव्वेयगा इवा, कासाइ वा, सासा इवा, सोसाइवा, जरा For Personal & Private Use Only Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ३ उ. ७ लोकपाल यम देव इ वा, दाहा इ वा, कच्छकोहा इ वा, अजीरया इ वा, पंडुरोगा इ वा, हरिसा इ वा, भगंदरा इ वा, हिययसूला इ वा, मत्थयसूला इ इ वा, जोणिसूला इ वा, पाससूला इ वा, कुच्छिमूला इवा, गाममारी इ वा, नगरमारी इ वा, खेडमारी इ वा, कव्वडमारी इ वा, दोणमुहमारी इ वा, मडम्बमारी इ वा, पट्टणमारी इ वा, आसममारी इ वा, संवाहमारी इ वा, सण्णिवेसमारी इ वा, पाणक्खया, जणक्खया, धणक्खया, कुलक्खया, वसणभूया अणारिया, जे यावि अण्णे तहप्पगारा ण ते सकस्स देविंदस्स, देवरण्णो जमस्समहारण्णो अण्णाया०, तेर्सि वा जमकाइयाणं देवाणं । सकस्स देविंदस्स, देवरण्णो जमस्स महारण्णो इमे देवा अहावचा अभिण्णाया होत्था; तं जहा अंबे अंबरिसे चेव सामे सबले ति यावरे, रुद्दो-वरुद्दे काले य महाकाले त्ति यावरे । असी य असिपत्ते कुंभे(असिपत्ते धणू कुंभे)बालू वेयरणी त्ति य, .. खरस्सरे महाघोसे एमए पण्णरसाऽऽहिया । सकस्स णं देविंदस्स देवरण्णो जमस्स महारण्णो सत्तिभागं पलिओवमं ठिई पण्णत्ता, अहावचाभिण्णायाणं देवाणं एगं पलिओवमं ठिई पण्णत्ता, एवं महिड्ढिए, जाव-जमे महाराया। कठिन शब्दार्थ-डिबा-विघ्न, डमरा-राजकुमारादि कृत उपद्रव, कलहा-वचनों द्वारा For Personal & Private Use Only Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१८ भगवती सूत्र-श ३ उ ७ लोकपाल यम देव कृत क्लेश, महासत्यनिवडणा-महाशस्त्र निपतन, महापुरिसनिवडणा--महापुरुष मरण, महारुहिरनिवडणा-महारुधिर निपतन, दुब्भूआ---दुर्भूत--दुष्टजन, अच्छिवेयणा--आँखों की पीड़ा, इन्दग्गहा-इन्द्र ग्रह, एगाहिआ-एकान्तर ज्वर, उग्वेयगा--उद्वेग, कासाखांसी, हरिसा-बवासिर-- मस्सा।। भावार्थ - इस जम्बूद्वीप के मेरु पर्वत से दक्षिण में जो ये कार्य होते हैंडिम्ब (विघ्न) डमर (उपद्रव) कलह, बोल, खार (पारस्परिक मत्सरता) महायुद्ध, महा-संग्राम, महाशस्त्र-निपतन, इसी तरह महापुरुषों की मृत्यु, महारुधिर का निपतन, दुर्भूत, (दुष्टजन) कुलरोग, मण्डलरोग, नगररोग, सिर दर्द, नेत्र वेदना, कर्ण वेदना, नख वेदना, दन्त वेदना, इन्द्र ग्रह, स्कन्द ग्रह, कुमार ग्रह, यक्ष ग्रह, एकान्तर ज्वर, द्विअन्तर ज्वर, त्रिअन्तरज्वर, चतुरन्तर, (चोथियाबुखार) उद्वेग, खांसी, श्वास (दम) बलनाशक ज्वर, दाह ज्वर, कच्छ-कोह (शरीर के कक्षादि भागों का सड़ जाना) अजीर्ण, पाण्डरोग, हरसरोग, भगन्दर, हृदयशूल, मस्तकशूल, योनिशूल, पार्श्वशूल, कुक्षिशूल, ग्राममारी, नगरमारी, खेट, कर्बट, द्रोणमुख, मडम्ब, पट्टग, आश्रम संबाध और सन्निवेश इन सब की मारी (मृगी रोग), प्राणक्षय, जनक्षय, कुलक्षय, व्यसनभूत, अनार्य (पापरूप), और इसी प्रकार के दूसरे सब कार्य देवेन्द्र, देवराज शक के लोकपाल यम महाराजा से अथवा यमकायिक देवों से अज्ञात आदि नहीं है । देवेन्द्र देवराज शक के लोकपाल यम महाराजा के देव अपत्य रूप से अभिमत हैं-अम्ब, अम्बरिष, श्याम, शबल, रुद्र, उपरुद्र, काल, महाकाल, असिपत्र, धनुष, कुम्भ, बालू, वैतरणी, खरस्वर और महाघोष-ये पन्द्रह हैं। देवेन्द्र देवराज शक्र के लोकपाल यम महाराजा की स्थिति तीन भाग सहित एक पल्योपम की है और उसके अपत्य रूप से अभिमत देवों की स्थिति एक पल्योपम की है । यम महाराजा ऐसी महाऋद्धि वाला और महा प्रभाव वाला है। विवेचन-विघ्न, क्लेश, उपद्रव, युद्ध, महायुद्ध, संग्राम, महासंग्राम रोग, ज्वर आदि सारे कार्य यम महाराज और यमकायिक देवों से अज्ञात आदि नहीं होते हैं । यम महाराज For Personal & Private Use Only Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ३ उ. ७ लोकपाल यम देव को अपत्य रूप से अभिमत अम्ब, अम्बरीष आदि देव होते हैं । वे 'परमाधार्मिक' देव कहलाते है। ये तीसरी नारकी तक नैरयिक जीवों को नाना प्रकार से कष्ट देते हैं। परमाधार्मिक देवों के पन्द्रह भेद हैं। जिनके नाम ऊपर बतलाये गये हैं । उनका अर्थ इस प्रकार है (१) अम्ब-असुर जाति के जो देव नारकी जीवों को ऊपर आकाश में लेजाकर एक दम छोड़ देते हैं। (२) अम्बरीष-जो छुरी आदि के द्वारा नारकी जीवों के छोटे-छोटे टुकड़े करके भाड़ में पकने योग्य बनाते हैं। (३) श्याम-जो रस्सी या लात घूसे आदि से नारकी जीवों को पीटते हैं और भयङ्कर स्थानों में पटक देते हैं तथा जो काले रंग के होते हैं, वे 'श्याम' कहलाते हैं । (४) शबल-जो नारकी जीवों के शरीर की आँतें, नसें और कलेजे आदि को बाहर खींच लेते हैं तथा शबल अर्थात् चितकबरे रंग वाले होते हैं, उन्हें 'शबल' कहते हैं। (५) रुद्र (रौद्र)-जो भाला, बी आदि शस्त्रों में नारकी जीवों को पिरो देते हैं और जो रौद्र (भयङ्कर) होते हैं, उन्हें 'रुद्र' कहते हैं। (६) उपरुद्र (उपरौद्र)-जो नैरयिकों के अंगोपांगों को फाड़ डालते हैं और जो महारौद्र (अत्यन्त भयङ्कर) होते हैं, उन्हें 'उपरुद्र' कहते है। (७) काल-जो नैरयिकों को कड़ाही में पकाते हैं और काले रंग के होते हैं, उन्हें 'काल' कहते हैं। ... (८) महाकाल-जो उनके चिकने माँस के टुकड़े टुकड़े करते हैं, एवं उन्हें खिलाते हैं और बहुत काले होते हैं उन्हें 'महाकाल' कहते हैं । (९) असिपत्र-जो वैक्रिय शक्ति द्वारा असि अर्थात् तलवार के आकार वाले पत्तों से युक्त वन की विक्रिया करके उसमें बैठे हुए नारकी जीवों के ऊपर वे तलवार सरीखे पत्ते गिरा कर तिल सरीखे छोटे-छोटे टुकड़े कर डालते हैं, उन्हें 'असिपत्र' कहते हैं । - (१०) धनुष-जो धनुष के द्वारा अर्द्ध चन्द्रादि बाणों को फैक कर नारकी जीवों के कान आदि को छेद देते हैं, भेद देते हैं और भी दूसरी प्रकार की पीड़ा पहुंचाते हैं, उन्हें 'धनुष' कहते है। (११) कुम्भ-जो नारकी जीवों को कुम्भियों में पकाते हैं, उन्हें 'कुम्भ' कहते हैं । - (१२) बालू-जो वैक्रिय के द्वारा बनाई हुई कदम्ब पुष्प के आकारवाली अथवा वज्र के आकारवाली बालू रेत में नारकी जीवों को चने की तरह भूनत हैं, उन्हें 'बाल' For Personal & Private Use Only Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२० भगवती सूत्र-श. ३ उ. ७ लोकपाल वरुण देव (बालक) कहते हैं। ___(५३) वैतरणी-जो असुर मांस, रुधिर, राध, ताम्बा, सीसा आदि गरम पदार्थों से उबलती हुई नदी में नारकी जीवों को फेंक कर उन्हें तैरने के लिए बाध्य करते हैं, उन्हें 'वैतरणी' कहते हैं। (१४) खरस्वर-जो वज्र कण्टकों से व्याप्त शाल्मली वृक्ष पर नारकी जीवों को चढ़ा कर, कठोर स्वर करते हुए अथवा करुण रुदन करते हुए नारकी जीवों को खींचते हैं, उन्हें 'खरस्वर' कहते हैं। (१५) महाघोष-जो डर से भागते हुए नारकी जीवों को पशुओं की तरह बाड़े में बन्द कर देते हैं तथा जोर से चिल्लाते हुए उन्हें वहीं रोक रखते हैं, उन्हें 'महाघोष' कहते हैं। - पूर्वजन्म में क्रूर क्रिया तथा संक्लिष्ट परिणामवाले हमेशा पाप में लगे हुए भी कुछ जीव, पञ्चाग्नि तप आदि अज्ञान पूर्वक किये गये कायाक्लेश से आसुरी गति को प्राप्त करते हैं, वे ही परमाधार्मिक बनकर पहली तीन नरकों में नारकी जीवों को वष्ट देते हैं । जिस तरह यहाँ कोई मनुष्य भैसे, मेंढे और कुक्कुट (मुर्गा) आदि के युद्ध को देख कर खुश होते हैं । उसी तरह परमाधार्मिक देव भी कष्ट पाते हुए नारकी जीवों को देखकर खुश होते हैं । खुश होकर अट्टहास करते हैं, तालियां बजाते हैं । इन बातों से परमाधार्मिक देव बड़ा आनन्द मानते हैं। लोकपाल वरुण देव ५ प्रश्न कहि णं भंते ! सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो वरुणस्स महारण्णो सयंजले णामं महाविमाणे पण्णते ? ५ उत्तर-गोयमा ! तस्स णं सोहम्मवडेंसयस्स महाविमाणस्स पञ्चत्थिमेणं सोहम्मे कप्पे असंखेजाइं, जहा सोमस्स तहा विमाणरायहाणीओ भाणियव्वा, जाव-पासायवडेंसया । णवरं-णामणाणत्तं । सक्कस्स गं० वरुणस्स महारण्णो जाव-चिटुंति, तं जहा For Personal & Private Use Only Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ३ उ. ७ लोकपाल वरुण देव ७२१ वरुणकाइया इ वा, वरुणदेवयकाइया इ वा, णागकुमारा, णागकुमारीओ, उदहिकुमारा, उदहिकुमारीओ, थणियकुमारा, थणियकुमारीओ; जे यावण्णे तहप्पगारा सव्वे ते तभतिआ, जावचिट्ठति । जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेणं जाई इमाई समुप्पज ति, तं जहा-अइवासा इ वा, मंदवासा इवा, सुवुट्ठी इ वा, दुवुट्ठी इ वा, उदभेदा इ वा, उदप्पोला इ वा, उदब्वाहा इ वा, पव्वाहा इ वा, गामवाहा इ वा जाव सण्णिवेसवाहा इ वा; पाणक्खया, जाव-तेसिं वा वरुणकाइयाणं देवाणं । सक्कस्स णं देविंदस्स देवरण्णो वरुणस्स महारण्णो जाव-अहावच्चाऽभिण्णाया होत्था, तं जहा-ककोडए, कद्दमए, अंजणे, संखवालए, पुंडे, पलासे मोए, जए, दहिमुहे, अयंपुले, कायरिए । सकस्स णं देविंदस्स देवरण्णो वरुणस्स महारण्णो देसूणाई दो पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता, अहावच्चाभिण्णायाणं देवाणं एगं पलिओवमं ठिई पण्णता, एमहिड्ढीए, जाव-वरुणे महाराया। कठिन शब्दार्थ-अइवासा-अति वृष्टि, सुवुट्ठी-सुवृष्टि, उदग्भेदा-उदकोद्भेद, उदप्पोला-उदकोत्पील-तालाब आदि में पानी का समूह, उदग्वाहा-पानी का थोड़ा बहना । भावार्थ-५ प्रश्न-हे भगवन् ! देवेन्द्र देवराज शक्र के लोकपाल वरुण महाराज का स्वयंज्वल नाम का महा विमान कहाँ है ? ५ उत्तर-हे गौतम! सौधर्मावतंसक महा विमान से पश्चिम में, सौधर्मकल्प में असंख्य योजन दूर जाने पर वरुण महाराज का स्वयंज्वल नाम का महा For Personal & Private Use Only Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२२ भगवती सूत्र-श. ३ उ. ७ लोकपाल वरुण देव विमान आता है। इसका मारा वर्णन सोम महाराज के महा विमान की तरह जानना चाहिये । इसी तरह विमान, राजधानी यावत् प्रासादावतंसकों के विषय में भी जानना चाहिये । केवल नामों में अन्तर है। देवेन्द्र देवराज शक्र के लोकपाल वरुण महाराज की आज्ञा में यावत् ये देव रहते है-वरुणकायिक, वरुणदेव कायिक, नागकुमार, नागकुमारियां, उदधिकुमार, उदधिकुमारियां, स्तनितकुमार, स्तनितकुमारियाँ और इसी प्रकार के उसकी भक्ति और पक्ष रखनेवाले तथा अधीनस्थ देव उनकी आज्ञा में यावत् रहते हैं। इस जम्बूद्वीप के मेरु पर्वत से दक्षिण दिशा में जो ये कार्य उत्पा, होते हैं । यथा-अतिवृष्टि, मन्दवृष्टि, सुवृष्टि, दुर्वृष्टि, उदकोभेद (पहाड़ आदि से निकलने वाला झरना) उदकोत्पील (तालाब आदि में पानी का समूह),अपवाह (पानी का थोड़ा बहना)प्रवाह (पानी का प्रवाह) ग्रामवाह ग्राम का बह जाना) यावत् सन्निवेशवाह (सन्निवेश का बह जाना) प्राण-क्षय और इसी प्रकार के दूसरे सब कार्य वरुण महाराज से अथवा वरुणकायिक देवों से अज्ञात आदि नहीं है। देवेन्द्र देवराज शक के लोकपाल वरुण महाराज के ये देव अपत्य रूप से अभिमत हैं-कर्कोटक, कर्दमक, अञ्जन, शंखपालक, पुण्ड्र, पलाश, मोद, जय, दधिमुख, अयंपुल और कातरिक । ___ देवेन्द्र देवराज शक्र के लोकपाल वरुण महाराज की स्थिति देशोन दो पल्योपम की है और उसके अपत्य रूप से अभिमत देवों की स्थिति एक पल्योपम की है । वरुण महाराज ऐसा महाऋद्धिवाला और महा प्रभाववाला है। - विवेचन-वरुण के प्रकरण में वर्षा सम्बन्धी वर्णन किया गया है । वेगपूर्वक बरसती हुई वर्षा को 'अतिवर्षा' और धीरे बरसती हुई वर्षा को 'मन्द-वर्षा' कहा गया है । जिस वर्षा से धान्य आदि अच्छी तरह पक जाय उसे 'सुवृष्टि' और जिससे धान्य आदि न पक सके उसे 'दुर्वृष्टि' कहा है । पर्वत की तलहटी आदि स्थानों से पानी का निकलना 'उदकोद्भेद,' तालाब आदि में एकत्रित पानी का समूह 'उदकोत्पील,' पानी का प्रबल बहाव 'प्रवाह' और मन्द बहाव 'अपवाह' कहलाता है । तथा पानी के द्वारा होने वाले प्राणक्षय For Personal & Private Use Only Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवनी सूत्र-श. ३ उ. ७ लोकपाल वैश्रमण देव ७२३ आदि का भी यहां ग्रहण किया गया है । लवण-समुद्र में ईशान कोण में अनुवेन्धर नामक नागराज का आवास रूप पहाड़ कर्कोटक पर्वत है । और उस पर्वत पर रहने वाला नागराज भी कर्कोटक कहलाता है । इसी तरह लवण-समुद्र में अग्नि-कोण में विद्युतप्रभ नाम का पर्वत है । उस पर कर्दमक नामक नागराज रहता है । वायुकुमार देवों के राजा वेलम्ब के लोकपाल का नाम अञ्जन है और धरण नाम के नागराज के लोकपाल का नाम 'शंखपालक' है। लोकपाल वैश्रमण देव ६ प्रश्न-कहि णं भंते ! सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो वेसमणस्प्स महारण्णो वग्गु णामं महाविमाणे पण्णत्ते ? ६ उत्तर-गोयमा ! तस्स णं सोहम्मवडिंसयस्स महाविमाणस्स उत्तरेणं जहा सोमस्स महाविमाण-रायहाणिवत्तव्वया तहा गेयव्वा, जाव-पासायवडेंसया । सक्कस्स णं देविंदस्स देवरण्णो वेसमणरस इमे देवा आणा-उववाय-वयण-णिदेसे चिटुंति, . भावार्थ-६ प्रश्न-हे भगवन ! देवेन्द्र देवराज शक्र के लोकपाल वैश्रमण महाराज का वल्ग नाम का महाविमान कहां है ? ६ उत्तर-हे गौतम ! सौधर्मावतंसक नाम के महाविमान से उत्तर में है। इसका सारा वर्णन सोम महाराज के महाविमान के समान जानना चाहिए। यावत् राजधानी और प्रासादावतंसक तक का वर्णन उसी तरह जानना चाहिए। ___ देवेन्द्र देवराज शक्र के लोकपाल वैश्रमण महाराज की आज्ञा में, उपपात में, वचन में और निर्देश में ये देव रहते हैं। तं जहा-चेसमणकाइया इ वा, वेसमणदेवयकाइया इ वा, सुवण्णकुमारा, सुवण्णकुमारीओ; दीवकुमारा, दीवकुमारीओ; For Personal & Private Use Only Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२४ - भगवती सूत्र-श.३ उ. ७ लोकपाल वैश्रमण देव दिसाकुमारा; दिसाकुमारीओ; वाणमंतरा, वाणमंतरीओ; जे यावण्णे तहप्पगारा सव्वे ते तब्भत्तिआ, जाव-चिट्ठति । जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेणं जाइं इमाइं समुप्पजंति, तं जहा-अयागरा इवा, तउयागरा इ वा, तंबागरा इ वा, एवं सीसागरा इ वा, हिरण्णागरा इ वा, सुवण्णागरा इ वा, रयणागरा इ वा, वइरागरा इ वा, वसुहारा इ वा, हिरण्णवासा इ वा, सुवण्णवासा इ वा, रयणवासा इ वा, वइरवासा इ वा, आभरणवासा इ वा, पत्तवासा इ वा, पुष्पवासा इ वा, फलवासा इ.वा, बीयवासा इ वा, मल्लवासा इ वा वण्णवासा इ वा, चुण्णवासा इ वा, गंधवासा इ वा, वत्थवासा इ वा; हिरण्णवुट्ठी इ वा, सुवण्णवुट्टी इ वा, रयणवुट्टी इ. वा, वइरखुट्टी इ वा, आभरणबुट्ठी इ वा, पत्तवुट्टी इ वा, पुष्फवुट्टी इ वा, फलवुट्टी इ वा, बीयबुट्ठी इ वा, मल्लवुट्ठी इ वा, वण्णवुट्ठी इ वा, चुण्णवुट्ठी इ वा, गंधवुट्ठी इ वा, वत्थवुट्ठी इ वा, भायणवुट्ठी इ वा, खीरवुट्ठी इ वा, सुकाला इ वा, दुक्काला इ वा, अप्पग्घा इ वा, महग्या इ वा, सुभिक्खा इ वा, दुभिक्खा इ वा, कयविक्कया इ वा, सण्णिही इवा, सण्णिचया इ वा, णिही इ वा, णिहाणाई वा, चिरपोराणाई वा, पहीणसामियाइं वा, पहीणसेउयाई वा, पहीणमग्गाणि वा पहीणगोत्तागाराई वा; उच्छण्णसामियाइं वा; उच्छण्णसेउयाई वा; रच्छण्णगोत्तागाराइं वा, सिंघाडग-तिग-चउक-चच्चर-चउम्मुह महापह For Personal & Private Use Only Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ३ उ. ७ लोकपाल वैश्रमण देव ७२५ पहेसु वा, णयरणिद्धमणेसु वा, सुसाण-गिरि-कंदर-संति-सेलोचट्ठाणभवणगिहेसु सण्णिक्खित्ताई चिटुंति; ण ताई सकस्स देविंदस्स देवरण्णो वेसमणस्स महारण्णो अण्णायाई, अदिट्ठाइं; असुयाइं, अस्सु(मु)याई, अविण्णायाइं; तेसि वा वेसमणकाइयाणं देवाणं । ____ कठिन शब्दार्थ-अयागरा -- लोह की खान, तउयागरा-रांगा-कलई की खान, णिहाणाई--निधान, अप्पग्घा-सस्ताई, महग्घा--महँगाई, सन्निहि--संग्रह-संचय किया हुआ, निहि--निधि, चिरपोराणाई-बहुत समय के पुराने, पहीणसामियाइं-जिनके स्वामी नष्ट हो चुके हों. उच्छण्णसामियाई-जिनके स्वामी समाप्त हो चुके हो, णयरणिद्धमणेसु-नगर की गटरों में, सुसाण - श्मशान, गिरि–पर्वत, कंदर-गुफा, संति-शांतिगृह । भावार्थ-यथा--वैश्रमण कायिक, वैश्रमणदेव कायिक, सुवर्णकुमार, सुवर्णकुमारियाँ, द्वीपकुमार, द्वीपकुमारियाँ, दिक्कुमार, दिक्कुमारियां, वाणव्यन्तर, वाणव्यन्तरदेवियां, तथा इसी प्रकार वे सब देव जो उसकी भक्ति पक्ष और अधीनता रखते है, वे सब उसकी आज्ञा आदि में रहते हैं। इस जम्बूद्वीप के मेरु पर्वत से दक्षिण में जो ये कार्य होते हैं । यथा-लोह की खाने, रांगा की खानें, ताम्बा को खाने, शीशा की खाने, हिरण्य (चांदी) सुवर्ण रत्न और वन को खाने, वसुधारा, हिरण्य, सुवर्ण, रत्न, वज्र, गहना, पत्र, पुष्प, फल, बीज, माला, वर्ण, चूर्ण, गन्ध और वस्त्र इन सब की वर्षा । तथा कम या अधिक हिरण्य, सुवर्ण, रत्न, वज्र, आभरण, पत्र, पुष्प, फल, बीज, माल्य, वर्ण, चूर्ण, गन्ध, वस्त्र, भाजन और क्षीर की वृष्टि, सुकाल, दुष्काल, अल्पमूल्य (सस्ता), महामूल्य (महंगा), भिक्षा की समृद्धि, भिक्षा की हानि, खरीदना, बेचना, सन्निधि (घी गुडादि का संचय), सन्निचय (अनाज का संचय), निधियां, निधान चिरपुरातन (बहुत पुराने) जिनके स्वामी नष्ट हो गये हैं ऐसे खजाने, जिनकी सार संभाल करने वाले नहीं हैं ऐसे खजाने, प्रहोण मार्ग और नष्ट गोत्र वाले खजाने, स्वामी रहित खजाने, जिनके स्वामियों के नाम और गोत्र तथा घर For Personal & Private Use Only Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२६ भगवती सूत्र-श. ३ उ. ७ लोकपाल वैश्रमण देव नाम-शेष हो गये हैं ऐसे खजाने, शृंगाटक (सिंघाडे के आकार वाले) मार्गों में, त्रिक, चतुष्क, चत्वर, चतुर्मुख, महापथ, सामान्य मार्ग, नगर के गन्दे नाले, श्मशान, पर्वतगृह, पर्वत गुफा, शान्तिगृह, पर्वत को खोद कर बनाये गये घर, सभास्थान, निवासगृह आदि स्थानों में गाढ़ कर रखा हुआ धन, ये सब पदार्थ देवेन्द्र देवराज शक के लोकपाल वैश्रमण महाराज से तथा वैश्रमणकायिक देवों से अज्ञात, अदृष्ट, अश्रुत, अस्मृत और अविज्ञात नहीं हैं। सकस्स देविंदस्स देवरण्णो वेसमणस्स. महारण्णो इमे देवा अहावचाऽभिण्णाया होत्था, तं जहा-पुण्णभदे, माणिभद्दे, सालिभद्दे, सुमणभदे, चक्के, रक्खे, पुण्णरक्खे, स(प)व्वाणे, सव्वजसे, सव्वकामे, समिधे, अमोहे, असंगे। सकस्स णं देविंदस्स देवरण्णो वेसमणस्स महारण्णो दो पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता, अहावचाऽ भिण्णायाणं देवाणं एगं पलिओवमं ठिई पण्णत्ता, एमहिड्डीए, जाववेसमणे महाराया। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति । भावार्थ-देवेन्द्र देवराज शक्र के लोकपाल वैश्रमण महाराज के ये देव । अपत्य रूप से अभिमत हैं। यथा-पूर्णभद्र, मणिभद्र, शालिभद्र सुमनोभद्र, चक्र, रक्ष, पूर्णरम, सद्वान्, सर्वयश, सर्वकाय, समद्ध, अमोघ और असंग। देवेन्द्र देवराज शक्र के लोकपाल वैश्रमण महाराज की स्थिति दो पल्योपम है और उसके अपत्य रूप से अभिमत देवों की स्थिति एक पल्योपम की है। इस प्रकार बंधमण महाराज महा ऋतिवाला और महा प्रभाववाला है। For Personal & Private Use Only Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीं सूत्र-श. ३ उ. ८ देवेन्द्र ७२७ हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। विवेचन-वैश्रमण देव के विवेचन में धन, धान्य और उनके भण्डारों का वर्णन किया गया है। तीर्थङ्कर भगवान् के जन्म आदि प्रसंगों पर आकाश से जो धनवृष्टि होती है, उसे 'वसुधारा' कहते हैं । चाँदी को अथवा बिना घड़े हुए सोने को 'हिरण्य कहते हैं । झरमर झरमर बरसता हुआ पानी 'वर्षा' कहलाता है और वेगपूर्वक बरसता हुआ पानी 'वृष्टि' कहलाता है । जिस समय में भिक्षुओं को भिक्षा सरलता से मिल जाती है। उसे 'सुभिक्ष' और इससे विपरीत 'दुभिक्ष' कहलाता है । घी, गुड़ आदि के संग्रह को 'सन्निधि' और धान्य के संग्रह को 'संनिचय' कहते हैं । जो धन जमीन में गाढ़ा हुआ है, जिसको बहुत समय हो गया है, जिसका कोई स्वामी नहीं है, अथवा जिसका स्वामी मर गया है और यहाँ तक कि उसके नाम, गोत्र भी समाप्त हो गये हैं और सगे सम्बन्धी तथा उनका घर बार भी नही रहा है, ऐसे धन भण्डार जो श्मशानगृह. यावत् गिरि-गुफा, शान्तिगृह आदि में गाढ़ा हुआ है, अथवा इसी प्रकार के जितने भी धन-भण्डार हैं, वे सब वैश्रमण देव और वैश्रमण-कायिक देवों से अज्ञात आदि नहीं हैं। ॥ इति तीसरे शतक का सातवां उद्देशक समाप्त ॥ शतक ३ उद्देशक ८ देवेन्द्र ... १ प्रश्न-रायगिहें णयरे जाव-पज्जुवासमाणे एवं वयासी-असुरकुमाराणं भंते ! देवाणं कइ देवा आहेवच्चं जाव-विहरंति ? १ उत्तर-गोयमा ! दस देवा आहेवच्चं जाव-विहरति । तं जहा-चमरे असुरिंदे, असुरराया; सोमे, जमे, वरुणे, वेसमणे; बली For Personal & Private Use Only Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२८ भगवती सूत्र-श. ३ उ. ८ देवेन्द्र वइरोयणिंदे, वइरोयणराया; सोमे, जमे, वेसमणे, वरुणे । २ प्रश्न–णागकुमाराणं भंते ! पुच्छा ? २ उत्तर-गोयमा ! दस देवा आहेवच्चं, जाव-विहरति; तं जहा-धरणे णं णागकुमारिंदे, णागकुमारराया; कालवाले, कोलवाले, सेलवाले, संखवाले; भूयाणंदे णागकुमारिंदे, णागकुमारराया; कालवाले, कोलवाले, संखवाले, सेलवाले । ___ -जहा णागकुमारिंदाणं एयाए वत्तव्वयाए णेयव्वं एवं इमाणं णेयव्वं, सुवण्णकुमाराणं-वेणुदेवे, वेणुदाली, चित्ते, विचित्ते, चित्तपक्खे, विचित्तपक्खे। विज्जुकुमारणं-हरिवकंत, हरिस्सह, पभ, सुप्पभ, पभकंत, सुप्पभकंता । अग्गिकुमाराणं-अग्गिसीह, अग्गिमाणव, तेउ, तेउसीह, तेउकंत, तेउप्पभा । दीवकुमाराणं-पुण्ण, विसिट्ट, रूय, रूयंस, रूयकंत, रूयप्पभा । उदहिकुमाराणं-जलकंते, जलप्पभ, जल, जलरूय, जलकंत, जलप्पभा । दिसाकुमाराणं-अमियगई, अमियवाहणे, तुरियगई, खिप्पगई, सीहगई, सीहविक्कमगई । वाउकुमाराणं-लंब, पभंजण, काल, महाकाल, अंजण, रिट्टा । थणियकुमाराणं-घोस, महाघोस, आवत्त, वियावत्त, नंदियावत्त, महानंदियावत्ता । एवं भाणियव्वं जहा असुरकुमारा । सोम कालवाल चित्तप्पभ तेयरूव जल तुरियगई काल आवत्त । कठिन शब्दार्थ-आहेवच्चं-आधिपत्य-अधिपतिपना, पुच्छा-पृच्छा-प्रश्न पूछना । For Personal & Private Use Only Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भग त्र-श. ३ उ.८ देवेन्द्र ७२९ एयाए–सम्बन्ध में । भावार्थ-१ प्रश्न-राजगृह नगर में यावत् पर्युपासना करते हुए गौतम स्वामी ने इस प्रकार पूछा-हे भगवन् ! असुरकुमार देवों पर कितने देव अधिप्रतिपना करते हुए यावत् विचरते हैं ? । १ उत्तर-हे गौतम ! असुरकुमार देवों पर अधिपतिपना भोगते हुए यावत् दस देव विचरते हैं। वे इस प्रकार हैं-असुरेन्द्र असुरराज चमर, सोम, यम, वरुण, वैश्रमण, वैरोचनेन्द्र वैरोचनराज बलि, सोम, यम, वैश्रमण और वरुण। _२ प्रश्न-हे भगवन् ! नागकुमार देवों पर कितने देव अधिपतिपना करते हुए यावत् विचरते हैं। २ उत्तर-हे गौतम ! नागकुमार देवों पर अधिपतिपना करते हुए यावत् दस देव विचरते हैं। वे इस प्रकार हैं-नागकुमारेन्द्र नागकुमारराज धरण, कालवाल, कोलवाल, शैलपाल शंखपाल, नागकुमारेन्द्र, नागकुमारराज, भूतानन्द, कालवाल, कोलवाल, शंखपाल और शैलपाल। जिस प्रकार नागकुमारों के इन्द्रों के सम्बन्ध में वक्तव्यता कही गई है, उसी प्रकार इन देवों के सम्बन्ध में भी समझना चाहिये। सुवर्णकुमार देवों परवेणुदेव, वेणुदालि, चित्र, विचित्र, चित्रपक्ष और विचित्रपक्ष । विद्युतकुमारों के ऊपर हरिकान्त, हरिसह, प्रभ, सुप्रभ, प्रभाकान्त और सुप्रभाकांत । अग्निकुमार देवों पर-अग्निसिंह, अग्निमाणव, तेजस्, तेजःसिंह, तेजकान्त और तेजप्रभ। द्वीपकुमार देवों पर-पूर्ण, विशिष्ट, रूप, रूपांश, रूपकान्त और रूपप्रम। उदधिकुमार देवों पर-जलकान्त, जलप्रभ, जल, जलरूप, जलकान्त और जलप्रभ । दिशाकुमार देवों पर-अमितगति, अमितवाहन, त्वरितगति, क्षिप्रगति, सिंहगति और सिंहविक्रमगति । वायुकुमार देवों पर-वेलम्ब, प्रभंजन, काल, महाकाल, अंजन और अरिष्ट । स्तनित कुमार देवों पर-घोष, महाघोष, आवर्त, व्यावर्त, नन्दिकावर्त और महानन्दिकावर्त। इन सब का कथन असुरकुमारों की तरह कहना चाहिये। दक्षिण भवनपति के इन्द्रों के प्रथम लोकपालों के नाम इस प्रकार हैंसोम, कालवाल, चित्र, प्रभ, तेजस्, रूप, जल, त्वरित गति, काल और आवर्त। For Personal & Private Use Only Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३० भगवती सूत्र - श. ३ उ. ८ देवेन्द्र ३ प्रश्न - पिसायकुमाराणं पुच्छा ? ३ उत्तर - गोयमा ! दो देवा आहेवच्चं, जाव - विहरंति, तं जहा - काले य महाकाले सुरूव-पडिरूव-पुण्णभद्दे य, अमरवई माणिभद्दे भीमे य तहा महाभीमे । किण्णर - किंपुरिसे खलु सम्पुरिसे खलु तहा महापुरिसे, अकाय- महाकाए गीयरई चेव गीयजसे । एए वाणमंतराणं देवाणं । जोइसियाणं देवाणं दो देवा आहेवच्चं जाव विहरंति, तं जहा - चंदे य, सूरे य । भावार्थ - ३ प्रश्न - हे भगवन् ! पिशाचकुमारों पर अधिपतिपना करते हुए कितने देव विचरते हैं ? ३ उत्तर--हे गौतम ! उन पर अधिपतिपना भोगते हुए दो दो देव हैं। यथा -काल और महाकाल । सुरूप और प्रतिरूप । पूर्णभद्र और मणिभद्र । भीम और महाभीम । किन्नर और किम्पुरुष । सत्पुरुष और महापुरुष । अतिकाय और महाकाय । गीतरति और गीतयश । ये सब वाणव्यन्तर देवों के इन्द्र हैं ज्योतिषी देवों पर अधिपतिपना भोगते हुए दो देव यावत् विचरते हैं । यथा - चन्द्र और सूर्य । ४ प्रश्न - सोहम्मी सासु णं भंते! कप्पेसु कइ देवा आहेवच्चं जाव विहरंति ? For Personal & Private Use Only Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूप ----श. ३ उ. ८ देवेन्द्र ___ ७३१ । ___४ उत्तर-गोयमा ! दस देवा जाव-विहरति, तं जहा-सक्के देविंदे देवराया; सोमे, जमे, वरुणे, वेसमणे । ईसाणे देविंदे देवराया; सोमे, जमे, वेसमणे, वरुणे । एसा वत्तव्वया सव्वेसु वि कप्पेसु एए चेव भाणियब्वा । जे य इंदा ते य भाणियव्वा । -सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति । ____भावार्थ-४ प्रश्न-हे भगवन् ! सौधर्म और ईशान देवलोक में अधिपतिपना भोगते हुए यावत् कितने देव विचरते हैं ? ४ उत्तर-हे गौतम ! उन पर अधिपतिपना भोगते हुए यावत् दस देव हैं । यथा-देवेन्द्र देवराज शक्र, सोम, यम, वरुण, वश्रमण और देवेन्द्र देवराज ईशान, सोम, यम, वैश्रमण, वरुण । यह सारी वक्तव्यता सब देवलोकों में कहनी चाहिए और जिसमें जो इन्द्र है वह कहना चाहिए। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। विवेचन-सातवें उद्देशक में देवों की वक्तव्यता कही गई हैं और इस आठवें उद्देशक में भी देवों सम्बन्धी वक्तव्यता ही कही जाती है । मूलपाठ जो दस अक्षर कहे गये हैं । वे दक्षिण भवनपति देवों के इन्द्रों के प्रथम लोकपालों के नामों के आद्यक्षर (पहला पहला अक्षर) हैं। उनके पूरे नामों को सूचित करने वाली गाथा यह है सोमे य कालवाले, चित्तप्पभ तेउ तह रूए चेव, जल तह तुरियगई य काले आवत्त पढमा उ॥ अर्थ-सोम, कालवाल, चित्र, प्रभ, तेजस्, रूप, जल, त्वरितगति, काल और आवर्त । दूसरी जगह तो ऐसा कहा गया है कि दक्षिण दिशा के लोकपालों के प्रत्येक सूत्र में जो तीसरा और चौथा कहा गया है वह उत्तर दिशा के लोकपालों में चौथा और तीसरा कहना चाहिए। सौधर्म और ईशान के सम्बन्ध में जो वक्तव्यता कही है, वैसी ही वक्तव्यता इन्द्रों के निवासवाले सब देवलोकों के विषय में कहनी चाहिए । सनत्कुमारादि इन्द्र युगलों के For Personal & Private Use Only Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३२ भगवती सूत्र-श. ३ उ. ९ इन्द्रियों के विषय विषय में दक्षिण के इन्द्र की अपेक्षा उत्तर के इन्द्र सम्बन्धी लोकपालों में तीसरे और चौथे के नाम विपरीत क्रम से कहने चाहिए । इन प्रत्येक देवलोकों में ये सोम आदि नाम ही कहने चाहिए, किन्तु भवन पतियों के इन्द्रों के लोकपालों के समान दूसरे दूसरे नाम नहीं कहने चाहिए । सौधर्म आदि बारह देवलोकों में शक्र आदि दस इन्द्र हैं, क्योंकि नववें दसवें देवलोक में एक इन्द्र है और ग्यारहवें बारहवें देवलोक में एक इन्द्र है । इस प्रकार बारह देवलोकों में दस इन्द्र है। ॥ इति तीसरे शतक का आठवां उद्देशक समाप्त ॥ शतक ३ उद्देशक इन्द्रियों के विषय १ प्रश्न-रायगिहे जाव एवं वयासी कइविहे णं भंते ! इंदियविसए पण्णते ? - १ उत्तर-गोयमा ! पंचविहे इंदियविसए पण्णत्ते, तं जहासोइंदियविसए जाव जीवाभिगमे जोइसिय उद्देसओ णेयव्वो अपरिसेसो। For Personal & Private Use Only Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ३ उ. ९ इन्द्रियों के विषय कठिन शब्दार्थ-अपरिसेसो-सम्पूर्ण । भावार्थ-१ प्रश्न-राजगृह नगर में यावत् गौतम स्वामी इस प्रकार बोले-हे भगवन ! इन्द्रियों के विषय कितने प्रकार के कहे गये हैं ? १ उत्तर-हे गौतम ! इन्द्रियों के विषय पाँच प्रकार के कहे गये हैं। यथा--श्रोत्रेन्द्रिय का विषय, इत्यादि । इस सम्बन्ध में जीवाभिगम सूत्र में कहा हुआ ज्योतिष्क उद्देशक सम्पूर्ण कहना चाहिए। विवेचन-देवों को अवधिज्ञान होने पर भी उन्हें इन्द्रियों के उपयोग की आवश्यकता रहती है । इसलिए इस नववें उद्देशक में इन्द्रियों के विषयों का निरूपण किया जाता है । इन्द्रियों के विषय का कथन करने के लिए जीवाभिगम सूत्र के ज्योतिष्क उद्देशक का अतिदेश (भलामण) किया गया है । वह इस प्रकार है प्रश्न-हे भगवन् ! श्रोत्रेन्द्रिय के विषय सम्बन्धी पुद्गल परिणाम कितने प्रकार का कहा गया है ? उत्तर-हे गौतम ! दो प्रकार का कहा गया है। यथा-शुभ शब्द परिणाम और भशुभ शब्द परिणाम। प्रश्न-हे भगवन् ! चक्षु इन्द्रिय के विषय सम्बन्धी पुद्गल परिणाम कितने प्रकार का कहा गया है ? उत्तर--हे गौतम ! दो प्रकार का कहा गया है । यथा-सुरूप परिणाम और दूरूप परिणाम। प्रश्न-हे भगवन् ! घ्राणेन्द्रिय के विषय सम्बन्धी पुद्गल परिणाम कितने प्रकार का कहा गया है ? उत्तर-हे गौतम ! दो प्रकार का कहा गया है । यथा-सुरभिगन्ध परिणाम और दुरभिगन्ध परिणाम । प्रश्न-हे भगवन् ! रसनेन्द्रिय के विषय सम्बन्धी पुद्गल परिणाम कितने प्रकार का कहा गया है ? . उत्तर-हे गौतम ! दो प्रकार का कहा गया है । यथा-सुरस परिणाम और दूरस परिणाम । . प्रश्न-हे भगवन् ! स्पर्शनेन्द्रिय के विषय सम्बन्धी पुद्गल परिणाम कितने प्रकार का कहा गया है ? For Personal & Private Use Only Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ३ उ. १० इन्द्र की परिषद् उत्तर - हे गौतम ! दो प्रकार का कहा गया है । यथा - सुख स्पर्श परिणाम और दुःख स्पर्श परिणाम । ७३४ दूसरी प्रतियों में तो इन्द्रियों के विषय सम्बन्धी सूत्र के अतिरिक्त उच्चावचसूत्र और सुरभि सूत्र, ये दो सूत्र और कहे गये हैं । यथा- प्रश्न- हे भगवन् ! क्या उच्चावच शब्द परिणामों के द्वारा परिणाम को प्राप्त होते हुए पुद्गल 'परिणमते हैं - ऐसा कहना चाहिए ? उत्तर - हाँ, गौतम ! 'परिणमते हैं' - ऐसा कहना चाहिए । प्रश्न - हे भगवन् ! क्या शुभ शब्दों के पुद्गल अशुभ शब्दपने परिणमते हैं ? उत्तर - हाँ, गौतम ! परिणमते हैं । इत्यादि । ॥ तीसरे शतक का नवमा उद्देशक समाप्त ॥ शतक ३ उद्देशक १०. इन्द्र की परिषद् १ प्रश्न - रायगिहे जाव एवं वयासी - चमरस्स णं भंते ! असुरिंदस्स, असुररण्णो कह परिसाओ पण्णत्ताओ ? १ उत्तर - गोयमा ! तओ परिसाओ पण्णत्ताओ, तं जहासमिया, चंडा, जाया, एवं जहाणुपुव्वीए जाव - अच्चुओ कप्पो । सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति । कठिन शब्दार्थ -परिसाओ - परिषदाएँ - सभाएँ, तभ—–तीन, जहाणुपुग्विएयथानुपूर्वी - क्रमपूर्वक | For Personal & Private Use Only Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ३ उ. १० इन्द्र की परिषद् भावार्थ - १ प्रश्न - राजगृह नगर में यावत् गौतम स्वामी इस प्रकार बोलेहे भगवन् ! असुरेन्द्र असुरराज चमर के कितनी परिषदाएँ ( सभाएँ) कही गई हैं ? ७३५ १ उत्तर - हे गौतम ! उसके तीन परिषदाएँ कही गई हैं । यथा - शमिका ( अथवा - शमिता ) चण्डा और जाता। इस प्रकार क्रमपूर्वक यावत् अच्युत कल्प तक कहना चाहिए । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैं । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । ऐसा कह कर यावत् गौतमस्वामी विचरते हैं । विवेचन - नवमें उद्देशक में इन्द्रियों के विषय में कथन किया गया है । देव भी इन्द्रियों वाले होते हैं । इसलिये इस दसवें उद्देशक में देवों के सम्बन्ध में कथन किया जाता है । चमरेन्द्र के तीन परिषदा हैं। समिका, ( शमिका - शमिता ) चण्डा और जाता । उनका विस्तृत वर्णन जीवाभिगम सूत्र में है । उसमें से कुछ वर्णन यहाँ दिया जाता है | समिका - स्थिर स्वभाव और समता के कारण इसे 'समिका' कहते हैं । अथवा अपने पर स्वामी द्वारा किये हुए कोप एवं उतावल को शान्त करने की सामर्थ्यवाली होने से इसे 'शमिका' कहते हैं । अथवा उद्धतता रहित एवं शान्त स्वभाव वाली होने से इसे ' शमिका' कहते हैं । शमिता के समान महत्ववाली न होने से साधारण कोपादि के प्रसंग पर कुपित हो जाने के कारण दूसरी परिषद् को 'चण्डा' कहते हैं । गंभीर स्वभाव न होने के कारण बिना ही प्रयोजन कुपित हो जानेवाली सभा का नाम 'जाता' है । इन तीनों सभाओं को क्रमशः आभ्यन्तर परिषद्, मध्यम परिषद् और बाह्य परिषद् कहते हैं । अर्थात् शमिता आभ्यन्तर परिषद् हैं, चण्डा मध्यम परिषद् है और जाता बाह्य परिषद् है । जब इन्द्र को कोई प्रयोजन होता है, तब वह आदर पूर्वक आभ्यन्तर परिषद् को बुलाता है और उसके सामने अपना प्रयोजन कहता है । मध्यम परिषद् बुलाने पर अथवा न बुलाने पर आती है और इन्द्र आभ्यन्तर परिषद् के साथ की हुई बातचीत को उसके सामने प्रकट करके निर्णय करता है । बाह्य सभा, बिना बुलाये आती है। इसके सामने इन्द्र अपने निर्णय किये हुए कार्य को कहता है और उसे सम्पादित करने की आज्ञा देता है । नव निकाय के इन्द्रों की परिषद् के नाम असुरकुमारों के समान ही हैं । वणव्यन्तर देवों की तीन परिषदा के नाम इस प्रकार है-इसा, तुडिया, दढरथा For Personal & Private Use Only Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३६ भगवती सूत्र - श. ३ उ. १० इन्द्र की परिषद् ( दृढरथा) । ज्योतिषी के तीन परिषदा के नाम-तुम्बा, तुडिया और पर्वा । वैमानिक देवों की तीन परिषदा के नाम-शमिका, चण्डा और जाता । चमरेन्द्र की आभ्यन्तर परिषदा में २४००० देव और ३५० देवियाँ हैं । मध्यम परिषदा में २८००० देव और ३०० देवियाँ हैं । बाह्य परिषदा में ३२००० देव और २५० देवियाँ हैं । देवों की स्थिति क्रमशः ढ़ाई पल्योपम, दो पल्योपम और डेढ़ पल्योपम हैं । देवियों की स्थिति क्रमशः डेढ़ पल्योपम, एक पल्योपम और आधा पल्योपम | बलीन्द्र की तीनों परिषदा में क्रमशः बीस हजार, चौबीस हजार और अट्ठाईस हजार देव हैं। और चार सौ पचास, चार सौ और तीन सौ पचास देवियाँ हैं । देवों की स्थिति क्रमशः ३ || पल्योपम, ३ पल्योपम और २॥ पल्योपम हैं और देवियों की स्थिति क्रमशः ढ़ाई पल्योपम, दो पल्योपम और डेढ़ पल्योपम हैं । दक्षिण दिशा के नवनिकाय के देवों की तीन परिषदा में क्रमश: साठ हजार, सत्तरहजार और अस्सीहजार देव हैं। स्थिति आधा पल्योपम झाझेरी, आधा पल्यो म और देशोन आधा पल्योपम हैं। देवियाँ क्रमशः एक सौ पचहत्तर, एक सौ पचास और एक सौ पच्चीस हैं । इनकी स्थिति क्रमशः देशोन आधा पल्योपम, पाव पल्योपम झाझेरी और पाव पल्योपम की है । उत्तर दिशा के नवनिकाय के देवों की तीन परिषदाओं में क्रमश: पचास हजार, साठ हजार और सित्तर हजार देव हैं। इनकी स्थिति क्रमशः देशोन एक पल्योपम, आधा पत्योपम झाझेरी और आधा पल्योपम हैं । देवियां २२५, २०० और १७५ हैं । इनकी स्थिति क्रमश: आधा पल्योपम, देशोन आधा पल्योपम और पाव पल्योपम झाझेरी है । वाणव्यन्तर देवों के ३२ इन्द्र हैं और ज्योतिषी देवों के दो इन्द्र हैं । इनकी प्रत्येक की तीन परिषदाओं में क्रमश: आठ हजार, दस हजार और बारह हजार देव हैं । इनकी स्थिति क्रमशः आधा पल्योपम, देशोन आधा पल्योपम और पाव पल्योपम झाझेरी है। देवियाँ क्रमशः एक सौ, एक सौ और एक सौ है । इनकी स्थिति पाव पल्योपम झाझेरी, पाव पल्योपम और देशोन पांव पल्योपम की है । शकेन्द्र की तीनों परिषदा में क्रमश: बारह हजार, चौदह हजार और सोलह हजार देव हैं । इनकी स्थिति क्रमशः पांच पल्योपम, चार पल्योपम और तीन पल्योपम हैं । देवियाँ क्रमशः सात सौ, छह सौ और पांच सौ हैं। इनकी स्थिति क्रमशः तीन पल्योपम, दो पल्योपम और एक पल्योपम की है । For Personal & Private Use Only Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - ३ उ १० इन्द्र की परिषद् ईशानेन्द्र की तीनों परिषदाओं में क्रमशः दस हजार, बारह हजार और चौदह हजार देव हैं । इनकी स्थिति क्रमशः सात पल्योपम, छह पत्योपम और पांच पल्योपम हैं । देवियाँ, क्रमशः नव सौ आठ सौ और सात सौ हैं। इनकी स्थिति क्रमशः पांच पत्योपम, चार पल्योपम और तीन पत्योपम हैं । सनत्कुमारेन्द्र की तीनों परिषदा में क्रमशः ८ हजार १० हजार और १२ हजार देव हैं । इनकी स्थिति क्रमशः साढ़े चार सागर और पांच पल्योपम, साढे चार सागर और चार पत्योपम तथा साढ़े चार सागर और तीन पल्योपम है । महेन्द्र इन्द्र की तीन परिषदा में क्रमश: छह हजार, आठ हजार और दस हजार देव हैं । इनकी स्थिति क्रमशः साढ़े चार सागर सात पल्योपम, साढे चार सागर छह पल्योपम और साढ़े चार सागर पांच पत्योपम हैं । ब्रह्म इन्द्र की तीनों परिषदाओं में क्रमशः चार हजार छह हजार और आठ हजार देव हैं। इनकी स्थिति क्रमशः ८।। सागर ५ पल्योपम, ८|| सागर ४ पल्योपम और ८|| सागर ३ पल्योपम हैं । लान्तक इन्द्र की तीनों परिषदाओं में क्रमशः दो हजार, चार हजार और छह हजार देव हैं । इनकी स्थिति क्रमशः १२ सागर ७ पल्योपम, १२ सागर ६ पल्योपम और १२ सागर ५ पल्योपम है । महाशुक इन्द्र की तीनों परिपदाओं में क्रमशः एक हजार दो हजार और चार हजार देव हैं। इनकी स्थिति १५ । । सागर ५ पल्योपम, १५।। सागर ४ पल्योपम और १५ ।। सागर ३ पल्योपम है । सहस्रार इन्द्र की तीनों परिषदाओं में क्रमशः पाँच सौ, एक हजार और दो हजार देव हैं । इनकी स्थिति १७।। सागर ७ पल्योपम, १७ ।। सागर ६ पल्योपम और १७ । । सागर ५ पल्योपम है । नवव आणत देवलोक और दसवाँ प्राणत देवलोक, इन दोनों देवलोकों का एक ही इन्द्र है । प्राणतेन्द्र की तीनों परिषदाओं में क्रमशः ढाई सो, पाँच सौ और एक हजार देव हैं । इनकी स्थिति क्रमशः १९ सागर ५ पल्योपम १९ सागर ४ पल्योपम और १९ सागर ३ पल्योपम है । ग्यारहवां आरण देवलोक और बारहवां अच्युत देवलोक इन दोनों देवलोकों का एक ही इन्द्र-अच्युतेन्द्र है । इसकी तीनों परिषदाओं में क्रमश: एक सौ पच्चीस, दो सौ पचास और पांच सौ देव हैं । इनकी स्थिति २१ सागर ७ पल्योपम, २१ सागर ६ पल्योम और २१ सागर ५ पत्योपमं है । नव ग्रैवेयक और पांच अनुत्तर विमानों में परिषदाएँ नहीं होती हैं । वे सब देव समान ऋद्धिवाले होते हैं । उनमें छोटे बड़े का भाव और स्वामी सेवक का विचार नहीं ७३७ + दूसरे देवलोक से आगे देवियाँ नहीं होती । इसलिये दूसरे देवलोक से आगे देवियों की संख्या और स्थिति नहीं बतलाई गई । For Personal & Private Use Only Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ३ उ. १० इन्द्र की परिषद् होता है । इनमें इन्द्र नहीं होता । वे सब अहमिन्द्र ( स्वयं ही इन्द्र ) होते हैं । इत्यादि वर्णन जीवाभिगम सूत्र में हैं । ७३८ ॥ इति तीसरे शतक का दसवां उद्देशक समाप्त ॥ ང * तीसरा शतक समाप्त For Personal & Private Use Only Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ४ उद्देशक १,२,३,४ ईशानेन्द्र के लोकपाल गाहा–चत्तारि विमाणेहिं चत्तारि य होति रायहाणीहि । ___णेरइए लेस्साहि य दस उद्देसा चउत्थसये । १. प्रश्न-रायगिहे णयरे जाव एवं वयासी-ईसाणस्स णं भंते ! देविंदस्स देवरण्णो कइ लोगपाला पण्णता ? १ उत्तर-गोयमा ! चत्तारि लोगपाला पण्णत्ता, तं जहा-सोमे, जमे, वेसमणे, वरुणे। २ प्रश्न-एएसि णं भंते ! लोगपालाणं कइ विमाणा पण्णत्ता ? २ उत्तर-गोयमा ! चत्तारि विमाणा पण्णत्ता, तं जहा-सुमणे, For Personal & Private Use Only Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ४ उ. १-४ ईगानेन्द्र के लोकपाल सबओभदे, वग्गू, सुवग्गू। ३ प्रश्न कहि णं भंते ! ईसाणस्स देविंदस्स देवरण्णो सोमस्स महारण्णो सुमणे णामं महाविमाणे पण्णत्ते ? ३ उत्तर-गोयमा ! जंबूद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरे णं इमीले रयणप्पभाए पुढवीए जाव-ईसाणे णामं कप्पे पण्णत्ते, तत्थ णं जाव-पंच वडेंसया पण्णत्ता, तं जहा-अंकवडेंसए, फलिहवडेंसए, रयणव.सए, जायरूववडेंसए, मज्झे ईसाणवडेंसए; तस्स णं ईसाणवडेंसयस्स महाविमाणस्स पुरस्थिमेणं तिरियमसंखेजाइं जोयणसहस्साई वीईवइत्ता एत्थ णं ईसाणस्स देविंदस्स देवरण्णो सोमरस महारण्णो सुमणे णामं महाविमाणे पण्णत्ते अद्धतेरसजोयण०, जहा सक्कस्स वत्तव्वया तईयसए तहा ईसाणस्स वि जाव-अच्चणिवा सम्मत्ता। चउण्हं वि लोगपालाणं विमाणे विमाणे उद्देसओ, चउसु वि विमाणेसु चत्तारि उद्देसा अपरिसेसा, णवरं-ठिईए णाणतं आइ दुय त्रिभागूणा, पलिया धणयस्स होंति दो चेव । दोसतिभागा वरुणे, पलियमहावञ्चदेवाणं । चउत्थे सए पढम-बिईय-तईय चउत्था उद्देसा सम्मत्ता ॥४-४॥ कठिन शब्दार्थ-अच्चणिया-अर्चनिका, अपरिसेसा-पूर्ण-शेष नहीं रहे, णाणतंनानात्व-अन्तर, आदि-प्रारंभ के। For Personal & Private Use Only Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - ग. ४ उ. १-४ ईशानेन्द्र के लोकपाल ७४१ गाथा का अर्थ - इस चौथे शतक में दस उद्देशक हैं । इनमें से पहले के चार उद्देशकों में विमान सम्बन्धी कथन किया गया है। पांचवें से लेकर आठवें उद्देशक तक के चार उद्देशकों में राजधानियों का वर्णन है । नवमें उद्देशक में नैरयिकों का वर्णन है और दसवें उद्देशक में लेश्या सम्बन्धी वर्णन है । इस प्रकार इस शतक में दस उद्देशक हैं । १ प्रश्न - राजगृह नगर में यावत् गौतम स्वामी इस प्रकार बोले - हे भगवन् ! देवेन्द्र देवराज ईशान के कितने लोकपाल कहे गये हैं ? १ उत्तर - हे गौतम ! उसके चार लोकपाल कहे गये हैं । यथा - सोम, यम, वैश्रमण और वरुण । २ प्रश्न - हे भगवन् ! इन लोकपालों के कितने विमान कहे गये है ? २ उत्तर - हे गौतम ! उनके चार विमान कहे गये हैं । यथा - सुमन, सर्वतोभद्र, वल्गु और सुवल्गु । ३ प्रश्न - हे भगवन् ! देवेन्द्र देवराज ईशान के लोकपाल सोम महाराज का सुमन नामक महाविमान कहाँ है ? ३ उत्तर - हे गौतम ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप के मेरु पर्वत के उत्तर में इस रत्नप्रभा पृथ्वी के समतल से यावत् ईशान नामक कल्प ( देवलोक ) है । उसमें यावत् पांच अवतंसक हैं। तथा अंकावतंसक, स्फटिकावतंसक, रत्नावतंसक, और जातरूपावतंसक । इन चारों अवतंसकों के बीच में ईशानावतंसक है । उस ईशानावतंसक महाविमान से पूर्व में तिच्र्च्छा असंख्येय हजार योजन जाने पर देवेन्द्र देवराज ईशान के लोकपाल सोम महाराज का 'सुमन' नाम का महा- विमान है । उसका आयाम और विष्कम्भ अर्थात् लम्बाई और चौड़ाई साढे बारह लाख योजन है । इसकी सारी वक्तव्यता, तीसरे शतक में शक्रेन्द्र के लोकपाल सौम के महाविमान की वक्तव्यता के अनुसार अर्चनिका की समाप्ति तक कहनी चाहिए । एक लोकपाल के विमान की वक्तव्यता जहाँ पूरी होती है, वहाँ एक For Personal & Private Use Only Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४२ भगवती सूत्र -. ४ उ. ५-८ लोकपालों की राजधानियाँ उद्देशक की समाप्ति होती है । इस प्रकार चार लोकपालों के चार विमानों की वक्तव्यता में चार उद्देशक पूर्ण होते हैं। परन्तु इनकी स्थिति में अन्तर है। वह इस प्रकार है-सोम और यम महाराजा की स्थिति त्रिभाग न्यून दो दो पल्योपम की है, वैश्रमण की स्थिति दो पल्योपम की है और वरुण की स्थिति त्रिभाग सहित दो पल्योपम की है। अपत्य रूप देवों की स्थिति एक पल्योपम की है। - विवेचन-तीसरे शतक में प्रायः देवों के सम्बन्ध में ही कथन किया गया है। अब इस चौथे शतक में भी प्रायः देवों के सम्बन्ध में ही कथन किया जाता है चौथे शतक के दस उद्देशक है । प्रत्येक उद्देशक में किस विषय का वर्णन है । यह बात गाथा में बतलाई गई है। गाथा का अर्थ ऊपर दे दिया गया है । पहले के चार उद्देशकों में विमान सम्बन्धी कथन है और पांचवे से आठवें तक चार उद्देशकों में चार राजधानियों का वर्णन है । नवमें उद्देशक में नै रयिकों का और दसवें उद्देशक में लेश्याओं का वर्णन है । यह क्रम से आगे बतलाया जायगा । ॥ इति चौथे शतक का उद्देशक एक, दो, तीन, चार समाप्त ॥ शतक ४ उद्देशक ५,६,७,८ लोकपालों को राजधानियाँ १-रायहाणीसु वि चत्तारि उद्देसा भाणियब्वा, जाव-एमहिड्ढीए, जाव-वरुणे महाराया। ॥ चउत्थे सए पंचम-छट्ठ-सत्त-मट्ठमा उद्देसा सम्मत्ता । For Personal & Private Use Only Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - ग. ४. ५-८ लोकपाल की राजधानियाँ कठिन शब्दार्थ - रायहाणीसु - राजधानियों में, भाणियव्वा - कहना चाहिए | भावार्थ - १ - राजधानियों के विषय में ऐसा समझना चाहिए कि जहाँ एक एक राजधानी का वर्णन समाप्त होता है, वहाँ एक एक उद्देशक पूर्ण हुआ समझना चाहिए । इस तरह से चारों राजधानियों के वर्णन में चार उद्देशक पूर्ण होते हैं । इस तरह पांचवें से लेकर आठवें उद्देशक तक चार उद्देशक पूर्ण हुए, यावत् वरुण महाराज ऐसी महाऋद्धि वाला है । ७४३ विवेचन-राजधानियों के सम्बन्ध में चार उद्देशक कहने चाहिए। वे इस प्रकार हैंप्रश्न – हे भगवन् ! देवेन्द्र देवराज ईशान के लोकपाल सोम महाराज की सोमा नामक राजधानी कहाँ है ? हे गौतम! सोमा राजधानी सुमन नामक महाविमान के बराबर नीचे है । इत्यादि सारा वर्णन जीवाभिगम सूत्र में कथित राजधानी के वर्णन के समान है । इस प्रकार एक एक राजधानी के सम्बन्ध में एक एक उद्देशक कहना चाहिए। इस तरह पांचवें से लेकर आठवें उद्देशक तक चार उद्देशकों में चार राजधानियों का वर्णन है । 'द्वीपसागर प्रज्ञप्ति' ग्रंथ की संग्रहणी गाथाओं में बतलाया है कि- शकेन्द्र और ईशानेन्द्र के सोम आदि लोकपालों की, प्रत्येक की चार चार राजधानियाँ ग्यारहवें कुण्डलवर द्वीप में हैं, तथा वह पर्वत, उसकी ऊँचाई, लम्बाई, चौड़ाई आदि का वर्णन किया है। कुण्डलवर द्वीप में जिन नगरियों का वर्णन हैं, वे नगरियाँ भिन्न हैं और यहां जो राजधानियां बतलाई गई है, वे उनसे भिन्न हैं । जिस प्रकार शकेन्द्र और ईशानेन्द्र की अग्रमहिषियों की नगरियाँ नन्दीश्वर द्वीप में भी हैं और कुण्डलवर द्वीप में भी हैं, उसी प्रकार सोम आदि लोकपालों की नगरियों के विषय में भी समझना चाहिए । ॥ इति चौथे शतक का उद्देशक पांच, छह, सात, आठ समाप्त ॥ For Personal & Private Use Only Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४४ भगवती सूत्र--श. ४ उ. ९ नरयिक ही नरक में जाता है शतक ४ उद्देशक नरयिक ही नरक में जाता है १ प्रश्न-णेरइए णं भंते ! णेरइएसु उववजइ, अणेरइए णेरइ. एसु उववजइ ? १ उत्तर-पण्णवणाए लेस्सापए तईओ उद्देसओ भाणियव्वो, जाव-णाणाई। ॥चउत्थसए णवमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ कठिन शब्दार्थ-गाणाई-ज्ञानों तक । भावार्थ-१प्रश्न-हे भगवन् ! क्या जो नरयिक है वह नरयिकों में उत्पन्न होता है ? या जो अनरयिक है, वह नरयिकों में उत्पन्न होता है ? १ उत्तर-हे गौतम ! प्रज्ञापना सूत्र के लेश्यापद का तीसरा उद्देशक यहां कहना चाहिए और वह ज्ञानों के वर्णन तक कहना चाहिए। विवेचन-पहले के उद्देशकों में देवों सम्बन्धी वर्णन किया गया है। अब इस नववें उद्देशक में नरयिक जीवों का वर्णन किया जाता है, क्योंकि जिस प्रकार देवों के वैक्रिय शरीर होता है, उसी प्रकार नरयिक जीवों के भी वैक्रिय शरीर होता है । इसलिए देवों के वाद नैरयिक जीवों की वक्तव्यता कहना ठीक ही है । यहाँ नैरयिकों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में प्रश्न करनेपर प्रज्ञापना सूत्र के सतरहवें लेश्या पद के तीसरे उद्दशक का अतिदेश किया गया है । वह इस प्रकार है-- प्रश्न-हे भगवन् ! क्या नैरयिक ही नरयिकों में उत्पन्न होता है, या अनैरयिक नरयिकों में उत्पन्न होता है ? उत्तर-हे गौतम ! नरयिक ही नैरयिकों में उत्पन्न होता है, किन्तु अनैरयिक, नैरयिकों For Personal & Private Use Only Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ४ उ ९ नैरयिक ही नरक में जाता है। ७४५ में उत्पन्न नहीं होता है । एक यहाँ से जो तिर्यञ्च या मनुष्य मर कर नरक में उत्पन्न होता है, उसकी तिर्यञ्च सम्बन्धी और मनुष्य सम्बन्धी आयु तो यहाँ समाप्त हो जाती है । उसके पास सिर्फ नरक की आयु ही बंधी हुई होती है । यहाँ से मर कर नरक में पहुँचते हुए मार्ग में जो एक दो आदि समय लगते हैं, वे उसी बंधी हुई नरकायु में से ही कम होते हैं । इस प्रकार वह जीव, मार्ग में जाते हुए ( वाटे बहते हुए ) भी नरकायु को ही भोगता है । जो नरकायु को भोगता है, वह नैरयिक है । इस कारण से यहाँ कहा गया है कि नैरयिक ही नैरयिकों में उत्पन्न होता है, किन्तु अनैरयिक, नैरयिकों में उत्पन्न नहीं होता है । ऋसूत्र नय, वर्तमान पर्याय को कहता है, भूत और भविष्यत् काल की तरफ उसकी उदासीनता रहती है । इसलिए ऋजुसूत्र नय की अपेक्षा यह कहना सर्वथा उचित ही हैं कि नैरयिक ही नैरयिकों में उत्पन्न होता हैं, किन्तु अनैरयिक, नैरयिकों में उत्पन्न नहीं होता है । इसी तरह शेष दण्डकों के जीवों के सम्बन्ध में जानना चाहिए । प्रज्ञापना सूत्र के सत्तरहवें लेश्यापद का तीसरा उद्देशक कहाँ तक कहना चाहिए ? तो इसके लिए कहा गया है कि ज्ञान सम्बन्धी वर्णन तक कहना चाहिए। वह इस प्रकार है - 'हे भगवन् ! कृष्ण लेश्यावाला जीव कितने ज्ञानवाला होता है ? ' हे गौतम ! वह दो ज्ञानवाला, या तीन ज्ञानवाला, या चार ज्ञानवाला होता है । यदि दो ज्ञान होते हैं, तो मतिज्ञान और श्रुतज्ञान होते हैं । यदि तीन ज्ञान होते हैं, तो मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान होते हैं, अथवा मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और मनः पर्यायज्ञान होते हैं। यदि चार ज्ञान होते हैं, तो मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मनः पर्यायज्ञान होते हैं । इत्यादि जानना चाहिए । ॥ इति चोथे शतक का नववां उद्देशक समाप्त ॥ For Personal & Private Use Only Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४६ भगवती सूत्र-ग. ४ उ. १० लेश्या का परिवर्तन शतक ४ उद्देशक १० लेश्या का परिवर्तन १ प्रश्न-से णूणं भंते ! कण्हलेस्सा णीललेस्सं पप्प तारूवत्ताए, तावण्णताए ? १ उत्तर-एवं चउत्थो उद्देसओ पण्णवणाए चेव लेस्सापदे णेयव्वो, जाव परिणाम-वण्ण-रस-गंध-सुद्ध-अपसत्थ-संकिलिठ्ठ-ण्हा, गइ-परिणाम-पएसो गाह-वग्गणा-ट्टाणमप्पबहुँ । सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । ॥ चउत्थसए दसमो उद्देसो सम्मत्तो॥ -: चतुर्थ शतक समाप्त :कठिन शब्दार्थ-पप्प–प्राप्त करके, तारूवत्ताए -तद्प से-उस रूप से, तावण्णताए-तद्वर्ण से-उस वर्ण से । भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या कृष्ण-लेश्या, नील-लेश्या का संयोग प्राप्त करके तद्रूप और तद्वर्ण से परिणमती है ? १ उत्तर-हे गौतम ! प्रज्ञापना सूत्र में कहे हुए लेश्या-पद का चौथा उद्देशक यहां कहना चाहिए और वह यावत् 'परिणाम' इत्यादि द्वार गाथा तक कहना चाहिए। गाथा का अर्थ इस प्रकार है-परिणाम, वर्ण, रस, गन्ध, शुद्ध, अप्रशस्त, For Personal & Private Use Only Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-या. ४ उ. १० लेय्या का परिवर्तन संक्लिष्ट', उष्ण, गति, परिणाम, प्रदेश, अवगाहना, वर्गणा, स्थान और अल्पबहुत्व । ये सारी बातें लेश्याओं के विषय में कहनी चाहिए। हे भगवन ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। ऐसा कह कर यावत गौतम स्वामी विचरते हैं । - विवेचन-नववे उद्देशक के अन्त में लेश्या का कथन किया गया है। इसलिए अब इस दसवें उद्देशक में भी लेश्या के सम्बन्ध में ही कहा जाता है । लेश्या के सम्बन्ध में किये गये प्रश्न के उत्तर में प्रजापना सूत्र के सतरहवें लेश्यापद के चौथे उद्देशक का अतिदेश किया गया है। जिसका आशय इस प्रकार है हे भगवन् ! क्या कृष्ण-लेश्या, नील-लेश्या को प्राप्त होकर नद्रूप, तद्वर्ण, तद्गन्ध, नद्रस और तत्स्पर्श रूप मे बारम्बार परिणमती है ? उत्तर-हाँ गौतम ! कृष्ण-लेश्या, नील-लेश्या को प्राप्त करके तद्रूप यावत् नत्स्पर्ग पने वारम्बार परिणमती है । इसका तात्पर्य यह है कि कृष्ण-लेश्या के परिणाम वाला जीव, नील-लेश्या के योग्य द्रव्यों को ग्रहण करके मरण को प्राप्त होता है, तब वह नील लेश्या के परिणाम वाला होकर उत्पन्न होता है, क्योंकि कहा है "जल्लेसाई दवाइं परियाइत्ता कालं करेइ तल्लेसे उववज्जइ" अर्थ-जिस लेश्या के द्रव्यों को ग्रहण करके जीव, मृत्यु को प्राप्त होता है, उसी लेश्या वाला होकर दूसरे स्थान में उत्पन्न होता है । जो कारण होता है, वहीं संयोगवश कार्यरूप बन जाता है । जैसे कि कारण रूप मिट्टी, साधन संयोग से कार्यरूप (घटादि रूप) बन जाती है, उसी तरह कृष्ण-लेश्या भी कालान्तर में साधन-संयोगों को प्राप्त कर नील-लेश्या के रूप में बदल जाती है । कृष्ण-लेश्या, नील-लेश्या रूप में बदलने से इन दोनों में वास्तविक भेद नहीं है, किन्तु औपचारिक भेद है। प्रश्न-हे भगवन् ! कृष्ण-लेश्या, नील-लेश्या को प्राप्त करके तद्प यावत् तत्स्पर्श रूप से परिणमती है । इसका क्या कारण है ? उत्तर-हे गौतम ! जिस प्रकार दूध को छाछ का संयोग मिलने से वह मधुरादि गुणों को छोड़ कर छाछ के रूप, वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श रूप में परिणत हो जाता है, । उसी तरह हे गौतम ! कृष्ण-लेश्या भी नील-लेश्या को प्राप्त करके तद्रूप यावत् तत्स्पर्श For Personal & Private Use Only Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४८ भगवती सूत्र - श. ४ उ. १० लेश्या का परिवर्तन जिस प्रकार सफेद वस्त्र, लाल पीले आदि रंग के संयोग को प्राप्त करके उसी रंग के रूप, वर्णरूप यावत् रंग के स्पर्श रूप परिणम जाता है, उसी प्रकार कृष्ण-लेश्या भी नील-लेश्या को प्राप्त करके तद्रूप यावत् तत्स्पर्श रूप से परिणम जाता है । जिस प्रकार कृष्ण - लेश्या नील- लेश्या का कहा, उसी प्रकार नील-लेश्या कापोतलेश्या पने, कापोत- लेश्या तेजोलेश्यापने, तेजोलेश्या पद्मलेश्यापने और पद्मलेश्या शुक्ललेश्यापने परिणम जाती है । इत्यादि सारा वर्णन कहना चाहिए । प्रज्ञापना सूत्र के सत्तरहवें 'लेश्या पद' का चौथा उद्देशक कहाँ तक कहना चाहिये ? तो इसके लिये कहा गया है कि 'परिणाम' इत्यादि द्वार गाथा में कहे हुए द्वारों की समाप्ति तक यह उद्देशक कहना चाहिये। उनमें से परिणाम द्वार का कथन तो कर दिया गया है । वर्ण द्वार में प्रश्न किया गया है कि 'हे भगवन् ! कृष्ण-लेश्या आदि का वर्ण कैसा है ? ' उत्तर - कृष्ण - लेश्या का वर्ण, मेघ आदि के समान काला है । नील- लेश्या का वर्ण, भ्रमर आदि के समान नीला है । कापोतलेश्या का वर्ण, खदिरसार ( खेरसार - कत्था ) आदि के समान कापोत है । तेजोलेश्या का वर्ण, शशक रक्त (खरगोश के खून) आदि के समान लाल है । पद्मलेश्या का वर्ग, चम्पक आदि के पुष्प के समान पीला है । और शुक्ललेश्या. का वर्ण, शंख आदि के समान सफेद है । 2 लेश्याओं का रस इस प्रकार है- कृष्णलेश्या का रस, नीम वृक्ष के समान तिक्त ( कड़वा ) है । नीललेश्या का रस, सूंठ के समान कटु ( तीखा ) है । कापोतलेश्या का रस, कच्चे बेर के समान कषैला है । तेजोलेश्या का रस, पके हुए आम्र के समान खटमीठा होता है । पद्म लेश्या का रस, चन्द्रप्रभा आदि मदिरा के समान कटुकषायमधुर ( तीखा, कषैला और मधुर तीनों संयुक्त ) है । शुक्ल लेश्या का रस, गुड आदि के समान मीठा है । श्याओं की गंध इस प्रकार है-कृष्ण, नील और कापोत, इन तीन लेश्याओं की गन्ध, दुरभिगन्ध है । और तेजो, पद्म और शुक्ल, इन तीन लेश्याओं की गन्ध, , सुरभिगन्ध है । कृष्ण, नील, और कापोत ये तीन लेश्याएँ अशुद्ध है, अप्रशस्त हैं, संक्लिष्ट हैं, शीत और रूक्ष हैं और दुर्गति का कारण हैं। तेजो, पद्म और शुक्ल, तीन लेश्याएं शुद्ध हैं, प्रशस्त हैं, असंक्लिष्ट हैं, स्निग्ध और उष्ण हैं तथा सुगति का कारण हैं । लेश्याओं का परिणाम तीन प्रकार का कहा गया है । यथा - जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट । इनमें से प्रत्येक के तीन तीन भेद करने से नौ, इत्यादि प्रकार से आगे आगे द करने चाहिए । छहों लेश्याओं में से प्रत्येक लेश्या, अनन्त प्रदेशवाली है । और इस तरह For Personal & Private Use Only Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ४ उ. १० लेश्या का परिवर्तन ७४९ छहों लेश्याओं में से प्रत्येक लेश्या की अवगाहना असंख्यात आकाश-प्रदेश में है । कृष्णादि छहों लेश्याओं के योग्य द्रव्य वर्गणा, औदारिक आदि वर्गणा की तरह अनन्त हैं । तरतमता के कारण विचित्र अध्यवसायों के निमित्तरूप कृष्णादि द्रव्यों के समूह असंख्य हैं । क्योंकि अध्यवसायों के स्थान भी असंख्य हैं लेश्याओं के स्थानों का अल्प बहुत्व इस प्रकार है-द्रव्यार्थ रूप से कापोत-लेश्या के जघन्य स्थान सब से थोड़े हैं। द्रव्यार्थ रूप से नील-लेश्या के जघन्य स्थान उससे असंख्य । गुणा हैं । द्रव्यार्थ रूप से कृष्ण-लेश्या के जघन्य स्थान असंख्य गुणा हैं । द्रव्यार्थ रूप से तेजो-लेश्या के जघन्य स्थान असंख्य गुणा हैं । द्रव्यार्थ रूप से पद्म-लेश्या के जघन्य स्थान उससे असंख्य गुणा हैं । और द्रव्यार्थ रूप से शुक्ल-लेश्या के जघन्य स्थान भी असंख्य गुणा हैं । इत्यादि रूप से सारा वर्णन प्रज्ञापना पद के लेश्या पद के चौथे उद्देशक के अनुसार जानना चाहिये। ॥ इति चौथे शतक का दसवां उद्देशक समाप्त ॥ * चौथा शतक समाप्त* M For Personal & Private Use Only Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ५ उद्देशक १ सूर्य का उदय अस्त होना चंप-रवि अणिल गंठिय सद्दे छउमाऽऽउ एयण णियंठे, रायगिहं चंपा-चंदिमा य दस पंचमम्मि सए । कठिन शब्दार्थ--गंठिय--जालग्रंथी, अणिल--वायु, एयण--कम्पन । भावार्थ-अब पांचवां शतक प्रारम्भ होता है । इसमें दस उद्देशक हैं। प्रथम उद्देशक में सूर्य सम्बन्धी प्रश्नोत्तर हैं। ये प्रश्नोत्तर चंपानगरी में हुए थे। दूसरे उद्देशक में वायु सम्बन्धी वर्णन हैं। तीसरे उद्देशक में जालग्रन्थि का उदा. हरण देकर वर्णन किया गया है। चौथे उद्देशक में शब्द सम्बन्धी प्रश्नोत्तर है। पांचवें उद्देशक में छद्मस्थ सम्बन्धी वर्णन है। छठे उद्देशक में आयुष्य सम्बन्धी, सातवें उद्देशक में पुद्गलों के कंपन सम्बन्धी, आठवें उद्देशक में निर्ग्रन्थि-पुत्र अनगार सम्बन्धी, नवमें उद्देशक में राजगृह सम्बन्धी और दसवें उद्देशक में For Personal & Private Use Only Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ५ उ. १ सूर्य का उदय अस्त होना चन्द्र सम्बन्धी वर्णन है यह वर्णन चम्पा नगरी में किया गया था। इस प्रकार पांचवें शतक के ये दस उद्देशक हैं । विवेचन - चौथे शतक के अन्त में लेश्याओं सम्बन्धी कथन किया गया है, इसलिये अब लेश्यावाले जीवों के सम्बन्ध में कुछ कथन किया जाय तो उचित ही है । इसलिये इस पांचवें शतक मे प्रायः लेश्यावाले जीवों के सम्बन्ध में निरूपण किया गया है । इस प्रकार चौथे और पांचवें शतक का यह परस्पर सम्बन्ध है । इस शतक में दस उद्देशक हैं । जिन के विषयों का वर्णन करने वाली गाथा का सामान्य अर्थ ऊपर दिया गया है । इन दस उद्देशकों में से पहला सूर्य सम्बन्धी उद्देशक और दसवां चन्द्र सम्बन्धी उद्देशक है । इन दोनों उद्देशकों का कथन चंपानगरी में हुआ था । ७५२ तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा णामं णयरी होत्था । वष्णओ । तीसे णं चंपाए णयरीए पुण्णभद्दे णामं चेहए होत्था । वण्णओ । सामी समोसढे जाव - परिसा पडिगया । , तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेट्टे अंतेवासी इंदभूई णामं अणगारे गोयमगोत्ते णं जाव एवं वयासी १ प्रश्न - जंबुद्दीवे णं भंते! दीवे सूरिया उदीण - पाईणमुग्गच्छ पाईण- दाहिणमागच्छंति, पाईण- दाहिणमुग्गच्छ दाहिणपडीणमागच्छंति, दाहिण -पडीणमुग्गच्छ पडीण-उदीणमागच्छंति, पडीणउदीणमुग्गच्छ उदीचिपाईणमागच्छंति ? १ उत्तर - हंता, गोयमा ! जंबुद्दीवे णं दीवे सूरिया उदीणपाईणमुग्गच्छ जाव - उदीचि - पाईणमागच्छति । २ प्रश्न - जया णं भंते! जंबूद्दीवे दीवे दाहिणड्ढे दिवसे भव, For Personal & Private Use Only Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ५ उ. १ सूर्य का उदय अस्त होना ७५३ तया णं उत्तरड्ढेऽवि दिवसे भवइ, जया णं उत्तरड्ढेऽवि दिवसे भवइ, तया णं जंबूदीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरथिमपञ्चस्थिमे णं राई भवइ ? . २ उत्तर-हंता, गोयमा ! जया णं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड्ढे वि दिवसे जाव-राई भवइ । ... ३ प्रश्न-जया णं भंते ! जंबूदीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरत्थिमे णं दिवसे भवइ, तया णं पचत्थिमेण वि दिवसे भवइ, जया णं पञ्चत्थिमे णं दिवसे भवइ; तया णं जंबूदीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तर-दाहिणे णं राई भवइ ? ३ उत्तर-हंता, गोयमा ! जया णं जंबूदीवे दीवे मंदरपुरथिमे णं दिवसे, जाव-राई भवइ ? कठिन शब्दार्थ-उदीण पाईण-उत्तर पूर्व के बीच की दिशा अर्थात् ईशान कोण, दाहिण पडोण–दक्षिण और पश्चिम के बीच की दिशा अर्थात् नैऋत्य कोण, पडीण उदीण-पश्चिम और उत्तर दिशा के बीच अर्थात् वायव्य कोण, पाईण दाहिण-पूर्व और दक्षिण के बीच की दिशा अर्थात् आग्नेय कोण । भावार्थ--१ प्रश्न-उस काल उस समय में चंपा नाम की नगरी थी, वर्णन करने योग्य-समृद्ध । उस चंपा नगरी के बाहर पूर्णभद्र नाम का चैत्य (व्यंतरायतन) था। वह भी बर्णन करने योग्य था। वहाँ श्रमण भगवान् महावीर स्वामी पधारे, यावत् परिषदा भगवान् को वन्दन करने के लिये और धर्मोपदेश सुनने के लिये गई और यावत् परिषदा वापिस लौट गई। . उस काल उस समय में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के ज्येष्ठ अंतेवासी गौतम गोत्री इन्द्र भूति अनगार थे, यावत् उन्होंने इस प्रकार पूछा For Personal & Private Use Only Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५४ भगवती सूत्र-श. ५ उ. १ सूर्य का उदय अस्त होना हे भगवन् ! क्या जम्बूद्वीप नामक द्वीप में सूर्य, ईशान कोण में उदय होकर अग्नि कोण में अस्त होते हैं ? क्या अग्निकोण में उदय होकर नैऋत्य कोण में अस्त होते हैं? क्या नैऋत्य कोण में उदय होकर वायव्य कोण में अस्त होते हैं ? क्या वायव्य कोण में उदय होकर ईशान कोण में अस्त होते हैं ? १ उत्तर-हाँ, गौतम ! सूर्य इसी तरह उदय और अस्त होते हैं । जम्बूद्वीप में सूर्य उत्तर पूर्व अर्थात् ईशान कोण में उदय होकर यावत् ईशान कोण में अस्त होते हैं। २ प्रश्न-हे भगवन् ! जब जम्बूद्वीप के दक्षिणार्द्ध में दिन होता है, तब उत्तरार्द्ध में भी दिन होता है, और जब उतरार्द्ध में दिन होता है, तब जम्बूद्वीप के मेरु पर्वत से पूर्व पश्चिम में रात्रि होती है ? २ उत्तर-हाँ, गौतम ! यह इसी तरह होता है। अर्थात् जब जम्बूद्वीप के दक्षिणार्द्ध में दिन होता है तब यावत् रात्रि होती है। ३ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या जम्बूद्वीप के मेरु पर्वत से पूर्व में जब दिन होता है, तब पश्चिम में भी दिन होता है ? और जब पश्चिम में दिन होता है तब जम्बूद्वीप के मेरु पर्वत से उत्तर दक्षिण दिशा में रात्रि होती है ? .३ उत्तर-हाँ, गौतम ! यह इसी तरह होता है । अर्थात् जब जम्बूद्वीप के मेरु पर्वत से पूर्व में दिन होता है तब यावत् रात्रि होती है। विवेचन-पाँचवें शतक के प्रथम उद्देशक का विवेचन प्रारंभ होता है । जम्बूद्वीप में दो सूर्य होते हैं । उत्तर दिशा के पास के प्रदेश को 'उदीचीन' और पूर्व दिशा के पास के प्रदेश को 'प्राचीन' कहते हैं। उत्तर और पूर्व दिशा के बीच के भाग को · ईशान कोण' कहते हैं । क्रमपूर्वक ईशानकोण में सूर्य उदय होकर पूर्व और दक्षिण दिशा के बीच भाग में अर्थात् अग्निकोण में अस्त होता है । 'अमुक समय में सूर्य उदय होता है और अमुक समय में अस्त होता है' यह व्यवहार केवल दर्शक लोगों की अपेक्षा से है, क्योंकि समग्र भूमण्डल पर सूर्य के उदय और अस्त का समय नियत नहीं है । वास्तव में देखा जाय तो सूर्य तो सदा भूमण्लड पर विद्यमान ही रहता है, परन्तु जब सूर्य के सामने किसी प्रकार की आड़ (व्यवधान-ओट) आजाती है, तब उस देश के लोग सूर्य को नहीं देख सकते और तब से इस For Personal & Private Use Only Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ५ उ. १ सूर्य का उदय अस्त होना ७५५ प्रकार का व्यवहार करते हैं कि सूर्य अस्त हो गया और जब सूर्य के सामने किसी प्रकार की आड़ नहीं होती है तब उस देश के लोग सूर्य को देख सकते हैं, तब वे कहते हैं कि सूर्य उदय हो गया है । तात्पर्य यह है कि दर्शक लोगों की दृष्टि की अपेक्षा से ही सूर्य के उदय और अस्त का व्यवहार होता है। कहा भी है; जह जह समये समये पुरओ संचरइ भक्खरो गयणे । तह तह इओ वि णियमा जायइ रयणी य भावत्यो । एवं च सइ राणं उदयत्थमणाइं होंति अणिययाई। सयदेसभेए कस्सइ किंचि ववदिस्सइ णियमा ॥ अर्थ-ज्यों ज्यों सूर्य प्रतिसमय आकाश में आगे गति करता जाता है, त्यों त्यों इस तरफ रात्रि होती जाती है । इसलिए मूर्य को गति पर ही उदय और अस्त का व्यवहार निर्भर है । मनुष्यों की अपेक्षा उदय और अस्त ये दोनों क्रियाएं अनियत हैं. क्योंकि देश भेद के कारण कोई किसी प्रकार - व्यवहार करते हैं । उपरोक्त सत्र से यह बात बतलाई गई है कि सर्य आकाश में सब दिशाओं में गति करता है । जो लोग ऐमा मानते हैं कि-सूर्य पश्चिम तरफ के समुद्र में प्रवेश करके पाताल में चला जाता है और फिर पूर्व की ओर के समुद्र के ऊपर उदय होता है । इस मत का खंडन उपरोक्त सूत्र से हो जाता है। शंका-उपरोक्त सूत्र से यह स्पष्ट है कि सूर्य चारों दिशाओं में गति करता है और इससे यह बात निर्विवाद सिद्ध है कि उसका प्रकाश सदा कायम रहता है, तो फिर कहीं रात्रि और कहीं दिवस ऐसा विभाग जो देखने में आता है, वह किस प्रकार बन सकता है ? उपरोक्त कथनानुसार तो सब जगह सदा दिन ही रहना चाहिये, परन्तु ऐसा होता नहीं है। इसका क्या कारण है ? ___ समाधान-उपरोक्त शंका का समाधान यह है कि यद्यपि सूर्य समी दिशाओं में गति करता है, तथापि उसका प्रकाश मर्यादित है अर्थात् उसका प्रकाश अमुक सीमा तक फैलता है, उससे आगे नहीं । यह नियत है, इसलिये जगत् में जो रात्रि दिवस का व्यवहार होता है वह बाधा रहित है । अर्थात् जितनी सीमा तक सूर्य का प्रकाश, जितने समय तक पहुंचता है, उतनी सीमा में उतने समय तक दिवस होता है और शेष सीमा में उतने समय तक रात्रि होती है यह व्यवहार सूर्य का प्रकाश मर्यादित होने के कारण ठीक है। जम्बूद्वीप में दो सूर्य होते हैं, इसलिये एक ही समय में दो दिशाओं में दिवस होता है और For Personal & Private Use Only Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ५ उ. १ दिन रात्रि मान दो दिशाओं में रात्रि होती है। यहां दक्षिणार्द्ध और उत्तरार्द्ध का यह अर्थ नहीं समझना चाहिये कि एक ही पदार्थ का नीचे का भाग दक्षिणार्द्ध और ऊपर का भाग उत्तरार्द्ध कहलाता है, किन्तु यहां 'अर्द्ध' शब्द का अर्थ 'मात्र' अमुक भाग है । इसलिये 'दक्षिणार्द्ध' शब्द अर्थ यह है कि दक्षिण दिशा में आया हुआ भाग, और उत्तरार्द्ध का अर्थ है उत्तर दिशा में आया हुया भाग । इसलिये दक्षिणार्द्ध और उत्तरार्द्ध शब्दों के द्वारा उस सम्पूर्ण खण्ड का ग्रहण नहीं किया गया है । इसलिये पूर्व और पश्चिम दिशा में उस समय रात्रि होती है । ७५६ दिन-रात्रि मान ४ प्रश्न - जया णं भंते ! जंबूदीवे दीवे दाहिणड्ढे उक्कोसए अट्टारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, तया णं उत्तरड्ढे वि उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जया णं उत्तरड्ढे उक्कोसए अट्टारसमुहुत्ते दिवसे भवइ तया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पुरत्थिम- पचत्थिमेणं जहण्णिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ ? ४ उत्तर - हंता, गोयमा ! जया णं जंबुद्दीवे जाव - दुवालसमुहत्ता राई भवइ । ५ प्रश्न - जया णं जंबुद्दीवे मंदरस्स पुरत्थिमे णं उनकोसए अट्टारसमुहुत्ते दिवसे भवइ तया णं जंबुद्दीवे दीवे पञ्चत्थिमेण वि उक्को - सेणं अट्टारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जया णं पञ्च्चत्थिमे णं उक्कोसए अट्टारसमुहत्ते दिवसे भवइ तया णं भंते ! जंबूदीवे दीवे उत्तरदाहिणे दुवालसमुहुत्ता जाव - राई भवइ ? For Personal & Private Use Only Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ५ उ १ दिन रात्रि मान ५ उत्तर - हंता, गोयमा ! जाव - भवइ । ६ प्रश्न - जया णं भंते ! जंबूदीवे दीवे दाहिणड्ढे अट्ठारसमुत्ताणंतरे दिवसे भवइ तया णं उत्तरे अट्टारसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ, जया णं उत्तरड्ढे अट्टारसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ तया णं जंबूदीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरत्थिमे णं पचत्थिमे णं साइरेगा दुवालसमुहुत्ता राई भवइ ? ६ उत्तर - हंता, गोयमा ! जया णं जंबुद्दीवे जाव - राई भवइ । ७ प्रश्न - जया णं भंते! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरत्थिमे णं अडारसमुत्ताणंतरे दिवसे भवइ तया णं पञ्चत्थिमे णं अट्ठारसमुत्ताणंतरे दिवसे भवइ, जया णं पच्चत्थिमे णं अट्ठारसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ तया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरदाहिने गं साइरेगा दुवालसमुत्ता राई भवइ ? ७ उत्तर - हंता, गोयमा ! जाव-भवइ । ७५७ एवं एएणं कमेणं ओसारेयव्वं सत्तरसमुहुत्ते दिवसे तेरसमुहुत्ता राई भव; सत्तरसमुत्ताणंतरे दिवसे साइरेगा तेरसमुहुत्ता राई, सोलसमुहुत्ते दिवसे चोदसमुहुत्ता राई, सोलसमुहुत्ताणंतरे दिवसे साइरेगचउदसमुहुत्ता राई, पण्णरसमुहुत्ते दिवसे पण्णरसमुहुत्ता राई, पण्णरसमुहुत्ताणंतरे दिवसे साइरेगा पण्णरसमुहुत्ता राई, चोहसमुहुत्ते दिवसे सोलसमुहन्ता राई, चोहसमुहत्ताणंतरे दिवसे साइरेगा सोलस For Personal & Private Use Only Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५८ भगवती सूत्र-श. ५ उ. १ दिन-रात्रि मान मुहत्ता राई, तेरसमुहुत्ते दिवसे सत्तरसमुहुत्ता राई, तेरसमुहुत्ताणंतरे दिवसे, साइरेगा सत्तरसमुहुत्ता राई। ८ प्रश्न-जया णं जंबूदीवे दीवे दाहिणड्ढे जहण्णए दुवालसमुहत्ते दिवसे भवइ तया णं उत्तरड्ढे वि, जया णं उत्तरड्ढे तया णं जंबूदीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरस्थिम-पञ्चत्थिमे णं उकोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ ? ८ उत्तर-हंता, गोयमा ! एवं चेव उच्चारेयध्वं, जाव-राई भवइ । ९ प्रश्न-जया णं भंते ! जंबूदीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरथिमे णं जहण्णए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ तया णं पचत्थिमेण वि, जया णं पचत्थिमे णं वि तया णं जंबूदीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तर-दाहिणे णं उक्कोसिया अट्ठारसमुहत्ता राई भवइ ? ९ उत्तर-हंता, गोयमा ! जाव-राई भवइ । कठिन शब्दार्थ--ओसारेयव्वं-घटाते जाना चाहिये । भावार्थ--४ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या जम्बूद्वीप के दक्षिणार्द्ध में जब उत्कृष्ट अठारह मुहूर्त का दिन होता है, तब उत्तरार्द्ध में भी. उत्कृष्ट अठारह महर्त का दिन होता है और जब उत्तरार्द्ध में उत्कृष्ट अठारह मुहूर्त का दिन होता है, तब जम्बूद्वीप में मेरु पर्वत से पूर्व पश्चिम में जघन्य बारह मुहूर्त की रात्रि होती है ? ___४ उत्तर-हाँ, गौतम ! यह इसी तरह होती है । अर्थात् जम्बूद्वीप में यावत् बारह मुहूर्त की रात्रि होती है। For Personal & Private Use Only Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र- श. ५ उ. १ दिन-रात्रि मान ५ प्रश्न-हे भगवन ! क्या जम्बूद्वीप के मेरु पर्वत से पूर्व में जब उत्कृष्ट अठारह मुहूर्त का दिन होता है, तब जम्बूद्वीप के पश्चिम में भी उत्कृष्ट अठारह मुहूर्त का दिन होता हैं ? और जब पश्चिम में उत्कृष्ट अठारह. मुहूर्त का दिन होता है, तब जम्बूद्वीप के उत्तर और दक्षिण में जघन्य बारह मुहूर्त की रात्रि होती है ? ५ उत्तर-हाँ, गौतम ! इसी तरह होता हैं। ६ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या जम्बूद्वीप में दक्षिणार्द्ध में जब अठारह मुहर्तानन्तर (अठारह मुहूर्त से कुछ कम) दिन होता है, तब उत्तरार्द्ध में अठारह मुहूर्तानन्तर दिन होता है ? और जब उत्तरार्द्ध में अठारह मुहूर्तानन्तर दिन होता है तब जम्बूद्वीप के मेरु पर्वत से पूर्व पश्चिम दिशा में सातिरेक (कुछ अधिक) बारह मुहूर्त की रात्रि होती है ? ६ उत्तर-हाँ, गौतम ! यह इसी तरह होती है। ७ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या जम्बूद्वीप के मेरु पर्वत से पूर्व में जब अठारह महूर्तानन्तर दिन होता है, तब पश्चिम में अठारह मुहूर्तानन्तर दिन होता है ? और जब पश्चिम में अठारह महर्तानन्तर दिन होता है । तब जम्बद्वीप में मेरु पर्वत से उत्तर दक्षिण में सातिरेक बारह मुहुर्त रात्रि होती है ? . उत्तर-हाँ, गौतम ! यह इसी तरह होती है ? इस क्रम से दिन का परिमाण घटाना चाहिये और रात्रि का परिमाण बढ़ाना चाहिये । जब सत्तरह मुहूर्त का दिन होता है, तब तेरह महर्त की रात्रि होती है । जब सत्तरह मुहूर्तानन्तर दिन होता हैं, तब सातिरेक तेरह मुहूर्त रात्रि होती है । जब सोलह मुहूर्त का दिन होता है तब चौदह मुहूर्त की रात्रि होती है । जब सोलह मुहूर्तानन्तर दिन होता है, तब सातिरेक चौदह मुहूर्त की रात्रि होती है । जब पन्द्रह मुहूर्त का दिन होता है, तब पन्द्रह मुहूर्त को रात्रि होती हैं। जब पन्द्रह मुहूर्तानन्तर दिन होता है, तब सातिरेक पन्द्रह मुहूर्त की रात्रि होती है । जब चौदह मुहूर्त का दिन होता है, तब सोलह मुहूर्त को रात्रि होती है । जब चौदह मुहूर्तानन्तर दिन होता है, तब सातिरेक सोलह मुहूर्त की रात्रि For Personal & Private Use Only | Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६० भगवती सूत्र-श. ५ उ. १ दिन-रात्रि मान होती है। जब तेरह मुहूर्त का दिन होता है, तब सत्तरह मुहूर्त की रात्रि होती है । जब तेरह मुहूर्तान्तर दिन होता है, तब सातिरेक सत्तरह मुहूर्त रात्रि होती ८ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या जम्बूद्वीप में दक्षिणार्द्ध में जब जघन्य बारह मुहूर्त का दिन होता है, तब उत्तरार्द्ध में भी उसी तरह होता है ? और जब उत्तरार्द्ध में भी उसी तरह होता है, तब जम्बूद्वीप के मेरु पर्वत से पूर्व पश्चिम में उत्कृष्ट अठारह मुहूर्त की रात्रि होती हैं ? ८ उत्तर-हाँ, गौतम ! यह इसी तरह होती है । इस प्रकार सब कहना चाहिये यावत् रात्रि होती है। ९ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या जम्बूद्वीप के मेरु पर्वत से पूर्व में जब जघन्य बारह मुहूर्त का दिन होता है, तब क्या पश्चिम में भी इसी तरह होता है और जब पश्चिम में भी इसी तरह होता है, तब जम्बद्वीप के उत्तर दक्षिण में उत्कृष्ट अठारह मुहूर्त को रात्रि होती है ? ९ उत्तर-हाँ, गौतम ! यह इसी तरह होती है। . विवेचन-जब दक्षिण और उत्तर में उत्कृष्ट अठारह मुहूर्त का दिन होता है तब पूर्व और पश्चिम में बारह मुहर्त की रात्रि होती है। सूर्य के सब १८४ मण्डल हैं। उन में से जम्बूद्वीप में ६५ मण्डल हैं और बाकी ११९ मण्डल लवण समुद्र में है । जब सूर्य सर्वाभ्यन्तर मण्डल में होता है तब अठारह मुहूर्त का दिन होता है और बारह मुहूर्त की रात्रि होती है । दिवस और रात्रि दोनों के मिलाकर तीस मुहूर्त होते हैं । जब सूर्य बाहरी मण्डल से आभ्यन्तर मण्डल की ओर आता है, तब क्रमशः प्रत्येक मण्डल में दिवस बढ़ता जाता है और रात्रि घटती जाती है और जब सूर्य आभ्यन्तर मण्डल से बाहरी मण्डल की ओर प्रयाण करता है, तब प्रत्येक मण्डल में डेढ़ मिनट से कुछ अधिक रात्रि बढ़ती जाती है और दिवस उतना ही घटता जाता है । तात्पर्य यह है कि जब दिवस बड़ा होता है, तो रात्रि छोटी होती है और जब रात्रि बड़ी होती हैं, तब दिवस छोटा होता है । जब सूर्य सर्वाभ्यन्तर मण्डल से निकल कर उसके पास वाले दूसरे मण्डल में जाता है तब मुहूर्त के भाग जितना कम अठारह मुहूर्त का दिन होता है। दिन के इस परिमाण को शास्त्र में 'अष्टादशमुहूर्तानन्तर' कहा गया है । क्योंकि यह समय अठारह मुहूर्त का दिन होने के तुरन्त बाद में ही आता है। . For Personal & Private Use Only Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ५ उ. १ वर्षा का प्रथम समय इस प्रकार जब दिन कम होना प्रारम्भ होता है. तब रात्रि बारह मुहूर्त और मुहूर्त व २, भाग जितनी होती है अर्थात् इस तरह रात्रि भी बढ़ने लगती है । तात्पर्य यह है कि दिवस का जितना भाग घटना है, उतना ही भाग रात्रि का बढ़ जाता है, क्योंकि होरात्र तीस मुहूर्त का होता है। इस तरह पूर्वोक्त क्रम द्वारा सम्भव पूर्वक दिन का रिमाण घटाते जाना चाहिये । जव सूर्य दूसरे मण्डल से ३१ वें मण्डल के अर्द्ध भाग में जाता है, तव दिवस सत्तरह मुहुर्त का होता है और रात्रि तेरह मुहूर्त की होती है। यहां से चलता हुआ सूर्य जब ३२ वें मण्डल के आधे भाग में जाता है, तब एक मुहूर्त के : भाग कम सतरह मुहूर्त का दिन का होता है और रात्रि मुहूर्त के भाग अधिक तेरह. मुहूतं की होती है । ३२ वें मण्डल से चलता हुआ सूर्य जब ६१ वें मण्डल में जाता है, तब मोलह मुहूर्त का दिन होता है और चौदह मुहूर्त की रात्रि होती है । जब सूर्य दूसरे से ५२ वें मण्डल के अर्द्ध भाग में जाता है तब दिन पन्द्रह मुहूर्त का होता है और रात्रि भी पन्द्रह महर्त की होती है जब सर्य १२२ वें मण्डल में जाता है, तब दिवस चौदह महत का होता है और जब १५३ वें मण्डल के अर्द्ध भाग में जाता है, तब तेरह मुहूर्त का दिन होता है और जब दूसरे से सर्व बाह्य १८३ वें मण्डल में सूर्य जाता है, तब ठीक बारह मुहूर्त का दिन होता है और उस समय रात्रि अठारह मुहूर्त की होती है । अर्थात् जितने परिमाण में दिन घटता जाता है, उतने ही परिमाण में रात्रि बढ़ती जाती है । इस सब का तात्पर्य यह है कि दिन और रात्रि दोनों के मिलकर ३० मुहूर्त होते हैं । इसलिये दिन परिमाण में जितनी हानि होती है, तब रात्रि के परिमाण में उतनी ही वृद्धि होती है और जब रात्रि के परिमाण में जितनी हानि होती है, तब उतनी ही दिन के परिमाण में वृद्धि होती है । दोनों के मिलकर ३० मुहूर्त होते हैं, यह सुनिर्णीत है। वर्षा का प्रथम समय १० प्रश्न-जया णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड्ढे वासाणं पढमे समए पडिवजइ तया णं उत्तरड्ढे वि वासाणं पढमे समए पडिवजह; जया णं उत्तरड्ढे वि वासाणं पढमे समए पडिवजह तया For Personal & Private Use Only Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र --ग. ५ उ १ वर्षा का प्रथम समय णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्म पुरस्थिम-पञ्चत्थिमे णं अणंतरपुरक्खडे समयंसि वासाणं पढमे समए पडिवजइ ? १० उत्तर-हंता, गोयमा ! जया णं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड्ढे वासाणं पढमे समए पडिवजह, तह चेव जाव-पडिवजइ ? ११ प्रश्न-जया णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे, मंदरस्स पव्वयस्स पुरस्थिमे णं वासाणं पढमे समए पडिवजइ तया णं पञ्चत्थिमेण वि वासाणं पढमे समए पडिवजइ । जया णं पञ्चत्थिमेण वि वासाणं पढमे समए पडिवज्जइ तया णं जाव-मंदरस्स पव्वयस्स उत्तर-दाहिणे णं अणंतरपच्छाकडसमयंसि वासाणं पढमे समए पडिवण्णे भवइ ? . ११ उत्तर-हंता, गोयमा ! जया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरथिमे णं एवं चेव उच्चारेयव्वं, जाव-पडिवण्णे भवइ ? . एवं जहा समएणं अभिलावो भणिओ वासाणं तहा आवलियाए वि भाणियव्वो; आणपाणूण वि, थोवेण वि, लवेण वि, मुहुत्तेण वि, अहोरत्तेण वि, पक्खेण वि, मासेण वि, उउणा वि, एएसिं सव्वेसिं जहा समयस्स अभिलावो तहा भाणियव्यो। कठिन शब्दार्थ - पडिवज्जइ--होता है, वासाणं--वर्षा का, अणंतरपुरक्खडे-- अनन्सर पुरस्कृत अर्थात् उसी समय के बाद, अणंतरपच्छाकडसमयंसि-अनन्तर बाद के समय में, आवलियाए--आवलिका, आणपाणूण-आनपान-श्वासोच्छवास, थोवेण-- स्तोक, लवेण--लव, अहोरत्ते-रातदिन, उउणा-ऋतु । भावार्थ-१० प्रश्न-हे भगवन् ! जब जम्बूद्वीप के दक्षिणार्द्ध में वर्षा For Personal & Private Use Only Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - ५ उ. १ वर्षा का प्रथम समय ऋतु का प्रथम समय होता है, तब उत्तरार्द्ध में भी वर्षा ऋतु का प्रथम समय होता है और जब उत्तरार्द्ध में वर्षा ऋतु का प्रथम समय होता है, तब जम्बूद्वीप में मेरु पर्वत के पूर्व पश्चिम में वर्षा ऋतु का प्रथम समय अनन्तरपुरस्कृत समय में होता है अर्थात् जिस समय दक्षिणार्द्ध में वर्षा ऋतु प्रारम्भ होती है, उसी समय के पश्चात् तुरन्त दूसरे समय में मेरु पर्वत से पूर्व पश्चिम में वर्षा ऋतु प्रारम्भ होती है ? ७६३ १० उत्तर - हाँ, गौतम ! इसी तरह होता है अर्थात् जब जम्बूद्वीप के दक्षिणार्द्ध में वर्षा ऋतु का प्रथम समय होता है, तब उसी तरह यावत् होता है । ११ प्रश्न - हे भगवन् ! जब जम्बूद्वीप में मेरु पर्वत के पूर्व में वर्षाऋतु का प्रथम समय होता है, तब पश्चिम में भी वर्षा ऋतु का प्रथम समय होता है और जब पश्चिम में वर्षा ऋतु का प्रथम समय होता है, तब यावत् मेरु पर्वत के उत्तरदक्षिण में वर्षा ऋतु का प्रथम समय अनन्त रपश्चात्कृत समय में होता है अर्थात् मेरु पर्वत से पश्चिम में वर्षा ऋतु प्रारम्भ होने के एक समय पहले मेरु पर्वत से उत्तर दक्षिण में वर्षा ऋतु प्रारम्भ होती है ? ११ उत्तर - हाँ, गौतम ! इसी तरह होता है, अर्थात् जब जम्बूद्वीप में मेरु पर्वत से पूर्व में वर्षा ऋतु प्रारम्भ होती है, उससे पहले एक समय में उत्तर दक्षिण में वर्षा ऋतु प्रारम्भ होती है। इस तरह यावत् सारा कथन कहना चाहिए । जिस प्रकार वर्षा ऋतु के प्रथम समय के विषय में कहा गया है, उसी तरह वर्षा ऋतु के प्रारम्भ की प्रथम आवलिका के विषय में भी कहना चाहिए । इसी तरह आनपान, स्तोक, लव, मुहुर्त्त, अहोरात्र, पक्ष, मास, ऋतु इन सब के सम्बन्ध में भी समय की तरह कहना चाहिए । विवेचन - पहले के प्रकरण में काल के सम्बन्ध में कथन किया गया है। ऋतु भी एक प्रकार का काल है । इसलिए अब ऋतु के सम्बन्ध में कहा जाता है For Personal & Private Use Only Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ५ उ. १ हेमन्तादि ऋतुएँ और अयनादि दक्षिणार्द्ध में प्रारम्भ होनेवाली वर्षा ऋतु की शुरुआत की अपेक्षा अनन्तर भविष्यत्कालीन समय को यहाँ 'अनन्तर पुरस्कृत समय' कहा गया है। पूर्व और पश्चिम महाविदेह में प्रारम्भ होने वाली वर्षा ऋतु के प्रारम्भ की अपेक्षा अनन्तर अतीतकालीन समय को यहां 'अनन्तर पश्चात्कृत समय' कहा गया है । समय से लेकर मुहर्त तक काल के सात भेद हैंसमय-काल के सबसे छोटे भाग को-जिसका दूसरा भाग न हो सके–'समय' कहते हैं। आवलिका-असंख्यात समय की एक 'आवलिका' होती है । उच्छ्वास-निःश्वास-संख्यात आवलिकाओं का एक उच्छ्वास होता है और इतनी ही आवलिकाओं का एक निःश्वास होता है। आनप्राण-एक उच्छ्वास और निःश्वास मिल कर एक - 'आनप्राण' अथवा 'प्राण' कहलाता है। स्तोक-सात आनप्राण अथवा प्राणों का एक 'स्तोक' होता है। लव-सात स्तोकों का एक 'लव' होता है । मुहूर्त-७७ लव अर्थात् ३७७३ श्वासोच्छ्वास का एक मुहूर्त होता है । एक मुहूर्त में दो घड़ी होती है । एक घड़ी चौबीस मिनिट की होती है। तीस मुहूर्त का एक अहोरात्र होता है । पन्द्रह अहोरात्र का एक पक्ष होता है । दो पक्ष का एक मास होता है । दो मास की एक ऋतु होती है । हेमन्तादि ऋतुएँ और अयनादि १२ प्रश्न-जया णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे हेमंताणं पढमे समए पडिवज्जइ० ? ___१२ उत्तर-जहेव वासाणं अभिलावो तहेव हेमंताण वि, गिम्हाण वि भाणियन्वो जाव-उऊए; एवं तिण्णि वि, एएसं तीसं आलावगा भाणियव्वा। For Personal & Private Use Only Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ५ उ १ हेमन्तादि ऋतुएं और अयनादि ७६५ १३ प्रश्न - जया णं भंते ! जंबुडीवे दीवे मंदरम्न पव्वयम्स दाहिणढे पढ अणे पडिवज्जड तथा णं उत्तर वि पढ अ पडिवजह ? १३ उत्तर - जहा समएणं अभिलावो तहेव अयणेण वि भाणि - यवो, जाव - अणंतरपच्छा कडसमयंसि पढमे अयणे पडिवण्णे भवइ । जहा अयणेणं अभिलावो तहा संवच्छरेण वि भाणियव्वो, जुण वि, वाससएण वि, वासमहस्सेण वि, वासस्यसहस्मेण वि. पुव्वंगेण वि, पुव्वेण वि, तुडियंगेण वि, तुडिएण वि, एवं पुब्वंगे. पुव्वे, तुडियंगे, तुडिए, अडडंगे, अडडे, अववंगे, अववे, हूहूयंगे, हूहुए, उप्पलंगे, उप्पले, पउमंगे, पउभे, गलिणंगे, णलिणे, अत्थणिउरंगे, अत्थणिउरे, अउयंगे, अउए, णउयंगे, णउए, पउयंगे, पउए, चूलियंगे, चूलिए, सीसपहेलियंगे, सीसपहेलिया, पलिओवमेण, सागरोवमेण वि भाणियव्वो । १४ प्रश्न - जया णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड्ढे पढमा ओसप्पिणी पडिवज्जइ तया णं उत्तरड्ढे वि पढमा ओसप्पिणी पडिवजह; जया णं उत्तरड्ढे वि पडिवज्जइ तया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरत्थिमे णं पचत्थिमे णं णेवत्थि ओसप्पिणी, वस्थि उस्सप्पिणी; अवट्टिए णं तत्थ काले पण्णत्ते समणाउसो ? १४ उत्तर - हंता, गोयमा ! तं चैव जाव-उच्चारेयव्वं, जाव For Personal & Private Use Only Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ५ उ. १ हेमन्तादि ऋतुएँ और अयनादि समणाउसो ! जहा ओसप्पिणीए आलावओ भणिओ एवं उस्स. प्पिणीए वि भाणियव्वो। कठिन शब्दार्थ--हेमंताणं--हेमन्त ऋतु, गिम्हाणं--ग्रीष्म ऋतु, अयणे--अयन, जुएण-युग से, अवट्ठिए--अवस्थित-स्थिर । १२ प्रश्न-हे भगवन् ! जब जम्बूद्वीप के दक्षिणार्द्ध में हेमन्त ऋतु का प्रथम समय होता है, तब उत्तरार्द्ध में भी हेमन्त ऋतु का प्रथम समय होता है और जब उत्तरार्द्ध में इस तरह होता है, तब जम्बूद्वीप के मेरु पर्वत से पूर्व पश्चिम में हेमन्त ऋतु का प्रथम समय अनन्तर पुरस्कृत समय में होता है ? इत्यादि। १२ उत्तर-हे गौतम ! इस विषयक सारा वर्णन वर्षा ऋतु के वर्णन के समान जान लेना चाहिए । इसी तरह ग्रीष्म ऋतु का भी वर्णन समझ लेना चाहिए । हेमन्त ऋतु और ग्रीष्म ऋतु के प्रथम समय की तरह उनकी प्रथम आवलिका यावत् ऋतु पर्यन्त सारा वर्णन कहना चाहिए । इस प्रकार वर्षा ऋतु, हेमन्त ऋतु और ग्रीष्म ऋतु, इन तीनों का एक सरीखा वर्णन है । इसलिए इन तीनों के तीस आलापक होते हैं। १३ प्रश्न-हे भगवन् ! जब जम्बूद्वीप में मेरु पर्वत के दक्षिणार्द्ध में प्रथम 'अयन' होता है, तब उतरार्द्ध में भी प्रथम अयन होता है ? १३ उत्तर-हे गौतम ! जिस प्रकार 'समय' के विषय मे कहा, उसी प्रकार 'अयन' के विषय में भी कहना चाहिए। यावत् उसके प्रथम समय, अनन्तर पश्चात्कृत समय में होता है । इत्यादि सारा वर्णन कहना चाहिए। '. जिस प्रकार 'अयन' के विषय में कहा उसी प्रकार संवत्सर, युग, वर्षशत, वर्षमहल, वर्षशतसहस्र, पूर्वांग, पूर्व, त्रुटितांग, त्रुटित, अटटांग, अटट, अववांग, अवव, हूहूकांग, हूहूक, उत्पलांग, उत्पल, पद्मांग, पद्म, नलिनांग, नलिन, अर्थनिकुरांग, अर्थनिकुर, अयुतांग, अयुत, नयुतांग, नयुत, प्रयुतांग, प्रयुत, चूलिकांग, चूलिका, शीर्षप्रहेलिकांग, शोर्षप्रहेलिका, पल्योपम और सागरोपम । इन सब के For Personal & Private Use Only Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र--श. ५ उ. १ हेमन्तादि ऋतुएँ और अयनादि ७६७ सम्बन्ध में भी पूर्वोक्त प्रकार से समझना चाहिए। १४ प्रश्न-हे भगवन् ! जब जम्बद्वीप के दक्षिणार्द्ध में प्रथम अवसपिणी होती है, तब क्या उत्तरार्द्ध में भी प्रथम अवसर्पिणी होती है और जब उत्तरार्द्ध में प्रथम अवसर्पिणी होती है, तब क्या जम्बूद्वीप में मेरु पर्वत से पूर्व पश्चिम में अवपिणी नहीं होती, उत्सपिगी नहीं होती, किंतु हे दीर्घजीविन् श्रमण ! वहाँ अवस्थित काल होता है ? १४ उत्तर-हाँ, गौतम ! इसी तरह होता है। यावत् पहले की तरह सारा वर्णन कहना चाहिए। जिस प्रकार अवपिणी के विषय में कहा है, उसी तरह उत्ससिणी के विषय में भी कहना चाहिए । विवेचन-तीन ऋतुओं का एक 'अयन' होता है। दो 'अयन' का एक संवत्सर (वर्ष) होता है। पांच संवत्सर का एक 'युग' होता है । बीस युग का एक वर्षशत (सौ वर्ष) होता है । दस वर्षशत का एक वर्षसहस्र (एक हजार वर्ष) होता है । सौ वर्ष सहस्रों का एक वर्षशतसहस्र (एक लाख वर्ष) होता है । चौरासी लाख वर्षों का एक 'पूर्वांग' होता है । एक पूर्वाग को अर्थात् चौरासी लाख को चौरासी लाख से गुणा करने से एक 'पूर्व' होता है । एक पूर्व को चौरासी लाख से गुणा करने से एक 'त्रुटितांग होता है । एक त्रुटितांग को चौरामी लाख से गुणा करने पर एक 'त्रुटित' होता है । इस प्रकार पहले की राशि को चौरासी लाख से गुणा करने पर उत्तरोत्तर राशियाँ बनती जाती हैं । वे इस प्रकार हैं-अटटांग, अट, अववांग, अवव, हुहूकांग, हूहूक, उत्पलांग, उत्पल, पद्मांग, पद्म, नलिनांग, नलिन, अर्थनिकुरांग, अर्थनिकुर, अयुतांग अयुत, नयुतांग, नयुत, प्रयुतांग, प्रयुत, चूलिकांग,चूलिका, गीर्षप्रहेलिकांग, शीर्षप्रहेलिका । शीर्षप्रहेलिका १९४ अङ्कों की संख्या है । यथा-७५८२६३२५३०७३०१०२४११५ ७९७३५६९९७५६९६४०६२१८९६६८४८०८०१८३२९६ इन चौपन अङ्कों पर एक सौ चालीस बिन्दियाँ लगाने से शीर्षप्रटेलिका संख्या का प्रमाण आता है। यहाँ तक का काल गणित का विषय माना गया है । इसके आगे भी काल का परिमाण बतलाया गया है, परन्तु वह गणित का विषय नहीं है, किंतु उपमा का विषय है । यथा-पल्योपम, सागरोपम आदि । अवसर्पिणी काल, जिस काल में जीवों के संहनन और संस्थान क्रमशः हीन होते For Personal & Private Use Only Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६८ भगवती सूत्र-श. ५ उ. १ लवण समुद्र में सूर्योदय wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwm जाते हैं. आयु और अवगाहना घटती जाती है. तथा उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार और पराक्रम का क्रमशः ह्रास होना जाता है, उसे 'अवसपिणी' काल कहते हैं । इस काल में पुद्गलों के वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श हीन होते जाते हैं । शुभ भाव घटते जाते हैं और अशुभ भाव बढ़ते जाते हैं । अवसर्पिणी काल दस कोडाकोड़ी सागरोपम का होता है। इसके छह विभाग होते हैं, जिन्हें 'आरा' कहते हैं। . उत्सपिणी काल-जिस काल में जीवों के मंहनन और संस्थान क्रमशः अधिकाधिक शुभ होते जाते हैं, आयु और अवगाहना बढ़ती जाती है तथा उत्थान, कर्म, बल वीर्य पुरुषकार और पराक्रम की वृद्धि होती जाती है, उसे 'उत्सर्पिणी' काल कहते हैं । जीवों की तरह इस काल में पुद्गलों के वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श भी शुभ होते जाते हैं । अशुभतम भाव अशुभतर, अशुभ, शुभ, शुभतर होते हुए यावत् शुभतम हो जाते हैं । अवसर्पिणी काल में क्रमशः ह्रास होते हुए हीनतम अवस्था आजाती है और इसमें उत्तरोत्तर वृद्धि होते हुए क्रमशः उच्चतम अवस्था आजाती है । यह काल भी दस कोड़ाकोड़ी सागरोपम का होता है । इसके भी छह आरे होते है । लवण समुद्र में सूर्योदय १५ प्रश्न-लवणे णं भंते ! समुद्दे सूरिया उदीण पाईणमुग्गच्छ०?. १५ उत्तर-जच्चेव जंबुद्दीवस्स वत्तव्वया भणिया सच्चेव सव्वा अपरिसेसिया लवणसमुदस्स वि भाणियव्वा, णवरं-अभिलावो इमो णेयन्यो । जया णं भंते ! लवणे समुद्दे दाहिणड्ढे दिवसे भवइ तं चेव जाव-तया णं लवणसमुद्दे पुरथिमपञ्चत्थिमे णं राई भवइ । एएणं अभिलावेणं णेयव्वं । ___ १६ प्रश्न-जया णं भंते ! लवणसमुद्दे दाहिणड्ढे पढमा ओस For Personal & Private Use Only Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र – श. ५ उ. १ लवण समुद्र में सूर्योदय प्पिणी पडिवजह, तया णं उत्तरड्ढे पढमा ओसप्पिणी पडिवज्जह, जया णं उत्तरड्ढे पढमा ओसप्पिणी पडिवज्जइ, तया णं लवणसमुद्दे पुरत्थिम- पचत्थिमेणं वत्थि ओसप्पिणीः णेवत्थि उस्सप्पिणी समणाउसो ! ? १६ उत्तर - हंता, गोयमा ! जाव- समणाउसो ! | कठिन शब्दार्थ - - अभिलावो -- अभिलाप, नेवत्थि -- नहीं होना । भावार्थ - - १५ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या लवणसमुद्र में सूर्य ईशानकोण में उदय होकर अग्निकोण में जाते हैं ? इत्यादि सारा प्रश्न पूछना चाहिए । १५ उत्तर - हे गौतम ! जिस प्रकार जम्बूद्वीप में सूर्यों के सम्बन्ध में वक्तव्यता कही गई है, वह सम्पूर्ण वक्तव्यता लवण समुद्र के सम्बन्ध में भी कहनी चाहिए । इतनी विशेषता है कि इस वक्तव्यता में पाठ का उच्चारण इस प्रकार करना चाहिए - "हे भगवन् ! जब लवण समुद्र के दक्षिणार्द्ध में दिन होता है, इत्यादि सारा कथन उसी प्रकार कहना चाहिए, यावत् तब लवणसमुद्र में पूर्व पश्चिम में रात्रि होती है । इस अभिलाप द्वारा सारा वर्णन जान लेना चाहिए । १६ प्रश्न - हे भगवन् ! जब लवणसमुद्र के दक्षिणार्द्ध में प्रथम अवसर्पिणी होती है, तब उत्तरार्द्ध में प्रथम अवसर्पिणी होती है ? और जब उत्तरार्द्ध में प्रथम अवसर्पिणी होती है, तब लवणसमुद्र के पूर्व पश्चिम में अवसर्पिणी नहीं होती, उत्सर्पिणी नहीं होती, परन्तु वहाँ अवस्थित काल होता है ? १६ उत्तर - हाँ, गौतम ! यह इसी तरह होता है, यावत् अवस्थित काल होता है । विवेचन - पहले प्रकरण में जम्बूद्वीप में सूर्य का वर्णन किया गया है। अब लवणसमुद्रादि में सूर्य का वर्णन किया जाता है । जम्बूद्वीप एक लाख योजन का लम्बा चौड़ा है । जम्बूद्वीप में दो सूर्य और दो चंद्र हैं। जम्बूद्वीप को चारों ओर से घेरे हुए लवणसमुद्र है। इस समुद्र का पानी खारा है, इसलिए ७६९ For Personal & Private Use Only Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७० भगवती सूत्र- श. ५ उ. १ धातकीखंड और पुष्करार्द्ध में सूर्योदय इसे 'लवण समुद्र' कहते हैं । यह दो लाख योजन का लम्बा चौड़ा है। इसमें चार सूर्य और चार चन्द्र हैं । जम्बूद्वीप का आकार गोल रुपया जैसा है और लवण समुद्र का आकार भी गोल है, किन्तु बीच में जम्बूद्वीप के होने से कंकण, चूड़ी और कड़ा जैसा गोल है । जम्बूद्वीप से लवणसमुद्र ने चौबीस गुणी जगह रोकी है । धातकीखंड और पुष्करार्द्ध में सूर्योदय १७ प्रश्न-धायइसंडे णं भंते ! दीवे सूरिया उदीणपाईणमुग्गच्छ० ? १७ उत्तर-जहेव जंबुद्दीवस्स वत्तव्वया भणिया स च्चेव धायइसंडस्स वि भाणियव्वा, णवरं-इमेणं अभिलावेणं सव्वे आलावगा भाणियव्वा। ___ १८ प्रश्न-जया णं भंते ! धायइसंडे दीवे दाहिणड्ढे दिवसे भवइ, तया णं उत्तरड्ढे वि, जया णं उत्तरड्ढे वि तया णं धायइसंडे दीवे मंदराणं पव्वयाणं पुरथिमपञ्चत्थिमे णं राई भवइ । १८ उत्तर-हंता, गोयमा ! एवं चेव जाव-राई भवइ । १९ प्रश्न-जया णं भंते ! धायइसंडे दीवे मंदराणं पव्वयाणं पुरस्थिमेणं दिवसे भवइ तया णं पचत्थिमेण वि ? जया णं पञ्चत्थिमेण वि तया णं धायइसंडे दीवे मंदराणं पव्वयाणं उत्तरेणं दाहिणेणं राई भवइ ? For Personal & Private Use Only Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगत ती मूत्र -ग. ५ उ. १ धातकीवंड और पुष्करार्द्ध में सूर्योदय ७७१ १९ उत्तर-हंता, गोयमा ! जाव भवइ-एवं एएणं अभिलावणं णेयव्वं जाव०। ___२० प्रश्न-जया ण भंते ! दाहिणड्ढे पढमा ओसप्पिणी तया णं उत्तरड्ढे ? जया णं उत्तरड्ढे तया णं धायइसंडे दीवे मंदराणं पव्वयाणं पुरथिम-पञ्चत्थिमेणं णत्थि ओसप्पिणी जाव-समणाउसो ! ? २० उत्तर-हंता, गोयमा ! जाव-समणाउसो !। जहा लवणसमुद्दस्म वत्तव्वया तहा कालोदस्म वि भाणियव्या, णवरं कालोदस्स णामं भाणियव्वं । २१ प्रश्न-अभितरपुकवरःणं भंते ! सूरिया उदीणपाईणमुग्गच्छ० ? २१ उत्तर-जहेव धायइसंडस्स वत्तव्वया तहेव अभितरपुवखरद्धस्स वि भाणियब्बा, णवरं-अभिलावो जाणियब्वो जाव-तया णं अभितरपुक्वरः मंदराणं पुरथिम-पञ्चत्थिमेणं णेवत्थि अवसप्पिणो, णेवत्यि उस्सप्पिणी-अवट्ठिए णं तत्थ काले पण्णत्ते समणाउसो !। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति। ॐ पंचमसए पढमो उद्देसो सम्मत्तो * कठिन शब्दार्थ-अमितरपुक्खरद्धे-आभ्यन्तर पुष्करार्द्ध, अवट्ठिए-अवस्थित । भावार्थ-१७ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या धातकीखण्ड द्वीप में सूर्य, ईशान. For Personal & Private Use Only Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७२ भगवती सूत्र - श. ५ उ. १ धातकी खड और पुष्करार्द्ध में सूर्योदय कोण में उदय होकर अग्निकोण में अस्त होते हैं ? इत्यादि प्रश्न । १७ उत्तर - हे गौतम! जिस प्रकार की वक्तव्यता जम्बूद्वीप के सम्बन्ध में कही गई है, उसी प्रकार की सारी वक्तव्यता धातकीखण्ड के सम्बन्ध में भी कहनी चाहिए, परन्तु विशेषता यह है कि पाठ का उच्चारण करते समय सब आलापक इस प्रकार कहने चाहिए १८ प्रश्न - हे भगवन् ! जब धातकीखण्ड के दक्षिणार्द्ध में दिन होता है, तब उत्तरार्द्ध में भी दिन होता है, और जब उत्तरार्द्ध में दिन होता है, लब धातकीखण्ड द्वीप में मेरु पर्वत से पूर्व पश्चिम में रात्रि होती है ? इसी तरह होता है, यावत् रात्रि होती १६ उत्तर - हाँ, गौतम ! यह है । १९ प्रश्न - हे भगवन् ! जब धातकीखण्ड द्वीप में मेरु पर्वत से पूर्व में दिन होता है, तब पश्चिम में भी दिन होता है और जब पश्चिम में दिन होता है, तब धातकीखण्ड द्वीप में मेरु पर्वत से उत्तर दक्षिण में रात्रि होती है ? और इसी अभिलाप से १९ उत्तर - हाँ, गौतम ! यह इसी तरह होता है जानना चाहिए। यावत् ( रात्रि होती है ) २० प्रश्न - हे भगवन् ! जब दक्षिणार्द्ध में प्रथम अवसर्पिणी होती है, तब उत्तरार्द्ध में भी प्रथम अवसर्पिणी होती है, और जब उत्तरार्द्ध में प्रथम अवसर्पिणी होती है, तब धातकीखण्ड द्वीप में मेरु पर्वत से पूर्व पश्चिम में अवसर्पिणी नहीं होती, उत्सर्पिणी नहीं होती, परन्तु अवस्थित काल होता है ? २० उत्तर - हाँ, गौतम ! यह इसी तरह होता है । होता है, यावत् अवस्थित काल जिस प्रकार लवण समुद्र के विषय में कहा गया है, उसी प्रकार कालोदधि के विषय में भी कहना चाहिए। इसमें इतनी विशेषता है कि 'लवणसमुद्र' के स्थान पर 'कालोदधि' का नाम कहना चाहिए । २१ प्रश्न - हे भगवन् ! आभ्यन्तर पुष्करार्द्ध में सूर्य, ईशानकोण में For Personal & Private Use Only Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ५ उ. १ धातकीखंड और पुष्करार्द्ध में सूर्योदय ७७३ उदय होकर अग्निकोण में अस्त होते हैं ? इत्यादि प्रश्न ? २१ उत्तर - हे गौतम! जिस प्रकार धातकीखंड द्वीप की वक्तव्यता कही गई, उसी तरह आभ्यन्तर पुष्करार्द्ध के विषय में भी कहनी चाहिए, किंतु इतनी विशेषता है कि 'धातकीखंड द्वीप' के स्थान पर 'आभ्यन्तर पुष्करार्द्ध' का नाम कहना चाहिए, यावत् आभ्यन्तर पुष्करार्द्ध में मेरु पर्वत से पूर्व पश्चिम में अवसर्पिणी नहीं होती, उत्सर्पिणी नहीं होती, किन्तु अवस्थित काल होता है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । ऐसा कह कर यावत् गौतम स्वामी विचरते हैं । विवेचन -- लवण समुद्र के चारों ओर धातकीखण्ड द्वीप है । जो चार लाख योजन का वलयाकार है । इसमें वारह सूर्य और बारह चन्द्रमा हैं । धातकीखण्ड के चारों तरफ कालोद समुद्र है । वह आठ लाख योजन का वलयाकार है। इसमें बयालीस सूर्य और बयालीस चन्द्रमा हैं । कालोद समुद्र के चारों तरफ पुष्करवरद्वीप है । वह सोलह लाख योजन का वलयाकार है । उसके बीच में मानुषोत्तर पर्वत आ गया है । यह पर्वत अढ़ाई द्वीप दो समुद्र के चारों ओर, गढ़ ( किले) की तरह गोल है । यह पर्वत बीच में आजाने से पुष्करवर द्वीप के दो विभाग हो गये हैं- आभ्यन्तर पुष्करवर द्वीप और वाह्य पुष्करवर द्वीप | आभ्यंतर पुष्करवर द्वीप में ७२ सूर्य और ७२ चन्द्र हैं। वह पर्वत मनुष्य क्षेत्र की मर्यादा करता है, इसलिए इसे मानुषोत्तर पर्वत कहते हैं। इसके आगे भी असंख्यात द्वीप समुद्र हैं, किन्तु उनमें किसी में भी मनुष्य नहीं हैं। मनुष्य क्षेत्र में ढाई द्वीप और दो समुद्र हैं अर्थात् जम्बूद्वीप धातकीखण्ड द्वीप और अर्द्ध पुष्करवर द्वीप । लवणसमुद्र और कालोद समुद्र । ढाई द्वीप और दो समुद्र की लम्बाई चौड़ाई पैंतालीस लाख योजन की है । अर्द्ध पुष्करवर द्वीप की दूसरी ओर तिर्यञ्च पशु पक्षी आदि हैं। पुष्करवर द्वीप से आगे असंख्यात द्वीप समुद्र हैं, वे एक एक से दुगुने दुगुने होते गये हैं। सब के अन्त में स्वयम्भूरमण समुद्र हैं । यह सब से बड़ा है । स्वयम्भूरमण समुद्र ने अर्द्ध राजु से कुछ अधिक जगह रोक ली है। इस समुद्र के चौतरफ बारह योजन धनोदधि, घनवात और तनुवात है । यहाँ तिच्छलोक का अन्त होता है । इसके आगे अलोक है । अलोक में आकाशास्तिकाय के सिवाय कुछ नहीं है । अढ़ाई द्वीप में कुल १३२ सूर्य और १३२ चन्द्र हैं । वे सब चर ( गति करने वाले ) हैं । इससे आगे अचर ( स्थिर ) हैं । इसलिए अढ़ाई द्वीप में ही दिवस रात्रि आदि समय का व्यवहार होता For Personal & Private Use Only Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७४ भगवती सूत्र-श. ५ उ. २ स्निग्ध पथ्यादि वायु है, इसीलिए इसे (अढाई द्वीप समुद्र को अथवा मनुष्य क्षेत्र को) 'समयक्षेत्र' कहते हैं । इससे आगे दिन रात्रि आदि समय का व्यवहार नहीं होता । क्योंकि वहां सूर्य चन्द्र आदि के विमान जहाँ के तहाँ स्थिर हैं। दिन रात्रि आदि समय का व्यवहार सूर्य चन्द्र की गति पर निर्भर है। ॥ इति पांचवें शतक का पहला उद्देशक समाप्त ॥ शतक ५ उद्देशक २ स्निग्ध पथ्यादि वाय. १ प्रश्न-रायगिहे णयरे जाव एवं वयासी-अस्थि णं भंते ! ईसिंपुरेवाया, पच्छा वाया, मंदा वाया, महावाया वायंति ? १ उत्तर-हंता, अस्थि । ___२ प्रश्न-अस्थि णं भंते ! पुरथिमे णं ईसिंपुरवाया, पच्छा वाया, मंदा वाया, महावाया वायंति ? । ___२ उत्तर-हंता, अस्थि । एवं पचत्थिमे णं, दाहिणे णं, उत्तरे णं, उत्तरपुरथिमे णं, दाहिणपुरस्थिमे णं, दाहिणपञ्चत्थिमे णं उत्तरपञ्चत्थिमे णं । ३ प्रश्न-जया णं भंते ! पुरथिमे णं ईसिंपुरेवाया, पच्छा वाया, For Personal & Private Use Only Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र--श. ५ उ. २ स्निग्ध पथ्यादि वायु ७७५ मंदा वाया, महावाया वायंति; तया णं पञ्चत्थिमेण वि ईसिंपुरेवाया, जया णं पञ्चत्थिमे णं ईसिंपुरवाया तया णं पुरस्थिमेण वि ? ३ उत्तर-हंता, गोयमा ! जया णं पुरस्थिमे णं, तया णं पञ्चथिमेण वि ईसिंपुरेवाया० जया णं पञ्चस्थिमेण वि ईसिंपुरेवाया० तया णं पुरथिमेण वि ईसिंपुरवाया एवं दिसासु, विदिसासु । कठिन शब्दार्थ-ईसिपुरवाया-ईषत्पुरोवात-कुछ स्निग्धता युक्त वायु, पच्छावायापथ्यवात-वनस्पति आदि को हितकर वायु । भावार्थ-१ प्रश्न-राजगृह नगर में यावत् इस प्रकार बोले कि हे भगवन् ! क्या ईषत्पुरोवात, पथ्यवात, मन्दवात और महावात बहती हैं (चलती हैं) ? १ उत्तर-हाँ, गौतम ! उपरोक्त वायु बहती हैं। २ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या पूर्व दिशा में ईषत्पुरोवात, पथ्यवात, मन्दवात और महावात बहती हैं ? ____२ उत्तर-हाँ, गौतम ! उपरोक्त वायु पूर्व दिशा में बहती है । इसी तरह पश्चिम में, दक्षिण में, उत्तर में, ईशानकोण में, अग्निकोण में, नैऋत्यकोण में और वायव्यकोण में उपरोक्त वायु बहती हैं। ३ प्रश्न-हे भगवन ! जब पूर्व में ईषत्पुरोवात, पथ्यवात, मन्दवात और महावात बहती हैं, तब पश्चिम में भी ईषत्पुरोवात आदि वायु बहती हैं, और जब पश्चिम में ईषत्पुरोवात आदि वायु बहती हैं, तब क्या पूर्व में भी वे वायु बहती हैं ? ३ उत्तर-हे गौतम ! जब पूर्व में ईषत्पुरोवात आदि वायु बहती हैं, तब वे सब पश्चिम में भी बहती है और जब पश्चिम में ईषत्पुरोवात आदि वायु बहती हैं, तब पूर्व में भी वे सब वायु बहती हैं। इसी प्रकार सब विशाओं में और विदिशाओं में भी कहना चाहिये। For Personal & Private Use Only Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ५ उ. २ स्निग्ध पथ्यादि वायु विवेचन - पहले उद्देशक में दिशाओं को लेकर दिवस आदि का विभाग बतलाया गया है । अब इस दूसरे उद्देशक में भी दिशाओं को लेकर वायु सम्बन्धी वर्णन किया जाता है । इसमें सबसे पहले वायु के भेद बतलाये गये हैं । स्वल्प ओस आदि की स्निग्धता युक्त वायु को 'ईषत्पुरोवात' कहते हैं । वनस्पति आदि के लिये लाभदायक और हितकर वायु को 'पथ्यवात' कहते हैं। धीरे धीरे चलने वाली वायु को 'मन्दवात' कहते हैं । उद्दण्ड, प्रचण्ड और तूफानी वायु को 'महावात' कहते हैं । चार दिशा और चार विदिशा, इन आठों के सम्बन्ध में आठ सूत्र कहे गये हैं। आगे दो सूत्र दिशाओं के पारस्परिक सम्बन्ध को लेकर कहे गये हैं । और दो सूत्र विदिशाओं के पारस्परिक सम्बन्ध को लेकर कहे गये हैं । ७७६ ४ प्रश्न - अत्थि णं भंते ! दीविचया ईसिंपुरेवाया ? ४ उत्तर - हंता, अस्थि । ५ प्रश्न - अस्थि णं भंते ! सामुद्दया ईसिंपुरेवाया ? ५ उत्तर - हंता, अस्थि । ६ प्रश्न - जया णं भंते ! दीविचया ईसिंपुरेवाया तया णं सामुद्दया विईसिंपुरेवाया जया णं सामुद्दया ईसिंपुरेवाया तया दीविया विईसिंपुरेवाया ? ६ उत्तर - गो इणट्ठे समट्ठे । ७ प्रश्न - से केणट्टेणं भंते ! एवं वुच्चइ, जया णं दीविच्चया ईसिं पुरेवाया, णो णं तया सामुद्दया ईसिंपुरेवाया, जया णं सामुदया ईसिं पुरेवाया, णो णं तया दीविचया ईसिंपुरेवाया ? ७ उत्तर - गोयमा ! तेसि णं वायाणं अण्णमण्णविवञ्चासेणं For Personal & Private Use Only Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ५ उ. २ स्निग्ध पथ्यादि वायु लवणे समुद्दे वेलं णाइकमइ । से तेणट्टेणं जाव वाया वायंति । कठिन शब्दार्थ — दीविच्चया - द्वीप सम्बन्धी, सामुद्दया - सामुद्रिक - समुद्र सम्बन्धी ४ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या ईषत्पुरोवात आदि वायु, द्वीप में भी होती है। ४ उत्तर - हाँ, गौतम ! होती है । ५ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या ईषत्पुरोवात आदि वायु, समुद्र में भी होती ५ उत्तर - हाँ, गौतम ! होती हैं । ६ प्रश्न - हे भगवन् ! जब द्वीप की ईषत्पुरोवात आदि वायु बहती हैं, तब क्या समुद्र की भी ईषत्पुरोवात आदि वायु बहती है, और जब समुद्र की ईषत्पुरोवात आदि वायु बहती हैं, तब द्वीप की भी ये सब वायु बहती हैं ? ६ उत्तर - हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । ७७७ ७ प्रश्न - हे भगवन् ! इसका क्या कारण है कि जब द्वीप की ईषत्पुरोवात आदि वायु बहती हों, तब समुद्र की ईषत्पुरोवात आदि वायु नहीं बहती ? और जब समुद्र की ईषत्पुरोवात आदि वायु बहती हों, तब द्वीप की ईषत्पुरोवात आदि वायु नहीं बहती ? ७ उत्तर - हे गौतम ! वे सब वायु परस्पर व्यत्यय रूप से ( एक दूसरे के साथ नहीं, परन्तु पृथक् पृथक् ) बहती हैं। जब द्वीप की ईषत्पुरोवात आदि वायु बहती हैं, तब समुद्र की नहीं बहती और जब समुद्र की ईषत्पुरोवात आदि वायु बहती हैं, तब द्वीप की नहीं बहती । इस प्रकार यह वायु, परस्पर विपर्यय रूप से बहती हैं और इस प्रकार वे वायु लवण समुद्र की वेला का उल्लंघन नहीं करती । इस कारण यावत् पूर्वोक्त रूप से वायु बहती है । विवेचन - द्वीप और समुद्र सम्बन्धी वायु के विषय में यहू बतलाया गया है कि जब समुद्र सम्बन्धी ईषत्पुरोवात आदि बहती हैं, उस समय द्वीप सम्बन्धी ईषत्पुरोवात आदि नहीं बहती । और जब द्वीप सम्बन्धी ईषत्पुरोवात आदि वायु बहती हैं, तब समुद्र सम्बन्धी ईषत्पुरोवात आदि वायु नहीं बहती। ये वायु समुद्र की वेला का उल्लंघन नहीं करती है । For Personal & Private Use Only Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७८ भगवती सूत्र-श. ५ उ. २ वायु का स्वरूप इसका कारण यह है कि वायु के द्रव्यों का सामर्थ्य इसी प्रकार का है और वेला का स्वभाव भी इसी प्रकार का है। तात्पर्य यह है कि वायु के द्रव्यों का सामर्थ्य, वेला को उल्लंघन नहीं कराने का है और वेला का स्वभाव भी इसी प्रकार का है । वायु का स्वरूप ८ प्रश्न-अस्थि णं भंते ! ईसिंपुरेवाया, पच्छा वाया, मंदा वाया महावाया वायंति ? ८ उत्तर-हंता, अस्थि । ९ प्रश्न-कया णं भंते ! ईसिंपुरेवाया जाव-वायंति ? ९ उत्तर-गोयमा ! जया णं वाउयाए अहारियं रियंति, तया णं ईसिंपुरवाया जाव-वायति । १० प्रश्न-अस्थि णं भंते ! ईसिंपुरवाया ? १० उत्तर-हंता, अत्थि । ११ प्रश्न-कया णं भंते ! ईसिंपुरेवाया ? ११ उत्तर-गोयमा ! जया णं वाउयाए उत्तरकिरियं रियइ, तया. णं ईसिंपुरेवाया जाव-वायति । १२ प्रश्न-अत्थि णं भंते ! ईसिंपुरवाया ? १२ उत्तर-हंता, अत्थि। __ १३ प्रश्न-कया णं भंते ! ईसिंपुरवाया, पच्छा वाया ? For Personal & Private Use Only Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ५ उ. २ वायु का स्वरूप १३ उत्तर - गोयमा ! जया णं वाउकुमारा, वाउकुमारीओ वा अडाए वाउकायं उदीरेंति, अपणो वा, परस्म वा तदुभयस्स वा तया णं ईसिंपुरेवाया, जाव - वायंति । १४ प्रश्न - वाउयाए णं भंते! वाउयायं चेव आणमंति वा, पाणमंति वा ? १४ उत्तर - जहा खंदए तहा चत्तारि आलावगा णेयव्वा अगसयसहस्स, पुढे उद्दाड़, ससरीरी क्खिमइ । ७७९ कठिन शब्दार्थ - अहारियं अपने स्वभाव के अनुसार, रियंति-गति करता हैं, पुट्ठेस्पष्ट होकर स्पर्श पाकर | भावार्थ-८ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या ईषत्पुरोवात, पथ्यवांत, मन्दवात और महावात हैं ? ८ उत्तर - हाँ, गौतम ! हैं । ९ प्रश्न - हे भगवन् ! ईषत्पुरोवात आदि वायु कब बहती हैं ? ९ उत्तर - हे गौतम! जब वायुकाय अपने स्वभाव पूर्वक गति करती हैं, तब ईषत्पुरोवात आदि वायु बहती हैं। १० प्रश्न - हे भगवन् ! क्या ईषत्पुरोवात आदि वायु हैं ? १० उत्तर - हाँ, गौतम हैं । ११ प्रश्न - हे भगवन् ! ईषत्पुरोवात आदि वायु कब बहती हैं ? ११ उत्तर - हे गौतम ! जब वायुकाय उत्तर क्रिया पूर्वक अर्थात् वैकिय शरीर बनाकर गति करती है, तब ईषत्पुरोवात आदि वायु बहती हैं। १२ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या ईषत्पुरोवात आदि वायु हैं ? १२ उत्तर - हाँ, गौतम हैं । १३ प्रश्न - हे भगवन् ! ईषत्पुरोवात आदि वायु कब बहती हैं ? For Personal & Private Use Only Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८० भगवती सूत्र-श. ५ उ. २ वायु का स्वरूप १३ उत्तर-हे गौतम ! जब वायकुमार देव और वायकुमार देवियाँ अपने लिये, दूसरों के लिये अथवा उभय के लिये (अपने और दूसरे दोनों के लिए) वायुकाय की उदीरणा करते हैं, तब ईषत्पुरोवात आदि वायु बहती हैं। १४ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या वायुकाय, वायुकाय को ही श्वास रूप में ग्रहण करती है, और निःश्वास रूप में छोड़ती है ? १४ उत्तर-हे गौतम ! इस सम्बन्ध में स्कन्दक परिव्राजक के उद्देशक में कहे अनुसार जानना चाहिए, यावत् (१) अनेक लाख बार मरकर, (२) स्पृष्ट होकर, (३) मरती है और (४) शरीर सहित निकलती है । इस प्रकार चार आलापक कहने चाहिये। विवेचन-वायुकाय के बहने में वायुकाय के तीन रूप बनते हैं। यह बात यहां दूसरी तरह से तीन सूत्रों द्वारा बतलाई गई है । शङ्का- अस्थि णं भंते ! ईसिंपुरेवाया' इत्यादि सूत्र तो पहले आ चुका है। फिर उसे यहां पुनः क्यों बतलाया गया ? समाधान-चालू प्रकरण में यह सूत्र प्रस्तावना के रूप में रखा गया है । दूसरीबार बतलाने का यही कारण है । इसलिए इसमें पुनरुक्ति दोष नहीं है। .. यहां ईषत्पुरोवान आदि के बहने के तीन कारणों का निर्देश किया गया है । अर्थात् ईषत्पुरोवात आदि वायु, अपनी स्वाभाविक गति से बहती है, उत्तर-वैक्रिय करके बहती है और वायुकुमार आदि द्वारा की हुई उदीरणा से बहती है। वायुकाय का मूल शरीर तो औदारिक हैं और वैक्रिय शरीर इसका उत्तर शरीर है । इस उत्तर शरीर पूर्वक जो गति होती है उसे 'उत्तरक्रिय या उत्तर-वैक्रिय' कहते हैं । शङ्का-वायुकाय के बहने के तीन कारणों का निर्देश एक ही सूत्र द्वारा किया जा . सकता है, फिर यहाँ अलग अलग तीन सूत्र क्यों कहे गये हैं ? समाधान-सूत्र की गति विचित्र होने से यहां पर तीन सूत्र कहे गये हैं। दूसरी वाचना में तो इन तीन कारणों को भिन्न भिन्न वायु के बहने में कारण बतलाया गया है । यथा-ईषत्पुरोवात. पथ्यवात और मन्दवात, ये तीन स्वभाव से बहती है। ईषत्पुरोवात, पथ्य-वात और महावात, इन तीनों के बहने में उत्तर-वैक्रिय कारण है, और तीसरा कारण चारों वायु के बहने का है। इसलिये तीन सूत्रों का पृथक् पृथक कहना उचित है । For Personal & Private Use Only Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ५ उ. २ ओदन आदि के शरीर ७८१ वायुकाय का प्रकरण होने से अब वायु के सम्बन्ध में एक दूसरी बात बताई जाती है। __ + वायुकाय, वायुकाय को ही बाह्य और आभ्यन्तर श्वासोच्छ्वास के रूप में ग्रहण करती है और छोड़ती है। जिस वायु को वह श्वासोच्छवास रूप में ग्रहण करती है, वह वायु निर्जीव है । वायु काय, वायुकाय में ही अनेक लाखों बार मरकर, वायुकाय में ही उत्पन्न हो जाती है । वायुकाय, स्वकाय शस्त्र के साथ में अथवा पर-काय शस्त्र के साथ अर्थात् पर निमित्त से (पंखे आदि से उत्पन्न हुई वायु से) स्पृष्ट होकर मरण को प्राप्त होती है। किंतु बिना स्पृष्ट हुए मरण को प्राप्त नहीं होती। (यह बात सोपक्रम आयुवाले जीवों की अपेक्षा से है) वायुकाय के चार. शरीर होते हैं। जिन में से औदारिक और वक्रिय शरीर की अपेक्षा तो वह अशरीरी होकर परलोक में जाती है। तथा तेजस् और कार्मण शरीर की अपेक्षा सशरीरी परलोक में जाती है। ओदन आदि के शरीर १५ प्रश्न-अह भंते ! उदण्णे, कुम्मासे, सुरा एए णं किं सरीरा त्ति वत्तव्वं सिया ? __ १५ उत्तर-गोयमा ! उदण्णे, कुम्मासे सुराए य जे घणे दव्वे एए णं पुव्वभावपण्णवणं पडुच्च वणस्सइजीवसरीरा, तओ पच्छा सत्थाईया सत्थपरिणामिया अगणिज्झामिया अगणिझुसिया अगणिसेविया अगणिपरिणामिया अगणिजीवसरीरा इ वत्तव्वं सिया, सुराए य जे दवे दब्वे एए णं पुव्वभावपण्णवणं पडुच्च आउजीवसरीरा, तओ पच्छा सत्थाईया, जाव-अगणिकायसरीरा इ वत्तव्वं सिया । ___+ इस प्रकरण का विस्तृत विवेचन भगवती शतक २ उद्देशक १ सूत्र ८ से १२ तक स्कन्दक प्रकरण में किया गया है। इसलिये विशेष जिज्ञासुओं को प्रथम भाग पृ. ३८२ में देखना चाहिये । For Personal & Private Use Only Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ५ उ. २ ओदन आदि के शरीर कठिन शब्दार्थ - उदण्णे- ओदन, कुम्मासे - कुल्माष-उड़द, सुरा-मदिरा, घणे - घनगाढ़ा, पुण्यभावपण्णवर्ण-पूर्व भाव प्रज्ञापना- पूर्व अवस्था का वर्णन, पडुच्च - अपेक्षा, त्याईया - शस्त्रातीत - शस्त्र लगने के बाद, अगणिज्झामिया - अग्नि से जलने पर । ७८२ भावार्थ - १५ प्रश्न - हे भगवन् ! ओदन ( चावल ), कुल्माष - उड़द और सुरा - मदिरा, इन द्रव्यों का शरीर किन जीवों का कहलाता है ? १५ उत्तर - हे गौतम! ओदन, कुल्माष और मदिरा में जो धन कठिन द्रव्य है, वह पूर्वभाव - प्रज्ञापना की अपेक्षा वनस्पति जीवों के शरीर हैं। जब वे ओदन आदि द्रव्य शस्त्रातीत (ऊखल मूसल आदि द्वारा पूर्व पर्याय से अतिक्रांत ) हो जाते हैं, शस्त्र परिणत ( शस्त्र लगने से नये आकार के धारक ) हो जाते हैं, अग्नि-ध्यामित ( अग्नि से जलाये जाने पर काले वर्ण के बने हुए), अग्नि भूषित ( अग्नि में जल जाने से पूर्व स्वभाव से रहित बने हुए) अग्नि सेवित और अग्नि- परिणामित ( अग्नि में जल जाने पर नवीन आकार को धारण किये हुए) हो जाते हैं, तब वे द्रव्य अग्नि के शरीर कहलाते हैं । तथा सुरा (मदिरा) में जो प्रवाही पदार्थ है, वह पूर्व भाव प्रज्ञापना की अपेक्षा अप्काय जीवों के शरीर हैं। जब वह प्रवाही पदार्थ शस्त्रातीत यावत् अग्नि परिणामितहो जाते हैं, तब अग्निकाय के शरीर हैं, इस प्रकार कहे जाते हैं । १६ प्रश्न - अह णं भंते! अये, तंबे, तउए, सीसए, उवले, कसट्टिया - एए णं किंसरीरा इ वतव्वं सिया ? १६ उत्तर - गोयमा ! अये, तंबे, तउए, सीसए, उवले, कसट्टिया - एए णं पुव्वभावपण्णवणं पडुच्च पुढवी जीवसरीरा, तओ पच्छा सत्थाईया, जाव - अगणिजीवसरीरा इ वत्तव्वं सिया । कठिन शब्दार्थ - अये - लोहा, तंबे - ताम्बा, तउए - त्रपुष् - कलई - रांगा, सीसए - सीसा, ; For Personal & Private Use Only Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ५ उ. २ ओदन आदि के शरीर उबले-पत्थर का कोयला, कसट्टिया - कमट्टिका - लोहे का काट * । भावार्थ - १६ प्रश्न हे भगवन् ! लोह, तांबा, त्रपुष्- कलई, सीसा, उपल ( कोयला ) और कसट्टिका ( लोह का काट - मैल), ये सब द्रव्य किन जीवों के शरीर कहलाते हैं ? १६ उत्तर - हे गौतम! लोह, तांबा, कलई, सीसा, कोयला और काट, ये सब पूर्व-भाव- प्रज्ञापना की अपेक्षा पृथ्वीकाय जीवों के शरीर कहलाते हैं और पीछे शस्त्रातीत यावत् शस्त्र-परिणामित होने पर अग्नि जीवों के शरीर कहलाते हैं । ७८३ १७ प्रश्न - अह णं भंते ! अट्टी, अट्टिज्झामे, चम्मे, चम्मज्झामे, रोमे, रोमज्झामे, सिंगे, सिंगज्झामे, खुरे, खुरज्झामे, णहे, णहझा - ए किंमराइ वत्तव्वं सिया ? १७ उत्तर--गोयमा ! अट्ठी, चम्मे, रोमे, सिंगे, खुरे, गहे - एए णं तसप्राणजीवसरीरा । अट्टिज्झामे, चम्मज्झामे, रोमज्झामे, सिंग खुर-हज्झामे - एए णं पुव्वभावपण्णवणं पडुच्च तसपाणजीवसरीरा; तओ पच्छा सत्थाईया, जाव - अगणि त्ति वत्तव्वं सिया । कठिन शब्दार्थ - अट्ठि - हड्डी । भावार्थ - १७ प्रश्नन-हे भगवन् ! हड्डी, अग्नि द्वारा ज्वलित हड्डी, चमड़ा, अग्नि ज्वलित चमड़ा, रोम, अग्नि ज्वलित रोम, सींग, अग्नि ज्वलित सोंग, खुर, अग्नि ज्वलित खुर, नख, अग्नि ज्वलित नख, ये सब किन जीवों के शरीर कहलाते हैं ? १७ उत्तर - हे गौतम! हड्डी, चर्म, रोम, सींग, खुर और नख, • कसट्टिका का अर्थ 'कषपट्टिका' अर्थात् 'कसौटी' भी किया है। For Personal & Private Use Only ये सब Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८४ भगवती सूत्र-श. ५ उ. २ ओदन आदि के शरीर त्रस जीवों के शरीर कहलाते हैं और जली हुई हड्डी, जला हुआ चमड़ा, जले हुए रोम और जले हुए सींग, खुर, नख, ये सब पूर्वभाव-प्रज्ञापना की अपेक्षा त्रस जीवों के शरीर कहलाते हैं, और पीछे शस्त्रातीत आदि हो जाने पर-'अग्नि जीवों के शरीर' कहलाते हैं। - १८ प्रश्न-अह भंते ! इंगाले, छारिए, भुसे, गोमए-एए णं किंसरीरा इ वत्तव्वं सिया ? १८ उत्तर-गोयमा ! इंगाले, छारिए, भुसे, गोमए-एए णं पुव्वभावपण्णवणं पडुच एगिदियजीवसरीरप्पओगपरिणामिया वि, जाव-पंचिंदियजीवसरीरप्पओगपरिणामिया वि, तओ पच्छा सत्थाईया, जाव-अगणिजीवसरीरा इ वत्तव्वं सिया। कठिन शब्दार्थ-इंगाले–अंगारा, छारिए-राख, भुसे-भूसा-घास, गोमए-गोबर । भावार्थ-१८ प्रश्न-हे भगवन् ! अंगार, राख, भूसा और गोबर (छाणा) ये सब, किन जीवों के शरीर कहलाते हैं ? १८ उत्तर-हे गौतम ! अंगार, राख, भूसा और गोबर (छाणा) ये सब पूर्वभाव-प्रज्ञापना की अपेक्षा एकेन्द्रिय जीवों के शरीर हैं, और यावत् यथासंभव पंचेन्द्रिय जीवों के शरीर भी कहलाते हैं, शस्त्रातीत आदि हो जाने पर यावत् 'अग्नि जीवों के शरीर' कहलाते हैं। - विवेचन-पहले प्रकरण में वायुकाय के सम्बन्ध में कथन किया गया है । अब वनस्पतिकाय आदि के शरीर के विषय में कथन किया जाता है। मदिरा में दो जाति के पदार्थ है-कठिन और प्रवाही । गुड़ आदि 'कठिन' पदार्थ है और पानी 'प्रवाही' पदार्थ है । जो कठिन पदार्थ है, वह पूर्वभाव-प्रज्ञापना अर्थात् पहले के द्रव्य की अपेक्षा वनस्पति का शरीर है, क्योंकि गुड़ की पूर्वावस्था वनस्पति रूप है । इसी तरह ओदन (चावल) की भी पूर्वावस्था वनस्पति रूप है । जब वह अग्नि रूप शस्त्र से जल कर पूर्व अवस्था को छोड़ देता है, For Personal & Private Use Only Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श ५ उ. २ लवण समुद्र रूपान्तर हो जाता है, तब वह 'अग्नि का शरीर' कहा जाता है । अंगार और राख ये दोनों लकड़ी से बनते हैं । लकड़ी ( गोली लकड़ी) वनस्पति है । इसलिए ये दोनों पूर्वभाव- प्रज्ञापना की अपेक्षा वनस्पति रूप एकेन्द्रिय जीवों के शरीर है। भूसा, गेहूँ या जौ आदि से बनता है । हरे गेहूं और जौ आदि धान्य वनस्पति है । इसलिए भूसा, पूर्वभाव- प्रज्ञापना की अपेक्षा वनस्पति रूप एकेन्द्रिय जीवों का शरीर है । गोमय (गोबर) पूर्वभाव - प्रज्ञापना की अपेक्षा एकेन्द्रिय जीवों का शरीर है, क्योंकि जब गाय आदि पशु घास, भूसा आदि खाते हैं, तो उनसे गोवर बनता है । जब गाय आदि पशु, बेइन्द्रिय आदि जीवों का भक्षण कर जाते हैं, जब उन पदार्थों से बना हुआ गोबर, बेइन्द्रिय आदि जीवों का शरीर कहलाता है। अर्थात् गाय आदि पशु जितनी इन्द्रियोंवाले जीवों का भक्षण करें, उनसे बने हुए गोबर को पूर्वभाव-प्रज्ञापना की अपेक्षा उतनी ही इन्द्रियों वाले जीवों का शरीर गिनना चाहिए । लवण समुद्र १९ प्रश्न - लवणे णं भंते ! समुद्दे केवइयं चक्कवालविक्खंभेणं पण्णत्ते ? १९ उत्तर - एवं ७८५ यव्वं, जाव - लोगट्टिई, लोगाणुभावे । सेवं भंते ! सेवं भंते! त्ति भगवं जाव विहरह | ॥ पंचमस बिओ उद्देसो सम्मत्तो । कठिन शब्दार्थ - चक्काल विक्खंभेणं- चक्रवाल विष्कम्भ अर्थात् सब जगह की चौड़ाई । भावार्थ - १९ प्रश्न - हे भगवन् ! लवण समुद्र का चक्रवाल विष्कम्भ ( सब जगह की चौड़ाई) कितना कहा गया है ? १९ उत्तर - हे गौतम ! पहले कहे अनुसार जान लेना चाहिए, यावत् लोकस्थिति लोकानुभाव तक कहना चाहिए । सेवं भंते ! सेवं भंते !! हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! For Personal & Private Use Only Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-ग. ५ उ. २ स्निग्ध पथ्यादि वायु यह इसी प्रकार है ! ! ऐसा कह कर यावत् गौतम स्वामी विचरते हैं। विवेचन -पहले के प्रकरण में पृथ्वीकाय, वनस्पनिकाय आदि के शरीर सम्बन्धी वर्णन किया गया है । अब अप्काय रूप लवण समुद्र का स्वरूप बतलाया जाता है । यहां लवण समुद्र के विषय में प्रश्न करने पर 'जीवाभिगम' सूत्र का अतिदेश किया गया है । इस विषयक वर्णन जीवाभिगम सूत्र की तीसरी प्रतिपत्ति में है । वह इस प्रकार है। हे भगवन् ! लवण समुद्र का संस्थान कैसा है ? हे गौतम ! गोतीर्थ, नौका, शीपसम्पुट, अश्वस्कन्ध और वलभी के समान गोल है। हे भगवन् ! लवणसमुद्र का चक्रवाल विष्कम्भ, परिक्षेप, उद्वेध, उत्सेध और सर्वाग्र कितना है ? हे गौतम ! लवणसमुद्र का चक्रवाल विष्कम्भ दो लाख योजन का है । उसका परिक्षेप पन्द्रह लाख इक्यासी हजार एक सौ ऊनचालीम (१५८११३९) योजन से कुछ अधिक है । उसका उद्वेध (गहराई-ऊंडाई)एक हजार योजन है । उसका उत्सेध (ऊंचाईशिखर) सोलह हजार योजन है । उसका सर्वाग्र सतरह हजार योजन है। हे भगवन् ! इतना विस्तृत और विशाल यह लवणसमुद्र, जम्बूद्वीप को क्यों नहीं डूबा देता, यावत् जलमय क्यों नही कर देता है ? हे गौतम ! इस जम्बूद्वीप के भरत और एरावत आदि क्षेत्रों में अरिहन्त, चक्रवर्ती, वलदेव, वासुदेव, चारण, विद्याधर, श्रमण, श्रमणी, थावक, थाविका और धर्मात्मा मनुष्य हैं, जो स्वभाव से भद्र और विनीत हैं, उपशान्त हैं, स्वभाव से ही जिनके क्रोधादि कषाय मन्द हैं । जो सरल, कोमल, जितेन्द्रिय, भद्र और नम्र होते हैं। उनके प्रभाव से लवण समुद्र, जम्बूद्वीप को डूबाता नहीं है यावत् जलमय नहीं करता है । इत्यादि वर्णन यावत् 'लोक स्वभाव है,' तक कहना चाहिये । इसलिए लवणसमुद्र जम्बूद्वीप को डूबाता नहीं है, यावत् जलमय नहीं करता है । ॥ इति पांचवें शतक का दूसरा उद्देशक समाप्त ॥ For Personal & Private Use Only Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-ग. ५ उ. ३ अन्य तीथियों की आयुबन्ध विषयक मान्यता ७८७ शतक ५ उद्देशक ३ अन्य-तोथियों की आयु-बन्ध विषयक मान्यता १ प्रश्न-अण्णउत्थिया णं भंते ! एवमाइक्खंति भासंति, पण्णवंति, एवं परूवेति-से जहा णामए जालगंठिया सिया, आणुपुब्बिगढिया, अणंतरगढिया, परंपरगढिया, अण्णमण्णगढिया, अण्णमण्णगरुयत्ताए, अण्णमण्णभारियत्ताए, अण्णमण्णगरुयसंभारियत्ताए, अण्णमण्णघडत्ताए जाव-चिट्ठइ, एवामेव बहूणं जीवाणं बहसु आजाइसयसहस्सेसु बहूई आउयसहस्साई आणुपुब्विगढियाई, जाव-चिट्ठति । एगे वि य णं जीवे एगेणं समएणं दो आउयाई पडिसंवेदेइ । तं जहा-इहभवियाउयं च परभवियाउयं च । जं समयं इहभवियाउयं पडिसंवेदेइ तं समयं परभवियाउयं पडिसंवेदेइ, जावसे कहमेयं भंते.! एवं ? १ उत्तर-गोयमा ! ज णं ते अण्णउत्थिया तं चेव जाव परभवियाउयं च । जे ते एवमाहंसु तं मिच्छा, अहं पुण गोयमा ! एवमाइक्खामि, जाव परूवेमि-जहा णामए जालगंठिया सिया, जाव-अण्णमण्णघडताए चिटुंति, एवामेव एगमेगस्स जीवस्स बहूहिं आजाइसयसहस्सेहिं बहूई आउयसहस्साई आणुपुग्विगढियाई For Personal & Private Use Only Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८८ भगवती सूत्र-श. ५ उ. ३ अन्य-तीथियों की आयुबन्ध विषयक मान्यता जाव चिट्ठति । एगे वि य णं जीवे एगेणं समएणं एगं आउयं पडिसंवेदेइ । तं जहा-इहभवियाउयं वा, परभवियाउयं वा; जं समयं इहभवियाउयं पडिसंवेदेइ णो तं समयं परभवियाउयं पडिसंवेदेइ, जं समयं परभवियाउयं पडिसंवेदेइ णो तं समयं इहभवियाउयं पडिसंवेदेइ; इहभवियाउयस्स पडिसंवेयणाए णो परभवियाउयं पडिसंवेदेइ, परभवियाउयस्स पडिसंवेयणाए णो इहभवियाउयं पडिसंवेदेइ । एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं एगं आउयं पडिसंवेदेइ । तं जहाइहभवियाउयं वा, परभवियाउयं वा । कठिन शब्दार्थ-अण्णउत्थिया-अन्यतीथिक, एवमाइक्खंति इस प्रकार कहते हैं,पण्णवंति-बताते हैं, परूवेंति-प्ररूपणा करते हैं आणुपुश्विगढिया-क्रमशः गांठें लगाई हो, जालगंठिया-जालग्रन्थि, अणंतरगढिया-एक के बाद दूसरी अन्तर रहित गांठ लगाई हो, परम्परगढिया-पंक्तिबद्ध ग्रंथी हुई हो, अण्णमण्णगढिया-परस्पर ग्रंथित हो, आजाइसयसहस्सेसुलाखों जन्म, पडिसंवेदेइ -अनुभवता है, पडिसंवेयणाए -भोगता हुआ-वेदता हुआ। ___ भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! अन्य-तीथिक इस प्रकार कहते हैं, भाषण करते हैं, बतलाते हैं, प्ररूपणा करते हैं कि जैसे कोई एक जाल हो, उस जाल में क्रमपूर्वक गांठे दी हुई हों, बिना अन्तर एक के बाद एक गांठे दी हुई हों, परम्परा गूंथी हुई हों, परस्पर गूंथी हुई हों, ऐसी वह जालग्रंथि विस्तारपने, परस्पर भारपने, परस्पर विस्तार और भारपने, परस्पर समुदायपने रहती है अर्थात् जैसे जाल एक है, परन्तु उसमें अनेक गांठे परस्पर संलग्न रहती हैं, वैसे ही क्रमपूर्वक लाखों जन्मों से सम्बन्धित बहुत से आग्रुष्य बहुत से जीवों के साथ परस्पर क्रमशः गुम्फित हैं । यावत् संलग्न रहे हुए हैं। इस कारण उन जीवों में का एक जीव भी एक समय में दो आयुष्य को वेदता है अर्थात् दो आयुष्य । का अनुभव करता है । यथा-एक ही जीव, इस भव का आयुष्य वेदता है और For Personal & Private Use Only Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ५ उ. ३ अन्य-तीथियों की आयुबन्ध विषयक मान्यता .७८९ वही जीव, परभव का भी आयुष्य वेदता है । जिस समय इस भव का आयुष्य वेदता है, उसी समय परभव का भी आयुष्य वेदता है, यावत् हे भगवन् ! यह किस तरह है ? १ उत्तर-हे गौतम ! अन्यतीथियों ने जो यह कहा है कि यावत् 'एक ही जीव, एक ही समय में इस भव का और परभव का आयुष्य दोनों को वेदता है-' वह मिथ्या है । हे गौतम ! मैं तो इस तरह कहता हूं यावत् प्ररूपणा करता हूं कि जैसे कोई एक जाल हो और वह यावत् अन्योन्य समुदायपने रहता है, इसी प्रकार क्रमपूर्वक अनेक जन्मों से सम्बन्धित अनेक आयुष्य, एक एक जीव के साथ शृंखला (सांकल) की कडी के समान परस्पर क्रमशः गुम्फित होते हैं। इसलिये एक जीव एक समय में एक आयुष्य को वेदता है । यथा-इस भव का आयुष्य, अथवा परंभव का आयुष्य । परन्तु जिस समय इस भव का आयुष्य वेदता है उस समय वह परभव का आयुष्य नहीं वेदता है और जिस समय वह परभव का आयुष्य वेदता है, उस समय इस भव का आयुष्य नहीं वेदता । इस भव का आयुष्य वेदने से पर भव का आयुष्य नहीं वेदा जाता । और परभव का आयुष्य वेदने से इस भव का आयुष्य नहीं वेदा जाता । इस प्रकार एक जीव, एक समय में, एक आयुष्य को वेदता है-इस भव का आयष्य अथवा परभव का आयुष्य । __ विवेचन-पहले प्रकरण में लवण समुद्र का वर्णन किया गया है । वह सब कथन सर्वज्ञ द्वारा कथित है, अतएव सत्य है। किन्तु मिथ्यादृष्टि पुरुषों द्वारा प्ररूपित बात मिथ्या भी होती है। उसका नमूना दिखलाने के लिये इस तीसरे उद्देशक के प्रारंभ में अन्यतीथियों द्वारा कल्पित दो आयुष्य वेदन का कथन किया गया है । अन्यतीर्थियों का कहना है कि एक जीव, एक ही समय में इस भव का आयुष्य और परमव का आयुष्य-यों दोनों आयुष्य वेदता है । इसके लिये उन्होंने जाल (मछलियां पकड़ने का साधन) का दृष्टान्त दिया है । और बतलाया है कि जिस प्रकार एक के बाद एक, क्रमपूर्वक, अन्तर रहित गठिं देकर जाल बनाया जाता है । वह जाल उन सब गांठों से गुम्फित यावत् संलग्न रहता है । इसी तरह जीवों ने अनेक भव किये हैं। उन अनेक जीवों के अनेक आयुष्य उस जाल की गांठों के For Personal & Private Use Only Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ५ उ. ३ आयुष्य सहित गति समान परस्पर संलग्न हैं । इसलिये एक जीव दो भव का आयुष्य वेदता है । भगवान् ने फरमाया कि अन्यतीथियों का उपरोक्त कथन मिथ्या है । आयुष्य के लिये अनेक जीवों के एक साथ तथा एक जीव के एक साथ दो आयुष्य वेदन के लिय उन्होंने जो जालग्रन्थि का दृष्टान्त दिया है, वह अयुक्त है। क्योंकि यदि आयुष्य को जालग्रन्थि के समान माना जाय तो अनेक जीवों का आयुष्य एक साथ रहने का प्रसंग आयेगा. जो कि बाधित है। तथा जैसे एक जाल के साथ अनेक ग्रन्थियाँ है. उसी तरह एक जीव के साथ अनेक भवों के आयुष्य का सम्बन्ध होने से अनेक गति के वेदन का प्रसंग आवेगा । किन्तु यह भी प्रत्यक्ष से बाधित है । इसी प्रकार दो भव का आयुष्य का वेदन भानने से दो भवों को भोगने का भी प्रसंग आवेगा। किन्तु यह भी प्रत्यक्ष बाधित है। इसलिये एक जीव एक समय में दो भव का आयुष्य का वेदन करता है, यह मान्यता मिथ्या है। आयुष्य के लिये जालग्रंथि का जो दृष्टान्त है, वह केवल शृंखला (सांकल) रूप समझना चाहिए। जिस प्रकार शृंखला की कड़ियाँ परस्पर संलग्न हैं, उसी तरह एक भव के आयुष्य के साथ दूसरे भव का आयष्य प्रतिबद्ध है और उसके साथ तीसरे चौथे आदि भवों का आयुष्य क्रमशः प्रतिबद्ध है । इस तरह भूतकालीन हजारों आयुष्य मात्र सांकल के समान सम्बन्धित है। तात्पर्य यह है कि एक के बाद दूसरे आयुष्य का वेदन होता जाता है। परन्तु एक ही भव में अनेक आयुष्य प्रतिबद्ध नहीं है। अतः एक जीव, एक समय में एक ही आयुष्य का वेदन करता है अर्थात् इस भव के आयुष्य का वेदन करता है अथवा पर भव के आयुष्य का वेदन करता है। आयुष्य सहित गति २ प्रश्न-जीवे णं भंते ! जे भविए गैरइएसु उववजित्तए से णं किं साउए संकमइ ? णिराउए संकमइ ? । २ उत्तर-गोयमा ! साउए संकमइ, णो णिराउए संकमइ । ३ प्रश्न-से णं भंते ! आउए कहिं कडे, कहिं समाइण्णे ? ३ उत्तर-गोयमा ! पुरिमे भवे कडे, पुरिमे भवे समाइण्णे; For Personal & Private Use Only Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ५ उ. ३ आयुष्य सहित गति ७९१ एवं जाव-वेमाणियाणं दंडओ। ___४ प्रश्न-से गूणं भंते ! जे जं भविए जोणि उववजित्तए से .. तमाउयं पकरेइ, तं जहा-णेरइयाउयं वा, जाव-देवाउयं वा ? ___४ उत्तर-हंता, गोयमा ! जे जे भविए जोणिं उववजित्तए से तमाउयं पकरेइ, तं जहा-णेरइयाउयं वा, तिरि-मणु-देवाउयं वा । रइयाउयं पकरेमाणे सत्तविहं पकरेइ । तं जहा-रयणप्पभापुढविणेरइयाउयं वा, जाव-अहेसत्तमापुढविणेरइयाउयं वा, तिरिक्खजोणियाउयं पकरेमाणे पंचविहं पकरेइ, तं जहा-एगिंदियतिरिक्खजोणियाउयं वा भेओ सव्वो भाणियव्यो । मणुस्साउयं दुविहं, देवाउयं चउन्विहं । सेवं भंते !, सेवं भंते ! त्ति । ॥ पंचमसए तइओ उद्देसो सम्मत्तो ॥ . कठिन शब्दार्थ-भविए-होने योग्य, साउए-आयुष्य सहित, संकमइ-जाता हैं, जिराउए-बिना आयुष्य के, कडे-किया, समाइण्णे-आचरण किया, पुरिमे-पूर्व के। भावार्थ-२ प्रश्न-हे भगवन् ! जो जीव नरक में उत्पन्न होने वाला हैं, क्या वह जीव यहीं से आयुष्य सहित होकर नरक में जाता है अथवा आयुष्य रहित होकर नरक में जाता है ? २ उत्तर-हे गौतम ! जो जीव नरक में उत्पन्न होने वाला है, वह यहीं से आयुष्य सहित होकर नरक में जाता है, परन्तु आयुष्य रहित होकर नरक में नहीं जाता। ३ प्रश्न-हे भगवन् ! उस जीव ने वह आयुष्य कहां बांधा ? और For Personal & Private Use Only Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९२ भगवती सूत्र श. ५ उ. ३ आयुष्य सहित गति उस आयुष्य सम्बन्धी आचरण कहाँ किया है ? ३ उत्तर - हे गौतम ! उस जीव ने वह आयुष्य, पूर्व-भव में बांधा है और उस आयुष्य सम्बन्धी आचरण भी पूर्वभव में ही किया है। जिस प्रकार यह बात नरक के लिये कही गई है । उसी प्रकार यावत् वैमानिक तक सभी दण्डकों में कहनी चाहिये । ४ प्रश्न - हे भगवन् ! जो जीव, जिस योनि में उत्पन्न होने योग्य होता है, क्या वह जीव, उस योनि सम्बन्धी आयुष्य बांधता है ? यथा-नरक योनि में उत्पन्न होने योग्य जीव, क्या नरक योनि का आयुष्य बांधता है, यावत् देवगति में उत्पन्न होने योग्य जीव, क्या देव योनि का आयुष्य बाँधता है ? ४ उत्तर - हाँ, गौतम ! ऐसा ही करता है, अर्थात् जो जीव, जिस योनि में उत्पन्न होने योग्य होता है, वह जीव उस योनि सम्बन्धी आयुष्य बांधता है । नरक में उत्पन्न होने योग्य जीव, नरक योनि का आयुष्य बांधता है । तिर्यंच योनि में उत्पन्न होने योग्य जीव, तिर्यंच योनि का आयुष्य बांधता है । मनुष्य योनि में उत्पन्न होने योग्य जीव, मनुष्य योति का आयुष्य बांधता है और देवयोनि में उत्पन्न होने योग्य जीव, देवयोनि का आयुष्य बांधता है । जो जीव, नरक का आयुष्य बांधता है, वह सात प्रकार की नरकों में से किसी एक प्रकार की नरक का आयुष्य बांधता है । यथा - रत्नप्रभा पृथ्वी का आयुष्य अथवा यावत् अधः सप्तम पृथ्वी (सातवीं नरक) का आयुष्य बांधता है जो जीव, तिर्यंच योनि का आयुष्य बांधता है ? वह पांच प्रकार के तिर्यंचों में से किसी एक तिर्यंच सम्बन्धी आयुष्य बांधता हैं। यथा-एकेंद्रिय तिर्यंच का आयुष्य, इत्यादि । इस संबंधी सारा विस्तार यहाँ कहना चाहिये। जो जीव, मनुष्य सम्बन्धी आयुष्य बांधता है, वह दो प्रकार के मनुष्यों से किसी एक प्रकार के मनुष्य सम्बन्धी आयुष्य को बांधता है । सम्मूच्छिम मनुष्य का अथवा गर्भज मनुष्य का । जो जीव, देव सम्बन्धी आयुष्य बांधता है, वह चार प्रकार के देवों में से किसी एक प्रकार के देव का आयुष्य बांधता है । यथा - भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और For Personal & Private Use Only Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ____भगवती सूत्र-श. ५ उ. ३ आयुष्य सहित गति ७९३ वैमानिक । इन में से किसी एक प्रकार के देव का आयुष्य बांधता है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । ऐसा कह कर यावत् गौतम स्वामी विचरते हैं। विवेचन-यह आयुष्य सम्बन्धी प्रकरण चल रहा है। इसलिए यहां पर भी आयुष्य सम्बन्धी बात कही जाती है। जीवं, परभव की आयुष्य इस भव में ही बांधते हैं और उस आयुष्य सम्बन्धी कारणों को बांधने का आचरण भी इसी भव में करते हैं । केवल वे जीव ही परभव का आयुष्य नहीं बांधते हैं जो चरमशरीरी होते. हैं, क्योंकि वे समस्त कर्मों का क्षय कर उसी भव में मोक्ष चले जाते हैं। जो जीव, परभव का आयुष्य बांधता है, वह नरकादि चारों गतियों में से किसी एक गति का आयुष्य बांधता है । नरक गति का आयुष्य बाँधता है, तो सात नरकों में से किसी एक नरक का आयुष्य बांधता है। इसी तरह तिर्यञ्चों में एकेंद्रियादि किसी एक का आयुष्य बांधता है। मनुष्यों में सम्मूच्छिम और गर्भज, इन दो में से किसी एक का आयुष्य बांधता है। यदि देवगति का आयुष्य बांधता है, तो भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक, इन चारों में से किसी एक का आयुष्य बांधता है । तात्पर्य यह है कि परभव का आयुष्य, इसी भव में बंधता है और वह एक ही समय बंधता है। ॥ इति पांचवें शतक का तीसरा उद्देशक समाप्त ॥ For Personal & Private Use Only Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९४ भगवती सूत्र - श. ५ उ. ४ शब्द श्रवण शतक ५ उद्देशक ४ शब्द श्रवण १ प्रश्न - छउमत्थे णं भंते ! मणुस्से आउडिज्जमाणाई सद्दाई सुणेइ ? तं जहा - संखसदाणि वा, सिंगसद्दाणि वा संखियाणि वा, खरमुहीसद्दाणि वा, पोयासद्दाणि वा परिपिरियासहाणि वा. पणवसद्दाणि वा, पडहसद्दाणि वा, भंभासद्दाणि वा, होरंभसद्दाणि वा, भेरिसद्दाणि वा, झल्लरीसद्दाणि वा, दुंदुभिसद्दाणि वा, तयाणि वा, वितयाणि वा, घणाणि वा, झुसराणि वा ? १ उत्तर - हंता, गोयमा ! छउमत्थे णं मणुस्से आउडिज्नमाणाई सदाई सुइ । तं जहा - संखसद्दाणि वा, जाव - झुसराणि वा । २ प्रश्न - ताई भंते ! किं पुट्ठाई सुणे, अपुट्टाई सुणेइ ? २ उत्तर - गोयमा ! पुट्ठाई सुणेइ; णो अपुट्टाई सुणेइ, जाव णियमा छद्दिसिं सुइ । ३ प्रश्न –छउमत्थे णं भंते ! मणूसे किं आरगयाई सद्दाईं सुणेइ, पारगयाई साईं सुणेइ ? ३ उत्तर - गोयमा ! आरगयाई सद्दाई सुणेड़, णो पारगयाई साई सुइ । For Personal & Private Use Only Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ५ उ. ४ शब्द श्रवण ४ प्रश्न-जहा णं भंते ! छउमत्थे मणूसे आरगयाइं सदाई सुणेइ, णो पारगयाइं सदाइं सुणेइ; तहा णं भंते ! केवली मणुस्से किं आरगयाइं सदाइं सुणेइ, णो पारगयाइं सद्दाइं सुणेइ ? ४ उत्तर-गोयमा ! केवली णं आरगयं वा, पारगयं वा, सव्वदूरमूलमणंतियं सदं जाणइ पासइ । ५ प्रश्न-से केणटेणं तं चेव केवली णं आरगयं वा, पारगयं वा, जाव-पासइ ? .. " ५ उत्तर-गोयमा ! केवली णं पुरथिमेणं मियं पि जाणइ, अमियं पि जाणइ; एवं दाहिणेणं, पचत्थिमेणं, उत्तरेणं, उड्ढे, अहे मियं पि जाणइ, अमियं पि जाणइ; सव्वं जाणइ केवली, सव्वं पासइ केवली; सव्वओ जाणइ, पासइ; सव्वकालं सब्वभावे जाणइ केवली, सव्वभावे पासइ केवली; अणंते णाणे केवलिस्स, अणते दसणे केवलिस्स; णिबुडे णाणे केवलिस्स, णिबुडे-दंसणे केवलिस्स से तेणटेणं जाव-पासइ। कठिन शब्दार्थ-आउडिज्जमाणाई-बजाये जाते हुए, पुट्ठाई-स्पर्श होने पर, आरगयाइं-इन्द्रियों के समीप रहे हुए-इन्द्रिय गोचर, पारगयाइं-इन्द्रियों से दूर रहे हुए-इन्द्रिय अगोचर, पासइ-देखते हैं, मियं-मित, णिन्वुडे गाणे-जिनके ज्ञान की ओट हट गई है। भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या छद्मस्थ मनुष्य, बजाये जाते हुए वादिन्त्र के शब्दों को सुनता है ? यथा-शंख के शब्द, रणशृंग (एक प्रकार का बाजा) के शब्द, शंखिका (छोटे शंख) के शब्द, खरमुही (काहलो नामक बाजा) For Personal & Private Use Only Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ५ उ. ४ शब्द श्रवण के शब्द, पोता (बडी काहली) के शब्द, परिपरिता (परिपरिका-सुअर के मुख से मढ़े हुए मुख वाला एक प्रकार का बाजा), पणव (ढोल) के शब्द, पटह (ढोलकी) के शब्द, भंभा (ढक्का-छोटी भेरी) के शब्द, होरम्भ (एक प्रकार का बाजा) के शब्द, भेरी के शब्द, झल्लरी (झालर) के शब्द, दुंदुभि के शब्द, तत शब्द (तांत वाला बाजा-वीगा आदि के शब्द) वितत शब्द (ढोल आदि विस्तृत बाजे के शब्द), घन शब्द (ठोस बाजे के शब्द-कांस्य और ताल आदि बाजे के शब्द),शषिर शब्द (पोले बाजे के शब्द, बंशी-बांसुरी आदि के शब्द) इत्यादि बाजों के शब्दों को क्या छद्मस्थ मनुष्य सुनता है ? १ उत्तर-हाँ, गौतम ! छद्मस्थ मनुष्य, बजाये जाते हुए शंख यावत् शुषिर (बांसुरी) आदि सभी बाजों के शब्दों को सुनता है । २ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या वह छद्मस्थ मनुष्य, स्पृष्ट (कान के साथ स्पर्श किये हुए) शब्दों को सुनता है, अथवा अस्पृष्ट (कान के साथ स्पर्श नहीं किये हुए) शब्दों को सुनता है ? २ उत्तर-हे गौतम ! छद्मस्थ मनुष्य, स्पृष्ट शब्दों को सुनता है, किन्तु अस्पष्ट शब्दों को नहीं सुनता । यावत् नियम से छह दिशा से आये हुए स्पृष्ट शब्दों को सुनता है। ३ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या छद्मस्थ मनुष्य, आरगत (आराद्गत-इन्द्रिय विषय के समीप रहे हुए) शब्दों को सुनता है, अथवा पारगत (इन्द्रिय विषय से दूर रहे) शब्दों को सुनता है ? . ३ उत्तर-हे गौतम ! छद्मस्थ मनुष्य, आरगत शब्दों को सुनता है, किन्तु पारगत शब्दों को नहीं सुनता। ४ प्रश्न-हे भगवन् ! जिस प्रकार छद्मस्थ मनुष्य, आरगत शब्दों को सुनता है, और पारगत शब्दों को नहीं सुनता, तो क्या उसी प्रकार केवली मनुष्य भी आरगत शब्दों को सुनता है और पारगत शब्दों को नहीं सुनता ? For Personal & Private Use Only Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ५ उ. ४ शब्द श्रवण ७९७ ४ उत्तर-हे गौतम ! केवली मनुष्य तोआरगत शब्दों को और पारगत शब्दों को तथा दूर, निकट, अत्यन्त दूर और अत्यन्त निकट, इत्यादि सभी प्रकार के शब्दों को जानते और देखते हैं। ५ प्रश्न-हे भगवन् ! केवली भगवान् आरगत शब्दों को पारगत शब्दों को यावत् सब प्रकार के शब्दों को जानते हैं और देखते हैं। इसका क्या कारण है ? ५ उत्तर-हे गौतम ! केवली भगवान्, पूर्व दिशा की मित वस्तु को भी जानते देखते है और अमित वस्तु को भी जानते देखते हैं । इसी तरह दक्षिण दिशा, पश्चिम दिशा, उत्तर दिशा, ऊर्ध्व दिशा और अधो दिशा की मित वस्तु को भी और अमित वस्तु को भी जानते हैं और देखते हैं। केवली भगवान् सब जानते हैं और सब देखते हैं। केवली भगवान्, सर्वतः (सभी ओर) जानते और देखते हैं । केवली भगवान् सभी काल में सभी भावों (पदार्थों) को जानते और देखते हैं। केवली भगवान् के अनन्त ज्ञान और अनन्तदर्शन होता है। केवली भगवान् का ज्ञान और दर्शन निरावरण होता है अर्थात् उनके ज्ञान और दर्शन पर किसी प्रकार का आवरण नहीं होता। इसलिए हे गौतम ! ऐसा कहा गया है कि-केवली भगवान् आरगत और पारगत शब्दों को यावत् समी प्रकार के शब्दो को जानते और देखते हैं। विवेचन-इसके पहले तीसरे उद्देशक में अन्य मतावलम्बी छ अस्थ मनुष्य का वर्णन किया गया है । अब इस चौथे उद्देशक में छद्मस्थ और केवली मनुष्य सम्बन्धी वक्तव्यता कही जाती है । यह तीसरे उद्देशक और चौथे उद्देशक का परस्पर सम्बन्ध है। मुख के साथ शंख का संयोग होने से, हाथ के साथ ढोल का संयोग होने से, लकड़ी के टुकड़े के साथ झालर का संयोग होने से, तथा इसी तरह के अन्यान्य पदार्थों के साथ अनेक प्रकार के बाज़ों का संयोग होने से अथवा बजाने के साधन रूप अनेक प्रकार के पदार्थों द्वारा पीटने से, एवं उनका संयोग होने से, अनेक प्रकार के बाजों से, अनेक प्रकार के शब्द उत्पन्न होते हैं । उन शब्दों एवं शब्द-द्रव्यों को स्पृष्ट एवं इन्द्रिय विषय होने पर, छद्मस्थ मनुष्य सुनता है । केवली मनुष्य आरगत शब्दों और पारगत शब्दों को अत्यन्त दूर रहे हुए, अत्यन्त For Personal & Private Use Only Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९८ भगवती सूत्र-श. ५ उ. ४ छद्मस्थ और केवली का हंसना व निद्रा लेना निकट रहे हुए तथा बीच में रहे हुए एवं सभी प्रकार के शब्दों को जानते और देखते हैं। केवली भगवान् पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ऊर्ध्वदिशा और अधोदिशा यावत् सभी दिशा और विदिशाओं में रहे हए मित और अमित अर्थात् संख्य, असंख्य और अनन्त सभी पदार्थों को जानते और देखते है। क्योंकि केवली भगवान् का ज्ञान अनन्त पदार्थों को विषय करता है, इसलिये वह अनन्त ज्ञान है। घाती कर्मों का क्षय कर देने से उनका ज्ञान अक्षय, निरावरण, वितिमिर एवं विशुद्ध है । छद्मस्थ और केवली का हंसना व निद्रा लेना ६ प्रश्न-छउमत्थे णं भंते ! मणुस्से हसेज वा, उस्सुयाएज वा? ६ उत्तर-हंता, गोयमा ! हसेज वा, उस्सुयाएज वा । ७ प्रश्न-जहा णं भंते ! छउमत्थे मणुस्से हसेज, जाव-उस्सु. याएज तहा णं केवली वि हसेज वा, उस्सुयाएज वा ? ७ उत्तर-गोयमा ! णो इणढे समटे । ८ प्रश्न-से केणटेणं भंते ! जाव-णो णं तहा केवली हसेज वा, जाव-उस्सुयाएज वा ? ८ उत्तर-गोयमा ! जं णं जीवा चरित्तमोहणिजस्स कम्मस्स उदएणं हसंति वा, उस्सुयायंति वा; से णं केवलिस्स गस्थि, से तेणटेणं जाव-णो णं तहा केवली हसेज वा, उस्सुयाएज वा । ९ प्रश्न-जीवे णं भंते ! हसमाणे वा, उस्सुयमाणे वा कइ For Personal & Private Use Only Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ५ उ. ४ छद्मस्थ और केवली का हंसना व निद्रा लेना ७९९ कम्मपयडीओ बंधइ ? __९ उत्तर-गोयमा ! सत्तविहबंधए वा, अट्ठविहबंधए वा, एवं जाव-वेमाणिए; पोहतएहिं जीवेगिंदियवज्जो तियभंगो। ___ कठिन शब्दार्थ-हसेज्ज-हंसता है, उस्सुयाएज्ज-उत्सुक होता है, पोहत्तएहि-पृथक्त्त्व अर्थात् बहुवचन सम्बन्धी। भावार्थ-६ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या छद्मस्थ मनुष्य हंसता है और उत्सुक होता है अर्थात् किसी पदार्थ को लेने लिए उतावला होता है ? ६ उत्तर-हे गौतम ! हाँ, छद्मस्थ मनुष्य हंसता है और उत्सुक होता है। ७ प्रश्न-हे भगवन् ! जिस तरह छद्मस्थ मनुष्य हंसता है और उत्सुक होता है, क्या उसी तरह केवली मनुष्य भी हंसता है और उत्सुक होता है ? ७ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है अर्थात् केवलज्ञानी मनुष्य न तो हंसता है और न उत्सुक होता है। ८ प्रश्न-हे भगवन् ! केवली मनुष्य न हंसता है और न उत्सुक होता है, इसका क्या कारण है ? ८ उत्तर-हे गौतम ! जीव, चारित्र-मोहनीय कर्म के उदय से हंसते और उत्सुक होते हैं, किन्तु केवली भगवान् के चारित्र-मोहनीय कर्म नहीं है अर्थात चारित्र-मोहनीय कर्म का क्षय हो चुका है। इसलिए छद्मस्थ मनुष्य की तरह केवली भगवान् हंसते नहीं हैं और न उत्सुक ही होते हैं। ९ प्रश्न-हे भगवन् ! हंसता हुआ अथवा उत्सुक होता हुआ जीव, कितने प्रकार के कर्म बांधता है ? ९ उत्तर-हे गौतम ! हंसता हुआ अथवा उत्सुक होता हुआ जीव, सात प्रकार के कर्मों को बांधता है अथवा आठ प्रकार के कर्मों को बांधता है। इसी प्रकार वैमानिक पर्यन्त चौबीस ही दण्डकों में कहना चाहिए। जब उपरोक्त प्रश्न बहुत जीवों की अपेक्षा पूछा जाय, तब उसके उत्तर में समुच्चय जीव और For Personal & Private Use Only Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०० भगवती सूत्र - श. ५ उ. ४ छद्मस्थ और केवली का हंसना व निद्रा लेना एकेंद्रिय को छोड़कर कर्म बन्ध सम्बन्धी तीन भांगे कहने चाहिए । विवेन - पहले के प्रकरण में छद्मस्थ और केवली के सम्बन्ध में कथन किया गया है । इस प्रकरण में उन्हीं के सम्बन्ध में कथन किया जाता है। हंसना और उत्सुक होना ( किसी चीज को लेने के लिए उतावला होता) चारित्रमोहनीय कर्म के उदय से होता है । छद्मस्थ मनुष्य के चारित्र मोहनीय कर्म का उदय है, अतः वह हंसता है और उत्सुक होता है, किन्तु केवली मनुष्य, न तो हंसता है और न उत्सुक ही होता है, क्योंकि उसके चारित्र मोहनीय कर्म का क्षय हो चुका है। जीव की वक्तव्यता की तरह नरक से लेकर वैमानिक तक चौबीस ही दण्डकों में कहना चाहिए । यहाँ पर यह शंका होती है कि इस सूत्र में हंसने आदि का पाठ सभी संसारी जीवों के विषय में घटाने का कहा गया है, वह कैसे घटित हो सकता है, क्योंकि पृथ्वीकाय काय आदि के जीवों में हंसना आदि कैसे घटित हो सकता है ? समाधान- यद्यपि पृथ्वी काय अप्काय आदि के जीव वर्तमान चालू स्थिति में हँस नहीं सकते, तथापि उन्होंने अपने किन्हीं पूर्वभवों में हंसना आदि क्रियाएँ अवश्य की है, उस अपेक्षा से सूत्रोक्त पाठ सब जीवों के लिए बराबर घटित होता है । एक जीव की अपेक्षा से यह कहा गया है कि वह सात कर्मों को अथवा आठ कर्मों को बांधता है । जब बहुवचन सम्बन्धी सूत्र कहा जाय, तब उस में समुच्चय जीव और एकेंद्रिय को छोड़कर बाकी १९ दण्डकों में कर्म बंध सम्बन्धी तीन भंग कहने चाहिये । क्योंकि समुच्चय जीव और पृथ्वीकाय आदि एकेंद्रिय जीव सदा बहुत हैं । इसलिये उनमें एक वचन सम्बन्धी मंग सम्भावित नहीं होता । किन्तु 'बहुत जीव, सात प्रकार के कर्मों को बांधने वाले और बहुत जीव आठ प्रकार के कर्मों को बांधने वाले' - यह एक ही भंग सम्भवित हैं । नारक आदि में तो तीन भंग सम्भवित हैं। यथा- पहला भंग-सभी जीव सात प्रकार के कर्मों को बांधनेवाले । दूसरा भंग - बहुत जीव सात प्रकार के कर्मों को बांधने वाले और एक जीव, आठ प्रकार के कर्मों को बांधनेवाला । तीसरा भंग- बहुत जीव सात प्रकार के कर्मों को बांधनेवाले और बहुत जीव आठ प्रकार के कर्मों को बांधनेवाले । १० प्रश्न - छउमत्थे णं भंते ! मणुस्से णिद्दाएज वा, पयला For Personal & Private Use Only Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ५ उ. ४ छद्मस्थ और केवली का हंसना व निद्रा लेना ८०१ एज्ज वा ? १० उत्तर - हंता, णिद्दाएज्ज वा, पयलाएज्ज वा । - जहा हसेज्ज वा तहा, णवरं - दरिसणावरणिज्जस्स कम्मरस उदपणं णिद्दायंति वा, पयलायंति वा, से णं केवलिस्स णत्थि । अण्णं तं चैव । ११ प्रश्न - जीवे णं भंते! णिद्दायमाणे वा पयलायमाणे वा क कम्मप्पगडीओ बंधइ ? ११ उत्तर - गोयमा ! सत्तविहबंधए वा अद्भुविहबंधए वा, एवं जाव - माणिए, पोहत्तिएस जीवेगिंदियवज्जो तियभंगो । कठिन शब्दार्थ - णिद्दा एज्ज - निद्रा लेता है, पयलाएज्ज - खड़े हुए नींद लेना । भावार्थ - १० प्रश्न - हे भगवन् ! क्या छद्मस्थ मनुष्य, नींद लेता है और प्रचला नामक निद्रा लेता है, अर्थात् खडे खडे नींद लेता है ? १० उत्तर - हे गौतम ! हाँ, छद्मस्थ मनुष्य, नींद लेता है और खड़ा. खड़ा भी नींद लेता है । जिस प्रकार हंसने और उत्सुकता के विषय में छद्मस्थ और केवली मनुष्य के सम्बन्ध में प्रश्नोत्तर बतलाये गये हैं, उसी प्रकार निद्रा और प्रचला के विषय में छद्मस्थ और केवली मनुष्य के सम्बन्ध में प्रश्नोत्तर जान लेने चाहिए । परन्तु इतनी विशेषता है कि छद्मस्थ मनुष्य, दर्शनावरणीय कर्म के उदय से नींद लेता है और खड़ा खड़ा नींद लेता है, परन्तु केवली के दर्शनावरणीय कर्म नहीं है, अर्थात् केवली के दर्शनावरणीय कर्म का सर्वथा क्षय हो चुका है । इसलिए वह निद्रा नहीं लेता है और प्रचला भी नहीं लेता है । For Personal & Private Use Only Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०२ भगवती सूत्र - श. ५ उ. ४ शक्रदूत हरिनैगमेषी देव ११ प्रश्न - हे भगवन् ! नींद लेता हुआ और प्रचला लेता हुआ जीव, कितनी कर्म प्रकृतियों का बन्ध करता ? ११ उत्तर - हे गौतम! निद्रा अथवा प्रचला लेता हुआ जीव, सात कर्मों की प्रकृतियों का अथवा आठ कर्मों की प्रकृतियों का बन्ध करता है । इस तरह एक वचन की अपेक्षा वैमानिक पर्यन्त चौबीस ही दण्डक कहना चाहिए । . जब उपरोक्त प्रश्न बहुवचन आश्री अर्थात् बहुत जीवों की अपेक्षा पूछा जाय, तब उसके उत्तर में जीव और एकेन्द्रिय को छोड़ कर कर्मबन्ध सम्बन्धी तीन भांगे कहने चाहिए । विवेचन- - जिस नींद में सोया हुआ प्राणी सुख पूर्वक जाग सके, उसे 'निद्रा' कहते हैं और खड़े खड़े प्राणी को जो नींद आवे, उसे 'प्रचला' कहते हैं । निद्रा और प्रचला ये दोनों दर्शनावरणीय कर्म के उदय से होती है । छद्मस्थ जीव के दर्शनावरणीय कर्म का सद्भाव है । इसलिये उसे निद्रा और प्रचला आती है । केवली भगवान् के दर्शनावरणीय कर्म का सर्वथा क्षय हो चुका है । इसलिये उन्हें निद्रा और प्रचला नहीं आती । शक्रदूत हरिनैगमेषी देव १२ प्रश्न - हरी णं भंते ! हरिणेगमेसी सकदूए इत्थीगब्भं संहरमाणे किं गभाओ गन्धं साहरइ ? गभाओ जोणिं साहरइ ? जोणीओ गव्र्भ साहरइ ? जोणीओ जोणिं साहरइ ? १२ उत्तर - गोयमा ! णो गन्भाओ गव्र्भ साहरड़, णो गभाओ जोणिं साहरइ, णो जोणिओ जोणिं साहरइ, परामुसिय, परामुसिय अव्वाबाहेणं अव्वावाहं जोणिओ गब्र्भ साहरइ ? For Personal & Private Use Only Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ५ उ. ४ शक्रदूत हरिनैगोषी देव १३ प्रश्न-पभू णं भंते ! हरिणेगमेसी सक्कस्स णं दूए इत्थीगभं णहसिरंसि वा, रोमकूवंसि वा साहरित्तए वा, णीहरित्तए वा ? __१३ उत्तर-हंता पभू, णो चेव णं तस्स गम्भस्स किंचि वि आवाहं वा, विवाहं वा उप्पाएजा, छविच्छेदं पुण करेजा, ए मुहमं च णं साहरेज वा, णीहरेज वा । कठिन शब्दार्थ-हरी-इन्द्र, साहरइ-संहरण करता है, परामुसिय-स्पर्श करके, अव्वाबाहेणं-पीड़ा हुए बिना ही, निहरित्तए-निकालता है, छविच्छेदं-छविच्छेद-अवयव का छेद । भावार्थ-१२ प्रश्न-हे भगवन् ! इन्द्र का सम्बन्धी शक्रदूत हरिनंगमेषी देव जब स्त्री के गर्भ का संहरण करता है, तब क्या वह एक गर्भाशय से गर्भ को उठा कर दूसरे गर्भाशय में रखता है ? या गर्भ को लेकर योनि द्वारा दूसरी स्त्री के उदर में रखता है ? या योनि से गर्भ को बाहर निकाल कर दूसरी स्त्री के गर्भाशय में रखता है ? या योनि द्वारा गर्भ को पेट में से बाहर निकाल कर वापिस दूसरी स्त्री के पेट में उसकी योनि द्वारा रखता है ? . . १२ उत्तर-हे गौतम ! वह हरिनगमेषी देव, एक स्त्री के गर्भाशय में से गर्भ को लेकर दूसरी स्त्री के गर्भाशय में नहीं रखता, गर्भाशय से लेकर योनि द्वारा गर्भ को दूसरी स्त्री के पेट में नहीं रखता, योनि द्वारा गर्भ को बाहर निकाल कर वापिस योनि द्वारा गर्भ को पेट में नहीं रखता, परन्तु अपने हाथ द्वारा गर्भ स्पर्श करके उस गर्भ को कुछ भी पीडा न पहुंचाते हुए, योनि द्वारा बाहर निकाल कर दूसरी स्त्री के गर्भाशय में रखता है। १३ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या शक्र का दूत हरिनगमेषी देव, स्त्री के गर्भ को नखान द्वारा या रोम कूप (छिद्र) द्वारा गर्भाशय में रखने में या गर्भाशय से निकालने में समर्थ है ? For Personal & Private Use Only Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८.४ भगवती सूत्र-श. ५ उ. ४ शक्रदूत हरिनैगमेषी देव १३ उत्तर-हाँ, गौतम ! हरिनगमेषी देव उपरोक्त कार्य करने में समर्थ है । ऐसा करते हुए वह देव, उस गर्भ को थोडी या बहुत कुछ भी-किञ्चित् मात्र भी पीड़ा नहीं पहुँचाता । वह उस गर्भ का छविच्छेद (छेदन भेदन) करता है और फिर बहुत सूक्ष्म करके अन्दर रखता है अथवा इसी तरह अन्दर से बाहर निकालता है। विवेचन-पहले के प्रकरण में केवली के विषय में कथन किया गया है। इस प्रकरण में भी केवली भगवान् महावीर स्वामी के उदाहरण को लेकर बात कही जाती है। यद्यपि यहाँ मलपाठ में महावीर स्वामी का नाम नहीं दिया है, तथापि 'हरिनैगमेषी' देव का नाम आने से यह अनमान होना शक्य है कि यह बात भगवान महावीर से सम्बन्धित है। क्योंकि जब भगवान् गर्भावस्था में थे, तब इसी देव ने गर्भमंहरण (गर्भ का परिवर्तन) किया था। यदि यहाँ की घटना भगवान महावीर के साथ घटित करना न होता, तो मूलपाठ में 'हरिनंगमेषी' का नाम न देकर सामान्य रूप से 'देव' का निरूपण कर दिया जाता । किन्तु ऐसा न करके जो 'हरिनैगमेषी' का नाम दिया है. इससे पूर्वोक्त अनुमान दृढ़ होता है । इन्द्र को 'हरि' कहते हैं. तथा इन्द्र सम्बन्धी व्यक्ति को भी 'हरि' कहते हैं । हरिनैगमेषी देव, इन्द्र सम्बन्धी व्यक्ति है । इसलिए यहाँ पर 'हरिनैगमेषी' देव को भी 'हरि' कहा गया है। 'हरिनैगमेषी' देव, शक की आज्ञा मानने वाला है और वह पदाति (पैदल) सेना का अधिपति है, इसलिए उसे 'शक्रदूत' कहा गया है। 'प्राणत' नामक दसवें देवलोक से चव कर महावीर स्वामी का जीव देवानन्दा ब्राह्मणी के गर्भ में आया । बयासी दिन बीत जाने पर शकेन्द्र को अवधिज्ञान से यह बात ज्ञात हुई । तब शक्रेन्द्र ने विचार किया कि समस्त लोक में उत्तम पुरुष तीर्थङ्कर भगवान् का जन्म क्षत्रिय कुल के सिवाय अन्य कुल में नहीं होता, उनका जन्म उत्तम क्षत्रिय कुल में ही होता है । ऐसा विचार कर शक्रेन्द्र ने हरिनगमेषी देव को बुलाकर आज्ञा दी कि चरम तीर्थङ्कर भगवान् महावीर स्वामी का जीव पूर्वोपार्जित कर्म के कारण क्षत्रियेतरब्राह्मण-याचक कुल में आ गया है । अतः तुम जाओ और देवानन्दा ब्राह्मणी के गर्भ से उस जीव का संहरण कर क्षत्रियकुण्ड ग्राम के स्वामी, प्रसिद्ध राजा सिद्धार्थ की रानी त्रिशलादेवी के गर्भ में स्थापित कर दो । शक्रेन्द्र की आज्ञा स्वीकार कर हरिनैगमेषी देव ने आश्विन कृष्णा त्रयोदशी की रात्रि के दूसरे पहर में देवानन्दा ब्राह्मणी के गर्भ का संहरण कर महारानी त्रिशला देवी की कक्षा में रख दिया। For Personal & Private Use Only Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ५ उ. ४ श्री अतिमुक्तक कुमार श्रमण ८०५ इस प्रकरण में गर्भ संहरण के चार प्रकार बतलाये हैं । यथा-(१) गर्भाशय में से गर्भ को लेकर दूसरी स्त्री के गर्भाशय में रखना । (२) गर्भाशय में से गर्भ को लेकर योनि द्वारा दूसरी स्त्री के गर्भाशय में रखना । (३) योनि द्वारा गर्भ को बाहर निकाल कर दूसरी स्त्री के गर्भाशय में रखना और (४) योनि द्वारा गर्भ को बाहर निकाल कर योनि द्वारा ही दूसरी स्त्री के गर्भाशय में रखना। इन चार तरीकों में से गर्भसंहरण के लिए यहाँ तीसरा तरीका ही उपयोगी माना गया है । क्योंकि कच्चा (अधूरा) या पक्का (पूरा) कोई भी गर्भ स्वाभाविक रूप से योनि द्वारा ही बाहर आता है । यह लौकिक प्रथा सर्वविदित है । इसलिए देव ने भी इसी प्रथा का अनुसरण किया है । यद्यपि देव की शक्ति विचित्र है । वह किसी भी स्थान से गर्भ को बाहर निकाल कर अन्य स्त्री के गर्भ में रख सकता है, किन्तु देव ने सर्व साधारण में प्रचलित लौकिक प्रथा का ही अनुसरण किया है। . देव सामर्थ्य विचित्र है। इस बात को बतलाने के लिए यह बतलाया गया है कि देव गर्भ को आबाधा अर्थात् किञ्चित् पीड़ा और विबाधा अर्थात् विशेष पीड़ा पहुँचाये बिना उस गर्भ के सूक्ष्म सूक्ष्म टुकड़े करके नख के अग्रभाग द्वारा, या रोम कूपों (छिद्रों) द्वारा गर्भ को बाहर निकाल सकता है और वापिस गर्भाशय में रख सकता है । इतना सब करते हुए भी गर्भ को किञ्चित् मात्र भी पीड़ा नहीं होने देता। श्री अतिमुक्तक कुमार श्रमण तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स . अंतेवासी अइमुत्ते णामं कुमारसमणे पगइभदए, जाव-विणीए । तए णं से अइमुत्ते कुमारसमणे अण्णया कयाइं महावुट्टिकायंसि णिवयमाणंसि कक्खपडिग्गहरयहरणमायाए बहिया संपट्ठिए विहा- . राए । तएणं अइमुत्ते कुमारसमणे वाहयं वहमाणं पासइ, पासित्ता For Personal & Private Use Only Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ५ उ. ४ श्री अतिमुक्तक कुमार श्रमण मट्टियाए पालिं बंधइ, बंधित्ता ‘णाविया मे णाविया में णाविओ विव णावमयं पडिग्गहं उदगंसि कटु पव्वाहमाणे पव्वाहमाणे अभिरमइ, तं च थेरा अदक्खु, जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता एवं वयासी कठिन शब्दार्थ-अंतेवासी-समीप रहनेवाला -- शिष्य, महावुटिकायंसि-महा वर्षा, णिवयमाणंसि--होने पर, कक्खपडिग्गहरयहरणमायाए-कांख -बगल में, रजोहरण और पात्र लेकर, बहिया संपट्ठिए विहाराए-बाहर रही हुई विहार भूमि-स्थंडिल भूमि भे, वाहयं-छोटा नाला, णाविया मे-यह मेरी नौका है, पव्वाहमाणे -बहाता हुआ, अभिरमइ-खेलता है, थेरा-स्थविर, अद्दक्खू–देखा, उवागच्छंति--आये । भावार्थ-उस काल उस समय में श्रमण भगवान महावीर स्वामी के शिष्य अतिमुक्तक नाम के कुमार श्रमण थे। वे प्रकृति से भद्र यावत् विनीत थे। वे अतिमुक्तक कुमार श्रमण किसी दिन महावर्षा बरसने पर अपना रजोहरण कांख (बगल) में लेकर तथा पात्र लेकर बाहर भूमिका (बडी शंका के निवारण के लिये) गये । जाते हुए अतिमुक्तक कुमार श्रमण ने मार्ग में बहते हुए पानी के एक छोटे नाले को देखा। उसे देखकर उन्होंने उस नाले के मिट्टी की पाल बांधी। इसके बाद जिस प्रकार नाविक अपनी नाव को पानी में छोड़ता है, उसी तरह उन्होंने भी अपने पात्र को उस पानी में छोड़ा, और 'यह मेरी नाव है, यह मेरी नाव है'-ऐसा कह कर पात्र को पानी में तिराते हुए क्रीड़ा करने लगे। अतिमुक्तक कुमार श्रमण को ऐसा करते हुए देखकर स्थविर मुनि उसे कुछ कहे बिना ही चले आये, और. श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास आकर उन्होंने इस प्रकार पूछा;-- १४ प्रश्न-एवं खलु देवाणुप्पियाणं अंतेवासी अहमुत्ते णाम कुमारसमणे से णं भंते ! अइमुत्ते कुमारसमणे काहिं For Personal & Private Use Only Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - अ. ५ उ. ४ श्री अतिमुक्तक कुमार भ्रमण भवग्गणेहिं सिज्झिहि, जाव अंतं करेहिइ ? १४ उत्तर - अजो ! त्ति समणे भगवं महावीरे ते थेरे एवं वयासी - एवं - खलु अज्जो ! ममं अंतेवासी अइमुत्ते णामं कुमारसमणे पगइ भइए, जाव- विणीए से णं अइमुत्ते कुमारसमणे इमेणं चेव भवग्गणेणं सिज्झिहिइ जाव अंतं करिहि तं मा णं अजो ! तु अमुतं कुमारसमणं हीलेह, निंदह, खिंसह, गरहह, अवमण्णह; तुम्भेणं देवाणुप्पिया ! अइमुत्तं कुमारसमणं अगिलाए संगिण्हह, अंगिलाए उवगिण्हह, अगिलाए भत्तेणं पाणेणं विणरणं वेयावडियं करे | अमु णं कुमारसमणे अंतकरे चेव, अंतिमसरीरिए चेव; तए णं ते थेरा भगवंतो समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वृत्ता समाणा समणं भगवं महावीरं वदति, णमंसंति, अइमुत्तं कुमारसमण अगिलाए संगिण्हंति, जाव - वेयावडियं करेति । " ८०७ कठिन शब्दार्थ - कहि-कितने, अवमण्णह - अपमान करना, अगिलाए - ग्लानि रहित, उवगिण्हह - स्वीकार करो -संभाल करो । भावार्थ- १४ प्रश्न - हे भगवन् ! आपका शिष्य अतिमुक्तक कुमार श्रमण कितने भव करने के बाद सिद्ध होगा ? यावत् सब दुःखों का अन्त करेगा ? १४ उत्तर- श्रमण भगवान् महावीर स्वामी उन स्थविर मुनियों को सम्बोधित करके कहने लगे- हे आर्यों ! प्रकृति से भद्र यावत् प्रकृति से विनीत मेरा अन्तेवासी (शिष्य) अतिमुक्तक कुमार इसी भव से सिद्ध होगा । यावत् सभी दुःखों का अन्त करेगा । इसलिए हे आर्यों ! तुम अतिमुक्तक कुमार श्रमण की होलना, निन्दा, खिसना, गर्हा और अपमान मत करो । किन्तु हे देवानुप्रियों ! For Personal & Private Use Only Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०८ भगवती सूत्र-श. ५ उ. ४ श्री अतिमुक्तक कुमार श्रमण तुम अग्लान भाव से अतिमुक्तक कुमार श्रमण को स्वीकार करो। उसकी सहायता करो और आहार पानी के द्वारा विनय पूर्वक वैयावच्च करो। क्योंकि अतिमुक्तक कुमार श्रमण अन्तिम शरीरी है और इसी भव में सब कर्मों का क्षय करने वाला है । श्रमग भगवान महावीर स्वामी द्वारा उपरोक्त वृतान्त सुनकर उन स्थविर मुनियों ने श्रमण भगवान महावीर स्वामी को वन्दना नमस्कार किया। फिर वे स्थविर मुनि अतिमुक्तक कुमार श्रमण को अग्लान भाव से स्वीकार कर यावत् उसकी वैयावच्च करने लगे। विवेचन-पहले के प्रकरण में भगवान महावीर स्वामी के गर्भसंहरण रूप आश्चर्य का कथन किया । अब इस प्रकरण में भगवान् के शिष्य अतिमुक्तक कुमारश्रमण + की आश्चर्यकारी घटना का वर्णन किया जाता है। अतिमुक्तक कुमार ने छोटी उम्र में ही दीक्षा ली थी । कालान्तर में वर्षा हो जाने के बाद स्थविर मुनि बाहर-भूमिका पधारे। अतिमुक्तक कुमार श्रमण भी उनके साथ बाहर-भूमिका पधारे । मार्ग में बरसात के पानी का एक छोटा नाला बह रहा था । अतिमुक्तक मुनि ने उस नाले के मिट्टी की पाल बांध दी। जिससे पानी वहां इकट्ठा हो गया। फिर उसमें अपना पात्र छोडकर इस प्रकार कहने लगे कि 'मेरी नाव तिर रही है, मेरी नाव तिर रही है।' बाल स्वभाव के कारण वे इस प्रकार क्रीड़ा करने लगे। जब स्थविर मुनियों ने यह देखा, तो उनके मन में शंका उत्पन्न हुई । इसलिये अतिमुक्तक कुमार श्रमण से कुछ कहे बिना ही वे भगवान् की सेवा में आये । अपनी शंका का समाधान करने के लिये उन्होंने भगवान से पूछा कि 'हे भगवन् ! अपका शिष्य अतिमुक्तक कुमार श्रमण कितने भवों में सिद्ध बुद्ध यावत् मुक्त होगा।' __भगवान् ने फरमाया कि-'हे आर्यों ! अतिमुक्तक कुमार श्रमण अन्तकर (कर्मों का अन्त करने वाला) है और अन्तिम शरीरी है । अर्थात् वह इस शरीर के पश्चात् दूसरा शरीर धारण नहीं करेगा, अपितु इस शरीर को छोड़कर वह सिद्ध बुद्ध यावत् मुक्त होजायगा। इसलिये तुम उसकी हीलना (जाति आदि को प्रकट करके निन्दा) मत करो । मन से भी निन्दा मत करो । खिसना (मनुष्यों के सामने अवगुणवाद प्रकट करके चिढ़ाना) मत करो। गर्दा (उसके सामने अवर्णवाद कहना) मत करो । अवमानना (उस की उचित शुश्रूषा + अतिमुक्तक ने छोटी उम्र में दीक्षा ली थी, इसलिए 'कुमारश्रमण' कहा गया है। टीकाकार ने तो लिखा है कि-अति मुक्तक कुमार ने छह वर्ष की उम्र में ही दीक्षा ली थी। For Personal & Private Use Only Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ५ उ. ४ दो देवों का भ. महावीर से मौन प्रश्न नही करने रूप अपमान ) मत करो, किन्तु मन में किसी प्रकार की ग्लानि न रखते हुए संयम में उसकी सहायता करो और उसकी वैयावृत्य करो ।' भगवान् से उपरोक्त वर्णन सुनकर उन स्थविर मुनियों के मन का सन्देह दूर हो गया। उन्होंने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वन्दना नमस्कार किया और अग्लान भाव से अतिमुक्तक कुमार श्रमण की वैयावृत्य करने लगे । दो देवों का भ. महावीर से मौन प्रश्न तेणं कालेणं, तेणं समएणं महासुकाओ कप्पाओ, महासग्गाओ महाविमाणाओ दो देवा महिड्ढिया; जांव - महाणुभागा समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं पाउन्भूआ; तएणं ते देवा समणं भगवं महावीरं मणसा चैव वंदंति णमंसंति मणसा चैव इमं एयारूवं वागरणं पुच्छंति १५ प्रश्न - कह णं भंते! देवाणुप्पियाणं अंतेवासीसयाहं सिज्झिहिंति, जाव - अंतं करेहिंति ? १५ उत्तर–तएणं समणे भगवं महावीरे तेहिं देवेहिं मणसा पुढे. तेसिं देवाणं मणसा चेव इमं एयारूवं वागरणं वागरेइ, एवं खलु देवाणुपिया ! ममं सत्त अंतेवासीसयाई सिज्झिहिंति; जाव अंतं करेहिंति । एणं ते देवा समणेणं भगवया महावीरेणं मणसा पुट्ठेणं, मणसा चैव इमं एयारूवं वागरणं वागरिया समाणा हट्ट तुट्टा जाव - हयहियया, समणं भगवं महावीरं वंदंति, णमंसंति, वंदित्ता, For Personal & Private Use Only ८०९ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१० भगवती सूत्र-श. ५ उ. ४ दो देवों का भ. महावीर से मौन प्रश्न णमंसित्ता मणसा चेव सुस्सूसमाणा णमंसमाणा अभिमुहा जावपज्जुवासंति। कठिन शब्दार्थ-महासग्गाओ-महासर्ग, मणसा चेव-मन से ही, एयारूवं -इस प्रकार वागरणं-व्याकरण-प्रश्न, सुस्सूसमाणा--सेवा करते हुए, अभिमुहा--संमुख होकर । ___ भावार्थ-उस काल उस समय में महाशक्र नाम के देवलोक से, महासर्ग नाम के महाविमान से, महाऋद्धि वाले यावत् महाभाग्यशाली दो देव, श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास प्रादुर्भूत हुए (आये) । उन देवों ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को मन से ही वन्दना नमस्कार किया और मन से ही यह प्रश्न पूछा १५ प्रश्न-हे भगवन् ! आपके कितने सौ शिष्य सिद्ध होंगे यावत् समस्त दुःखों का अन्त करेंगे? १५ उत्तर-इसके पश्चात् श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने उन देवों के प्रश्न का उत्तर, मन द्वारा ही दिया कि "हे देवानुप्रियों ! मेरे सात सौ शिष्य सिद्ध होंगे। यावत् सभी दुःखों का अन्त करेंगे।" इस प्रकार मन द्वारा पूछे हुए प्रश्न का उत्तर, श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने उन देवों को मन द्वारा ही दिया। जिससे वे देव हर्षित, संतुष्ट यावत् प्रसन्न हृदय वाले हुए। फिर उन्होंने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वन्दना नमस्कार किया । वन्दना नमस्कार करके मन से ही उनकी शुश्रूषा और नमन करते हुए सम्मुख होकर यावत् पर्युपासना करने लगे। तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेट्टे अंतेवासी इंदभूई णामं अणगारे जाव-अदूरसामंते उड्ढं जाणू, जाव-विहरइ । तएणं तस्स भगवओ गोयमस्स झाणंत For Personal & Private Use Only Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ भगवती सूत्र-श. ५ उ. ४ दो देवों का भ. महावीर से मौन प्रश्न ८११ रियाए वट्टमाणस्स इमेयारूवे अज्झथिए, जाव समुप्पजित्था-एवं खलु दो देवा महिड्ढिया, जाव-महाणुभागा समणस्स भगवओ महावीरस्म अंतियं पाउन्भूया, तं णो खलु अहं ते देवे जाणामि, कयराओ कप्पाओ वा सग्गाओ वा विमाणाओ वा कस्स वा अत्थस्स अट्ठाए इहं हव्वं आगया; तं गच्छामि णं भगवं महावीरं वंदामि णमंसामि, जाव-पज्जुवासामि; इमाइं च णं एयारूवाइं वागरणाई पुच्छिस्सामि त्ति कटु एवं संपेहेइ, संपेहित्ता उट्ठाए उढेइ, जाव-जेणेव समणे भगवं महावीरे, जाव-पज्जुवासइ । “गोयमाई!" समणे भगवं महावीरे भगवं गोयमं एवं वयासी-“से. णूणं तव गोयमा ! झाणंतरियाए वट्टमाणस्स इमेयारूवे अज्झथिए, जावजेणेव ममं अंतिए तेणेव हव्वं आगए, से पूर्ण गोयमा ! अटे समटे ?” "हंता, अस्थि ।” “तं गच्छाहि णं गोयमा ! एए चेव देवा इमाइं एयारूवाइं वागरणाइं वागरेहिति ।” कठिन शब्दार्थ-झाणंतरियाए-ध्यानान्तरिका-ध्यान की समाप्ति के बाद और दूसरा ध्यान प्रारंभ करने के पूर्व, वट्टमाणस्स-वर्तते हुए, पाउन्भूया-प्रादुर्भूत हुए-प्रकट हुए। भावार्थ-उस काल उस समय में श्रमण भगवान महावीर स्वामी के ज्येष्ठ अन्तेवासी इन्द्रभूति नामक अनगार यावत् उत्कुटुक आसन से बैठे हए भगवान् की सेवा में रहते थे। वे ध्यान कर रहे थे। चालू ध्यान की समाप्ति हो जाने पर और दूसरा ध्यान प्रारम्भ करने से पहले उनके मन में इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ कि 'भगवान् की सेवा में महाऋद्धि सम्पन्न यावत For Personal & Private Use Only Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१२ भगवती सूत्र - श. ५ उ. ४ दो देवों का भ. महावीर से मौन प्रश्न महाप्रभावशाली दो देव आये हैं। में उन देवों को नहीं जानता हूँ कि वे कौनसे स्वर्ग से और कौनसे विमान से यहाँ आये हैं और किस कारण से आये हैं । इसलिये में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी सेवामें जाकर उन्हें वन्दना नमस्कार करूं यावत् उनकी पर्युपासना करूं । तत्पश्चात् पूर्वोक्त प्रश्न पूछूं । इस प्रकार विचार करके गौतम स्वामी अपने स्थान से उठे और श्रमण भगवान् महावीर स्वामी की सेवा में आकर यावत् उनकी सेवा करने लगे । इसके पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने गौतमादि अनगारों को सम्बोधित कर इस प्रकार कहा गौतम ! एक ध्यान को समाप्त कर दूसरा ध्यान प्रारम्भ करने के पहले तुम्हारे मन में इसे प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ कि 'मैं देवों सम्बन्धी ratna जानने के लिये श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास जाऊं,' इत्यादि, यावत् इसी कारण तुम मेरे पास यहाँ शीघ्र आये हो, यह बात ठीक है ?' गौतम स्वामी ने कहा - 'हाँ, भगवन् ! यह बिलकुल ठीक है।' इसके पश्चात् भगवान् महावीर स्वामी ने कहा कि हे गौतम! तुम अपनी शंका के निवारण के लिये उन्हीं देवों के पास जाओ। वे देव ही तुम्हें बतावेंगे ।' तरणं भगवं गोयमे समणेणं भगवया महावीरेणं अव्भणुष्णाए समाणे समणं भगवं महावीर वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता, जेणेव ते देवा तेणेव पहारेत्थ गमणाए । तरणं ते देवा भगवं गोयमं एजमाणं पासंति, पासित्ता हट्टा, जाव - हर्याहियया खिप्पा - मेव अभुति, अब्भुट्टिता खिष्णामेव पच्चु-वागच्छंति, पच्चुवागच्छित्ता जेणेव भगवं गोयमे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता जाव - णमंसित्ता एवं वयासी - एवं खलु भंते ! अम्हे महासुवकाओ For Personal & Private Use Only Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श ५ उ ४ दो देवों का भ. महावीर से मौन प्रश्न ८१३ कपाओ, महासग्गाओ विमाणाओ दो देवा महिड्ढिया, जावपाउन्भूया तरणं अम्हे समणं भगवं महावीरं वंदामो णमंसामो, वंदित्ता णमंसित्ता, मणसा चैव इमाई एयारूवाई वागरणाई पुच्छामो - कह णं भंते! देवाणुप्पियाणं अंतेवासीसयाई मिज्झिहिंति, जाव - अंतं करिहिंति ? तरणं समणे भगवं महावीरे अम्हेहिं मणसा पुढे, अम्हे मणसा चेव इमं एयारूवं वागरणं वागरेइ - एवं खलु देवाशुपिया ! मम सत्त अंतेवासीसयाई, जाव- अंतं करेहिंति, तणं अम्हे समणं भगवया महावीरेणं मणसा चेव पुट्टेणं मणसा चेव इमं एयारूवं वागरणं वागरिया समाणा समणं भगवं महावीरं वंदामो णमंसामो वंदित्ता णमंसित्ता, जाव-पज्जुवासामो त्ति कट्टु भगवं गोयमं वंदंति णमंसंति, वंदित्ता णमंसित्ता जामेव दिसिं पाउचभूया तामेव दिसिं पडिगया । कठिन शब्दार्थ - अब्भणुष्णाए - आज्ञा होने पर, पहारेत्थ गमणाए मार्ग पर आते हुए, एज्जमानं पासंति - आते हुए देखे, खिप्पामेव - शीघ्र ही, अब्भुट्ठेतिखड़े हुए, पच्चुवागच्छंति - सामने आये, अम्हे - हम | उठ भावार्थ - इसके पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर स्वामी द्वारा इस प्रकार - की आज्ञा मिलने पर गौतम स्वामी ने भगवान् को वन्दना नमस्कार किया । फिर वे उन देवों की तरफ जाने लगे । गौतम स्वामी को अपनी ओर आते हुए देखकर वे देव हर्षित यावत् प्रसन्न हृदयवाले हुए और शीघ्र ही खडे होकर उनके सामने गये और जहाँ गौतम स्वामी थे, वहां पहुंचे। फिर उन्हें वन्दना नमस्कार करके देवों ने इस प्रकार कहा - 'हे भगवन् ! हम महाशुक्र नामक For Personal & Private Use Only Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र–श. ५ उ. ४ देव, नोसंयत देवलोक के महासर्ग नामक विमान से यहाँ आये हैं। और श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वन्दना नमस्कार करके इस प्रकार पूछा-'हे भगवन् ! आपके कितने सौ शिष्य सिद्ध होंगे। यावत् सर्व दुःखों का अन्त करेंगे ?' इस प्रकार हमने मन से प्रश्न पूछा, तो श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने मन से ही हमारे प्रश्न का उत्तर दिया कि-'हे देवानुप्रियों ! मेरे सात सौ शिष्य सिद्ध होंगे यावत् सब दुःखों का अन्त करेंगे। इस प्रकार मन द्वारा पूछे हुए प्रश्न का उत्तर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी की तरफ से मन द्वारा प्राप्त कर हम बहुत हर्षित यावत् प्रसन्न मनवाले हुए हैं। अतएव श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वन्दना नमस्कार कर यावत् उनको पर्युपासना कर रहे हैं।' इस प्रकार कह कर उन देवों ने गौतम स्वामी को वन्दना नमस्कार किया। फिर वे देव जिस दिशा से आये थे उसी दिशा में वापिस चले गये। विवेचन-पहले प्रकरण में अतिमुक्तक कुमार श्रमण का वर्णन किया गया है । जिस प्रकार वे चरम शरीरी जीव थे, उसी प्रकार भगवान् के दूसरे बहुत से शिष्य भी चरम शरीरी थे। यह बात भगवान् ने महाशुक्र नामक सातवें देवलोक से आये हुए दो देवों के प्रश्न के उत्तर में बताई। ___ देवों के द्वारा अपने आगमनादि के कारण को सुनकर गौतम स्वामी ने भी यह बात जानी। ध्यानान्तरिका-एक ध्यान को समाप्त करके जबतक दूसरा ध्यान प्रारम्भ नहीं किया जाय, उस बीच के समय को 'ध्यानान्तरिका' कहते हैं । देव, नोसंयत १६ प्रश्न-'भंते' ! त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीर वंदइ णमंसइ, जाव-एवं वयासी-देवा णं भंते ! संजया ति वत्तव्वं सिया ? For Personal & Private Use Only Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ५ उ. ४ देव नोसंयत १६ उत्तर-गोयमा ! णो इणटे समटे, अब्भक्खाणमेयं । १७ प्रश्न-देवा णं भंते ! असंजया ति वत्तव्वं सिया ? १७ उत्तर-गोयमा ! णो इणटे समढे, णिठुरवयणमेयं । १८ प्रश्न-देवा णं भंते ! संजयाऽसंजया ति वत्तव्वं सिया ? १८ उत्तर-गोयमा ! णो इणटे समढे, असब्भूयमेयं देवाणं । १९ प्रश्न-से किं खाइ णं भंते ! देवा इति वत्तव्यं सिया ? १९ उत्तर-गोयमा ! देवा णं णो संजया इ वत्तव्यं सिया । कठिन शब्दार्थ-संजया-संयत-संयमवान्, अब्भक्खाणं-अभ्याख्यान-असत्य, निठुरवयणं-निष्ठुर वचन, असब्भूयं-असद्भूत-अनहोना। भावार्थ-१६ प्रश्न-'हे भगवन् !' इस प्रकार सम्बोधित करके भगवान गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वन्दना नमस्कार करके यावत् इस प्रकार पूछा हे भगवन् ! क्या देवों को 'संयत' कहना चाहिये ? १६ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । देवों को 'संयत' कहना असत्य वचन है। १७ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या देवों को 'असंयत' कहना चाहिये ? १७ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। क्योंकि 'देव असंयत है' यह वचन निष्ठुर वचन है। १८ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या देवों को 'संयतासंयत' कहना चाहिये ? १८ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । क्योंकि देवों को संयतासंयत कहना असद्भूत (असत्य) वचन है । १९ प्रश्न-हे भगवन् ! तो फिर देवों को क्या कहना चाहिये ? १९ उत्तर-हे गौतम ! देवों को 'नोसंयत' कहना चाहिये। For Personal & Private Use Only Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ५ उ. ४ देवों की भाषा विवेचन-अगले प्रकरण में देवों का कथन किया गया था और इस प्रकरण में भी उन्ही के सम्बन्ध में कथन किया जाता है। गौतम स्वामी के प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने फरमाया कि देवों को संयत, असंयत, या संयतासंयत नहीं कहना चाहिये । उन्हें 'नोसयत' कहना चाहिये। शंका-'असंयत' और 'नो संयत' इन दोनों शब्दों का अर्थ तो एक सरीखा है। फिर देवों को 'असंयत' नहीं कहकर 'नो संयत' कहने का क्या कारण है ? । - समाधान-जिस प्रकार 'मृत' अर्थात् मर गया' और 'स्वर्गगत' अर्थात् स्वर्गवासी हो गया, इन दोनों शब्दों का एक ही अर्थ है, तथापि मर गया' यह कहना निष्ठुर (कठोर) वचन है । इसकी अपेक्षा स्वर्गवासी हो गया,' यह कहना अनिष्ठुर वचन है। इसी तरह 'असंयत' शब्द की अपेक्षा 'नोसंयत' शब्द अनिष्ठुर है, इमलिये देवों के लिये 'असंयत' शब्द का प्रयोग न करके 'नो संयत' शब्द का प्रयोग किया गया है । देवों की भाषा २० प्रश्न-देवा णं भंते ! कयराए भासाए भासंति, कयरा वा भासा भासिन्जमाणी विसिस्सइ ? . २० उत्तर-गोयमा ! देवा णं अद्धमागहाए भासाए भासंति, सा वि य णं अद्धमागहा भासा भासिजमाणी विसिस्सइ । कठिन शब्दार्थ-अद्धमागहा-अर्धमागधी, विसिस्सइ-विशिष्ट रूप होती है। २० प्रश्न-हे भगवन् ! देव कौनसी भाषा बोलते हैं ? अथवा देवों द्वारा बोली जाती हुई कौनसी भाषा विशिष्टरूप होती है ? २० उत्तर-हे गौतम ! देव अर्धमागधी भाषा में बोलते हैं और बोली जाती हुई यह अर्धमागधी भाषा विशिष्टरूप होती है। विवेचन-देव कौनसी भाषा बोलते हैं ?' इसके उत्तर में भगवान् ने फरमाया कि 'देव अर्धमागधी भाषा में बोलते है और वह विशिष्ट रूप होती है। For Personal & Private Use Only Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श ५ उ. ४ छद्मस्थ सुनकर जानता है जो भाषा मगधदेश में बोली जाती है, उसे 'मागधी' कहते हैं । जिस भाषा में मागधी और प्राकृत आदि भाषाओं के लक्षण का मिश्रण हो गया हो, उसे 'अर्धमागधी ' भाषा कहते हैं । 'अर्धमागधी' शब्द का व्युत्पत्त्यर्थं भी यही है । भाषा के मुख्य रूप से छह भेद हैं । यथा - प्राकृत, संस्कृत, मागधी, पैशाची, शौरसेनी और अपभ्रंश, अनेक देशों की भाषा का सम्मिश्रण हो जाने से छठी भाषा को अपभ्रंश कहा गया है । छद्मस्थ सुनकर जानता है २१ प्रश्न - केवली णं भंते! अंतकरं वा अंतिमसरीरियं वा जाणइ पासइ ? . २१ उत्तर - हंता, गोयमा ! जाणइ पासइ । २२ प्रश्न - जहा णं भंते! केवली अंतकरं वा अंतिमसरीरियं वा जाणइ पासइ तहा णं छउमत्थे वि अंतकरं वा अंतिमसरीरियं ८१७ वा जाणइ पासइ २२ उत्तर - गोयमा ! णो इणट्टे समट्ठे, सोचा जाणइ पासह पाणओ वा । २३ प्रश्न - से किं तं सोचा ? A २३ उत्तर - सोचा णं केवलिस्स वा केवलिसावयस्स वा केवलिसावियाए वा केवलिउवासगस्स वा केवलिउवासियाएं वा तप्पक्खियस्स वा तपक्खियसावयस्स वा तप्पक्खियसावियाए वा तपस्विवागस्स वा तप्पक्खियवासियाए वा से तं सोचा । For Personal & Private Use Only Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ८१८ भगवती सूत्र-श. ५ उ. ४ छद्मस्थ सुनकर जानता है . . . . कठिन शब्दार्थ--अंतकर--भव का अन्त करके मोक्ष पाने वाला, पमाणओ-प्रमाण से, तप्पक्खियाए-तत्पाक्षिक से। भावार्थ-२१ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या केवली भगवान् अन्तकर को अथवा अन्तिम शरीरी को जानते और देखते हैं ? २१ उत्तर-हाँ गौतम ! जानते और देखते हैं। २२ प्रश्न-हे भगवन् ! जिस प्रकार केवली भगवान् अन्तकर (कर्मों का अन्त करने वाले) को अथवा अन्तिम शरीरी को जानते और देखते है, उसी प्रकार छमस्थ मनुष्य भी अन्तकर को अथवा अन्तिम शरीरी को जानता और देखता है ? २२ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं, किन्तु छद्मस्थ मनुष्य भी किसी के पास से सुनकर अथवा प्रमाण द्वारा अन्तकर और अन्तिम शरीरी को जानता और देखता है। २३ प्रश्न-हे भगवन् ! वह किसके पास सुनकर यावत् जानता और देखता है ? २३ उत्तर-हे गौतम ! केवली, केवली के श्रावक, केवली की श्राविका, केवली के उपासक, केवली की उपासिका, केवली-पाक्षिक (स्वयंबुद्ध), केवली. पाक्षिक के श्रावक, केवली-पाक्षिक की श्राविका, केवली-पाक्षिक के उपासक और केवली-पाक्षिक की उपासिका, इनमें से किसी के पास सुनकर छद्मस्थ मनुष्य यावत् जानता और देखता है। विवेचन--केवली और छद्मस्थ वक्तव्यता में ही यह बात कही जाती है। जिस प्रकार केवली भगवान् जानते हैं, उस तरह तो छप्रस्थ नहीं जानता है, किन्तु कथञ्चित् जानता है । यही बात बतलाई जा रही है छमस्थ मनुष्य भी केवली आदि दस व्यक्तियों के पास से सुन कर यह जान सकता है कि-यह मनुष्य कर्मों का अन्त करने वाला और अन्तिम-शरीरी है । वे दस व्यक्ति ये हैं (१) केवली-केवलज्ञान केवलदर्शन के धारक, सर्वज्ञ सर्वदर्शी के पास से 'यह अन्तकर है' इत्यादि वचन सुन कर जानता है । (२) केवली के श्रावक-सुनने का अभिलाषी होकर For Personal & Private Use Only Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भग |-श. ५ उ.४ प्रमाण ८१९ जो जिन भगवान् के पास सुनता है, उसको 'केवली का श्रावक' कहते हैं । वह जिन भगवान् के पास अन्य अनेक वाक्य सुनता हुआ यह मनुष्य अन्तकर है'-इत्यादि वाक्य भी सुनता है। अतः उसके पास सुन कर छद्मस्थ मनुष्य भी यह जानता है कि यह अन्तकर है। (३) इसी तरह केवली की श्राविका के पास से सुनकर भी जानता है । ( ४ ) केवली के उपासक-सुनने की इच्छा के बिना जो केवली महाराज की उपासना में तत्पर होकर उपासना करता है, उसे 'केवली का उपासक' कहते हैं। केवली भगवान् की उपासना करते हुए वह 'यह मनुष्य अन्तकर है'-इ-यादि केवली वाक्यों को सुनता है । इसलिये उसके पास से सुनकर छद्मस्थ मनुष्य भी यह जानता है कि यह अन्तकर है। (५) इसी तरह केवली की उपासिका से सुनकर भी वह जानता है। (६) केवली-पाक्षिक का अर्थ 'स्वयं बुद्ध' है । स्वयंबुद्ध, (७) स्वयंबुद्ध का श्रावक, (८) स्वयंबुद्ध की श्राविका, (५) स्वयंबुद्ध का उपासक और (१०) स्वयंबुद्ध की उपासिका, इनके पास से सुनकर भी छद्मस्थ मनुष्य यह जानता है कि यह अन्तकर है। प्रमाण २४ प्रश्न-से किं तं पमाणे ? २४ उत्तर-पमाणे चउविहे पण्णत्ते, तं जहा-पच्चक्खे, अणुमाणे, ओवम्मे, आगमे; जहा अणुओगदारे तहा णेयव्वं पमाणं, जाव-'तेण परं णो अत्तागमे, णो अणंतरागमे, परंपरागमे । कठिन शब्दार्थ-पच्चक्खे-प्रत्यक्ष, ओवम्मे-उपमा, परं-आगे, अत्तागमेआत्मागम-आत्मा से आया हुआ श्रुतज्ञान, अनणंरागमे - गुरु से प्रधान शिष्य को सीधा प्राप्त हुआ श्रुतज्ञान, परम्परागमे-गुरु परम्परा से प्राप्त हुआ श्रुतज्ञान । भावार्थ-२४ प्रश्न-हे भगवन् ! प्रमाण कितने हैं ? २४ उत्तर-हे गौतम ! प्रमाण चार प्रकार का कहा गया है । यथाप्रत्यक्ष, अनुमान, औपम्य (उपमान) और आगम । प्रमाण के विषय में जिस For Personal & Private Use Only Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२० भगवती सूत्र - ५ उ. ४ प्रमाण प्रकार अनुयोगद्वार सूत्र में कहा गया है, उसी प्रकार यहाँ भी कहना चाहिये, यावत् नोआत्मागम, नोअनन्तरागम किन्तु परम्परागम है वहां तक कहना चाहिये । विवेचन - प्रमाण के द्वारा भी छद्मस्थ मनुष्य जानता है । प्रमाण के चार भेद है । यथा - प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम । इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना साक्षात् आत्मा से जो ज्ञान हो, वह 'प्रत्यक्ष प्रमाण' है । यह व्याख्या निश्चय दृष्टि से है । व्यावहारिक दृष्टि से तो इन्द्रिय और मन से होने वाले ज्ञान को भी प्रत्यक्ष कहते हैं । लिंग अर्थात् हेतु के ग्रहण और सम्बन्ध अर्थात् व्याप्ति के स्मरण के पश्चात् जिससे पदार्थ का ज्ञान होता है, उसे 'अनुमान प्रमाण' कहते हैं । अर्थात् साधन से साध्य के ज्ञान को अनुमान कहते हैं । जिसके द्वारा सदृशता से उपमेय पदार्थों का ज्ञान होता है, उसे 'उपमान प्रमाण' कहते हैं । जैसे गवय ( रोझ) गाय के समान होता है । शास्त्र द्वारा होने वाला ज्ञान- 'आगम प्रमाण' कहलाता है । प्रत्यक्ष प्रमाण के दो भेद हैं-इन्द्रिय प्रत्यक्ष और नो-इन्द्रिय प्रत्यक्ष । प्रत्यक्ष शब्द का शब्दार्थ इस प्रकार है- 'अक्ष' शब्द का अर्थ आत्मा और इन्द्रिय है । इन्द्रियों की सहायता के बिना जीव के साथ सीधा सम्बन्ध रखने वाला ज्ञान 'प्रत्यक्ष प्रमाण' है । उसके तीन भेद हैं यथा - अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान । इन्द्रियों से सीधा सम्बन्ध रखने वाला अर्थात् इन्द्रियों की सहायता द्वारा जीव के साथ सम्बन्ध रखने वाला ज्ञान -' इन्द्रिय प्रत्यक्ष' कहलाता है । इन्द्रिय प्रत्यक्ष, श्रोत्रेन्द्रिय आदि पांच इन्द्रियों की अपेक्षा पांच प्रकार का है। नो-इन्द्रिय प्रत्यक्ष के अवधिज्ञानादि तीन भेद ऊपर बता दिये गये हैं । अनुमान प्रमाण के तीन भेद हैं । यथा- पूर्ववत् शेषवत् और दृष्ट साधर्म्यवत् । जैसे अपने खोए हुए पुत्र को कालान्तर में प्राप्त कर उसकी माता आदि उसके शरीर के पूर्व चिन्ह से पहिचा - नती है । उसे 'पूर्ववत्' अनुमान कहते हैं। कार्य आदि के चिन्हों से परोक्ष पदार्थ का ज्ञान 'शेषवत्' अनुमान कहलाता है। जैसे—केकायित ( मयूर का शब्द ) सुनकर अनुमान करना कि यहाँ मयूर होना चाहिये । एक पदार्थ के स्वरूप को जानकर उस स्वरूप वाले दूसरे पदार्थों का ज्ञान करना 'दृष्टसाधर्म्यवत्' अनुमान कहलाता है । 'जैसे-एक कार्षापण (अस्सी रति का एक तोला) को देखकर दूसरे कार्षापण का ज्ञान करना । जैसी गाय होती है, वैसा ही गवय होता है।' इत्यादि ज्ञान को 'उपमान ज्ञान' कहते हैं । आगम ज्ञान के दो भेद हैं। यथालौकिक और लोकोत्तर । अथवा आगम ज्ञान के तीन भेद हैं। यथा-सूत्र, अर्थ और सूत्रार्थ । मूलरूप आगम को 'सूत्रागम' कहते हैं। शास्त्र के अर्थरूप आगम को 'अर्थागम' कहते हैं । For Personal & Private Use Only Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ५ उ. ४ केवली का ज्ञान ८२१ सूत्र और अर्थ दोनों रूप आगम को सूत्रार्थागम (तदुभयागम) कहते हैं । __ अथवा आगम ज्ञान के दूसरी तरह से भी तीन भेद हैं । यथा-आत्मागम, अनन्तरागम और परम्परागम । अर्थ तीर्थकरों के लिये आत्मागम हैं । गणधरों के लिये अनन्त रागम हैं । और गणधरों के शिष्य प्रशिष्य आदि के लिये परम्परागम हैं । सूत्र गणधरों के लिय आत्मागम हैं । गणधरों के शिष्यों के लिये अनन्तरागम हैं, और गणधरों के प्रशिष्यों के लिये परम्परागम हैं। केवली का ज्ञान २५ प्रश्न-केवली णं भंते ! चरिमकम्मं वा, चरिमणिजरं वा जाणइ पासइ ? - ___२५ उत्तर-हंता, गोयमा ! जाणइ पासइ, जहा णं भंते ! केवली चरिमकम्मं वा जहा णं अंतकरणं वा आलावगो तहा चरिमकम्मेण वि अपरिसेसिओ णेयव्वो। २६ प्रश्न केवली णं भंते ! पणीयं मणं वा वई वा धारेज्जा ? २६ उत्तर-हंता, धारेजा। कठिन शब्दार्थ-चरिमकम्मं-वह अंतिम कर्म पुद्गल जो आत्मा के साथ बद्ध हो, चरिमणिज्जरं-वह कर्म पुद्गल जो अंत में आत्मा से पृथक् हुआ हो, पणीयं-प्रणीत-प्रकृष्ट। . भावार्थ-२५ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या केवली भगवान् चरम-कर्म (अंतिम कर्म) अथवा चरम-निर्जरा को जानते देखते हैं ? २५ उत्तर-हे गौतम ! हां, जानते और देखते हैं। जिस प्रकार 'अंतकर' का आलापक कहा, उसी तरह 'चरमकर्म' का भी पूरा आलापक कहना चाहिए। For Personal & Private Use Only Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२२ भगवती सूत्र-श. ५ उ. ४ केवली का ज्ञान । २६ प्रश्न--हे भगवन् ! क्या केवली भगवान्, प्रकृष्ट मन और प्रकृष्ट वचन धारण करते हैं ? २६ उत्तर--हाँ, गौतम ! धारण करते हैं। २७ प्रश्न-जहा णं भंते ! केवली पणीयं मणं वा वई वा धारेज्जा तं णं वेमाणिया देवा जाणंति पासंति ? २७ उत्तर-गोयमा ! अत्थेगइया जाणंति पासंति, अत्थेगइया ण जाणंति ण पासंति ? २८ प्रश्न से केणटेणं जाव-ण जाणंति ण पासंति ? २८ उत्तर-गोयमा ! वेमाणिया देवा दुविहा पण्णत्ता, तं जहामाइमिच्छादिट्ठीउववण्णगा य, अमाईसम्मदिट्ठीउववण्णगा य; तत्थ णं जे ते माईमिच्छादिट्ठीउववण्णगा ते ण जाणंति ण पासंति; तत्थ णं . जे ते अमाईसम्मदिट्टीउववण्णगा ते णं जाणंति, पासंति । [से केणटेणं एवं वुच्चइ-अमाईसम्मदिट्ठी जाव-पासंति ? गोयमा ! अमाई. सम्मदिट्ठी दुविहा पण्णत्ता,-अणंतरोववण्णगा य, परंपरोववण्णगा य; . तत्थ णं अणंतरोववण्णगा ण जाणंति, परंपरोववण्णगा जाणंति । से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-परंपरोववण्णगा जाव-जाणंति ? गोयमा ! परंपरोववण्णगा दुविहा पण्णत्ता-पजत्तगा य, अपजत्तगा य; पजत्तगा जाणंति, अपजत्तगा ण जाणंति।] एवं अणंतर-परंपर For Personal & Private Use Only Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ५ उ. ४ केवलो का ज्ञान ८२३ पजताऽपजत्ता य; उवउत्ता अणुवउत्ता; तत्थ णं जे ते उवउत्ता ते जाणंति पासंति, से तेणटेणं तं चेव । .. कठिन शब्दार्थ-अत्थेगइया-कुछ एक, अनन्तरोववण्णगा-तत्काल के उत्पन्न हुए, उवउत्ता-उपयोग युक्त, तत्थ-उनमें से । भावार्थ-२७ प्रश्न-हे. भगवन् ! केवलो भगवान् जिस प्रकृष्ट मन को और प्रकृष्ट वचन को धारण करते है, क्या उसको वैमानिक देव जानते और देखते हैं ? २७ उत्तर-हे गौतम ! कितनेक देव जानते देखते हैं और कितनेक देव नहीं जानते और नहीं देखते हैं। - २८ प्रश्न-हे भगवन् ! कितनेक देव जानते देखते हैं और कितनेक देव नहीं जानते, नहीं देखते हैं, इसका क्या कारण है ? २८ उत्तर-हे गौतम ! वैमानिक देव दो प्रकार के कहे गये है, यथामायो मिथ्यादृष्टिपने उत्पन्न हुए और अमायो सम्यग्दृष्टिपने उत्पन्न हुए। इनमें से जो मायोमिथ्यादृष्टिपने उत्पन्न हुए हैं, वे नहीं जानते, नहीं देखते हैं, किन्तु जो अमायो सम्यग्दृष्टिपने उत्पन्न हुए हैं, वे जानते और देखते हैं। '('अमायोसम्यग्दृष्टि वैमानिक देव जानते और देखते हैं, ऐसा कहने का क्या कारण है ? हे गौतम ! अमायी सम्यग्दृष्टि देव दो प्रकार के कहे गये हैं । यथाअनन्तरोपपन्नक और परम्परोपपन्नक । इनमें जो अनन्तरोपपन्नक है, वे नहीं जानते और नहीं देखते हैं और जो परम्परोपपत्रक हैं, वे जानते और देखते हैं। हे भगवन् ! 'परम्परोपपन्नक देव जानते और देखते हैं'-ऐसा कहने का क्या कारण है ? हे गौतम ! परम्परोपपन्नक देव दो प्रकार के कहे गये हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त । जो पर्याप्त हैं, वे जानते और देखते हैं और जो अपर्याप्त हैं, वे नहीं For Personal & Private Use Only Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२४ भगवती सूत्र-श. ५ उ. ४ अनुत्तरोपपातिक देवों का मनोद्रव्य जानते और नहीं देखते हैं।') इसी तरह अनन्तरोपपन्नक और परम्परोपपन्नक तथा अपर्याप्त और पर्याप्त एवं उपयोग युक्त और उपयोग रहित, इस प्रकार के वैमानिक देव हैं। इनमें जो उपयोग युक्त हैं, वे जानते और देखते हैं। इसलिये ऐसा कहा गया है कि कितनेक वमानिक देव जानते और देखते हैं, तथा कितनेक नहीं जानते और नहीं देखते हैं। अनुत्तरौपपातिक देवों का मनोद्रव्य २९ प्रश्न-पभू णं भंते ! अणुत्तरोववाइया देवा तत्थगया चेव समाणा इहगएणं केवलिणा सद्धि आलावं वा, संलावं वा करत्तए ? २९ उत्तर-हंता, पभू । ३० प्रश्न-से केणटेणं जाव-पभू णं अणुत्तरोववाइया देवा, जाव-करेत्तए ? ३० उत्तर-गोयमा ! जंणं अणुत्तरोववाइया देवा तत्थगया चेव समाणा अटुं वा हेउं वा पसिणं वा कारणं वा वागरणं वा पुच्छंति, तं गं इहगए केवली अळं वा, जाव-वागरणं वा वागरेइ; से तेणठेणं । ___३१ प्रश्न-जं णं भंते ! इहगए चेव केवली अळं वा जाववागरेइ तं णं अणुत्तरोववाइया देवा तत्थगया चेव समाणा जाणंति पासंति ? For Personal & Private Use Only Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ५. उ. ४ अनुत्तरोपपातिक देवों का मनोद्रव्य ३१ उत्तर - हंता, जाणंति पासंति ? ३२ प्रश्न - से केणट्टेणं जाव - पासंति ? ३२ उत्तर - गोयमा ! तेसि णं देवाणं अनंताओ मणोदव्ववग्गओ द्वाओ पत्ताओ अभिसमण्णागयाओ भवंति से तेणट्टेणं जं इहए केवली जाव - पासंति-त्ति । ३३ प्रश्न - अणुत्तरोववाइया णं भंते ! देवा किं उदिष्णमोहा, उवसंतमोहा, खीणमोहा ? ३३ उत्तर - गोयमा ! णो उदिष्णमोहा, उवसंतमोहा, णो मोहा। कठिन शब्दार्थ - तत्थगया वहीं रहे हुए - अपने स्थान कर रहे हुए, इहगएणंयहाँ रहे हुए, सद्धि--साथ, आलावं--आलाप - एक बार बातचीत करना, संलावं-संलापबार-बार बातचीत करना, मणौदव्ववग्गणाओ - मनोद्रव्य वर्गणा से मन से, लद्धाओ-लब्ध- प्राप्त हुई, पत्ताओं--प्राप्त हुई, उदिष्णमोहा-मोह के उदयवाले । भावार्थ - २९ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या अनुत्तरोपपातिक ( अनुत्तर विमानों में उत्पन्न हुए) देव, अपने स्थान पर रहे हुए ही यहाँ रहे हुए केवली के साथ आलाप और संलाप करने में समर्थ हैं ? - २९ उत्तर - हाँ, गौतम ! समर्थ हैं । ३० प्रश्न -- हे भगवन् ! इसका क्या कारण है ? ३० उत्तर - हे गौतम ! अपने स्थान पर रहे हुए ही अनुत्तरौपपातिक देव जिस अर्थ, हेतु, प्रश्न, कारण और व्याकरण को पूछते हैं, उस अर्थ, हेतु, 'प्रश्न, कारण और व्याकरण का उत्तर यहाँ रहे हुए केवली भगवान् देते हैं । इस कारण से उपरोक्त बात कही गई है । ३१ प्रश्न - हे भगवन् ! यहाँ रहे हुए केवली भगवान् जिस अर्थ यावत् ८२५ For Personal & Private Use Only Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ५ उ. ४ केवली का असीम ज्ञान व्याकरण का उत्तर देते हैं, क्या उस उत्तर को वहां रहे हुए अनुत्तरौपपातिक देव जानते और देखते हैं ? ३१ उत्तर-हाँ, गौतम ! वे जानते और देखते हैं ? ३२ प्रश्न--हे भगवन् ! इसका क्या कारण है ? ३२ उत्तर--हे गौतम ! उन देवों को अनन्त मनोद्रव्य-वर्गणा लब्ध (मिली) है, प्राप्त है, अभिसमन्वागत है अर्थात् सम्मुख प्राप्त हुई है । इस कारण से यहाँ रहे हुए केवली महाराज द्वारा कथित अर्थ आदि को. वे वहाँ रहे हुए ही जानते और देखते हैं ? ३३ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या अनुत्तरौपपातिक देव, उदीर्ण मोहवाले हैं, उपशान्त मोह वाले हैं, या क्षीण मोह वाले हैं ? ३३ उत्तर-हे गौतम ! वे उदीर्ण मोहवाले नहीं हैं और क्षीण मोहवाले भी नहीं है, परन्तु उपशान्त मोहवाले हैं। अर्थात् उनके वेद-मोह का उत्कट उदय नहीं है। केवली का असीम ज्ञान ३४ प्रश्न केवली णं भंते ! आयाणेहिं जाणइ पासइ ? ३४ उत्तर-गोयमा ! णो इणढे समढे । ३५ प्रश्न-से केणटेणं जाव-केवली णं आयाणेहिं ण जाणइ, ण पासइ ? ३५ उत्तर-गोयमा ! केवली णं पुरथिमेणं मियं पि जाणइ, अमियं पि जाणइ, जाव णिव्वुडे दंसणे केवलिस्स से तेणटेणं । कठिन शब्दार्थ-आयाहि-आदान- इन्द्रियों द्वारा, णिव्वुडे-निवृत्त-निरावरण । For Personal & Private Use Only Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ५ उ. ४ केवली का असीम ज्ञान ८२७ भावार्थ-३४ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या केवली भगवान् आदानों (इन्द्रियों) द्वारा जानते और देखते हैं ? ३४ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। ३५ प्रश्न-हे भगवन् ! इसका क्या कारण है कि केवली भगवान् इन्द्रियों द्वारा नहीं जानते और नहीं देखते हैं ? ___३५ उत्तर-हे गौतम ! केवली भगवान् पूर्व दिशा में मित भी जानते देखते हैं और अमित भी जानते देखते हैं। यावत् केवली भगवान् का दर्शन, आवरण रहित है । इसलिये वे इन्द्रियों द्वारा नहीं जानते और नहीं देखते हैं। विवेचन-इस के आग के सूत्रों में केवली के सम्बन्ध में ही कथन किया गया है। शैलेशी अवस्था के समय जिन कर्मों का अनुभव होता है, उनको 'चरमकर्म' कहते हैं । और उसके अनन्तर समय में जो कर्म जीव प्रदेशों से झड़ जाते हैं उन्हें 'निर्जरा' कहते हैं। वैमानिक देवों के दो भेद कहे गये हैं। उनमें से मायोमिथ्यादृष्टि नहीं जानते हैं । अमायीसम्यग्दृष्टि के अनन्तरोपपन्नक और परम्परोपपन्नक इन दो भेदों में से अनन्तरोपपत्रक . नहीं जानते हैं । परम्परोपपन्नक के पर्याप्त और अपर्याप्त ऐसे दो भेद. हैं । अपर्याप्त नहीं जानते हैं । पर्याप्त के दो भेद हैं । उपयुक्त (उपयोग सहित) और अनुपयुक्त (उपयोग रहित) इस में अनुपयुक्त तो नहीं जानते, किन्तु उपयुक्त जानते हैं। __ अनुत्तरौपपातिक देव, अपने स्थान पर रहे हुए ही यहाँ से केवली भगवान् द्वारा दिये हुए उत्तर को जानते और देखते हैं । इसका कारण यह है कि उन्हें अनन्त मनोद्रव्य वर्गणाएँ लब्ध, प्राप्त और अभिसमन्वागत है । उनके अवधिज्ञान का विषय सम्भिन्न लोक नाड़ी (लोकनाड़ी से कुछ कम) है । जो अवधिज्ञान, लोकनाड़ी का ग्राहक (जाननेवाला) होता है, वह मनोवर्गणा का ग्राहक होता ही है । क्योंकि जिस अवधिज्ञान का विषय लोक का संख्येय भाग होता है, वह अवधिज्ञान भी मनोद्रव्य का ग्राहक होता है, तो फिर जिस अवधिज्ञान का विषय सम्भिन्न लोकनाड़ी है, वह अवधिज्ञान मनोद्रव्य का ग्राहक हो, इस में कहना ही क्या? जिस अवधिज्ञान का विषय लोक का संख्येय भाग होता है, वह मनो. द्रव्य का ग्राहक होता है । यह बात इष्ट भी है । कहा भी है 'संखेज्जमणोदव्वे भागो लोगपलियस्स बोद्धव्यो अर्थ-लोक के और पल्योपम के संख्येय भाग को जाननेवाला अवधिज्ञान, मनोद्रव्य For Personal & Private Use Only Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२८ भगवती सूत्र - श. ५ उ. ४ केवली के अस्थिर योग का ग्राहक (जाननेवाला) होता है । अनुत्तरोपपातिक देवों के विषय में अब दूसरी बात कही जाती हैं। अनुत्तरोपपातिक देव, उदीर्ण मोह नहीं हैं अर्थात् उनके वेद- मोहनीय का उदय उत्कट ( उत्कृष्ट ) नहीं है । वे क्षीण मोह भी नहीं हैं अर्थात् उनमें क्षपक श्रेणी का अभाव है । इसलिये वे क्षीण-मोह नहीं हैं, किन्तु वे उपशान्त मोह है अर्थात् उनमें किसी प्रकार के मैथुन का सद्भाव न होने से उनके वेद-मोहनी अनुत्कट है। इसलिये वे उपशान्त मोह हैं । किन्तु उपशम श्रेणी न होने के कारण वे सर्वथा उपशांत मोह नहीं हैं । केवली के अस्थिर योग ३६ प्रश्न - केवली णं भंते ! अस्सि समयंसि जेसु आगासपसेसु हत्थं वा पायं वा बाहं वा ऊरुं वा ओगाहित्ता णं चिट्ठति, पभ्रूणं केवली सेयकालंसि वि तेसु चेव आगासपएसेसु हत्थं वा जाव - ओगाहित्ता णं चिट्ठित्तए ? ३६ उत्तर - गोयमा ! णो इणट्टे समट्ठे ! ३७ प्रश्न - से केणट्टेणं भंते ! जाव - ओगाहित्ता णं चिट्ठित्तए ? ३७ उत्तर - गोयमा ! केवलिस्स णं वीरिय-सजोग-सद्दव्वयाए चलाई उवकरणारं भवति, चलोवकरणट्टयाए य णं केवली अरिंस समयंसि जेसु आगासपएसेसु हत्थं वा, जाव - चिट्ठह; णो णं पभू केवली सेयकालंसि वि तेसु चेव जाव - चिट्टित्तए, से तेणट्टेणं जावबुच्चइ - केवली णं अरिंस समयंसि जेसु आगासपएसेसु जाव-चिट्ठइ For Personal & Private Use Only Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श ५ उ. ४ केवली के अस्थिर योग णो णं पभू केवली सेयकालंसि वि तेसु चेव आगासपए सेसु हत्थं वा, जाव - चिट्ठित्तए । कठिन शब्दार्थ -- अस्ति समयंसि - इस समय में, ऊहं-जंघा, ओगाहित्ताणं - अवगाहकर, सेयकालंसि - भविष्यत्काल में, चिट्टित्तए — रहना, चलोवकरणट्टयाए - उपकरण ( हाथ आदि अंग ) चलित ( अस्थिर ) होने के कारण । ८२९ भावार्थ - ३६ प्रश्न - हे भगवन् ! केवली भगवान् इस समय में जिन आकाश प्रदेशों पर अपने हाथ, पैर, बाहु और उरू (जंघा ) को अवगाहित करके रहते हैं, क्या भविष्यत्काल में भी उन्हीं आकाश प्रदेशों पर अपने हाथ आदि को अवगाहित करके रह सकते हैं ? ३६ उत्तर - हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । ३७ प्रश्न - हे भगवन् ! इसका क्या कारण है ? ३७ उत्तर - हे गौतम ! केवली भगवान् के वीर्यप्रधान योग वाला जीव द्रव्य होता है । इससे उनके हाथ आदि अंग चलायमान होते हैं। हाथ आदि अंगों के चलित होते रहने से वर्तमान समय में जिन आकाश प्रदेशों को अवगाहित कर रखा है, उन्हीं आकाश प्रदेशों पर भविष्यत्काल में केवली भगवान् हाथ आदि को अवगाहित नहीं कर सकते । इसलिये यह कहा गया है कि केवली भगवान् जिस समय में जिन आकाश प्रदेशों पर हाथ पाँव आदि को अवगाहित कर रहते हैं, उस समय के अनन्तर आगामी समय में उन्हीं आकाश प्रदेशों को अवगाहित नहीं कर सकते । विवेचन --- वर्तमान समय में जिन आकाश प्रदेशों पर केवली भगवान् के हाथ, पैर आदि अंग हैं । उन्ही आकाश प्रदेशों पर भविष्यत्काल में नहीं रख सकते । इसका कारण 'वीर्य सयोगसद्द्रव्य' है । वीर्यान्तराय कर्म के क्षय से उत्पन्न होने वाली शक्ति को 'वीर्य' कहते हैं। वह वीर्यं जिन मानस आदि व्यापारों में प्रधान हो ऐसे जीव द्रव्य को 'वीर्यसयोगसद्द्रव्य' कहते हैं । वीर्य का सद्भाव होने पर भी योगों के व्यापार के बिना चलन नहीं हो सकता । इसलिये 'सयोग' शब्द द्वारा सद्द्रव्य को विशेषित किया गया है और द्रव्य के । For Personal & Private Use Only Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३० भगवती सूत्र-श ५ उ. ४ चौदह पूर्वधर मुनि का सामर्थ्य साथ जो 'सत्' विशेषण लगाया गया है, वह सत्ता का बोध कराने के लिये है । अथवा वीर्य प्रधान मानसादि योग युक्त आत्म द्रव्य को 'वीर्यसयोग स्वद्रव्य' कहते हैं । अथवा वीर्य प्रधान योग वाला और मन आदि वर्गणा से युक्त जो हो उसे 'वीर्य सयोग सद्रव्य' कहते हैं। वीर्य सयोग सद्रव्यता के कारण केवली भगवान् के अंग अस्थिर होते हैं । इसलिये उन्हीं आकाश प्रदेशों पर वे अपने अंगादि को भविष्यत्काल में नहीं रख सकते । चौदह पूर्वधर मुनि का सामर्थ्य ३८ प्रश्न-पभू णं भंते ! चउद्दसपुव्वी घडाओ घडसहस्सं, पडाओ पडसहस्सं, कडाओ कडसहस्सं, रहाओ रहसहस्सं, छत्ताओ छत्तसहस्सं, दंडाओ दंडसहस्सं, अभिणिव्वदेत्ता उवदंसेत्तए ? ३८ उत्तर-हंता, पभू। ३९ प्रश्न-से केणटेणं पभू चउद्दसपुव्वी, जाव-उवदंसेत्तए ? ३९ उत्तर-गोयमा ! चउद्दसपुग्विस्स णं अणंताई दव्वाई उकरियाभेएणं भिजमाणाई लद्धाइं पत्ताइं अभिसमण्णागयाइं भवंति, से तेणटेणं जाव उवदंसेत्तए। ___सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति * ॥ पंचमसए चउत्थो उद्देसो सम्मत्तो॥ कठिन शम्वार्थ-पडाओ-पट-वस्त्र से, कडाओ-कट-सादरी-चटाई, अभिणिवत्ता-बनाकर, उबईसेत्तए-दिखा सकते हैं, उक्करियाभेएण-उत्करिका भेद सेपुद्गलों के खंड आदि भेद से। भावार्थ--३८ प्रश्न--हे भगवन् ! क्या चौदह-पूर्वधारी (श्रुत केवली) For Personal & Private Use Only Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ५ उ. ४ चौदह पूर्वधर मुनि का सामर्थ्य ८३१ एक घडे में से हजार घडे, एक कपडे में से हजार कपडे, एक कट (चटाई) में से हजार कट, एक रथ में से हजार रथ, एक छत्र में से हजार छत्र और एक दण्ड में से हजार दण्ड करके दिखलाने में समर्थ हैं ? . ३८ उत्तर-हाँ, गौतम ! समर्थ हैं। ३९ प्रश्न-हे भगवन् ! चौदहपूर्वी, ऐसा दिखाने में कैसे समर्थ हैं ? ___३९ उत्तर-हे गौतम ! चौदहपूर्वधारी श्रुतकेवली ने उत्करिका भेद द्वारा भिन्न अनन्त द्रव्यों को लब्ध किया है, प्राप्त किया है और अभिसमन्वागत किया है, इस कारण से वह उपरोक्त प्रकार से एक घडे से हजार घडे आदि दिखलाने में समर्थ है। हे भगवन् ! यह इसी तरह है। हे भगवन् ! यह इसी तरह है । ऐसा कह कर यावत् गौतम स्वामी विचरते हैं। विवेचन-केवली का प्रकरण होने से यहां श्रुतकेवली के सम्बन्ध में कहा जा रहा है। श्रुत से उत्पन्न एक प्रकार की लब्धि के द्वारा श्रुतकेवली, एक घड़े में से अर्थात् एक घड़े को सहाय भूत बनाकर उसमें से हजार घड़े आदि बनाकर बतलाने में समर्थ हैं। पूदगलों के खण्ड आदि से पांच प्रकार के भेद होते है। खण्ड,-जैसे ढेले को फेंकने पर उस के टुकड़े हो जाते हैं, इस प्रकार के पुद्गलों के भेद को 'खण्ड भेद' कहते हैं । प्रतर भेद-एक तह के ऊपर, दूसरी तह का होना 'प्रतर भेद' कहलाता है। जैसे अभ्रक (भोडल) आदि के अन्दर प्रतर-भेद पाया जाता है । चूणिका भेद-किसी वस्तु के पिस जाने पर भेद होना 'चूर्णिका भेद' कहलाता है । यथा-तिल आदि का चूर्ण । अनुतटिका भेद-किसी वस्तु का फट जाना । यथा-तालाब आदि में फटी हुई दरार के समान पुद्गलों के भेद को 'अनुतटिका' भेद कहते हैं । उत्करिका भेद-एरण्ड के बीज के समान पुद्गलों के भेद को 'उत्करिका' भेद कहते हैं। यहाँ पर उस्करिका भेद से भिन्न बने हुए द्रव्य बनाने योग्य घटादि पदार्थों के निष्पादन (बनाने) में समर्थ होते हैं । परन्तु दूसरे भेदों द्वारा भिन्न (भेदाये हुए) द्रव्य, इष्ट कार्य करने में समर्थ नहीं होते । इसलिये यहाँ उत्करिका भेद का ग्रहण किया गया . यहाँ 'लब्ध' शब्द का अर्थ है-लब्धि विशेष द्वारा ग्रहण करने के योग्य बनाये हुए। For Personal & Private Use Only Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श ५ उ. ५ केवलज्ञानी ही सिद्ध होते हैं 'प्राप्त' शब्द का अर्थ है - लब्धि विशेष के द्वारा ग्रहण किये हुए । 'अभिसमन्वागत' शब्द का अर्थ है - घटादि रूप से परिणमाने के लिये प्रारम्भ किये हुए। इनके द्वारा चौदह पूर्वधारी श्रुत केवल एक घट से हजार घट, एक पट से हजार पट, एक कट से हजार कट आदि बनाने में समर्थ होते हैं । ॥ इति पांचवे शतक का चौथा उद्देशक समाप्त ॥ ८३२ शतक ५ उद्देशक ५ “केवलज्ञानी ही सिद्ध होते हैं १ प्रश्न - छउमत्थे णं भंते! मणूसे तीय-मणतं सासयं समयं केवलेणं संजमेणं० ? १ उत्तर - जहा पढमसए चउत्थुद्दे से आलावगा तहा णेयव्वा, जाव - अलमत्थु त्ति वत्तव्वं सिया । www कठिन शब्दार्थ-तीय-मणंतं सासयं - बीते हुए शाश्वत अनन्तकाल में, अलमत्यु - अलमस्तु — सर्वज्ञ सर्वदर्शी केवली । भावार्थ - १ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या छद्मस्थ मनुष्य शाश्वत, अनन्त, भूतकाल में केवल संयम द्वारा सिद्ध हुआ है ? १ उत्तर- जिस प्रकार पहले शतक के चौथे उद्देशक + में कहा है। वंसा ही आलापक यहाँ भी कहना चाहिये, यावत् 'अलमस्तु' तक कहना चाहिये । + प्रथम भाग पृ. २१६ देखें । For Personal & Private Use Only Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ५ उ. ५ अन्यतीथियों का मत-एवंभूत वेदना ८३३ : विवेचन-चौथे उद्देशक के अन्त में चौदह पूर्वधारी की महानुभावता का वर्णन किया गया है । वह उस महानुभावता के कारण छद्मस्थ होते हुए भी क्या सिद्ध हो सकता है ? इस आशंका के निवारण के लिये इस पांचवें उद्देशक के प्रारम्भ में कथन किया जाता है। इस विषय का कथन भगवती सूत्र के प्रथम शतक के चतुर्थ उद्देशक में कर दिया गया है । वह सारा वर्णन यहाँ भी कहना चाहिये। यावत् उत्पन्न ज्ञान-दर्शनधर अरिहन्त, जिन, केवली 'अलमस्तु' अर्थात् पूर्ण-ज्ञानी कहलाते हैं, यहाँ तक का वर्णन कहना चाहिये । यद्यपि यह वर्णन पहले आ चुका है, तथापि यहां पुनः कहने का कारण यह है कि वहां सामान्य रूप से कथन किया गया था और यहाँ उसी बात का कथन विशेष रूप से किया गया है। अतः किसी प्रकार का दोष नहीं है। . अन्यतीर्थियों का मत-एवंभूत वेदना २ प्रश्न-अण्णउत्थिया णं भंते ! एवं आइक्खंति; जाव परूवेंति सव्वे पाणा, सव्वे भया, सब्वे जीवा, सव्वे सत्ता एवंभूयं वेयणं वेदेति, से कहमेयं भंते ! एवं ? ....२ उत्तर-गोयमा ! जं णं ते अण्णउत्थिया एवं आइपखंति, जाव-वेदेति, जे ते एवं आहेसु, मिच्छा ते एवं आहेसु; अहं पुण गोयमा ! एवं आइक्खामि, जाव-परूवेमि अत्यंगइया पाणा, भूया, . जीवा, सत्ता एवंभूयं वेयणं वेदेति; अत्थेगइया पाणा, भूया, जीवा, सत्ता अणेवंभूयं वेयणं वेदेति । ३ प्रश्न-से केणटेणं अत्थेगइया-तं चेव उच्चारेयव्वं ? ३ उत्तर-गोयमा ! जे णं पाणा, भूया, जीवा, सत्ता जहा कडा For Personal & Private Use Only Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३४ भगवती सूत्र-श. ५ उ. ५ अन्यतीर्थियों का मत-एवंभूत वेदना कम्मा तहा वेयणं वेदेति ते णं पाणा, भूया, जीवा, सत्ता एवंभूयं वेयणं वेदेति, जे णं पाणा, भूया, जीवा, सत्ता जहा कडा कम्मा णो तहा वेयणं वेदेति ते णं पाणा, भूया, जीवा, सत्ता अणेवंभूयं वेयणं वेदेति; से तेणटेणं तहेव । ४ प्रश्न-णेरड्या पं भंते ! किं एवंभूयं वेयणं वेदेति, अणेवंभूयं वेयणं वेदेति ? __४ उत्तर-गोयमा ! णेरइया णं एवंभूयं पि वेयणं वेदेति, अणेवंभूयं पि वेयणं वेदेति। ५ प्रश्न-से केणटेणं तं चेव ? . ५ उत्तर-गोयमा ! जे णं णेरड्या जहा कडा कम्मा तहा वेयणं वेदेति ते णं णेरइया एवंभूयं वेयणं वेदेति, जे णं णेरइया जहा कडा कम्मा णो तहा वेयणं वेदेति ते णं णेरइया अणेवंभूयं वेयणं वेदेति; से तेणटेणं, एवं जाव-वेमाणिया । संसारमंडलं णेयव्वं । ___कठिन शब्दार्थ-एवंभूयं-इस प्रकार की, अणेवंभूयं-जिस प्रकार कर्म बांधा है उस से भिन्न-अनेवंभूत, उच्चारेयव्वं-कहना चाहिये, कडा कम्मा-किये हुए कर्म ।। . भावार्थ-२ प्रश्न-हे भगवन् ! अन्यतीर्थिक ऐसा कहते हैं, यावत् प्ररू'पणा करते हैं कि सर्व प्राण, सर्व भूत, सर्व जीव, और सर्व सत्त्व, एवंभूत (जिस प्रकार कर्म बाधा है उसी प्रकार) वेदना वेदते हैं, तो हे भगवन् ! यह किस तरह है ? २ उत्तर-हे गौतम! अन्यतीथिक जो इस प्रकार कहते हैं यावत् प्ररूपणा करते हैं कि 'सर्वप्राण, भूत, जीव और सत्त्व, एवंभूत वेदना वेदते हैं, यह उनका For Personal & Private Use Only Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवर्ती सूत्र-शं. ५ उ. ५ अन्यतीथियों का मत-एवंभूत वेदना ८३५ कथन मिथ्या है । हे गौतम ! में तो इस प्रकार कहता हूं यावत् प्ररूपणा करता हंकि कितने ही प्राण, भूत, जीव और सत्त्व, एवंभूत वेदना वेदते हैं और कितनेही प्राण, भूत, जीव और सत्त्व अनेवंभूत (जिस प्रकार कर्म बांधा है उस से भिन्न प्रकार से) वेदना वेदते है। ३ प्रश्न-हे भगवन् ! इसका क्या कारण है ? - ३ उत्तर-हे गौतम ! जो प्राण, भूत, जीव और सत्त्व, अपने किये हुए कर्मों के अनुसार अर्थात् जिस प्रकार कर्म किये हैं, उसी प्रकार वेदना वेदते हैं, वे प्राण, भूत, जीव, सत्त्व, एवंभूत वेदना वेदते हैं। और जो प्राण, भूत, जीव और सत्त्व अपने किये हुए कर्मों के अनुसार वेदना नहीं वेदते हैं, अर्थात् जिस प्रकार कर्म किये हैं उस प्रकार से नहीं, किन्तु भिन्न प्रकार से वेदना वेदते हैं, वे प्राण, भूत, जीव और सत्त्व, अनेवंभूत वेदना वेदते हैं। इसलिए ऐसा कहा गया है कि कितनेही प्राण, भूत, जीव और सत्व, एवंभूत वेदना वेदते हैं और कितने ही अनेवंभूत वेदना वेदते हैं। ___ ४ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या नैरयिक एवंभूत वेदना वेदते हैं, अथवा अनेवंभूत वेदना वेदते हैं ? ४ उत्तर-हे गौतम ! नरयिक एवंभूत वेदना भी वेदते हैं और अनेवंभूत वेदना भी वेदते हैं। ५ प्रश्न-हे भगवन् ! इसका क्या कारण है ? ५ उत्तर-हे गौतम ! जो नरयिक अपने किये हुए कर्मों के अनुसार वेदना वेदते हैं, वे एवंमत वेदना वेदते हैं और.जो नरयिक अपने किये हुए कर्मों के अनुसार वेदना नहीं भोगते हैं, किन्तु भिन्न प्रकार से भोगते हैं, वे अनेवंभूत वेदना वेदते हैं । इसी प्रकार यावत् वैमानिक पर्यन्त सभी संसारी जीवों के विषय में कहना चाहिए । यहाँ पर संसार मण्डल का वर्णन भी समझना चाहिए। विवेचन-स्वतीथिक की वक्तव्यता के बाद अब परतीर्थिकों की वक्तव्यता कही जाती है । परतीथिकों का कथन है कि सभी जीव, एवंभून.वेदना वेदते हैं अर्थात् जीवों ने For Personal & Private Use Only Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ५ उ. ५ कुलकर आदि जिस प्रकार से कर्म बांधे हैं, वे उसी प्रकार से असाता आदि वेदना वेदते हैं, किन्तु परतीथिकों का यह कथन असत्य है, क्योंकि जिस तरह से बांधे हैं, उसी तरह से सभी कर्म नहीं वेदे जाते । इसमें दोष आता है। क्योंकि लम्बे काल में भोगने योग्य बांधे हुए कर्म, स्वल्प काल में भी भोग लिये जाते हैं। इसलिए यह सत्य है कि कितनेक जीव एवंभूत वेदना वेदते हैं और कितनेक जीव अनेवंभूत वेदना वेदते है। . दूसरी बात यह है कि आगम में कर्मों की स्थितिघात, रसघात आदि बतलाया गया है । इसलिए अनेवंभूत वेदना का सिद्धान्त भी सत्य ठहरता है । जिन जीवों के जिन कर्मों का स्थितिघात, रसघात आदि हो जाता है, वे अनेवंभूत वेदना वेदते हैं और जिन जीवों के स्थितिघात रसघात आदि नहीं होते हैं, वे जीव एवंभूत वेदना वेदते हैं। कुलकर आदि ६ प्रश्न-जंबुद्दीवे णं भंते ! इह भारहे वासे इमीसे उस्सप्पिणीए समाए कइ कुलगरा होत्था ? ६ उत्तर-गोयमा ! सत्त । एवं चेव तित्थयरमायरो, पियरो, पढमा सिस्सिणीओ, चक्कवट्टिमायरो, इत्थिरयणं, बलदेवा, वासुदेवा, वासुदेवमायरो, पियरो; एएसिं पडिसत्तू जहा समवाए णामपरिवाडीए तहा णेयवा। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति जाव-विहरइ । पंचमसए पंचमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ कठिन शब्दार्थ-पडिसत्तू-प्रतिशत्रु अर्थात् वासुदेव का प्रतिशत्रु प्रतिवासुदेव, णामपरिवाडिए-नाम की परिपाटी। भावार्थ-६ प्रश्न-हे भगवन् ! इस जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में इस अव For Personal & Private Use Only Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ५ उ. ५ कुलकर आदि सर्पिणी काल में कितने कुलकर हुए हैं ? ६ उत्तर - हे गौतम ! सात कुलकर हुए । इसी तरह तीर्थङ्करों की माता, पिता, पहली शिष्याएं, चक्रवर्ती की माताएं, स्त्रीरत्न, बलदेव, वासुदेव, वासुदेवों के माता पिता, प्रतिवासुदेव आदि का कथन जिस प्रकार समवायांग सूत्र में किया गया है, उसी प्रकार यहाँ भी कहना चाहिए । ८३७ 1 विवेचन - अपने अपने समय के मनुष्यों के लिये जो व्यक्ति मर्यादा बांधते हैं, उन्हें 'कुलकर' कहते हैं । ये हीं सात कुलकर ' सात मनु' भी कहलाते है । वर्तमान अवस पिणी के तीसरे आरे के अन्त में सात कुलकर हुए हैं। कहा जाता है कि उस समय दस प्रकार के कल्पवृक्ष काल-दोष के कारण कम गये। यह देखकर युगलिये अपने अपने वृक्षों पर ममत्व करने लगे । यदि कोई युगलिया दूसरे के कल्पवृक्ष से फल ले लेता, तो झगड़ा खड़ा हो जाता । इस तरह कई जगह झगड़े खड़े होने पर युगलियों ने सोचा कि कोई पुरुष ऐसा होना चाहिये जो सब के कल्पवृक्षों की मर्यादा बाँध दे। वे किसी ऐसे व्यक्ति की खोज कर ही रहे थे कि उनमें एक युगल स्त्री पुरुष को वन के एक सफेद हाथी ने अपने आप सूंड से उठाकर अपने ऊपर बैठा लिया। दूसरे युगलियों ने समझा कि यही व्यक्ति हम लोगों में श्रेष्ठ है और न्याय करने योग्य है । अतः सभी ने उसको अपना राजा माना, तथा उसके द्वारा बांधी हुई मर्यादा का पालन करने लगे। ऐसी कथा प्रचलित है । पहले कुलकर का नाम विमलवाहन है। बाकी छह कुलकर इसी के वंश में क्रमशः हुए है। उनके नाम इस प्रकार हैं- पहला विमलवाहन, दूसरा चक्षुष्मान, तीसरा यशस्वान, चौथा अभिचन्द्र, पांचवां प्रसेनजित्, छठा मरुदेव और सातवाँ नाभि । इनकी भार्याओं के नाम इस प्रकार है- १ चन्द्रयशा २ चन्द्रकान्ता ३ सुरूपा ४ प्रतिरूपा ५ चक्षुष्कान्ता ६ श्रीकान्ता और ७ मरुदेवी । 7 इस जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में इस अवसर्पिणी काल में चौवीस तीर्थंकर हुए हैं । उनके नाम इस प्रकार हैं- १ श्री ऋषभदेव स्वामी (आदिनाथ स्वामी) २ श्री अजितनाथ स्वामी ३ श्री संभव स्वामी ४ श्री अभिनन्दन स्वामी ५ श्री सुमतिनाथ स्वामी ६ श्रीपद्मप्रभ स्वामी ७ श्री सुपार्श्वनाथ स्वामी ८ श्री चन्द्रप्रभ स्वामी ९ श्री सुविधिनाथ स्वामी ( श्रीपुष्पदन्त स्वामी) १० श्री शीतलनाथ स्वामी ११ श्री श्रेयांसनाथ स्वामी १२ श्री वासुपूज्य स्वामी १३ श्री विमलनाथ स्वामी १४ श्री अनन्तनाथ स्वामी १५ श्री धर्मनाथ स्वामी १६ श्री शान्तिनाथ स्वामी For Personal & Private Use Only Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३८ भगवती सूत्र-श. ५ उ. ५ कुलकर आदि १७ थी कुंथुनाथ स्वामी १८ श्री अरनाथ स्वामी १९ श्री मल्लिनाथ स्वामी २० श्री मुनिसुव्रत स्वामी २१ श्री नमिनाथ स्वामी २२ श्री अरिष्टनेमि स्वामी (नेमिनाथ स्वामी) २३ श्री पार्श्वनाथ स्वामी और २४ श्री महावीर स्वामी। चौवीस तीर्थंकरों के पिता के नाम–१ नाभि २ जितशत्रु ३ जितारि ४ संवर ५ मेघ ६ धर ७ प्रतिष्ठ ८ महासेन ९ सुग्रीव १० दृढरथ ११ विष्णु १२ वसुपूज्य १३ कृतवर्मा १४ सिंहसेन १५ भानु १६ विश्वसेन १७ सूर १८ सुदर्शन १९ कुंभ २० सुमित्र २१ विजय २२ समुद्रविजय २३ अश्वसेन और २४ सिद्धार्थ । चौवीस तीर्थकरों की माताओं के नाम' १ मरुदेवी २ विजयादेवी ३ सेना ४ सिद्धार्था ५ मंगला ६ सुसीसा ७ पृथ्वी ८ लक्ष्मणा (लक्षणा) ९ रामा १० नन्दा ११ विष्णु १२ जया १३ श्यामा १४ सुयशा १५ सुव्रता १६ अचिरा १७ श्री १८ देवी १९ प्रभावती २० पद्मा २१ वप्रा २२ शिवा २३ वामा और २४ त्रिशलादेवी। चौवीस तीर्थंकरों की प्रथम शिष्याओं के नाम-१ ब्राह्मी २ फलगु (फाल्गुनी)३ श्याम ४ अजिता ५ काश्यपी ६ रति ७ सोमा ८ सुमना ९ वारुणी १० सुलशा (सुयशा) ११ धारिणी १२ धरणी १३ धरणीधरा (धरा) १४ पद्मा १५ शिवा १६ श्रुति (सुभा) १७ दामिनी (ऋजुका) १८ रक्षिका (रक्षिता) १९ बन्धुमती २० पुष्पवती २१ अनिला (अमिला) २२ यक्षदत्ता (अधिका) २३ पुष्पचूला और २४ चन्दना (चन्दनबाला)। बारह चक्रवर्तियों के नाम-१ भरत २ सगर ३ मघवान् ४ सनत्कुमार ५ शांतिनाथ ६ कुन्थुनाथ ७ अरनाथ ८ सुभूम ९ महापद्म १० हरिषेण ११ जय १२ ब्रह्मदत्त । चक्रवतियों की माता के नाम-५ सुमंगला २ यशस्वती ३ भद्रा ४ सदेवी ५ अचिरा ६ श्री ७ देवी ८ तारा ९ ज्वाला १० मेरा ११ वप्रा और १२ चुल्लणी। चक्रवतियों के स्त्रीरत्नों के नाम-१ सुभद्रा २ भद्रा ३ सुनन्दा ४ जया ५ विजया ६ कृष्णश्री ७ सूर्यश्री ८ पद्मश्री ९ वसुन्धरा १० देवी ११ लक्ष्मीमती और १२ कुरूमती। नौ बलदेवों के नाम-१ अचल २ विजय ३ भद्र ४ सुप्रभ ५ सुदर्शन ६ आनन्द ७ नन्दन ८ पद्म और ९ राम ।। नव वासुदेवों के नाम-१ त्रिपृष्ठ २ द्विपृष्ठ ३ स्वयंभू ४ पुरुषोत्तम ५ पुरुषसिंह ६ पुरुष पुंडरीक ७ दत्त ८ नारायण और ९ कृष्ण । . नव वासुदेवों की माता के नाम- मृगावती २ उमा ३ पृथ्वी ४ सीता ५ अंबिका ६ लक्ष्मीमती ७ शेषवती ८ केकयी और ९ देवकी। For Personal & Private Use Only Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ५ उ. ६ अल्पायु और दीर्घायु का कारण नच वासुदेवों के पिता के नाम- १ प्रजापति २ ब्रह्म ३ सोम ४ रुद्र ५ शिव ६ महाशिव ७ अग्निशिख ८ दगरथ और ९ वसुदेव । · ८३९ नव वासुदेवों के प्रतिशत्रु (प्रतिवासुदेवों) के नाम-१ अश्वग्रीव २ तारक ३ मेरक ४ मधुकैटभ ५ निशुम्भ ६ बली ७ प्रभराज ( प्रहलाद ) ८ रावण और ९ जरासन्ध । इसके अतिरिक्त समवायांग सूत्र में गत अवसर्पिणी, उत्सर्पिणी और भविष्यत् उत्सपिणी अवसर्पिणी के तीर्थङ्कर, चक्रवर्ती आदि के नाम आदि दिये गये हैं । ॥ इति पांचवें शतक का पाँचवां उद्देशक समाप्त ॥ शतक ५ उद्देशक अल्पायु और दीर्घायु का कारण १ प्रश्न - कह णं भंते ! जीवा अप्पाउयत्ताए कम्मं पकरेंति ? १ उत्तर - गोयमा ! तिहिं ठाणेहिं तंजहा-पाणे अइवापत्ता, मुसं वत्ता, तहारूवं समणं वा माहणं वा अफासुरणं, अणेसणिज्जेणं असण- पाणखाइम साइमेणं पडिला भेत्ता; एवं खलु जीवा अप्पाउयत्ताए कम्मं पकरेंति । २ प्रश्न - कह णं भंते ! जीवा दीहाउयत्ताए कम्मं पकरेंति ? २ उत्तर-गोयमा ! तिहिं ठाणेहिं, तं जहा - गो पाणे अहवा For Personal & Private Use Only Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४० भगवती सूत्र - श. ५ उ ६ अल्पायु और दीर्घायु का कारण इत्ता, णो मुसं वइत्ता, तहारूवं समणं वा माहणं वा फासु-एसणिज्जेणं असण- पाणखाइम साइमेणं पडिला भेत्ता; एवं खलु जीवा दीहाउयत्ताए कम्मं पकरेंति । कठिन शब्दार्थ - अप्पाउयत्ताए - अल्प आयुष्य रूप, अफासुएणं- अप्रासुक - जो प्रासुकजीव रहित नहीं है, अणेसणिज्जेणं-जो कल्पनीय - निर्दोष नहीं है, पडिलामेत्ता - पंच महाव्रत धारी मुनियों को बहरा कर दान देकर, दीहाउयत्ताए - दीर्घ आयुष्य रूप से, पाणेअइवाइता - प्राणियों को मारने से । भावार्थ - - १ प्रश्न - हे भगवन् ! जीव, अल्पायु फल वाले कर्म कैसे बांधते हैं ? १ उत्तर - हे गौतम! तीन कारणों से जीव, अल्पायु फल वाले कर्म बांधते हैं । यथा - प्राणियों की हिंसा करने से, झूठ बोलने से और तथारूप ( साधु के अनुरूप क्रिया और वेश आदि से युक्त दान के पात्र ) श्रमण (साधु) माहण ( श्रावक ) को अप्रासुक, अनेषणीय (अकल्पनीय ) अशन, पान, खादिम स्वादिम देने से जीव, अल्पायु फल वाले कर्म बांधते हैं । २ प्रश्न - हे भगवन् ! जीव दीर्घायु फल वाले कर्म किन कारणों से बांधते हैं ? २ उत्तर - हे गौतम ! तीन कारणों से जीव, दीर्घायु फल वाले कर्म बांधते हैं । यथा - प्राणियों की हिंसा न करने से, झूठ नहीं बोलने से और तथा-रूप श्रमण माहण को प्रासुक एषणीय अशन पान खादिम और स्वादिम बहराने से। इन तीन कारणों से जीव दीर्घायु फल वाले कर्म बांधते हैं । विवेचन - पांचवे उद्देशक में कर्म वेदना का कथन किया गया है। अब इस छठे उद्देशक में कर्म बंध के कारणों का कथन किया जाता है । यहां अल्प आयुबंध के कारण बतलाये गये हैं । यह अल्प आयु, दीर्घं आयु की अपेक्षा से समझनी चाहिये । किन्तु क्षुल्लक-भव ग्रहण रूप निगोद की आयु नहीं । प्रासुक और एषणीय आहार आदि लेने वाले मुनि को अप्रासुक और अनैषणीय आहारादि देने से जो For Personal & Private Use Only Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ५ उ. ६ अल्पायु और दीर्घायु का कारण ८४१ अल्प आयु का प्राप्त होना कहा गया है. वह दीर्घ आयु की अपेक्षा से अल्प समझना चाहिये। क्यों कि जिनागम से संस्कृत बुद्धि वाले मुनि, किमी सांसारिक ऋद्धि संपत्तियुक्त भोगी पुरुष को अल्प आयु में मरा हुआ देख कर कहते हैं कि इसने जन्मान्तर में प्राणी-वध आदि अशुभ कर्म का अवश्य आचरण किया था। अथवा शुद्धाचारी मुनियों को अकल्पनीय अन्नादि दिया था, जिससे सांसारिक सुख सम्पन्न होकर भी यह अल्पायु हुआ है । इसलिये यह स्पष्ट है कि यहाँ दीर्घ आयु की अपेक्षा अल्प आयु पाना ही विवक्षित है । किन्तु निगोद की आयु पाना विवक्षित नहीं है । इसी प्रकार यहाँ प्राणातिपात और मृषावाद भी सभी प्रकार के नहीं लिये गये हैं, किन्तु मुनि को आहार देने के लिये जो आधाकर्मी आहार आदि तैयार किया जाता है, उसमें जो प्राणातिपात होता हैं, वह प्राणातिपात यहाँ लिया गया है और उस आधाकर्मी आहार को देने के लिये जो मिथ्या भाषण किया जाता है, वह मिथ्याभाषण यहाँ ग्रहण है, किन्तु सब प्रकार के प्राणातिपात और सर्व प्रकार के मृषावाद का यहां ग्रहण नहीं है । इस बात का खुलासा ठाणांग सूत्र के पाठ की टीका में भी किया गया है । वह टीका इस प्रकार है-- "तथाहि प्राणातिपात्याधाकर्मादि करणतो मषोक्तं वा यथा अहो साधो ! स्वार्थसिद्धमिवं भक्तादि कल्पनीयं वो नाशंका कार्या" इत्यादि। अर्थात्-'प्राणियों के विनाश के द्वारा आधाकर्मी आहार तैयार करके और झूठ बोलकर साधु को देना, यथा-'हे साधो ! यह भोजन हमने अपने लिये बनाया है । यह आपके लिये कल्पनीय है । इसमें शङ्का नहीं करनी चाहिए।' इत्यादि झूठ बोलकर आधाकर्मी आहार साधु को देना, इस प्रकार जो झूठ बोला जाता है और आधाकर्मी आहार तैयार करने में जो प्राणातिपात होता है, उन्हीं प्राणातिपात और मृषावाद से शुभ अल्प आयु का बंध होना समझना चाहिये। किन्तु सब प्राणातिपात और सब मृषावाद से नहीं। ___ शंका-यदि कोई यह शंका करे कि यहां मूलपाठ में सामान्य रूप से प्राणातिपात और मृषावाद का फल, अल्प आयु का बन्ध होना कहा है, किन्तु आधाकर्मी आहार तैयार . करने में जो प्राणातिपात (जीव हिंसा) होता है और उसे साधु को देने के लिये जो मिथ्या भाषण किया जाता है, उन्हीं से अल्प आयु का बन्ध नहीं कहा है । तथा यह भी नहीं कहा है कि दीर्घ आय की अपेक्षा से अल्प आयु बंधती है । परन्तु क्षुल्लक-भव ग्रहण रूप अल्प आयु नहीं बंधती है । फिर यह किस प्रकार मान लिया जाय कि आधाकर्मी आहार तैयार For Personal & Private Use Only | Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४२ भगवती सूत्र-श. ५ उ. ६ अल्पायु और दीर्घायु का कारण करने में जो प्राणातिपात होता है और मिथ्याभाषण करके जो साधु को आधाकर्मी आहार दिया जाता है, उन्हीं से अल्प आयु का बंध होता है। दूसरे प्राणातिपात और मिथ्याभाषण से नहीं? समाधान-यद्यपि इस सूत्र में सामान्य रूप से प्राणातिपात और मिथ्याभाषण से अल्प आयु का बंध होना कहा है, तथापि इनका विशेषण अवश्य कहना होगा । अर्थात् आधाकर्मी आहार तैयार करने में जो प्राणातिपात होता है और झूठ बोलकर जो वह आधाकर्मी आहार साधु को दिया जाता है, उन्हीं से अल्प आयु का बंध होता है, यह कहना ही होगा। क्योंकि इस सूत्र के आगे के तीसरे सूत्र में कहा है कि 'प्राणातिपात और मिथ्या भाषण से अशुभ दीर्घ आयु का बंध होता है, एक ही कारण से परस्पर विरुद्ध दो कार्य उत्पन्न होना संभव नहीं है। क्योंकि ऐसा मानने से सब जगह अव्यवस्था हो जायगी। इसलिये यहां पर उन्हीं प्राणातिपात और मृषावाद का ग्रहण किया गया है-जो प्राणातिपात आधाकर्मी आहार आदि करने में होता है । तथा जो मृषावाद साधु को आधाकर्मी आहार आदि देने में लगता है। अल्प आयु भी यहां पर दीर्घ आयु की अपेक्षा से कही गई है। किन्तु निगोद का क्षुल्लक-भव ग्रहण रूप नहीं। इसके आगे के सूत्र में दीर्घ आयु बंध के कारणों का कथन किया गया है । जीव दया आदि धार्मिक कार्य करने वाले जीव की दीर्घ आयु होती है। क्योंकि यहाँ भी दीर्घ आय वाले पुरुष को देखकर लोग कहते हैं कि इस पुरुष ने भवान्तर में जीव-दयादि रूप धर्म कार्य किये हैं। इसीसे यह दीर्घ आयुवाला हुआ है । इससे यह निश्चित हुआ कि प्राणातिपात आदि से निवृत्त होना, देवगति का कारण होने से दीर्घ आयु का कारण है। कहा भी है-- अणुव्वय महव्वएहिं य बालतवो अकाम णिज्जराए य । देवाउयं निबंधइ सम्मविट्ठी य जो जीवो । अर्थात् जो सम्यग्ददृष्टि जीव होता हैं वह और अणुव्रतों द्वारा, महाव्रतों द्वारा, बालतप द्वारा और अकाम निर्जरा द्वारा जीव देव आयु बांधता है। देवगति में अपेक्षा कृत दीर्घ आयु ही होती है । दान की अपेक्षा इसी सूत्र में आगे कहेंगे। समणोवासयस्स णं भंते ! तहारूवं समणं वा माहणं वा फासुएणं असण-पाण-खाइम For Personal & Private Use Only Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ५ उ ६ अल्पायु और दीर्घायु का कारण साइमेणं पडिला भेमाणस्स कि कज्जइ ? गोयमा ! एगंतसो णिज्जरा कज्जइ । अर्थ - हे भगवन् ! तथा रूप के श्रमण माहण को प्रासुक और एषणीय अशन, पान, खादिम और स्वादिम प्रतिलाभने से श्रमणोपासक को क्या होता है ? हे गौतम ! एकान्त निर्जरा होती है । महाव्रत की तरह जो निर्जरा का कारण होता है, वह विशिष्ट दीर्घ आयु का भी कारण होता है । इसमें किसी प्रकार का विरोध नहीं है । ३ प्रश्न - कह णं भंते ! जीवा असुभदीहाउयत्ताए कम्मं पकरेंति ? ८४३ ३ उत्तर - गोयमा ! पाणे अइवा एत्ता, मुसं वइत्ता, तहारूवं समणं वा माहणं वा हीलित्ता, पिंदित्ता, खिंसित्ता, गरहित्ता, अवमण्णित्ता अण्णयरेणं अमणुण्णेणं, अपीड़कारएणं असण-पाणखाइम साइमेणं पडिला भेता एवं खलु जीवा असुभदीहाउयत्ताए कम्मं करेंति । ४ प्रश्न - कह णं भंते ! जीवा सुभदीहाउयत्ताए कम्मं पकरेंति ? ४ उत्तर - गोयमा ! णो पाणे अइवाइत्ता, णो मुसं वत्ता, तहारूवं समणं वा माहणं वा वंदित्ता णमंसित्ता, जाव - पज्जुवा - सित्ता, अण्णयरेणं मणुण्णेणं, पीइकारएणं असण-पाण- खाइम- साइमेणं पडिला भेत्ता - एवं खलु जीवा सुभदीहाउयत्ताए कम्मं पकरेंति । कठिन शब्दार्थ - अवमण्णित्ता - अपमान करके, अण्णयरेणं - ऐसे अन्य, पीइकारएवं प्रीतिकारक | भावार्थ - ३ प्रश्न - हे भगवन् ! जीव अशुभ दीर्घायु फल वाले कर्म किन For Personal & Private Use Only Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४४ भगवती सूत्र-श. ५ उ. ६ अल्पायु और दीर्घायु का कारण । कारणों से बांधते हैं ? ३ उत्तर-हे गौतम ! तीन कारणों से जीव, अशुभ दीर्घायु फल वाले कर्म बांधते हैं । यथा-प्राणियों की हिंसा करके, झूठ बोल कर और तथारूप श्रमण माहण की जाति प्रकाश द्वारा हीलना, मन द्वारा निन्दा, खिसना (लोगों के समक्ष निन्दा-बुराई) और गर्दा (उनके समक्ष निन्दा) द्वारा उनका अपमान करके, अमनोज्ञ और अप्रीतिकर (खराब) अशन, पान, खादिम और स्वादिम बहराने से जीव, अशुभ दीर्घायु फल वाले कर्म बांधते हैं। ४ प्रश्न-हे भगवन् ! जीव शुभ दीर्घायु फल वाले कर्म किन कारणों से बांधते हैं ? ४ उत्तर-हे गौतम ! तीन कारणों से जीव, शुभ दीर्घ आय फल वाले कर्म बांधते हैं । यथा-प्राणियों की हिंसा नहीं करने से, झूठ नहीं बोलने से, तथारूप श्रमण माहण को वन्दना नमस्कार याक्त पर्युपासना करके किसी प्रकार के मनोज और प्रीतिकारक अशन, पान, खादिम और स्वादिम बहराने से । इन तीन कारणों से जीव, शुभ दीर्घ आयु फल वाले कर्म बांधते हैं। विवेचन-इस सूत्र में अशुभ दीर्घ आयु के कारणों का कथन किया गया है । श्रमणादि को हीलना आदि पूर्वक देना, अशुभ दीर्घ आयु बंध का कारण है । इस सूत्र में अशनादि के साथ 'प्रासुक' या 'अप्रासुक' विशेषण नहीं लगाया गया है। क्योंकि हीलना आदि करके प्रासुक आहारादि देना भी कोई विशेष फल को पैदा करने वाला नहीं होता। इसलिये इस सूत्र में मत्सरता पूर्वक हौलना आदि को ही अशुभ दीर्घ आयु का प्रधान कारण बतलाया है। ___किसी किसी प्रति में 'अफासुएणं अणेसगिज्जेणं'-यह विशेषण दिये हैं । इसका तात्पर्य यह है कि प्रासुक दान भी हीलना आदि से युक्त हो, तो अशुभ दीर्घ आयु का कारण होता है, तब जो दान अप्रासुक हो और हीलनादि से युक्त हो, वह अशुभ दीर्घ आयु का कारण हो-इस में कहना ही क्या है, अर्थात् वह तो अवश्य ही अशुभ दीर्घ आयु का कारण होता है। यहां भी प्राणातिपात और मृषावाद को दान का विशेषण बना कर व्याख्या करना भी घटित होता है, क्योंकि अवहीलना एवं अवज्ञा करके दान देने में प्राणातिपात आदि क्रियाएँ देखी जाती हैं । प्राणातिपात आदि क्रियाएँ नरक गति का कारण होने से For Personal & Private Use Only Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ५ उ. ६ भाण्ड आदि से लगने वाली क्रिया ८४५ अशुभ दीर्घायु हो सकती है । कहा है कि "मिच्छदिट्ठी महारंभपरिग्गहो तिव्वलोभनिस्सीलो। निरयाउयं निबंधइ, पावमई रोद्दपरिणामो ॥" अर्थ-पापमति (पाप में बुद्धि रखने वाला) रौद्र परिणाम वाला, महारम्भ महापरिग्रह वाला, तीव्र लोभ वाला, शीलरहित (दुश्शील) और मिथ्यादृष्टि जीव, नरक का आयुष्य बांधता है । नरक गति का आयुष्य विवक्षाकृत अशुभ दीर्घायु ही होता है । ___इसके आगे के सूत्र में शुभ दीर्घायु बन्ध के कारणों का कथन किया गया है । इस सूत्र में भी प्रासुक या अप्रासुक' कोई भी विशेषण दान के साथ नहीं लगाये गये हैं । क्योंकि यह सूत्र इसके पूर्व के सूत्र से विपरीत है । यह सूत्र और पूर्व सूत्र ये दोनों सूत्र निविशेषण रूप से प्रवृत्त हुए हैं । इससे यह नहीं समझना चाहिए कि प्रासुक दान के फल में और अप्रासुक दान के फल में कुछ भी विशेषता नहीं है। क्योंकि पहले के दो सूत्रों में उस फल विशेष को प्रतिपादित किया गया है । यहाँ यह बतलाया गया है कि प्रासुक और एषणीय दान से देवलोक की प्राप्ति होती है और उससे विपरीत दूसरे दान से अर्थात् अप्रासुक और अनेषणीय दान से अशुभ दीर्घायु अर्थात् नरक गति रूप फल होता है-ऐसा जानना चाहिए। किसी किसी प्रति में तो 'प्रासुक' आदि विशेषण दिय हुए ही मिलते हैं। यहाँ चार सूत्र कहे गये हैं, उनमें से पहला सूत्र अल्पायु विषयक है । दूसरा दीर्घायु . विषयक है । तीसरा अशुभ दीर्घायु विषयक है और चौथा शुभ दीर्घायु विषयक है । भाण्ड आदि से लगने वाली क्रिया ५ प्रश्न-गाहावइस्स णं भंते ! भंडं विक्किणमाणस्स केइ भंडं अवहरेज्जा, तस्स णं भंते ! तं भंडं गवेसमाणस्स किं आरंभिया किरिया कजइ, परिग्गहिया, मायावत्तिया, अपच्चक्खाणकिरिया, मिच्छादंसणवत्तिया ? ५ उत्तर-गोयमा ! आरंभिया किरिया कजइ, परिग्गहिया, For Personal & Private Use Only Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४६ भगवती सूत्र -श. ५ उ. ६ गृहपति को भाण्ड आदि से लगने वाली क्रिया मायावत्तिया, अपञ्चक्खाणकिरिया मिच्छादसणकिरिया सिय कजइ, सिय णो कजइ; अह से भंडे अभिसमण्णागए भवइ, तओ से य पच्छा सव्वाओ ताओ पयणुईभवंति । ६ प्रश्न-गाहावइस्स णं भंते ! भंडं विक्किणमाणस्स कइए भंडे साइज्जेजा, भंडे य से अणुवणीए सिया, गाहावइस्स णं भंते ! ताओ भंडाओ किं आरंभिया किरिया कजइ, जाव-मिच्छादसणकिरिया कजइ, कइयस्स वा ताओ भंडाओ किं आरंभिया किरिया कजइ, जाव-मिच्छादसणकिरिया कजइ ? ६ उत्तर-गोयमा ! गाहावइस्स ताओ भंडाओ आरंभिया किरिया कजइ, जाव-अपच्चक्खाण-मिच्छादंसणवत्तिया किरिया सिय कन्जइ, सिय णो कजइ; कइयस्स णं ताओ सव्वाओ पयणुईभवंति। कठिन शब्दार्थ-विकिण्णमाणस्स-विक्रय करते हुए, अवहरेज्जा-चुरा कर ले जाय, आरंभियाकिरिया-प्राणी हिंसा से लगने वाली क्रिया, गवेसमाणस्स-ढूंढते हुए, परिग्गहियापरिग्रह-धन धान्यादि पौद्गलिक वस्तु पर ममत्व रखने से लगने वाली, मायावत्तियाकषाय के सद्भाव में लगने वाली, अपच्चक्खाणकिरिया-अप्रत्याख्यान-अविरति से लगने वाली, मिच्छादसणवत्तिया-मिथ्यादर्शन सम्बन्धी, सिय कज्जह-कदाचित् करते हैं, पयणुईप्रतनु (अल्प), अणुवणीए-अनुपनीत (नहीं ले गया) साइज्जेज्जा-सत्यंकार कर स्वीकार अर्थात् साई (बयाना) देकर, लेन देन का सौदा पक्का करे, कइयस्स-क्रय करने वालेखरीदने वाले । भावार्थ-५ प्रश्न-हे भगवन् ! भाण्ड अर्थात् बरतन आदि किराणा की घस्तुएं बेचते हुए किसी गृहस्थ का वह किराणा कोई चुरा ले जाय । फिर वह For Personal & Private Use Only Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ५ उ. ६ गृहपति को भाण्ड आदि से लगने वाली क्रिया ८४७ गृहस्थ उस किराणे की खोज करे, तो हे भगवन् ! खोज करते हुए उस गृहस्थ को क्या आरम्भिकी क्रिया लगती है, पारिग्रहिकी क्रिया लगती है, मायाप्रत्ययिकी क्रिया लगती है, अप्रत्याख्यानिकी क्रिया लगती है, या मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी क्रिया लगती है ? ५ उत्तर-हे गौतम ! आरम्भिकी, पारिग्रहिकी, मायाप्रत्ययिकी और अप्रत्याख्यानिकी क्रिया लगती है, किन्तु मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी क्रिया कदाचित् लगती है और कदाचित् नहीं लगती। भाण्ड (किराणा) की खोज करते हुए यदि चुराई गई वस्तु वापिस मिल जाय, तो वे सब क्रियाएँ प्रतनु (अल्प-हल्की) हो जाती है। ६ प्रश्न-हे भगवन् ! कोई गृहस्थ अपना भाण्ड-वस्तु बेच रहा है, खरीरदार ने वह वस्तु खरीद ली और अपने सौदे को पक्का करने के लिए उसने साई (बयाना) दे दिया, परन्तु वह उस माल को ले नहीं गया अर्थात् उसी विक्रेता के पास पड़ा हुआ है, ऐसी स्थिति में हे भगवन् ! उस विक्रेता को आरंभिकी यावत् मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी क्रियाओं में से कौनसी क्रियाएँ लगती हैं ? ६ उत्तर-हे गौतम ! ऐसी स्थिति में उस विक्रेता गृहपति को आरंभिकी पारिग्रहिकी, मायाप्रत्ययिकी और अप्रत्याख्यानिकी, ये चार क्रियाएं लगती हैं और मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी क्रिया कदाचित् लगती है और कदाचित् नहीं लगती है । खरीददार को ये सब क्रियाएँ प्रतनु होती हैं। .७ प्रश्न-गाहावइस्स णं भंते ! भंडं विकिणमाणस्स, जाव-भंडे से उवणीए सिया, कइयस्स णं भंते ! ताओ भंडाओ किं आरंभिया किरिया कजइ, जाव-मिच्छादसणवत्तिया किरिया कजइ; गाहावइस्स वा ताओ भंडाओ किं आरंभिया किरिया कजइ; जाव-मिच्छादसण- . वत्तिया किरिया कजइ ? For Personal & Private Use Only Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ५ उ. ६ गृहपति को भाण्ड आदि से लगने वाली क्रिया ७ उत्तर - गोयमा ! कइयस्स ताओ भंडाओ हेट्ठिल्लाओ चत्तारिकिरियाओ कजति मिच्छादंसणवत्तिया किरिया भयणाए; गाहावइस्स णं ताओ सव्वाओ पयणु भवंति । ८४८ ८ प्रश्न - गाहावइस्स णं भंते ! भंडे जाव-धणे य से अणुवणीए सिया ? ८ उत्तर - एयं पि जहा भंडे उवणीए तहा णेयव्वं चउत्थो आलावगो, धणे य से उवणीए सिया जहा - पढमो आलावगो, भंडे य से अणुवणीए सिया तहा णेयव्वो, पढम-चउत्थाणं एको गमो विईय-तईयाणं एको गमो । कठिन शब्दार्थ - उवणीए - उपनीत - ले गया, एक्को गमो - एक ही प्रकार से । भावार्थ - ७ प्रश्न - हे भगवन् ! विक्रेता गृहपति के यहाँ से खरीददार वह भाण्ड अपने यहाँ ले आया । ऐसी स्थिति में हे भगवन् ! उस खरीददार को आरम्भिक यावत् मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी क्रियाओं में से कितनी क्रियाएँ लगती हैं, और उस विक्रेता गृहपति को कितनी क्रियाएँ लगती हैं ? ७ उत्तर - हे गौतम ! उपरोक्त स्थिति में खरीददार को आरम्भिकी, पारिग्रहिकी, मायाप्रत्ययिकी और अप्रत्याख्यानिकी - ये चारों क्रियाएँ भारी प्रमाण में लगती हैं और मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी क्रिया को भजना है अर्थात् यदि खरीददार मिथ्यादृष्टि हो, तो मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी क्रिया लगती है और यदि वह मिथ्यादृष्टि न हो, तो नहीं लगती है। विक्रेता गृहपति को मिथ्यादर्शन क्रिया की भजना के साथ ये सब क्रियाएँ अल्प होती हैं । ८ प्रश्न - हे भगवन् ! भाण्ड के विक्रेता गृहपति के पास से खरीददार ने वह भाण्ड खरीद लिया, परन्तु जबतक उस माल का मूल्य रूप धन उस For Personal & Private Use Only Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ५ उ. ६ गृहपति को भाण्ड आदि से लगने वाली क्रिया ८४९ विक्रेता को मिला नहीं, तब तक हे भगवन् ! उस खरीददार को उस धन से कितनी क्रियाएँ लगती हैं ? और विक्रेता को कितनी क्रियाएँ लगती हैं ? ६ उत्तर - हे गौतम! उपरोक्त स्थिति में यह आलापक उपनीत भाण्ड के समान समझना चाहिए। यदि धन उपनीत हो, तो जिस प्रकार अनुपनीत भाण्ड के विषय में पहला आलापक कहा है, उस प्रकार समझना चाहिए। पहला और चौथा आलापक समान है तथा दूसरा और तीसरा आलापक समान है । विवेचन - पहले प्रकरण में कर्मबन्ध की क्रिया के विषय में कहा गया है अब अन्य क्रियाओं के विषय में कहा जाता है । किसी किराने के व्यापारी का यदि कोई पुरुष, किराणा चुरा ले जाय, तो उस far की खोज करते हुए उसको आरम्भिकी आदि चार क्रियाएँ लगती हैं, मिथ्यादर्शनप्रत्यfant for कदाचित् लगती है और कदाचित् नहीं लगती है अर्थात् यदि वह व्यापारी मिथ्यादृष्टि है. तो उसको मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी क्रिया लगती है और यदि वह मिथ्यादृष्टि नहीं है, किन्तु सम्यग्दृष्टि है तो उसे मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी क्रिया नहीं लगती है । खोज करते हुए उस व्यापारी को वह किराणा मिल जाय, तो किराणा मिल जाने के बाद वे सब क्रियाएं अल्पहल्की हो जाती हैं, क्योंकि खोज करते समय वह व्यापारी विशेष प्रयत्न वाला होता है, इसलिए वे सब क्रियाएँ होती हैं और जब वह चोरी गया हुआ किराणा मिल जाता है, तब उसकी खोज करने रूप प्रयत्न बन्द हो जाता है, इसलिए वे सब सम्भवित क्रियाएँ हल्की हो जाती हैं । खरीददार ने उस विक्रेता व्यापारी से किराणा खरीद लिया और अपने सौदे को पक्का करने के लिए उसने साई ( बयाना ) भी दे दिया, किन्तु उसने वह किराणा दुकान से उठाया नहीं, इस स्थिति में खरीददार को उस किराणे सम्बन्धी क्रियाएँ हल्के रूप में लगती हैं और उस विक्रेता के यहां अभी किराणा पड़ा हुआ है, वह उसका होने से उसे वे क्रियाएँ भारी रूप में होती हैं । जब किराणा खरीददार को सौंप दिया जाता है और वह उसे वहाँ से उठा लेता है एवं अपने घर ले आता है, तब उस स्थिति में उस किराणा सम्बन्धी वे सब क्रियाएँ उस खरीददार को मारी रूप में लगती हैं और उस विक्रेता को वे सब सम्भवित क्रियाएँ For Personal & Private Use Only Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८५० भगवती सूत्र - श. ५ उ ६ गृहपति को भाण्ड आदि से लगने वाली क्रिया प्रतनु रूप में लगती है । यहां पर 'उपनीत' ( खरीददार को सौंपा गया और खरीददार द्वारा अपने यहां ले आया हुआ ) भाण्ड - किराणा, और अनुपनीत' ( खरीददार को नहीं सौंपा गया एवं खरीददार द्वारा नहीं उठाया गया, किन्तु विक्रेता के पास ही पड़ा हुआ ) यह दो प्रकार का भाण्ड होने से ये दो सूत्र कहे गये हैं अर्थात् 'उपनीत' और 'अनुपनीत' विषयक दो सूत्र हैं । इनमें से पहला सूत्र 'अनुपनीत' विषयक है और दूसरा सूत्र 'उपनीत' विषयक है । इसी प्रकार विषय में भी दो सूत्र कहने चाहिए। वे इस प्रकार हैं धन हे भगवन् ! किराणा बेचने वाले व्यापारी के पास से खरीददार ने किराणा खरीद लिया, किन्तु उसका मूल्य रूप धन विक्रेता को नहीं दिया गया। ऐसी स्थिति में उस खरीददार को उस धन सम्बन्धी आरम्भिकी आदि कितनी क्रियाएँ लगती है और विक्रेता को कितनी क्रियाएँ लगती हैं ? हे गौतम! उस खरीददार को उस धन सम्बन्धी आरम्भिकी आदि चार क्रियाएँ भारी प्रमाण में लगती हैं और मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी क्रिया कदाचित् लगती है और कदाचित् नहीं लगती है । विक्रेता को से सब सम्भवित क्रियाएँ प्रतनु परिमाण में लगती हैं । क्योंकि जबतक धन नहीं दिया गया है, तब तक वह धन खरीददार का है एवं उसी के पास हैं, इसलिए उसे आरम्भिकी आदि क्रियाएँ भारी परिमाण में लगती हैं और वह धन विक्रेता का न होने से उसे वे क्रियाएँ हल्के परिमाण में लगती हैं। इस प्रकार यह तीसरा सूत्र पूर्वोक्त दूसरे सूत्र के समान समझना चाहिए। चौथा सूत्र इस प्रकार कहना चाहिए हे भगवत् ! किराणा बेचने वाले किसी व्यापारी से किसी खरीददार ने किराणा खरीद लिया और उसका मूल्य रूप धन विक्रेता को दे दिया। ऐसी स्थिति में उस विक्रेता को उस धन सम्बन्धी आरम्भिकी आदि कितनी क्रियाएँ लगती हैं ? और खरीददार को कितनी क्रियाएँ लगती हैं ? हे गौतम ! उपरोक्त स्थिति में विक्रेता को आरम्भिकी आदि चार क्रियाएँ भारी परिमाण में लगती है और मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी क्रिया कदाचित् लगती है और कदाचित् नहीं लगती है । खरीददार को वे सत्र सम्भवित क्रियाएँ प्रतनु परिमाण में लगती हैं। क्योंकि ये सब क्रियाएँ धन हेतुक हैं। इसलिए मूल्य रूप धन चुका देने पर वह धन विक्रेता का है, इसलिए उसको वे क्रियाएँ भारी परिमाण में लगती हैं। मूल्य रूप धन चुका देने पर वह धन उस खरीददार का नहीं है, इसलिए उसको वे सब संभवित क्रियाएँ हल्के परिमाण For Personal & Private Use Only Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में लगती हैं । भगवती सूत्र - श. ५ उ. ६ अग्निकाय का अल्पकर्म महाकर्म इस प्रकार यह चौथा सूत्र पहले सूत्र के समान है । अग्निकाय का अल्पकर्म महाकर्म ९ प्रश्न - अगणिकाए णं भंते ! अहुणोज्जलिए समाणे महाकम्मतराए चेव, महाकिरिय- महासव-महावेयणतराए चेव भवहः अहे णं समए समए वोक्कसिज्जमाणे वोक्कसिज्जमाणे चरिमकालसमयंसि इंगाल भूए, मुम्मुरब्भूए, छारियन्भूए, तओ पच्छा अप्पकम्मतराए चेव अप्प किरिया - SSसव - अप्पवेयणतराए चेव भवइ ? ९ उत्तर - हंता, गोयमा ! अगणिकाए णं अहुणोज्ज लिए समाणे तं चेव । जाता है। कठिन शब्दार्थ - अहुणोज्ज लिए अभी जलाया हुआ, वौक्क सिज्जमाणे-कम होते हुए । भावार्थ - ९ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या तत्काल प्रज्वलित हुई अग्निकाय महाकर्मयुक्त, महाक्रियायुक्त, महाआश्रव युक्त और महावेदना युक्त होती है ? और इसके बाद समय समय कम होती हुई - बुझती हुई, अन्तिम क्षण में अंगार रूप, मुर्मुर रूप और भस्म रूप हो जाती है ? इसके बाद क्या वह अग्निकाय अल्प कर्म युक्त, अल्प क्रियायुक्त, अल्प आश्रव युक्त और अल्प वेदना युक्त होती है ? ९ उत्तर - हाँ, गौतम ! पूर्वोक्त प्रकार से वह अग्निकाय, महाकर्म युक्त यावत् अल्प वेदना युक्त होती है । विवेचन-क्रिया का प्रकरण होने से अग्निकाय सम्बन्धी क्रिया का कथन किया ८५१ प्रज्वलित होती हुई अग्नि, बन्ध की अपेक्षा ज्ञानावरणीय आदि महाकमं बंध का For Personal & Private Use Only Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ५ उ ६ धनुर्धर की क्रिया हेतु होने से 'महाकर्मतर है। अग्नि का जलना एक प्रकार की क्रिया है । इसलिये वह 'महाक्रियातर' है । वह नवीन कर्मों के ग्रहण करने में कारणभूत है। इसलिये वह 'महाआश्रवतर' है । इसके पश्चात् होने वाली तथा उस कर्म से उत्पन्न होने वाली पीड़ा (वेदना) के कारण अथवा परस्पर शरीर संघात से उत्पन्न होने वाली पीड़ा के कारण वह 'महावेदनातर' है । प्रज्वलित हुई अग्नि बुझने लगती हैं, तब क्रमश: अंगार आदि अवस्था को प्राप्त होती हुई वह अल्पकर्म, अल्यक्रिया, अल्प आश्रव और अल्प वेदना वाली होती है । बुझते बुझते जब वह सर्वथा बुझकर भस्म अवस्था को प्राप्त हों जाती है, तब वह कर्म आदि रहित हो जाती है । मूलपाठ में 'अल्प' शब्द आया है, सो अग्नि की अंगारादि अवस्था की अपेक्षा 'अल्प' का अर्थ 'स्तोक' अर्थात् थोड़ा करना चाहिये और भस्म (राख) अवस्था की अपेक्षा 'अल्प' का अर्थ 'अभाव' करना चाहिये । धनुर्धर की क्रिया १० प्रश्न - पुरिसे णं भंते ! धणुं परामुसह, परामुसित्ता उसुं परामुसह, परामुसित्ता ठाणं ठाइ, ठिच्चा आययकण्णाययं उसुं करेह; आययकण्णाययं उसे करेत्ता उड्ढं वेहासं उसे उव्विहह, तरणं से उसुं उड्ढे वेहासं उव्विहिए समाणे जाई तत्थ पाणाई, भूयाई, जीवाई, सत्ताइं अभिहणइ, वत्तेइ, लेसेइ, संघाएह, संघट्टेह, परितावे, किलामेह, ठाणाओ ठाणं संकामेह, जीवियाओ ववरोवेह, तए णं भंते ! से पुरिसे कह किरिए ? १० उत्तर - गोयमा ! जावं च णं से पुरिसे धणुं परामुसह, परामुसित्ता जाव - उब्विहह, तावं च णं पुरिसे काइयाए जाव ८५२ For Personal & Private Use Only Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ५ उ. ६ धनुर्धर की क्रिया ८५३ पाणाइवायकिरियाए पंचहिं किरियाहिं पुढे, जेसि पि य णं जीवाणं सरीरेहिं धणुं णिवत्तिए ते वि य णं जीवा काइयाए, जाव-पंचहिं किरियाहिं पुढे, एवं धणु पुढे पंचहि किरियाहिं, जीवा पंचहिं, हारू पंचहिं, उसू पंचहिं, सरे, पतणे, फले, हारू पंचहि । ११ प्रश्न-अहे णं से उसू अप्पणो गुरुयत्ताए, भारियत्ताए, गुरुसंभारियत्ताए, अहे वीससाए पच्चोवयमाणे जाइं तत्थ पाणाइं जावजीवियाओ ववरोवेइ तावं च णं से पुरिसे कइकिरिए ? ११ उत्तर-गोयमा ! जावं च णं से उसू अप्पणो गुरुयत्ताए, • जाव-चवरोवेइ तावं च णं से पुरिसे काइयाए, जाव-चउहि किरि याहिं पुढे, जेसि पि य णं जीवाणं सरीरेहिं धणू णिव्वत्तिए ते वि जीवा चउहि किरियाहिं, धणु पुढे चउहि, जीवा चउहि, हारू चाहिं, उसू पंचहिं, सरे, पत्तणे, फले, हारू पंचहिं, जे वि य से जीवा अहे पच्चोवयमाणस्स उवग्गहे वटुंति ते वि य णं जीवा काइयाए, जाव‘पंचहि किरियाहिं पुट्ठा। कठिन शब्दार्थ-परामुसह-स्पर्श करता है, उसु-बाण, आययकण्णाययं-कान तक खिचा हुआ, वेहासं-आकाश में, उग्विहइ-फेंके, वत्तेइ-संकुचित करे, लेसेइश्लिष्ट करे, संघाएइ-परस्पर संहत करे, संघट्टेइ-स्पर्श करे, ठाणाओ ठाणं संकमइएक स्थान से हटाकर दूसरे स्थान ले जाय, जीवा-डोरी, हारू-स्नायु, वीससाएस्वाभाविक, पच्चोवयमाणे-नीचे गिरता हुआ। भावार्थ-१९ प्रश्न-हे भगवन् ! कोई पुरुष, धनुष को ग्रहण करे, धनुष को ग्रहण करके बाण को ग्रहण करे, बाण को ग्रहण करके धनुष से बाण फेंकने For Personal & Private Use Only Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र श. ५ उ. ६ धनुर्धर की क्रिया वाले आसन से बैठे, बैठ कर फेंके जाने वाले बाण को कान तक खींचे, खींच कर ऊंचे आकाश में बाण फेंके। ऊंचे आकाश में फेंका हुआ वह बाण, वहाँ जिन प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों का अभिहनन करे, उनके शरीर को संकुचित करे, उन्हें श्लिष्ट करें, उन्हें परस्पर संहत करे, उनका स्पर्श करे, उनको चारों तरफ .से पीड़ा पहुंचावे, उन्हें क्लान्त करे अर्थात् मारणान्तिक समुद्घात तक ले जावे, उन्हें एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जावे और उन्हें जीवन से रहित कर देवे, तो हे भगवन् ! उस पुरुष को कितनी क्रियाएँ लगती हैं ? १० उत्तर - हे गौतम! यावत् वह पुरुष धनुष को ग्रहण करता है यावत् बाण को फेंकता है तावत् वह पुरुष कायिकी, आधिकरणिकी, प्राद्वेषिकी, पारितापनिकी और प्राणातिपातिकी - इन पांच क्रियाओं से स्पृष्ट होता है । जिन जीवों के शरीर से वह धनुष बना है, वे जीव भी पांच क्रियाओं से स्पृष्ट होते हैं । इस तरह धनुःपृष्ठ (धनुष की पीठ), पांच क्रिया से स्पृष्ट होती है, जीवा ( डोरी) पांच क्रिया से स्पृष्ट होती है, हारू ( स्नायु) पांच क्रिया से स्पृष्ट होती है, बाण पांच क्रिया से स्पष्ट होता है, शर, पत्र, फल और पहारू पांच क्रिया से स्पृष्ट होता है । ८५४ ११ प्रश्न - हे भगवन् ! जब वह बाण, अपनी गुरुता, भारीपन और गुरुतासंभारता द्वारा स्वाभाविक रूप से नीचे गिरता है, तब ऊपर से नीचे गिरता हुआ वह बाण, बीच मार्ग में प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों को यावत् जीवन रहित करता है, तब उस बाण फेंकने वाले पुरुष को कितनी क्रियाएं लगती हैं ? ११ उत्तर - हे गौतम ! जब वह बाण, अपनी गुरुता आदि द्वारा नीचे गिरता हुआ यावत् जीवों को जीवन रहित करता है, तब वह पुरुष, कायिकी आदि चार क्रियाओं से स्पृष्ट होता है और जिन जीवों के शरीर से धनुष बना है, वे जीव भी चार क्रिया से स्पृष्ट होते हैं । धनुःपृष्ठ चार क्रिया से, डोरी चार क्रिया से, हारू चार क्रिया से, बाण पांच क्रिया से, शर, पत्र, फल और हारू पांच क्रियाओं से स्पृष्ट होते हैं। नीचे पड़ते हुए बाण के अवग्रह में जो जीव आते For Personal & Private Use Only Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ५ उ ६ धनुर्धर की क्रिया ८५५ है वे जीव भी कायिकी आदि पांच क्रियाओं से स्पष्ट होते हैं। विवेचन-क्रिया का प्रकरण चल रहा है, अतः किया के सम्बन्ध में ही कहा जाता है एक पुरुष, धनुष पर बाण चढ़ाकर तथा तद्योग्य आसन लगाकर कर्ण पर्यन्त वाण खींचकर छोड़ता है । छुटा हुआ वह बाण, आकाशस्थ प्राण. भूत, जीव, सत्त्वों का हनन करता है, उनको संकुचित करता है, उनको अधिक या कम परिमाण में स्पर्श करता है, संघटित करता है, परितापित और क्लान्त करता है एवं एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुंचा देता है और प्राण रहित भी कर देता है। ऐसी स्थिति में उस पुरुष को धनुष उठाया और छोड़ा वहाँ तक प्राणातिपात आदि पांचों क्रियाएं लगती है । जिन जीवों के शरीर से वह धनुष बना है, उन जीवों को भी पांच क्रियाएँ लगती है । इसी प्रकार धनुपृष्ठ, डोरी, हारू, बाण और शर, पत्र, फल, हारू-ये सब भी पांच क्रियाओं से स्पष्ट होते हैं ।। - शंका-बाण फेंकनेवाले पुरुष को पांच क्रियाएँ कहना ठीक है, क्योंकि उसके शरीर आदि का व्यापार दिखाई देता है । परन्तु धनुष के जीवों के पांच क्रियाएँ कैसे हो सकती हैं ? उनका तो शरीर भी उस समय अचेतन अर्थात् जड़ है । यदि जड़ शरीर के कारण भी क्रिया का होना तथा उममे कर्म बन्ध का होना माना जायेगा, तब तो सिद्ध जीवों को भी कर्म बन्ध का प्रसंग आवेगा। क्योंकि सिद्ध जीवों के मृतक शरीर भी लोक में जीव हिंसा आदि के निमित्त हो सकते हैं । इस सम्बन्ध में एक बात और भी विचारने योग्य है, वह यह है कि-चूंकि धनुष, कायिकी आदि क्रियाओं में हेतुभूत है, इसलिये उसके जीवों को पाप कर्म का बन्ध होता है । तो इस प्रकार जीव रक्षा के साधनभूत साधु के पात्र आदि धर्मोपकरण के जीवों के भी पुण्य कर्म का बन्ध क्यों न माना जाय ? . समाधान-अविरति के परिणाम से बन्ध होता है । अविरति के परिणाम जिस प्रकार पुरुष के होते हैं, वैसे ही उन जीवों के भी हैं, जिनसे कि धनुष आदि बने हैं । सिद्धों में अविरति परिणाम नहीं है । इसलिये उनके कर्मबन्ध नहीं होता। साधु के धर्मोपकरण पात्र आदि के जीवों के पुण्य का बन्ध नहीं होता, क्योंकि पुण्य बन्ध में हेतुभूत विवेक आदि का उन में अभाव होता है । इस प्रकार पुण्य कर्म बन्ध के हेतुरूप विवेक आदि शुभ अध्यवसाय, पात्रादि के जीवों के न होने उन्हें पुण्य का बन्ध नहीं होता । किन्तु धनुष के जीवों के अशुभ कर्म के बन्ध के हेतु रूप अविरति परिणाम के होने से उन जीवों को कायिकी आदि पांच क्रियाएँ लगती हैं एवं तन्निमित्तक अशुभ कर्म का बन्ध होता है । दूसरी बात यह है कि सर्वज्ञ भगवान् के वचन प्रमाण होते हैं । इसलिये For Personal & Private Use Only Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ५ उ. ६ अन्यतीथिक का मिथ्यावाद उन्होंने अपने ज्ञान में जैसा देखा वैसा कहा है। अतः उस पर उसी प्रकार श्रद्धा करनी चाहिये। अपने भारीपन आदि के कारण जब बाण नीचे गिरता है, तब जिन जीवों के शरीर से वह बाण बना है, उन जीवों को पांच क्रियाएँ लगती है। क्योंकि बाणादि रूप जीवों के शरीर तो साक्षात् मुख्य रूप से जीव हिंसा में प्रवृत्त होते हैं और धनुष को डोरी, हारू आदि साक्षात् वध क्रिया में प्रवृत्त नहीं होते हैं, अपितु वे उसमें निमित्त मात्र होते हैं । इसलिये उन्हें चार क्रियाएँ लगती है। अन्यतीर्थिक का मिथ्यावाद १२ प्रश्न-अण्णउत्थिया णं भंते ! एवं आइक्खंति, जाव-परूवेंति से जहा णामए जुवई जुवाणे हत्थेणं हत्थे गेण्हेजा, चक्कस्स वा णाभी अरगाउत्ता-सिया एवामेव जाव-चत्तारि पंच जोयणसयाई बहुसमाइण्णे मणुयलोए मणुस्सेहि-से कहमेयं भंते ! एवं ? ___ १२ उत्तर-गोयमा ! जं णं ते अण्णउत्थिया, जाव-मणुस्सेहिंतो-जे ते एवं आहंसु, मिच्छा । अहं पुण गोयमा ! एवं आइ. क्खामि जाव-एवामेव चत्तारि, पंच जोयणसयाई बहुसमाइण्णे णिरयलोए णेरइएहिं । १३ प्रश्न-णेरइयाणं भंते ! किं एगत्तं पभू विउवित्तए, पुहुत्तं पभू विउवित्तए ? १३ उत्तर-जहा जीवाभिगमे आलावगो तहा णेयव्वो, जाव For Personal & Private Use Only Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ५ उ. ६ अन्यतीर्थिक का मिथ्यावाद ८५७ दुरहियासे। कठिन शब्दार्थ-बहुसमाइण्णे-बहुत भरा हुआ, एगत्तं-एकत्व- एकपना, पुहुत्तं-पृथक्त्व-बहुतपना ।। भावार्थ--१२ प्रश्न-हे भगवन् ! अन्यतीथिक इस प्रकार कहते हैं यावत् प्ररूपणा करते हैं कि युवती युवक के दृष्टान्त से अथवा आरायुक्त चक्र की नाभि के दृष्टान्त से यावत् चार सौ, पांच सौ योजन तक यह मनुष्य लोक, मनुष्यों से ठसाठस भरा हुआ है, हे भगवन् ! यह किस तरह है ? १२ उत्तर-हे गौतम ! अन्यतीथियों का उपरोक्त कथन मिथ्या है। हे गौतम ! मैं इस प्रकार कहता हूँ यावत् प्ररूपणा करता हूं-कि चार सौ, पांच : सौ योजन तक नरक लोक, नरयिक जीवों से ठसाठस भरा हुआ है। १३ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या नैरयिक जीव, एकत्व ( एक रूप) को विकुर्वणा करने में समर्थ हैं ? अथवा बहुत्व (बहुत रूपों) की विकुर्वणा करने में समर्थ हैं ? १३ उत्तर-इस विषय में जिस प्रकार जीवाभिगम सूत्र में आलापक कहा है, उसी तरह 'दुरहियास' शब्द तक आलापक कहना चाहिये । विवेचन–सम्यक् प्ररूपणा का प्रकरण होने से मिथ्या प्ररूपणा के खण्डन पूर्वक सम्यक् प्ररूपणा बतलाई जाती है। अन्यतीथियों का उपरोक्त कथन विभंगज्ञान पूर्वक होने से असत्य है । भगवान् के वचन केवलज्ञान पूर्वक होने से सत्य है । नैरयिकों की विकुर्वणा के सम्बन्ध में जीवाभिगम सूत्र का अतिदेश किया गया है। वह इस प्रकार है-नैरयिक जीव एकपने की विकुर्वणा करने में भी समर्थ हैं और बहुपने की विकुर्वणा करने में भी समर्थ है। एकपने की विकुर्वणा करते हुए वे एक बड़े मुद्गर रूप अथवा मुसुंढि रूप इत्यादि शस्त्र की विकुर्वणा करते हैं और बहुपने की विकुर्वणा करते हुए वे बहुत से मुद्गर रूप या मुसुंढि रूप इत्यादि बहुत से शस्त्रों की विकुर्वणा करते हैं । वे सब संख्येय होते हैं, किन्तु असंख्येय नहीं। इस प्रकार संबद्ध शरीरों की विकुर्वणा करते हैं। विकुर्वणा करके एक दूसरे के शरीर को अभिघात पहुंचाते हुए वे वेदना की उदीरणा करते हैं । वह वेदना उज्ज्वल (सर्वथा सुख रहित) विपुल (सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त) प्रगाढ़ For Personal & Private Use Only Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८५८ . भगवती सूत्र--- श. '५ उ. ६ आधाकर्मादि आहार का फल (प्रकर्ष युक्त) कर्कश (कर्कश पदार्थ के समान अर्थात् अनिष्ट), कटुक, परूष, निष्ठुर, चण्ड (रौद्र-भयंकर), तीव्र (शरीर में शीघ्र व्याप्त हो जाने वाली), दुःख रूप (असुख स्वरूप) दुर्ग (दुःख पूर्वक आश्रय करने योग्य ) और दुस्सह (मुश्किल से सहन करने योग्य ) होती है । आधाकर्मादि आहार का फल -आहाकम्मं 'अणवजे' ति मणं पहारेत्ता भवइ, से णं तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिक्कंते कालं करेइ-णत्थि तस्स आराहणा, से णं तस्स ठाणस्स आलोइयपडिक्कंते कालं करेइ,-अत्थि तस्स आराहणा-एएणं गमेणं णेयव्वं-कीयगडं, ठवियं, रइयगं, कंतारभत्तं, दुभिक्खभत्तं, वदलियाभत्तं, गिलाणभतं, सेजायरपिंडं, रायपिंडं। . ___१४ प्रश्न-आहाकम्म अणवजे' ति बहुजणस्स मज्झे भासित्ता, सयमेव परिभुजित्ता भवइ, से णं तस्स ठाणस्स जाव-अस्थि तस्स आराहणा? १४ उत्तर-एयं पि तह चेव, जाव-रायपिंडं । १५ प्रश्न-आहाकम्मं 'अणवजे' त्ति अण्णमण्णस्स अणुप्पदावइत्ता भवइ, से णं तस्स० ? १५ उत्तर-एयं तह चेवं जाव-रायपिंडं । १६ प्रश्न-आहाकम्मं णं 'अणवजे' त्ति बहुजणमझे पण्ण For Personal & Private Use Only Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ५ उ. ६ आधाकर्मादि आहार का फल वहता भव से णं तस्स जाव - अस्थि आराहणा ? " १६ उत्तर - जाव - रायपिंडं । कठिन शब्दार्थ - आहाकम्मं-आधाकर्म, अणवज्जे- अनवद्य-निष्पाप, पहारेत्ता- समझता धारण करता हुआ, अणालोइयपडिक्कते - बिना आलोचना प्रायश्चित किये, एएणंगमेणं - इसी प्रकार, कीयगड़ - खरादा हुआ, ठवियं स्थापित, रइयगं रचा हुआ, कंतारभत्तंजंगल में निर्वाह के लिये बनाया हुआ, दुब्भिक्खमत्तं - दुर्भिक्ष में देने के लिए बनाया हुआ भोजन, वद्दलियाभत्तं - वर्षा के समय निर्वाह के लिए दिया हुआ आहार, गिलाणभत्तं - रोगी के लिए बनाया हुआ भोजन, सेज्जायपिडं शय्या स्थानदाता के घर का आहारादि अणुपदावइत्ता - परस्पर दिलाता हुआ । ८५९ - इस है'- प्रकार जो साधु मन विषयक आलोचना और प्रति भावार्थ- 'आधाकर्म अनवदय-निष्पाप में समझता हो, वह यदि आधाकर्म स्थान क्रमण किये बिना ही काल कर जाय, तो उसके आराधना नहीं होती । और आधाकर्म- स्थान विषयक आलोचना और प्रतिक्रमण करके काल करे, तो उसके आराधना होती है । इसी तरह क्रीतकृत ( साधु के लिये खरीद कर लाया हुआ), स्थापित ( साधु के लिये स्थापित करके रखा हुआ ) रचित ( साधु के लिये बिखरे हुए भूके लड्डू रूप में बांधा हुआ) कान्तारभक्त ( जंगल में भिक्षुओं - भिखारी लोगों के निर्वाह के लिये तैयार किया हुआ आहार आदि ) दुर्भिक्ष भक्त ( goकाल के समय भिखारी लोगों के निर्वाह के लिये तैयार किया हुआ आहार आदि) वार्दलिकाभक्त ( दुर्दिन अर्थात् वर्षा के समय भिखारियों के लिये तैयार किया हुआ आहार आदि) ग्लानभक्त ( रोगियों के लिये तैयार किया हुआ आहारादि ) शय्यातरपिण्ड ( जिस मकान में उतरे हैं, उस गृहस्थ के घर से आहार आदि लेना) राजपिण्ड ( राजा के लिये तैयार किया गया, जिसका विभाग दूसरों को मिलता हो वह आहार आदि लेना) इन सब प्रकार के आहार आदि के विषय में जैसा आधाकर्म के सम्बन्ध में कहा है, वैसा ही जान लेना चाहिये । १४ प्रश्न - " आधाकर्म आहार आदि अनवदय-निष्पाप है" - - इस प्रकार For Personal & Private Use Only Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र – श. ५ उ. ६ आधाकर्मादि आहार का फल जो बहुत से मनुष्यों के बीच में कहता है और स्वयं भी आधाकर्म आहारादि का सेवन करता है । उस स्थान की आलोचना और प्रतिक्रमण किये बिना, क्या उसके आराधना होती है ? १४ उत्तर - हे गौतम ! यह भी उसी प्रकार जानना चाहिए यावत् राजपिण्ड तक इसी प्रकार जानना चाहिए । अर्थात् आधाकर्म यावत् राजपिण्ड पर्यन्त दूषित आहारादि का सेवन करने वाले के उसकी आलोचना और प्रतिक्रमण किये बिना आराधना नहीं होती । ८६० १५ प्रश्न - आधाकर्म आहारादि 'अनवदय (निष्पाप ) है - ऐसा कह कर जो साधु परस्पर देता है । हे भगवन् ! क्या उसके आराधना है ? १५ उत्तर - हे गौतम ! यह भी पूर्वोक्त प्रकार से जानना चाहिए, यावत् राजपिण्ड तक इसी प्रकार जानना चाहिए । अर्थात् उसके आराधना नहीं है । १६ प्रश्न - 'आधाकर्म आहारादि अनवदय-निष्पाप है' - इस प्रकार जो बहुत से मनुष्यों के बीच में प्ररूपणा करता है । हे भगवन् ! क्या उसकी आराधना है ? १६ उत्तर - यावत् राजपिण्ड तक पूर्वोक्त प्रकार से जानना चाहिये । विवेचन - जिसने ज्ञानादि की आराधना नहीं की है, उसको पूर्वोक्त प्रकार से वेदना होती है । इसलिये आराधना के अभाव को बतलाने के लिये आधाकर्म आदि सूत्र कहे गये हैं । आधाकर्म- 'आधा साधुप्रणिधानेन यत्सचेतनमचेतनं क्रियते, अचेतनं वा पच्यते, चीयते वा गृहादिकं वयते वा वस्त्रादिकं तदाधाकर्म ।' अर्थात् साधु के निमित से जो सचित्त को अचित्त बनाया जाता है, अचित-दाल आदि को पकाया जाता है, मकान आदि बनाये जाते हैं, या वस्त्रादि बनाये जाते हैं, उसे 'आधाकर्म दोष' कहते हैं । रचितक-टूटे हुए लड्डू के चूरे को साधु के लिये फिर लड्डू बांधकर देना, 'रचितक दोष' है । यह औदेशिक का भेद रूप है । कीकृत स्थापित आदि शब्दों का अर्थ भावार्थ में कर दिया है । ये सब आहारादि के दोष हैं। इन आगमोक्त दोषों से युक्त आधाकर्म आदि आहारादि को निर्दोष मानना, For Personal & Private Use Only Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ५ उ. ६ आचार्य उपाध्याय की गति ८६१ उनका स्वयं सेवन करना, दूसरे साधुओं को देना और सभा में उन आधाकर्मादि के विषय में निर्दोष रूप से प्ररूपणा करना-ये सब विपरीत श्रद्धानादिरूप होने से मिथ्यात्वादि रूप हैं । इससे ज्ञान आदि की विराधना स्पष्ट ही है । आचार्य उपाध्याय की गति १७ प्रश्न-आयरिय-उवज्झाए णं भंते ! सविसयंसि गणं अगिलाए संगिण्हमाणे; अगिलाए उवगिण्हमाणे कइहिं भवग्गहणेहिं सिज्झइ, जाव-अंतं करेइ ? . ____१७ उत्तर-गोयमा ! अत्थेगइए तेणेव भवग्गहणेणं सिज्झइ, अत्थेगइए दोच्चेणं भवग्गहणेणं सिज्झइ, तच्चं पुण भवग्गहणं णाइकमइ । कठिन शब्दार्थ-सविसयंसि-अपने विषय में, संगिण्हमाणे-स्वीकार करते हुए, उवगिण्हमाणे-सहायता करते हुए. गाइक्कमइ-अतिक्रमण नहीं करते। भावार्थ-१७ प्रश्न-हे भगवन् ! अपने विषय में शिष्य वर्ग को अग्लान (खेद रहित) भाव से स्वीकार करने वाले और अग्लान भाव से सहायता करने वाले आचार्य और उपाध्याय, कितने भव ग्रहण करके सिद्ध होते हैं, यावत् सभी दुःखों का अन्त करते हैं ? १७ उत्तर-हे गौतम ! कितने ही आचार्य, उपाध्याय उसी भव से सिद्ध होते हैं और कितनेक दो भव ग्रहण करके सिद्ध होते हैं, किन्तु तीसरे भव का उल्लंघन नहीं करते। विवेचन-आधाकर्मादि पदों का अर्थ प्रायः आचार्य और उपाध्याय, सभा में प्ररूपित । For Personal & Private Use Only Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६२ भगवती सूत्र-श. ५ उ. ६ मृषावादी अभ्याख्यानी को बन्ध करते हैं । इसलिये आचार्य, उपाध्याय के विषय में कथन किया जाता है । आचार्य और उपाध्याय अपने शिष्य वर्ग को सूत्र और अर्थ पढ़ाते हैं । इसलिये अखेद पूर्वक उन्हें स्वीकार करते हुए अर्थात् सूत्रार्थ पढ़ाने वाले और अखेद पूर्वक उन्हें संयम पालन में सहायता देने वाले आचार्य और उपाध्यायों में से कितने ही तो उसी भव में मोक्ष चले जाते हैं और कितने ही देवलोक में जाकर दूसरा मनुष्य भव धारण करके मोक्ष में चले जाते हैं, तथा कितने ही फिर देवलोक में जाकर तीसरा मनुष्य भव धारण करके मोक्ष प्राप्त करते हैं। किन्तु तीसरे मनुष्य-भव से अधिक भव नहीं करते। मषावादी अभ्याख्यानी को बन्ध १८ प्रश्न-जे णं भंते ! परं अलिएणं असम्भूएणं अब्भक्खाणेणं अभक्खाइ तस्स णं कहप्पगारा कम्मा कति ? १८ उत्तर-गोयमा ! जे णं परं अलिएणं असंतवयणेणं अब्भक्खाणेणं अब्भक्खाइ तस्स णं तहप्पगारा चेव कम्मा कजंति, जत्थेव णं अभिसमागच्छइ तत्थेव णं पडिसंवेदेह तओ से पच्छा वेदेइ । ® सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति छ ॥ पंचमसए छटो उद्देसो सम्मत्तो॥ कठिन शब्दार्थ-परं-दूसरे के लिए, अलिएणं-अलीक-झूठ बोलना, असन्मूएणं--असद्भूत-झूठा कथन, अब्भक्खाणेणं-अभ्याख्यान, कहप्पगारा--किस प्रकार के, तहप्पगारा-उसी प्रकार के । भावार्थ-१८ प्रश्न-हे भगवन् ! जो दूसरे को अलोकवचन, असद्भूत For Personal & Private Use Only Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र -श. ५ उ. ६ मृषावादी अभ्याख्यानो को बन्ध ८६३ वचन और अभ्याख्यान वचन कहता है, वह किस प्रकार के कर्म बांधता है ? १८ उत्तर-हे गौतम ! जो दूसरे को अलीक वचन, असद्भत वचन और अभ्याख्यान वचन कहता है, वह उसी प्रकार के कर्मों को बांधता है और वह जिस योनि में जाता है, वहां उन कर्मों को वेदता है और वेदने के बाद उनकी निर्जरा करता है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। विवेचन-पूर्वोक्त प्रकरण में दूसरे पर किये गये उपकार का अनन्तर-साक्षात् फल कहा गया हैं । अब दूसरे के प्रति किये गये । उपघात का फल कहा जाता है। सत्य बात का अपलाप करना 'अलीक' कहलाता हैं । जैसे कि-किसी साधु ने ब्रह्मचर्य का पालन किया । परन्तु उसके विषय में कहना कि 'इसने ब्रह्मचर्य का पालन नहीं किया' इत्यादि 'अलीक' वचन कहलाता है। जो बात नहीं हुई है ऐसी अछती बात को प्रकट करना 'असद्भूत' कहलाता है । जैसे कि-किसी के प्रति, चोर नहीं होते हुए भी कहना कि 'यह चोर' है। यह असद्भूत वचन है । इसमें कहने वाले का दुष्ट अभिप्राय होने से अशोभन रूप है । तथा चोर न होते हुए भी यह चोर है'-यह आरोप लगाना झूठा दोषारोपण रूप मिथ्यावचन है। बहत से लोगों के सामने किसी के अविद्यमान दोषों को कहना – निर्दोष पर दोषारोपण करना 'अभ्याख्यान' कहलाता है। इस प्रलार अलीक वचन, असद्भत वचन और अभ्याख्यान वचन कहने वाला, उसी प्रकार के कर्मों को बांधता है. फिर वह जिस योनि में जाता है, वहां उन कर्मों को भोगता है और बेदने के बाद उन कर्मों की निर्जरा होती है । ॥ इति पांचवें शतक का छठा उद्देशक समाप्त ॥ For Personal & Private Use Only Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६४ भगवती सूत्र - श. ५ उ. ७ परमाणु का कम्पन शतक ५ उद्देशक ७ परमाणु का कम्पन १ प्रश्न-परमाणुपोग्गले णं भंते ! एयइ वेयइ, जाव-तं तं भावं परिणमइ ? १ उत्तर-गोयमा ! सिय एयइ वेयइ, जाव-परिणमइ; सिय णो एयइ, जाव-णो परिणमइ । २ प्रश्न-दुप्पएसिए णं भंते ! खंधे एयइ, जाव-परिणमइ ? २ उत्तर-गोयमा ! सिय एयइ, जाव-परिणमइ, सिय णो एयइ, जाव-णो परिणमइ; सिय देसे एयइ, देसे णो एयइ । ३ प्रश्न-तिप्पएसिए णं भंते ! खंधे एयइ।। ३ उत्तर-गोयमा ! सिय एयइ, सिय णो एयइ, सिय देसे एयइ -णो देसे एयइ, सिय देसे एयह-णो देसा एयंति; सिय देसा एयंति णो देसे एयइ। ४ प्रश्न-चउप्पएसिए णं भंते ! खंधे एयइ ? । ४ उत्तर-गोयमा ! सिय एयइ, सिय णो एयइ, सिय देसे एयइ-णो देसे एयइ, सिय देसे एयइ-णो देसा एयंति, सिय देसा एयंति-णो देसे एयह; सिय देसा एयंति-णो देसा एयंति । जहा For Personal & Private Use Only Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ५ उ. ७ परमाणु का कम्पन ८६५ -चउप्पएसिओ तहा पंचपएसिओ, तहा जाव-अणंतपएसिओ। कठिन शब्दार्थ-एयइ- कम्पता है, वेयइ--विशेष कम्पता है, परिणमइ-परिणमता है, सिय-कदाचित् । भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या परमाणु पुद्गल कम्पता है ? विशेष कम्पता है ? यावत उन उन भावों को परिणमता है ? १ उत्तर-हे गौतम ! कदाचित् कम्पता है, विशेष कम्पता है और यावत् उन उन भावों को परिणमता है । कदाचित् नहीं कम्पता है, यावत् उन उन भावों को नहीं परिणमता है । - २ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या द्विप्रदेशी स्कंध कम्पता है, यावत् परिणमता है। २ उत्तर-हे गौतम ! कदाचित् कम्पता है, यावत् परिणमता है। कदाचित् नहीं कम्पता है, यावत् नहीं परिणमता है । कदाचित् एक देश (भाग) कम्पता है, एक देश नहीं कम्पता है । ३ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या त्रिप्रदेशी स्कन्ध कम्पता है ? ३ उत्तर-हे गौतम ! कदाचित् कम्पता है, कदाचित् नहीं कम्पता है । कदाचित् एक देश कम्पता है और एक देश नहीं कम्पता है । कदाचित् एक देश कम्पता है और बहुत देश नहीं कम्पते हैं । कदाचित् बहुत देश कम्पते हैं और एक देश नहीं कम्पता है। __४ प्रश्न--हे भगवन् ! क्या चतुष्प्रदेशी स्कन्ध कम्पता है ? ४ उत्तर-हे गौतम ! १ कदाचित् कम्पता है, २ कदाचित् नहीं कम्पता, ३ कदाचित् एक देश कम्पता है और एक देश नहीं कम्पता है । ४ कदाचित् एकदेश कम्पता है, बहुत देश नहीं कम्पते हैं। ५ कदाचित् बहुत देश कम्पते हैं और एक देश नहीं कम्पता है । ६ कदाचित् बहुत देश कम्पते हैं और बहुत देश नहीं कम्पते हैं। जिस प्रकार चतुष्प्रदेशी स्कन्ध के विषय में कहा गया है, उसी प्रकार पंच प्रदेशी स्कन्ध से लेकर यावत् अनन्त प्रदेशी स्कन्ध तक प्रत्येक स्कन्ध के लिये कहना चाहिये। For Personal & Private Use Only Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ५ उ. ७ परमाणु पुद्गलादि अछेद्य . . . विवेचन - छठे उद्देशक के अन्त में कर्म पुद्गलों की निर्जरा का कथन किया गया है । निर्जरा चलन रूप है । इसलिये सातवें उद्देशक में पुद्गलों की चलन क्रिया का कथन किया जाता है। पुदगलों में कम्पन आदि धर्म कादाचित्क है, इसलिये पुद्गल कदाचित् कम्पता है और कदाचित् नहीं कम्पता है । परमाणु पुद्गल में कम्पन विषयक दो भंग होते हैं । द्विप्रदेशी स्कन्ध में तीन भंग, त्रिप्रदेशी स्कन्ध में पांच भंग और चतुष्प्रदेशी स्कन्ध में छह भंग होते हैं, जो ऊपर भावार्थ में बतला दिये गये हैं। चतुष्प्रदेशी स्कन्ध के समान पंच प्रदेशी स्कन्ध से लेकर यावत् अनन्त प्रदेशी स्कन्ध तक प्रत्येक स्कन्ध के विषय में कहना चाहिये। परमाणु पुद्गलादि अछेद्य ५ प्रश्न-परमाणुपोग्गले णं भंते ! असिधारं वा खुरधारं वा ओगाहेज्जा ? ५ उत्तर-हंता, ओगाहेजा। ६ प्रश्न-से णं भंते ! तत्थ छिज्जेज वा भिजेज वा ? . ६ उत्तर-गोयमा ! णो इणटे समो, णो खलु तत्थ सत्थं कमइ, एवं जाव-असंखेजपएसिओ ? ७ प्रश्न-अणंतपएसिए णं भंते ! खंधे असिधारं वा खुरधार वा वा ओगाहेजा ? ७ उत्तर-हंता, ओगाहेजा। ८ प्रश्न-से णं तत्थ छिजेज वा भिजेज वा ? ८ उत्तर-गोयमा ! अत्थेगइए छिजेज वा भिज्जेज वा अत्थे For Personal & Private Use Only Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ५ उ. ७ परमाणु पुद्गलादि अछेद्य ८६७ गइए णो छिज्जेज वा णो भिज्जेज वा एवं अगणिकायस्स मज्झं. मझेणं तहिं णवरं 'झियाएज' भाणियव्वं, एवं पुक्खलसंवट्टगस्स महामेहस्स मज्झमझेणं, तहिं 'उल्ले सिया, एवं गंगाए महाणईए पडिसोयं हव्वं आगच्छेजा, तहिं विणिहायं आवज्जेजा, उदगावत्तं वा उदगबिंदु वा ओगाहेजा से णं तत्थ परियावज्जेजा। कठिन शब्दार्थ-असिधारं-तलवार की धार, खुरधारं-उस्तरे की धार, छिज्जेज्जछेदन होता हैं, भिज्जेज्ज-भेदन होता है, खलु-निश्चय ही, सत्थं कमइ-शस्त्र क्रमण, झियाएज्ज-जलता है, उल्ले-गीला होना। भावार्थ-५ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या परमाणु पुद्गल, तलवार की धार * या क्षुर-धार (उस्तरे को धार) पर रह सकता है ? ५ उत्तर-हाँ, गौतम ! रह सकता है। ६ प्रश्न-हे भगवन् ! उस धार पर रहा हुआ परमाणु पुद्गल, क्या छिन्न भिन्न होता है ? ६ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। परमाणु पुद्गल पर शस्त्र का आक्रमण नहीं हो सकता । इसी तरह यावत् असंख्य प्रदेशी स्कन्ध तक समझ लेना चाहिये । अर्थात् एक परमाणु यावत् असंख्य प्रदेशी स्कन्ध, शस्त्र द्वारा छिन्न भिन्न नहीं होता। ७ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या अनन्त प्रदेशी स्कन्ध, तलवार की धार पर या क्षुर धार पर रह सकता है ? ७ उत्तर-हाँ, गौतम ! रह सकता है। ८ प्रश्न-क्या तलवार की धार पर या क्षुर को धार पर रहा हुआ अनन्त प्रदेशी स्कन्ध, छिन्न भिन्न होता है ? । ८ उत्तर-हे गौतम ! कोई अनन्त प्रदेशी स्कन्ध छिन्न भिन्न होता है और कोई नहीं होता। For Personal & Private Use Only Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६८ भगवती सूत्र-श. ५ उ. ७ परमाणु पुद्गलादि के विभाग जिस प्रकार छेदन भेदन के विषय में प्रश्नोत्तर किये गये हैं। उसी तरह से 'अग्निकाय के बीच में प्रवेश करता है'-इसी प्रकार के प्रश्नोत्तर एक परमाणु पुद्गल से लेकर अनन्त प्रदेशी स्कन्ध तक कहने चाहिये, किन्तु अन्तर इतना है कि जहाँ उसमें सम्भावित छेदन भेदन का कथन किया है, वहां 'जलता है' इस प्रकार कहना चाहिये। इसी तरह 'पुष्कर-सम्वर्तक नामक महामेघ के मध्य में प्रवेश करता है'-यह प्रश्नोत्तर भी कहने चाहिये । किन्तु वहाँ सम्भावित छेदन भेदन के स्थान पर 'गीला होता है-भीगता है' कहना चाहिये। इसी तरह 'गंगा महा नदी के प्रतिश्रोत-प्रवाह में वह परमाणु पुद्गल आता है और प्रतिस्खलित . होता है।' और 'उदकावर्त का उदकबिन्दु में प्रवेश करता है और वहाँ वह परमाणु पुद्गलादि विनष्ट होता है। इस प्रकार प्रश्नोत्तर कहने चाहिये। विवेचन-पुद्गल का अधिकार होने से यहाँ पुद्गल के सम्बन्ध में ही कहा जा रहा है। परमाणु पुद्गल, भेदित नहीं होता । अर्थात् उस के दो टुकड़े नहीं होते । इसी तरह वह छेद को प्राप्त नहीं होता, अर्थात् वह खण्ड खण्ड या चूर्ण रूप नहीं होता, उसमें शस्त्र भी प्रवेश नहीं करता । यदि ऐसा हो जाय, तो उसका परमाणुपना ही नष्ट हो जाय । जो अनन्त प्रदेशी स्कन्ध तथाविध बादर परिणाम वाला होता है, वह छेद भेद को प्राप्त होता है और जो सूक्ष्म परिणाम वाला होता है, वह छेद भेद को प्राप्त नहींहोता। शेष विषय स्पष्ट ही है। परमाणु पुद्गलादि के विभाग . ९ प्रश्न-परमाणुपोग्गले णं भंते ! किं सअड्ढे, समझे, सपएसे; उदाहु अणड्ढे, अमज्झे, अपएसे ? ९ उत्तर-गोयमा ! अणड्ढे, अमझे, अपएसे; णो सअड्ढे, णो समझे, णो सपएसे। For Personal & Private Use Only Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श ५ उ ७ परमाणु पुद्गलादि के विभाग ८६९ १० प्रश्न - दुप्पएसिए णं भंते ! खंधे किं सअड्ढे, समज्झे, सपएसे, उदाहु अणड्ढे, अमज्झे, अपएसे ? १० उत्तर - गोयमा ! सअड्ढे, अमज्झे, सपएसे, णो अणड्ढे, ो समझे, णो अपसे । ११ प्रश्न - तिप्पएसिए णं भंते ! खंधे० पुच्छा ? ११ उत्तर - गोयमा ! अणड्ढे, समज्झे, सपएसे, णो सअड्ढे, णो अमज्झे, णो अपसे, जहा दुप्पएसओ तहा जे समा ते भाणि - यव्वा, जे विसमा ते जहा तिप्पएसओ तहा भाणियव्वा । १२ प्रश्न - संखेज्जपएसिए णं भंते ! खंधे किं सअड्ढे पुच्छा ? १२ उत्तर - गोयमा ! सिय सअड्ढे, अमज्झे, सपएसे; सिय अणड्ढे, समज्झे, सपए से जहा संखेज्जपए सिओ तहा असंखेजपएसओ वि, अनंतपएसओ वि । कठिन शब्दार्थ –सअड्ढे - सार्ध, उदाहु – अथवा | भावार्थ - ९ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या परमाणु पुद्गल, सार्ध, समध्य और प्रदेश है ? अथवा अनर्द्ध, अमध्य और अप्रदेश है ? ९ उत्तर - हे गौतम ! परमाणु पुद्गल, अनर्द्ध है, अमध्य है और अप्रदेश है, परन्तु सार्ध नहीं, समध्य नहीं और सप्रदेश भी नहीं है । १० प्रश्न - हे भगवन् ! क्या द्विप्रदेशी स्कन्ध, सार्ध, समध्य और सप्रदेश है ? अथवा अर्द्ध, अमध्य और अप्रदेश है ? १० उत्तर - हे गौतम ! द्विप्रदेशी स्कन्ध, सार्धं है, सप्रदेश है और अमध्य है, किन्तु अनर्द्ध नहीं है, समध्य नहीं है और अप्रदेश भी नहीं है । For Personal & Private Use Only Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र- श. ५ उ. ७ परमाणु पुद्गलादि की स्पर्शना ११ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या त्रिप्रदेशी स्कन्ध सार्ध, समध्य और सप्रदेश है ? अथवा अनर्द्ध, अमध्य और अप्रदेश है ? . ११ उत्तर-हे गौतम ! त्रिप्रदेशी स्कन्ध अनर्द्ध है। समध्य है और सप्रदेशी है। किन्तु सार्ध नहीं है, अमध्य नहीं है और अप्रदेश नहीं है। जिस प्रकार द्विप्रदेशी स्कन्ध के विषय में सार्ध आदि विभाग बतलाये गये हैं। उसी तरह समसंख्या (बेकी-दो की संख्या) वाले स्कन्धों के विषय में कहना चाहिये। जिस प्रकार त्रिप्रदेशी स्कन्ध के विषय में कहा गया है, उसी तरह विषम संख्या (एकी संख्या) वाले स्कन्धों के विषय में कहना चाहिये। . १२ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या संख्यातप्रदेशी स्कन्ध सार्ध, समध्य और सप्रदेश है, अथवा अनी, अमध्य और अप्रदेश है ? १२ उत्तर-हे गौतम ! कदाचित् सार्ध होता है, अमध्य होता है और सप्रदेश होता है । कदाचित् अनर्द्ध होता है, समध्य होता है और सप्रदेश होता है। जिस प्रकार संख्यात प्रदेशी स्कन्ध के विषय में कहा गया है, उसी प्रकार असंख्यात प्रदेशी स्कन्ध और अनन्तप्रदेशी स्कन्ध के विषय में भी जान लेना चाहिये। . विवेचन-दो, चार, छह, आठ इत्यादि संख्यावाले प्रदेश, सम संख्या वाले. प्रदेशी स्कन्ध कहलाते हैं । वे स्कन्ध, सार्ध (अर्ध सहित) होते हैं । तीन, पांच, सात इत्यादि संख्या वाले प्रदेश, विषम संख्या वाले प्रदेशी स्कन्ध कहलाते हैं । वे स्कन्ध समध्य (मध्य भाग सहित) होते हैं । संख्यात प्रदेशी स्कन्ध, असंख्यात प्रदेशी स्कन्ध और अनन्त प्रदेशी स्कन्ध, समप्रदेशिक (सम संख्यावाले प्रदेश युक्त) होते हैं और विषम प्रदेशिक (विषम संख्या वाले प्रदेश युक्त) भी होते हैं । जो सम प्रदेशिक होते हैं, वे सार्ध और अमध्य होते हैं । जो विषम प्रदेशी होते हैं, वे समध्य और अनद्धं (अर्ध भाग रहित) होते हैं। परमाणु पुद्गलादि को स्पर्शना १३ प्रश्न-परमाणुपोग्गले गं भंते ! परमाणुपोग्गलं फुसमाणे For Personal & Private Use Only Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ५ उ. ७ परमाणु पुद्गलाद्रि की स्पर्शना ८७१ किं १ देसेणं देसं फुसइ, २ देसेणं देसे फुसइ, ३ देसेणं सव्वं फुसइ, ४ देसेहिं देसं फुसइ; ५ देसेहिं देसे फुसइ, ६ देसेहिं सव्वं फुसइ, ७ सब्वेणं देसं फुसइ, ८ सवेणं देसे फुसइ, ९ सब्वेणं सव्वं फुसइ ? __१३ उत्तर-गोयमा ! १ णो देसेणं देसं फुसइ, २ णो देसेणं देसे फुसइ, ३ णो देसेणं सव्वं फुसइ, ४ णो देसेहिं देसं फुसइ, ५ णो देसेहिं देसे फुसइ, ६ णो देसेहिं सव्वं फुसइ, ७ णो सब्वेणं देसं फुसइ, ८ णो सव्वेणं देसे फुसइ, ९ सव्वेणं सव्वं फुसइ, एवं परमाणुपोग्गले दुप्पएसियं फुसमाणे सत्तम-णवमेहिं फुसइ, परमाणुपोग्गले तिप्पएसियं फुसमाणे णिपच्छिमएहिं तिहिं फुसइ, जहा परमाणुपोग्गले तिप्पएसियं फुसाविओ एवं फुसावेयव्वो जाव-अणंत पएसिओ। कठिन शब्दार्थ-फुसमाणे-स्पर्श करता हुआ। भावार्थ-१३ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या परमाणु पुद्गल, परमाणु पुद्गल को स्पर्श करता हुआ १ एक देश से एक देश को स्पर्श करता है ? अर्थात् एक भाग से एक भाग को स्पर्श करता है ? २ अथवा एक देश से बहुत देशों को स्पर्श करता है ? ३ अथवा एक देश से सब को स्पर्श करता है ? ४ अथवा बहुत देशों से एक देश को स्पर्श करता है ? ५ अथवा बहुत देशों से बहुत देशों को स्पर्श करता है ? ६ अथवा बहुत देशों से सभी को स्पर्श करता है ? ७ अथवा सर्व से एक देश को स्पर्श करता है ? ८ अथवा सर्व से बहुत देशों को स्पर्श करता है ? ९ अथवा सर्व से सर्व को स्पर्श करता है ? १३ उत्तर-हे गौतम ! १ एक देश से एक देश को स्पर्श नहीं करता, २ एक देश से बहुत देशों को स्पर्श नहीं करता, ३.एक वेश से सर्व को स्पर्श For Personal & Private Use Only Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८७२ भगवती सूत्र-श. ५ उ.. परमाणु पुद्गलादि की स्पर्शना नहीं करता, ४ बहुत देशों से एक देश को स्पर्श नहीं करता, ५ बहुत देशों से बहुत देशों को स्पर्श नहीं करता, ६ बहुत देशों से सर्व को स्पर्श नहीं करता, ७ सर्व से एक देश को स्पर्श नहीं करता, ८ सर्व से बहुत देशों को स्पर्श नहीं करता । किन्तु ९ सर्व से सर्व को स्पर्श करता है। द्विप्रदेशी स्कन्ध को स्पर्श करता हुआ परमाणु पुद्गल सातवें और नववें इन दो विकल्पों से स्पर्श करता है । त्रिप्रदेशी स्कन्ध को स्पर्श करता हुआ परमाणु पुद्गल, उपरोक्त नव विकल्पों में से अन्तिम तीन विकल्पों (सातवें, आठवें और नवमें) से स्पर्श करता है । अर्थात् सर्व से एक देश को स्पर्श करता है। सर्व से बहुत देशों को स्पर्श करता है और सर्व से सर्व को स्पर्श करता है। जिस प्रकार एक परमाणु पुद्गल द्वारा त्रिप्रदेशी स्कन्ध को स्पर्श करने का कहा, उसी तरह चतुष्प्रदेशी स्कन्ध को, पंच प्रदेशी स्कन्ध को, यावत् अनन्त प्रदेशी स्कन्ध को स्पर्श करने का कहना चाहिये। ___१४ प्रश्न-दुप्पएसिए णं भंते ! खंधे परमाणुपोंग्गलं फुसमाणे० पुच्छा ? : १४ उत्तर-तईय णवमेहिं फुसइ, दुप्पएसिओ दुप्पएसियं फुसमाणो पढम-तईय-सत्तम-णवमेहिं फुसइ, दुप्पएसिओ तिप्पएसियं फुसमाणो आइल्लएहि य, पछिल्लएहि य तिहिं फुसइ, मज्झिमएहिं तिहिं विपडिसेहेयन्वं, दुप्पएसिओ जहा तिप्पएसियं फुसाविओ एवं फुसावेयन्वो जाव-अणंतपएसियं । कठिन शब्दार्थ-आइल्लएहि-पहले के, पच्छिल्लएहि-पीछे के । १४ प्रश्न-हे भगवन् ! विप्रदेशी स्कन्ध परमाणु पुद्गल को स्पर्श करता हुआ किस प्रकार स्पर्श करता है ? For Personal & Private Use Only Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ५ उ. ७ परमाणु पुद्गलादि की स्पर्शना ८७३ १४ उत्तर-हे गौतम ! तीसरे और नववें विकल्प द्वारा स्पर्श करता है। इसी प्रकार द्विप्रदेशी स्कन्ध, द्विप्रदेशी स्कन्ध को पहले, तीसरे, सातवें और नववें विकल्प द्वारा स्पर्श करता है । द्विप्रदेशी स्कन्ध, त्रिप्रदेशी स्कन्ध को पहले, दूसरे, तीसरे, सातवें, आठवें और नववें विकल्प द्वारा स्पर्श करता है । इसमें बीच के चौथे, पांचवे और छठे विकल्प को छोड़ देना चाहिये । जिस प्रकार द्विप्रदेशी स्कन्ध द्वारा त्रिप्रदेशी स्कन्ध को स्पर्शना कही गई है, उसी प्रकार-चतुष्प्रदेशी स्कन्ध, पंच प्रदेशी स्कन्ध, यावत् अनन्त प्रदेशी स्कन्ध को स्पर्शना भी कहनी चाहिये। १५ प्रश्न-तिपएसिए णं भंते ! खंधे परमाणुपोग्गलं फुसमाणे पुच्छा ? १५ उत्तर-तईय-छ?-णवमेहिं फुसइ, तिपएसिओ दुपएसियं फुसमाणो पढमएणं,, तईएणं, चउत्थ-छट्ठ-सत्तम-णवमेहिं फुसइ, तिपएसिओ तिपएसिअं फुसमाणो सब्वेसु वि ठाणेसु फुसइ । जहा तिपएसिओ तिपएसिअं फुसाविओ एवं तिप्पएसिओ जाव-अणंतपएसिएणं संजोएयव्वो, जहा तिपएसिओ एवं जाव-अणंतपएसिओ भाणियव्वो। कठिन शब्दार्थ-संजोएयव्यो-संयुक्त करना चाहिये । १५ प्रश्न-हे भगवन् ! परमाणु पुद्गल को स्पर्श करता हुआ त्रिप्रदेशी स्कन्ध, किस प्रकार स्पर्श करता है ? १५ उत्तर-हे गौतम ! उपरोक्त तीसरे, छठे और नववें विकल्प द्वारा स्पर्श करता है । त्रिप्रदेशी स्कन्ध, द्विप्रदेशी स्कन्ध को पहले, तीसरे, चौथे, छठे, For Personal & Private Use Only Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८७४ भगवती सूत्र-श. ५ उ. ७ परमाणु पुद्गलादि की स्पर्शना . सातवें और नववें विकल्प द्वारा स्पर्श करता है। त्रिप्रदेशी स्कन्ध को उपरोक्त विकल्पों से स्पर्श करता है। जिस प्रकार त्रिप्रदेशी स्कन्ध द्वारा त्रिप्रदेशी स्कन्ध को स्पर्शना कही गई है, उसी प्रकार त्रिप्रदेशी द्वारा चतुष्प्रदेशी, पंच प्रदेशी यावत् अनन्त प्रदेशी स्कन्ध तक की स्पर्शना कहनी चाहिये । जिस प्रकार त्रिप्रदेशी स्कन्ध द्वारा स्पर्शना कही गई है, उसी तरह यावत् अनन्त प्रदेशी स्कन्ध द्वारा स्पर्शना कहनी चाहिये। विवेचन-यहां परमाणु पुद्गलादि की स्पर्शना के विषय में नव विकल्प कहे गये हैं । वे इस प्रकार है (१) एक देश से एक देश का स्पर्श । (२) एक देश से बहुत देशों का स्पर्श । (३) एक देश से सर्व का स्पर्श । (४) बहुत देशों से एक देश का स्पर्श । (५) बहुत देशों से बहुत देशों का स्पर्श । (६) बहुत देशों से सर्व का स्पर्श । (७) सर्व से एक देश का स्पर्श । (८) सर्व से बहुत देशों का स्पर्श । (९) सर्व से सर्व का स्पर्श । जब एक परमाणु पुद्गल, एक परमाणु पुद्गल को स्पर्श करता है, तब 'सर्व से सर्व को स्पर्श करता है, केवल यह एक नववां विकल्प ही पाया जाता है । दूसरे विकल्प इसमें घटित नहीं होते, क्योंकि परमाणु अंश रहित होता है । शंका-'सर्व से सर्व को स्पर्श करता है, यह विकल्प स्वीकार करने पर दो परमाणुओं की एकता हो जायेगी। ऐसा होने पर भिन्न भिन्न परमाणुओं के योग से जो घट आदि स्कन्ध बनते हैं-वह बात कैसे घटित होगी? . समाधान-'सर्व से सर्व को स्पर्श करता है'-इस विकल्प का यह अर्थ नहीं है कि दो परमाणु परस्पर मिलकर एक हो जाते हैं । किन्तु इसका अर्थ यह है कि दो परमाणु परस्पर एक दूसरे का स्पर्श-समस्त स्वात्मा द्वारा करते हैं क्योंकि परमाणुओं में 'अर्द्ध-आधा' आदि विभाग नहीं होते। इसलिये वे परमाणु अद्धं आदि विभाग द्वारा स्पर्श नहीं कर सकते । घटादि पदार्थों के अभाव की आपत्ति तो तब आ सकती है-जब कि दो परमाणुओं For Personal & Private Use Only Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ५ उ. ७ परमाणु पुद्गलादि की स्पर्शना ८७५ की एकता हो जाती हो, परन्तु यह बात नहीं है । दोनों परमाणु अपने अपने स्वरूप में भिन्न ही रहते हैं, दोनों की एकता (स्वरूप मिश्रण) नहीं होती। इसलिये घटादि पदार्थों के अभाव रूप पूर्वोक्त आपत्ति नहीं आ सकती। ___ जब परमाणु पुद्गल, द्विप्रदेशी स्कन्ध को स्पर्श करता है, तब 'सर्व से देश,' रूप सातवाँ विकल्प और 'सर्व से सर्व' रूप नववां विकल्प ये दो विकल्प-पाये जाते हैं । जब द्विप्रदेशी स्कन्ध, आकाश के दो प्रदेशों पर रहा हुआ होता है, तब परमाणु पुद्गल उस स्कन्ध के देश को अपने समस्त आत्मा द्वारा स्पर्श करता है। क्योंकि परमाणु का विषय उस स्कन्ध के देश को स्पर्श करने का ही है । अर्थात् आकाश के दो प्रदेशों पर स्थित द्विप्रदेशी स्कन्ध के देश को ही परमाणु स्पर्श कर सकता है । जब द्विप्रदेशी स्कन्ध, परिणाम की सूक्ष्मता से आकाश के एक प्रदेश पर स्थित होता है, तब परमाणु सर्वात्म द्वारा उस स्कन्ध के सर्वात्म को स्पर्श करता है । ___ जब परमाणु पुद्गल त्रिप्रदेशी स्कन्ध को स्पर्श करता है, तब सातवां, आठवां और नववां-ये तीन विकल्प पाये जाते हैं । जब त्रिप्रदेशी स्कन्ध, आकाश के तीन प्रदेशों पर रहा हुआ होता है, तब परमाणु अपने सर्वात्म द्वारा उसके एक देश को स्पर्श करता है । क्योंकि तीन आकाश प्रदेशों पर रहे हुए त्रिप्रदेशी स्कन्ध के एक प्रदेश को स्पर्श करने का ही परमाणु में सामर्थ्य है । यह सातवां विकल्प है । जब त्रिप्रदेशी स्कन्ध के दो प्रदेश एक आकाश प्रदेश पर रहे हुए हों और तीसरा एक प्रदेश, अन्यत्र (दूसरे आकाश प्रदेश पर) रहा हुआ हो, तब एक आकाश प्रदेश पर रहे हुए दो परमाणुओं को स्पर्श करने का सामर्थ्य, एक परमाणु में होने से 'सर्व से बहुत देशों को स्पर्श करता है।' यह आठवां विकल्प पाया जाता हैं । __ शंका-'सर्व से बहुत देशों (दो देशों) को स्पर्श करता है'-यह आठवां विकल्प जैसे त्रिप्रदेशी स्कन्ध में घटाया गया है, उसी तरह द्विप्रदेशी स्कन्ध में भी घटाना चाहिये। क्योंकि वहां पर भी उस द्विप्रदेशी स्कन्ध के दोनों प्रदेशों को वह परमाणु सर्वात्म द्वारा स्पर्श करता है, इसलिये यह विकल्प द्विप्रदेशी स्कन्ध में क्यों नहीं बतलाया गया है ? समाधान-जिस प्रकार यह विकल्प त्रिप्रदेशी स्कन्ध में घटाया गया है, उस प्रकार द्विप्रदेशी स्कन्ध में घटित नहीं हो सकता, क्योंकि द्विप्रदेशी स्कन्ध स्वयं अवयवी है, वह किसी का अवयव नहीं है, तब यह कैसे कहा जा सकता है कि 'सर्व से दो देशों को स्पर्श करता है ।' त्रिप्रदेशी स्कन्ध में तो तीन प्रदेशों की अपेक्षा दो प्रदेशों का स्पर्श करते समय एक प्रदेश बाकी रहता है । अर्थात् उसके जो दो परमाणु एक आकाश प्रदेश पर रहे For Personal & Private Use Only Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८७६ भगवती सूत्र-श. ५ उ.७ परमाणु पुदैगलादि की स्पर्शना हुए हैं, वे दोनों, भिन्न आकाश प्रदेश पर रहे हुए उस त्रिप्रदेशी स्कन्ध के दो अंश हैं और एक परमाणु पुद्गल उन दो अंशों को स्पर्श करता है । इसलिये 'सर्व से दो देशों को स्पर्श करता है' इस प्रकार का व्यपदेश करना संगत है। जब त्रिप्रदेशी स्कन्ध परिणाम की सूक्ष्मता के कारण एक आकाश प्रदेश पर स्थित होता है, तब ‘सर्व से सर्व को स्पर्श करता है'—यह नववां विकल्प घटित होता है। परमाणु द्वारा चतुःप्रदेशी, पंचप्रदेशी आदि स्कन्धों को स्पर्शना भी इसी प्रकार कहनी चाहिए। जब द्विप्रदेशी स्कन्ध, एक परमाणु पुद्गल को स्पर्श करता है, तब तीसरा और नववां ये दो विकल्प घटित होते हैं । अर्थात् जब द्विप्रदेशी स्कन्ध, आकाश के दो प्रदेशों पर स्थित होता है, तब वह अपने एक देश द्वारा समस्त परमाणुओं को स्पर्श करता है और तब 'एक भाग से सर्व भाग को स्पर्श करता है।' यह तीसरा विकल्प घटित होता है। जब द्विप्रदेशी स्कन्ध, आकाश के एक प्रदेश पर स्थित होता है, तब वह सर्वात्म द्वारा सर्व परमाणु को स्पर्श करता है। इसलिये वहां 'सर्व से सर्व को स्पर्श करता है। यह नववां विकल्प घटित होता है । जब द्विप्रदेशी स्कन्ध, द्विप्रदेशी स्कन्ध को स्पर्श करता है, तब पहला, तीसरा. सातवां और नववां-ये चार विकल्प घटित होते हैं । जब दोनों द्विप्रदेशी स्कन्ध, प्रत्येक प्रत्येक दो दो आकाश प्रदेशों पर स्थित होते है, तब वे परस्पर एक देश से एक देश को स्पर्श करते हैं । तब प्रथम विकल्प घटित होता है । जब एक द्विप्रदेशी स्कन्ध, एक आकाश प्रदेश पर स्थित होता है और दूसरा द्विप्रदेशी स्कन्ध, दो आकाश प्रदेशों पर स्थित होता है, तब 'एक देश से सर्व को स्पर्श करता है'-यह तीसरा विकल्प घटित होता है । क्योंकि दो आकाश प्रदेशों पर स्थित द्विप्रदेशी स्कन्ध, अपने एक देश द्वारा एक आकाश प्रदेश पर स्थित द्विप्रदेशी स्कन्ध के सर्व देशों को स्पर्श करता हैं । 'सर्व से देश को स्पर्श करता है-यह सातवां विकल्प है। क्योंकि एक आकाश प्रदेश पर स्थित द्विप्रदेशी स्कन्ध, सर्वात्म द्वारा दो आकाश प्रदेशों पर स्थित द्विप्रदेशी स्कन्ध के एक देश को स्पर्श करता है । जब दोनों द्विप्रदेशी स्कन्ध, प्रत्येक प्रत्येक एक एक आकाश प्रदेश पर स्थित होते हैं, तब 'सर्व से सर्व को स्पर्श करता हैं'• यह नववां विकल्प घटित होता है। इसी प्रकार उपर्युक्त रीति से आगे के यथा संभव सब विकल्प घटा लेने चाहिये। For Personal & Private Use Only Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र – श. ५ उ. ७ परमाणु पुद्गलादि की संस्थिति ८७७ परमाणु पुद्गलादि की संस्थिति १६ प्रश्न - परमाणुपोग्गले णं भंते ! कालओ केवच्चिरं होइ ? १६ उत्तर - गोयमा ! जहणेणं एगं समयं, उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं, एवं जाव - अणतपएसओ । १७ प्रश्न - एगपएसोगाढे णं भंते! पोग्गले सेए तम्मिं वा ठाणे, अण्णम्मि वा ठाणे कालओ केवच्चिरं होइ ? १७ उत्तर - गोयमा ! जहणेणं एगं समयं उकोसेणं आव लियाए असंखेजड़भागं, एवं जाव - असंखेज्जपए सोगाढे । १० प्रश्न - एगपए सोगाढे णं भंते ! पोग्गले णिरेए कालओ केवच्चिर होइ ? १८ उत्तर - गोयमा ! जहणेणं एगं समयं उकोसेणं असंखेजं काल; एवं जाव - असंखेजपरसोगाढे । कठिन शब्दार्थ - केवच्चिरं - कितने काल तक, एगपएसोगाढे - एक प्रदेश में रहा हुआ, सेए - सकम्प, तम्मि वा ठाणे - उस स्थान पर, निरेए – निष्कम्प | भावार्थ - १६ प्रश्न - हे भगवन् ! परमाणु पुद्गल, काल की अपेक्षा कितने काल तक रहता है ? १६ उत्तर - हे गौतम ! परमाणु पुद्गल, जघन्य एक समय तक रहता है और उत्कृष्ट असंख्य काल तक रहता है । इसी प्रकार यावत् अनन्त प्रदेशी स्कन्ध तक कहना चाहिए । १७ प्रश्न - हे भगवन् ! एक आकाश प्रदेशावगाढ़ (एक आकाश प्रदेश For Personal & Private Use Only Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ५ उ. ७ परमाणु पुद्गलादि की संस्थिति पर स्थित ) पुद्गल स्वस्थान पर या दूसरे स्थान पर कितने काल तक सकम्प रहता है ? ८७८ १७ उत्तर - हे गौतम ! एक प्रदेशावगाढ़ पुद्गल, जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट आवलिका के असंख्येय भाग तक सकम्प रहता है । इसी प्रकार यावत् असंख्येय प्रदेशावगाढ़ तक कहना चाहिए । १८ प्रश्न - - हे भगवन् ! एक प्रदेशावगाढ़ पुद्गल, कितने काल तक freeम्प रहता है ? १८ उत्तर - हे गौतम! जघन्य एकं समय तक और उत्कृष्ट असंख्येय काल तक निष्कम्प रहता है। इसी प्रकार यावत् असंख्येय प्रदेशावगाढ़ तक कहना चाहिए । १९ प्रश्न - एगगुणकालए णं भंते ! पोग्गले कालओ केवच्चिरं होइ ? १९ उत्तर - गोयमा ! जहण्णेणं एगं समयं, उक्कोसेणं असंखेज कालं; एवं जाव - अनंतगुणकालए, एवं वण्ण-गंध-रस- फासं जावअनंतगुणलुक्खे; एवं सुहुमपरिणए पोम्गले, एवं बादरपरिणए पोग्गले । २० प्रश्न - सहपरिणए णं भंते! पोग्गले कालओ केवच्चिरं होइ ? , २० उत्तर - गोयमा ! जहणणेणं एगं समयं उक्कोसेणं आव लियाए असंखेज्जइभागं; असदपरिणए जहा एगगुणकालए । कठिन शब्दार्थ- सद्दपरिणए - शब्द परिणत For Personal & Private Use Only Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ५ उ. ७ परमाणु पुद्गलादि का अन्तर काल भावार्थ-१९ प्रश्न-हे भगवन् ! एक गण काला पुद्गल, कब तक रहता है ? १९ उत्तर-हे गौतम ! जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट असंख्येय काल तक रहता है । इसी प्रकार यावत् अनन्तगुण काला पुद्गल तक कहना चाहिये । इसी प्रकार वण, गन्ध, रस और स्पर्श यावत् अनन्तगण रूक्ष प्रगल तक कहना चाहिए । इसी प्रकार सूक्ष्म परिणत पुद्गल और बादर परिणत पुद्गल के विषय में भी कहना चाहिए। २० प्रश्न-हे भगवन् ! शब्द परिणत पुद्गल कितने काल तक रहता है ? २० उत्तर-हे गौतम ! जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट आवलिका के असंख्येय भाग तक रहता है। जिस प्रकार एक गुण काला पुद्गल के विषय में कहा है, उसी तरह अशब्द परिणत पुद्गल के विषय में कहना चाहिए। विवेचन - पुद्गल का अधिकार होने से यहां पुद्गलों के द्रव्य, क्षेत्र और भावों का विचार, काल की अपेक्षा से किया गया है । 'परमाणु पुद्गल' यह द्रव्य विषयक विचार है । वह जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट असंख्य काल तक रहता है । क्योंकि असंख्य काल के बाद पुद्गलों की एक रूप स्थिति नहीं रहती। ‘एक प्रदेशावगाढ' इत्यादि का कथन कर क्षेत्र सम्बन्धी विचार किया गया है। पुद्गलों का चलन आकस्मिक होता है । इसलिये निष्कपत्व आदि की तरह कंपनचलन, का काल असंख्येय नहीं होता है। ___ कोई भी पुद्गल अनन्तप्रदेशावगाढ़ नहीं होता । इसलिये 'असंख्यात प्रदेशावगाद' ऐसा कहा गया है। परमाणु पुद्गलादि का अन्तर काल २१ प्रश्न-परमाणुपोग्गलस्स णं भंते ! अंतर कालओ केवच्चिरं होइ ? For Personal & Private Use Only Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८० भगवती सूत्र-श. ५ उ. ७ परमाणु पुद्गलादि का अन्तर काल २१ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं एगं समय, उक्कोसेणं असंखेज कालं । २२ प्रश्न-दुप्पएसियस्स णं भंते ! खंधस्स अंतरं कालओ केवच्चिरं होइ ? ____२२ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं एगं समयं, उक्कोसेणं अणंतं कालं, एवं जाव-अणंतपएसिओ। ___ २३ प्रश्न-एगपएसोगाढस्स णं भंते ! पोग्गलस्स सेयस्स अंतरं कालओ केवच्चिरं होइ ? ___२३ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं एगं समयं, उक्कोसेणं असं. खेजं कालं; एवं जाव-असंखेजपएसोगाढे। २४ प्रश्न-एगपएसोगाढस्स णं भंते ! पोग्गलस्स णिरेयस्स अंतरं कालओ केवच्चिर होइ ? . २४ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं एगं समयं, उक्कोसेणं आवलियाए असंखेजहभाग; एवं जाव-असंखेजपएसोगाढे, वण्ण-गंधरस-फास-सुहुमपरिणय-बायरपरिणयाणं एएसिं जं चेव संचिट्ठणा तं चेव अंतरं वि भाणियव्वं । कठिन शब्दार्थ-संचिटणा-स्थिति काल । भावार्थ-२१ प्रश्न-हे भगवन् ! परमाणु पुद्गल का अन्तर कितने काल का होता है । अर्थात् जो पुद्गल, परमाणु रूप है, वह परमाणुपन को छोड़कर For Personal & Private Use Only Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ५ उ. ७ परमाणु पुद्गलादि का अन्तर काल ८८१ . . . . स्कन्धादि रूप में परिणत हो जाय, तो वह कितने काल बाद वापिस परमाणुपन को प्राप्त कर सकता है ? २१ उत्तर-हे गौतम ! जघन्य एक समय और उत्कृष्ट असंख्येय काल का अन्तर होता है। २२ प्रश्न-हे भगवन ! द्विप्रदेशी स्कन्ध का अन्तर कितने काल का होता है ? २२ उत्तर-हे गौतम ! जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अनन्तकाल का अन्तर होता है । इसी तरह यावत् अनन्त प्रदेशी स्कन्ध तक कहना चाहिये। . २३ प्रश्न-हे भगवन् ! एक प्रदेशावगाढ़ सकंप पुद्गल का अन्तर कितने काल का होता है, अर्थात् एक आकाश प्रदेश में स्थित सकंप पुद्गल अपना कंपन बन्द करे, तो फिर उसे वापिस कंपन करने में कितना समय लगता है। २३ उत्तर-हे गौतम ! जघन्य एक समय और उत्कृष्ट असंख्येय काल का अन्तर होता है । इसी तरह यावत् असंख्य प्रदेशावगाढ़ स्कन्ध तक कहना चाहिये। २४ प्रश्न-हे भगवन् ! एक प्रदेशावगाढ़ निष्कंप पुद्गल का अन्तर कितने काल का होता है ? अर्थात् निष्कंप पुद्गल अपनी निष्कपता छोड़कर फिर वापिस कितने काल बाद निष्कपता प्राप्त कर सकता है ? २४ उत्तर-हे गौतम ! जघन्य एक समय और उत्कृष्ट आवलिका का असंख्येय भाग का अन्तर होता है। इसी तरह यावत् असंख्य प्रदेशावगाढ़ स्कन्ध तक समझ लेना चाहिये। वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, सूक्ष्मपरिणत और बादर परिणत के लिये जो उनका संचिटणा काल (स्थिति काल) कहा गया है, वही उनका अन्तर काल समझना चाहिये। २५ प्रश्न-सदपरिणयस्स णं भंते ! पोग्गलस्स अंतरं कालओ केवच्चिरं होइ ? For Personal & Private Use Only Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८२ भगवती सूत्र-श. ५ उ. ७ परमाणु पुद्गलादि का अन्तर काल २५ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं एगं समयं उकोसेणं असंखेज कालं। ___२६ प्रश्न-असदपरिणयस्स णं भंते ! पोग्गलस्स अंतरं कालओ केवच्चिर होइ ? २६ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं एगं समयं, उक्कोसेणं आवलियाए असंखेजहभागं । __२७ प्रश्न-एयस्स णं भंते ! दवट्ठाणाउयस्स, खेत्तट्ठाणाउयस्स, ओगाहणट्ठाणाउयस्स, भावट्ठाणाउयस्स कयरे कयरे जाव–विसेसाहिया ? २७ उत्तर-गोयमा ! सव्वत्थोवे खेत्तट्टाणाउए, ओगाहणट्ठाणाउए असंखेजगुणे, दवट्ठाणाउए असंखेजगुणे, भावट्ठाणाउए असंखेजगुणे। -खेत्तोगाहणादब्वे, भावट्ठाणाउयं च अप्प-बहं, खेत्ते सव्वत्थोवे, सेसा ठाणा असंखेजगुणा । कठिन शब्दार्थ-दग्वट्ठाणाउयस्स-द्रव्यस्थानायु । भावार्थ-२५ प्रश्न-हे भगवन् ! शब्द परिणत पुद्गल का अन्तर कितने काल का होता है। २५ उत्तर-हे गौतम ! जघन्य एक समय और उत्कृष्ट असंख्यय काल का अन्तर होता है। २६ प्रश्न-हे भगवन् ! अशब्द परिणत पुद्गल का अन्तर कितने काल का होता है ? For Personal & Private Use Only Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ५ उ. ७ परमाणु पुद्गलादि का अन्तर काल ८८३ २६ उत्तर-हे गौतम ! जघन्य एक समय. और उत्कृष्ट आवलिका के असंख्येय भाग का अन्तर होता है। २७ प्रश्न-हे भगवन् ! इन द्रव्यस्थानायु, क्षेत्रस्थानायु, अवगाहनास्थानायु और भावस्थानायु, इन सब में कौन किस से कम, ज्यादा, तुल्य और विशेषाधिक हैं ? २७ उत्तर-हे गौतम ! सब से थोड़ा क्षेत्रस्थानायु है, उससे अवगाहनास्थानायु असंख्य गुणा है, उससे द्रव्यस्थानायु असंख्य गुणा है और उससे भावस्थानायु असंख्य गुणा है। गाथा का अर्थ इस प्रकार है-क्षेत्र, अवगाहना, द्रव्य और भाव स्थानायु, इनका अल्पबहुत्व कहना चाहिये। इनमें क्षेत्र स्थानायु सबसे अल्प है और बाकी तीन स्थान. क्रमशः असंख्य गुणा है। विवेचन-एक परमाणु अपना परमाणुपन छोड़ कर वापिस दूसरी बार परमाणुपन को प्राप्त हो, इसके बीच का काल 'स्कन्ध सम्बन्ध काल' कहलाता है । वह जघन्य एक समय का है और उत्कृष्ट असंख्यात काल का है । द्विप्रदेशी स्कन्ध अपना द्विप्रदेशौ स्कन्धपन छोड़कर दूसरे स्कन्ध रूप में अथवा परमाणु रूप में परिणत्त होने का जो काल हैं, वह 'अन्तर काल' है । वह अन्तर काल अनन्त है। क्योंकि बाकी सब स्कन्ध अनन्त है और उन प्रत्येक स्कन्ध की उत्कृष्ट स्थिति असंख्यात काल है । - जो निष्कंप का काल है वह सकंप का अन्तरकाल है। इसलिये कहा गया है कि सकंप का उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात काल है । सकंप का जो काल है, वह निष्कंप का अन्तर काल है । इसलिये यह कहा गया है कि निष्कंप का उत्कृष्ट अन्तर काल, आवलिका का असंख्यातवां भाग है । एक गुण कालत्वादि का अन्तर एक गुण कालत्वादि के काल के समान हैं, किन्तु द्विगुण कालत्वादि की अमन्तता के कारण उसका अन्तर अनन्त काल का नहीं है । सूक्ष्मादि परिणतों का अन्तर काल, उनके अवस्थान काल के समान है। क्योंकि एक का जो अवस्थान काल है, वह दूसरे का अन्तर काल है । यह असंख्येय काल का होता । है। पुद्गल द्रव्य का परमाणु, द्विप्रदेशी स्कन्ध आदि रूप से रहना 'द्रव्यस्थानायु' कह- . लाता है । एक प्रदेशादि क्षेत्र में पुद्गलों के अवस्थान को 'क्षेत्रस्थानायु' कहते हैं । इसी For Personal & Private Use Only Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ५ उ. ७ नैरयिक आरंभी परिग्रही तरह 'अवगाहना स्थानायु 'और' भावस्थानायु' के विषय में भी समझ लेना चाहिये। किंतु इतनी विशेषता है कि परिमित स्थान में पुद्गलों का रहना 'अवगाहनास्थानायु' कहलाता है । और पुद्गलों का श्यामत्वादि धर्म 'भाव स्थानायु' कहलाता है । शंका- अवगाहना और क्षेत्र में ऐसा क्या भेद है, जिससे यहाँ उनका पृथक् पृथक् कथन किया गया है । ८८४ समाधान - पुद्गलों से अवगाढ़ ( व्याप्त) स्थान 'क्षेत्र' कहलाता है । विवक्षित क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में भी पुद्गलों का परिमित क्षेत्र में रहना 'अवगाहना' कहलाती है । अर्थात् पुद्गलों का आधार स्थलं रूप एक प्रकार का आकार अवगाहना कहलाती हैं । और पुद्गलं जहां रहता है, वह 'क्षेत्र' कहलाता हैं । क्षेत्र स्थानायु, अवगाहनास्थानायु, द्रव्यस्थानायु और भाव स्थानायु - इन सब में क्षेत्र स्थानाय सब से थोड़ा है और बाकी के तीन असंख्य गुणा है । क्योंकि क्षेत्र अमूर्तिक होने से उसके साथ पुद्गलों को बंध का कारण 'स्निग्धत्व' न होने से पुद्गलों का क्षेत्रावस्थान काल सब से थोड़ा हैं। एक क्षेत्र में रहा हुआ पुद्गल दूसरे क्षेत्र में जाने पर भी उसकी वही अवगाहना रहती है । इसलिये क्षेत्र स्थानायु की अपेक्षा अवगाहना स्थानायु असंख्य गुण है । अवगाहना की निवृत्ति हो जाने पर भी द्रव्य लम्बे काल तक रहता है । इसलिये अवगाहनास्थानायु की अपेक्षा द्रव्य स्थानायु असंख्य गुणा है । द्रव्य की निवृत्ति होने पर भी गुणों का अवस्थान रहता है । अर्थात् द्रव्य में गुणों का बाहुल्य होने से सब गुणों का नाश नहीं होता, तथा द्रव्य का अन्यत्व होने पर भी बहुत से गुणों की स्थिति रहती है । इस लिये द्रव्यस्थानायु की अपेक्षा भावस्थानायु असंख्य गुणा है । नैरयिक आरंभी परिग्रही २८ प्रश्न - रइया णं भंते! किं सारंभा सपरिग्गहा, उदाहु अणारंभा अपरिग्गहा ? २८ उत्तर - गोयमा ! णेरइया सारंभा सपरिग्गहा, णो अणा For Personal & Private Use Only Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श ५ उ ७ असुरकुमार आरंभी परिग्रही रंभा णो अपरिग्गहा । २९ प्रश्न - से केणट्टेणं जाव - अपरिग्गहा ? २९ उत्तर-गोयमा ! णेरइया णं पुढविक्कायं समारंभंति, जावतसकार्य समारंभंतिः सरीरा परिग्गहिया भवंति कम्मा परिग्गहिया भवंति, सचित्ताऽचित्त- मीसियाई दव्वाइं परिग्गहियाइं भवंति - से तेणेणं तं चेव । कठिन शब्दार्थ-सारंभा - आरंभ सहित, सपरिग्गहा- परिग्रह सहित, उदाहु अथवा | भावार्थ - २८ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या नैरयिक आरम्भ और परिग्रह संहित हैं, या अनारम्भी और अपरिग्रही हैं ? २८ उत्तर - हे गौतम! नैरयिक आरम्भ और परिग्रह सहित हैं, किंतु अनारम्भी और अपरिग्रही नहीं हैं । ८८५ २९ प्रश्न - हे भगवन् ! किस कारण से वे आरम्भ और परिग्रह सहित है, किंतु अनारम्भी और अपरिग्रही नहीं हैं ? २९ उत्तर - हे गौतम! नैरयिक पृथ्वीकाय यावत् सकाय का समारम्भ करते हैं । उन्होंने शरीर परिगृहीत किये हैं, कर्म परिगृहीत किये हैं, सक्ति, अचित्त और मिश्र द्रव्य परिगृहीत किये हैं । इसलिए नैरयिक आरम्भ सहित हैं, परिग्रह सहित हैं, किन्तु अनारम्भी और अपरिग्रही नहीं हैं । असुरकुमार आरंभी परिग्रही ३० प्रश्न - असुरकुमारा णं भंते ! किं सारंभा पुच्छा ? ३० उत्तर - गोयमा ! असुरकुमारा सांरंभा सपरिग्गहा, णो For Personal & Private Use Only Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८६ भगवती सूत्र-श. ५ उ. ७ असुरकुमार आरंभी परिग्रही अणारंभा, अपरिग्गहा । ३१ प्रश्न-से केणटेणं ? ३१ उत्तर-गोयमा ! असुरकुमारा णं पुढविकायं समारंभति, जाव-तसकायं समारंभंति, सरीरा परिग्गहिया भवंति, कम्मा परिग्गहिया भवंति, भवणा परिग्गहिया भवंति; देवा, देवीओ, मणुस्सा, मणुस्सीओ, तिरिक्खजोणिया, तिरिक्खजोणिणीओ परिग्गहिया भवंति; आसण-सयण-भंड-मत्तोचगरणा परिग्गहिया भवंति; सचित्ताऽचित्त-मीसियाई दवाइं परिग्गहियाई भवंति-से तेणटेणं तहेव; एवं जाव-थणियकुमारा। -एगिदिया जहा णेरइया । ___ भावार्थ-३० प्रश्न-हे भगवन् ! क्या असुरकुमार, आरम्भ और परिप्रह सहित हैं, या अनारम्भी और अपरिग्रही हैं ? ___३० उत्तर-हे गौतम ! असुरकुमार, आरम्भ और परिग्रह सहित हैं, किन्तु अनारम्भी और अपरिग्रही नहीं हैं। ३१ प्रश्न-हे भगवन् ! इसका क्या कारण है ? ३१ उत्तर-हे गौतम ! असुरकुमार, पृथ्वीकाय यावत् त्रसकाय का समारंभ (वध) करते हैं। उन्होंने शरीर परिग्रहीत किये हैं, कर्म परिगहित किये हैं, भवन परिगृहीत किये हैं, देव, देवी, मनुष्य, मनुष्यिनी, तिर्यञ्च, तिर्यञ्चनी ये सब परिगृहीत किये हैं। आसन, शयन, भाण्ड, (मिट्टी के बर्तन)मात्रक, (कांसी के बर्तन) और उपकरण (लोहे की कड़ाही, कुड़छो आदि। परिगृहीत किये हैं। सचित्त, अचित्त और मिश्र द्रव्य परिगृहीत किये हैं। इसलिये वे आरंभ और परिग्रह सहित हैं, किन्तु अनारंभी और अपरिग्रही नहीं है। इसी प्रकार For Personal & Private Use Only Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र- ग. ५ उ. ७ बेइंद्रिय आदि का परिग्रह ८८७ स्तनितकुमारों तक कहना चाहिये। जिस प्रकार नरयिकों के लिये कहा है, उसी प्रकार एकेन्द्रियों के विषय में भी कहना चाहिये बेइंद्रिय आदि का परिग्रह ३२ प्रश्न-बेइंदिया णं भंते ! किं सारंभा सपरिग्गहा ? ३२ उत्तर-तं चेव जाव-सरीरा परिग्गहिया भवंति, बाहिरिया भंड-मत्तो वगरणा परिग्गहिया भवंति, एवं जाव-चउरिंदिया । ३३ प्रश्न-पंचिंदियतिरिक्खजोणिया णं भंते !० ३३ उत्तर-तं चेव जाव-कम्मा परिग्गहिया भवंति, टंका, कूडा, सेला, सिहरी, पब्भारा, परिग्गहिया भवंति, जल-थल-बिलगुहलेणा परिग्गहिया भवंति, उज्झर-णिज्झर-चिल्लल-पल्ललवप्पिणा परिग्गहिया भवंति, अगड-तडागदह-णइओ, वावि-पुक्खरिणी, दीहिया, गुंजालिया, सरा, सरपंतियाओ, सरसरपंतियाओ, बिलपंतियाओ परिग्गहियाओ भवंति; आरामु-जाणा, काणणा, वणा, वणसंडा, वणराईओ परिग्गहियाओ भवंति; देवउला-ऽऽसमपवा-थूभखाइय-परिखाओ परिग्गहियाओ भवंति, पागार-अट्ठालग-चरिय-दारगोपुरा परिग्गहिया भवंति, पासाय-घर-सरणलेणआवणा परिग्गहिया भवंति; सिंघाडग-तिग-चक्क चच्चर-चउम्मुह For Personal & Private Use Only Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८८. भगवती सूत्र -- श. ५ उ. ७ बेइंद्रिय आदि का परिग्रह महापहा परिग्गहिया भवंति, सगडरह जाण-जुग्ग-गिल्लि-थिल्लिसीय-संदमाणियाओ परिग्गहियाओ भवंति, लोही-लोहकडाह-कडुच्छया परिग्गहिया भवंति,भवणा परिग्गहिया भवंति, देवा, देवीओ मणुस्सा, मणुस्सीओ, तिरिक्खजोणिया, तिरिक्खजोणिणीओ; आसण-सयण-खंभ-भंड-सचित्ताऽचित्त-मीसियाई दव्वाइं परिग्गहिया भवंति-से तेणठेणं । .. -जहा तिरिक्खजोणिया तहा मणुस्सा वि भाणियब्वा, वाणमंतर-जोइस-वेमाणिया जहा भवणवासी तहा णेयव्वा । भावार्थ-३२ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या बेइन्द्रिय जीव, आरंभ और परिग्रह सहित है, अथवा अनारंभी और अपरिग्रही हैं ? ३२ उत्तर-हे गौतम ! बेइन्द्रिय जीव, आरंभ और परिग्रह सहित हैं, किन्तु अनारंभी और अपरिग्रही नहीं हैं। क्योंकि उन्होंने यावत् शरीर परिगृहीत किये हैं, और बाह्य भाण्ड (बर्तन) मात्रक, उपकरण, परिगृहीत किये हैं । इसी तरह चौइन्द्रिय तक कहना चाहिये । . ३३ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च योनिक जीव, आरंभ और परिग्रह सहित हैं, अथवा अनारम्भी और अपरिग्रही हैं ? । ____३३ उत्तर-हे गौतम ! पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च योनिक जीव, आरम्भ और परिग्रह सहित है, किंतु अनारम्भी और अपरिग्रही नहीं हैं, क्योंकि उन्होंने शरीर यावत् कर्म परिगृहीत किये हैं। उन्होंने टंक (पर्वत का छेदा हुआ टुकड़ा) कूट (शिखर अथवा हाथी बांधने का स्थान) शैल (मुण्ड पर्वत) शिखरी (शिखर वाले पर्वत) प्रागभार (थोडे झुके हुए पर्वत के हिस्से) परिगृहीत किये हैं। उन्होंने जल, स्थल, बिल, गुफा, लयन (पहाड़ में खोदकर बनाये हुए घर) परिगृहीत For Personal & Private Use Only Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-श. ५ उ. ७ बेइंद्रिय आदि का परिग्रह ८८९ किये हैं। उन्होंने उज्झर (पर्वत से गिरने वाला पानी का झरना) निर्झर (पानी का टपकना)चिल्लल (कीचड़ मिश्रित जल स्थान) पल्लल (आनन्ददायक जल स्थान) वप्रोण (क्यारा वाला जल स्थान अथवा तट वाला प्रदेश) परिगृहीत किये हैं। उन्होंने अगड (कुआ) तडाग (तालाब) द्रह (जलाशय) नदी, वापी (चतुष्कोण बावडी) पुष्करिणी (गोल बावडी अथवा कमलों युक्त बावडी) दीपिका (हौज अथवा लम्बी बाक्डो) गुञ्जालिका । टेढ़ी बावडी) सरोवर, सरपंक्ति (सरोवर श्रेणी) सरसरपंक्ति (एक तालाब से दूसरे तालाब में पानी जाने का नाला) बिलपंक्ति (बिलश्रेणी) परिगृहीत किये हैं। आराम (दम्पत्ति आदि के क्रीड़ा करने का स्थान-माधवी लता मण्डप) उद्यान (सार्वजनिक बगीचा) कानन (गांव के पास का वन) वन (गांव से दूर के वन) वनखण्ड ( जहाँ एक जाति के वृक्ष हो ऐसे वन) वनराजि (वृक्षों की पंक्ति) ये सब परिगृहीत किये हैं। देव कुल (मन्दिर) आश्रम (तापसादि का आश्रम) प्रपा (प्याऊ) स्तूभ (खम्भा) खाई (ऊपर चौडी और नीचे संकडी खोदी हुई खाई) परिखा (ऊपर और नीचे समान खोदी हुई खाई) ये सबै परिगृहीत किये हैं। प्राकार (किला) अट्टालक (किले पर बनाया हुआ एक प्रकार का मकान अथवा झरोखा) चरिका (घर और किले के बीच में हाथी आदि के जाने का मार्ग) द्वार (खिड़की) और गोपुर (नगर का दरवाजा) ये सब परिगहीत किये हैं। प्रासाद ( देव-भवन या राज-भवन ) घर ( सामान्य घर ) सरण (झोंपड़ा) लयन (गुहा गृह-पर्वत खोद कर बनाया हुआ घर) आपण-दूकान, ये सब परिगहीत किये है। शृंगाटक (सिघाडे के आकार का मार्ग-त्रिकोण मार्ग) त्रिक-जहां तीन मार्ग मिलते हैं ऐसा स्थान, चतुष्क-जहां चार मार्ग मिलते हैं ऐसा स्थान, चत्वर-जहां सब मार्ग मिलते हैं ऐसा स्थान अर्थात चौक चतुर्मुख-चार दरवाजे वाला मकान, महापय (महामार्ग-राजमार्ग) ये सब परिग्रहीत किये हैं। शकट-गाडी, रथ, यान-सवारी, युग्य (जम्यान-दो हाथ प्रमाण एक प्रकार की पालखी अथवा रिक्शागाडी) गिल्ली-अम्बाडी, थिल्ली-घोडे का पलान, शिविका–पालखी या डोली, स्यन्दमानिका-(म्याना, For Personal & Private Use Only Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८९. भगवती सूत्र-श. ५ उ. ७ हेतु अहेतु M सुख पालकी) ये सब परिगृहीत किये हैं। लौही (लोहे का एक बर्तन विशेष) लोहकड़ाह (लोहे की कड़ाही) कडुच्छक (कुड़छी) ये सब परिगृहीत किये हैं। भवन परिगृहीत किये हैं । देव, देवी, मनुष्य, मनुष्यिनी (स्त्री) तिर्यञ्च योनिक, तिर्यञ्चिनी, आसन, शयन, खण्ड (टुकड़ा) भाण्ड (बर्तन) सचित्त, अचित्त और मिश्र द्रव्य परिगृहीत किये हैं। इस कारण से पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च योनिक जीव, आरंभ और परिग्रह सहित हैं। किन्तु अनारंभी और अपरिग्रही नहीं हैं। __जिस प्रकार पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च योनिक जीवों के विषय में कहा, उसी प्रकार मनुष्यों के लिये भी कहना चाहिये। जिस प्रकार भवनपति देवों के विषय में कहा, उसी प्रकार वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक देवों के विषय में भी कहना चाहिये। विवेचन-यहाँ चौबीस ही दण्डकों के विषय में आरंभ और परिग्रह सम्बन्धी प्रश्नोत्तर किये गये हैं । प्रत्याख्यान न करने के कारण एकेंद्रिय आदि जीव भी आरम्भ परिग्रह से सहित हैं। हेतु अहेतु १-पंच हेऊ पण्णता, तं जहा-हेउं जाणइ, हेउं पासइ, हेर्ड बुज्झइ, हेउं अभिसमागच्छइ, हेउं छउमत्थमरणं मरइ। २-पंच हेऊ पण्णत्ता, तं जहा-हेउणा जाणई, जाव-हेउणा ' छउमत्थमरणं मरइ। ३-पंच हेऊ पण्णत्ता, तं जहा-हेर्ड ण जाणइ जाव-हेडं अण्णाणं मरणं मरइ। For Personal & Private Use Only Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ५ उ. ७ हेतु अहेतु - -पंच हेऊ पण्णत्ता, तं जहा-हेरणा ण जाणइ जाव-हेउणा अण्णाणमरणं मरइ । ५-पंच अहेऊ पण्णत्ता, तं जहा-अहेउं जाणइ, जाव-अहेडं केवलिमरणं मरह। ६-पंच अहेऊ पण्णत्ता, तं जहा-अहेउणा जाणह, जावअहेउणा केवलिमरणं मरइ। ७-पंच अहेऊ पण्णत्ता, तं जहा-अहेडं ण जाणइ, जाव-अहेडं छउमत्थमरणं मरइ। ८-पंच अहेऊ पण्णत्ता, तं जहा-अहेउणा ण जाणइ, जावअहेउणा छउमत्थमरणं मरइ। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति* ॥ पंचमसए सत्तमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ . ' कठिन शब्दार्थ-बुज्झह-श्रद्धता है, अभिसमागच्छइ-अच्छी तरह से प्राप्त करता है। भावार्थ-१ पांच हेतु कहे गये हैं । यथा-हेतु को जानता है, हेतु को देखता है, हेतु को श्रद्धता है, हेतु को अच्छी तरह प्राप्त करता है और हेतु युक्त छमस्थ मरण-मरता है। . २ पांच हेतु कहे गये हैं । यथा-हेतु से जानता है, यावत् हेतु से छप्रस्थ मरण मरता है। ३ पांच हेतु कहे गये हैं । यथा-हेतु फो नहीं जानता है, यावत् हेतु युक्त अज्ञान मरण मरता है। ४ पांच हेतु कहे गये हैं। यथा-हेतु से नहीं जानता हैं, यावत् हेतु से For Personal & Private Use Only Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८९२ भगवती सूत्र-श. ५ उ. ७ हेतु अहेतु : अज्ञान मरण मरता है। ___ ५ पांच अहेतु कहे गये हैं। यथा-अहेतु को जानता है, यावत् अहेतु युक्त केवलिमरण मरता है । ६ पांच अहेतु कहे गये हैं । यथा--अहेतु से जानता है। यावत् अहेतु से केवलिमरण मरता है। ७ पांच अहेतु कहे गये हैं । यथा-अहेतु को नहीं जानता है, यावत् अहेतु यक्त छद्मस्थमरण मरता है। ८ पांच अहेतु कहे गये हैं। यथा-अहेतु से नहीं जानता हैं, यावत् अहेतु से छद्मस्थमरण मरता है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। विवेचन-हेतुओं को बतलाने के लिये आठ सूत्र कहे गये हैं। उनमें से चार सूत्र छद्मस्थ की अपेक्षा से कहे गये हैं और आगे के चार सूत्र केवली (सर्वज्ञ) की अपेक्षा कहे गये हैं । साध्य का निश्चय करने के लिये साध्याविनाभूत कारण को 'हेतु' कहते हैं । जैसे कि-दूर से धूम को देखकर वहां अग्नि का ज्ञान करना । इस प्रकार के हेतु को देखकर छमस्थ पुरुष अनुमान द्वारा ज्ञान करता है । केवली प्रत्यक्ष ज्ञानी होने के कारण उनके लिये हेतु (अनुमान प्रमाण) की आवश्यकता नहीं है। पहले के चार सूत्रों में से पहला और दूसरा सूत्र सम्यग्दृष्टि छ अस्थ की अपेक्षा है, तथा तीसरा और चौथा सूत्र मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा से है । सम्यग्दृष्टि छमस्थ का मरण हेतु पूर्वक होता है, किन्तु उसका अज्ञान मरण नहीं होता । मिथ्यादृष्टि का मरण अज्ञान मरण होता है । केवली का मरण निर्हेतुक होता है। ___ हेतु को हेतु द्वारा, अहेतु को और अहेतु द्वारा इत्यादि रूप से आठ सूत्र कहे गये हैं । भिन्न भिन्न क्रिया की अपेक्षा से यहां पांच हेतु और पांच अहेतु कहे गये हैं । इन आठों सूत्रों का गूढार्थ तो बहुश्रुत महापुरुष ही जानते हैं । + ॥ इति पांचवें शतक का सातवां उद्देशक समाप्त ॥ + इन आठ सूत्रों के विषय में टीकाकार श्री अभयदेव सूरि ने लिखा है-“गमनिकामात्रमेवेदम् । अष्टानामप्येषां सूत्राणां भावार्थ तु बहुश्रना: विदन्ति"।। अर्थात यहाँ हेतुओं का अर्थ मात्र शब्दार्थ की दृष्टि से किया गया है। इनका वास्तविक भावार्य तो बहुश्रुत ही जानते है। For Personal & Private Use Only Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ५ उ. ८ निग्रंथी पुत्र अनगार के प्रश्न ८५३ शतक ५ उद्देशक ८ निग्रंथी पुत्र अनगार के प्रश्न तेणं कालेणं तेणं समएणं, जाव-परिसा पडिगया । तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी णारयपुत्ते णामं अणगारे पगइभदए, जाव-विहरइ । तेणं कालेणं तेणं समएणं संमणस्स भगवओ महावीरस्स जाव-अंतेवासी णियंठिपुत्ते णामं अणगारे पगइभद्दए, जाव-विहरइ; तएणं से णियंठिपुत्ते अणगारे जेणामेव णारयपुत्ते अणगारे तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवागच्छित्ता णारयपुत्तं अणगार एवं वयासी कठिन शब्दार्थ-जेणामेव-जहां, उवागच्छइ-आये । भावार्थ--उस काल उस समय में श्रमण भगवान महावीर स्वामी पधारे । परिषद् दर्शन के लिये गई, यावत् धर्मोपदेश श्रवण कर वापिस लौट आई । उस काल उस समय में श्रमण भगवान महावीर स्वामी के अन्तेवासी नारदपुत्र नाम के अनगार थे। वे प्रकृति भद्र थे, यावत् विचरते थे। ___ उस काल उस समय में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के अन्तेवासी निग्रंथीपुत्र नामक अनगार थे । वे प्रकृति से भद्र थे, यावत् विचरते थे। किसी समय निग्रंथीपुत्र अनगार, नारदपुत्र अनगार के पास आये और निग्रंथीपुत्र ने नारदपुत्र अनगार से इस प्रकार पूछा For Personal & Private Use Only Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ५ उ. ८ निग्रंथी पुत्र अनगार के प्रश्न १ प्रश्न - सव्यपोग्गला ते अजो ! किं सअड्ढा, समझा, सप एसा, उदाहु अणड्ढा, अमज्झा, अपएसा ? १ उत्तर- अजो ! ति णारयपुत्ते अणगारे नियंठिपुत्तं अणगार एवं वयासी - सव्वपोग्गला मे अज्जो ! सअड्ढा, समज्झा, मपएसा णो अड्ढा अमज्झा अपएसा । २ प्रश्न - तणं से नियंठिपुत्ते अणगारे णारयपुत्तं अणगार एवं वयासी - जड़ णं ते अज्जो ! सव्वपोग्गला सअड्ढा, समज्झा, सपएमा णो अणड्ढा, अमज्झा, अपएसाः किं दव्वादेसेणं अज्जो ! सव्वपोग्गला सअड्ढा, समज्झा, सपएसा, णो अणड्ढा, अमज्झा; अपएसा ? खेत्तादेमेणं अज्जो ! सव्वपोग्गला सअड्ढा तह चेव ? कालादेसेणं तं चेव ? भावादेसेणं तं चेव ? २ उत्तर - तणं से णारयपुत्ते अणगारे नियंठिपुत्तं अणगारं एवं वयासी - दव्वादेसेण वि मे अजो ! सव्वपोग्गला सअड्ढा; समज्झा, सपएसा; णो अणड्ढा, अमज्झा, अपएसा, खेत्ता देसेण वि कालादेसेण वि, भावादेसेण वि एवं चैव । ८९४ कठिन शब्दार्थ - दग्वादेसेणं-द्रव्यादेश से अर्थात् द्रव्य की अपेक्षा, खेसादेसेणंक्षेत्रादेश से, कालादेसेणं - कालादेश से, भावादेसेणं - भावादेश से । भावार्थ - १ प्रश्न - हे आर्य ! क्या तुम्हारे मतानुसार सब पुद्गल सार्द्ध, समध्य और सप्रदेश हैं ? अथवा अनर्द्ध, अमध्य और अप्रदेश हैं । र - ' हे आर्य !' इस प्रकार से सम्बोधित कर नारदपुत्र अनगार १ उत्तर For Personal & Private Use Only Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-श. ५ उ. ८ निग्रंथी पुत्र अनगार के प्रश्न ८९५ ने निग्रंथी पुत्र अनगार से इस प्रकार कहा-मेरे मतानुसार सब पुद्गल सार्द्ध, समध्य और सप्रदेश है, किन्तु अनर्द्ध, अमध्य और अप्रदेश नहीं है। २ प्रश्न-इसके पश्चात् निग्रंथीपुत्र अनगार ने नारदपुत्र अनगार से इस प्रकार कहा कि-हे आर्य ! यदि आपके मतानुसार सब पुद्गल सार्द्ध, समध्य और सप्रदेश हैं, किन्तु अनर्द्ध, अमध्य और अप्रदेश नहीं है, तो हे आर्य ! क्या द्रव्यादेश (द्रव्य की अपेक्षा) से सब पुद्गल सार्द्ध, समध्य और सप्रदेश हैं ? तथा अनर्द्ध, अमध्य और अप्रदेश नहीं है ? हे आर्य ! क्या क्षेत्रादेश, कालादेश और भावादेश की अपेक्षा से भी सभी पुद्गल इसी तरह हैं ?. २ उत्तर-तब नारदपुत्र अनगार ने निग्रंथी पुत्र अनगार से कहा कि-हे 'आर्य ! मेरी धारणानुसार द्रव्यादेश से भी सब पुद्गल सार्द्ध, समध्य और सप्रदेश हैं, किन्तु अनर्व, अमध्य और अप्रदेश नहीं है । इसी प्रकार क्षेत्रादेश, कालादेश और भावादेश की अपेक्षा से भी हैं। तएणं से णियंठिपुत्ते अणगारे णारयपुत्तं अणगारं एवं वयासीजइ णं अजो ! दब्बादेसेणं सव्वपोग्गला सअड्ढा, समझा, सपएसा; णो अणड्ढा, अमज्झा, अपएसा, एवं ते परमाणुपोग्गले वि सअड्ढे, समझे, सपएसे; णो अणड्ढे; अमझे, अपएसे; जइ णं अजो ! खेत्तादेसेण वि सव्वपोग्गला सअड्ढा, समज्झा, सपएसा; एवं ते एगपएसोगाढे वि पोग्गले सअड्ढे, समझे, सपएसे; जइ णं अबो ! कालांदेसेणं सव्वपोग्गला सअड्ढा, समज्झा, सपएसा; एवं ते एगसमयटुिंइए वि पोग्गले सअड्ढे, समझे, सपएसे-तं चेव; जह णं अजो ! भावादेसेणं सव्वपोग्गला सअड्ढा, समज्झा, सप For Personal & Private Use Only Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ५ उ. ८ निग्रंथी पुत्र अनगार के प्रश्न एसा; एवं ते एगगुणकालए वि पोग्गले सअड्ढे, समझे, सपएसे तं चेव; अह ते एवं ण भवइ तो जं वयसि ‘दव्बादेसेण वि सब्बपोग्गला सअइढा, समज्झा, सपएसा; णो अणड्ढा, अमज्झा, अपएमा; एवं खेत्त-कालभावादेसेण वि' तं णं मिच्छा। कठिन शब्दार्थ - मिच्छा-मिथ्या । भावार्थ-तब निग्रंथीपुत्र अनगार ने नारद पुत्र अनगार से इस प्रकार कहा कि-हे आर्य ! यदि द्रव्यादेश से सभी पुद्गल सार्द्ध, समध्य और सप्रदेश हैं, किंतु अनर्द्ध, अमध्य और अप्रदेश नहीं हैं, तब तो आपके मतानुसार परमाणु पुद्गल भी सार्द्ध, समध्य और सप्रदेश होना चाहिए, किंतु अनर्द्ध, अमध्य और अप्रदेश नहीं होना चाहिये । हे आर्य ! यदि क्षेत्रादेश मे भी सभी पुद्गल सार्द्ध, समध्य और सप्रदेश हैं, तो एक प्रदेशावगाढ़ पुद्गल भी सार्द्ध, समध्य और सप्रदेश होना चाहिये । हे आर्य ! यदि कालादेश से भी सभी पुद्गल सार्द्ध, समध्य और सप्रदेश है, तो एक समय की स्थिति वाला पुद्गल भी सार्द्ध, समध्य और सप्रदेश होना चाहिये । हे आर्य ! यदि भावादेश से. भी सभी पुद्गल सार्द्ध, समध्य और सप्रदेश हैं, तो एक गुण काला पुद्गल भी सार्द्ध, समध्य और सप्रदेश होना चाहिये। यदि आपके मतानुसार ऐसा न हो, तो जो आप यह कहते हैं कि द्रव्यादेश, क्षेत्रादेश, कालादेश और भावादेश से भी सभी पुद्गल सार्द्ध, समध्य और सप्रदेश हैं, किन्तु अनर्द्ध, अमध्य और अप्रदेश नहीं हैं, तो आपका कथन मिथ्या ठहरेगा ? | -तएणं से णारयपुत्ते अणगारे णियं ठिपुतं अणगारं एवं वयांसी-णो खलु देवाणुप्पिया ! एयमढे जाणामो, पासामो, जह णं देवाणुप्पिया णो गिलायंति परिकहित्तए तं इच्छामि णं देवाणु. For Personal & Private Use Only Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ५ उ. ८ निग्रंथी पुत्र अनगार के प्रश्न ८९७ प्पियाणं अतिए एयमटुं सोचा, णिसम्म जाणित्तए । -तएणं से णियंठिपुत्ते अणगारे णारयपुत्तं अणगार एवं वयासी-दव्वादेसेण वि मे अजो ! सव्वे पोग्गला सपएसा वि, अप्पएसा वि अणंता; खेत्तादेसेण वि एवं चेव, कालादेसेण वि, भावादेसेण वि एवं चेव, जे दव्वओ अपएसे से खेत्तओ णियमा अपएसे, कालओ सिय सपएसे, सिय अपएसे, भावओ सिय सपएसे, सिय अपएसे । जे खेत्तओअपएसे से दवओ सिय सपएसे, सिय अपएसे, कालओ भयणाए, भावओ भयणाए; जहा खेत्तओ एवं कालओ, भावओ। जे दव्वओ सपएसे से खेत्तओ सिय सपएसे, सिय अपएसे; एवं कालओ, भावओ वि । जे खेत्तओ सपएसे से दबओ णियमा सपएसे, कालओ भयणाए, भावओ भयणाए, जहा दव्वओ तहा कालओ, भावओ वि। कठिन शब्दार्थ- परिकहित्तए-कहने से । भावार्थ-इसके बाद नारदपुत्र अनगार ने निग्रंथीपूत्र अनगार से इस प्रकार कहा कि-हे देवानुप्रिय ! मैं इस अर्थ को नहीं जानता हूँ और नहीं देखता हूँ। हे देवानुप्रिय ! यदि इस अर्थ को कहने में आपको ग्लानि (कष्ट) नहीं हो, तो में आप देवानुप्रिय के पास इस अर्थ को सुनकर और जानकर अवधारण करना चाहता हूँ। इसके बाद निग्रंथीपुत्र अनगार ने नारदपुत्र अनगार से इस प्रकार कहा कि-हे आर्य ! मेरी धारणानुसार द्रव्यादेश से भी सभी पुद्गल सप्रदेश भी हैं और अप्रदेश भी हैं। वे पुद्गल अनन्त हैं । क्षेत्रादेश, कालादेश और भावदेश For Personal & Private Use Only Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८९८ भगवती सूत्र--श. ५ उ. ८ निग्रंथी पुत्र अनगार के प्रश्न से भी इसी प्रकार जानना चाहिए। द्रव्यादेश से जो पुदगल अप्रदेश हैं, वे क्षेत्रादेश से नियमा-निश्चित रूप से अप्रदेश हैं। कालादेश से कदाचित सप्रदेश और कदाचित् अप्रदेश होते हैं और भावादेश से भी कदाचित् सप्रदेश और कदाचित् अप्रदेश होते हैं । क्षेत्रादेश से जो पुद्गल अप्रदेश होते हैं, वे द्रव्यादेश से कदाचित् सप्रदेश और कदाचित् अप्रदेश होते हैं। कालादेश से और भावादेश से भी मजना-विकल्प से जानना चाहिए। जिस प्रकार अप्रदेशी पुद्गल के विषय में क्षेत्रादेश' का कथन किया है, उसी प्रकार कालादेश और भावादेश का भी कथन करना चाहिए । जो पुद्गल द्रव्यादेश से सप्रदेश होता है, वह क्षेत्रादेश से कदाचित् सप्रदेश और कदाचित् अप्रदेश होता है। इसी तरह कालादेश और भावादेश से भी जान लेना चाहिए । जो पुद्गल क्षेत्रादेश से सप्रदेश होता है, वह द्रव्यादेश से नियमा सप्रदेश होता है । कालादेश से और भावादेश से भजना-विकल्प से होता है । जिस प्रकार सप्रदेशी पुद्गल के विषय में द्रव्यादेश का कथन किया, उसी प्रकार कालादेश और भावादेश का भी कथन करना चाहिए। ३ प्रश्न-एएसि णं भंते ! पोग्गलाणं दव्वादेसेणं; खेत्तादेसेणं; कालादेसेणं, भावादेसेणं सपएसाणं, अपएसाणं कयरे कयरे जावविसेसाहिया वा ? . ३ उत्तर-णारयपुत्ता ! सव्वत्थोवा पोग्गला भावादेसेणं अपएसा, कालादेसेणं अपएसा असंखेजगुणा, दव्वादेसेणं अपएसा असंखेजगुणा, खेत्तादेसेणं अपएसा असंखेजगुणा, खेत्तादेसेणं चेव सपएसा असंखेजगुणा; दव्वादेसेणं सपएसा विसेसाहिया, कालादेसेणं For Personal & Private Use Only Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र -- . ५ उ ८ निग्रंथी पुत्र अनगार के प्रश्न सपएमा विमाहिया भावादेसेणं सपएमा विसेसाहिया । - तरणं से गारयपुत्ते अणगारे नियंठिपुत्तं अणगारं बंद णमंमइ, वंदित्ता णमंसित्ता एवं अहं सम्मं विणणं भुज्जो भुज्जो खामेइ, खामित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे जाव - विहरइ | ८९९ कठिन शब्दार्थ - भुज्जो भुज्जो - बारबार । भावार्थ ३ प्रश्न - - हे भगवन् ! द्रव्यादेश से, क्षेत्रादेश से, कालादेश से और भावादेश से सप्रदेश और अप्रदेश पुद्गलों में कौन किससे कम, ज्यादा, तुल्य और विशेषाधिक हैं ? ३ उत्तर - हे नारदपुत्र ! भावादेश से अप्रदेश पुद्गल सब से थोडे हैं । उनसे कालादेश की अपेक्षा अप्रदेश पुद्गल असंख्य गुणा हैं। उनसे द्रव्यादेश की अपेक्षा अप्रदेश पुद्गल असंख्य गुणा हैं। उनसे क्षेत्रादेश की अपेक्षा अप्रदेश पुद्गल असंख्यगुणा है । उनसे क्षेत्रादेश से सप्रदेश पुद्गल असंख्यगुणा हैं। उनसे द्रव्यादेश की अपेक्षा सप्रदेश पुद्गल विशेषाधिक हैं। उनसे कालादेश की अपेक्षा प्रदेश पुद्गल विशेषाधिक हैं । और उनसे भावादेश की अपेक्षा सप्रदेश पुद्गल विशेषाधिक हैं । इसके बाद नारदपुत्र अनगार ने निग्रंथी पुत्र अनगार को वन्दना नमस्कार किया । वन्दना नमस्कार करके अपनी कही हुई मिथ्या बात के लिये उनसे विनय पूर्वक बारंबार क्षमायाचना की क्षमायाचना करके संयम और तप द्वारा अपनी आत्मा को भावित करते हुए यावत् विचरने लगे । विवेचन - सातवें उद्देशक में स्थिति की अपेक्षा से पुद्गलों का कथन किया गया हैं । अब इस आठवें उद्देशक में उन्हीं पुद्गलों का प्रदेश की अपेक्षा कथन किया जाता है । द्रव्य की अपेक्षा परमाणुत्व आदि का कथन करना द्रव्यादेश कहलाता है । एक प्रदेशावगाढत्व ( एक प्रदेश में रहना ) इत्यादि का कथन क्षेत्रादेश कहलाता है । एक समय की स्थिति इत्यादि का कथन कालादेश कहलाता है, और एक गुण काला इत्यादि कथन भावादेश 'कहलाता है। For Personal & Private Use Only Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ५ उ ८ निर्ग्रथीपुत्र अनगार के प्रश्न निर्ग्रथीपुत्र अनगार ने अपने कथन में सप्रदेश और अप्रदेश का निरुपण किया है । तो सप्रदेश में सार्द्ध और समध्य का ग्रहण करना चाहिये और अप्रदेश में अनर्द्ध और अमध्य का ग्रहण करना चाहिये । सप्रदेश और अप्रदेश पुद्गल अनन्त हैं । अब द्रव्यादि की अपेक्षा पुद्गलों की अप्रदेशता और सप्रदेशता बतलाई जाती है। जो पुद्गल द्रव्य से अप्रदेश ( परमाणु रूप ) है, वह क्षेत्र से नियमा अप्रदेश होता है । क्योंकि वह पुद्गल क्षेत्र के एक प्रदेश में ही रहता है, दों प्रदेश आदि में नहीं । काल से वह पुद्गल यदि एक समय की स्थिति वाला है, तो अप्रदेश है और अनेक समय की स्थिति वाला है, तो प्रदेश है । इसी तरह भाव से जो एक गुण काला आदि है, तो अप्रदेश है, और अनेक गुणकाला आदि हैं, तो सप्रदेश है। यह द्रव्य की अपेक्षा से अप्रदेश पुद्गल का कथन किया गया है । ९०० अब क्षेत्र की अपेक्षा अप्रदेश पुद्गल का कथन किया जाता है । जो पुद्गल क्षेत्र से अप्रदेश होता है, वह द्रव्य से कदाचित् सप्रदेश और कदाचित् अप्रदेश होता है । क्योंकि क्षेत्र के एक प्रदेश में रहने वाले द्वयणुकादि सप्रदेश हैं, किन्तु क्षेत्र से अप्रदेश हैं । तथा परमा एक प्रदेश में रहने वाला होने के कारण जैसे द्रव्य से अप्रदेश है, वैसे ही क्षेत्र से भी अप्रदेश है । जो पुद्गल क्षेत्र से अप्रदेश है, वह काल से कदाचित् सप्रदेश और कदाचित् अप्रदेश होता है । जैसे कि कोई पुद्गल एक प्रदेश में रहने वाला है और एक समय की स्थिति वाला है, तो काल की अपेक्षा भी अप्रदेश है । इसी तरह कोई पुद्गल जो एक प्रदेश में रहने वाला है किन्तु अनेक समय की स्थिति वाला है, तो काल की अपेक्षा सप्रदेश है । जो पुद्गल क्षेत्र की अपेक्षा अप्रदेश है, यदि वह एक गुण काला आदि है, तो भाव की अपेक्षा भी प्रदेश है और यदि अनेक गुण काला आदि है, तो क्षेत्र की अपेक्षा अप्रदेश होते हुए भी भाव की अपेक्षा सप्रदेश है । अब काल की अपेक्षा और भाव की अपेक्षा अप्रदेश पुद्गल का कथन किया जाता है । जिस प्रकार क्षेत्र से अप्रदेश पुद्गल का कथन किया गया है, उसी प्रकार काल से और भाव से भी कहना चाहिये । यथा - जो पुद्गल काल से अप्रदेश होता है, वह द्रव्य से, क्षेत्र से और भाव से कदाचित् सप्रदेश होता है और कदाचित् अप्रदेश होता है जो पुद्गल भाव से अप्रदेश होता है, वह द्रव्य से, क्षेत्र से और काल से कदाचित् सप्रदेश होता है और कदाचित् अप्रदेश होता है । अब प्रदेश पुद्गल के विषय में कथन किया जाता है । जो पुद्गल द्वयणुकादि रूप For Personal & Private Use Only Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र--श. ५ उ. . निग्रंथी पुत्र अनगार के प्रश्न होने से द्रव्य से सप्रदेश होता है, वह क्षेत्र से कदाचित् सप्रदेश और कदाचित् अप्रदेश होता है । क्योंकि यदि वह दो प्रदेशों में रहता है, तो सप्रदेश है और एक प्रदेश में रहता है, तो भप्रदेश है । इसी तरह काल से और भाव से भी कहना चाहिये । दो प्रदेश आदि में रहने वाला पुद्गल क्षेत्र से सप्रदेश है, वह द्रव्य से भी सप्रदेश ही होता है। क्योंकि जो पुद्गल द्रव्य से अप्रदेश होता है, वह दो आदि प्रदेशों में नहीं रह सकता है । जो पुद्गल क्षेत्र से सप्रदेश होता है। वह काल से और भाव से कदाचित् सप्रदेश होता है और कदाचित अप्रदेश होता है। जो पुद्गल काल से सप्रदेश होता. है, वह द्रव्य से, क्षेत्र से और भाव से कदाचित् सप्रदेश होता है और कदाचित् अप्रदेश होता है । जो पुद्गल भाव से सप्रदेश होता है, वह द्रव्य से, क्षेत्र से और काल से कदाचित् सप्रदेश होता है, और कदाचित् अप्रदेश होता है । सप्रदेश और अप्रदेश पुद्गलों का अल्प बहुत्व जो ऊपर बतलाया गया है, वह स्पष्ट है । सब से थोड़े भाव से अप्रदेश पुद्गल हैं। जैसे-एक गुण काला और एक गुण नीला आदि । उनसे काल से अप्रदेशी पुद्गल असंख्यात गुणा हैं। जैसे-एक समय की स्थिति वाले पुद्गल । उनसे द्रव्य से अप्रदेशी पुद्गल असंख्यात गुणा हैं । जैसे-सभी परमाणु पुद्गल । उनसे क्षेत्र से अप्रदेशी पुद्गल असंख्यात गुणा हैं । जैसे-एक एक आकाश प्रदेश अवगाहन करने वाले पुद्गल । उनसे क्षेत्र से सप्रदेशी पुद्गल असंख्यात गुणा हैं । जैसे-द्विप्रदेशावगाढ़ त्रिप्रदेशावगाढ़ यावत् असंख्यात प्रदेशावगाढ़ पुद्गल । उनसे द्रव्य से सप्रदेशी पुद्गल विशेषाधिक हैं । जैसे-द्वि प्रदेशी स्कन्ध, त्रिप्रदेशी स्कन्ध यावत् अनन्त प्रदेशी स्कन्ध । उनसे काल से सप्रदेशी पुद्गल विशेषाधिक हैं। जैसे-दो समय की स्थिति वाले, तीन समय की स्थिति वाले यावत् असंख्यात समय की स्थिति वाले पुद्गल । उनसे भाव से सप्रदेशी पुद्गल विशेषाधिक हैं । जैसे-दो गुण काले, तीन गुण काले यावत् अनन्त गुण काले पुद्गल आदि इस अल्पबहुत्व को समझाने के लिये कहा गया है। ठाणे ठाणे वडइ भावाईणं जं अप्पएसाणं । तं चिय भाषाईणं परिभस्सइ सप्पएसागं ॥ अर्थात् स्थान स्थान पर जो भावादिक अप्रदेशों की वृद्धि होती है, वही भावादिक सप्रदेशों की हानि होती है। जैसे कि-कल्पना से सब पुद्गलों की संख्या एक लाख मानली जाय, तो उन में भाव से अप्रदेश पुद्गल १००० हैं, काल से अप्रदेश पुद्गल २००० हैं, For Personal & Private Use Only Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९०२ भगवती सूत्र-श. ५ उ. ८ जीवों की हानि और वृद्धि द्रव्य से अप्रदेश पुद्गल ५००० हैं और क्षेत्र से अप्रदेश पुद्गल १०००० हैं, भाव से सप्रदेश पुद्गल ९९००० हैं, काल से सप्रदेश पुद्गल ९८००० हैं, द्रव्य से सप्रदेश पुद्गल ९५००० हैं और क्षेत्र से सप्रदेश पुद्गल ९०००० हैं। ऐसा होने से भाव अप्रदेशों की अपेक्षा काल अप्रदेशों में १००० बढ़ते हैं और वही १००० की संख्या भाव सप्रदेशों की अपेक्षा काल सप्रदेशों में कम हो जाती है । इसी तरह दूसरे स्थानों पर भी जान लेना चाहिये । इसकी स्थापना इस प्रकार है भाव से काल से द्रव्य से क्षेत्र से । अप्रदेश १००० २००० ५००० १०००० मप्रदेश ९९००० ९८००० ९५०. ० ९०.०० पूदगलों की यह एक लाख की संख्या, समझाने के लिये कल्पित की गई है। वास्तव में जिनेश्वर भगवान् ने तो अनन्त कही है। ____ जीवों को हानि और वृद्धि ४ प्रश्न-भंते !' त्ति भगवं गोयमे जाव-एवं वयासी-जीवा णं भंते ! किं वड्डंति, हायंति, अवट्ठिया ? ४ उत्तर-गोयमा ! जीवा णो वड्ढंति, णो हायंति, अवट्ठिया । ५ प्रश्न-णेरइया णं भंते ! किं वदंति, हायंति, अवट्ठिया ? ५ उत्तर-गोयमा ! णेरइया वड्ढंति वि, हायंति वि, अवट्टिया 'वि-जहा णेरड्या एवं जाव-चेमाणिया । ६ प्रश्न-सिद्धा णं भंते ! पुच्छा ? ६ उत्तर-गोयमा ! सिद्धा वड्दंति, णो हायंति, अवट्टिया वि । कठिन शब्दार्थ-वड्ढंति-बढ़ते हैं, हायंति-घटते हैं, अवट्ठिया-अवस्थित । For Personal & Private Use Only Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-ग. ५ उ. ८ जीवों की हानि और वृद्धि भावार्थ-४ प्रश्न-हे भगवन् ! गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से इस प्रकार पूछा-'हे भगवन् ! क्या जीव बढ़ते है ? घटते हैं ? या अवस्थित रहते हैं ? ४ उत्तर-हे गौतम ! जीव बढ़ते नहीं हैं, घटते नहीं है, किन्तु अवस्थित __५ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या नरयिक जीव, बढ़ते हैं ? घटते हैं ? या अवस्थित रहते हैं। __५ उत्तर-हे गौतम ! नरयिक बढ़ते भी हैं, घटते भी हैं और अवस्थित भी रहते हैं। जिस प्रकार नरयिकों के विषय में कहा है, उसी प्रकार वैमानिक पर्यन्त चौबीस ही दण्डक के जीवों के लिए कहना चाहिए। ६ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या सिद्ध भगवान् बढ़ते हैं, घटते हैं, या अवस्थित रहते हैं ? ___६ उत्तर-हे गौतम ! सिद्ध भगवान् बढ़ते हैं, घटते नहीं, अवस्थित भी रहते हैं। ७ प्रश्न-जीवा णं भंते ! केवइयं कालं अवट्ठिया ? ७ उत्तर-गोयमा ! सव्वधं । ८ प्रश्न-णेरइया णं भंते ! केवइयं कालं वदति ? ८ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं एगं समय, उक्कोसेणं आवलियाए असंखेजइभागं । एवं हायंति वा।। ९ प्रश्न-णेरइया णं भंते ! केवइयं कालं अवट्ठिया ? . ९ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं एगं समयं, उक्कोसेणं चवीसं For Personal & Private Use Only Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ५ उ. ८ जीवों की हानि और वृद्धि मुहुत्ता । एवं मत्तसु वि पुढवीसु वदंति, हायंति-भाणियव्वा, णवरं-अवट्ठिएसु इमं णाणत्तं, तं जहा-रयणप्पभाए पुढवीए अडयालीसं मुहुत्ता, सक्करप्पभाए चउद्दस राइंदिया णं, वालुयप्पभाए मासो, पंकप्पभाए दो मासो, धूमप्पभाए चत्तारि मासा, तमाए अट्ट मामा,तमतमाए वारस मासा। असुरकुमारा वि वड्दति हायंति जहा णेरइया । अवट्ठिया जहण्णेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं अट्टचत्तालीसं मुहुत्ता । एवं दमविहा वि । कठिन शब्दार्थ-सव्वद्धं-सब काल । भावार्थ-७ प्रश्न-हे भगवन् ! जीव, कितने काल तक अवस्थित रहते हैं ? ७ उत्तर-हे गौतम ! सर्वाद्धा अर्थात् सब काल जीव, अवस्थित रहते हैं। ८ प्रश्न-हे भगवन् ! नैरयिक कितने काल तक बढ़ते हैं ? ८ उत्तर-हे गौतम ! नरयिक जीव, जघन्य एक समय और उत्कृष्ट आवलिका के असंख्य भाग तक बढ़ते हैं। जिस प्रकार बढ़ने का काल कहा है, उसी प्रकार घटने का काल भी कहना चाहिए। ९ प्रश्न-हे भगवन् ! नैरयिक जीव, कितने काल तक अवस्थित रहते हैं ? ____९ उत्तर-हे गौतम ! नैरयिक जीव, जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट चौबीस मुहूर्त तक अवस्थित रहते हैं। इसी प्रकार सातों पश्वियों में बढ़ते हैं, घटते हैं। किन्तु अवस्थितों में इस प्रकार भिन्नता है-रत्नप्रभा पृथ्वी में ४८ महत, शर्कराप्रभा में चौदह अहोरात्रि, बालकाप्रभा में एक मास. पंकप्रभा में दो मास, धूमप्रभा में चार मास, तमःप्रभा में आठ मास और तमस्तमःप्रभा For Personal & Private Use Only Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श ५ उ. ८ जीवों की हानि और वृद्धि में बारह मास का अवस्थान काल है । जिस प्रकार नरयिक जीवों के विषय में कहा है, उसी प्रकार असुरकुमार बढ़ते हैं, घटते हैं । जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अड़तालीस मुहूर्त्त तक अवस्थित रहते हैं । इसी प्रकार दस ही प्रकार के भवनपति देवों के विषय में कहना चाहिए । ९०५ एगिंदिया बड्ढं ते वि, हायंति वि, अवट्टिया वि । एएहिं तिहि वि जहणेणं एक्कं समयं, उक्को सेणं आवलियाए असं खेजड़ भागं । बेइंदिया वति, हायंति, तहेव, अवट्टिया जहण्णेणं एक्कं 2 समयं उकोसेणं दो अंतोमुहुत्ता । एवं जाव - चउरिंदिया । अवसेसा सव्वे वदंति हायंति, तहेव, अवद्रियाणं णाणत्तं इमं तं जहा - संमुच्छिमपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं दो अंतोमुहुत्ता, गन्भवक्कंतियाणं चउव्वीसं मुहुत्ता, संमुच्छिममणुस्साणं अट्ठचत्तालीसं मुहुत्ता, गव्र्भवक्कंतियमणुस्साणं चउवीसं मुहुत्ता, वाणमंतरजोइससोहम्मी-साणेसु अट्ट चत्तालीसं मुहुत्ता, सणकुमारे अट्टारस राईदियाईचत्तालीस य मुहुत्ता, माहिंदे चउवीसं राइंदियाइंवीस य मुहुत्ता, बंभलोए पंचचत्तालीसं राहंदियाई, लंतए उई राहंदियाई, महासुक्के सर्द्वि राईदियसयं, सहस्सारे दो राईदियसयाई, आणयपाणयाणं संखेज्जा मासा, आरण- ऽच्चयाणं संखेजाई वासाई, एवं For Personal & Private Use Only Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ५ उ. ८ जीवों की हानि और वृद्धि गेवेजदेवाणं; विजय-वेजयंत-जयंत-अपराजियाणं असंखेजाइं वाससहस्साइं, सव्वट्ठसिधे, पलिओवमस्स संखेजहभागो; एवं भाणियव्वं वढंति, हायंति जहण्णेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं आवलियाए असंखेजइभागं, अवट्ठियाणं जं भणियं । कठिन शब्दार्थ-भवक्कंतिया-गर्भ से उत्पन्न होने वाले, संमच्छिम--बिना गर्भ के उत्पन्न होने वाले। . भावार्थ--एकेंद्रिय जीव बढ़ते भी हैं, घटते भी हैं और अवस्थित भी रहते हैं। एकेंद्रिय जीवों में हानि वृद्धि और अवस्थान, इन तीनों का काल जघन्य एक समय और उत्कृष्ट आवलिका का असंख्य भाग समझना चाहिए। बेइन्द्रिय और तेइन्द्रिय भी इसी प्रकार बढ़ते हैं और घटते हैं। अवस्थान में विशेषता इस प्रकार है-जघन्य एक समय और उत्कृष्ट दो अन्तर्मुहूर्त तक अवस्थित रहते हैं । इस प्रकार चतुरिन्द्रिय जीवों तक कहना चाहिए। बाकी के जीव कितने काल तक बढ़ते हैं और घटते हैं ? यह पहले की तरह कहना चाहिए। किन्तु 'अवस्थान' के विषय में अन्तर है, वह इस प्रकार हैसम्मच्छिम पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च योनिक जीवों का अवस्थान काल दो अन्तर्मुहूर्त है । गर्भज पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च योनिक जीवों का अवस्थान काल चौबीस मुहर्त . है। सम्मच्छिम मनुष्यों का अवस्थान काल अड़तालीस मुहूर्त है। गर्भज मनुष्यों का अवस्थान काल चौबीस मुहूर्त है। वाणव्यन्तर, ज्योतिषी, सौधर्म देवलोक और ईशान देवलोक में अवस्थान काल अड़तालीस मुहर्त है । सनत्कुमार देवलोक में अठारह रात्रिदिवस और चालीस मुहूर्त अवस्थान काल है । माहेन्द्र देवलोक में चौबीस रात्रिदिवस और बीस मुहूर्त, ब्रह्मलोक में पैंतालीस रात्रिदिवस, लान्तक देवलोक में ९० रात्रिदिवस, महाशुक्र में एक सौ साठ रात्रिदिवस सहस्रार देवलोक में दो सो रात्रिदिवस, आणत और प्राणत देवलोक में संख्येय मास. आरण और अच्युत देवलोक में संख्येय वर्षों का अवस्थान काल है । इसी For Personal & Private Use Only Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र -- श. ५ उ ८ निर्ग्रथी पुत्र अनगार के प्रश्न तरह नवग्रैवेयक के विषय में जान लेना चाहिए। विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित देवों का अवस्थान काल असंख्य हजार वर्षों का है । सर्वार्थसिद्ध विमानवासी देवों का अवस्थान काल पल्योपम के संख्यातवें भाग है । तात्पर्य यह है कि जघन्य एक समय और उत्कृष्ट आवलिका के असंख्य भाग तक ये बढ़ते हैं। और घटते हैं तथा इनका अवस्थान काल तो ऊपर बतला दिया गया हैं । १० प्रश्न - सिद्धा णं भंते ! केवइयं कालं वदंति ? १० उत्तर - गोयमा ! जहणेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं अट्ट समया । ११ प्रश्न - केवइयं कालं अवट्टिया ? ११ उत्तर - गोयमा ! जहणेणं एक्कं समयं, उक्को सेणं छम्मासा | ९०७ भावार्थ - १० प्रश्न - हे भगवन् ! सिद्ध भगवान् कितने समय तक बढ़ते हैं ? १० उत्तर - हे गौतम ! जघन्य एक समय और उत्कृष्ट आठ समय तक सिद्ध भगवान् बढ़ते हैं । ११ प्रश्न - हे भगवन् ! सिद्ध भगवान् कितने काल तक अवस्थित रहते हैं ? ११ उत्तर - हे गौतम ! जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छह मास तक सिद्ध भगवान् अवस्थित रहते हैं । १२ प्रश्न - जीवा णं भंते! किं सोवचया, सावचया, सोवचयसावचया, निस्वचय-निरवचया ? For Personal & Private Use Only Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2,0% भगवती सूत्र - श. ५ उ ८ जीवों की हानि और वृद्धि १२ उत्तर - गोयमा ! जीवा णो सोवचयाः णो सावचया, णो सोवचय-सावचया, णिश्वचय- णिरवचया, एगिंदिया तईयपए, सेसा जीवा चहिं परहिं भाणियव्वा । १३ प्रश्न - सिद्धा णं पुच्छा ! १३ उत्तर - गोयमा ! सिद्धा सोवचया, णो सावचया, णो सोवचयसावचया, णिस्वचय- णिरवचया । कठिन शब्दार्थ - सोवचया - उपचय सहित - वृद्धि सहित, सावचया- अपचय सहित - हानि सहित । भावार्थ - १२ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या जीव सोपचय ( उपचय सहित ) हैं ? सापचय (अपचय सहित ) हं ? सोपवय सापचय ( उपचय और अपचय सहित ) हैं ? या निरूपचय, निरपचय ( उपचय और अपचय रहित ) हैं ? १२ उत्तर - हे गौतम! जीव सोपचय नहीं हैं, सापचय नहीं हैं, सोपचय सापचय नहीं हैं, परन्तु निरूपचय, निरपचय हैं। एकेंद्रिय जीवों में तीसरा पद (विकल्प) कहना चाहिये । अर्थात् एकेंद्रिय जीव, सोपचयसापचय हैं। बाकी सब जीवों में चारों पद कहना याहिये । १३ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या सिद्ध भगवान् सोपचय है, सापचय हैं, सोपचय सापचय हैं, या निरूपचय निरपचय हैं ? १३ उत्तर - हे गौतम ! सिद्ध भगवान् सोपचय हैं. सापचय नहीं हैं, सोपचयापचय भी नहीं हैं। निरूपचयनिरपचय हैं । १४ प्रश्न - जीवा णं भंते ! केवइयं कालं णिरुवचय-रिवचया ? For Personal & Private Use Only Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ५ उ. ८ जीवों की हानि और वृद्धि १४ उत्तर-गोयमा ! सव्वद्ध । १५ प्रश्न-णेरइया णं भंते ! केवइयं कालं सोवचया ? १५ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं एक समयं, उक्कोसेणं आव. लियाए असंखेजइभागं। १६ प्रश्न-केवइयं कालं सावचया ? १६ उत्तर-एवं चेव । १७ प्रश्न-केवइयं कालं सोवचय-सावचया ? १७ उत्तर-एवं चेव । १८ प्रश्न-केवइयं कालं णिस्वचय-णिरवचया ? १८ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं एक्कं समय, उक्कोसेणं बारस मुहुत्ता। एगिंदिया सव्वे सोवचयासावचया सव्वद्धं, सेसा सव्वे सोवचया वि, सावच्या वि, सोवचय-सावचया वि णिस्वचयणिरवचया वि, जहण्णेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं आवलियाए असंखेजइभागं । अवट्ठिएहिं वक्कंतिकालो भाणियव्यो । भावार्थ-१४ प्रश्न-हे भगवन् ! जीव, कितने काल तक निरुपचय निरपचय रहते हैं ? १४ उत्तर-हे गौतम ! सभी काल तक जीक, निरुपचय निरपचय रहते १५ प्रश्न-हे भगवन् ! नैरयिक, कितने काल तक सोपचय रहते हैं ? १५ उत्तर-हे गौतम ! जघन्य एक समय और उत्कृष्ट आवलिका के For Personal & Private Use Only Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र ---- ग. ५ उ. 1. जीवों की हानि और वद्धि असंख्य भाग तक नैरयिक, सोपचय रहते हैं। १६ प्रश्न-हे भगवन् ! नरयिक कितने काल तक सापचय रहते हैं ? १६ उत्तर-हे गौतम ! जितना सोपचय का काल कहा, उतना ही सापचय का कहना चाहिये । १७ प्रश्न-हे भगवन् ! नैरयिक कितने काल तक सोपचय-सापचय रहते हैं ? १७ उत्तर-हे गौतम ! सोपचय का जो काल कहा गया है, उतना ही सोपचय-सापचय का कहना चाहिये। १८ प्रश्न-हे भगवन ! नैरयिक जीव, कितने काल तक निरुपचय निरपचय रहते हैं ? . १८ उत्तर-हे गौतम ! जघन्य एक समय और उत्कृष्ट बारह मुहूर्त तक नैरयिक, निरुपचय निरपचय रहते हैं। सभी एकेंद्रिय जीव, सभी काल सोपचय सापचय रहते हैं। बाकी सभी जीवों में सोपचय, सापचय और सोपचयसापचय हैं। इन सब का काल जघन्य एक समय और उत्कृष्ट आवलिका का असंख्यातवां भाग है। अवस्थितों (निरुपचय निरपचय) में व्यत्क्रान्ति काल (विरहकाल) के अनुसार कहना चाहिये। १९ प्रश्न-सिद्धा णं भंते ! केवइयं कालं मोवचया ? १९ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं एगं समयं, उक्कोसेणं अट्ठ समया। २० प्रश्न-केवइयं कालं णिरुवचय-णिरवचया ? २० उत्तर-जहण्णेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं छ मासा । * सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति* ॥ पंचमसए अट्ठमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ For Personal & Private Use Only Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ५ उ. ८ जीवों की हानि और वृद्धि भावार्थ-१९ प्रश्न-हे भगवन् ! सिद्ध भगवान् कितने काल तक सोपचय रहते हैं ? १९ उत्तर-हे गौतम ! जघन्य एक समय और उत्कृष्ट आठ समय तक सिद्ध भगवान् सोपचय रहते हैं। २० प्रश्न-हे भगवन् ! सिद्ध भगवान् कितने काल तक निरुपचय निरपचय रहते हैं ? २० उत्तर-हे गौतम ! जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छह मास तक सिद्ध भगवान् निरुपचय निरपचय रहते हैं। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । विवेचन-पहले पुद्गलों का कथन किया गया है । पुद्गल जीवों के उपग्राहक (उपकारक) होते हैं, इसलिये अब जीवों के विषय में कथन किया जाता है । नैरयिक जीवों में जो चौबीस मुहूर्त का अवस्थान काल कहा गया है । वह इस प्रकार समझना चाहिये, सातों ही पृथ्वियों (नरकों) में बारह मुहूर्त तक वहां न तो कोई जीव उत्पन्न होता है और न कोई जीव मरता (उद्वर्तता) है । इस प्रकार का उत्कृष्ट विरह काल होने से इतने समय तक नरयिक जीव अवस्थित रहते हैं । तथा दूसरे बारह मुहूर्त तक जितने जीव नरकों में उत्पन्न होते हैं, उतने ही जीव वहाँ से मरते हैं । यह भी नैरयिकों का अवस्थान काल हैं। इसलिये चौबीस मुहूर्त तक नै रयिक जीवों की एक परिमाणता होने से उनका अवस्थान (हानि और वृद्धि रहित) काल चौबीस मुहूर्त का कहा गया है । इस प्रकार रत्नप्रभा आदि पृध्वियों में जहाँ-व्युत्क्रान्ति पद में उत्पाद, उद्वर्तना और विरहकाल चौबीस मुहूर्त का कहा गया है, वहाँ रत्नप्रभा आदि पृथ्वियों में नैरयिकों में उतना ही काल अर्थात् चौबीस मुहूर्त जितना समय उत्पाद और उद्वर्तना काल, पूर्वोक्त चौबीस मुहूर्त की संख्या के साथ मिलाने से दुगुना हो जाता है । अर्थात् अड़तालीस मुहूर्त का अवस्थित काल हो जाता है । यह बात सूत्र में ही बतला दी गई है । विरहकाल सभी जगह अवस्थान काल से आधा होता है। यह सर्वत्र समझना चाहिये ।। एकेन्द्रिय जीव बढ़ते भी हैं, घटते भी हैं और अवस्थित भी रहते हैं। यद्यपि उनमें विरह नहीं है, तथापि जब वे बहुत उत्पन्न होते हैं और थोड़े मरते हैं, तब वे बढ़ते हैं' ऐसा व्यपदेश किया जाता है । जब वे बहुत मरते हैं और थोड़े उत्पन्न होते है तब 'वे घटते For Personal & Private Use Only Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ५ उ. ८ जीवों की हानि और वृद्धि है' ऐसा कहा जाता है। जब उत्पत्ति और मरण समान संख्या में होता है अर्थात् जितने जीव उत्पन्न होते हैं उतने ही मरते हैं, तब 'वे अवस्थित हैं' ऐसा कहा जाता है । एकेंद्रिय जीवों की वृद्धि में, हानि में और अवस्थिति में आवलिका का असंख्येय भाग काल होता है, क्योंकि उसके बाद यथायोग्य वृद्धि आदि नहीं होती । बेइन्द्रिय और इन्द्रिय जीवों का अवस्थान काल उत्कृष्ट दो अन्तर्मुहूर्त है । एक अन्तर्मुहूर्त तो उनका विरह काल है और दूसरे अन्तर्मुहूर्त में वे समान संख्या में उत्पन्न होते और मरते हैं । इस प्रकार दो अन्तर्मुहूर्त होते हैं । आणत और प्राणत देवलोकों में संख्यात मास तथा आरण और अच्युत देवलोकों में संख्यात वर्ष का अवस्थान काल है । इसका अभिप्राय यह है कि संख्यातः मास और संख्यात वर्ष रूप विरह काल को दुगुना करने पर भी उसमें संख्यातपना ही रहता है । इसलिये संख्यातमास और संख्यात वर्ष का उत्कृष्ट अवस्थान काल कहा गया है । ९४२ नवग्रैवेयकों में से नीचे की त्रिक में संख्यात सैकड़ों वर्ष, मध्यम त्रिक में संख्यात हजारों वर्ष और ऊपर की त्रिक में संख्यात लाखों वर्ष का विरह काल है । उसको दुगुना करने पर भी उसमें संख्यात वर्षपन का विरोध नहीं आता । इसी प्रकार विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित में असंख्यात काल का विरह है । उसको दुगुना करने पर भी उसमें असंख्यातपना ही रहता है । सर्वार्थसिद्ध में पत्योपम का संख्येय भाग विरह काल है । उसको दुगुना करने पर भी संख्येय भागपना ही रहता है । इसलिये कहा गया है कि विजय, वैजयन्त, जयन्त और अंपराजित का उत्कृष्ट अवस्थान काल असंख्य हजारों वर्षों का है और सर्वार्थसिद्ध का उत्कृष्ट अवस्थान काल पल्योपम का संख्येय भाग है । अब दूसरे प्रकार से जीवों का कथन किया जाता है । सोपचय का अर्थ है 'वृद्धि सहित ।' अर्थात् पहले के जितने जीव हैं, उनमें नये जीवों की उत्पत्ति होने से संख्या की वृद्धि होती है । इसलिये उसे 'सोपचय' कहते हैं । पहले के जीवों में से कितनेक जीवों के मरजाने से संख्या घट जाती है, उसे 'सापचय' (हानि सहित ) कहते हैं । उत्पाद और उद्वर्तन ( मरण) द्वारा एक साथ वृद्धि और हानि होने से उसे 'सोपचयसापचय' ( वृद्धि हानि सहित ) कहते हैं। उत्पाद और उद्वर्तन ( मरण) के अभाव से वृद्धि और हानि न होना-'निरुपचयनिरपचय' कहलाता है । शंका- मूल में शास्त्रकार ने पहले वृद्धि, हानि और अवस्थिति के सूत्र कहे हैं । उसके बाद उपचय, अपचय, उपचयापचय और निरुपचयनिरपचय के सूत्र कहे हैं । इस For Personal & Private Use Only Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-श. ५ उ. ८ जीवों की हानि और वृद्धि प्रकार दो प्रकार के सूत्र कहने की क्या आवश्यकता है ? क्योंकि उपचय का अर्थ है-'वृद्धि' अपचय का अर्थ है-'हानि' । एक साथ उपचय और अपचय तथा निरुपचय और निरपचय का अर्थ है अवस्थिति । इस प्रकार उपचय आदि शब्दों का वृद्धि आदि शब्दों के साथ समानार्थ है । केवल शब्द भेद के सिवाय इन दो प्रकार के सूत्रों में क्या भेद हैं ? समाधान-पहले वृद्धि आदि सूत्रों में जीवों के परिमाण का कथन इष्ट है । और इन उपचय आदि सूत्रों में तो परिमाण की अपेक्षा बिना मात्र उत्पाद और उद्वर्तन विवक्षित है । इसलिये यहां 'सोपचय, सापचय' इस तीसरे भंग में पहले कहे हुए वृद्धि, हानि और अवस्थिति, इन तीनों भंगों का समावेश हो जाता है । जैसे कि थोड़े जीवों का मरण और बहुतों का उत्पात हुआ, तो वृद्धि । बहुतों का मरण और थोड़े जीवों का उत्पात हुआ, तो हानि । और समान उत्पाद तथा उद्वर्तन हुआ तो अवस्थितपना होता है इस प्रकार पूर्व कथित वृद्धि, हानि और अवस्थिति के सूत्रों में तथा इन सोपचय आदि के सूत्रों में भेद है। एकेंद्रिय जीवों में 'सोपचयसापचय'-यह तीसरा पद पाया जाता है । अर्थात् उनमें एक साथ उत्पाद और उद्वर्तन होने से वृद्धि और हानि होती है । इस पद (विकल्प) के सिवाय एकेंद्रियों में दूसरे पद सम्भावित नहीं हैं । क्योंकि उनमें प्रत्येक का उत्पाद और उदर्तन के विरह का अभाव है। निरुपचय निरपचय अर्थात् अवस्थिति में व्युत्क्रान्ति काल (विरह काल) के अनुसार कहना चाहिये । जिसका वर्णन पहले कर दिया गया है । ॥ इति पांचवें शतक का आठवां उद्देशक समाप्त ॥ MS. ) ८ For Personal & Private Use Only Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-ग. ५ उ. ९ राजगृह का अर्थ शतक ५ उद्देशक राजगृह का अर्थ १ प्रश्न तेणं कालेणं तेणं समएणं जाव-एवं वयामी-किं इयं भंते ! णयरं रायगिहं ति पवुच्चइ, किं पुढवी णयरं रायगिहं ति पवुच्चइ, आउ णयरं रायगिहं ति पवुच्चइ, जाव-वणस्सई, जहाएयणुदेसए पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं वत्तव्वया तहा भाणियव्वा, जाव-सचित्ता-ऽचित्त-मीसियाई दव्वाइं णयरं रायगिहं ति पवुच्चइ ? १ उत्तर-गोयमा ! पुढवी वि णयरं रायगिहं ति पवुच्चइ, जावसचित्ता-ऽचित्त-मीसियाई दव्वाइं णयरं रायगिहं ति पवुच्चइ । ___२ प्रश्न-से केणटेणं ? २ उत्तर-गोयमा ! पुढवी जीवा इ य, अजीवा इ य, णयरं रायगिहं ति पवुच्चइ; जाव-सचित्ता-ऽचित्त-मीसियाई दव्वाइं; जीवा इ य, अजीवा इ य, णयरं रायगिहं ति पवुच्चइ, से तेणटेणं तं चेव । कठिन शब्दार्थ-एयणुद्देसए– एजन उद्देशक । सचित्ता-चित्त-मीसियाई बव्वाइंसचित्त, अचित्त और मिश्र द्रव्य । भावार्थ-१ प्रश्न-उस काल उस समय में यावत् गौतम स्वामी ने श्रमण For Personal & Private Use Only Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ५ 3. ५ प्रकाश और अन्धकार भगवान महावीर स्वामी से इस प्रकार पूछा कि-हे भगवन् ! यह राजगृह नगर क्या कहलाता है ? क्या यह राजगृह नगर पृथ्वी कहलाता है ? जल कहलाता है ? यावत् वनस्पति कहलाता है ? जिस प्रकार एजनोद्देशक में पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चों में परिग्रह की वक्तव्यता कही है, उसी प्रकार यहां भी कहनी चाहिए । अर्थात् क्या राजगृह नगर कूट कहलाता है, शैल कहलाता है ? यावत् सचित्त अचित्त मिश्र द्रव्य, राजगृह नगर कहलाता हैं ? १ उत्तर-हे गौतम ! पृथ्वी भी राजगृह नगर कहलाती है, यावत् सचित्त अचित्त मिश्र द्रव्य भी राजगृह नगर कहलाता है । २ प्रश्न-हे भगवन् ! इसका क्या कारण है ? २ उत्तर-हे गौतम ! पृथ्वी जीव ह और अजीव भी है, इसलिए वह राजगह नगर कहलाती है, यावत् सचित्त, अचित्त और मिश्र द्रव्य भी जीव हैं और अजीव हैं, इसलिए वे द्रव्य राजगृह नगर कहलाते हैं। इसलिए पृथ्वी आदि को राजगह नगर कहते हैं। विवेचन-प्रायः बहुत से प्रश्न गौतम स्वामी ने भगवान् महावीर स्वामी से राजगृह नगर में पूछे थे, क्योंकि भगवान् महावीर स्वामी के बहुत से विहार राजगृह नगर में हुए थे । इसलिए 'राजगृह नगर' के स्वरूप के निर्णय के लिए इस नौवें उद्देशक में कथन किया जाता है । राजगृह नगर क्या पृथ्वी है ? यावत् वनस्पति है ? इस प्रश्न के उत्तर में पांचवें शतक के 'एजन' नामक सातवें उद्देशक की भलामण दी गई है । उसमें की पञ्चेन्द्रिय तिर्यंचों में परिग्रह विषयक टंक, कूट, शैल शिखर आदि वक्तव्यता यहां कहनी चाहिए । पृथ्वी आदि का जो समुदाय है, वह राजगृह नगर है, क्पोंकि पृथ्वी आदि के समुदाय के बिना 'राजगृह' शब्द की प्रवृत्ति नहीं हो सकती । राजगृह नगर जीवाजीव रूप है । इसलिए विवक्षित भूमि सचित्त और अचित्त होने के कारण जीव और अजीव रूप है । अतएव राजगृह नगर जीवाजीव रूप है। . प्रकास और अन्धकार ३ प्रन-से गुणं भंते ! दिया उनोए, राई अंधयारे ? For Personal & Private Use Only Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९१६ .भगवती सूत्र-श. ५ उ. ९ प्रकाश और अन्धकार ३ उत्तर-हंता, गोयमा ! जाव-अंधयारे । ४ प्रश्न-से केणटेणं ? ४ उत्तर-गोयमा ! दिया सुभा पोग्गला, सुभे पोग्गलपरिणामे, राइं असुभा पोग्गला, असुभे पोग्गलपरिणामे से तेणटेणं । कठिन शब्दार्थ-उज्जोए-उद्योत-प्रकाश, अंधयारे-अन्धकार । भावार्थ-३ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या दिन में उद्योत और रात्रि में अग्धकार होता है ? ३ उत्तर-हाँ, गौतम ! दिन में उद्योत और रात्रि में अन्धकार होता ४ प्रश्न-हे भगवन् ! इसका क्या कारण है ? ४ उत्तर-हे गौतम ! दिन में शुभ पुद्गल होते हैं, शुभ पुद्गल परिणाम होता है । रात्रि में अशुभ पुद्गल होते हैं और अशुभ पुद्गल परिणाम होता है। इस कारण से दिन में उद्योत होता है और रात्रि में अन्धकार होता है । ५ प्रश्न-णेरइयाणं भंते ! किं उज्जोए, अंधयारे ? ५ उत्तर-गोयमा ! णेरइयाणं णो उज्जोए, अंधयारे । ६ प्रश्न-से केणटेणं ? ६ उत्तर-गोयमा ! गेरइयाणं असुभा पोग्गला, असुभे पोग्गलपरिणामे से तेणटेणं । भावार्थ--५ प्रश्न हे भगवन् ! क्या मैरयिक जीवों के प्रकाश होता है, या अन्धकार होता है ? ५ उत्तर-हे गौतम ! नरयिक जीवों के उद्योत नहीं होता है, किन्तु For Personal & Private Use Only Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ५ उ. ९ प्रकाश और अन्धकार ९१७ अन्धकार होता है। ६ प्रश्न-हे भगवन ! इसका क्या कारण है ? ६ उत्तर-हे गौतम ! नरयिक जीवों के अशुभ पुद्गल और अशुभपुद्गल परिणाम होता है । इसलिए उनमें उद्योत नहीं, किन्तु अन्धकार होता है । ७ प्रश्न-असुरकुमाराणं भंते ! किं उज्जोए, अधयारे ? ७ उत्तर-गोयमा ! असुरकुमाराणं उज्जोए, णो अंधयारे । ८ प्रश्न-से केणटेणं ? ८ उत्तर-गोयमा ! असुरकुमाराणं सुभा पोग्गला, सुभे पोग्गलपरिणामे से तेणटेणं जाव-एवं वुच्चइ, जाव-थणियाणं । -पुढविकाइया जाव-तेइंदिया जहा णेरइया । ९ प्रश्न-चरिंदियाणं भंते ! किं उज्जोए, अंधयारे ? ९ उत्तर-गोयमा ! उज्जोए वि, अंधयारे वि । . . १० प्रश्न-से केणटेणं ? १० उत्तर-गोयमा ! चरिंदियाणं सुभा-ऽसुभा य पोग्गला, सुभा-ऽसुभे य पोग्गलपरिणामे से तेणटेणं एवं जाव-मणुस्साणं । ___-वाणमंतर-जोइस-वेमाणिया जहा असुरकुमारा। भावार्थ-७ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या असुरकुमार देवों के उद्योत होता है, या अन्धकार होता है ? | ७ उत्तर-हे गौतम ! असुरकुमार देवों के उद्योत है, किन्तु अन्धकार नहीं है। For Personal & Private Use Only Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-ग. ५ उ. ९ प्रकाश और अन्धकार ८ प्रश्न-हे भगवन ! इसका क्या कारण है ? ८ उत्तर-हे गौतम ! असुरकुमार देवों के शुभ पुद्गल है और शुभ पुद्गल परिणाम है, इसलिये उनके उद्योत है, अन्धकार नहीं। इसी प्रकार स्तनित कुमारों तक कहना चाहिये। जिस प्रकार नरयिक जीवों का कथन किया, उसी प्रकार पृथ्वीकाय से लेकर तेइन्द्रिय जीवों तक का कथन करना चाहिये। ९ प्रश्न-हे भगवन् ! चौरिन्द्रिय जीवों के उद्योत है, या अन्धकार है ? ९ उत्तर-हे गौतम ! चौरिन्द्रिय जीवों के उद्योत भी है और अन्धकार भी है। १० प्रश्न-हे भगवन् ! इसका क्या कारण है ? १० उत्तर-हे गौतम ! चौरिन्द्रिय जीवों के शुभ और अशुभ पुद्गल होते हैं तथा शुभ और अशुभ परिणाम होता है, इसलिये ऐसा कहा जाता है कि उनमें उद्योत भी है और अन्धकार भी है। इस प्रकार यावत् मनुष्यों तक कहना चाहिये । जिस प्रकार असुरकुमारों का कहा, उसी प्रकार वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक देवों के विषय में भी कहना चाहिये। विवेचन-पुद्गलों का अधिकार होने से यहाँ भी पुद्गलों का कथन किया जाता है। दिन में शुभ पुद्गल होते हैं । इसलिये सूर्य की किरणों के सम्बन्ध से दिन में शुभ पुद्गलों का परिणाम होता है और रात्रि में अशुभ पुद्गल होते है, अतएव अशुभ पुद्गल परिणाम होता है। नरक में पुद्गलों की शुभता के निमित्तभूत सूर्य की किरणों का प्रकाश नहीं है, इसलिये नरकों में अन्धकार है। असुरकुमार देवों के रहने के स्थानादि की भास्वरता के कारण वहाँ शुभ पुद्गल हैं। अतएव उद्योत है। पांच स्थावर, बेइन्द्रिय और तेइन्द्रिय जीव, यद्यपि इस क्षेत्र में हैं और यहां सूर्य की किरणों आदि का सम्पर्क भी है, तथापि उनमें जो अन्धकार का कथन किया गया है, इसका कारण यह है कि उनमें चक्षुरिन्द्रिय नहीं होती. इसलिये वे देखने योग्य पदार्थों को नहीं देख सकते । इसलिये उनके शुभ पुद्गलों का कार्य न होने से अशुभ पुद्गल कहे गये हैं। अतएव अन्धकार होता है । चौरिन्द्रिय जीवों में चक्षुरिन्द्रिय होने से रवि किरणादि का जब सद्भाव हो, तब दृश्य For Personal & Private Use Only Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ५ उ. ९ नैरयिकादि का समय ज्ञान ९१९ पदार्थों के ज्ञान में निमित्त होने से शुभ पुद्गल कहे गये हैं । जब रवि किरणादि का सम्पर्क नहीं होता, तब पदार्थ ज्ञान का अजनक होने से अशुभ पुद्गल कहे गये हैं। नैरयिकादि का समय ज्ञान ११ प्रश्न-अस्थि णं भंते ! णेरइयाणं तत्थगयाणं एवं पण्णायए, तं जहा-समया इ वा, आवलिया इ वा, जाव उस्सप्पिणी इ वा, ओसप्पिणी इ वा ? __ ११ उत्तर-णो इणटे समटे । १२ प्रश्न-से केणटेणं जाव-समया इ वा, आवलिया इ वा, उस्सप्पिणी इ वा, ओसप्पिणी इ वा ? .. .१२ उत्तर-गोयमा ! इहं तेसिं माणं, इहं तेसिं पमाणं, इहं तेसिं एवं पण्णायए, तं जहा-समया इ वा, जाव-ओसप्पिणी इ वा, से तेणटेणं जाव-णों एवं पण्णायए, तं जहा-समया इ वा, जावउस्सप्पिणी इ वा, एवं जाव-पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं । कठिन शब्दार्थ-तत्थगयाणं-वहां गये हुए-वहां रहे हुए, पण्णापए-ज्ञान । - भावार्थ-११ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या नरक में रहे हुए नैरयिक जीवों को सगय, आवलिका, यावत् उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल का ज्ञान है ? __ ११ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । अर्थात् वहां रहे हए नरपिक जीव, समय आदि को नहीं जानते हैं। १२ प्रश्न-हे भगवन् ! इसका क्या कारण है ? नरक में रहे हए नैर For Personal & Private Use Only Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२० भगवती सूत्र-श. ५ उ. ९ नैरयि कादि का समय ज्ञान यिक समय, आवलिका, यावत् उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी को क्यों नहीं जानते हैं ? १२ उत्तर-हे गौतम ! यहां समय आदि का मान और प्रमाण है और यहाँ समय यावत् अवसर्पिणी का ज्ञान किया जाता है, किन्तु नरक में नहीं है, इस कारण से नरक में रहे हुए नरयिकों को समय, आवलिका यावत् उत्सपिणी, अवसर्पिणी का ज्ञान नहीं होता। इसी प्रकार यावत् पञ्चेन्द्रिय तियंच योनि तक कहना चाहिये। १३ प्रश्न-अस्थि णं भंते ! मणुस्साणं इहगयाणं एवं पण्णायह तं जहा-समया इ वा, जाव-उस्सप्पिणी इ वा ? १३ उत्तर-हंता, अस्थि । १४ प्रश्न-से केणटेणं? १४ उत्तर-गोयमा ! इहं तेसिं माणं, इहं तेसिं पमाणं, एवं पण्णायइ, तं जहा-समया इ वा, जाव-ओसप्पिणी इ वा, से तेण टेणं। -वाणमंतर-जोइस-चेमाणियाणं जहा रइयाणं । भावार्थ-१३ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या यहां मनुष्य लोक. में रहे हुए मनुष्यों को समय यावत् अवसपिणी का ज्ञान है ? १३ उत्तर-हाँ गौतम ! है। १४ प्रश्न-हे भगवन् ! इसका क्या कारण है ? १४ उत्तर-हे गौतम ! यहां समय आदि का मान और प्रमाण है, इसलिये समय यावत् अवसर्पिणी का ज्ञान है । इस कारण से ऐसा कहा गया है कि मनुष्य लोक में रहे हुए मनुष्यों को समय आदि का ज्ञान है। For Personal & Private Use Only Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ५ उ. ९ पापित्य स्थविर और श्री महावीर ९२१ जिस प्रकार नैरयिक जीवों के विषय में कहा गया है, उसी प्रकार वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिकों के लिये भी कहना चाहिये। विवेचन-पुद्गल द्रव्य है। इसलिये उनका विचार करने पर उनसे सम्बन्धित काल द्रव्य का विचार किया जाता है। समय, आवलिका आदि काल के विभाग हैं । इसमें अपेक्षा कृत सूक्ष्म काल 'मान' कहलाता है और अपेक्षा कृत प्रकृष्ट सूक्ष्म काल 'प्रमाण' कहलाता है । जैसे कि-मुहूर्त 'मान' है। मुहूर्त की अपेक्षा मूक्ष्म होने से लव 'प्रमाण' है और लव की अपेक्षा स्तोक प्रमाण' है । और स्तोक की अपेक्षा लव 'मान' है। इस तरह समय तक जान लेना चाहिये । समयादि की अभिव्यक्ति सूर्य की गति से होती है और सूर्य की गति मनुष्य लोक में ही है, नरकादि में नहीं है । इसलिये वहां समयादि का ज्ञान नहीं होता है । मनुष्य लोक में रहे हुए ही मनुष्यों को समयादि का ज्ञान होता है, किंतु मनुष्य लोक से बाहर रहे हुए जीवों को समय आदि का ज्ञान नहीं होता। क्योंकि मनुष्य लोक से बाहर समय आदि काल न होने से वहाँ उसका व्यवहार नहीं होता है । यद्यपि कितनेक पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच, भवनपति, वाणव्यन्तर और ज्योतिषी, मनुष्य लोक में हैं, तथापि वे स्वल्प हैं और वे काल के अव्यवहारी हैं। और मनुष्य लोक से वाहर वे बहुत हैं । उन बहतों की अपेक्षा से यह कहा गया है कि पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च, भवनपति, वाणव्यन्तर और ज्योतिषी देव ममय आदि काल को नहीं जानते हैं। पापित्य स्थविर और श्री महावीर , १५ प्रश्न-तेणं कालेणं तेणं समएणं पासावचिन्जा थेरा भगवंतो जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते ठिच्चा, एवं वयासी-से णूणं भंते ! असंखेजे लोए अणंता राइंदिया उप्पजिंसु वा, उप्पजंति वा, उप्पजिस्संति वा; विगच्छिसु वा, विगच्छंति वा, For Personal & Private Use Only Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ · भगवती सूत्र --श ५ उ ९ पारवपित्य स्थविर और श्रीमहावीर विगच्छस्संति वा परित्ता राइंदिया उपजिंसु वाः उप्पज्जति वा, उपज्जिस्संति वा ? विगच्छ्सुि वा, विगच्छेति वा, विगच्छिस्संति वा ? ९२२ १५ उत्तर - हंता, अज्जो ! असंखेजे लोए अनंता राइंदिया, तं चैव । १६ प्रश्न - से केणट्टेणं जाव - विगच्छिस्संति वा ? १६ उत्तर - से णूणं भे अज्जो ! पासेणं अरहया पुरिसादाणिएणं, सासए लोए बुइए, अणाइए, अणवदग्गे, परिते परिवुडे; हेट्टा विच्छिण्णे, मज्झे संखित्ते, उप्पिं विसाले, अहे पलियंकसंठिए, मज्झे वरवरविग्गहिए, उपिं उद्धमुइंगाकार संठिए; तेसिं चणं सासयंसि लोगंसि अणाइयंसि अणवदग्गंसि, परित्तंसि परिवुडंसि, हेड्डा विच्छिणसि, मज्झे संखित्तंसि, उप्पिं विसालंसि, अहे पलियंकसंठियंसि, मज्झे वरवरविग्गहियंसि, उपिं उद्धमुगाकारसंठियंसि अनंता जीवघेणा उपज्जित्ता उप्पजित्ता णिलीयंति, परित्ता जीवघणा उपज्जित्ता, उपज्जित्ता णिलीयंति - से णूणं भूए; उप्पण्णे, विगए, परिणए; अजीवेहिं लोक्कड़ पलोकइ 'जे लोक्कइ से लोए ?' हंता, भगवं ! से तेणेणं अजो ! एवं वुच्चइ - असंखेज्जे, तं चेव, तप्पभिड़ं चणं ते पासावचिज्जा थेरा भगवंतो समणं भगवं महावीरं पञ्चभिजा - ति 'सव्वष्णू सव्वदरिसी' । For Personal & Private Use Only Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - ५ उ. ९ पावपित्य स्थविर और श्री महावीर कठिन शब्दार्थ- पासावच्चिज्जा - पारवपित्य अर्थात् पार्श्वनाथ भगवान् के शिष्य प्रशिष्य थेरा - स्थविर, अदूरसामंते न तो निकट न दूर, विगच्छसु नष्ट होते हैं, परित्तापरिमित, बुइए कहा, णिलीयंति नष्ट होते हैं, विगए-विगत, लोक्कइ देखा जाता हैजाना जाता है, सब्वण्णू सर्वज्ञ, सव्वदरिसी - सर्वदर्शी, पच्चभिजाणंति जानते हैं । भावार्थ - १५ प्रश्न - उस काल उस समय में पाश्र्वापत्य अर्थात् पार्श्वनाथ भगवान् के सन्तानिये स्थविर भगवन्त, जहाँ श्रमण भगवान् महावीर स्वामी थे, वहाँ आये। आकर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से अदूर सामन्त अर्थात् न बहुत दूर और न बहुत नजदीक, किन्तु यथायोग्य स्थान पर खडे रह कर वे इस प्रकार बोले- हे भगवन् ! क्या असंख्य लोक में अनन्त रात्रि दिवस उत्पन्न हुए हैं, उत्पन्न होते हैं और उत्पन्न होंगे ? नष्ट हुए हैं, नष्ट होते हैं और नष्ट होंगे ? अथवा परिमित रात्रि दिवस उत्पन्न हुए हैं, उत्पन्न होते हैं और उत्पन्न होंगे ? अथवा नष्ट हुए हैं, नष्ट होते हैं और नष्ट होंगे ? ९२३ १५ उत्तर - हां, आर्यों ! असंख्य लोक में अनन्त रात्रि दिवस उत्पन्न होते हैं, यावत् उपर्युक्त रूप से कहना चाहिये । १६ प्रश्न - हे भगवन् ! इसका क्या कारण है । १६ उत्तर - हे आर्यों ! आपके गुरु स्वरूप तेवीसवें तीर्थंकर पुरुषादानीय भगवान् पार्श्वनाथ ने लोक को शाश्वत कहा है। इसी प्रकार अनादि, अनवदग्र (अनन्त) परिमित, अलोक द्वारा परिवृत, नीचे विस्तीर्ण, बीच में संक्षिप्त, ऊपर विशाल, नीचे पल्यङ्काकार, बीच में उत्तम वज्राकार, ऊपर ऊर्ध्वमृदंगाकार, लोक कहा है । उस प्रकार के शाश्वत, अनादि, अनन्त, परित, परिवृत, नीचे विस्तीर्ण, मध्य में संक्षिप्त, ऊपर विशाल, नौचे पल्यङ्काकार स्थित, बीच में उत्तम वज्राकार, और ऊपर ऊर्ध्वमृदंगाकारसंस्थित लोक में अनन्त जीवधन उत्पन्न हो होकर नष्ट होते है, और परित (नियत) असंख्य जीवघन भी उत्पन्न हो होकर नष्ट होते हैं । यह लोक भूत है, उत्पन्न है, विगत है, परिणत है । क्योंकि वह अजीवों द्वारा लोकित ( निश्चित) होता है, विशेष रूप से लोकित होता है । जो लोकित (ज्ञात) हो, क्या वह लोक कहलाता है ? हाँ, भगवन् ! वह लोक For Personal & Private Use Only Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र श. ५ उ. ९ पाश्र्वापत्य स्थविर और श्रीमहावीर कहलाता है, तो इस कारण हे आर्यों ! इस प्रकार कहा जाता है, यावत् असंख्य लोक में इत्यादि पूर्ववत् कहना चाहिये । तब से पार्थापत्य स्थविर भगवंत श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को सर्वज्ञ, सर्वदर्शी जानने लगे ।. ९२४ तणं ते थे भगवंतो समणं भगवं महावीरं वंदति णमंसंति, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी - इच्छामि णं भंते ! तुब्भं अंतिए चाउनामाओ धम्माओ पंच महव्वयाई, सपडिक्कमणं धम्मं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए; अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंध; तएणं ते पासावचिज्जा थेरा भगवंतो जाव - चरमेहिं उस्सासणिस्सा से हिं सिद्धा, जाव - सन्वदुक्खष्पहीणा; अत्थेगइया देवलोएसु उववण्णा । भावार्थ - इसके पश्चात् उन स्थविर भगवंतों ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वन्दना नमस्कार किया, वन्दना नमस्कार कर वे इस प्रकार बोलेहे भगवन् ! हम आपके पास चतुर्याम धर्म से सप्रतिक्रमण, पंच महाव्रत रूप धर्म को स्वीकार कर विचरना चाहते हैं । भगवान् ने फरमाया- हे देवानुप्रियों ! जिस प्रकार आपको सुख हो वैसा करो, किन्तु प्रतिबन्ध मत करो । इसके बाद वे पार्श्वपत्य स्थविर भगवन्त, यावत् सर्व दुःखों से प्रहीण (मुक्त) हुए और कितने ही देवलोकों में उत्पन्न हुए । विवेचन - यहां काल निरूपण का अधिकार होने से रात्रि दिवस रूप काल के विषय असंख्यात लोक में अर्थात् चौदह में कथन किया जाता है । असंख्यात प्रदेश रूप होने से रज्वात्मक आधारभूत क्षेत्र-लोक में अनन्त परिमाण वाले रात्रि दिवस उत्पन्न हुए हैं, होते हैं और उत्पन्न होंगे । स्थविर भगवंतों का यह प्रश्न पूछने का आशय यह है कि जो लोक, असंख्यात है, उसमें अनन्त रात्रि दिवस किस प्रकार हो सकते हैं ? अथवा किस तरह रह सकते हैं ? क्योंकि लोक रूप आधार असंख्यात होने से अल्प है और रात्रि दिवस रूप 1 For Personal & Private Use Only Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ५ उ. ९ पाश्र्वापत्य स्थविर श्रीमहावीर आधेय अनन्त होने से बड़ा है । इसलिये छोटे आधार में बड़ा आधेय किस प्रकार रह सकता है ? दूसरा प्रश्न यह हैं कि जब रात्रि दिवस अनन्त हैं, तो 'परित' कैसे हो सकते हैं ? यह परस्पर विरोध है । समाधान - उपरोक्त दोनों शंकाओं का समाधान यह है कि जैसे- एक मकान में हजारों दीपकों की प्रभा समा सकती है, उसी तरह तथाविध स्वरूप होने से असंख्य प्रदेश रूप लोक में भी अनन्त जीव रहते हैं। वे जीव, एक ही जगह, एक ही समय आदि काल में अनन्त उत्पन्न होते हैं और नष्ट होते हैं । वह समयादि काल साधारण शरीर में रहने वाले अनन्त जीवों में से प्रत्येक जीव में वर्तता है और इसी तरह प्रत्येक शरीर में रहने वाले परित्त ( नियत परिमित ) जीवों में से प्रत्येक जीव में वर्तता है । क्योंकि वह समयादि काल जीवों की स्थिति रूप पर्याय रूप है । इस प्रकार काल अनन्त भी होता है और परित्त भी होता है । इस प्रकार असंख्येय लोक में भी रात्रि दिवस अनन्त हैं और परित्त भी हैं । इसी प्रकार तीनों काल में हो सकता है। यही बात स्थविरों द्वारा सम्मत भगवान् पार्श्वनाथ के मत द्वारा बतलाई गई है । सूत्र में भगवान् पार्श्वनाथ के लिये 'पुरुषादानीय' विशेषण दिया गया है। जिस का अर्थ है-पुरुषों में आदेय - माननीय - ग्राह्य | लोक का कथन करते हुए मूलपाठ में जो विशेषण दिये गये हैं, उनका अर्थ इस प्रकार है - लोक शाश्वत है, अनादि है, अर्थात् उसकी कभी भी उत्पत्ति नहीं हुई, वह स्थिर है । अनादि होते हुए भी लोक अनन्त है, उसका कभी अन्त नहीं होता । प्रदेशों की अपेक्षा लोक 'परित (असंख्येय ) है । वह अलोक से परिवृत है । अर्थात् उसके चारों तरफ अलोक है । अतः वह अलोक से घिरा हुआ है । नीचे विस्तीर्ण है, क्योंकि नीचे उसका विस्तार, सात रज्जु परिमाण है । मध्य में वह संक्षिप्त है । अर्थात् एक रज्जु परिमाण विस्तीर्ण है । ऊपर विशाल है | अर्थात् ब्रह्मलोक नामक पांचवें देवलोक के पास, पांच रज्जु विस्तीर्ण है । इसी बात को उपमा द्वारा कहा गया है। ऊपरी संकीर्ण और नीचे विस्तृत होने से . : नीचे पल्यङ्क के आकार है। बीच में पतला होने से मध्य में लोक का आकार वज्र के समान है । ऊपर ऊर्ध्वं मृदंग के आकार है । अर्थात् दो शराव ( सकोरा ) के सम्पुट सरीखा है । ऐसे लोक में अनन्त जीवघन उत्पन्न होकर नष्ट होते हैं और परित्त जीवघन भी उत्पन्न होकर नष्ट होते हैं । इसका आशय यह है कि परिमाण से अनन्त, अथवा जीव सन्तति की अपेक्षा अनन्त । क्योंकि जीव सन्तति का कभी अन्त नहीं होता। इसलिये सूक्ष्मादि साधारण ९२५ For Personal & Private Use Only Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२६ भगवती सूत्र - श. ५ उ. ९ पाश्र्वापत्य स्थविर और श्रीमहावीर शरीरों की अपेक्षा तथा सन्तति की अपेक्षा जीव अनन्त हैं । वे अनन्त पर्याय का समूह रूप होने से तथा असंख्येय प्रदेशों का पिण्ड रूप होने से 'घन' कहलाते हैं । इस प्रकार के जीव 'जीवन' कहलाते हैं, ( और प्रत्येक शरीर वाले भूत भविष्यत्काल की सन्तति की अपेक्षा रहित होने से पूर्वोक्त रूप से 'परित जीवधन' कहलाते हैं ।) उपर्युक्त प्रश्न में जो अनन्त सत्रि दिवस का कथन किया गया है, उस का उत्तर इस कथन द्वारा दिया गया । क्योंकि अनन्त और परित्त जीवों के सम्बन्ध से काल विशेष भी अनन्त और परित्त कहलाता है । इसलिये अनन्त जीवों के सम्बन्ध से काल अनन्त है और परित्त जीवों के सम्बन्ध से काल परित है । इन दोनों में किसी प्रकार का विरोध नहीं हैं अब स्वरूप से फिर लोक का ही कथन किया जाता है। जहाँ जीवधन उत्पन्न हो कर नष्ट होते हैं, वह 'लोक' कहलाता है । वह लोक, भवन (सत्ता) धर्म के सम्बन्ध से 'सद्भूत' लोक कहलाता है । शङ्का - जिस प्रकार नैयायिकों के मत में आकाश, अनुत्पत्तिक (उत्पत्ति रहित ) है, तो क्या यह लोक भी अनुत्पत्तिक है ? समाधान- - लोक ' उत्पन्न' हैं । जिस प्रकार विवक्षित घटाभाव (घट प्रध्वंसाभाव) उत्पन्न है और अनश्वर है, उसी प्रकार उत्पन्न पदार्थ भी अनश्वर होता है। इसलिये कहा गया है कि लोक 'विगत' (नाशशील ) है । नाशशील पदार्थ ऐसा भी होता है कि उसका निरन्वय नाश हो जाता है, इसलिये कहा गया है कि लोक 'परिणामी ' है । अर्थात् अन्य अनेक पर्यायों को प्राप्त है । परन्तु उसका निरन्वय नाश ( समूल नाश - सम्बन्ध रहित नाश) नहीं हुआ है यह लोक, अजीवों के द्वारा निश्चित होता है । अर्थात् सत्ता को धारण करने वाले नाश को प्राप्त होने वाले और परिणाम को प्राप्त होने वाले तथा जो लोक से - अनन्य भूत (अभिन्न ) है ऐसे जीव, पुद्गल आदि पदार्थों से निश्चित होता है । यह लोक 'भूतादि धर्म वाला है, ' इस प्रकार प्रकर्ष रूप से निश्चित होता है । इसलिये उसका 'लोक' यह नाम यथार्थ है । क्योंकि जो प्रमाण द्वारा विलोकित किया जाय वह 'लोक' शब्द का वाच्य हो सकता है । इस प्रकार लोक का स्वरूप कहने वाले पार्श्वनाथ भगवान् के वचन का स्मरण कराकर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने अपने वचन का समर्थन किया है । श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के उपर्युक्त वचनों को सुनकर उन स्थविर भगवंतों को यह निश्चय हो गया कि ये सर्वज्ञ सर्वदर्शी हैं । तब उन्होंने भगवान् के पास चतुर्याम धर्म से प्रतिक्रमण पंच महाव्रत रूप धर्म को स्वीकार किया। फिर संयम और तप से अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे । उनमें से कितने ही स्थविर, सभी कर्मों For Personal & Private Use Only Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ५ उ. ९ देवलोक ९२१ का क्षय करके मोक्ष को प्राप्त हुए और कितने ही स्थविर, अल्ल कर्मरज के शेष रह जाने से देवलोकों में उत्पन्न हुए। भरत क्षेत्र और एरावत क्षेत्र के चौवीस तीर्थंकरों में से प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर के सिवाय बीच के बाईस तीर्थङ्करों के शासन में और महाविदेह क्षेत्र में चतुर्याम धर्म होता है । अर्थात् सवया प्राणातिपात, मषावाद, अदतादान और बहिर्द्धादान का त्याग किया जाता है । बहिर्द्धादान में मैथुन और परिग्रह दोनों का समावेश हो जाता है । प्रथम और अन्तिम तीर्थङ्कर के समय पंच महाव्रत रूप धर्म होता है अर्थात् सर्वथा प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्ता दान, मथुन और परिग्रह का त्याग रूप पांच महाव्रत होते हैं । चतुर्याम धर्म और पंच महा- व्रत रूप धर्म में केवल शाब्दिक भेद है । अर्थ में कुछ भी भेद नहीं है । क्योंकि बहिर्द्धादान में मैथुन और परिग्रह दोनों का समावेश है । और पांच महाव्रतों में इन दोनों का अलग अलग कथन कर दिया है । इससे ऐसा,नहीं समझना चाहिये कि तेवीसवें तीर्थङ्कर भगवान् पाश्वनाथ के शासन में प्रचलित चतुर्याम धर्म में चौवीसवें तीर्थङ्कर भगवान महावीर स्वामी ने परिवर्तन करके पंच महाव्रत रूप धर्म स्थापित किया था । प्रतिक्रमण के विषय में टीकाकार ने एक गाथा दी है । वह इस प्रकार है सपडिक्कमणो धम्मो, पुरिमस्स य पच्छिमस्स य जिणस्स । मज्झिमगाणं जिणाणं, कारणजाए पडिक्कमणं ॥ अर्थ-प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर का धर्म सप्रतिक्रमण (प्रतिक्रमण सहित) है । और बीच के बाईस तीर्थंकरों के शासन में और महाविदह क्षेत्र के तीर्थंकरों के शासन में कारण होने पर प्रतिक्रमण है। ___ इसका आशय यह है कि प्रथम और अन्तिम तीर्थकर के शासनवर्ती साधुओं को तो नियमित रूप से प्रतिदिन सुबह और शाम को प्रतिक्रमण करना ही चाहिये । यह उनके लिये आवश्यक कल्प है । शेष तीर्थंकरों के शासनवर्ती साधुओं को कारण होने पर (किसी प्रकार का दोष लगने पर) प्रतिक्रमण अवश्य करना चाहिये । अन्य समय में उनके लिये यह आवश्यक कल्प नहीं है । अर्थात् विहित कल्प भी नहीं है और निषिद्ध कल्प भी नहीं है। देवलोक १७ प्रश्न-कहविहा णं भंते ! देवलोगा पण्णता ? . For Personal & Private Use Only Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२८ भगवती सूत्र-- श. ५ उ. ९ देवलोक १७ उत्तर-गोयमा ! चउव्विहा देवलोगा पण्णत्ता, तं जहाभवणवासी-वाणमंतर-जोइसिय चेमाणियभेएणं । भवणवासी दसविहा, वाणमंतरा अट्टविहा, जोइसिया पंचविहा, वेमाणिया दुविहा । गाहा-किमियं रायगिहं ति य, उज्जोए अंधयार-समए य, पासंतिवासिपुच्छा, राइंदिय देवलोगा य । * सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति * ॥ पंचमसए नवमो उद्देसो सम्पत्तो ॥ कठिन शब्दार्थ-पासंतिवासिपुच्छा-भगवान् पार्श्वनाथ के अन्तेवासी अर्थात् शिष्यों द्वारा प्रश्न । भावार्थ-१७ प्रश्न-हे भगवन् ! कितने प्रकार के देवलोक कहे गये हैं ? १७ उत्तर-हे गौतम ! चार प्रकार के देवलोक कहे गये हैं। यथाभवनवासी, वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक । इनमें भवनवासी दस प्रकार के हैं। वाणव्यन्तर आठ प्रकार के हैं । ज्योतिषी पांच प्रकार के हैं और वैमानिक दो प्रकार के हैं। इस उद्देशक को संग्रह गाथा का अर्थ इस प्रकार है-राजगृह नगर क्या है ? दिन में उद्योत और रात्रि में अन्धकार होने का क्या कारण है ? समय आदि काल का ज्ञान किन जीवों को होता है और किन जीवों को नहीं होता। रात्रि दिवस के परिमाण के विषय में श्री पाश्र्वापत्य स्थविर भगवंतों का प्रश्न । देवलोक विषयक प्रश्न । इतने विषय इस नौवें उद्देशक में कहे गये हैं। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। है भगवन् ! यह इसी प्रकार है। विवेचन -पहले के प्रकरण में देवलोक में जाने सम्बन्धो कथन किया गया था। अतः यहां भी देवलोकों से सम्बन्धित कथन किया जाता है। For Personal & Private Use Only Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-ग. ५ उ. ५ देवलोक देव चार प्रकार के हैं। उनमें से भवन वामी देवों के दस भेद इस प्रकार हैं-१ असुरकुमार, २ नागकुमार, ३ मुवर्णकुमार, ४ विद्युतकुमार, ५ अग्निकुमार, ६ द्वीपकुमार, ७ उदधिकुमार, ८ दिशाकुमार, ९ पवन कुमार और १० स्तनितकुमार । वाणव्यन्तर देवों के आठ भद इस प्रकार हैं-१ पिशाच, २ भूत, ३ यक्ष ४ राक्षस, ५ किन्नर, ६ किम्पुरुष, ७ महोरग और ८ गन्धर्व । ज्योतिषी देवों के पांच भेद इस प्रकार हैं-१ चन्द्र, २ सूर्य, ३ ग्रह, ४ नक्षत्र और ५ तारा। वैमानिक देवों के दो भद हैं-१ कल्पोपपन्न और २ कल्पातीत । जिन देवों में छोटे बड़े का भेद होता है, वे 'कल्पोपपन्न' देव कहलाते हैं । बारहवें देवलोक तक के देव कल्पोपपन्न हैं । जिन देवों में छोटे बड़े का भेद नहीं हैं, किन्तु सभी अहमिन्द्र' हैं, वे 'कल्पातीत' कहलाते हैं । जैसे-नव ग्रैवेयक और पांच अनुत्तर विमानवासी देव । ॥ इति पांचवें शतक का नवमा उद्देशक समाप्त ॥ शतक ५ उद्देशक १० तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा णामं णयरी, जहा पढमिल्लो उद्देसओ तहा णेयव्वो एसो वि, णवर चंदिमा भाणियव्वा । ॥ पंचमसए दसमो उद्देसो सम्मत्तो॥ ॥ पंचमं सयं समत्तं ॥ कठिन शब्दार्थ-चंदिमा–चन्द्रमा । . भावार्थ-उस काल उस समय में चम्पा नामक नगरी थी। जैसे प्रथम उद्देशक कहा है, उसी प्रकार यह उद्देशक भी कहना चाहिए । विशेषता यह है कि यहाँ 'चन्द्रमा' कहना चाहिए। विवेचन-नववे उद्देशक के अन्त में देवों का कथन किया गया है । 'चन्द्रमा' ज्योतिषी । देव विशेष है। इसलिए इस दसवें उद्देशक में चन्द्रमा सम्बन्धी वक्तव्यता कही जाती है। जिस प्रकार पांचवें शतक का पहला उद्देशक 'रवि' प्रश्नोत्तर विषयक कहा गया है, । For Personal & Private Use Only Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९३. भगवती सूत्र-श. ५ उ. १० देवलोक उसी प्रकार यह दसवां उद्देशक कहना चाहिए, किन्तु इतनी विशेषता है कि यहां 'चन्द्र' के अभिलाप से कथन करना चाहिए । Pructudies ॥ इति पांचवें शतक का दसवां उद्देशक समाप्त ॥ ॥ पांचवां शतक सम्पूर्ण ॥ For Personal & Private Use Only Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ६ उद्देशक १ वेयण-आहार-महस्सवे य सपएस तमुयाए भविए। साली पुढवी कम्म-अण्णउत्थि दस छट्टगम्मि सए ॥ कठिन शब्दार्थ-महस्सवे-महा आश्रव, तमुयाए–तमस्काय । . - भावार्थ-१ वेदना, २ आहार, ३ महाआश्रव, ४ सप्रदेश, ५ तमस्काय, ६ भव्य, ७ शाली, ८ पृथ्वी, ९ कर्म और १० अन्ययूथिक वक्तव्यता । छठे शतक में ये दस उद्देशक हैं। - विवेचन-विचित्र अर्थ वाले पांचवें शतक की व्याख्या सम्पूर्ण हुई। अब अवसर प्राप्त उसी प्रकार के विचित्र अर्थ वाले छठे शतक का विवेचन प्रारंभ होता है । इस शतक में दस उद्देशक हैं। उनमें क्रमशः वेदना आदि दस विषयों का प्रतिपादन किया गया है। For Personal & Private Use Only Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९३२ भगवती सूत्र-श. ६ उ. १ वेदना और निर्जरा में वस्त्र का दृष्टांत वेदना और निर्जरा में वस्त्र का दृष्टांत १ प्रश्न-से णूणं भंते ! जे महावेयणे से महाणिजरे, जे महाणिजरे से महावेयणे; महावेयणस्स य, अप्पवेयणस्स य से सेए जे पसत्थणिज्जराए ? . १ उत्तर-हंता,गोयमा ! जे महावेयणे एवं चेव । २ प्रश्न-छट्ठि-सत्तमासु णं भंते ! पुढवीसु णेरइया महावेयणा ? २ उत्तर-हंता, महावेयणा । ३ प्रश्न ते णं भंते ! समणेहिंतो णिग्गंयेहिंतो महाणिजरतरा? ३ उत्तर-गोयमा ! णो इणटे समढे। ४ प्रश्न-से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-जे महावेयणे, जावपसत्थणिजराए ? ४ उत्तर-गोयमा ! से जहा णामए दुवे वत्था सिया, एगे वत्थे कइमरागरते, एगे वत्थे खंजणरागरते; एएसि णं गोयमा ! दोण्हं वत्थाणं कयरे वत्थे दुद्धोयतराए चेव, दुवामतराए चेव, दुपरिकम्मतराए चेव; कयरे वा वत्थे सुद्धोयतराए चेव, · सुवामतराए केव, सुपरिकम्मतराए चे; जे वा से वत्थे कद्दमरागरते, जे वा से वत्थे खंजणरागरते ? For Personal & Private Use Only Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-ग. ६ उ. १ वेदना और निर्जरा में वस्त्र का दृष्टांत ९३३ भगवं ! तत्थ णं जे से वत्थे कामरागरत्ते, से णं वत्थे दुद्धोयतराए चेव, दुवामतराए चेव, दुप्परिकम्मतराए चेव । एवामेव गोयमा ! णेरइयाणं पावाइं कम्माइं गाढीकयाई, चिकणीकयाई, सिलिट्ठीकयाई, खिलीभूयाइं भवंति। संपगाढं पि य णं ते वेयणं वेएमाणा णो महाणिजरा, णो महापजवसाणा भवंति । कठिन शब्दार्थ-पसत्थणिज्जराए–प्रशस्त निर्जरा, दुवे-दो, कद्दमरागरत्तेकर्दम-रागरक्त-कीचड़ के रंग से रंगा हुआ, खंजणरागरत्ते-खंजन-राग-रक्त-गाड़ी के पहिये की काजली के रंग से रंगा, दुद्धोयतराए-कठिनता से धोया जाने योग्य, दुवामतराए-जिसके धब्बे मुश्किल से छुड़ाये जायँ, दुप्परिकम्मतराए-जिसकी साज सजावट एवं चित्रादि मुश्किल से बनाये जायँ, गाढीकयाई–दृढ़ किये हुए. सिलिट्ठीकयाई - श्लिष्ट किये हुए, खिलीभूयाई-दृढ़तम-निकाचित किये हुए। भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! जो महावेदना वाला है, वह महानिर्जरा वाला है ? और जो महानिर्जरा वाला है, वह महावेदना वाला है ? तथा महा. वेदना वाला और अल्प वेदनवाला इन दोनों में वह जीव उत्तम है, जो कि प्रशस्त निर्जरा वाला है ? . . . १ उत्तर-हाँ, गौतम ! जैसा ऊपर कहा है वैसा ही है। २ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या छठी और सातवीं पृथ्वी के नैरयिक महावेदना वाले हैं ? २ उत्तर-हाँ, गौतम, वे महावेदना वाले हैं। - ३ प्रश्न--हे भगवन् ! वे छठी और सातवीं पृथ्वी में रहने वाले नैरयिक क्या श्रमण निर्ग्रन्थों की अपेक्षा महानिर्जरा वाले हैं ? ३ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है अर्थात् छठी और सातवीं नरक में रहने वाले नैरयिक, श्रमण निर्ग्रन्थों की अपेक्षा महानिर्जरा वाले नहीं For Personal & Private Use Only Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ६ उ १ वेदना और निर्जरा में वस्त्र का दृष्टांत ४ प्रश्न - हे भगवन् ! तो यह बात किस प्रकार कही जाती है कि जो महावेदना वाला है, वह महानिर्जरा वाला है, यावत् प्रशस्त निर्जरा वाला है ? ४ उत्तर - हे गौतम ! जैसे दो वस्त्र है । उनमें से एक कर्दम (कीचड़ ) के रंग से रंगा हुआ है और दूसरा वस्त्र खञ्जन अथवा गाडी के पहिये के कीट के रंग से रंगा हुआ है। हे गौतम ! उन दोनों वस्त्रों में से कौनसा वस्त्र दुधततर ( मुश्किल से धोने योग्य) दुर्वाम्यतर ( जिसके काले धब्बे मुश्किल से उतारे जा सके ) और दुष्प्रतिकर्मतर ( जिस पर मुश्किल से चमक आ सके तथा चित्रादि बनाये जा सके ) है, और कौनसा वस्त्र सुधतितर, सुवाम्यतर और सुप्रतिकर्मतर है ? ९३४ ( गौतम स्वामी ने उत्तर दिया ) हे भगवन् ! उन दोनों वस्त्रों में से जो कर्दम के रंग से रंगा हुआ है, वह दुधतितर, दुर्वाम्यतर और दुष्प्रतिकर्मतर है । भगवान् ने फ़रमाया - हे गौतम! इसी तरह नरयिकों के कर्म, गाढ़ीकृत अर्थात् गाढ़ बन्धे हुए, चित्रकणीकृत, ( चिकने किये हुए। श्लिष्ट किये हुए (निधत्त किये हुए) और खिलीभूत ( निकाचित किये हुए) हैं । इसलिये वे संप्रगाढ़ वेदना को वेदते हुए भी महानिर्जरा वाले नहीं हैं और महापर्यवसान वाले भी नहीं हैं । से जहा वा केइ पुरिसे अहिगरण आउडेमाणे महया महया सदेणं, महया महया घोसेणं, महया महया परंपराधापणं णो संचाइ तीसे अहिगरणीए के अहाबायरे पोग्गले परिसाडित्तए । एवमेव गोयमा ! रइयाणं पावाई कम्माई गाढीकयाई, जाव णो महापज्जवसाणाहं भवंति । भगवं ! तत्थ जे से वत्थे खंजणरागरत्ते से णं वत्थे सुद्धोयतराए चेव, सुवामतराए चेव, सुपरिकम्मतराए For Personal & Private Use Only Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ६ उ १ वेदना और निर्जरा में वस्त्र का दृष्टांत ९३५ " चैव एवामेव गोयमा ! समणाणं णिग्गंथाणं अहाबायराई कम्माई सिढिली कयाई, णिट्टियाई कडाई, विष्परिणामियाई खिप्पामेव विद्वत्थाइं भवति । जावइयं तावइयं पि णं ते वेयणं वेएमाणा महाणिजरा, महापज्जवसाणा भवंति से जहा णामए केह पुरिसे सुक्कं तणहत्थयं जायतेयंसि पक्खिवेज्जा, से णूणं गोयमा ! से सुक्के तणहत्थर जायतेयंसि पक्खित्ते समाणे खिप्पामेव मसमसाविज्जइ ? हंता, मसमसाविज्जइ । एवामेव गोयमा ! समणाणं णिग्गंथाणं अहाबायराई कम्माई, जाव - महापज्जवसाणा भवंति । से जहा णामए केइ पुरिसे तत्तंसि अयकवल्लंसि उदगबिंदु, जाव- हंता, विदुर्धसं आगच्छइ, एवामेव गोयमा ! समणाणं णिग्गंथाणं, जाव महापजवसाणा भवंति से तेणट्टेणं जे महावेयणे से महाणिज्जरे, जावणिज्जराए । कठिन शब्दार्थ - आउडेमाणे- कूटता हुआ, अहिगराण आउंडेमाणे -- एरण पर चोट करता हुआ, परिसाडितए - नष्ट करने में, निट्ठियाई - निःसत्व-सत्ता रहित, विद्धत्थाइं - विध्वंश करते हैं, तणहत्थयं - घास का पुला, जायतेयंसि अग्नि में मसमसाविज्जइ-जल जाता है, अयक वल्लं सि-लोहे के तवे पर । भावार्थ - जैसे कोई पुरुष, जोरदार शब्दों के साथ महाघोष के साथ निरन्तर चोट मारता हुआ, एरण को कूटता हुआ भी उस एरण के स्थूल पुद्गलों को परिशटित ( नष्ट करने में समर्थ नहीं होता है, हे गौतम! इसी प्रकार नैरयिक जीवों के पाप कर्म गाढ़ किये हुए हैं, यावत् इसलिए वे महानिर्जरा और महापर्यवसान वाले नहीं हैं । For Personal & Private Use Only Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९३६ भगवती सूत्र - श. ६ उ. १ वेदना और निर्जरा में वस्त्र का दृष्टांत ( गौतम स्वामी ने पूर्वोक्त प्रश्न का उत्तर दिया ) 'हे भगवन् ! उन दो वस्त्रों में से जो वस्त्र खञ्जन के रंग से रंगा हुआ वस्त्र है, वह सुधौततर, सुवाम्यतर और सुप्रतिकर्मतर है । ( भगवान् ने फरमाया ) हे गौतम! इसी प्रकार श्रमण निर्ग्रन्थों के यथाबादर (स्थूलतर स्कन्ध रूप ) कर्म, शिथिलीकृत ( मन्द विपाक वाले) निष्ठितकृत (सत्ता रहित किये हुए) विपरिणामित (विपरिणाम वाले) होते हैं । इसलिये वे शीघ्र ही विध्वस्त हो जाते हैं। जिस किसी वेदना को वेदते हुए श्रमण निर्ग्रन्थ, महानिर्जरा और महापर्यवसान वाले होते हैं । हे गौतम ! जैसे कोई पुरुष, सूखे घास के पूले को, धधकती हुई अग्नि में डाले, तो क्या वह शीघ्र ही जल जाता है ? ( गौतम स्वामी ने उत्तर दिया ) 'हाँ, भगवन् ! कह तत्क्षण जल जाता है ।' (भगवान् ने फरमाया ) हे गौतम ! इसी तरह श्रमण निर्ग्रन्थों के यथाबादर (स्थूलतर स्कन्ध रूप ) कर्म शीघ्र विध्वस्त हो जाते हैं । इसलिये श्रमण निर्ग्रन्थ महानिर्जरा और महापर्यवसान वाले होते हैं । अथवा जैसे कोई पुरुष अत्यन्त तपे हुए लोहे के गोले पर पानी की बिन्दु डा, तो वह यावत् तत्क्षण विनष्ट हो जाती है । इसी प्रकार हे गौतम ! श्रमण निर्ग्रन्थों के कर्म शीघ्र विध्वस्त हो जाते हैं । इसलिये ऐसा कहा गया हैं-जो महावेदना वाला होता है, वह महानिर्जरा वाला होता है । यावत् प्रशस्त निर्जरा वाला होता है ।' विवेचन - उपसर्ग आदि द्वारा जो विशेष पौड़ा पैदा होती है, वह 'महावेदना' कहलाती हैं और जिसमें कर्मों का विशेष रूप से क्षय हो, वह 'महानिर्जरा' कहलाती है । इन दोनों का परस्पर अविनाभाव सम्बन्ध बतलाने के लिये पहला प्रश्न किया गया है । अर्थात् 'क्या जहां महावेदना होती है, वहां महानिर्जरा होती है' और 'जहाँ महानिर्जरा होती है कहां महावेदना होती है ?' दूसरा प्रश्न यह किया गया है कि 'महावेदना वाला और अल्प वेदना वाला, क्या इन दोनों में प्रशस्त निर्जरा वाले उत्तम है ?' प्रथम प्रश्न के उत्तर में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को जिस समय महाकष्ट पड़े थे, उस समय के भगवान् For Personal & Private Use Only Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ६ उ. १ वेदना और निर्जरा में वस्त्र का दृष्टांत ९३७ महावीर यहाँ उदाहरण रूप हैं । अर्थात् उस समय भगवान् महावेदना और महानिर्जरा वाले थे। दूसरे प्रश्न के उत्तर में भी वे ही भगवान् उपसर्ग अवस्था और अनुपसर्ग अवस्था में उदाहरण रूप हैं । अर्थात् महावेदना के समय और अल्प वेदना के समय भी भगवान् सदा प्रशस्त निर्जरा वाले थे। जो महावेदना वाले होते हैं, वे सभी महानिर्जरा वाले नहीं होते हैं। जैसे कि-छठी और सातवीं पृथ्वी के नैरयिक । इस बात को वस्त्र का उदाहरण देकर बतलाया गया है। जैसे-कर्दम रंग से रंगा हुआ वस्त्र, मुश्किल से धोया जाता है । उस पर लगे हुए धब्बे मुश्किल से छुड़ाये जाते हैं और उसे साफ कर उस पर चित्रादि मुश्किल से बनाये जा सकते हैं, उसी प्रकार जिन जीवों के कर्म, डोरी से मजबूत बांधे हुए सूइयों के समूह के समान, आत्मा के प्रदेशों के साथ गाढ़ बंधे हुए हैं, मिट्टी के चिकने बर्तन के समान सूक्ष्म कर्म स्कंधों के रस के साथ परस्पर गाढ सम्बन्ध वाले होने से जिनके कर्म दुर्भेद्य हैं, अर्थात् जो चिकने कर्म वाले हैं, रस्सी द्वारा मजबूत बांधकर आग में तपाई हुई सूइय जिम प्रकार परस्पर चिपक जाती हैं और वे किसी प्रकार से भी अलग नहीं हो सकती हैं, उसी प्रकार जो कर्म, परस्पर एकमेक हो गये हैं, ऐसे श्लिष्ट (निधत्त) कर्म, और जो कर्म वेदे बिना दूसरे किसी भी उपाय से क्षय नहीं किय जा सकते हैं, एसे खिलीभूत (निकाचित) कर्म-उस मलीन से मलीन वस्त्र की तरह दुर्विशोध्य है। ऐसे गाढ़ बंध चिक्कणीकृत निधत्त और निकाचित कर्म, उन नैरयिक जीवों के महावेदना के कारण होते हैं । किन्तु उस महा- . वेदना से उनको महानिर्जरा और महापर्यवसान नहीं होता। शंका-यहां वेदना और निर्जरा का वर्णन चल रहा है । बीच में 'महापर्यवसान' का अप्रस्तुत कथन किस प्रकार किया गया है ? समाधान-यहां महापर्यवसान का कथन अप्रस्तुत नहीं है, क्योंकि जिस प्रकार वेदना और निर्जरा का परस्पर कार्य कारण भाव है, उसी प्रकार निर्जरा और पर्यवसान का भी परस्पर कार्य कारण भाव है। इसीलिये मूलपाठ में भी यह कहा गया है कि जो महानिर्जरा वाला नहीं होता, वह महापर्यवसान वाला भी नहीं होता । अतः यहां महा- . पर्यवसान का कथन अप्रस्तुत नहीं समझना चाहिये। मूलपाठ में जो यह कहा गया है कि-जो 'महावेदना वाला होता है, वह महानिर्जरा वाला होता है,' यह कथन किसी एक विशिष्ट जीव, की अपेक्षा से समझना चाहिये, किन्तु नैरयिक आदि क्लिष्ट कर्म वाले जीवों की अपेक्षा नहीं। मूलपाठ में जो यह कहा गया हैं कि 'जो महानिर्जरा वाला होता हैं, वह महावेदना For Personal & Private Use Only Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ६ उ. १ जीव और करण । वाला होता है। यह कथन भी प्रायिक समझना चाहिये। क्योंकि अयोगी केवली महानिर्जरा वाले तो होते हैं, परन्तु वे नियमा महावेदना वाले नहीं होते । अतएव इसमें भजना है । अर्थात् वे महावेदना वाले भी हो सकते हैं और नहीं भी हो सकते हैं । दूसरा दृष्टान्त एरण का दिया गया है। जिस प्रकार लोह के धन से महाशब्द और महाघोष के साथ निरन्तर एरण को कूटने पर भी उसके स्थूल पुद्गल नष्ट नहीं हो सकते, उसी प्रकार नैरयिक जीवों के भी गाढ़कृत आदि पाप कर्म दुष्परिशाटनीय होते हैं । खंजन रंग से रंगे हुए वस्त्र का दृष्टान्त देकर यह बतलाया गया है कि जिस प्रकार वह वस्त्र सविशोध्य (सरलता से साक.हो सकने वाला) होता है, उसी प्रकार स्थल तर स्कन्ध रूप (असार पुद्गल) श्लथ (मन्द) विपाक वाले सत्ता रहित और विपरिणामित (स्थितिघात और रस-घात के द्वारा विपरिणाम वाले ) कर्म भी शीघ्र ही विध्वस्त हो जाते हैं । अर्थात् ये कर्म सुविशोध्य होते हैं। जिनके कर्म ऐसे सुविशोध्य होते हैं, वे महानुभाव कैसी भी वेदना को भोगते हुए महानिर्जरा और महापर्यवसान वाले होते हैं । जीव और करण ५ प्रश्न-कइविहे णं भंते ! करणे पण्णते ? ५ उत्तर-गोयमा ! चविहे करणे पण्णत्ते, तं जहा-मणकरणे, वइकरणे, कायकरणे, कम्मकरणे। ६ प्रश्न-णेरइयाणं भंते ! कइविहे करणे पण्णते ? ६ उत्तर-गोयमा ! चउविहे. पण्णत्ते, तं जहा-मणकरणे, वइकरणे, कायकरणे, कम्मरणे, एवं पंचिंदियाणं सव्वेसिं चउविहे करणे पण्णत्ते । एगिदियाणं दुविहे-कायकरणे य, कम्मकरणे य । विगलेंदियाणं तिविहे-वइकरणे, कायकरणे, कम्मकरणे। For Personal & Private Use Only Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श ६ उ १ जीव और करण ७ प्रश्न - णेरइया णं भंते किं करणओ असायं वेयणं वेयंति, अकरणओ अणायं वेयणं वेयंति ? ७ उत्तर - गोयमा ! णेरड्या णं करणओ असायं वेयणं वेयंति, अकरण असायं वेयणं वेयंति । ८ प्रश्न - सेकेणणं ? ८ उत्तर - गोयमा ! णेरइयाणं चउव्विहे करणे पण्णत्ते, तं जहा - मणकरणे, वड़करणे, कायकरणे, कम्मकरणे, इच्चेपणं चउव्विणं असुभेणं करणेणं णेरइया करणओ असायं वेयणं वेयंति, णो अकरणओ से तेणणं । ९ प्रश्न - असुरकुमारा णं किं करणओ. अकरणओ ? ९ उत्तर - गोयमा ! करणओ. णो अकरणओ । ९३९ १० प्रश्न - से केणट्टेणं ? १० उत्तर - गोयमा ! असुरकुमाराणं चउविहे करणे पण्णत्ते, तं जहा - मणकरणे, asकरणे, कायकरणे, कम्मकरणे, इच्चेपणं सुभेणं करणं असुरकुमारा णं करणओ सायं वेयणं वेयंति, णो अकरणओ; एवं जाव - थणियकुमाराणं । ११ प्रश्न - पुढवीकाइयाणं एवामेव पुच्छा ? ११ उत्तर - वरं इच्चेएणं सुभाऽसुभेणं करणेणं पुढवि काइया करणओ वेमायाए वेयणं वेयंति, णो अकरणओ । For Personal & Private Use Only Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४० भगवती सूत्र-श. ६ उ. १ जीव और करण -ओरालियसरीरा सव्वे सुभाऽसुभेणं मायाए, देवा सुभेणं सायं । कठिन शब्दार्थ-करणे-करण-जिन से क्रिया की जाय, एवामेव-इसी तरह, वेमायाए-विमात्रा से-विविध प्रकार से, ओरालियसरीरा-औदारिक शरीर वाले। भावार्थ-५ प्रश्न-ले भगवन ! करण कितने प्रकार के कहे गये हैं? ५ उत्तर-हे गौतम ! करण चार प्रकार के कहे गये हैं। वे इस प्रकार है-मन-करण, वचन-करण, काय-करण और कर्म-करण । ६ प्रश्न-हे भगवन् ! नैरयिक जीवों के कितने प्रकार के करण कहे गये हैं। ६ उत्तर-हे गौतम ! नरयिक जीवों के चार प्रकार के करण कहे गये हैं। यथा-मनकरण, वचनकरण, कायकरण और कर्मकरण । सभी पञ्चेन्द्रिय जीवों के ये चार प्रकार के करण होते हैं। एकेन्द्रिय जीवों के दो प्रकार के करण होते हैं। यथा-कायकरण और कर्मकरण । विकलेन्द्रिय जीवों के तीन प्रकार के करण होते हैं । यथा-वचनकरण, कायकरण और कर्मकरण। ७ प्रश्न-हे भगवन् ! नैरयिक जीव, करण से असातावेदना वेदते हैं, या अकरण से ? ७ उत्तर-हे गौतम ! नैरयिक जीव, करण से असातावेदना वेदते हैं, परन्तु अकरण से नहीं वेदते हैं। ८ प्रश्न-हे भगवन् ! इसका क्या कारण हैं ? ८ उत्तर-हे गौतम ! नरयिक जीवों के चार प्रकार के करण कहे गये हैं । यथा-मनकरण, वचनकरण, कायकरण और कर्मकरण । ये चार प्रकार के अशुभ करण होने से नरयिक जीव, करण द्वारा असाता वेदना वेदते हैं, परन्तु अकरण द्वारा असाता वेदना नहीं वेवते हैं। ९ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या असुरकुमार देव, करण से साता वेदना वेदते है, या अकरण से ? For Personal & Private Use Only Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ६ उ. १ वेदना और निर्जरा की सहचरता ९४१ ९ उत्तर-हे गौतम ! वे करण से सातावेदना वेदते हैं, अकरण से नहीं। १० प्रश्न-हे भगवन् ! इसका क्या कारण है ? १० उत्तर-हे गौतम ! असुरकुमारों के चार प्रकार के करण होते हैं। यथा-मनकरण, वचनकरण, कायकरण और कर्मकरण । इनके शभ करण होने से असुरकुमार देव, करण द्वारा साता वेदना वेदते हैं, परन्तु अकरण द्वारा नहीं वेदते हैं । इस प्रकार स्तनितकुमारों तक समझ लेना चाहिये। ११ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या पृथ्वीकायिक जीव, करण द्वारा वेदना वेदते हैं, या अकरण द्वारा ? ११ उत्तर-हे गौतम ! पृथ्वीकायिक जीव, करण द्वारा वेदना वेदते हैं, अकरण द्वारा नहीं। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनके शुभाशुभ करण होने से ये करण द्वारा विमात्रा से (विविध प्रकार से ) वेदना वेदते हैं । अर्थात् कदाचित् सुखरूप और कदाचित् दुःखरूप वेदना वेदते हैं, अकरण द्वारा नहीं। औदारिक शरीर वाले सभी जीव, अर्थात् पांच स्थावर, तीन विकलेन्द्रिय, तियंच पञ्चेन्द्रिय और मनुष्य ये सब शुभाशुभ करण द्वारा विमात्रा से वेदना वेदते हैं । अर्थात् कदाचित् सुखरूप और कदाचित् दुःखरूप वेदना वेदते हैं ! , देव शुभकरण द्वारा साता वेदना वेदते हैं। विवेचन-पहले वेदना के विषय में विचार किया गया है । वह वेदना करण से होती है । इसलिये इस प्रकरण में करण सम्बन्धी विचार किया जाता है । करण चार प्रकार के कहे गये हैं। मन सम्बन्धी करण, वचन सम्बन्धी करण, काय सम्बन्धी करण और कर्म विषयक करण । कर्म के बन्धन, संक्रमण आदि में निमित्तभूत जीव के वीर्य को 'कर्म करण' कहते हैं । विमात्रा का अर्थ -किसी समय साता वेदना और किसी समय असाता वेदना। वेदना और निर्जरा की सहचरता १२ प्रश्न-जीवा णं भंते ! किं महावेयणा महाणिजरा, महा For Personal & Private Use Only Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र--- ग. ६ उ. १ वेदना और निजंग की ग, चना वेयणा अप्पणिज्जरा,अप्पयणा महाणिजरा,अप्पवेयणा अपणिजग ? १२ उत्तर-गोयमा ! अत्थंगड्या जीवा महावयणा महणिजग. अत्थेगड्या जीवा महावेयणा अप्पणिजरा, अत्यंगड्या जीवा अप्प वेयणा महाणिजरा, अत्थेगइया जीवा अप्पवेयणा अप्पणिजग। १३ प्रश्न-से केणटेणं ? १३ उत्तर-गोयमा ! पडिमापडिवण्णए अणगारे महावयगे महाणिजरे, छठ्ठ-सत्तमामु-बुढवीमु णेरड्या महावेयणा अप्पणिजरा, सेलेमि पडिवण्णए अणगारे अप्पवेयणे महाणिजरे, अणुत्तरोववाड्या देवा अप्पवेयणा अप्पणिजग। ॐ मेवं भंते ! मेवं भंते । ति के -महावेयणे य वत्थे कदम-वजणकए य अहिगरणी । तणहत्थे य कवल्ले करण-महावेयणा जीवा ॥ मेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति के ॥ छट्टसए पढमो उद्देसो सम्मत्तो॥ कठिन शब्दार्थ-अत्थेगइया - कितनक, पडिमापडिवण्णए-प्रतिमा (प्रतिज्ञा) प्राप्त किया हुआ, सेलेसि पडिण्णए–गलेशी-पर्वत की तरह स्थिरता प्राप्त । भावार्थ--१२ प्रश्न--हे भगवन् ! जीन, महावेदना और महानिर्जरा वाले हैं, महावेदना और अल्प निर्जरा वाले हैं, अल्पवेदना वाले और महानिर्जरा वाले हैं अथवा अल्प वेदना वाले और अल्प निर्जरा वाले हैं ? For Personal & Private Use Only Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ६ उ १ वेदना और निर्जरा की सहचरता १२ उत्तर - हे गौतम! कितने ही जीव, महावेदना और महानिर्जरा वाले हैं, कितने ही जीव, महावेदना और अल्पनिर्जरा वाले हैं, कितने ही जीव, अल्प वेदना और महानिर्जरा वाले हैं और कितने ही जीव, अल्पवेदना और अल्प-निर्जरा वाले हैं । १३ प्रश्न - हे भगवन् ! इसका क्या कारण है ? १३ उत्तर - हे गौतम ! प्रतिमा प्रतिपन्न ( प्रतिमा को धारण किया हुआ) साधु, महावेदना वाला और महानिर्जरा वाला है। छठी और सातवीं पृथ्वी में रहे हुए नैरयिक जीव, महावेदना वाले और अल्प निर्जरा वाले है । शैलेशी अवस्था को प्राप्त अनगार, अल्पवेदना और महानिर्जरा वाले हैं और अनुत्तरौपपातिक देव, अल्पवेदना और अल्पनिर्जरा बाले हैं । संग्रह गाथा का अर्थ इस प्रकार है: - महावेदना, कर्दम और खञ्जन के रंग से रंगे हुए वस्त्र, अधिकरणी ( एरण) घास का पूला, लोह का तवा, करण और महावेदना वाले जीव । इतने विषयों का वर्णन इस प्रथम उद्देशक में किया गया है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । यावत् गौतम स्वामी विचरते हैं । विवेचन - इस प्रकरण में आये हुए दोनों प्रश्नोत्तरों का अर्थ स्पष्ट है । ॥ इति छठे शतक का प्रथम उद्देशक समाप्त ॥ ९४३ + For Personal & Private Use Only Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४४ भगवंसी सूत्र - श. ६ उ. २ शतक उद्देशक २ - रायगिहं णयरं जाव - एवं वयासी - आहारुद्देसओ जो पण्णवणाए सो सव्वो निरवसेसो यव्वो । * सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति ॥ छट्टस बीओ उद्देसो सम्मत्तो ॥ कठिन शब्दार्थ - आहारुद्देसओ - प्रजापना सूत्र के २८ वे आहार पद का पहला उद्देशक । भावार्थ - राजगृह नगर में यावत् भगवान् ने इस प्रकार फरमाया। यहां प्रज्ञापना सूत्र के २८ वें आहार पद का सम्पूर्ण प्रथम उद्देशक कहना चाहिये । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । विवेचन - पहले उद्देशक के अन्त में वेदना वाले जीवों का कथन किया गया है । वे जीव, आहार करने वाले भी होते हैं । इसलिये इस दूसरे उद्देशक में आहार का वर्णन किया जाता है । जीवों के आहार सम्बन्धी वर्णन के लिये प्रज्ञापना सूत्र के २८ वें आहार पद के प्रथम उद्देशक की भलामण दी गई है । उसका सर्व प्रथम प्रश्नोत्तर इस प्रकार हैहे भगवन् ! नैरयिक जीव, क्या सचित्ताहारी हैं, अचित्ताहारी हैं, या मिश्र आहारी हैं ? उत्तर - हे गौतम ! नैरयिक जीव, सचित्ताहारी नहीं हैं, मिश्र आहारी नहीं हैं, . वे अचित्ताहारी हैं । • इत्यादि रूप से विविध प्रश्नोत्तरों द्वारा जीवों के आहार के सम्बन्ध में वर्णन किया गया है । विशेष जिज्ञासुओं को इस विषयक वर्णन प्रज्ञापना सूत्र के २८ वें पद के प्रथम उद्देशक में देखना चाहिये । ॥ इति छठे शतक का दूसरा उद्देशक समाप्त ॥ For Personal & Private Use Only Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र --श. ६ उ. ३ महाकर्म और अल्पकर्म शतक उद्देशक ३ बहुकम्म वत्थे पोग्गल पओगला वीससा य साइए । कम्महि-स्थि-संजय सम्मदिट्टी य सण्णी य ॥ १ ॥ भविए दंसण- पज्जत्त भासय-परि णाण- जोगे य । उवओगा-ऽऽहारग- सुहुम-चरिम - बंधे य अप्प बहुं ॥ २ ॥ S. कठिन शब्दार्थ –पयोगसा - जीव के प्रयत्न से, वीससा - स्वाभाविक । भावार्थ - बहुकर्म, वस्त्र में प्रयोग से और स्वाभाविक रूप से पुद्गल, सादि ( आदि सहित ) कर्मस्थिति, स्त्री, संयत, सम्यग्दृष्टि, संज्ञी, भव्य, दर्शन, पर्याप्त, भाषक, परित्त, ज्ञान, योग, उपयोग, आहारक, सूक्ष्म, चरम, बंध, और अल्पबहुत्व, इतने विषयों का कथन इस उद्देशक में किया जायेगा । ९४५ विवेचन – दूसरे उद्देशक में आहार की अपेक्षा से पुद्गलों का विचार किया गया था, अब इस तीसरे उद्देशक में बन्धादि की अपेक्षा से पुद्गलों का विचार किया जाता है । इस उद्देशक में जिन विषयों का वर्णन किया गया है, उनका नाम निर्देश उपर्युक्त दो संग्रह गाथाओं में किया गया है। महाकर्म और अल्पकर्म १ प्रश्न - से णूणं भंते! महाकम्मस्स, महाकिरियरस, महासवस्स, महावेयणस्स, सव्वओ पोग्गला बज्झंति, सओ पोग्गला चिजति; सव्वओ पोग्गला उवचिज्जति, सया समियं पोग्गला For Personal & Private Use Only Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ५४६ भगवती सूत्र--- मा. ६ उ. ३ महाकर्म और अल्पकम वझंति, मया ममियं पोग्गला चिजति, सया ममियं पोग्गला उवचिजंति, मया ममियं च णं तम्म आया दुरूवत्ताए, दुवण्णत्ताए, दुगंधताए, दुरमत्ताए, दुफामत्ताए; अणि?त्ताए, अकंत-अप्पिय-असुभ-अमगुणण-अमणामत्ताए, अणिच्छियत्ताए, अभिज्झियत्ताए, अहत्ताए-णो उड्ढत्ताए; दुक्खत्ताए-णो सुहत्ताए भुजो भुजो परिणमंति ? १ उत्तर-हंता, गोयमा ! महाकम्मस्स तं चेव । २ प्रश्न-से केणटेणं ? २ उत्तर-गोयमा ! से जहा णामए वत्थस्स अहयस्स वा. धोयस्म वा, तंतुग्मयस्स वा आणुपुवीए परिभुजमाणस्स सव्वओ पोग्गला बझंति; सव्वओ पोग्गला चिजति; जाव-परिणमंति; से तेणट्रेणं। ३ प्रश्न-से णूणं भंते ! अप्पकम्मस्स, अप्पकिरियस्स, अप्पाऽऽ. सवस्स, अप्पवेयणस्स मव्वओ पोग्गला भिजंति, सवओ पोग्गला छिति, सव्वओ पोरगला विदुधंसंति, मव्वओ पोग्गला परिविद्धं मंति; सया समियं पोग्गला भिजंति, सव्वओ पोग्गला छिजंति, विद्धंस्संति, परिविद्धस्संति, सया समियं च णं तस्म आया सुरूवत्ताए पसत्थं णेयवं, जाव-सुहत्ताए-णो दुक्खत्ताए भुजो भुजो परिणमंति ? ३ उत्तर-हंता, गोयमा ! जाव-परिणमंति । For Personal & Private Use Only Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ६ उ. ३ महाकर्म और अल्पक में ४ प्रश्न-से केणटेणं ? ४ उत्तर-गोयमा ! से जहा णामए वत्थस्स जल्लियस्स वा पंकियस्म वा मइल्लियस्स वा रइल्लियस्स वा आणुपुव्वीए परिकम्मिजमाणस्स सुद्धेणं वारिणा धोव्वेमाणरस सव्वओ पोग्गला भिज्जंति, जाव-परिणमंति, से तेणटेणं । कठिन शब्दार्थ-बझंति-बँधते हैं चिति-चय-संग्रह होता है, अणिद्वत्ताए अनिष्ट रूप में, अकंत-अप्पिय-असुभ-अमणुण्ण-अमणामत्ताए-अकान्न, अप्रिय, अशुभ, अमनोज्ञ, अमनामपने, अणिच्छियत्ताए-अनिच्छनीयपने, अभिज्झियत्ताए-जिसे प्राप्त करने की रुचि नहीं हो, अहत्ताए-नीचत्व प्राप्त, उड्डत्ताए-ऊध्वंत्व, अहयस्स-अक्षत, तंतुग्गयस्स-सांचे पर से उतरा हुआ, आणुपुटवीए -क्रमशः, परिभुज्जमाणस्स-भोगते हुए, अप्पाऽसवस्स-अल्प आश्रव वाला, भिज्जति - भेदित होते हैं, सया-सदा, समिय-निरन्तर, भुज्जो भुज्जो-बारम्बार, जल्लियस्स-मलीन, पंकियस्स-पंकयुक्त, मइल्लियस्स-मेल युक्त, रइल्लियरस-रज सहित, परिकम्मिज्जमाणस्स-जिसे शुद्ध करने का प्रयत्न किया जा रहा है। भावार्थ- १ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या महाकर्म वाले, महाक्रिया वाले, महाआश्रव वाले और महावेदना वाले जीव के सर्वतः अर्थात् सभी ओर से और सभी प्रकार से पुद्गलों का बन्ध होता है ? सर्वतः पुद्गलों का चय होता है ? सर्वतः पुद्गलों का उपचय होता है ? सदा निरन्तर पुद्गलों का बन्ध होता है ? सदा निरन्तर पुद्गलों का चय होता है ? सदा निरन्तर पुद्गलों का उपचय होता है ? क्या सदा निरन्तर उसको आत्मा दुरूपपने, दुर्वर्गपने, दुगंधपने, दुःरसपने, दुःस्पर्शपने, अनिष्टपने, अकान्तपने, अप्रियपने, अशुभपने, अमनोज्ञपने, अमनामपने (मन से भी जिसका स्मरण न किया जा सके) अनीप्सितपने (अनिच्छितपने) अभिध्यितपने (जिस को प्राप्त करने के लिये लोभ भी न हो) जघन्यपने, अनज़पने, दुःखपने और असुखपने बारंबार परिणत होती है ? १ उत्तर-हाँ, गौतम ! उपर्युक्त रूप से यावत् परिणमती है । For Personal & Private Use Only Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४८ भगवती सूत्र - श. ६ उ. ३ वेदना और निर्जरा में वस्त्र का दृष्टांत २ प्रश्न - हे भगवन् ! इसका क्या कारण है ? २ उत्तर - हे गौतम ! जैसे कोई अहत ( अपरिभुक्त) जो नहीं पहना गया है) धौत ( पहन करके भी धोया हुआ ) तन्तुगत ( मशीन पर से तुरन्त उतरा हुआ) वस्त्र, अनुक्रम से काम में लिया जाने पर, उसके पुद्गल सर्वतः बन्धते हैं, सर्वतः चय होते हैं, यावत् कालान्तर में वह वस्त्र मसोता जैसा मैला और दुर्गन्ध युक्त हो जाता है। इसी प्रकार महाकर्म वाला जीव, उपर्युक्त रूप से यावत् असुखपने बारंबार परिणमता है । ३ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या अल्प कर्म वाले, अल्प क्रिया वाले, अल्प आश्रववाले और अल्प वेदना वाले जीव के सर्वतः पुद्गल भेदाते हैं ? सर्वतः पुद्गल छेदाते हैं ? सर्वतः पुद्गल विध्वंस को प्राप्त होते हैं ? सर्वतः पुद्गल समस्त रूप से विध्वंस को प्राप्त होते हैं ? क्या सदा निरन्तर पुद्गल भेदाते हैं ? सर्वतः पुद्गल छेदात हैं ? विध्वंस को प्राप्त होते हैं ? समस्त रूप से विध्वंस को प्राप्त होते हैं ? क्या उसकी आत्मा सदा निरन्तर सुरूपपने यावत् सुखपने और अदुःखपने बारंबार परिणमती है ? (पूर्व सूत्र में अप्रशस्त का कथन किया है, किंतु यहाँ सब प्रशस्त पदों का कथन करना चाहिये) । ३ उत्तर - हाँ, गौतम ! उपर्युक्त रूप से यावत् परिणमती है। ४ प्रश्न - हे भगवन् ! इसका क्या कारण है ? ४ उत्तर - हे गौतम! जैसे कोई मलीन, पंकसहित ( मैल सहित ) और जसहित वस्त्र हो, वह वस्त्र क्रम से शुद्ध किया जाने पर और शुद्ध पानी से धोया जाने पर उस पर लगे हुए पुद्गल सर्वतः भेदाते हैं, छेदाते हैं, यावत् परिणाम को प्राप्त होते हैं । इसी तरह अल्पक्रिया वाले जीव के विषय में भी पूर्वोक्त रूप से कथन करना चाहिये । विवेचन - उपरोक्त द्वारों में से प्रथम बहुकर्मद्वार का कथन किया जाता हैं । जिसके कर्मों की स्थिति आदि लम्बी हो, उसे 'महाकर्म वाला' कहा गया है। जिसके की आदि क्रियाएं महान् हों उसको यहां 'महाक्रियावाला' कहा गया है । कर्म बंध के हेतुभूत मिथ्यात्व आदि जिसके महान् हों उसको 'महाआश्रव वाला' कहा गया है और महापीड़ा For Personal & Private Use Only Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र -श. ६ उ. ३ वस्त्र और जीव के पुद्गलोपचय ९४९ वाले को 'महावेदना वाला' कहा गया है । 'मन्त्रओ' का अर्थ मर्वतः अर्थात् सभी दिशाओं से अथवा मत्र प्रदेशों से कर्म के परमाणु संकलन रूप स बंधते हैं । बन्धन रूप से चय को प्राप्त होते हैं । 'निषेक'-कर्म पुद्गलों की रचना रूप से उपचय को प्राप्त होते हैं । अथवा बन्धन रूप से बन्धते हैं । निधत्त रूप से चय होते हैं और निकाचन रूप मे उपचय होते हैं। वस्त्र का दृष्टान्त देकर यह बतलाया गया है कि-जिस प्रकार नवीन और साफ वस्त्र भी काम में लेने से और पुद्गलों के संयोग से मसोते सरीखा मलीन हो जाता है, उमी प्रकार कर्म पुद्गलों के संयोग से आत्मा भी दुरूप आदि से परिणत हो जाती है । जैसे मलीन वस्त्र भी पानी से धोकर शुद्ध किया जाने पर साफ हो जाता है, उसी प्रकार आत्मा भी कर्म पुद्गलों के विध्वंस होने मे मुखादि रूप से प्रशस्त बन जाती है । वस्त्र और जीव के पुद्गलोपचय ५ प्रश्न-वत्थस्म णं भंते ! पोग्गलोवचये किं पओगसा वीसमा ? ५ उत्तर-गोयमा ! पओगसा वि, वीससा वि । ६ प्रश्न-जहा-णं भंते ! वत्थस्स णं पोग्गलोवचए पओगसा वि, वीमसा वि तहा णं जीवाणं कम्मोवचए किं पओगसा, वीससा ? ६ उत्तर-गोयमा ! पओगसा, णो वीससा । ७ प्रश्न-मे केणटेणं ? ७ उत्तर-गोयमा ! जीवाणं तिविहे पओगे पण्णत्ते, तं जहामणप्पओगे, वइप्पओगे, कायप्पओगे; इच्चेएणं तिविहेणं पओगेणं जीवाणं कम्मोवचये पओगसा, णो वीससा; एवं सव्वेसिं पंचिंदि For Personal & Private Use Only Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९५० भगवती सूत्र-श. ६ उ. ३ वस्त्र और जीव के पुद्गलोपचय याणं तिविहे पओगे भाणियव्वे । पुढवीकाइयाणं एगविहेणं पओगेणं, एवं जाव-वणस्सइकाइयाणं । विगलेंदियाणं दुविहे पओगे पण्णत्ते, तं जहा–वइपओगे, कायपओगे य, इच्चेएणं दुविहेणं पओगेणं कम्मोवचए पओगसा, णो वीससा, से तेणटेणं जाव-णो वीससा, एवं जस्स जो पओगो, जाव-वेमाणियाणं । ८ प्रश्न-वस्थस्स णं भंते ! पोग्गलोवचए किं साइए सपन्जवसिए, साइए अपजवसिए, अणाइए सपजवसिए, अणाइए अपज्जवसिए ? ८ उत्तर-गोयमा ! वत्थस्स णं पोग्गलोवचए साइए सपन: वसिए, णो साइए अपजवसिए णो अणाइए सपज्जवसिए, णो अणाइए अपज्जवसिए। ९ प्रश्न-जहाणं भंते ! वत्थस्स पोग्गलोवचए साइए सपन्जवसिए, णो साइए अपजवसिए, णो अणाइए सपजवसिए, णो अणाइए अपजवसिए; तहा णं जीवाणं कम्मोवचए पुच्छा ? ___ ९ उत्तर-गोयमा ! अत्यंगइयाणं जीवाणं. कम्मोवचए साइए सपजवसिए, अत्थेगइयाणं अणाइए सपजवसिए, अत्थेगइयाणं अणाइए अपज्जवसिए, णो चेव णं जीवाणं कम्मोवचए साइए अपजवसिए। ___ १० प्रश्न-से केणटेणं ? For Personal & Private Use Only Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ६ उ ३ वस्त्र और जीव के पुद्गलोपचय १० उत्तर - गोयमा ! इरियावहियबंधयस्म कम्मोवचए साइए सपवज्जवसिए, भवसिद्धियस्स कम्मोवचए अणाइए सपज्जवसिए, अभवसिद्धियस्स कम्मोवचए अणाइए अपज्जवसिए से तेणट्टेणं गोयमा ! कठिन शब्दार्थ- पोग्गलोवचए - पुद्गलों का उपचय - संग्रह, पओगसा प्रयोग से, वीससा - स्वाभाविक रूप से, साइए सपज्जवसिए आदि और अंत सहित, साइए अपज्जवसिएआदि युक्त अंत रहित अणाइए सपज्जवसिए - अनादि सपर्यवमित, अणाइए अपज्जबसिए - अनादि अपर्यवसित, ईरियावहियबंधस्स- इर्यापथिक ( गमनागमन) बंध की अपेक्षा, अभवसिद्धियस्स - जो मुक्त नहीं हो सकता हो उसके । भावार्थ - ५ प्रश्न - हे भगवन् ! वस्त्र में पुद्गलों का उपचय होता है, वह प्रयोग से ( पुरुष के प्रयत्न से ) होता है अथवा स्वाभाविक ? ९५१ ५ उत्तर - हे गौतम! प्रयोग से भी होता हे और स्वाभाविक रूप से भी होता है । ६ प्रश्न - हे भगवन् ! जिस प्रकार प्रयोग से और स्वाभाविक रूप से वस्त्र के पुद्गलों का उपचय होता है, तो क्या उसी प्रकार जीवों के भी प्रयोग से और स्वभाव से कर्म पुद्गलों का उपचय होता है ? ६ उत्तर - हे गौतम ! जीवों के जो कर्म पुद्गलों का उपचय होता है, वह प्रयोग से होता है, किन्तु स्वाभाविक रूप से नहीं होता है । ७ प्रश्न - हे भगवन् ! इसका क्या कारण है ? ७ उत्तर - हे गौतम! जीवों के तीन प्रकार के प्रयोग कहे गये हैं। यथामनप्रयोग, वचनप्रयोग और कायप्रयोग । इन तीन प्रकार के प्रयोगों से जीवों के कर्मों का उपचय होता है। इसलिये जीवों के कर्मों का उपचय प्रयोग से होता है, स्वाभाविक रूप से नहीं । इस प्रकार सभी पञ्चेन्द्रिय जीवों के तीन प्रकार का प्रयोग होता है । पृथ्वीकायिकादि पांच स्थावर जीवों के एक काय प्रयोग से होता C For Personal & Private Use Only Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९५२ भगवती सूत्र-श. ६ उ. ३ वस्त्र और जीव के पुद्गलोपचय है। तीन विकलेन्द्रिय जीवों के वचन प्रयोग और काय प्रयोग, इन दो प्रयोगों से होते हैं । इस प्रकार सर्व जीवों के प्रयोग द्वारा कर्मों का उपचय होता है, किंतु स्वाभाविक रूप से नहीं होता। इस प्रकार वैमानिक पर्यन्त सभी जीवों के विषय में कहना चाहिये। ८प्रश्न-हे भगवन् ! वस्त्र के जो पुद्गलों का उपचय होता है, क्या वह सादि सान्त है, सादि अनन्त हैं, अनादि सान्त है, या अनादि अनन्त है ? ८ उत्तर-हे गौतम ! वस्त्र के पुद्गलों का जो उपचय होता है, वह सादि सान्त है, परन्तु सादि अनन्त, अनादि सान्त और अनादि अनन्त नहीं है। ९ प्रश्न-हे.भगवन् ! जिस प्रकार वस्त्र के पुद्गलोपचय सादि सान्त है, किन्तु सादि अनन्त, अनादि सान्त और अनादि अनन्त नहीं है, उसी प्रकार जीवों के कर्मोपचय भी सादि सान्त है, सादि अनन्त है, अनादि सान्त है, या अतादि अनन्त है ? " १ उत्तर-हे गौतम ! कितने ही जीवों के कर्मोपचय सादि सान्त हैं, कितने ही जीवों के कर्मोपचय अनादि सान्त है, और कितने ही जीवों के कर्मोपचय अनादि अनन्त है, परन्तु जीवों के कर्मोपचय सादि अनन्त नहीं हैं। १० प्रश्न-हे भगवन् ! इसका क्या कारण है ? १० उत्तर-हे गौतम ! ईर्यापथिक बंध की अपेक्षा कर्मोपचय सादि सान्त हैं। भवसिद्धिक जीवों के कर्मोपचय अनादि सान्त है। अभवसिद्धिक जीवों के कर्मोपचय अनादि अनन्त है । इसलिये हे गौतम ! उपर्युक्त रूप से कथन किया गया है। विवेचन-वस्त्र द्वार-कपड़े के पुद्गलोपचय प्रयोग से (जीव के प्रयत्न से) और स्वाभाविक रूप से, इन दोनों प्रकार से होता है, किन्तु जीवों के कर्मोपचय प्रयोग से ही होता है। यदि ऐसा न माना जाय तो अयोगी अवस्था में भी जीवों को कर्म बन्ध का प्रसंग होगा । अतः जीवों के कर्मोपचय प्रयोग से ही होता है। यह कथन सयुक्तिक है । सादि द्वार-गमन मार्ग को 'ईर्यापथ' कहते हैं। ईर्यापथ से बंधने वाले कर्म को For Personal & Private Use Only Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - ६ उ. ३ वस्त्र और जीव की सादि सान्तता 'पथिक' कर्म कहते हैं अर्थात् जिसमें केवल शरीरादि योग ही हेतु है, ऐसा कर्म 'ऐर्यापथिक' कहलाता है और इस कर्म का बन्धक 'एर्यापथिक बन्धक' कहलाता है । उपशान्त मोह, क्षीणमोह और योगी केवलो को ऐयपिथिक कर्म का बन्ध होता है । यह कर्म इस अवस्था से पहले नहीं बंधता है, इसलिए इस अवस्था की अपेक्षा से इसका 'सादिपना' है । अयोगी अवस्था में अथवा उपशमश्रणी से गिरने पर इस कर्म का बन्ध नहीं होता है, इसलिए इसका 'मान्तपना' है । तात्पर्य यह है कि - 'ई' का अर्थ है - गति और 'पथ' का अर्थ है 'मार्ग' | इस प्रकार 'ईर्यापथ' का अर्थ है – गमनमार्ग । जो कर्म केवल हलन चलन आदि प्रवृत्ति से बंधता है, जिसके बन्ध में दूसरा कारण ( कषाय ) नहीं होता है, उसे 'ऐर्यापथ' कर्म कहते हैं । कर्मबन्ध के मुख्य दो कारण हैं - एक तो क्रोधादि कषाय और दूसरा शारीरिक वाचिक आदि प्रवृत्ति | जिन जीवों के कषाय सर्वथा उपशान्त या सर्वथा क्षीण नहीं हुआ है, उनके जो भी कर्म बन्ध होता है, वह सब काषायिक ( कषाय जन्य ) कहलाता है । यद्यपि सब कषाय वाले जावों के कषाय सदा निरन्तर प्रकट नहीं रहता है, तथापि उनका कषाय सर्वथा उपशान्त या क्षोण न होने से उनकी हलन चलन आदि सारी प्रवृत्तियाँ (जिनमें प्रकट रूप से कारण रूप कोई कषाय मालूम नहीं होता है तथापि उनकी वे सब प्रवृत्तियाँ ) 'कषायिक' ही कहलाती हैं। जिन जीवों के कषाय सर्वथा उपशान्त या क्षीण हो गया है, उनकी हलन चलन आदि मारी प्रवृत्तियाँ 'काषायिक' नहीं कहलाती हैं, किन्तु शारीरिक ( कायिक) या वाचिक आदि योगवाली कहलाती हैं । यहाँ जो 'ऐर्यापथिक' क्रिया बतलाई गई है, वह उपशान्त मोह गुणस्थान में रहने वाले या क्षीणमोह गुणस्थान में रहने वाले तथा सयोगी केवली के ही हो सकती है, क्योंकि उन जीवों के ही इस प्रकार का कर्म बन्ध हो सकता है । वस्त्र और जीव को सावि सान्तता ९५३ वि पडिसेहेयव्वा । ११ प्रश्न - वत्थे णं भंते ! किं साइए सपज्जवसिए चउभंगो ? ११ उत्तर - गोयमा ! वत्थे साइए सपज्जवसिए, अवसेसा तिष्णि For Personal & Private Use Only Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९५४ भगवती सूत्र"शः ६. ३ वस्त्र और जीव की सादि सन्तिता १२ प्रश्न-जहा णं भंते ! वत्थे साइए सपज्जवसिए, णो साइए अपजवसिए, णो अणाइए सपजवसिए, णो अणाइए अपज्जवसिए तहा णं जीवा णं किं साइया सपज्जवसिया चउभंगो-पुच्छा ? . १२ उत्तर-गोयमा ! अत्थेगइया साइया सपज्जवसिया, चत्तारि वि भाणियव्वा । १३ प्रश्न-से केणटेणं? .१३ उत्तर-गोयमा ! णेरइय-तिरिक्खजोणिय-मणुस्स-देवा गइरागई पडुच्च साइया सपज्जवसिया, सिद्धा (सिद्ध) गई पडुच्च साइया अपज्जवसिया, भवसिद्धिया लदिध पडुच्च अणाइया सपनवसिया, अभवसिद्धिया संसारं पडुच्च अणाइया अपज्जवसिया, से तेणटेणं। कठिन शब्दार्थ-गइरागइं-जाना आना, पडुच्च-अपेक्षा, लात-लब्धि-प्राप्ति । भावार्थ-११ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या वस्त्र सादि सान्त है ? इत्यादि पूर्वोक्त रूप से चार भंग करके प्रश्न करना चाहिए ? ११ उत्तर-हे गौतम ! वस्त्र सादि सान्ट + । बाकी तीन भंगों का वस्त्र में निषेध करना चाहिए। १२ प्रश्न-हे भगवन् ! जैसे वस्त्र सादि मान्त है, किन्तु सादि अनन्त नहीं है, अनादि सान्त नहीं है और अनादि अनन्त नहीं है, उसी प्रकार जीवों के लिए भी प्रश्न करना चाहिए; हे भगवन् ! क्या जीव, सादि सान्त हैं, सादि अनन्त हैं, अनादि सान्त हैं, या अनादि अनन्त हैं ? For Personal & Private Use Only Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ६ उ. ३ वस्त्र और जीव की सादि सान्तता ९५५ १२ उत्तर-हे गौतम ! कितने ही जीव सादि सान्त हैं, कितने ही जीव सादि अनन्त हैं, कितने ही जीव अनादि सान्त हैं और कितने ही जीव अनादि अनन्त है। १३ प्रश्न-हे भगवन् ! इसका क्या कारण है ? १३ उत्तर-हे गौतम ! नरयिक, तिर्यञ्चयोनिक, मनुष्य और देव, गति आगति को अपेक्षा सादि सान्त है । सिद्ध गति की अपेक्षा सिद्ध जीव, सादि अनन्त हैं । लब्धि की अपेक्षा भवसिद्धिक जीव, अनादि सान्त है । संसार की अपेक्षा अभवसिद्धिक जीव, अनादि अनन्त हैं। विवेचन-नरकादि गति में गमन की अपेक्षा उसका सादिपन है और वहां से निकलने रूप आगमन की अपेक्षा उसकी सान्तता है । सिद्ध गति की अपेक्षा सिद्ध जीव, सादि अनन्त हैं। शंका-सिद्धों को सादि अनन्त कहा है, परन्तु भूतकाल में ऐसा कोई समय नहीं था जब कि सिद्ध-गति सिद्ध-जीवों से रहित रही हो। फिर उनमें सादिता कैसे घटित हो सकती है ? ममाधान-सभी सिद्ध सादि हैं। प्रत्येक सिद्ध ने किसी एक समय में भवभ्रमण का अंत करके सिद्धत्व प्राप्त किया है । अनन्त सिद्धों में से ऐसा एक भी सिद्ध नहीं-जो अनादि सिद्ध हो । इतना होते हुए भी सिद्ध अनादि हैं । सिद्धों का सद्भाव सदा से है । भूतकाल में ऐसा कोई समय नहीं था कि जब एक भी सिद्ध नहीं हो और सिद्धस्थान, सिद्धों से सर्वथा शून्य रहा हो तथा फिर कोई एक जीव सबसे पहिले सिद्ध हुआ हो । अतएव समूहापेक्षा सिद्धों का अनादिफ्न है । यही बात इसी सूत्र के प्रथम शतक उद्देशक ६ में + रोह अनगार के प्रश्न के उत्तर में बताई गई है। वहां सिद्धगति और सिद्धों को अनादि बतलाया है। जिस प्रकार काल अनादि है। काल, किसी भी समय शरीरों तथा दिनों और रात्रियों से रहित नहीं रहा । कौनसा शरीर और कौनसा दिन रात सर्व प्रथम उत्पन्न हुआ-यह जाना नहीं जा सकता, क्योंकि शरीरों और दिन-रात्रियों की आदि नहीं है । इसी प्रकार सिद्धों की भी आदि नहीं है। ऐसा कोई समय नहीं कि जब सिद्ध स्थान में कोई सिद्ध नहीं रहा हो । अनंतसिद्धों का सद्भाव वहां सदा से है। . + देखो प्रथम भाग पृ. २७० उत्तर २१७ । For Personal & Private Use Only Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९५६ भगवती सूत्र - श.: ६ उ ३ वस्त्र और जीव की सादि सन्तिता 'सिद्धों की आदि नहीं है' - यह बात समूह की अपेक्षा से है, किंतु प्रत्येक सिद्ध की आदि होती है। सभी का अपना अपना उत्पत्तिकाल है । सिद्ध का प्रत्येक जीव पहिले संसारी था । भव का अन्त करने के बाद ही वह सिद्ध हुआ है । कहा भी है; "साई अपज्जवसिया सिद्धा, न य नाम तिकालम्मि । सिकाइ विष्णा, सिद्धि सिद्धेहि सिद्धते || १॥ सव्वं साइ सरीरं, न य नामऽऽदिमयं देह सम्भावो । कालाऽणाइत्तणओ, जहां व राइंदियाईणं ||२|| सब्वी साई सिद्धो न यादिमो विज्जइ तहा तं च । सिद्धी सिद्धा य सया, निद्दिट्ठा रोह पुच्छाए ॥३॥ अर्थात् सिद्धांत में कहा है कि- सिद्ध, सादि अनन्त हैं । भूतकाल में ऐसा कोई भी समय नहीं रहा कि जब सिद्ध स्थान में एक भी सिद्ध नहीं रहा हो ॥ १ ॥ ('जब सिद्ध स्थान कभी सिद्धों से शून्य रहा ही नहीं, तब सिद्धों की आदि कैसे हो सकती है ?' इसके समाधान में दूसरी गाथा में कहा है कि ) L काल अनादि है, शरीर भी अनादि है और दिन-रात भी अनादिकाल से होते आये हैं। ऐसा कोई भी काल नहीं कि जिसमें न तो कोई शरीर रहा हो और न दिन रात हुए हो, तथापि प्रत्येक शरीर सादि है (एक के विनाश के बाद दूसरे की उत्पत्ति होती है) और प्रत्येक रात और दिन भी सादि है। इसी प्रकार सभी सिद्ध सादि हैं । वे अमुक समय में ही सिद्ध हुए हैं, उसके पूर्व वे संसारी ही थे। कोई भी सिद्ध ऐसा नहीं है कि जिस के सिद्ध होने की आदि ही नहीं हो और कोई भी सिद्ध ऐसा नहीं है कि जो सर्व प्रथम सिद्ध हुआ हो और उसके पूर्व वहां कोई सिद्ध नहीं रहा हो । उत्पत्ति की अपेक्षा प्रत्येक सिद्ध, 'सादि अपर्यवसित' है । 'पढ़म समय सिद्ध' 'अनन्तरसिद्ध' और 'तीर्थसिद्ध' आदि भेद भी सिद्ध होने कीं आदि बतलाते हैं । अनादि और सादि में मात्र अपेक्षा भेद है । समूहापेक्षा सिद्ध 'अनादि अपर्यवसित' हैं और व्यक्ति की अपेक्षा 'सादि अपर्यवसित' हैं । अतएव शंका नहीं रहनी चाहिए । भवसिद्धिक जीवों के 'भव्यत्व लब्धि' होती है । यह लब्धि सिद्धत्व प्राप्ति तक रहती है। इसके बाद हट जाती है। इसलिए भवसिद्धिक जीव, 'अनादि सान्त' कहे हैं । For Personal & Private Use Only Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ६ उ. ३ कर्म और उनकी स्थिति ९५७ कर्म और उनकी स्थिति १४ प्रश्न-कइ णं भंते ! कम्मप्पगडीओ पण्णत्ताओ ? १४ उत्तर-गोयमा ! अट्ट कम्मप्पगडीओ पण्णत्ताओ, तं जहाणाणावरणिजं दरिमणावरणिज्ज, जाव-अंतराइयं । १५ प्रश्न-णाणावरणिजस्म णं भंते ! कम्मस्म केवइयं कालं बंधट्टिइ पण्णत्ता ? १५-उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उपकोसेणं तीसं सागरोवमकोडाकोडीओ, तिण्णि य वाससहरसाइं अवाहा, अबा. हृणिया कम्मट्टिइ-कम्मणिसेओ, एवं दरिसणावरणिजं पि, वेयणिजं जहण्णेणं दो समया उक्कोसेणं जहा णाणावरणिजं, मोहणिजं जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उस्कोसेणं मतरिसागरोवमकोडाकोडीओ, सत य वासप्तहस्साणि (अबाहा) अबाहूणिया कम्मट्टिइ-कम्मणिमेओ, आउगं जहणणेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाणि पुवकोडितिभागमभहियाणि, कम्मट्ठिइ-कम्मणिसेओ, णामगोयाणं जहण्णेणं अट्ठ मुहुत्ता, उक्कोसेणं वीसं सागरोवमकोडाकोडीओ, दोण्णि य वाससहस्साणि अबाहा, अबाहूणिया कम्मटिइ-कम्मणिसे ओ, अंतराइयं जहा णाणावरणिज्ज । For Personal & Private Use Only Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९५८ भगवती सूत्र--श.. ६ उ. ३ कर्म और उनकी स्थिति wimmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm कठिन शब्दार्थ-जहणेणं-जघन्य-कम से कम, अबाहा-अबाधाकाल, अबाणियाअबाधा काल कम करके, कम्मनिसेओ-कर्मनिषक । भावार्थ-१४ प्रश्न-हे भगवन् ! कर्म प्रकृतियां कितनी है ? . १४ उत्तर-हे गौतम ! कर्म प्रकृतियां आठ हैं । यथा-ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय यावत् अन्तराय । १५ प्रश्न-हे भगवन् ! ज्ञानावरणीय कर्म की बंध स्थिति कितने काल की कही गई है ? १५ उत्तर-हे गौतम ! ज्ञानावरणीय कर्म को बंध स्थिति जघन्य अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट तीस कोडाकोडी सागरोपम की है। तीन हजार वर्ष का अबाधा काल है । अबाधा काल जितनी स्थिति को कम करने पर शेष कर्म स्थिति-कर्म-निषेक है। इसी प्रकार दर्शनावरणीय कर्म के विषय में भी जानना चाहिये । वेदनीय कर्म की जघन्य स्थिति दो समय की है और उत्कृष्ट स्थिति ज्ञानावरणीय कर्म के समान जाननी चाहिये । मोहनीय कर्म को बंध स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट सित्तर कोडाकोडी सागरोपम को है । सात हजार वर्ष का अबाधा काल है । अबाधा काल की स्थिति को कम करने से शेष कर्म ' स्थिति-कर्म-निषेक काल जानना चाहिये । आयुष्य कर्म को बंध स्थिति जघन्य अन्तर्मुहर्त और उत्कृष्ट पूर्व कोटि के तीसरे माग अधिक तेतीस सागरोपम को है। इसकौं वही कर्म स्थिति-कर्म-निषेक काल है। नामकर्म और गौत्रकर्म की बंध स्थिति जघन्य आठ मुहूर्त और उत्कृष्ट बीस कोडाकोडी सागरोपम है । दो हजार वर्ष का अबाधा काल है । उस अबाधा काल की स्थिति को कम करने से शेष कर्म स्थिति-कर्म-निषेक होता है । अन्तराय कर्म का कथन ज्ञानावरणीय कर्म के समान जानना चाहिये । विवेचन-कर्म स्थिति द्वार-इसमें कमों की स्थिति का वर्णन किया गया है। साथ ही-उनका अबाधा काल भी बताया गया है । 'बाधृ लोडने' अर्थात् लोडन अर्थ वाली बाधुधातु से बाधा शब्द बना है । बाधा का अर्थ है कर्म का उदय । कर्म का उदय नहीं होना 'अबाधा' कहलाता है। अर्थात् जिस समय कर्म का बंध हुआ, उस समय से लेकर For Personal & Private Use Only Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - ६ उ ३ कर्म और स्थिति जबतक कम का उदय होता है, तबतक के काल का अर्थात् कम का बध और कर्म का उदय इन दोनों के बीच के अन्तर काल को 'अवाधा-काळ' कहते हैं। पूर्वोक्त स्वरूप वाले अबाधा काल से कम 'कर्म स्थिति' ( कर्म का वंदन काल ) कहलाती है । अर्थात् जिस कर्म का वध स्थिति-काल तीस कोडाकाडी मागरम बतलाया गया है, उस में से तीन हजार वर्ष बाधा काल कम कर देने पर गप कर्म स्थिति-काळ ( कर्म का वंदन काल-कर्म निषेककाल ) कहलाता है। कर्म भोगने के लिये कर्म दलिकों की एक प्रकार की रचना को कम निषेक' कहते हैं। प्रथम समय में बहुत अधिक कर्म निषेक होता है। दूसरे समय में विशेष हान और तीसरे समय में विशेष हीन, इस प्रकार जितनी उत्कृष्ट स्थिति वाले कर्म दलिक होते है, उतना ही विशेष होन कर्म निषेक होता जाता है। इस का तात्पर्य यह है कि जैसे बांधा हुआ भी ज्ञानावरणीय कर्म तीन हजार वर्ष तक अवेदय ( नहीं वेदा जाने वाला) रहता है। इसलिये तीन हजार वर्ष कम उस का अनुभव-काल होता है । अर्थात् ज्ञानावरणीय कर्म का अनुभव काल तीन हजार वर्ष कम तीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम होता है । इस विषय में किन्हीं आचार्यों का ऐसा कथन है कि ज्ञानावरणीय कर्म का तीन हजार वर्ष का अबाधा काल है और तीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम का 'बाधा-काल' है । ये दोनों काल मिलकर कर्म स्थिति-काल कहलाता है। इसमें से अबाधा-काल को निकाल देने पर बाकी जितना काल बचता है, वह 'कर्म निषेक काल' कहलाता है। इसी प्रकार दूसरे कर्मों के विषय में भी अबाधा-काल का कथन करना चाहिये । विशेषता यह है कि आयुष्य कर्म में तेतीस -सागरोपम का निषेक काल है और पूर्व कोटिका त्रिभाग काल 'अबाधा काल' हैं । किन्तु आगम पाठ को देखते हुए यह मान्यता उचित प्रतीत नहीं होती है, क्योंकि आगम में ज्ञानावरणीय आदि कर्मों का बंधस्थिति तीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम आदि ही बताई गई है। अधिक नहीं । एवं आयुष्य कर्म के भी अबाधा काल न्यून करना नहीं बताया है, वेदनीय कर्म का जघन्य काल दो समय का है । अर्थात् जिस वेदनीय कर्म के बंध में कषाय कारण नहीं होता, किन्तु शरीरादि योग ही निमित्त होते हैं, उस वेदनीय कर्म के बंध की अपेक्षा वेदनीय कर्म दो समय की स्थिति वाला है । प्रथम समय में बंधता है और दूसरे समय में वेदा जाता है । वेदनीय कर्म की जो जघन्य स्थिति बारह मुहूर्त तथा नाम और गोत्र की जवन्य स्थिति आठ मुहूर्त बतलाई गई है, वह सकषाय बंध की स्थिति की अपेक्षा समझनी चाहिये । For Personal & Private Use Only ९५९ Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६० भगवती सूत्र - श. ६ उ. ३ कर्मों के बंधक कर्मों के बंधक १६ प्रश्न - णाणावरणिज्जं णं भंते ! कम्मं किं इत्थी बंध, पुरिसो बंधड़, णपुंसओ बंधड़, गोइत्थी - गोपुरिस-गोणपुंसओ बंधन ? १६ उत्तर-गोयमा ! इत्थी वि बंधर, पुरिसो वि बंधह, पुंसओ वि बंध; गोइत्थी - गोपुर-गोणपुंसओ सिय बंधइ, सिय णो बंध एवं आउयवज्जाओ सत्त कम्मप्पगडीओ । १७ प्रश्न - आज्यं णं भंते ! कम्मं किं इत्थी बंधर, पुरिसो बंध, णपुंसओ बंध, पुच्छ ? १७ उत्तर - गोयमा ! इत्थी सिय बंधड़, सिय णो बंधड़, एवं तिणि वि भाणियव्वाः गोइत्थी - गोपुरिस-गोणपुंसओ ण बंधइ । १८ प्रश्न - णाणावर णिज्जं णं भंते ! कम्मं किं संजए बंधइ, अस्संजए बंधह, संजयाऽसंजए बंध; णोसंजय णोअसंजय गोसंजयासंजए बंधड़ ? १८ उत्तर - गोयमा ! संजए सिय बंधइ, सिय णो बंधइ, अस्संजए बंध; संजया संजए वि बंध; णोसंजय-गोअस्संजयगोसंजया संजये ण बंधह एवं आउयवज्जाओ सत्त वि. आउए डिल्ला तिणि भयणाए, उवरिल्ले ण बंधड़ । For Personal & Private Use Only Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ६ उ. ३ कर्मों के बंधक कठिन शब्दार्थ-आउयवज्जाओ--आयु छोड़ कर, हेडिल्ला-नीचे की, उवरिल्ला -ऊपर के, भयणाए-भजना मे अर्थात् विकल्प से। भावार्थ-१६ प्रश्न-हे भगवन् ! ज्ञानावरणीय कर्म क्या स्त्री बांधती हैं, पुरुष बांधता है, नपुंसक बांधता है, या नोस्त्री-नोपुरुष-नोनपुंसक बांधता है ? १६ उत्तर-हे गौतम ! ज्ञानावरणीय कर्म को स्त्री भी बांधती है, पुरुष भी बांधना है और नपुंसक भी बांधता है, परन्तु जो नोस्त्री-नोपुरुष-नोनपुंसक होता है, वह कदाचित् बांधता है और कदाचित् नहीं बांधता है। इस प्रकार आयुष्य कर्म को छोड़कर शेष सातों कर्म प्रकृतियों के विषय में समझना चाहिये। १७ प्रश्न-हे भगवन् ! आयुष्य कर्म को क्या स्त्री बांधती है, पुरुष बांधता है, नपुंसक बांधता है, या नोस्त्री-नोपुरुष-नोनपुंसक बांधता है ?. १७ उत्तर-हे गौतम ! आयुष्य कर्म को स्त्री कदाचित् बांधती है और कदाचित् नहीं बांधती हैं, इसी प्रकार पुरुष और नपुंसक के विषय में भी कहना चाहिये। नोस्त्री-नोपुरुष-नोनपुंसक आयुष्य कर्म को नहीं बांधता। १८ प्रश्न-हे भगवन् ! ज्ञानावरणीय कर्म को संयत बांधता है, असंयत . बांधता है, संयतासंयत बांधता है, या नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत बांधता १८ उत्तर-हे गौतम ! ज्ञानावरणीय कर्म को संयत कदाचित् बांधता है और कदाचित् नहीं बांधता है, किंतु असंयत बांधता है और संयतासंयत भी बांधता है, परन्तु जो नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत होता है, वह नहीं बांधता हैं। इस प्रकार आयुष्य कर्म को छोड़कर शेष सात कर्म प्रकृतियों के विषय में कहना चाहिये । आयुष्य कर्म के सम्बन्ध में संयत, असंयत और संयतासंयत के लिये भजना समझनी चाहिये । अर्थात् कदाचित् बांधते हैं और कदाचित् नहीं वांधते है । नोसंयत-नोमसंपत-नोसंयतासंयत आयुष्य कर्म को नहीं बांधते । विवेचन-यहां प्रत्येक विषय में भिन्न भिन्न द्वार कहे जाते हैं । १ स्त्रीद्वार-स्त्री, पुरुष और नपुंसक, ये तीनों ज्ञानावरणीय कर्म को बांधते हैं । जिस जीव के स्त्रीत्व, पुरुषत्व और नपुंसकत्व से सम्बन्धित वेद (विकार) का उदय नहीं For Personal & Private Use Only Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६२ भगवती सूत्र - श. ६ उ. ३ कर्मों के बंधक होता, किन्तु केवल स्त्री, पुरुष, या नपुंसक का शरीर है, उसे 'नोस्त्री-नोपुरुष - नोनपुंसक' कहते हैं । वह अनिवृत्तिवाद संपरायादि गुणस्थानवर्ती होता है । इनमें से अनिवृत्तिबादरसंपराय और सूक्ष्म संपराय गुणस्थानवर्ती जीव, ज्ञानावरणीय कर्म का बन्धक होता है, क्योंकि वह सप्तविध कर्म का बन्धक, या षड्विध कर्म का बंन्धक होता है । उपशांत मोहादि गुणस्थान-वर्ती (नोस्त्री-नोपुरुष - नोनपुंसक) जीव, ज्ञानावरणीय का अबन्धक होता है, क्योंकि वह तो एकविध ( वेदनीय) कर्म का बन्धक होता है । इसीलिए कहा है कि नोस्त्री-नोपुरुष-नोनपुं-. सक जीव, ज्ञानावरणीय कर्म को भजना से बांधता है अर्थात् कदाचित् बांधता है और कदाचित् नहीं बांधता है । आयुष्य कर्म को स्त्रीवेदी, पुरुष वेंदी और नपुंसकवेदी जीव, कदाचित् बांधता है और कदाचित् नहीं बांधता है । इसका तात्पर्य यह है कि जब आयुष्य का बन्धकाल होता है, तब बान्धता है और जब आयुष्य का बन्ध-काल नहीं होता है, तब नहीं बान्धता है, क्योंकि एक भव में आयुष्य एक ही बार बन्धता है । नोस्त्री-नोपुरुष - नोनपुंसक जीव (स्त्री आदि वेद रहित जीव) तो अयुष्य को बांधता ही नहीं है, क्योंकि निवृत्तिबादर संपराय आदि गुणस्थानों में आयुबन्ध का व्यवच्छेद हो जाता है २ संयतद्वार - प्रथम के चार संयम में अर्थात् सामायिक, छेदोपस्थापनीय, परिहार विशुद्धि और सूक्ष्मसम्पराय इन चार संयम में रहने वाला संयत जीव, ज्ञानावरणीय कर्म को बांधता है । यथाख्यात संयम में रहने वाला संयत जीव तो उपशांत मोहादि वाला होता है, इसलिये वह ज्ञानावरणीय कर्म नहीं बांधता है । अतएव कहा गया है कि संयत जीव, ज्ञानावरणीय कर्म को कदाचित् बांधता है और कदांचित् नहीं बांधता है । असंयत अर्थात् मिथ्यादृष्टि आदि जीव और संयतासंयत अर्थात् पञ्चम गुणस्थानवर्ती देशविरत जीव, ये दोनों ज्ञानावरणीय कर्म बांधते हैं। नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत अर्थात् सिद्ध जीव, ज्ञानावरणीय कर्म नहीं बांधता है, क्योंकि उनके कर्म बंध का कोई कारण नहीं है ।संयत, असंयत और संयतासंयत, ये तीनों आयुष्य बंध काल में आयुष्य को बांधते हैं, दूसरे समय में (आयुष्य बंध काल के सिवाय अन्य समय में) आयुष्य नहीं बांधतें हैं । इसलिये इन तीनों के आयुष्य का बंध भजन्स से कहा गया है, अर्थात् कदाचित् बांधते हैं और कदाचित् नहीं बांधते हैं । नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत अर्थात् सिद्ध जीव, आयुष्य नहीं बांधते हैं । १९ प्रश्न - णाणावरणिज्जं णं भंते ! कम्मं किं सम्मदिट्ठी बंधह For Personal & Private Use Only Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - ६ ३. ३ कर्मों के बंधक मिच्छदिट्टी बंधड़, सम्मामिच्छदिट्टी बंधड़ ? १९ उत्तर - गोयमा ! सम्मदिडी सिय बंधइ, सिय णो बंधड़ मिच्छदिट्टी बंधड़, सम्मामिच्छदिट्टी बंधन एवं आउयवज्जाओ सत्त वि, आउए हेट्टिला दो भयणाए, सम्मामिच्छदिट्टी ण बंधड़ । २० प्रश्न - णाणावरणिजं णं भंते ! किं सण्णी बंधइ, असण्णी बंध णोमणी णोअमण्णी बंधड़ ? ९६३ २० उत्तर - गोयमा ! सण्णी सिय बंधइ, सिय णो बंधड़, असण्णी बंध, पोसण्णी - गोअसण्णी णं बंधइ, एवं वेयणिज्जा - Ss यवज्जाओ छ कम्मष्पगडीओ, वेयणिज्जं हेट्टिल्ला दो बंधंति, उवरिल्ले भयणाए, आउयं हेडिल्ला दो भयँणाए, उवरिल्लेण बंधइ । २१ प्रश्न - णाणावर णिज्जं णं भंते! कम्मं किं भवसिद्धिए बंधड़, अभवसिद्धिए बंध, णोभवसिद्धिय - गोअभवसिद्धिए बंधइ ? २१ उत्तर - गोयमा ! भवसिद्धिए भयणाए, अभवसिद्धिए बंधइ; णोभवसिद्धिय-गोअभवसिद्धिए ण बंधइ, एवं आउयवज्जाओ सत्त वि, आउयं हेट्ठिल्ला दो भयणाए, उवरिल्ले ण बंध | २२ प्रश्न - णाणावरणिजं णं भंते ! कम्मं किं चक्खुदंसणी बंधड़ अचक्खुदंसणी, ओहिंदंसणी: केवलदंसणी ०? २२ उत्तर - गोयमा ! हेट्टिल्ला तिष्णि भयणाए, उवरिल्लेण For Personal & Private Use Only Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६४ भगवती सूत्र-श. ६ उ. ३ कर्मों के बंधक बंधइ, एवं वेयणिजवजाओ सत्त वि, वेयणिजं हेछिल्ला तिण्णि बंधति, केवलदंसणी भयणाए। कठिन शब्दार्थ-सण्णी-मनवाले जीव, असण्णी-जिनके मन नहीं, गोसण्णीणोअसण्णा-केवलज्ञानी और सिद्ध भगवान्, अचक्खुवंसणी-जो आँखों के सिवाय-कान, नाक, मुंह, शरीर और मन से देखते हैं। भावार्थ-१९ प्रश्न-हे भगवन् ! ज्ञानावरणीय कर्म को क्या सम्यगदृष्टि बांधता है, मिथ्यादृष्टि बांधता है, या सम्यग्मिथ्यादृष्टि बांधता है ? । १९ उत्तर-हे गौतम ! सम्यग्दृष्टि कदाचित् बांधता है और कदाचित् नहीं बांधता, मिथ्यादृष्टि तो बांधता है और सम्यगमिथ्यादृष्टि मी बांधता है। इस प्रकार आयुष्य कर्म के सिवाय शेष सात कर्म प्रकृतियों के विषय में समझना चाहिये । आयुष्य कर्म को सम्यग्दष्टि और मिथ्यादृष्टि कदाचित् बांधते हैं और कदाचित् नहीं बांधते हैं । सम्यग्मिथ्यादृष्टि (सम्यग्मिथ्यादृष्टि अवस्था में) नहीं बांधते हैं। २० प्रश्न-हे भगवन् ! ज्ञानावरणीय कर्म को क्या संज्ञो जीव बांधता है, असंज्ञी जीव बांधता है, या नोसंज्ञीनोअसंज्ञी जीव बांधता है ? २० उत्तर-हे गौतम ! ज्ञानावरणीय कर्म को संज्ञो जीव, कदाचित् बांधता है और कदाचित् नहीं बांधता है। असंज्ञी जीय बांधता है । नोसंज्ञी नो असंज्ञी जीव नहीं बांधता है। इस प्रकार वेदनीय और आयुष्य को छोड़कर शेष छह कर्म प्रकृतियों के विषय में कहना चाहिये । वेदनीय कर्म को संजो भी बांधता है और असंज्ञी भी बांधता है, किंतु नोसंज्ञीनोअसंज्ञी कदाचित् बांधता है और कदाचित् नहीं बांधता है। आयुष्य कर्म को संज्ञी जीव और असंझो जीव भजना से बांधते है, अर्थात् कदाचित् बांधते है और कदाचित् नहीं बांधते हैं। नोसंजीनोअसंज्ञी जीव, आयुष्य कर्म को नहीं बांधते हैं। २१ प्रश्न-हे भगवन् ! ज्ञानावरणीय कर्म को क्या भवसिद्धिक बांधता है, अभवसिद्धिक बांधता है, या नोभवसिद्धिकनोअभवसिखिक बांधता है ? For Personal & Private Use Only Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ६ उ. ३ कर्मों के बंधक २१ उत्तर - हे गौतम! भवसिद्धिक जीव, कदाचित् बांधता है और कदाचित् नहीं बांधता है । अभवसिद्धिक बांधता है। नोभवसिद्धिक नोअभवसिद्धिक नहीं बांधता है । इस प्रकार आयुष्य कर्म के सिवाय शेष सात कर्म प्रकृतियों के विषय में कहना चाहिये | आयुष्य कर्म को भवसिद्धिक ( भव्य ) और अभवसिद्धिक ( अभव्य ) कदाचित् बांधता है और कदाचित् नहीं बांधता है। नोभवसिद्धिक नोभवसिद्धिक ( सिद्ध) नहीं बांधता है । ९६५ २२ प्रश्न - हे भगवन् ! ज्ञानावरणीय कर्म को क्या चक्षुदर्शनौ बांधता है, अचक्षु दर्शनी बांधता है, अवधिदर्शनी बांधता है, या केवलदर्शनी बांधता है ? २२ उत्तर - हे गौतम! चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी और अवधिदर्शनी कदाचित् बांधता है और कदाचित् नहीं बांधता है । केवलदर्शनी नहीं बांधता है | वेदनीय कर्म के सिवाय शेष सात कर्म प्रकृतियों के विषय में इसी तरह कहना चाहिये | वेदनीय कर्म को चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी और अवधिदर्शनी बांधते हैं । केवलदर्शनी कदाचित् बांधते हैं और कदाचित् नहीं बांधते हैं । विवेचन- ३ सम्यग्दृष्टि द्वार - सम्यग्दृष्टि के दो भेद हैं- सराग सम्यग्दृष्टि और वीतराग सम्यग्दृष्टि । इनमें से वीतराग सम्यग्दृष्टि तो ज्ञानावरणीय कर्म को नहीं बांधते हैं, क्योंकि वे तो एकविध ( वेदनीय) कर्म के बंधक हैं। सराग सम्यग्दृष्टि तो ज्ञानावरणीय कर्म बाँधते हैं इसीलिये कहा गया है कि सम्यग्दृष्टि जीव, ज्ञानावरणीय कर्म को कदाचित् बांधता है और कदाचित् नहीं बांधता है । मिथ्यादृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि (मिश्र दृष्टि ) ये दोनों तो ज्ञानावरणीय कर्म को बांधते ही हैं । सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि जीव कदाचित् आयुष्य कर्म को बाँधते हैं और कदाचित् नहीं बांधते हैं। जैसे कि - अपूर्वकरणादि सम्यग्दृष्टि, आयुष्य को नहीं बांधते हैं। इससे भिन्न सम्यग्दृष्टि जीव आयुष्य के बंध काल में आयुष्य को बांधते हैं, दूसरे समय में ( आयुष्य बन्ध काल के सिवाय दूसरे समय में) नहीं बांधते है । इसी प्रकार मिथ्यादृष्टि जीव भी आयुष्य बन्ध काल में आयुष्य को बांधते हैं, दूसरे समय में नहीं बांधते हैं । सम्यग्मिथ्यादृष्टि (मिश्र दृष्टि) जीव, (मिश्रदृष्टि अवस्था में) आयुष्य बांधते ही नहीं हैं, क्योंकि मिश्रदृष्टि जीवों को आयुष्यबन्ध के अध्यवसाय स्थानों का अभाव है । ४ संज्ञी द्वार - मनः पर्याप्ति वाले जीवों को 'संज्ञी' कहते हैं। वीतराग संज्ञी जीव तो For Personal & Private Use Only Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६६ भगवती सूत्र - श. ६ उ. ३ कर्मों के बंधक ज्ञानावरणीय कर्म को नहीं बांधते हैं । इनसे भिन्न सराग संज्ञी जीव, ज्ञानावरणीय कर्म को बांधते हैं । इसीलिए कहा है कि-संज्ञी जीव, ज्ञानावरणीय कर्म को भजना से बांधते हैं अर्थात् कदाचित् बांधते हैं और कदाचित् नहीं बांधते हैं । मनःपर्याप्ति से रहित जीव, असंज्ञी कहलाते हैं । वे तो ज्ञानावरणीय कर्म को बांधते ही हैं । नोसंज्ञीनोअसंज्ञी जीव, केवलीया. सिद्ध होते हैं, वे ज्ञानावरणीय कर्म को नहीं बांधते हैं, क्योंकि उनके ज्ञानावरणीय कर्म के बन्धन के कारण (हेतु) नहीं हैं। संज्ञी जीव और असंज्ञी जीव-ये दोनों वेदनीय कर्म को बांधते ही हैं, क्योंकि अयोगी केवली और सिद्ध भगवान् के सिवाय शेष सभी जीव वेदनीय कर्म के बन्धक होते हैं । नोसंज्ञीनो असंज्ञी जीवों के तीन भेद होते हैं-सयोगी केवली, अयोगी केवली और सिद्ध भगवान् । इनमें से सयोगी केवली तो वेदनीय कर्म को बांधते हैं, किंतु अयोगी केवली और सिद्ध भगवान् नहीं बांधते हैं। इसलिए कहा गया है कि नोसंज्ञीनोअसंज्ञी जीव, वेदनीय कर्म को भजना से बांधते हैं अर्थात् कदाचित् बांधते हैं और कदाचित् नहीं बांधते हैं । संज्ञी और असंज्ञी, ये दोनों आयुष्य कर्म को भजना से बांधते हैं अर्थात् आयुष्यबन्ध काल में आयुष्य को बांधते हैं और दूसरे समय में नहीं बांधते हैं । नोसंज्ञीनोअसंज्ञी ● अर्थात् केवल और सिद्ध जोव, आयुष्य को नहीं बांधते हैं । ५ भवसिद्धिक द्वार - जो भवसिद्धिक वीतराग होते हैं, वे ज्ञानावरणीय कर्म को नहीं बांधते हैं । जो भवसिद्धिक सराग होते हैं, वे ज्ञानावरणीय कर्म बांधते हैं । इसलिए कहा है कि 'भवसिद्धिक जीव ज्ञानावरणीय कर्म को भजना से बांधते हैं।' अभवसिद्धिक तो ज्ञानावरणीय कर्म को बांधते ही हैं । नोभवसिद्धिकनोअभवसिद्धिक अर्थात् सिद्ध जीव, ज्ञानावर कर्म को नहीं बांधते हैं । भवसिद्धिक ( भव्य ) और अभवसिद्धिक ( अभव्य ), ये दोनों प्रकार के जीव, आयुष्य बन्ध काल में आयुष्य को बांधते हैं । इससे भिन्न समय में नहीं बांधते हैं। इसलिए कहा गया है कि-भवसिद्धिक और अभवसिद्धिक जीव, आयुष्य कर्म को भजन से बांधते हैं । नोभवसिद्धिकनोअभवसिद्धिक अर्थात् सिद्ध जीव, आयुष्य को नहीं बांधते हैं । ६ दर्शन द्वारर-चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी और अवधिदर्शनी- ये तीनों यदि छद्मस्थ वीतरागी हों, तो ज्ञानावरणीय कर्म को नहीं बांधते हैं, क्योंकि वे तो केवल एक वेदनीय कर्म के ही बन्धक होते हैं। यदि ये तीनों सरागी छद्मस्थ हो, तो बांधते हैं । इसलिए यह कहा गया है कि ये तीनों ज्ञानावरणीय कर्म, भजना से बांधते हैं। भवस्थ केवलदर्शनी और सिद्ध केवलदर्शनी, ये दोनों ज्ञानावरणीय कर्म नही बांधते हैं, क्योंकि उनके इस कर्मबन्ध का For Personal & Private Use Only Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-ग. ६ उ. ३ कर्मों के बंधक हेतु नहीं है। प्रथम के तीन दर्शन वाले (चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी और अवधिदर्शनी) छद्मस्थ वीतरागी और सरागी, ये वेदनीय कर्म को बांधते ही हैं । केवलदर्शनी, सयोगी-केवली वेदनीय कर्म बांधते हैं, किंतु केवलदर्शनी अयोगी-केवली और सिद्ध जीव, नहीं बांधते हैं । इसलिए कहा गया है कि केवलदर्शनी वेदनीय कर्म भजना से बांधते हैं अर्थात् कदाचित् बांधते हैं और कदाचित् नहीं बांधते हैं। २३ प्रश्न-णाणावरणिजं कम्मं किं पजत्तओ बन्धह, अपज्जतओ बन्धइ, णोपजत्तय-णोअपजत्तए बन्धइ ? ___ २३ उत्तर-गोयमा ! पजत्तए भयणाए; अपज्जत्तए बन्धइ, णोपजत्तय-णोअपजत्तए ण बन्धइ; एवं आउयवजाओ, आउयं हेछिल्ला दो भयणाए, उवरिल्ले ण बन्धइ । २४ प्रश्न-णाणावरणिज्जं किं भासए बन्धइ, अभासए० ? २४ उत्तर-गोयमा ! दो वि भयणाए, एवं वेयणिजवजाओ सत्त वि । वेयणिज भासए बन्धइ, अभासए भयणाए । ..... २५ प्रश्न-णाणावरणिजं किं परित्ते बन्धइ, अपरिते बन्धइ, णोपरित्ते-णोअपरित्ते बन्धइ ? ___२५ उत्तर-गोयमा ! परित्ते भयणाए, अपरित्ते बन्धइ, णोपरित्ते- . णोअपरित्ते. ण बन्धह, एवं आउयवजाओ सत्त कम्मप्पगडीओ, आउयं परित्तो वि, अपरित्तो वि भयणाए, णोपरित्तो गोअपरित्तो ण बन्धह। २६ प्रश्न-णाणावरणिनं कम्मं किं .आभिणिबोहियणाणी For Personal & Private Use Only Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६८ भगवती सूत्र - श. ६ उ. ३ कर्मों के बंधक बन्ध, सुयणाणी, ओहिणाणी, मणपज्जवणाणी, केवलणाणी० ? २६ उत्तर - गोयमा ! हेट्ठिल्ला चत्तारि भयणाए, केवलणाणी ण बन्धइ, एवं वेयणिज्जवज्जाओ सत्त वि, वेयणिज्जं हेट्ठिल्ला चत्तारि बन्धंति, केवलणाणी भयणाए । २७ प्रश्न - णाणावरणिजं किं महअण्णाणी बन्धइ, सुयअण्णाणी बन्ध, विभंगणाणी बन्धइ ? २७ उत्तर - गोयमा ! आउयवज्जाओ सत्त वि बन्धंति, आउयं भयणाए । कठिन शब्दार्थ- पज्जतओ - जिस जीव ने उत्पन्न होने के बाद अपने योग्य आहार, शरीर आदि पर्याप्ति पूर्ण करली हो, अपज्जत्तए - जिसने उत्पन्न होकर भी अपने योग्य पर्याप्त पूर्ण नहीं की हो, भासए - भाषक - बोलने वाला, परिते - प्रत्येक शरीर २ अल्प संसारी, णोपरित णोअपरित-सिद्ध जीव, आभिणिबोहियणाणी - मतिज्ञानी । भावार्थ - २३ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या ज्ञानावरणीय कर्म को पर्याप्तक जीव बांधता है, अपर्याप्तक जीव बांधता है, या नोपर्याप्तक नोअपर्याप्तक जीव बांधता है ? २३ उत्तर - हे गौतम ! ज्ञानावरणीय कर्म को पर्याप्तक जीव, कदाचित् बांधता है और कदाचित् नहीं बांधता है। अपर्याप्तक जीव बांधता है। नोपर्याप्त नोअपर्याप्तक जीव नहीं बांधता है। इस प्रकार आयुष्य कर्म को छोड़कर शेष सात कर्म प्रकृतियों के विषय में कहना चाहिये । आयुष्य कर्म को पर्याप्तक जीव धौर अपर्याप्तक जीव कदाचित् बांधता है और कदाचित् नहीं बांधता है । नोपर्याप्तक नोअपर्याप्तक जीव नहीं बांधता है । २४ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या ज्ञानावरणीय कर्म को भाषक जीय बांधता या अभाषक जीव बांधता हैं ? है, For Personal & Private Use Only Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ६ उ. ३ कर्मों के बंधक - २४ उत्तर-हे गौतम ! ज्ञानावरणीय कर्म को भाषक और अभाषक ये दोनों प्रकार के जीव कदाचित् बांधते हैं और कदाचित् नहीं बांधते हैं । इसी प्रकार वेदनीय कर्म को छोड़कर शेष सात कर्म प्रकृतियों के विषय में कहना चाहिये । भाषक जीव, वेदनीय कर्म को बांधता है । अभाषक जीव कदाचित् बांधता है और कदाचित् नहीं बांधता है। २५ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या परित्त (एक शरीर में एक जीव) जीव ज्ञानावरणीय कर्म बांधता है, अपरित जीव बांधता है, या नोपरित्त नोअपरित्त जीव बांधता है ? २५ उत्तर-हे गौतम ! परित्त जीव, ज्ञानावरणीय कर्म को कदाचित बांधता है और कदाचित् नहीं बांधता है । अपरित जीव बांधता है । नोपरित्तनोअपरित्त जीव नहीं बांधता है। इस प्रकार आयुष्य कर्म को छोड़कर शेष सात कर्म प्रकृतियों के विषय में कहना चाहिये । परित्त और अपरित्त ये दोनों प्रकार के जीव आयुष्य कर्म को कदाचित् बांधते है और कदाचित् नहीं बांधते है । नोपरित्त नोअपरित्त जीव आयुष्य कर्म नहीं बांधते हैं। ___२६ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या आभिनिबोधिक (मति) ज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी और केवलज्ञानी, ज्ञानावरणीय कर्म बांधते हैं ? २६ उत्तर-हे गौतम ! आभिनिबोधिक ज्ञानी, श्रुत्तज्ञानी, अवधिज्ञानी और मनःपर्ययज्ञानी-ये चार कदाचित् ज्ञानावरणीयकर्म को बांधते हैं और कदाचित् नहीं बांधते हैं । केवलज्ञानी नहीं बांधते हैं । इसी प्रकार बेदनीय कर्म को छोड़कर शेष सात कर्म प्रकृतियों के विषय में कहना चाहिये । आभिनिबोधिक आदि चारों वेदनीय कर्म को बांधते हैं। केवलज्ञानी कदाचित् बांधते हैं और कदाचित् नहीं बांधते हैं। २७ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या मति-अज्ञानी, श्रुत-अज्ञानी और विभंगज्ञानी, ज्ञानावरणीय कर्म को बांधते हैं? २७ उत्तर-हे गौतम ! आयुष्य कर्म को छोड़कर शेष सात कर्म प्रकृ For Personal & Private Use Only Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९७० भगवती सूत्र-शं. ६ उ. ३ कर्मों के बंधक तियों को बांधते है । आयुष्य कर्म को कदाचित् बांधते हैं और कदाचित् नहीं बांधते हैं। विवेचन-७ पर्याप्तक द्वार-वीतराग और सराग, ये दोनों पर्याप्तक होते हैं । इनमें से वीतराग पर्याप्तक तो ज्ञानावरणीय को नहीं बांधते हैं, किन्तु सराग पर्याप्तक बांधते है । इसलिए यह कहा गया है कि-पर्याप्तक जीव, ज्ञानावरणीय कर्म भजना से बांधते हैं । नोपर्याप्तक नोअपर्याप्तक अर्थात् सिद्ध जीव, नहीं बांधते हैं । पर्याप्तक और अपर्याप्तक-ये दोनों आयुष्य के बन्ध काल में आयुष्य बांधते हैं और दूसरे समय में नहीं बांधते हैं । इसलिए आयुष्य बन्ध के विषय में इनके लिए भजना कही गई है । नोपर्याप्तक नोअपर्याप्तक अर्थात् सिद्ध जीव, आयुष्य नहीं बांधते हैं । ८ भाषक द्वार-भाषा-लब्धि वाले को 'भाषक' कहते हैं और भाषा-लब्धि से रहित को 'अभाषक' कहते हैं । इनमें से वोतराग भाषक, ज्ञानावरणीय कर्म नहीं बांधते हैं और सराग भाषक बांधते हैं । इसलिए कहा गया है कि भाषक जीव, ज्ञानावरणीय कर्म को भजना से बांधते हैं । अभाषक में जो अयोगी-केवली और सिद्ध भगवान् हैं, वे तो ज्ञानावरणीय कर्म नहीं बांधते हैं । विग्रह गति में रहे हुए जीव तथा पृथ्वीकायिकादि अभाषक जीव, ज्ञानावरणीय कर्म बांधते हैं । इसलिए यह कहा गया है कि 'अभाषक जीव, ज्ञानावरणीय कर्म भजना से बांधते हैं ।' भाषक जीव, वेदनीय कर्म को बांधते ही हैं, क्योंकि सयोगी-केवली गुणस्थान के अन्तिम समय तक का भाषक भी साता-वेदनीय कर्म बांधता है । अयोगी-केवली और सिद्ध जीव-ये दोनों अभाषक होते हैं । ये दोनों वेदनीय कर्म नहीं बांधते हैं । अपर्याप्त जीव तथा पृथ्वीकायिक आदि अभाषक जीव, वेदनीय कर्म बांधते हैं, इसलिए यह कहा गया है कि -'अभाषक जीव, वेदनीय कर्म भजना से बाँधते हैं।' ९ परित्त द्वार-एक शरीर में एक जीव हो उसे 'परित्त' कहते हैं अथवा अल्प संसार वाले जीव को 'परित' कहते हैं । ऐसा जीव वीतरागी भी होता है । ऐसा परित्त वीतरागी, ज्ञानावरणीय कर्म नहीं बांधता और परित्त सरागी बांधता है इसलिए कहा गया है कि 'परित जीव, ज्ञानावरणीय कर्म को भजना से बांधता है । जो जीव, अनन्त जीहों के साथ एक शरीर में रहता है ऐसे साधारण काय वाले जीव' को 'अपरित्त' कहते हैं, अथवा अनन्त संसारी जीव को 'अपरित्त' कहते हैं । ये दोनों प्रकार के अपरित्त जीव, ज्ञानावरणीय कर्म बांधते हैं। नोपरित्त नोअपरित्त अर्थात् सिद्ध जीव, ज्ञानावरणीय कर्म नहीं बांधते हैं । परित्त जीव For Personal & Private Use Only Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ६ उ. ३ कर्मों के बंधक ९७१ (प्रत्येक शरीरादि जीव) आयष्य के बन्धकाल में आयुष्य बांधते हैं, किन्तु दूसरे समय में नहीं बांधते । इसलिए इस विषय में 'भजना' कही गई हैं । नोपरित्त नोअपरित्त अर्थात् सिद्ध जीव तो आयुष्य बांधते ही नहीं हैं। १० ज्ञानद्वार-आभिनिबोधिक ज्ञानी (मतिज्ञानी) श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी और मनःपर्ययज्ञानी, ये चारों वीतराग अवस्था में ज्ञानावरणीय कर्म नहीं बांधते हैं और सराग अवस्था में बांधते हैं। इसलिए ज्ञानावरणीय कर्म बन्ध के विषय में इनकी भजना कहीं गई है। केवलज्ञानो, ज्ञानावरणीय कर्म नहीं बांधते हैं । आभिनिबोधिकज्ञानी आदि चार ज्ञानी, वेदनीय कर्म को बांधते ही हैं, क्योंकि छद्मस्थ वीतराग भी वेदनीय के बन्धक होते हैं। केवलज्ञानी, वेदनीय कर्म को भजना से बांधते है, क्योंकि सयोगी-केवली वेदनीय के बन्धक होते हैं और अयोगी-केवली तथा सिद्ध, वेदनीय के अबन्धक होते है । इसालए वेदनीय के बन्ध के विषय में, केवलज्ञानी के लिए 'भजना' कही गई है। २८ प्रश्न-णाणावरणिजं किं मणजोगी बंधड़; वयजोगी बंधइ, कायजोगी बंधइ, अजोगी बंधइ ? .. २८ उत्तर-गोयमा ! हेट्ठिल्ला तिण्णि भयणाए, अजोगी ण बंधइ, एवं वेयणिजवजाओ, वेयणिजं हेट्ठिल्ला बंधंति, अजोगी ण बंधइ। २९ प्रश्न-णाणावरणिकं किं सागारोवउत्ते बंधइ, अणागारोवउत्ते बंधइ ? २९ उत्तर-गोयमा ! अट्ठसु वि भयणाए । ३० प्रश्न-णाणावरणिजं किं आहारए बंधह, अणाहारए बंधइ ? - ३० उत्तर-गोयमा ! दो .वि भयणाए, एवं वेयणिज्जाउय For Personal & Private Use Only Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९७२ भगवती सूत्र-श. ६ उ. ३ कर्मों के बंधक वजाणं छण्हं, वेयणिजं आहारए बंधइ, अणाहारए भयणाए । आउए आहारए भयणाए, अणाहारए ण बंधइ । ३१ प्रश्न–णाणावरणिजं किं सुहुमे बंधइ बायरे बंधइ, णोसहुमणोबायरे बंधइ ? ३१ उत्तर-गोयमा ! सुहुमे बंधइ, बायरे भयणाए, जोसुहुमणोबायरे ण बंधह, एवं आउयवजाओ सत्त वि, आउए सुहुमे, बायरे भयणाए त्ति, जोसुहुम-गोवायरे ण बंधइ । ३२ प्रश्न–णाणावरणिजं किं चरिमे, अचरिमे बंधइ ? ३२ उत्तर-गोयमा ! अट्ठ वि भयणाए । कठिन शब्दार्थ-सागारोवउत्ते-साकार (ज्ञान के) उपयोग वाला, अणागारोवउत्तेअनाकार-निराकार (दर्शन) उपयोग वाला, णोसुहुमेणोबायरे-जो न तो सूक्ष्म है न बादर (बडे) हैं—ऐसे सिद्ध जीव, चरिम-जो अंतिम भव करेगा अर्थात् भवी । ___ भावार्थ-२८ प्रश्न--हे भगवन् ! क्या मनयोगी, वचनयोगी, काययोगी और अयोगी-ये ज्ञानावरणीय कर्म बांधते हैं ? .२८ उत्तर-हे गौतम ! मनयोगी, वचनयोगी और काययोगी ये तीनों ज्ञानावरणीय कर्म, कदाचित् बांधते हैं और कदाचित् नहीं बांधते हैं । अयोगी नहीं बांधते हैं। इसी प्रकार वेदनीय कर्म को छोड़कर शेष सात कर्म प्रकृतियों के विषय में कहना चाहिये । वेदनीय कर्म को मनयोगी, वचनयोगी और काययोगी बांधते हैं । अयोगी नहीं बांधते हैं। २९ प्रश्न-हे भगवन् ! ज्ञानावरणीय कर्म, क्या साकार उपयोग वाले बांधते हैं, या अनाकार उपयोग वाले बाँधते हैं ? २९ उत्तर-हे गौतम ! साकार उपयोग और अनाकार उपयोग-इन For Personal & Private Use Only Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - ६ उ. ३ कर्मों के बंधक दोनों उपयोग वाले जीव, आठों कर्म प्रकृतियों को कदाचित् बांधते हैं और कदाचित् नहीं बांधते हैं । ३० प्रश्न - हे भगवन् ! क्या आहारकं जीव, ज्ञानावरणीय कर्म बांधते हैं ? या अनाहारक जीव बांधते हैं ? ९७३ ३० उत्तर - हे गौतम! आहारक और अनाहारक ये दोनों प्रकार के जीव, ज्ञानावरणीय कर्म को कदाचित् बांधते हैं और कदाचित् नहीं बांधते हैं । इस प्रकार वेदनीय और आयुष्य को छोड़कर शेष छह कर्म प्रकृतियों के विषय में कहना चाहिये । वेदनीय कर्म को आहारक जीव बांधते है तथा अनाहारक जीव कदाचित् बांधते हैं और कदाचित् नहीं बांधते हैं । आयुष्य कर्म को आहारक जीव कदाचित् बांधते हैं और कदाचित् नहीं बांधते हैं । तथा अनाहारक जीव नहीं बांधते हैं । ३१ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या सूक्ष्म जीव, बादर जीव और नोसूक्ष्मनोबादर जीव, ज्ञानावरणीय कर्म बांधते हैं ? ३१ उत्तर - हे गौतम! सूक्ष्मजीव, ज्ञानावरणीय कर्म बांधते हैं । बादरजीव कदाचित् बांधते हैं, और कदाचित् नहीं बांधते हैं। नोसूक्ष्मनोबादर जीव नहीं बांध हैं । इस प्रकार आयुष्य कर्म को छोड़कर शेष सात कर्म प्रकृतियों का कथन करना चाहिये । सूक्ष्म जीव और बादर जीव, आयुष्य कर्म को कदाचित् बांधते हैं और कदाचित् नहीं बांधते हैं । नोसूक्ष्म-नोबादर जीव नहीं बांधते हैं । . ३२ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या चरम जीव और अचरम जीव ज्ञानावरणीय कर्म बांधते हैं ? ३२ उत्तर - हे गौतम ! चरम और अचरम ये दोनों प्रकार के जीव, आठों कर्म प्रकृतियों को कदाचित् बांधते हैं और कदाचित् नहीं बांधते हैं । विबेचन- ११ योग द्वार - मनयोगी, वचनयोगी और काययोगी, ये तीनों जब उपशांत मोह गुणस्थान वाले, क्षीणमोह गुणस्थान वाले और सयोगी गुणस्थान वाले होते हैं, तब ज्ञानावरणीय कर्म को नहीं बांधते हैं। इसके सिवाय दूसरे सभी सयोगी जीब, ज्ञानावरणीय कर्म बांधते हैं, इसलिए 'भजना' कही गई है । अयोगी-केवली और सिद्ध, ज्ञानावरणीय कर्म For Personal & Private Use Only Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९७४ भगवती सूत्र - श. ६ .उ. ३ कर्मों के बंधक नहीं बांधते हैं। मनयोगी, वचनयोगी और काय योगी, ये तीनों वेदनीय कर्म बांधते हैं, क्योंकि सभी सयोगी जीव, वेदनीय के बन्धक होते है । अयोगी, वेदनीय कर्म नहीं बांधते हैं, क्योंकि सभी अयोगी (अयोगी केवली और सिद्ध) वेदनीय के तथा सभी कर्मों के अबन्धक होते हैं। १२ उपयोग द्वार-सयोगी जीव और अयोगी जीव इन दोंनों को साकार उपयोग और अनाकार उपयोग-ये दोनों उपयोग होते हैं । इन दोनों उपयोगों में वर्तमान सयोगी जीव, ज्ञानावरणीयादि आठों कर्म की प्रकृतियों को यथायोग्य बांधता है और अयोगी जीव नहीं है, क्योंकि योगी जीव, सभी कर्म प्रकृतियों का अबन्धक होता है। इसलिए इनमें 'भजन' कही गई है । १३ आहारक द्वार- वीतरागी भी आहारक होते हैं और सरागी भी आहारक होते हैं। इनमें से वीतरागी आहारक, ज्ञानावरणीय कर्म नहीं बांधते हैं । और सरागी आहारक बांधते हैं। इस प्रकार आहारक, ज्ञानावरणीय कर्म भजना से बांधते हैं । केवली और विग्रहगति समापन्न जीव, ये दोनों अनाहारक होते हैं। इन में से केवली तो ज्ञानावरणीय कर्म को नहीं बांधते हैं और विग्रह गति समापन्न जीव, बांघते हैं। इस प्रकार अनाहारक भी ज्ञानावरणीय कर्म भजना से बांधते हैं। आहारक जीव, वेदनीय कर्म बांधते हैं। क्योंकि अयोगी केवली के सिवाय सभी जीव वेदनीय के बंधक हैं। विग्रहगति समापन जीव, समुद्घात प्राप्त केवली, अयोगी केवली और सिद्ध, ये सब अनाहारक होते हैं। इन में से विग्रहगति समापन्न जीव और समुद्घात प्राप्त केवली, ये दोनों वेदनीय कर्म को बांधते हैं। अयोगी केवली और सिद्ध जीव नहीं बांधने हैं। इस प्रकार अनाहारक जीव, वेदनीय कर्म भजना से बांधते हैं । आहारक जीव, आयुष्य के बंध काल में आयुष्य बांधते हैं और दूसरे समय में नहीं बांधते है । इस प्रकार आयुष्य कर्म के बन्ध में भजना है । अनाहारक, आयुष्य कर्म नहीं बांध हैं। क्योंकि विग्रह गति समापन्न जीव भी आयुष्य का अबंधक है । १४ सूक्ष्म द्वार - सूक्ष्म जीव, ज्ञानावरणीय का बंधक है। वीतराग बादर जीव, ज्ञानावरणीय के अबंधक है। और सराग बादर जीव, बंधक है । इसलिये इनकी भजना कही गई है । नोसूक्ष्म नोबादर अर्थात् सिद्ध, ज्ञानावरणीय कर्म के अबंधक हैं । सूक्ष्म और बादर दोनों प्रकार के जीव, आयुष्य बंधकाल में आयुष्य कर्म बांधते हैं और दूसरे समय में नहीं बांध हैं । इसलिये आयुष्य के विषय में भजना कही गई है। १५ चरम द्वार - जिसका चरम अर्थात् अन्तिम भव है या होने वाला है, उसको यहाँ 'चरम' कहा गया है अर्थात् यहाँ भव्य को चरम कहा गया है और जिसका अन्तिम For Personal & Private Use Only Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ६ उ. ३ वेदक का अल्पबहुत्व भव नहीं होने वाला है तथा जिन्होंने भवों का अन्त कर दिया है, उनको यहाँ 'अचरम' कहा गया है अर्थात् अभवी और सिद्ध को अचरम कहा गया है। इनमें से चरम जीव यथायोग्य आठ कर्म प्रकृतियों को भी बांधता है और चरम जीव की अयोगी अवस्था हो उस समय वह नहीं बांधता हैं । इसलिये यह कहा गया है कि चरम जीव, आठों कर्म प्रकृतियों को भजना से बांधता है। अचरम शब्द का अर्थ जब यह लिया जाय कि जिसका कभी चरम भव नहीं होगा-ऐसा अभव्य जीव, आठों कर्म प्रकृतियों को बांधता है और जब अचरम का अर्थ 'सिद्ध' लिया जाय, तो वह किसी भी कर्म प्रकृति को नहीं बांधता है । इसलिये यह कहा गया है कि 'अचरम जीव आठों कर्म प्रकृतियों को भजना से बांधता है।' वेदक का अल्पबहुत्व ३३ प्रश्न-एएसि णं भंते ! जीवाणं इत्थीवेयगाणं, पुरिसवेयगाणं, णपुंसगवेयगाणं, अवेयगाण य कयरे कयरहितो अप्पा वा० ४ ? - ३३ उत्तर-गोयमा ! सव्वत्थोवा जीवा पुरिसवेयगा, इत्थिवेयगा संखेनगुणा, अवेयगा अणंतगुणा, णपुंसगवेयगा अणंतगुणा। .. -एएसि सव्वेसि पयाणं अप्प-बहुगाई उच्चारेयव्वाई, जाव'सव्वत्थोवा जीवा अचरिमा, चरिमा अणंतगुणा । ® सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति छ ॥ छट्ठसए तहओ उद्देसो सम्मत्तो॥ For Personal & Private Use Only Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ६ उ. ३ वेदक का अल्पबहुत्व कठिन शब्दार्थ - अवेयगा -- अवेदक - जिन जीवों में काम विकार उत्पन्न नहीं होता, अप्पबहुगाई- – अल्प बहुत्व, उच्चारेयव्वाइं उच्चारण करना चाहिये । भावार्थ - ३३ प्रश्न - हे भगवन् ! स्त्री-वेदक, पुरुष- वेदक, नपुंसक वेदक और अवेदक, इन जीवों में से कौन किससे अल्प हैं, बहुत हैं, तुल्य हैं और विशेषाधिक हैं ? ३३ उत्तर - हे गौतम ! सब से थोडे पुरुष-वेदक हैं। उनसे संख्येय गुणा स्त्री-वेदक हैं। उनसे अनन्त गुणा अवेदक हैं । और उनसे अनन्त गुणा नपुंसकवेदक हैं । पहले कहे हुए सब पदों का अल्प बहुत्व कहना चाहिये। यावत् सब से थोडे अचरम जीव हैं और उनसे अनन्त गुणा चरम जीव हैं । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । ९७६ विवेचन-वेदकों का अल्प बहुत्व बताते हुए यह बतलाया गया है कि पुरुषवेदक जीवों से स्त्रीवेदक जीव संख्यातगुणा अधिक हैं । इसका कारण यह है कि देवों की अपेक्षा देवियाँ बत्तीस गुणी और बत्तीस अधिक हैं। मनुष्य पुरुषों की अपेक्षा मनुष्यणी (स्त्री) सत्ताईस गुणी और सत्ताईस अधिक हैं । तिर्यंचों की अपेक्षा तिर्यंचणियाँ तीन गुणी और तीन अधिक हैं | स्त्रीवेदक वालों की अपेक्षा अवेदक अनन्त गुणा हैं। इसका कारण यह है कि अनिवृति बादर संपरायादि गुणस्थानक वाले जीव और सिद्ध भगवान् अवेदक हैं । ये सत्र अनन्त हैं । इसलिये ये स्त्रीवेदकों की अपेक्षा अनन्त गुणा हैं । अवेदकों से नपुंसक वेदक अनन्त गुणा हैं । इसका कारण यह है कि सिद्ध भगवान् की अपेक्षा अनन्त कायिक जीव जो कि सब नपुंसक है, अनन्त गुणा हैं । जिस प्रकार वेदकों का अल्पबहुत्व द्वार कहा गया है, उसी तरह संयत द्वार से लेकर चरम द्वार तक चौदह ही द्वारों का अल्पबहुत्व कहना चाहिये । इसका विस्तृत वर्णन प्रज्ञापना सूत्र के तीसरे अल्पबहुत्व पद में हैं। विशेष जिज्ञासुओं को वहां देखना चाहिये । यहाँ पर जो यह कहा गया है कि अचरम की अपेक्षा चरम अनन्तगुणा है । इसका कारण यह है कि यहाँ अचरम का अर्थ अभव्य और सिद्ध लिया गया है । क्योंकि वे कभी भो चरम - अन्त को प्राप्त नहीं करेंगे। वे थोड़ हैं और उनसे चरम ( भव्य ) अनन्त गुणा हैं । ॥ इति छठे शतक का तीसरा उद्देशक समाप्त ॥ For Personal & Private Use Only Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ६ उ. ४ जीव- प्रदेश निरूपण शतक उद्देशक ४ जीव- प्रदेश निरूपण १ प्रश्न - जीवे णं भंते ! कालादेसेणं किं सपएसे, अपएसे ? १ उत्तर - गोयमा ! णियमा सपए से । २ प्रश्न - णेरइए णं भंते ! कालादेसेणं किं सपए से अपएसे ? २ उत्तर - गोयमा ! सिय सपएसे, सिय अपएसे, एवं जाव ९७७ सिधे । ३ प्रश्न - जीवा णं भंते ! कालादेमेणं किं सपएसा, अपएसा ? ३ उत्तर - गोयमा ! णियमा सपएसा । ४ प्रश्न - णेरड्या णं भंते ! कालादेसेणं किं सपएसा, अपएसा ? ४ उत्तर - गोयमा ! सव्वे वि ताव होज्जा सपएसा, अहवा सपएसा य अपए से य, अहवा सपएसा य अपएसा य; एवं जाव - थणियकुमारा । ५ प्रश्न - पुढविकाइया णं भंते ! किं सपएसा, अपएसा ? ५ उत्तर - गोयमा ! सपएसा वि, अपएसा वि एवं जावaणसइकाइया । कठिन शब्दार्थ - कालावेसेणं - कालादेश से अर्थात् काल की अपेक्षा, सिय- कदाचित् । For Personal & Private Use Only Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९७८ भगवती सूत्र - ६ उ. ४ जीव प्रदेश निरूपण भावार्थ - १ प्रश्न - हे भगवन् ! कालादेश की अपेक्षा क्या जीव, सप्रदेश है, या अप्रदेश है ? १ उत्तर - हे गौतम! जीव, नियमा ( निश्चित रूप से) सप्रदेश है । २ प्रश्न - हे भगवन् ! कालादेश की अपेक्षा नैरयिक जीव, सप्रदेश है अथवा अप्रदेश है ? २ उत्तर - हे गौतम! एक नैरधिक जीव कदाचित् सप्रदेश है और कदाचित् अप्रदेश है । इस प्रकार यावत् सिद्ध जीव पर्यन्त कहना चाहिये । कालादेश की अपेक्षा क्या जीव ( बहुत जीव ) ३ प्रश्न - हे भगवन् ! सप्रदेश हैं, या अप्रदेश हैं ? ३ उत्तर - हे गौतम ! ४ प्रश्न - हे भगवन् ! कालादेश की अपेक्षा क्या नैरयिक जीव ( बहुत नैरयिक जीव) सप्रदेश हैं, या अप्रदेश हैं ? जीव नियमा सप्रदेश हैं । ४ उत्तर - हे गौतम ! इस विषय में नैरयिक जीवों के तीन भंग हैं । यथा - १ सभी सप्रदेश, २ बहुत सप्रदेश और एक अप्रदेश, ३ बहुत सप्रदेश और बहुत प्रदेश | इस प्रकार यावत् स्तनितकुमारों तक कहना चाहिये । ५ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या पृथ्वीकायिक जीव सप्रदेश है, या अप्रदेश हैं ? ५ उत्तर - हे गौतम ! पृथ्वीकायिक जीव सप्रदेश भी हैं और अप्रदेश भी हैं । इसी प्रकार यावत् वनस्पतिकायिक तक कहना चाहिये । - सेसा जहा रहया तहा जाव - सिद्धा । आहारगाणं जीवएगिंदियवज्जो तियभंगो । अणाहारगाणं जीवाणं एगिंदियवज्जा छत्रभंगा एवं भाणियव्वा - १ सपएमा वा २ अपएसा वा ३ अहवा सपने य अपने य, ४ अहवा सपएसे य अपएसा य, ५ अहवा सपएसा य अपने य, ६ अहवा सपएसा य अपएसा य | सिधेहिं For Personal & Private Use Only Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ६ उ. ४ जीव प्रदेश निरूपण तियभंगो | भवसिद्धिया, अभवसिद्धिया जहा ओहिया । गोभवसिद्धिय-गोअभवसिद्धिय-जीवसिदधेहिं तियभंगो | सण्णीहिं जीवाइओ तियभंग | असण्णीहिं एगिंदियवज्जो तियभंगो । रइयदेव- महिं भंगो | णोसण्णि-गोअसण्णि-जीवमणुयसिद्धेहिं तियभंगो । सलेसा जहा ओहिया । कण्हलेस्सा, नीललेस्सा, काउलेस्सा जहा आहारओ, णवरं जस्स अस्थि एयाओ । तेउलेस्साए जीवाइओ तियभंगो, णवरं पुढविकाइएसु, आउवणस्सईसु छ-भंगा । पम्हलेस्स- सुकलेस्साए जीवाइओ तियभंगो । अलेसे हिं जीव - सिद्धेहिं तियभंगो । मणुएसु छभंगा । सम्मद्दिट्टीहिं जीवाइओ तियभंगो । विगलिंदिए छन्भंगा । मिच्छेदिट्ठीहिं एगिंदियवज्जो तियभंगो । सम्मामिच्छदिट्टी हिं छभंगा । संजएहिं जीवाइओ तियभंगो । असंजएहिं एगिंदियवज्जो तियभंगो । संजयासंजहिं तियभंगो जीवाइओ । गोसंजय गोअसंजय गोसंजयासंजयजीव-सिधेहिं तियभंगो । सकसाईहिं जीवाइओ तियभंगो । एगिदिएस अभंगयं । कोहकसाईहिं जीव - एगिंदियवज्जो तियभंगो । देवेहिं छभंगा | माण-कसाई - मायाकसाईहिं जीव - एगिंदियवज्जो - तियभंगो | णेरइय- देवेहिं छभंगा । लोभकसाईहिं जीव-एगिंदियवज्जो तियभंगो । रइएस छन्भंगा । अकसाई - जीव-मणुए हिं, सिद्धेहिं तियभंगो । ओहियणाणे, आभिणिबोहियणाणे, सुयणाणे ९७९ For Personal & Private Use Only Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ६ उ. ४ जीव प्रदेश निरूपण जीवाइओ तियभंगो। विगलिंदिएहिं छब्भंगा । ओहिणाणे मणकेवलणाणे जीवाइओ तियभंगो। ओहिए अण्णाणे, मइअण्णाणे, सुयअण्णाणे, एगिदियवजो तियभंगो । विभंगणाणे जीवाइओ. तियभंगो। सजोगी जहा ओहिओ, मणजोगी, वयजोगी, काय. जोगी, जीवाइओ तियभंगो, णवरं-कायजोगी एगिदिया, तेसु अभंगयं । अजोगी जहा अलेस्सा । सागारोवउत्त-अणागारोवउत्तेहिं जीव-एगिंदियवजो तियभंगो। सवेयगा य जहा सकसाई । इत्थिवेयग-पुरिसवेयग-णपुंसगवेयगेसु जीवाइओ तियभंगो, णवरंणपुंसगवेदे एगिदिएसु अभंगयं । अवेयगा जहा अकसाई, ससरीरी जहा ओहिओ । ओरालिय-वेउब्वियसरीराणं जीव-एगिंदियवज्जो तियभंगो आहारगसरीरे जीव-मणुएसु छन्भंगा, तेयग-कम्मगाणं जहा ओहिया। असरीरेहिं जीव-सिद्धेहिं तियभंगो। आहारपजत्तीए, सरीरपजत्तीए, इंदियपजत्तीए, आणापाणपज्जत्तीए जीव-एगिदियवज्जो तियभंगो, भासा-मणपजत्तीए जहा सण्णी, आहार-अपजत्तीए जहा अणाहारगा, सरीर-अपजत्तीए, इंदिय अपजत्तीए, आणापाण-अपजत्तीए जीव-एगिदियवजो तियभंगो, णेरइय-देव-मणुएहिं छभंगा, भासामणअपजत्तीए जीवाइओ तियभंगो, गेरइय-देवमणुएहि छभंगा। संगहगाहा सपएसा आहारग-भविय-सण्णिलेसा-दिट्ठी-संजय कसाए । For Personal & Private Use Only Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र श. ६ उ. ४ जीव- प्रदेश निरूपण णाणी जोगु-वओगे, वे य सरीर पज्जती ॥ " कठिन शब्दार्थ - ओहिया - औधिक - सामान्य । भावार्थ - जिस प्रकार नैरयिक जीवों का कथन किया गया है । उसी प्रकार सिद्ध पर्यन्त सभी जीवों का कथन करना चाहिये । आहार द्वार - जीव और एकेन्द्रिय को छोड़कर बाकी सभी आहारक जीवों के लिये तीन भंग कहने चाहिये । यथा - १ सभी सप्रदेश, २ बहुत सप्रदेश और एक अप्रदेश ३ बहुत सप्रदेश और बहुत अप्रदेश । अनाहारक जीवों के लिये एकेंद्रिय को छोड़कर छह भंग कहने चाहिये । यथा - १ सभी सप्रदेश, २ सभी अप्रदेश, ३ एक सप्रदेश और एक अप्रदेश, ४ एक सप्रदेश और बहुत - अप्रदेश, ५ बहुत सप्रदेश और एक अप्रदेश, ६ बहुत सप्रदेश और बहुत अप्रदेश । सिद्धों के लिये तीन भंग कहने चाहिये । भवसिद्धिक ( भव्य ) और अभवसिद्धिक ( अभव्य ) जीवों के लिये औधिक जीवों की तरह कथन करना चाहिये । नोभवसिद्धिक-नोअभवसिद्धिक जीव और सिद्धों में तीन भंग कहने चाहिये । संज्ञी जीवों में जीव आदि में तीन भंग कहने चाहिये । असंज्ञी जीवों में एकेंद्रिय को छोड़कर तीन भंग कहने चाहिये । नरयिक, देव और मनुष्यों में छह भंग कहने चाहिये । नोज्ञनो असंज्ञी जीव, मनुष्य और सिद्धों में तीन भंग कहने चाहिये । सलेश्य ( लेश्या वाले) जीवों का कथन, औधिक जीवों की तरह करना चाहिये । कृष्णलेश्या वाले, नील लेश्या वाले और कापोत लेश्या वाले जीवों का कथन आहारक जीव की तरह करना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि जिसके जो लेश्या हो उसके वह लेश्या कहनी चाहिये । तेजो लेश्या में जीव आदि में तीन भंग कहने चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि पृथ्वीकायिक, अष्कायिक और वनस्पतिकायिक जीवों में छह भंग कहने चाहिये । पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या में जीव आदि में तीन भंग कहने चाहिये । अलेश्य ( लेश्या रहित ) जीव और सिद्धों में तीन भंग कहने चाहिये और अलेश्य मनुष्यों में छह मंग कहने चाहिये । सम्यग्दृष्टि जीवों में, जीव आदि में तीन भंग कहने चाहिये । विकलेन्द्रियों में ९८१ For Personal & Private Use Only Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८२ भगवती सूत्र-श. ६ उ. ४ जीव-प्रदेश निरूपण छह भंग कहने चाहिये । मिथ्यादृष्टि जीवों में एकेंद्रिय को छोडकर तीन भंग कहने चाहिये । सम्यगमिथ्यादष्टि जीवों में छह भंग कहने चाहिये । संयत जीवों में जीव आदि में तीन भंग कहने चाहिये । असंयत जीवों में एकेंद्रिय को छोड़ कर तीन भंग कहने चाहिये । संयतासंयत जीवों में जीवादि में तीन भंग कहने चाहिये । नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत जीव और सिद्धों में तीन भंग कहने चाहिये । सकषायी (कषाय वाले) जीवों में जीवादि में तीन भंग कहने चाहिये। एकेंद्रियों में अभंगक कहना चाहिये । क्रोध कषायी जीवों में जीव और एकेंद्रिय को छोड़कर तीन भंग कहने चाहिये । देवों में छह भंग कहने चाहिये । मान. कषायी और माया कषायी जीवों में जीव और एकेंद्रिय को छोड़कर तीन भंग कहने चाहिये । नेरयिक और देवों में छह भंग कहने चाहिये । लोभ कषायी जीवों में जीव और एकेंद्रिय को छोड़कर तीन भंग कहने चाहिये । नरयिक जीवों में छह भंग कहने चाहिये । अकषायी जीवों में जीव, मनुष्य और सिद्धों में तीन भंग कहने चाहिये । औधिक ज्ञान (समुच्चय ज्ञान) आभिनिबोधिक ज्ञान और श्रुतज्ञान में जीवादिक में तीन भंग कहने चाहिये। विकलेन्द्रियों में छह भंग कहने चाहिये । अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान में जीवादि में तीन भंग कहने चाहिये । औधिक अज्ञान (समुच्चय अज्ञान) मतिअज्ञान और श्रुतअज्ञान में एकेंद्रिय को छोड़कर तीन भंग कहने चाहिये । विभंगज्ञान में जीवादि में तीन भंग कहने चाहिये ।। जिस प्रकार औधिक जीवों का कथन किया उसी प्रकार सयोगी जीवों का कथन करना चाहिये। मन-योगी, वचन-योगी और काय-योगी मे, जीवादि में तीन भंग कहने चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि एकेंद्रिय जीव केवल फाय-योग वाले ही होते हैं। उनमें अभंग कहना चाहिये । अयोगी जीवों का कथन अलेशी जीवों के समान कहना चाहिये। साकार उपयोग वाले और अनाकार उपयोग बाले जीवों में जीव और एकेंद्रिय को छोड़कर तीन भंग कहने चाहिये। For Personal & Private Use Only Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ६ उ. ४ जीव-प्रदेश निरूपण ९८३ सवेदक जीवों का कथन सकषायी जीवों के समान करना चाहिये। स्त्री-वेदक, पुरुष-वेदक और नपुंसक-वेदक जीवों में, जीवादि में तीन भंग कहने चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि नपुंसक-वेद में एकेंद्रियों के विषय में अभंग कहना चाहिये। अवेदक जीवों का कथन अकषायी जीवों के समान कहना चाहिये। सशरीरी जीवों का कथन औधिक जीवों के समान कहना चाहिये। औदारिक शरीर वाले और वैक्रिय शरीर वाले जीवों के लिये, जीव और एकेंद्रिय को छोड़कर तीन भंग कहने चाहिये। आहारक शरीर वाले जीवों में जीव और मनुष्य मे छह भंग कहने चाहिये। तेजस और कार्मण शरीर वाले जीवों का कथन औधिक जीवों के समान कहना चाहिये । अशरीरी जीव और सिद्धों के लिये तीन भंग कहने चाहिये। आहार पर्याप्ति, शरीर पर्याप्ति, इन्द्रिय पर्याप्ति और श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति वाले जीवों में जीव और एकेंद्रिय को छोडकर तीन भंग कहने चाहिये। भाषा मनःपर्याप्ति वाले जीवों का कथन, संजी जीवों के समान कहना चाहिये। आहार अपर्याप्ति वाले जीवों का कथन, अनाहारक जीवों के समान कहना चाहिये । शरीर अपर्याप्ति, इन्द्रिय अपर्याप्ति और श्वासोच्छवास अपर्याप्ति वाले जीवों में जीव और एकेन्द्रिय को छोड़कर तीन भंग कहने चाहिये। नरयिक, देव और मनुष्यों में छह भंग कहने चाहिये । भाषा मन अपर्याप्ति वाले जीव आदि में तीन भंग कहने चाहिये । नरयिक, देव और मनुष्यों में छह भंग कहने चाहिये। . संग्रह गाथा का अर्थ इस प्रकार है-सप्रदेश, आहारक, भव्य, संजी, . लेश्या, दृष्टि, संयत, कषाय, ज्ञान, योग, उपयोग, वेद, शरीर और पर्याप्ति, इन चौदह द्वारों का कथन ऊपर किया गया है। विवेचन-तीसरे उद्देशक में जीवों का निरूपण किया गया है। अब इस चौथे उद्देशक में दूसरे प्रकार से चौदह द्वारों में जीवों का निरूपण किया जाता है;-- १ सप्रवेश द्वार-कालादेश का अर्थ है-काल की अपेक्षा से । विभाग सहित को सप्र For Personal & Private Use Only Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ६ उ. ४ जीव- प्रदेश निरूपण देश कहते हैं और विभाग रहित को अप्रदेश कहते हैं । जीव अनादि है, इसलिए उसकी स्थिति अनन्त समय की है, इसीलिए वह सप्रदेश है । जो एक समय की स्थिति वाला होता है, वह काल की अपेक्षा अप्रदेश है और जो एक समय से अधिक दो तीन चार आदि समय की स्थिति वाला होता है, वह काल की अपेक्षा सप्रदेश होता है । यही बात गाथा द्वारा इस प्रकार कही गई है; ९८४ जो जस्स पढमसमए वट्टइ भावस्स सो उ अपएसो । अणमिवमाणो काला सेण सपएसो ॥ अर्थ - जो जीव जिस भाव के प्रथम समय में वर्तता है, वह जीव 'अप्रदेश' कहलाता है । जो जीव जिस भाव के प्रथम समय के बाद दूसरे, तीसरे, चौथे आदि समयों में में वर्तता है, वह कालादेश की अपेक्षा 'सप्रदेश' कहलाता है । जिस नैरयिक जीव को उत्पन्न हुए एक ही समय हुआ है, वह कालादेश की अपेक्षा 'अप्रदेश' कहलाता है और प्रथम समय के बाद दूसरे तीसरे आदि समय में वर्तता हुआ नैरयिक जीव, कालादेश की अपेक्षा 'सप्रदेश' कहलाता है। इसीलिये कहा गया हैं कि नैरयिक जीव, कोई प्रदेश और कोई अप्रदेश होता है। इस प्रकार जीव से लेकर सिद्ध पर्यन्त २६ cuss ( औधिक जीव का एक दण्डक, सिद्ध का एक दण्डक और नैयिक आदि जीवों के २४ दण्डक, इस प्रकार अपेक्षा विशेष से यहाँ पर २६ दण्डक कहे गये हैं) में एक वचन को लेकर कालादेश की अपेक्षा सप्रदेशत्वादि का विचार किया गया है। इस के बाद इन्ही २६ दण्डकों में बहुवचन को लेकर विचार किया गया है । उपपात विरह काल में पूर्वोत्पन्न जीवों की संख्या संख्यात होने से सभी सप्रदेश होते हैं। तथा पूर्वोत्पन्न नैरयिकों में जब एक भी दूसरा नैरयिक उत्पन्न होता है, तब उसकी प्रथम समय की उत्पत्ति की अपेक्षा उसका अप्रदेशत्व होने से वह 'अप्रदेश' कहलाता हैं। उसके सिवाय बाकी नैरयिक जिनकी उत्पत्ति को दो तीन चार आदि समय हो गये हैं, वे 'सप्रदेश' कहे गये हैं इसलिये मूल में यह कहा गया है कि 'बहुत प्रदेश होते हैं और एक अप्रदेश होता है।' इसी तरह जब बहुत जीव, उत्पद्यमान ( उत्पन्न होते हुए) होते हैं तब 'बहुत जीव सप्रदेश और बहुत जीव अप्रदेश' - ऐसा कहा जाता है । एक समय में एकादि नैरयिक उत्पन्न भी होते हैं । जैसा कि कहा है एगो व दो व तिष्ण व संखमसंखा च एगसमएणं । उववज्जंतेवइया उध्वट्टंता वि एमेव ॥ अर्थ - एक, , दो, तीन संख्याता और असंख्याता जीव एक समय में उत्पन्न होते हैं । For Personal & Private Use Only Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-स. ६ उ. ४ जीव-प्रदेश निरूपण और इसी प्रमाण में उद्वर्तते (मरते) हैं। . पूर्वोत्पन्न और उत्पद्यमान एकेंद्रिय जीव, बहुत होने से 'बहुत सप्रदेश और बहुत अप्रदेश'-ऐसा कहा जाता है । अतः इनमें भंग नहीं बनता है । जिस प्रकार नरयिक जीवों में तीन भंग कहे गये है, उसी प्रकार बेइन्द्रिय आदि से लेकर सिद्ध पर्यन्त जीवों में कथन करना चाहिये । क्योंकि इन सब में विरह का सम्भव होने से और इनकी उत्पत्ति एक, दो, तीन, चार आदि. रूप से होती है। २ आहारक द्वार-आहारक और अनाहारक शब्द से विशेषित जीवों का एक वचन आश्री एक दण्डक और बहुवचन आश्री एक दण्डक, इस प्रकार दो दण्डक कहने चाहिये । जो जीव विग्रह गति में अथवा केवली समुदधात में अनाहारक होकर फिर आहारकपने को प्राप्त करता है, तब आहारकत्व के प्रथम समय में वर्तता हुआ वह जीव 'अप्रदेश' कहलाता है और प्रथम समय के सिवाय दूसरे, तीसरे आदि समयों में वर्तता हुआ वह जीव, 'सप्रदेश' कहलाता है । इसलिये मूल में कहा गया है कि कदाचित् कोई सप्रदेश और कदाचित् कोई अप्रदेश होता है । इस प्रकार सभी आदि वाले (शुरू होने वाले) भावों में एक वचन में जान लेना चाहिये और अनादि वाले भावों में तो नियमा सप्रदेश होते हैं। बहुवचन वाले दण्डक में तो इस प्रकार कहना चाहिये कि वे सप्रदेश भी होते हैं और अप्रदेश भी होते हैं। क्योंकि आहारकपने में रहे हुए बहुत जीव होने से उनका सप्रदेशत्व है । तथा बहुत से जीवों को विग्रह गति के बाद तुरन्त ही प्रथम समय में आहारकपना संभव होने से उनका अप्रदेशत्व भी है । इस प्रकार आहारक जीवों में सप्रदेशत्व और अप्रदेशत्व ये दोनों पाये जाते हैं। इस प्रकार पृथ्वीकायिक आदि जीवों के लिये भी कहना चाहिये । नरयिकादि जीवों में तीन भंग कहने चाहिये । यथा-१ सभी सप्रदेश, अथवा २ बहुत सप्रदेश और एक अप्रदेश, अथवा ३ बहुत सप्रदेश और बहुत अप्रदेश । जीव और एकेन्द्रियों को छोड़कर उपर्युक्त तीन भंग कहने चाहिये । यहां (आहारक पद के विषय में) सिद्ध पद तो नहीं कहना चाहिये । क्योंकि सिद्ध तो अनाहारक ही होते हैं। जिस प्रकार आहारक पद के दो दण्डक कहे हैं, उसी प्रकार अनाहारक जीवों के विषय में भी एकवचन और बहुवचन की अपेक्षा दो दण्डक कहने चाहियों इनमें विग्रह गति समापन्न जीव, समुद्घात गत केवली, अयोगी केवली और सिद्ध, ये सर्व अनाहारक होते हैं । इसलिये ये सब जब अनाहारकत्व के प्रथम समय में वर्तते हैं, तो 'अप्रदेश' कहलाते हैं और जब दूसरे, तीसरे आदि समय में वर्तते हैं, तब ‘सप्रदेश' कहलाते हैं। बहुवचम की अपेक्षा दण्डक में यह विशेषता है कि जीव और एकेन्द्रिय को नहीं लेना चाहिये। क्योंकि जीव. पद में और एकेन्द्रिय पद में बहुत सप्रदेश और बहुत अप्रदेश' यह एक ही भंग पाया जाता है। For Personal & Private Use Only Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८६ भगवती सूत्र - श. ६ उ ४ जीव- प्रदेश निरूपण क्योंकि इन दोनों पदों में विग्रहगति समापन्न अनेक जीव सप्रदेश और अनेक जीव अप्रदेश मिलते हैं । नैरयिकादि तथा बेइन्द्रिय आदि जीवों में थोड़े जीवों की उत्पत्ति होती है । इसलिये उनमें एक दो आदि अनाहारक होने से छह भंग सम्भवित होते हैं । वे छह भंग मूल में कह दिये गये हैं । इनमें से असंयोगी दो भंग बहुवचनान्त हैं और शेष चार भंग एक वचन और बहुवचन के संयोग से बने हैं । यहाँ पर एक वचन की अपेक्षा दो भंग नहीं होते हैं, क्योंकि यहाँ बहुवचन का अधिकार चलता है । सिद्धों में तीन भंग होते हैं । क्योंकि उनमें सप्रदेश पद बहुवचनान्त ही सम्भवित है । ३ भव्य द्वार - भवसिद्धिक और अभवसिद्धिक, इन दोनों के प्रत्येक के दो दो दण्डक हैं। वे औधिक (सामान्य) जीव-दण्डक की तरह जान लेने चाहिये। इनमें भवसिद्धिक और अभवसिद्धिक जीव, नियमा सप्रदेश होता है । नैरयिक आदि जीव तो सप्रदेश तथा अप्रदेश होता है । बहुत जीव तो सप्रदेश ही होते हैं । नरयिक आदि जीवों में तीन भंग होते हैं । एकेन्द्रिय जीवों में 'बहुत. सप्रदेश और बहुत अप्रदेश' यह एक भंग ही होता है । यहाँ भव्य और अभव्य के प्रकरण में सिद्ध पद नहीं कहना चाहिये, क्योंकि सिद्धों में भव्य और अभव्य इन दोनों विशेषणों की उपपत्ति नहीं होती । अर्थात् सिद्ध जीव न तो भव्य कहलाते हैं और न अभव्य कहलाते हैं । नोभवसिद्धिक-नोअभवसिद्धिक जीवों में दो दण्डक कहने चाहिये । अर्थात् एकवचन और बहुवचन से दो दण्डक कहने चाहिये । इसमें जीवपद और सिद्धपद ये दो पद ही कहने चाहिये । क्योंकि नैरयिक आदि जीवों के साथ 'नो भवसिद्धिकनोभवसिद्धिक' यह विशेषण नहीं लग सकता। इसके बहुवचन की अपेक्षा दण्डक में तीन भंग कहने चाहिये । ४ संज्ञी द्वार - संज्ञी जीवों के एकवचन और बहुवचन से दो दण्डक कहने चाहिये । बहुवचन से दण्डक में जीवादि पदों में तीन भंग कहने चाहिये। जिन संज्ञी जीवों को उत्पन्न हुए बहुत समय हो गया है, उनमें कालादेश से सप्रदेशत्व है । उत्पाद विरह के बाद जब एक 'जीव की उत्पत्ति होती है, तब उसके प्रथम समय की अपेक्षा 'बहुत जीव सप्रदेश और एक जीव अप्रदेश' इस प्रकार कहा जाता है । जब बहुत जीवों की उत्पत्ति प्रथम समय में होती है, तब 'बहुत प्रदेश और बहुत अप्रदेश' - ऐसा कहा जाता है। इस प्रकार ये तीन भंग होते हैं । इस प्रकार सभी पदों में जान लेना चाहिये । किन्तु इन दो दण्डकों में एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और सिद्ध पद नहीं कहना चाहिये । क्योंकि इनमें 'संज्ञी' यह विशेषण नहीं लग सकता । असंज्ञी जीवों में एकेन्द्रिय पदों को छोड़कर दूसरे दण्डक में ये ही तीन भंग कहने For Personal & Private Use Only Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ६ उ. ४ जीव-प्रदेश निरूपण चाहिये और पृथ्वी आदि पदों में तो 'बहुत सप्रदेश और बहुत अप्रदेश' यह एक ही भंग कहना चाहिये । क्योंकि पृथ्वीकायिकादि जीवों में सदा बहुत जीवों की उत्पत्ति होती है । इसलिये उनके अप्रदेशपन बहुत्व ही सम्भवित है । नैरयिकों से लेकर व्यन्तर देवों तक असंज्ञी जीव उत्पन्न होते हैं। वे जब तक संज्ञी न हों, तब उनका असंज्ञीपना जानना चाहिये । नैरयिकादि में असंज्ञीपना कादाचित्क होने से एकत्व और बहुत्व का सम्भव है। इसलिये उनमें छह भंग पाये जाते हैं-जो कि मूल पाठ में बतला दिये गये हैं । इस असंज्ञी प्रकरण में ज्योतिषी वैमानिक और सिद्ध का कथन नहीं करना चाहिये। क्योंकि इनमें असंज्ञौपना संभव नहीं है। नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी विशेषण वाले जीवों के दो दण्डक कहने चाहिये । उसमें बहुवचन की अपेक्षा दूसरे दण्डक में जीव, मनुष्य और सिद्ध में उपर्युक्त तीन भंग कहने चाहिये, क्योंकि उनमें बहुत-से अवस्थित मिलते हैं और उत्पदयमान एकादि का भी उनमें सम्भव है। इन दो दण्डकों में जीव, मनुष्य और सिद्ध ये तीन पद ही कहने चाहिये, क्योंकि नरयिकादि जीवों के साथ 'नोसंज्ञी नोअसंज्ञी' यह विशेषण घटित नहीं हो सकता। ५ लेश्या द्वार–सलेश्य (लेश्यावाले) जीवों के दो दण्डक में जीव और नैरयिकों का कथन, औधिक दण्डक के समान करना चाहिये। क्योंकि जीवत्व की तरह सलेश्यत्व भी अनादि है । इसलिये इन दोनों में किसी प्रकार की विशेषता नहीं है। किन्तु इतना अन्तर है कि सलेश्य अधिकार में सिद्ध पद नहीं कहना चाहिये । क्योंकि सिद्ध जीव, अलेश्य है। कृष्णलेश्या वाले नीललेश्या वाले, कापोतलेश्या वाले जीव और नरयिकों के प्रत्येक के दो दो दण्डक, आहारक जीव की तरह कहने चाहिये । जिन नैरयिकादि में जो लेश्या होती है, वह लेश्या कहनी चाहिये । कृष्णादि तीन लेश्या, ज्योतिषी और वैमानिक देवों में नहीं होती और सिद्ध जीवों में तो कोई भी लेश्या नहीं होती। तेजोलेश्या के एक वचन और बहुवचन से दो दण्डक कहने चाहिये। उनमें से बहुवचन से दूसरे दण्डक में जीवादि पदों में तीन भंग कहने चाहिये । पृथ्वीकाय, अप्काय और वनस्पतिकाय में छह भंग कहने चाहिये। क्योंकि पृथ्वीकायादि जीवों में तेजोलेश्या वाले एकादि देव जो पूर्वोत्पन्न होते हैं और उत्पद्यमाम होते हैं, वे पाये जाते हैं। इसलिये सप्रदेशत्व और अप्रदेशत्व के एकत्व और बहुत्व का सम्भव है । इस तेजोलेश्या के प्रकरण में नैरयिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, विकलेन्द्रिय और सिद्ध, इतने पद नहीं कहने चाहिये । क्योंकि इनमें तेजोलेश्या नहीं होती है । पपलेश्या और शुक्ललेश्या के प्रत्येक के दो दो दण्डक कहने चाहिये। दूसरे दण्डक For Personal & Private Use Only Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ६ उ. ४ जीव- प्रदेश निरूपण में जीवादि पदों में तीन भंग कहने चाहिये । पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या के प्रकरण में पञ्चेंद्रिय तिर्यञ्च, मनुष्य और वैमानिक देव ही कहने चाहिये। क्योंकि इनके सिवाय दूसरे जीवों में ये दो लेश्याएँ नहीं होती । अलेश्य ( लेश्या रहित ) जीव के एक वचन और बहुवचन से दो दण्डकों में जीव, मनुष्य और सिद्ध पद का ही कथन करना चाहिये । क्योंकि दूसरे जीवों में अलेश्यत्व सम्भावित नहीं है । इनमें जीव और सिद्ध में तीन भंग कहने चाहिये । मनुष्य में छह भंग कहने चाहिये । क्योंकि अलेश्यत्व प्रतिपन्न ( प्राप्त किये हुए) और प्रतिपद्यमान ( प्राप्त करते हुए) एकादि मनुष्यों का सम्भव होने से सप्रदेशत्व में और अप्रदेशत्व में एक वचन और बहुवचन का सम्भव है । ९८८ ६ दृष्टि द्वार - सम्यग्दृष्टि के दो दण्डकों में, सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के प्रथम समय में अप्रदेशपना है और पीछे के दूसरे तीसरे आदि समयों में सप्रदेशपना है । इनमें दूसरे दण्ड में जीवादि पदों में पूर्वोक्त तीन भंग जानने चाहिये । विकलेन्द्रियों में छह भंग जानने चाहिये। क्योंकि विकलेन्द्रियों में पूर्वोत्पन्न और उत्पद्यमान एकादि सास्वादन सम्यग्दृष्टि जीव पाये जाते हैं । इसलिये सप्रदेशत्व और अप्रदेशत्व में एकत्व और बहुत्व का सम्भव है । इन सम्यग्दृष्टि द्वार में एकेंद्रिय पदों का कथन नहीं करना चाहिये। क्योंकि उनमें सम्यगदर्शन नहीं होता है । मिथ्यादृष्टि के एकवचन और बहुवचन से दो दण्डक कहने चाहिये । उनमें से दूसरे दण्डक में जीवादि पदों में तीन भंग कहने चाहिये, क्योंकि मिथ्यात्व प्रतिपन्न ( प्राप्त ) जीव बहुत हैं और सम्यक्त्व से भ्रष्ट होने के बाद मिथ्यात्व को प्रतिपद्यमान एकादि जीव सम्भवित हैं । इसलिये तीन भंग होते हैं । यहाँ मिथ्यादृष्टि के प्रकरण में एकेंद्रिय जीवों में 'बहुत सप्रदेश और बहुत अप्रदेश'- यह एक ही भंग पाया जाता है। क्योंकि एकेंद्रिय जीवों में अवस्थित और उत्पद्यमान बहुत होते हैं । इस प्रकरण में सिद्धों का कथन नहीं करना चाहिये, क्योंकि उनमें मिथ्यात्व नहीं होता है । सम्यग्मिथ्यादृष्टि (मिश्रदृष्टि ) जीवों के एकवचन और बहुवचन, ये दो दण्डक कहने चाहिये। उनमें से बहुवचन के दण्डक में छह भंग होते हैं, क्योंकि सम्यग्मिथ्यादृष्टिपन को प्राप्त और प्रतिपद्यमान एकादि जीव भी पाये जाते हैं । इस सम्यग्मिथ्या द्वार में एकेंद्रिय विकलेन्द्रिय और सिद्ध जीवों का कथन नहीं करना चाहिये । क्योंकि उनमें सम्यग्मिथ्यादृष्टिपन असम्भव है । ७ संयत द्वार - संयतों में अर्थात् संयत शब्द से विशेषित जीवों में तीन भंग कहने चाहिये । क्योंकि संयम को प्राप्त बहुत जीव होते हैं और संयम को प्रतिपद्यमान एकाद जीव होते हैं । इसलिये तीन भंग घटित होते हैं। इस संयत द्वार में जीव पद और मनुष्य पद For Personal & Private Use Only Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-- श. ६ उ. ४ जीव-प्रदेश निरूपण ९८९ ये दो ही कहने चाहिये । क्योंकि दूसरे जीवों में संयतपने का अभाव है । असंयत जीवों के एकवचन और बड़वचन से दो दण्डक कहने चाहिये। उनमें से बहवचन से दूसरे दण्डक में तोन भंग कहने चाहिए, क्योंकि असंयतपने को प्राप्त बहुत जीव होते हैं और संयतपने से गिर कर असंयतपने को प्राप्त करते हुए एकादि जीव होते हैं । इसलिए उनमें तीन भंग घटित हो जाते हैं । एकेंद्रिय जीवों में पूर्वोक्त युक्ति अनुसार 'बहुत सप्रदेश और बहुत अप्रदेश'-यह एक भंग पाया जाता है । इस असंयत प्रकरण में 'सिद्ध पद' नहीं कहना चाहिए, क्योंकि सिद्धों में असंयतत्व नहीं होता। संयतासंयत पद में भी एकवचन और बहुवचन से दो दण्डक कहने चाहिए। उनमें से बहुवचन की अपेक्षा दूसरे दण्डक में पूर्वोक्त तीन भंग कहने चाहिए, क्योंकि संयतासंयतत्व अर्थात् देशविरतपने को प्राप्त बहुत जीव होते हैं और संयम से गिर कर तथा असंयम का त्याग कर संयतासंयतपने को प्राप्त होते हुए एकादि जीव होते हैं । अतः तीन भंग घटित होते हैं । इस संयतासंयत द्वार में जीव, पञ्चेंद्रिय तिर्यञ्च और मनुष्य, ये तीन पद ही कहने चाहिए। क्योंकि इन तीन पदों के सिवाय दूसरे जीवों में संयतासंयतपन नहीं पाया जाता । नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत द्वार में जीव और सिद्ध, ये दो पद ही कहने चाहिए । इनमें पूर्वोक्त तीन भंग पाये जाते हैं। ८ कषाय द्वार-सकषायी जीवों में तीन भंग पाये जाते हैं, क्योंकि सकषायी जीव. सदा अवस्थित होने से वे 'सप्रदेश' होते हैं । यह एक भंग हुआ । उपशमश्रेणी से गिर कर सकषाय अवस्था को प्राप्त होते हुए एकादि जीव पाये जाते हैं । इसलिए 'बहुत सप्रदेश और एकादि अप्रदेश' तथा 'बहुत सप्रदेश और बहुत अप्रदेश'-ये दो भंग और पाये जाते हैं। नरयि कादि में तीन भंग पाये जाते हैं। एकेंद्रिय जीवों में अभंग है अर्थात् अनेक भंग नहीं पाये जाते हैं, किन्तु 'बहुत सप्रदेश और बहुत अप्रदेश'-यह एक ही भंग पाया जाता है, क्योंकि एकेंद्रिय जीवों में बहुत जीव अदस्थित और बहुत जीव उत्पद्यमान पाये जाते हैं। जहां यह एक ही भंग पाया जाता है, उसको शास्त्रीय परिभाषा में 'अभंगक' कहते हैं । इस सकषायी द्वार में 'सिद्ध' पद नहीं कहना चाहिए, क्योंकि सिद्ध, कषाय रहित होते हैं । इसी तरह क्रोधादि कषायों में भी कहना चाहिए। क्रोधकषाय के एक वचन और बहुवचन, ये दो दण्डक कहने चाहिए । उनमें से बहुवचन के दूसरे दण्डक में जीव पद में और पृथ्वीकायिक आदि पदों में बहुत सप्रदेश और बहुत अप्रदेश'-यह एक भंग ही कहना चाहिए । शेष में तीन भंग कहने चाहिये । शंका-जिस प्रकार सकषायी जीव पद में तीन भंग कहे गये हैं, उसी प्रकार यहां For Personal & Private Use Only Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९९० भगवती सूत्र -श. ६ उ. ४ जीव- प्रदेश निरूपण savarat में मी तीन ही भंग क्यों नहीं कहे गये ? एक ही भंग क्यों कहा गया ? समाधान - सकषायी जीव पद में तो उपशम श्रेणी से गिरते हुए एकादि जीव पाये इस प्रकार सम्भावित नहीं है । यहाँ को प्राप्त होते हुए जीव बहुत ही प्रकार यहां एकादि का सम्भव न जाते हैं, किन्तु यहां क्रोध - कषायी के अधिकार में तो मान, माया और लोभ से निवृत्त होकर क्रोध कषाय पाये जाते हैं, और उन सब को राशि अनन्त है। इस होने से सकषायी जीव की तरह तीन भंग नहीं हो सकते । देव पद में देवों सम्बन्धी तेरह ही दण्डकों में छह भंग कहने चाहिये, क्योंकि उनमें starrer के उदयवाले जीव अल्प होने से एकत्व और बहुत्व का सम्भव है । अतएव सप्रदेश और अप्रदेशत्व का भी सम्भव है। मान कषाय और माया कषाय वाले जीवों के भी एकवचन और बहुवचन ये दो दण्डक, क्रोध कषाय की तरह कहने चाहिये। उनमें से दूसरे cuss में नैरयिकों में और देवों में छह भंग कहने चाहिये क्योंकि इन दोनों में मान और माया के उदय वाले जीव शाश्वत नहीं पाये जाते हैं। लोभ कषाय का कथन, क्रोधकषाय की तरह करना चाहिये । लोभकषाय के उदयवाले नैरयिक शाश्वत नहीं होने से उनमें छह भंग पाये जाते हैं । कहा गया है कि कोहे माणे माया बोधव्वा सुरगणेहि छन्भंगा । माणे माया लोभे नेरहएहि पिछभंगा || • अर्थ - क्रोध, मान और माया में देवों के छह भंग कहने चाहिये और मान, माया तथा लोभ में नैरयिकों के छह भंग कहने चाहिये। क्योंकि देवों में लोभ बहुत होता है और नैरयिकों में क्रोध बहुत होता है। अकषायी द्वार के भी एकवचन और बहुवचन ये दो दण्डक कहनें चाहिये। उनमें से दूसरे दण्डक में जीव, मनुष्य और सिद्ध पद में तीन भंग कहने चाहिये । इनके सिवाय अन्य दण्डकों का कथन नहीं करना चाहिये, क्योंकि दूसरे जीव, अकषायी नहीं हो सकते । ९ ज्ञान द्वार-मत्यादि भेद से अविशेषित ज्ञान को औधिक ज्ञान कहते हैं । उस औधिक ज्ञान में, मतिज्ञान में और श्रुतज्ञान में एकवचन और बहुवचन की अपेक्षा दो दण्डक कहने चाहिये | उनमें से दूसरे दण्डक में जीवादि पदों में तीन भंग कहने चाहिये । इनमें औधिकज्ञानी, मतिज्ञानी और श्रुतज्ञानी सदा अवस्थित होने से वे सप्रदेश हैं, इसलिये 'सभी प्रदेश' यह एक भंग हुआ । मिथ्याज्ञान से निवृत्त होकर मात्र मत्यादि ज्ञान को प्राप्त होने बाले तथा मंतिअज्ञान से निवृत्त होकर मतिज्ञान को प्राप्त होने वाले तथा श्रुतअज्ञान से For Personal & Private Use Only Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र ----श. ६ उ. ४ जीव-प्रदेश निरूपण ९९१ निवृत्त होकर श्रुतज्ञान को प्राप्त होने वाले एकादि जीव पाये जाते हैं । इसलिये 'बहुत सप्रदेश और एकादि अप्रदेश' तथा 'बहुत सप्रदेश और बहुत अप्रदेश' ये दो भंग होते हैं । इस प्रकार ये तीन भंग पाये जाते हैं। विकलेन्द्रियों में छह भंग कहने चाहिये । क्योंकि उन में सास्वादन समकित होने से मत्यादि ज्ञानवाले एकादि जीव पाये जाते हैं । इसलिये छह भंग घटित हो जाते हैं । यहाँ पृथ्वीकायिकादि जीव तथा सिद्ध नहीं कहने चाहिए, क्योंकि उन में मत्यादिज्ञान नहीं पाया जाता हैं। इसी प्रकार अवधि आदि में भी तीन भंग घटित कर लेने चाहिए। इसमें इतनी विशेषता है कि 'अवधिज्ञान के एक वचन और बहुवचन, इन दोनों दण्डकों में एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और सिद्धों का कथन नहीं करना चाहिये । मनःपर्यय ज्ञान के दोनों दण्डकों में तो जीव और मनुष्य का ही कथन करना चाहिये, क्योंकि इन के सिवाय दूसरों को मनःपर्ययज्ञान नहीं होता। केवलज्ञान के एकवचन और बहुवचन इन दोनों दण्डकों में जीव, मनुष्य और सिद्ध का ही कथन करना चाहिये । मति आदि अज्ञान से अविशेषित सामान्य अज्ञान (औधिक अज्ञान) मति अज्ञान और श्रुत अज्ञान इन में जीवादि पदों में तीन भंग कहने चाहिये, क्योंकि ये सदा अवस्थित होने से 'सभी सप्रदेश' यह प्रथम भंग घटित होता है । अवस्थित के सिवाय जब दूसरे जीव, . ज्ञान को छोड़ कर मति अज्ञानादि को प्राप्त होते हैं, तब उनमें एकादि का सम्भव होने से . दूसरे दो भंग भी घटित हो जाते हैं। इस प्रकार इनमें तीन भंग होते हैं । एकेन्द्रियों में 'बहुत सप्रदेश और बहुत अप्रदेश' यह एक ही भंग पाया जाता है । इन तीनों अज्ञानों में सिद्ध का कथन नहीं करना चाहिये। विभंगज्ञान में जीवादि पदों में तीन भंग कहने चाहिये। जिनकी घटना मति अज्ञानादि की तरह करनी चाहिये । यहाँ एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और सिद्धों का कथन नहीं करना चाहिये । १० योग द्वार-सयोगी जीवों के दोनों दण्डक औधिक जीवादिक की तरह कहने चाहिये । यथा-सयोगी जीव, नियमा सप्रदेशी होते हैं । नरयिकादि तो सप्रदेश भी होते हैं और अप्रदेश भी होते हैं । बहुत जीव, सप्रदेश ही होते हैं । नैरयिकादि जीवों में तीन भंग होते हैं । एकेन्द्रियादि जीवों में तो केवल तीसरा भंग पाया जाता है । यहाँ सिद्ध का कथन नहीं करना चाहिये । मनयोमी अर्थात् तीनों योगों वाले संज्ञी जीव, वचनयोगी अर्थात् एकेन्द्रियों को छोड़कर शेष सभी जीव, काययोगी अर्थात् एकेंद्रियादि सभी जीव । इनमें जीवादि में तीन भंग होते हैं । मन योगी आदि जीव, जब अवस्थित होते हैं, तब उनमें 'सभी सप्रदेश' यह प्रथम भंग पाया जाता है और जब अमनयोगोपन आदि को छोड़कर मन-योगीफ्न आदि For Personal & Private Use Only Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९९२ भगवती सूत्र - श. ६ उ. ४ जीव- प्रदेश निरूपण . में उत्पत्ति होती है, तब प्रथम समयवर्ती अप्रदेशत्व की अपेक्षा दूसरे दो भंग पाये जाते हैं, किन्तु इतनी विशेषता है कि काययोगी में एकेंद्रियों में अभंगक है । अर्थात् उनमें अनेक मंग नहीं पाये जाते, किन्तु 'बहुत सप्रदेश और बहुत अप्रदेश,' यह एक ही भंग पाया जाता है । तीनों योगों के दण्डकों में यथा सम्भव जीवादि पद कहने चाहिये, किन्तु सिद्ध पद नहीं .. कहना चाहिये । अयोगी द्वार का कथन अलेश्य द्वार के समान कहना चाहिये । इससे दूसरे दuse में, अयोगी जीवों में, जीव और सिद्ध पद में, तीन भंग कहने चाहिये और अयोगी मनुष्य में छह भंग कहने चाहिये । ११ उपयोग द्वार - साकार उपयोग वाले और अनाकार उपयोग वाले नैरयिक आदि में तीन भंग कहने चाहिये । जीव पद और पृथ्वी कायिकादि पदों में 'बहुत सप्रदेश और बहुत अप्रदेश,' यह एक ही भंग कहना चाहिये। इनमें (दोनों उपयोग में से ) किसी एक उपयोग में से दूसरे उपयोग में जाते हुए प्रथम समय और इतर समयों में सप्रदेशत्व और अप्रदेशत्व की घटना स्वयं कर लेनी चाहिये । सिद्धों में तो एक समयोपयोगीपत हैं, तो भी साकार उपयोग और अनाकार उपयोग की बारंबार प्राप्ति होने से सप्रदेशपन होता है और नये एकादि उत्पन्न होने वाले की अपेक्षा से अप्रदेशपन होता है, ऐसा जानना चाहिये । इस प्रकार साकार उपयोग को बारंबार प्राप्त ऐसे बहुत सिद्धों की अपेक्षा 'सभी सप्रदेश' यह एक भंग जानना चाहिये । और उन्हीं सिद्धों की अपेक्षा तथा एक बार साकार उपयोग को प्राप्त एक सिद्ध की अपेक्षा 'बहुत सप्रदेश और एक अप्रदेश' - यह दूसरा भंग जानना चाहिये । बारंबार साकार उपयोग को प्राप्त बहुत सिद्धों की अपेक्षा तथा एक बार साकारउपयोग को प्राप्त बहुत सिद्धों की अपेक्षा 'बहुत सप्रदेश और बहुत अप्रदेश' यह तीसरा भंग जानना चाहिये । अनाकार उपयोग में तो बारंबार अनाकार उपयोग को प्राप्त ऐसे बहुत सिद्ध जीवों की अपेक्षा प्रथम भंग जानना चाहिये । उन्हीं सिद्ध जीवों की अपेक्षा तथा एक -बार अनाकार उपयोग को प्राप्त एक सिद्ध जीव की अपेक्षा, दूसरा भंग समझना चाहिये । - बारंबार अनाकार उपयोग को प्राप्त बहुत सिद्ध जीवों की अपेक्षा एवं एक बार अनाकार उपयोग को प्राप्त बहुत सिद्ध जीवों की अपेक्षा तीसरा बंग जानना चाहिये । · १२ वेद द्वार-संवेदक जीवों का कथन सकषायी जीवों के समान करना चाहिये । सवेदी जीवों में भी जीवादि पद में तीन भंग होते हैं, क्योंकि बेद को प्राप्त बहुत जीव और उपशम श्रेणी से गिरने के बाद वेद को प्राप्त होने वाले एकादि जीवों की अपेक्षा तीन मंग घटित होते हैं । एकेंद्रियों में एक ही भंग पाया जाता है। स्त्रीवेदक आदि में तीन भंग पाये For Personal & Private Use Only Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतो मूत्र-ग... उ. ४ जीव-प्रदेश निरूपण जाने हैं। जब एक वेद मे दुसरे बेद में संक्रमण होता है. तब प्रथम समय में अप्रदेशत्व और दूसरे ममयों में सप्रदेशत्व होता है । इस प्रकार तीन भंग घटित कर लेने चाहिये । नपुंसक वेद के एकवचन और बहुवचन से दोनों दण्डकों में, ए केन्द्रियों में 'बहुत सप्रदेश और बहुत अप्रदेश'-यह एक भंग पाया जाता है। स्त्री वेद और पुरुष वेद के दण्डकों में देव, पंचेन्द्रिय तिर्यंच और मनुष्य ही कहने चाहिये । नमक वेद के दण्डक में देवों को छोड़कर शष जीवादि पद कहने चाहिये, मिद्ध पद तो तीनों वेदों में नहीं कहना चाहिये । अवेदक का कथन, अकषायी की तरह कहना चाहिये । इसमें जीव, मनुष्य और मिद्ध, ये तीन पद ही कहने चाहिये । इनमें तीन भंग पाये जाते हैं। १३ शरीर द्वार-सशरीरी के दोनों दण्डकों में औधिक दण्डक की तरह जीव पद में सप्रदेशत्व ही कहना चाहिये, क्योंकि सशरीरीपन अनादि हैं। नैरयिकादि में शरीरत्व का बहुत्व होने के कारण तीन भंग कहने चाहिय । एकेंद्रियों में तो केवल तीसरा भंग ही कहना चाहिये । औदारिक शरीर वाले और वैक्रिय शरीर वाले जीवों में जीवपद और एकेंद्रिय पदों में बहत्व के कारण एक तीसरा भंग ही पाया जाता है, क्योंकि जीवपद और एकेंद्रिय पदों में प्रतिक्षण प्रतिपन्न और प्रतिपद्यमान बहुत पाये जाते हैं । शेष जीवों में तीन भंग कहने चाहिये, क्योंकि बाकी जीवों में प्रतिपन्न बहुत पाये जाते हैं। तथा औदारिक और वैक्रिय शरीर को छोड़कर दूसरे औदारिक और वैक्रिय शरीर को प्राप्त होने वाले एकादि जीव पाये जाते हैं । यहाँ औदारिक शरीर के दोनों दण्डकों में नरयिक और देवों का कथन नहीं करना चाहिये, क्योंकि इनके औदारिक गरीर नहीं होता । वैक्रिय शरीर के दोनों दण्डकों में पृथ्वीकाय, अप्काय, तेउकाय, वनस्पतिकाय और विकलेन्द्रिय जीवों का कथन नहीं करना चाहिये, क्योंकि इनके वैक्रिय शरीर नहीं होता । वैक्रिय दण्डक में एकेन्द्रिय पद में जो 'बहुत सप्रदेश और बहुत अप्रदेश'-यह तीसरा भंग कहा है, यह असंख्यात वायुकायिक जीवों में प्रतिक्षण होने वाली वैक्रिय क्रिया की अपेक्षा से कहा गया है। यद्यपि वैक्रिय लब्धि वाले पंचेन्द्रिय तिर्यंच और मनुष्य थोड़े होते हैं, तथापि उनमें जो तीन भंग कहे गये हैं, उसकी अपेक्षा तो वैक्रिय-लब्धि वाले पंचेन्द्रिय तियंच और मनुष्य बहुत संख्या में होने चाहिये-ऐसा सम्भवित है। उन पंचेन्द्रिय तिर्यंच और मनुष्यों में एकादि जीवों को वैक्रिय शरीर की प्रतिपद्यमानता जाननी चाहिये। इसीसे तीन भंगों की घटना होगी। आहारक शरीर की अपेक्षा जीव और मनुष्यों में पूर्वोक्त छह भंग जानने चाहिये । क्योंकि आहारक शरीर वाले अशाश्वत हैं । जीव और मनुष्य पदों के सिवाय दूसरे जीवों में आहारक शरीर नहीं For Personal & Private Use Only Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ६ उ. ४ जीव-प्रदेश निरूपण होता । तेजस शरीर और कार्मण शरीर का कथन औधिक जीवों की तरह करना चाहिये, उनमें औधिक जीव सप्रदेश ही होते हैं, क्योंकि तैजस और कार्मण शरीर का संयोग अनादि है। नैरयिकादि में तीन भंग कहने चाहिये । एकेंद्रियों में केवल तीसरा ही भंग कहना चाहिये । इन सशरीरादि दण्डकों में सिद्ध पद नहीं कहना चाहिये । सप्रदेशत्वादि से कहने योग्य अशरीर, जीवादि में जीवपद और सिद्ध पद ही कहना चाहिये, क्योंकि इनके सिवाय दूसरे जीवों में अशरीरपना नहीं पाया जाता । इनमें (अशरीर पद में) तीन भंग कहने चाहिये। १४ पर्याप्ति द्वार-जीव पद में और एकेंद्रिय पदों में आहारपर्याप्ति आदि को प्राप्त बहुत जीव हैं और आहारादि की अपर्याप्ति को छोड़कर आहारादि पर्याप्ति द्वारा पर्याप्त भाव को प्राप्त होने वाले जीव भी बहुत ही पाये जाते हैं । इसलिये 'बहुत सप्रदेश और बहुत अप्रदेश'-यह एक ही भंग पाया जाता है । शेष जीवों में तीन मंग पाये जाते हैं । 'भाषा की और मन की पर्याप्ति' की यहाँ 'भाषा मन पर्याप्ति' कहा गया है। यद्यपि भाषापर्याप्ति और मनपर्याप्ति ये दो पर्याप्तियाँ भिन्न भिन्न है, तथापि बहुश्रुत महापुरुषों द्वारा सम्मत किसी कारण विशेष की अपेक्षा यहाँ दोनों पर्याप्तियों को एक ही विवक्षित की है । अर्थात् उन दोनों पर्याप्तियों को यहाँ एक रूप गिना गया है । भाषा मन पर्याप्ति द्वारा पर्याप्त जीवों का कथन संज्ञी जीवों की तरह करना चाहिये । इन सब पदों में तीन भंग कहने चाहिये। यहाँ केवल पञ्चेन्द्रिय पद ही लेना चाहिये । आहार अपर्याप्त दण्डक में जीव पद और पृथ्वीकायिक आदि पदों में 'बहुत सप्रदेश और बहुत अप्रदेश'-यह एक ही भंग कहना चाहिये, क्योंकि आहारपर्याप्ति से रहित विग्रहगति समापन्न बहुत जीव निरन्तर पाये जाते हैं । शेष जीवों में पूर्वोक्त छह भंग कहने चाहिये क्योंकि शेष जीवों में आहारपर्याप्ति रहित जीव । अशाश्वत पाये जाते हैं । शरीर अपर्याप्ति द्वार में जीवों और एकेंद्रियों में एक ही भंग कहना चाहिये । शेष जीवों में तीन भंग कहने चाहिये क्योंकि शरीरादि से अपर्याप्त जीव, कालादेश की अपेक्षा सदा सप्रदेश हो पाये जाते हैं और अप्रदेश तो कदाचित् एकादि पाये जाते हैं । नैरयिक, देव और मनुष्यों में छह भंग कहने चाहिये । भाषा और मन की पर्याप्ति से अपर्याप्त वे जीव कहलाते हैं, जिन को जन्म से भाषा और मन की योग्यता तो हो, किन्तु उसकी सिद्धि न हो । ऐसे जीव पञ्चेन्द्रिय ही होते हैं । यदि जिनको भाषा पर्वाप्ति और मनपर्याप्ति का मात्र अभाव हो, वे भाषा और मन को अपर्याप्ति से अपर्याप्त कहलाते हों, तो इनमें एकेंद्रिय भी होने चाहिये । यदि ऐसा हो, तो जीवादि पद में केवल एक तीसरा For Personal & Private Use Only Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - ६ उ. ४ जीव और प्रत्याख्यान ही भंग पाया जाना चाहिये, परन्तु यह बात नहीं है, क्योंकि मूलपाठ में यहाँ जीवादि में तीन भंग कहे गये हैं । तात्पर्य यह है कि जिन जीवों को जन्म से भाषा और मन की योग्यता तो हो, परन्तु उसकी मिद्धि न हुई हो, वे हा जीव यहाँ भाषा मन अपर्याप्ति से अपर्याप्त क गये हैं । इन जीवों में और पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चों में भाषा मन अपर्याप्त को प्राप्त बहुत जीव पाये जाते हैं और इसकी अपर्याप्ति को प्राप्त होते हुए एकादि जीव ही पाये जाते हैं । इसलिये उनमें पूर्वोक्त तीन भंग ही पाये जाते हैं। नरयिकादि में भाषा मन अपर्याप्तकों की अल्पतरता होने से वे एकादि सप्रदेश और अप्रदेश पाये जाते हैं । उनमें पूर्वोक्त छह भंग पाये जाते हैं । इन पर्याप्ति और अपर्याप्ति के दण्डकों में सिद्ध पद नहीं कहना चाहिये । क्योंकि उनमें पर्याप्त अपर्याप्त नहीं होती । ऊपर चौदह द्वारों को लेकर सप्रदेश और अप्रदेश का विचार किया गया है । इन चौदह द्वारों को संगृहीत करने वाली संग्रह गाथा और उसका अर्थ ऊपर भावार्थ में दिया गया है । ९९५ जीव और प्रत्याख्यान ६ प्रश्न – जीवा णं भंते ! किं पच्चक्खाणी, अपचक्खाणी पचक्खाणापचक्खाणी ? ६ उत्तर - गोयमा ! जीवा पञ्चक्खाणी वि, अपञ्चकखाणी वि. पचक्खाणापच्चक्खाणी व । ७ प्रश्न - सव्वजीवाणं एवं पुच्छा ? ७ उत्तर - गोयमा ! णेरइया अपच्चक्खाणी जाव - चउरिंदिया, सेसा दो पडिसेहेयव्वा, पंचिंद्वियतिरिक्खजोणिया णो पच्चक्खाणी, अपच्चक्खाणी वि, पञ्चक्खाणापच्चक्खाणी वि, मणुस्सा तिष्णि For Personal & Private Use Only Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९९६ भगवती सूत्र-श. ६ उ. ४ जीव और प्रत्याख्यान वि, सेसा जहा-णेरइया । ८ प्रश्न-जीवा णं भंते ! किं पञ्चक्खाणं जाणंति, अपच्चरखाणं जाणंति, पच्चक्खाणापञ्चक्खाणं जाणंति ? ८ उत्तर-गोयमा ! जे पंचिंदिया ते तिण्णि वि जाणंति, अवसेसा पञ्चक्खाणं ण जाणंति ३। ९ प्रश्न-जीवा णं भंते ! किं पञ्चक्खाणं कुव्वंति, अपञ्चक्खाणं कुव्वंति, पन्चक्खाणापञ्चक्खाणं कुव्वंति ? ९ उत्तर-जहा-ओहिओ तहा कुव्वणा । कठिन शब्दार्थ-पच्चक्खाणी-प्रत्याख्यान-पाप का त्याग किये हुए, पच्चक्खाणापच्चक्खाणं-प्रत्याख्यान और अप्रत्याख्यान, ओहिओ-औधिक-सामान्य, कुवणा- करना। भावार्थ-६ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या जीव, प्रत्याख्यानी हैं, अप्रत्याख्यानी हैं, या प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यानी हैं ? ६ उत्तर-हे गौतम ! जीव प्रत्याख्यानी भी है, अप्रत्याख्यानी भी हैं और प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यानी भी हैं। ७ प्रश्न-इसी तरह सभी जीवों के विषय में प्रश्न करना चाहिये ? ७. उत्तर-हे गौतम ! नेरयिक जीव, अप्रत्याख्यानी हैं, इसी प्रकार यावत चतुरिन्द्रिय जीवों तक अप्रत्याख्यानी हैं। इन जीवों के लिये शेष दो भंगों. (प्रत्याख्यानी और प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यानी) का निषेध करना चाहिये । पञ्चेंद्रिय तिर्यञ्च प्रत्याख्यानी नहीं है, किन्तु अप्रत्याख्यानी हैं और प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यानी हैं। मनुष्यों में तीनों भंग पाये जाते हैं। शेष जीवों का कथन नैरयिक जीवों की तरह कहना चाहिये। ८ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या जीव, प्रत्याख्यान को जानते हैं, अप्रत्याख्यान को जानते हैं और प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यान को जानते हैं ? For Personal & Private Use Only Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ६ उ. ४ प्रत्याख्यान निबद्ध आयु ८ उत्तर - हे गौतम! जो जीव, पञ्चेन्द्रिय हैं, वे तीनों को जानते हैं । शेष जीव प्रत्याख्यान को नहीं जानते हैं । (अप्रत्याख्यान को नहीं जानते हैं और प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यान को भी नहीं जानते हैं । ९ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या जीव प्रत्याख्यान करते हैं ? अप्रत्याख्यान करते हैं ? प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यान करते हैं ? ९ उत्तर - हे गौतम! जिस प्रकार औधिक दण्डक कहा है, उसी प्रकार प्रत्याख्यान करने के विषय में कहना चाहिये । ९९७ विवेचन - पहले प्रकरण में जीवों का कथन किया गया है। अब इस प्रकरण में भी जीवों का ही कथन किया जाता है । प्रत्याख्यानी का अर्थ है-प्रत्याख्यान वाले अर्थात् सर्व-विरत । अप्रत्याख्यानी अर्थात् भविरत । प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यानी अर्थात् देश - विरत ( किसी अंश में पाप से निवृत्त और किसी अंश में अनिवृत्त) । नेरयिकादि जीव अविरत होते हैं, इसलिए वे अप्रत्याख्यानी हैं । प्रत्याख्यानी या प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यानी नहीं होते । प्रत्याख्यान तभी हो सकता है जब कि उसका ज्ञान हो। इसलिए प्रत्याख्यान के बाद प्रत्याख्यान ज्ञान का सूत्र कहा गया है। नैरयिकादि तथा दण्डकोक्त पञ्चेन्द्रिय जीव समनस्क ( संज्ञी) होने से सम्यग्दृष्टि हों, तो ज्ञपरिज्ञा से प्रत्याख्यानादि तीनों को जानते हैं। शेष जीव अर्थात् एकेंद्रिय और विकलेन्द्रिय जीव अमनस्क (असंज्ञी ) होने से प्रत्याख्या - नादि तीनों को नहीं जानते । प्रत्याख्यान तभी होता है जब कि वह किया जाता है-स्वीकार किया जाता है । इसलिए आगे प्रत्याख्यान करण सूत्र कहा गया है । प्रत्याख्यान निबद्ध आयु १० प्रश्न - जीवा णं भंते ! किं पञ्चक्खाणणिव्वत्तियाज्या, अपचक्खाणणिव्वत्तियाउया. पञ्चक्खाणापच्चक्खाणणिव्वत्तियाउया ? - For Personal & Private Use Only Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतो सूत्र-श. ६ उ. ४ प्रत्याख्यान निबद्ध आय १० उत्तर-गोयमा ! जीवा य, वेमाणिया य पच्चखाणणिव्वत्तियाउया तिण्णि वि; अवसेसा अपञ्चक्खाणणिव्वत्तियाउया । पञ्चक्खाणं जाणइ, कुम्वइ, तिण्णेव आउणिव्वत्ती। . सपएसुद्देसम्मि य एमेए दंडगा चउरो ॥ * सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति। * ॥ छट्ठसए चउत्थो उद्देसो सम्मत्तो॥ कठिन शब्दार्थ-पच्चक्खाणणिव्वत्तियाउया-प्रत्याख्यान से आयुष्य बाँधे हुए। भावार्थ-१० प्रश्न-हे भगवन ! क्या जीव, प्रत्याख्यान से नितित आयुष्य वाले हैं ? अर्थात् क्या जीवों का आयुष्य प्रत्याख्यान से बंधता है, अप्रत्याख्यान से बंधता है और प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यान से बंधता है ? १० उत्तर-हे गौतम ! जीव और वैमानिक देव, प्रत्याख्यान से निर्वतित आयुष्य वाले हैं, अप्रत्याख्यान निर्वतित आयुष्य वाले भी हैं और प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यान से निर्वतित आयुष्य वाले भी हैं। शेष सभी जीव, अप्रत्याख्यान से निर्वतित आयुष्य वाले हैं। संग्रह गाथा का अर्थ इस प्रकार है-प्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान को जानना, तीनों के द्वारा आयुष्य की निर्वृत्ति, सप्रदेश उद्देशक में ये चार दण्डक कहे गये हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। विवेचन-प्रत्याख्यान, आयुष्य बन्ध में कारण भी होता है, इसलिये प्रत्याख्यान करण सूत्र के बाद आयुष्य बन्ध सूत्र कहा गया है । जीव पद में जीव प्रत्याख्यानादि तीनों द्वारा निबद्ध आयुष्य वाले होते हैं और वैमानिक पद में वैमानिक भी इसी प्रकार कहने चाहिये । क्योंकि प्रत्याख्यानादि तीनों काले जीवों की उत्पत्ति वैमानिकों में होती है । नैर For Personal & Private Use Only Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श ६ उ ५ तमस्काय fare अप्रत्याख्यान से निबद्ध आयुष्य वाले हैं, क्योंकि नैरविकादि में वास्तव में अविरत जीव ही पैदा होते हैं । इसके वाद संग्रह गाथा कही गई है। उसमें प्रत्याख्यान सम्बन्धी एक दण्डक और शेष तीन दण्डक, इस प्रकार कुल चार दण्डक ( जो कि इस सप्रदेश नामक चौथे उद्देशक में कहे गये हैं) का कथन किया गया है। ॥ इति छठे शतक का चौथा उद्देशक समाप्त ॥ शतक ६ उद्देशक ५ तमस्काय १ प्रश्न - किमियं भंते! 'तमुक्काए' ति पव्वुचर, किं पुढवी तमुक्काए त्तिपव्वुच्चर, आऊ तमुक्काए ति पव्वुच्चा ? १. उत्तर - गोयमा ! णो पुढवि तमुक्काए त्ति पव्वुच्चड़, आऊ तमुका ति पogs | २ प्रश्न - सेकेणट्टेणं ? २ उत्तर - गोयमा ! पुढविकाए णं अत्थेगइए सुभे देसं पगासेह, अत्थेगइए दे णो पगासेइ - से तेणट्टेणं । ३ प्रश्न - तमुक्काए णं भंते! कहिं समुट्ठिए, कहिं सष्णिट्टिए ? ९५९ For Personal & Private Use Only Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १००० भगवती मूत्र-श. ६ उ. ५ तमस्काय - ३ उत्तर-गोयमा ! जंबूदीवस्स दीवस्स बहिया तिरियमसंखेजे दीव-समुद्दे वीईवइत्ता अरुणवरस्स दीवस्स बाहिरिल्लाओ वेइयंताओ अरुणोदयं समुदं बायालीसं जोयणसहस्साणि ओगाहित्ता उवरिल्लाओ जलंताओ एगपएसियाए सेढीए-एत्थ णं तमुक्काए समुट्ठिए । सत्तरम-एकवीसे जोयणसए उड्ढं उप्पइत्ता तओ पच्छा तिरियं पवित्थरमाणे, पवित्थरमाणे सोहम्मी-साण-सणंकुमार-माहिदे चत्तारि वि कप्पे आवरित्ता णं उड्ढं पि य णं जाव बंभलोगे कप्पे रिट्ठविमाणपत्थडं संपत्ते-एत्थ णं तमुक्काए णं सण्णिट्टिए । कठिन शब्दार्थ-- किमियं--क्या है ?, तमुक्काए--तमस्काय-अन्धकार का समूह, पच्चइ--कहा जाता है, अत्थेगइए--कितने ही-कुछ, पगासेइ-प्रकाशित होते हैं, समट्रिए--समुत्थित-उत्पन्न हुई, सणिट्ठिए-सनिष्ठित-समाप्त हुई, बीईवइत्ता-उल्लंघन करके, वेइयंताओ--वेदिका के अंत में, उड्ढं उप्पइत्ता-ऊचा उठता है, पवित्थरमाणे-- विस्तृत होता हुआ, आवरित्ता--आच्छादित करके। भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! तमस्काय, क्या कहलाती है । क्या पृथ्वी तमस्काय कहलाती है, या पानी तमस्काय कहलाता है ? १ उत्तर-हे गौतम ! पृथ्वी तमस्काय नहीं कहलाती है, किन्तु पानी तमस्काय कहलाता है। २ प्रश्न-हे भगवन् ! इसका क्या कारण है ? २ उत्तर-हे गौतम ! कुछ पृथ्वीकाय ऐसी शुभ है जो देश को (कुछ भाग को) प्रकाशित करती है और कुछ पृथ्वीकाय ऐसी है जो देश (भाग) को प्रकाशित नहीं करती। इस कारण से ऐसा कहा जाता है कि पृथ्वी तमस्काय नहीं कहलाती, किन्तु पानी तमस्काय कहलाता है। ३ प्रश्न-हे भगवन् ! तमस्काय कहाँ से प्रारम्भ होती है और कहाँ For Personal & Private Use Only Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ਮੁਕੇ ----.६ उ. ५ नमस्काय समाप्त होती है ? ३ उत्तर-हे गौतम ! जम्ब द्वीप के बाहर तिरछे असंख्यात द्वीप समुद्रों को उल्लंघन करने के बाद, अरुणवर नाम का द्वीप आता है । उस द्वीप की बाहर की वेदिका के अन्त में अरुणोदक समुद्र में ४२ हजार योजन जाने पर वहाँ के उपरितन जलान्त से एक प्रदेश की श्रेणी रूप तमस्काय उठती है। वहाँ से १७२१ योजन ऊँची जाने के बाद फिर तिरछी विस्तृत होती हुई सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार ओर माहेन्द्र-इन चार देवलोकों को आच्छादित करके ऊंची पांचवें ब्रह्मदेवलोक के रिष्ट विमान नामक पाथडे तक पहुंची है और वहीं तमस्काय का अन्त होता है। विवेचन-चौथे उद्देशक में मप्रदेश जीव का कथन किया गया है । इस सम्बन्ध के अनुसार इस पांचवें उद्देशक में मप्रदेशात्मक तमस्काय का वर्णन किया जाता है । तमस्काय का अर्थ है-अन्धकार वाले पुद्गलों का समूह । यहाँ तमस्काय का कोई नियत स्कन्ध विवक्षित है । वह स्कन्ध पृथ्वीरज स्कन्ध या उदकरज स्कन्ध हो सकता है । इसलिये तमस्काय पृथ्वी रूप है, या पानी रूप है-यह प्रश्न किया गया है। जिसके उत्तर में कहा गया है कि तमस्काय पृथ्वी रूप नहीं है, किन्तु पानी रूप हैं । इसका कारण यह है कि कोई एक पृथ्वी पिण्ड शुभ अर्थात् भास्वर (दीप्निवाला) होता है । वह भास्वर रूप होने से मणि आदि की तरह अमुक क्षेत्र विभाग को प्रकाशित करता है और कोई पृथ्वी-पिण्ड, अभास्वर होने से अन्ध पत्यर की तरह दूसरे पृथ्वीपिण्ड को भी प्रकाशित नहीं कर सकता । सब प्रकार का पानी अप्रकाशक ही होता है और तमस्काय भी अप्रकाशक है । इसलिये अप्काय और तमस्काय का एक सरीखा स्वभाव होने से तमस्काय का परिणामी कारण अप्काय ही हो सकता है। अर्थात् नमस्काय, अप्काय का परिणाम ही है । यह तमस्काय एक प्रदेश श्रेणी रूप है। यहां 'एक प्रदेशी श्रेणी' का अर्थ-एक प्रदेशवाली श्रेगी ऐसा नहीं करना चाहिये, किन्तु 'समभित्ति रूप श्रेणी है' अर्थात् नीचे से लेकर ऊपर तक एक समान भींत (दिवाल) रूप श्रेणी है। अतः यहाँ ‘एक प्रदेश वाली श्रेणी'-ऐसा अर्थ करना ठीक नहीं है, क्योंकि तमस्काय स्तिबुकाकार जल जीव रूप है। उन जीवों के रहने के लिये असंख्यात आकाश प्रदेशों की आवश्यकता है । एक प्रदेश वाली श्रेणी का विस्तार बहुत थोड़ा होता है। उसमें वे जलजीव कैसे रह सकते हैं । इसलिये यहां एक प्रदेश वाली श्रेगी'-ऐसा अर्थ घटित नहीं होता। किन्तु 'समभित्ति' 'रूप श्रेणी' यह अर्थ ही घटित होता है। For Personal & Private Use Only Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ६ उ ५ तमस्काय ४ प्रश्न - तमुक्काए णं भंते! किंसटिए पण्णत्ते ? ४ उत्तर - गोयमा ! अहे मल्लगमूलसंटिए, उपिं कुक्कुटपंजरगसंठिए पण्णत्ते १००२ ५ प्रश्न - तमुक्काए णं भंते! केवइयं विक्खंभेणं, केवइयं परिवखेवेणं पण्णत्ते ? ५ उत्तर - गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते, तं जहा - संखेज्जवित्थडे य, असंखेज्जवित्थडे यः तत्थ णं जे से संखेज्जवित्थडे से णं संखेजाइं जोयणसहस्साई विक्खंभेणं असंखेज्जाई जोयणसहस्साई परिवखेवेणं पण्णत्ते, तत्थ णं जे से असंखेज्जवित्थडे से णं असंखेजाई जोयणसहस्सा विक्खंभेणं, असंखेजाई जोयणसहस्साई परिवखेवेणं पण्णत्ते । " ६ प्रश्न - तमुक्काए णं भंते ! केमहालए पण्णत्ते ? ६ उत्तर - गोयमा ! अयं णं जंबुद्दीवे दीवे सव्वदीव-समुद्दाणं सव्वभंतराए, जाव - परिक्खेवेणं पण्णत्ते । देवे णं महिड्ढीए, जावमहाणुभावे इणामेव, इणामेव त्ति कटु केवलकप्पं जंबूदीवं दीवं तिहिं अच्छ्राणिवाएहिं तिसत्तक्खुत्तो अणुपरियट्टित्ता णं हव्वमागच्छिना, से णं देवे ताए उक्किट्टाए, तुरियाए, जाव - देवगईए वीवयमाणे वीईवयमाणे जाव - एकाहं वा, दुयाहं वा, तियाहं वा; उक्कोलेणं छम्मासे वीईवएज्जा, अत्थेगइयं तमुकायं वीईवएज्जा, For Personal & Private Use Only Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - ६ उ ५ नमस्काय अत्यं तमुका णो वीईवएजा, एमहालए णं गोयमा ! तमुक्काए पण्णत्ते । कठिन शब्दार्थ - मल्लग मूलसंठिए-- मल्लकमल संस्थित- शराव के मूल के आकार, कुक्कुडपं जरंग संठिए कुकुंट पिञ्जरक संस्थित कूकड़े के पिञ्जरे के आकार, वित्थडेविस्तृत परिक्खेवे - परिक्षेप, विक्खंभेणं-- विस्तार, इणामेव--अभी, केवलकप्पं-सम्पूर्ण, तिहि अच्छराणिवाएहि - तीन चुटकी बजावे जितने तिसत्तक्खुत्तो-इक्कीस बार, अणुपरिट्टिता-फिर कर - परिक्रमा करके, उक्किट्ठाए- उत्कृष्ट, तुरियाए -- त्वरित, बीईवयमाणेपार करता हुआ, महालए - महान् — मोटा | भावार्थ- -- ४ प्रश्न - हे भगवन् ! तमस्काय का आकार कैसा है ? ४ उत्तर - हे गौतम! तमस्काय, नीचे तो मल्लकमूलसंस्थित है अर्थात् शराव के मूल के आकार है । और ऊपर कुर्कुट पञ्जरक संस्थित- अर्थात् कूकडे के पिञ्जरे के आकार वाली है । ५ प्रश्न - हे भगवन् ! तमस्काय का विष्कम्भ और परिक्षेप कितना कहा गया है ? १००३ ५ उत्तर - हे गौतम! तमस्काय दो प्रकार की कही गई है । एक तो संख्ये विस्तृत और दूसरी असंख्येय विस्तृत । इनमें जो संख्येय विस्तृत है, उस का विष्कम्भ संख्येय हजार योजन है और परिक्षेप असंख्येय हजार योजन है । जो तमस्काय असंख्येय विस्तृत है, उसका विष्कम्भ असंख्येय हजार योजन हं और परिक्षेप भी असंख्येय हजार योजन है । ६ प्रश्न - हे भगवन् ! तमस्काय कितनी बडी है ? ६ उत्तर - हे गौतम ! सभी द्वीप और समुद्रों के सर्वाभ्यन्तर अर्थात् बीचोबीच यह जम्बूद्वीप है । यह एक लाख योजन का लम्बा चौड़ा है। इसकी परिधि तीन लाख सोलह हजार दो सौ सत्ताईस योजन तीन कोस एक सौ अट्ठाईस धनुष और साढ़े तेरह अंगुल से कुछ अधिक है । कोई महाऋद्धि याक्त् महानुभाववाला देव - 'यह चला, यह चला' - ऐसा करके तीन चुटकी बजावे उसने • For Personal & Private Use Only Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : * ୧ ୦୪ समय में सम्पूर्ण जम्बूद्वीप की इक्कीस बार परिक्रमा करके शीघ्र आवे, इस प्रकार की उत्कृष्ट और त्वरा वाली देवगति से चलता हुआ देव, यावत् एक दिन, दो दिन, तीन दिन चले यावत् उत्कृष्ट छह महीने तक चले, तो कुछ तमस्काय का उल्लंघन करता है और कुछ तमस्काय को उल्लंघन नहीं कर सकता है । हे गौतम ! तमस्काय इतनी बडी है । विवेचन - नीचे तमस्काय का संस्थान शराव (मिट्टी के दीप के मूल ) के कारण है और ऊपर कूकड़े के पिञ्जरे के समान है । सम जलान्त के ऊपर १७२१ योजन तक तमस्काय, वलय संस्थानाकार है । तमस्काय के दो भेद हैं । संख्येय विस्तृत और असंख्येय विस्तृत | जलान्त से शुरू होकर संख्येय योजन तक जो तमस्काय है, वह संख्येय योजन विस्तृत है । और उस के बाद जो तमस्काय है वह असंख्येय योजन विस्तृत है । जो तमस्काय संयोजन विस्तृत है, उसने भी असंख्यात द्वीपों को घेर लिया है। इसलिए उसका परिक्षेप ( परिधि ) असंख्येय हजार योजन कहा गया है। बाह्य और आभ्यन्तर परिक्षेप का विभाग तो यहाँ नहीं कहा है, क्योंकि असंख्यातता की अपेक्षा दोनों परिक्षेपों की तुल्यता है । तमस्काय की महत्ता बतलाने के लिए देव का दृष्टान्त दिया गया है । गमन सामर्थ्य की प्रकर्षता बतलाने के लिए देव के लिए महद्धिक आदि विशेषण दिये गये हैं। ऐसा शक्तिशाली शीघ्रगति वाला देव, तीन चुटकी बजावे उतने समय में इस केवलकल्प अर्थात् सम्पूर्ण जम्बूद्वीप की इक्कीस बार परिक्रमा करके शीघ्र आवे, इस प्रकार की उत्कृष्ट और त्वरा वाली देवगति से चलता हुआ देव, एक दिन, दो दिन तीन दिन यावत् उत्कृष्ट छह महीने तक चले तो संख्येय योजन विस्तृत तमस्काय के पार पहुंचता है, किन्तु असंख्येय योजन विस्तृत तमस्काय के पार नही पहुंच सकता है । ७ प्रश्न - अस्थि णं भंते! तमुक्काए गेहा इ वा, गेहावणा ह वा ? भगवती सूत्र - श. ६ उ ५ तमस्काय ७ उत्तर - णो इणट्टे समट्टे । ८ प्रश्न - अस्थि णं ते! तमुक्काए गामा इवा, जाव -सण्णि वेसा इ वा ? For Personal & Private Use Only Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ६ उ. ५ तमस्काय १००५ . . . . . ८ उत्तर-णो इणटे समठे। ९ प्रश्न-अस्थि णं भंते ! तमुक्काए उराला बलाहया मंनेयंति, सम्मुच्छंति, वासं वासंति ? ९ उत्तर-हंता, अत्थि। १० प्रश्न-तं भंते ! किं देवो पकरेइ, असुरो पकरेइ, णागो पकरेइ ? १० उत्तर-गोयमा ! देवो वि पकरेइ, असुरो वि पकरेइ, णागो वि पकरेइ । __११ प्रश्न-अस्थि णं भंते ! तमुक्काए बायरे थणियसद्दे, बायरे विज्जुए? ११ उत्तर-हंता, अत्थि । १२ प्रश्न-तं भंते ! किं देवो पकरेइ० ? १२ उत्तर-तिण्णि वि पकरेंति । कठिन शब्दार्थ-गेहा-घर, गेहावणा-गृहापण-दुकान, उराला-उदार-प्रधान, बलाहया-बलाहक-मेघ, संसेयंति-संस्वेदित होते, सम्मूच्छंति-सम्मुच्छित होते, वासं वासंतिवर्षा बरसती है, यणियसद्दे-स्तंनित-गर्जन शब्द, विज्जुए-विद्युत्-बिजली। भावार्थ-७ प्रश्न-हे भगवन् ! तमस्काय में गृह (घर) हैं ? या गृहापण ७ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। ८ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या तमस्काय में गांव हैं ? यावत् सनिवेश है ? ८ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। For Personal & Private Use Only Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १.०६ भगवती सूत्र-श. ६ उ. ५ तमस्काय ९ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या तमस्काय में उदार (बडे) मेष संस्वेद को प्राप्त होते हैं, सम्मच्छित होते हैं और वर्षा बरसाते हैं ? ९ उत्तर-हाँ, गौतम ! ऐसा है। १० प्रश्न-हे भगवन् ! क्या उसको देव करता है, असुर करता है, या नाग करता है ? १० उत्तर-हे गौतम ! देव भी करता है, असुर भी करता हैं और नाग भी करता है। ११ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या तमस्काय में बादर स्तनित शम्ब (मेघगर्जना) है ? और क्या बादर विद्युत् (बिजली) है ? ११ उत्तर-हों, गौतम ! है। १२ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या उसको देव करता है, असुर करता है, या माग करता है? १२ उत्तर-हे गौतम ! उसे देव भी करता है, असुर भी करता है और नाग भी करता हैं। विवेचन-तमस्काय में घर, दुकान, ग्राम, नगर, सन्निवेश आदि नहीं हैं, किंतु उसमें महामेघ संस्वेद को प्राप्त होते हैं अर्थात् तंज्जनक पुद्गलों के स्नेह की सम्पत्ति से सम्मूच्छित होते हैं, क्योंकि मेघ के पुद्गल मिलने से ही उनकी तदाकार रूप से उत्पत्ति होती है और फिर वर्षा होती है । यह वर्षा देव, असुरकुमार और नागकुमार करते हैं। जो यह कहा गया है कि तमस्काय में बादर स्तनित (मेघ गजना) शब्द और 'बादर विद्युत्' होती है, सो 'बादर विद्युत्' शब्द से 'बादर तेजस्कायिक' महीं समझना चाहिए, क्योंकि इसी पाठ में आगे के सूत्र में उसका निषेध किया गया है । इसलिए यहां पर 'बादर विद्युत्' शब्द से देव के प्रभाव से उत्पन्न भास्वर (दीप्ति वाले) पुद्गलों का ग्रहण किया गया है, ऐसा समझना चाहिए। ___ १३ प्रश्न-अस्थि णं भंते ! तमुफ्काए बायरे पुढविकाए, बायरे अगणिकाए ? For Personal & Private Use Only Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ~श. ६. उ. ५ तमस्काय १००७ १३ उत्तर-णो इणटे समढे-णण्णत्थ विग्गहगइसमावण्णएणं । १४ प्रश्न-अस्थि णं भंते ! तमुक्काए चंदिम-सूरिय-गहगणमक्खत्त तारारूवा ? १४ उत्तर-णो इणटे समढे-पलियस्सओ पुण अस्थि । १५ प्रश्न-अस्थि णं भंते ! तमुक्काए चंदामा इ वा, सूरामा इ वा ? १५ उत्तर-णो इणटे समढे-कादूसणिया पुण सा । . १६ प्रश्न-तमुक्काए णं भंते ! केरिसए वण्णएणं पण्णत्ते ? - १६ उत्तर-गोयमा ! काले कालोभासे, गंभीर-लोमहरिसजणणे, भीमे, उत्तासणए, परमकिण्हे वण्णेणं पण्णत्ते । देवे वि णं अत्थेगइए जे णं तप्पढमयाए पासित्ता णं खुभाएजा । अहे गं अभिसमागच्छेज्जा, तओ पच्छा सीहं सीहं, तुरियं तुरियं खिप्पामेव वीईवएज्जा। कठिन शब्दार्थ-विग्गहगइसमावण्णएणं-विग्रहगति समापन्न- मरने के बाद दूसरी गति में जाते हुए, पलियस्स-पास में-पड़ोस में, चंदाभा-चन्द्र की प्रभा, कादूसणिया. . . अपनी आत्मा को दूषित करने वाली, केरिसए-किसके समान-कैसा, लोमहरिसे-रोंगटे खड़े करने वाला-लोमहर्षक, उत्तासणए-उत्कम्प करने वाला-त्रासदायक, खुमाएज्जाक्षुभित होते हैं, अभिसमागच्छेज्जा-प्रवेश करते हैं, सोह-शीघ्रता से। भावार्थ-१३ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या तमस्काय में बादर पृथ्वीकाय है और बादर भग्निकाय है ? १३ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। किन्तु कहाँ विग्रहमति । For Personal & Private Use Only Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ६ उ ५ तमस्काय समापन बादर पृथ्वी और बादर अग्नि हो सकती है । १४ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या तमस्काय में चन्द्र, सूर्य, ग्रहगण, नक्षत्र और तारा रूप हैं ? १४ उत्तर - हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, किन्तु चन्द्र सूर्यादि तमस्काय के पास हैं । १००८ १५ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या तमस्काय में चन्द्र की प्रभा या सूर्य की प्रभा है ? १५ उत्तर - हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, किन्तु तमस्काय में stafar (अपनी आत्मा को दूषित करने वाली ) प्रभा है । १६ प्रश्न - हे भगवन् ! तमस्काय का वर्ण कैसा कहा गया है ? १६ उत्तर - हे गौतम ! तमस्काय का वर्ण काला, काली कान्तिवाला, मीर, रोंगटे खडे करने वाला, भीम ( भयंकर) उत्त्रासनक ( त्रास पैदा करने बाला) और परम कृष्ण हैं । उस तमस्काय को देखने के साथ ही कोई देव भी क्षोभ को प्राप्त हो जाता है । कदाचित् कोई देव, उस तमस्काय में प्रवेश करता है, तो शीघ्र और त्वरित गति से उसे पार कर जाता है।. विवेचन - तमस्काय में बादर पृथ्वी और बादर अग्नि नहीं होती, क्योंकि बादर पृथ्वी तो रत्नप्रभा आदि आठ पृथ्वियों में, पर्वतों में और विमान आदि में ही होती है, तथा बादर अग्नि मनुष्य क्षेत्र में ही होती है। इसलिए तमस्काय वाले प्रदेश में बादर पृथ्वी और बादर अग्नि नहीं होती । किन्तु जो बादर पृथ्वीकायिक जीव और बादर. अग्निकायिक जीव, विग्रह गति में होते हैं, वे ही वहां तमस्काय वाले प्रदेश में पाये जा सकते हैं । . तमस्का में चन्द्र सूर्यादि नहीं हैं, किन्तु तमस्काय के पास तो हैं । अतएव वहाँ उनकी प्रभा भी है और वह प्रभा तमस्काय में पड़ती भी है, किन्तु वह तमस्काय के परिणाम से परिणत हो जाने के कारण कादूषणिका है अर्थात् नहीं सरीखी है । तमस्काय काली है । उसका अवभास भी काला है । अतएव वह काली कान्ति वाली है तथा गम्भीर और भयानक होने से रोमहर्षक है । अर्थात् रोंगट खड़े कर देने वाली है, भीष्म होने से त्रास पैदा करने For Personal & Private Use Only Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ६ उ ५ तमस्काय वाली है । वह परमकृष्ण ( महाकाली ) है । उसे देखते ही देव भी क्षोभ को प्राप्त होता है, इसलिए उसमें प्रवेश करने का साहस नहीं करता। यदि कदाचित् कोई देव, उसमें प्रवेश करता है, तो भय के मारे वह काय-गति के अतिवेग से और मनोगति के अतिवेग से उसके बाहर निकल जाता है । १००९ १७ प्रश्न - तमुक्कायस्स णं भंते ! कइ णामधेज्जा पण्णत्ता ? जहा - तमे १७ उत्तर - गोयमा ! तेरस णामधेज्जा पण्णत्ता, तं इवा, तमुक्काए इ वा, अंधकारे इ वा महंधकारे इ वा. लोगंधकारे इवा, लोगतमिसे इ वा, देवधयारे हवा, देवतमिसे इवा, देवरणे इवा, देववूहे इवा, देवफलिहे इ वा, देवपडिक्खोभे इ वा, अरुणोदए इ वा समुद्दे । १८ प्रश्न - तमुक्काए णं भंते! किं पुढविपरिणामे, आउपरि- : गामे, जीवपरिणामे, पोग्गलपरिणामे ? १८ उत्तर - गोयमा ! णो पुढविपरिणामे, आउपरिणामे वि, जीवपरिणामे वि, पोग्गलपरिणामे वि । १९ प्रश्न - तमुक्काए णं भंते ! सव्वे पाणा, भूया, जीवा, सत्ता पुढवीकाइयत्ताए, जाव-तसकाइयत्ताए उववण्णपुव्वा ? १९ उत्तर - हंता, गोयमा ! असई, अदुवा अणंतक्खुत्तो, णो चेवणं बायरपुढविकाइयत्ताए, बायरअगणिकाइयत्ताए वा । कठिन शब्दार्थ - उबवण्णपुब्वा - पहिले उत्पन्न हो चुके, असई अदुवा अनंतक्खुतोअनेकवार अथवा अनन्तवार । For Personal & Private Use Only Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०१० भगवती सूत्र-श. ६ उ. ५ तमस्काय १७ प्रश्न-हे भगवन् ! तमस्काय के कितने नाम कहे गये हैं ? १७ उत्तर-हे गौतम ! तमस्काय के तेरह नाम कहे गये हैं। यथा१ तम, २ तमस्काय, ३ अन्धकार, ४ महान्धकार, ५ लोकान्धकार, ६ लोकतमित्र, ७ देवान्धकार, ८ देवतमिस्र, ९ देवारण्य, १० देवव्यूह, ११ देवपरिघ, १२ देवप्रतिक्षोभ, १३ अरुणोदक समुद्र । १८ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या तमस्काय, पृथ्वी का परिणाम है, पानी का परिणाम है, जीव का परिणाम है, या पुद्गल का परिणाम है ? १८ उत्तर-हे गौतम ! तमस्काय, पृथ्वी का परिणाम नहीं है, पानी का परिणाम भी है, जीव का परिणाम भी है और पुद्गल का परिणाम भी है। १९ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या सभी प्राण, भूत, जीव और सत्त्व, पृथ्वी. कायरूप से यावत् त्रसकायरूप से तमस्काय में पहले उत्पन्न हो चुके हैं ? १९ उत्तर-हां, गौतम ! सभी प्राण, भूत, जीव और सत्त्व, तमस्काय में पृथ्वीकाय रूप से यावत् त्रसकाय रूप से अनेक बार अथवा अनन्त बार पहले उत्पन्न हो चुके हैं। किन्तु बादर पृथ्वीकाय रूप से और बादर अग्निकाय रूप से उत्पन्न नहीं हुए हैं। विवेचनतमस्काय के तेरह नाम कहे गये हैं, वे सब सार्थक हैं। उनकी सार्थकता इस प्रकार है-१ तमः-अन्धकार रूप होने से इसे 'तमः' कहते हैं । २ अन्धकार का समह रूप होने से इसे 'तमस्काय' कहते हैं । ३तमः अर्थात् अन्धकार रूप होने से इसे 'अन्धकार' कहने हैं। ४ महातमः रूप होने से इसे 'महा अन्धकार' कहते हैं। ५-६ लोक में इस प्रकार का दुसरा अन्धकार न होने से इसे 'लोकान्धकार' और 'लोक मिस्र' कहते हैं। ७-८ तमस्काय में किसी प्रकार का उद्योत न होने से वह देवों के लिए भी अन्धकार रूप है, इसलिए इसे 'देव अन्धकार' और 'देवतमिस्र' कहते हैं । ९ बलवान् देवता के भय से भागते हुए देवता के लिए यह एक प्रकार के अरण्य (जंगल) रूप होने से यह शरणभूत है, इसलिए इसको 'देवारण्य' कहते हैं । १० जिस प्रकार चक्रव्यूह का भेदम करना कठिन होता है. उसी प्रकार यह तमस्काय देवों के लिए भी दुर्भेद्य है, उसका पार करना कठिन हैं, इसलिए इसको देवव्यूह' कहते हैं। ११ तमस्काय को देख कर देवता भी भयभीत हो जाते है, इसलिए वह उनके For Personal & Private Use Only Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ६ उ. ५ कृष्णराजि १०११ गमन में बाधक है, अतः इसको देवपरिघ' कहते हैं। १२ तमस्काय देवों के लिए भी क्षोभ का कारण है, इसलिए इसको 'देव प्रतिक्षोभ' कहते हैं । १३ तमस्काय अरुणोदक समुद्र के पानी का विकार है, इसलिए इसको 'अरुणोदक समुद्र' कहते हैं। तमस्काय पानी, जीव और पुदगलों का परिणाम है। उसमें बांदर वाय, बादर वनस्पति और त्रस जीव उत्पन्न होते हैं। क्योंकि वायु और वनस्पति की उत्पत्ति अप्काय में संभवित है । इसके अतिरिक्त दूसरे जीवों की उत्पत्ति तमस्काय में संभवित नहीं है, क्योंकि दूसरे जीवों का वह स्वस्थान नहीं है। कृष्णराजि २० प्रश्न-कइ णं भंते ! कण्हराईओ पण्णत्ताओ ? २० उत्तर-गोयमा ! अट्ट कण्हराईओ पण्णताओ। २१ प्रश्न-कहि णं भंते ! एयाओ अट्ठ कण्हराईओ पण्णताओ? .. ' - २१ उत्तर-गोयमा ! उप्पिं सणंकुमार-माहिंदाणं कप्पाणं, हिडिं बंभलोए कप्पे रिटे विमाणपत्थडे-एत्थ णं अक्खाडगसमचउरंससंठाणसंठियाओ अट्ठ कण्हराईओ पण्णत्ताओ, तं जहा-पुरथिमेणं दो, पचत्थिमेणं दो, दाहिणेणं दो, उत्तरेणं दो; पुरत्थिमऽभंतरा कण्हराई दाहिण-बाहिरं कण्हराइं पुट्ठा, दाहिणऽभंतरा कण्हराई पञ्चत्थिम बाहिरं कण्हराइं पुट्ठा, पचत्थिमऽन्भतरा कण्हराई उत्तरबाहिरं कण्हराइं पुट्ठा, उत्तरमऽब्भतरा कण्हराई पुरथिमबाहिरं For Personal & Private Use Only Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०१२ भगवती सूत्र--श. ६ उ. ५ कृष्णराजि कण्हराई पुट्ठा; दो पुरथिम-पचत्थिमाओ बाहिराओ कण्हराईओ छलंसाओ, दो उत्तर-दाहिणबाहिराओ कण्हराईओ तंसाओ, दो पुरस्थिम-पचत्थिमाओ अभिंतराओ कण्हराईओ चउरंसाओ, दो उत्तर-दाहिणाओ अभिंतराओ कण्हराईओ चउरंसाओ। -पुव्वाऽवरा छलंसा तंसा पुण दाहिणुत्तरा बज्झा, अभिंतर चउरंसा सव्वा वि य कण्हराईओ। कठिन शब्दार्थ-कण्हराईओ-कृष्ण राजियाँ, अक्खाडग-अखाड़ा, छलसाओषडंश - छह कोण, तंसाओ--व्यस्र-त्रिकोण, चउरंसाओ--चतुरस्र-चतुष्कोण । भावार्थ-२० प्रश्न-हे भगवन् ! कृष्णराजियों कितनी कही गई हैं ? २० उत्तर-हे गौतम ! कृष्णराजियां आठ कही गई हैं। २१ प्रश्न-हे भगवन् ! ये आठ कृष्णराजियां कहां कही गई हैं ? २१ उत्तर-हे गौतम ! सनत्कुमार और माहेन्द्र नामक तीसरे चौथे देवलोक से ऊपर और ब्रह्मलोक नामक पांचवें देवलोक के अरिष्ट नामक विमान के तीसरे प्रस्तट (पाथडे) के नीचे अखाड़ा के आकार समचतुरस्त्र संस्थान संस्थित आठ कृष्णराजियाँ हैं। यथा-पूर्व में दो, पश्चिम में दो, उत्तर में दो और दक्षिण में दो, इस तरह चार दिशाओं में आठ कृष्णराजियां हैं। पूर्वाभ्यन्तर अर्थात पूर्व दिशा की आभ्यन्तर कृष्णराजि ने दक्षिण दिशा की बाह्य कृष्णराजि को स्पर्शा है। दक्षिण दिशा की आभ्यन्तर कृष्णराजि ने पश्चिम दिशा की बाह्य कृष्णराजि को स्पर्श किया है। पश्चिम दिशा की आभ्यन्तर कृष्णराजि ने उत्तर दिशा की बाह्य कृष्णराजि को स्पर्श किया है और उत्तर दिशा की आभ्यन्तर कृष्णराजि ने पूर्व दिशा को बाह्य कृष्णराजि को स्पर्श किया है। पूर्व और पश्चिम दिशा को बाह्य दो कृष्णराजियाँ षडंश (षट्कोण) हैं। उत्तर और दक्षिण दिशा की दो बाह्य कृष्णराजियां त्र्यंश (तीन कोणों वाली) हैं। पूर्व और पश्चिम For Personal & Private Use Only Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ६ उ. ५ कृष्णराजि दिशा की दो आभ्यन्तर कृष्णराजियाँ चतुरंश (चतुष्कोण ) है। इसी प्रकार उत्तर और दक्षिण दिशा को दो आभ्यन्तर कृष्णराजियाँ भी चतुष्कोण हैं। कृष्णराजियों के अकिार को बतलाने वाली गाथा का अर्थ इस प्रकार है-पूर्व और पश्चिम को कृष्णराजि षटकोण है । दक्षिण और उत्तर की बाह्य कृष्णराजि त्रिकोण है । शेष सब आभ्यन्तर कृष्णराजियाँ चतुष्कोण हैं। २२ प्रश्न-कण्हराईओ णं भंते ! केवइयं आयामेणं, केवइयं विस्वभेणं, केवइयं परिक्खेवेणं पण्णत्ताओ ? ___२२ उत्तर-गोयमा ! असंखेजाई जोयणसहस्साई आयामेणं, संग्वेजाइं जोयणसहस्साई विक्खंभेणं, असंखेनाइं जोयणसहस्साई परिक्वेवेणं पण्णत्ताओ। २३ प्रश्न-कण्हराईओ णं भंते ! केमहालियाओ पण्णत्ताओ ? २३ उत्तर-गोयमा ! अयं णं जंबुद्दीवे दीवे, जाव-अद्धमासं वीईवएज्जा, अत्थेगइयं कण्हराई वीईवएजा, अत्थेगइयं कण्हराइं णो वीईवएजा, एमहालियाओ णं गोयमा ! कण्हराईओ पण्णताओ। २४ प्रश्न-अत्थि णं भंते ! कण्हराईसु गेहा इ वा, गेहावणा इवा ? २४ उत्तर-णो इणटे समटे । २५ प्रश्न-अस्थि णं भंते ! कण्हराईमु गामा इ वा० ? For Personal & Private Use Only Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०१४ भगवती सूत्र--श. ६ उ. ५ कृष्ण राजि २५ उत्तर-णो इणटे ममटे। २६ प्रश्न-अस्थि णं भंते ! कण्हराईणं उराला बलाहया संमेयंति, सम्मुच्छंति, वामं वासंति ? २६ उत्तर-हंता, अस्थि । २७ प्रश्न-तं भंते ! किं देवो पकरेइ, असुरो पकरेइ, णागो पकरेइ ? २७ उत्तर-गोयमा ! देवो पकरेड़, णो असुरो. णो णागो पकरेइ । २८ प्रश्न-अस्थि णं भंते ! कण्हराईसु बायरे, थणियसहे ? २८ उत्तर-जहा उराला तहा। २९ प्रश्न-अस्थि णं भंते ! कण्हराईसु बायरे आउकाए. बायरे अगणिकाए, बायरे वणस्मइकाए ? २९ उत्तर-णो इणटे समढे, णण्णत्थ विग्गहगइसमावण्णएणं । भावार्थ-२२ प्रश्न-हे भगवन् ! कृष्णराजियों का आयाम (लम्बाई), विष्कम्भ (विस्तार-चौड़ाई) और परिक्षेप (परिधि) कितना है ? २२ उत्तर-हे गौतम ! कृष्णराजियों का आयाम असंख्य हजार योजन है, विष्कम्भ, संख्येय हजार योजन है और परिक्षेप. असंख्येय हजार योजन है। २३ प्रश्न-हे भगवन् ! कृष्णराजियाँ कितनी मोटी कही गई हैं। २३ उत्तर-हे गौतम ! तीन चुटकी बजावे उतने समय में इस सम्पूर्ण जम्बूद्वीप की इक्कीस बार परिक्रमा कर आवे-ऐसी शीघ्र गति से कोई देव, एक दिन, दो दिन, तीन दिन यावत् अर्द्ध मास तक निरन्तर चले, तो वह देव, For Personal & Private Use Only Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ६ उ. ५ कृष्णराजि किसी कृष्णराज के पार तक तक पहुंचता है और किसी कृष्णराज के पार तक नहीं पहुंचता है । है गौतम ! कृष्णराजियाँ इतनी बडी हैं । है ? न - हे भगवन् ! २४ प्रश्न २४ उत्तर - हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं हैं अर्थात् कृष्णराजियों में घर और दुकानें नहीं हैं । २५ प्रश्न - हे भगवन् ! २५ उत्तर - हे गौतम ! ग्रामादि नहीं हैं । क्या कृष्णराजियों में गृह और गृहापण ( दुकान ) १०१५ क्या कृष्णराजियों में ग्रामादि हैं ? यह अर्थ समर्थ नहीं है अर्थात् कृष्णराजियों में २६ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या कृष्णराजियों में महा मेघ संस्वेद को प्राप्त होते हैं, सम्मूच्छित होते हैं और वर्षा बरसाते हैं ? २६ उत्तर - हाँ, गौतम ! ऐसा होता हैं । २७ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या इनको देव करता है, असुरकुमार करता है, या नागकुमार करता ? २७ उत्तर - हे गौतम! देव करता है, किन्तु असुरकुमार या नागकुमार नहीं करता है । २८ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या कृष्णराजियों में बादर स्तनित शब्द है ? २८ उत्तर - हे गौतम! महामेघों के समान इनका भी कथन करना चाहिए अर्थात् कृष्णराजियों में बादर स्तनित शब्द हैं और उसे देव करता है, किन्तु असुरकुमार या नागकुमार नहीं करता है । २९ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या कष्णराजियों में बादर अप्काय, बादर अग्निकाय और बादर वनस्पतिकाय है ? २९ उत्तर - हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । यह निषेध विग्रहगति समापन्न जीवों के सिवाय दूसरे जीवों के लिए है । For Personal & Private Use Only Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०१६ भगवती सूत्र-श. ६ उ. ५ कृष्णराजि ३० प्रश्न-अस्थि णं चंदिम-सूरिय-गहगण-णवखत्ततारारूवा ? ३० उत्तर-णो इणटे समढे। ३१ प्रश्न-अस्थि णं कण्हराईणं चंदाभा इ वा, सूराभा इ वा ? ३१ उत्तर-णो इणढे समट्टे । ३२ प्रश्न-कण्हराईओ णं भंते ! केरिसियाओ वष्णेणं पण्णत्ताओ? ३२ उत्तर-गोयमा ! कालाओ, जाव-विप्पामेव वीईवएज्जा । ३३ प्रश्न-कण्हराईओ णं भंते ! कइ णामधेजा पण्णत्ता ? ३३ उत्तर-गोयमा ! अट्ठ णामधेजा पण्णत्ता, तं जहा-कण्हराई वा, मेहराई वा, मघा इ वा, माघबई इ वा, वायफलिहा इ वा, वायपलिक्खोभा इ वा, देवफलिहा इ वा, देवपलिक्खोभा इ वा । ३४ प्रश्न-कण्हराईओ णं भंते ! किं पुढवीपरिणामाओ, आउपरिणामाओ, जीवपरिणामाओ, पोग्गलपरिणामाओ ? ३४ उत्तर-गोयमा ! पुढविपरिणामाओ, णो आउपरिणामाओ वि, जीवपरिणामाओ वि, पुग्गलपरिणामाओ वि । ३५ प्रश्न-कण्हराईसु णं भंते ! सव्वे पाणा, भूया, जीवा, सत्ता उववण्णपुव्वा ? ___३५ उत्तर-हंता, गोयमा ! असई, अदुवा अणंतपखुत्तो, णो चेव णं वायरआउकाइयत्ताए, बायरअगणिकाइयत्ताए बायर .. For Personal & Private Use Only Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ६ उ ५ कृष्णराजि वणस्सइकाइयत्ताए वा । भावार्थ - ३० प्रश्न - हे भगवन् ! या कृष्णराजियों में चन्द्र, सूर्य, ग्रहगण, नक्षत्र और तारा रूप हैं ? ३० उत्तर - हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है अर्थात् वहाँ ये नहीं हैं । ३१ प्रश्न---हे भगवन् ! क्या कृष्णराजियों में चन्द्रप्रभा ( चन्द्रमा की कान्ति) और सूर्यप्रभा ( सूर्य की कान्ति ) है ? ३१ उत्तर - हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है अर्थात् वहाँ ये नहीं हैं । १०१७ ३२ प्रश्न - हे भगवन् ! कृष्णराजियों का वर्ण कैसा है ? ३२ उत्तर - हे गौतम ! कृष्णराजियों का वर्ण कृष्ण यावत् परम कृष्ण । तमस्काय की तरह भयंकर होने से देव भी क्षोभ को प्राप्त हो जाते हैं, यावत् इसको शीघ्र पार कर जाते हैं । ३३ प्रश्न - हे भगवन् ! कृष्णराजियों के कितने नाम कहे गये हैं ? ३३ उत्तर - हे गौतम! कृष्णराजियों के आठ नाम कहे गये हैं। यथा१ कृष्णराजि, २ मेघराज, ३ मघा, ४ माघवती, ५ वातपरिघा, ६ वातपरिक्षोभा ७ देवपरिघा और ८ देवपरिक्षोभा । ३४ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या कृष्णराजियाँ पृथ्वी का परिणाम है, जल का परिणाम है, जीव का परिणाम है, या पुद्गल का परिणाम है ? ३४ उत्तर - हे गौतम ! कृष्णराजियाँ पृथ्वी का परिणाम है, किन्तु जल का परिणाम नहीं है तथा जीव का भी परिणाम है और पुद्गल का भी परिणाम है । ३५ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या कृष्णराजियों में सभी प्राण, भूत, जीव और सत्त्व, पहले उत्पन्न हो चुके हैं ? ३५ उत्तर - हाँ, गौतम ! अनेक बार अथवा अनन्तबार उत्पन्न हो चुके हैं, किन्तु बादर अप्कायपने, बादर अग्निकायपने और बादर वनस्पतिकायपने उत्पन्न नहीं हुए हैं । For Personal & Private Use Only Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-ग. ६ उ. ५ लोकान्तिक देव विवेचन--- अगले प्रकरण में तमस्काय का वर्णन किया गया था। तमस्काय और कृष्णराजि का सादृश्य होने से अब कृष्णराजि का वर्णन किया जाता है । काले पुद्गलों की रेखा को 'कृष्णराजि' कहते हैं। कृष्ण राजि के आकार आदि का वर्णन ऊपर किया गया है। इसके आठ नाम कहे गये हैं, जिनका अर्थ इस प्रकार है-१ कृष्णराजि-काले वर्ण की पृथ्वी और पुद्गलों के परिणाम रूप होने से एवं काले पुद्गलों की राजि अर्थात् रेखा रूप होने मे इसका नाम 'कृष्णराजि' है, २ मेघराजि-काले मेघ की रेखा के सदृश होने से इसे 'मेघराजि' कहते हैं । ३ मघा-छठी नरक का नाम 'मघा' है. । छठी नरक के समान अन्धकार वाली होने से इसको 'मघा' कहते है । ४ माघवती-सातवीं नरक का नाम 'माघवती' है। मातवीं नरक के समान गाढ़ अन्धकार वाली होने से इसे 'माघवती' कहते हैं । ५ वातपरिघा -आँधी के समान सघन अन्धकार वाली और दुर्लघ्य होने से इसे 'वातपरिघा' कहते हैं। ६ वातपरिक्षोभा-आँधी के समान सघन अन्धकार वाली और क्षोभ का कारण होने से इसे 'वातपरिक्षोभा' कहते हैं। ७ देवपरिघा-देवों के लिए भी दुर्लंघ्य होने से यह उसके लिए 'परिघ' अर्थात् आगल (भोगल) के समान है, इसलिए इसे 'देवपरिघा' कहते हैं। ८ देवपरिक्षोभा-देवों को भी क्षोभ (भय) उत्पन्न करने वाली होने के कारण इसे 'देव परिक्षोभा' कहते हैं। ये कृष्णराजियाँ सचित्त और अचित्त पृथ्वी का परिणाम रूप हैं और इसीलिए ये जीव और पुद्गल दोनों का परिणाम (विकार) रूप हैं। ये कृष्णराजियाँ असंख्यात हजार योजन लम्बी और संख्यात हजार योजन चौड़ी . हैं । इनका परिक्षेप (परिधि-घेरा) असंख्यात हजार योजन है । लोकान्तिक देव एएसि णं अट्ठण्हं कण्हराईणं अट्ठसु उवासंतरेसु अट्ठ लोगंतियविमाणा पण्णत्ता, तं जहा-अच्ची, अचिमाली, वइरोयणे पभंकरे, चंदाभे, सूराभे, मुक्काभे, सुपइट्टाभे, मज्झे रिट्ठाभे । For Personal & Private Use Only Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र -श ६ उ ५ कोकान्तिक देव ३६ प्रश्न - कहि णं भंते ! अनि विमाणे पण्णत्ते ? ३६ उत्तर - गोयमा ! उत्तर- परस्थिमेणं । १०१९ ३७ प्रश्न - कहि णं भंते ! अचिमाली विमाणे पण्णत्ते ? ३७ उत्तर - गोयमा ! परस्थिमेणं, एवं परिवाडीए यव्वं । ३८ प्रश्न - जाव - कहि णं भंते! रिद्रे विमाणे पण्णत्ते ? ३८ उत्तर - गोयमा ! बहुमज्झदेसभाए, एएसु णं अट्टसु लोगंनियविमाणे अडविहा लोगंतिया देवा परिवसंति, तं जहासारस्यमाइच्चा वही वरुणा य गद्दतोया य, तुसिया अव्वावाहा अग्गिच्चा चैव रिट्ठा य । ३९ प्रश्न - कहि णं भंते ! सारस्मया देवा परिवसंति ? ३९ उत्तर - गोयमा ! अचिम्मि विमाणे परिवसंति । ४० प्रश्न - कहि णं भंते! आइचा देवा परिवसंति ? ४० उत्तर - गोयमा ! अचिमालिम्मि विमाणे, एवं णेयव्वं जाणुव्व । - ४१ प्रश्न - जाव कहि णं भंते ! रिट्ठा देवा परिवसंति ? ४१ उत्तर - गोयमा ! रिटुम्मि विमाणे । ४२ प्रश्न–सारस्सयमाइच्चाणं भंते ! देवाणं कइ देवा, कह देवसया पण्णत्ता ? ४२ उत्तर - गोयमा ! सत्त देवा, सत्त देवसया परिवारो पण्णत्तो, For Personal & Private Use Only Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२० भगवती सूत्र – ग. ६ उ. ५ लोकान्तिक देव वण्ही-वरुणाणं देवाणं चउद्दस देवा, चउद्दस देवसहस्सा परिवारो पण्णतो; गहतोय-तुसियाणं देवाणं मत्त देवा, सत्त देवसहस्मा परिवारो पण्णत्तो; अवसेसाणं णव देवा, णव देवसया परिवारो. पण्णत्तो। पढम-जुगलम्मि सत्तओ सयाणि बीयम्मि चउद्दससहस्मा, . तइए सत्तसहस्सा णव चेव सयाणि सेमेसु । कठिन शब्दार्थ-उवासंतरेसु-अवकाशान्तर में, जहाणपुटवीए---यथानुपूर्वीकक्रमानुसार, परिवाडौए-परिपाटी से-क्रम से। भावार्थ-इन उपरोक्त आठ कृष्णराजियों के आठ अवकाशान्तरों में आठ लोकान्तिक विमान हैं । यथा-१ अचि, २ अचिमाली, ३ वैरोचन, ४ प्रभंकर, ५ चन्द्राभ, ६ सूर्याभ, ७ शुक्राभ और ८ सुप्रतिष्टाभ । इन सब के बीच में रिष्टाभ विमान है। ३६ प्रश्न-हे भगवन् ! अचि विमान कहाँ है ? ३६ उत्तर-हे गौतम ! अचिविमान उत्तर और पूर्व के बीच में है । ३७ प्रश्न-हे भगवन् ! अचिमाली विमान कहाँ है ? ३७ उत्तर-हे गौतम ! अचिमाली विमान पूर्व में है। इसी क्रम से सब विमानों के लिए कहना चाहिए। ३८ प्रश्न-हे भगवन् ! रिष्ट विमान कहाँ है ? ___३८ उत्तर-हे गौतम ! बहुमध्य भाग में अर्थात् सब के मध्य में रिष्ट विमान है । इन आठ लोकान्तिक विमानों में आठ जाति के लोकान्तिक देव रहते हैं । यथा-१ सारस्वत, २ आदित्य, ३ वह्नि, ४ वरुण, ५ गर्दतोय, ६ तुषित, ७ अव्याबाध और ८ आग्नेय । सब के बीच में रिष्ट देव है। ३९ प्रश्न-हे भगवन् ! सारस्वत देव कहाँ रहते है ? ३९ उत्तर-हे गौतम ! सारस्वत जाति के देव, अचि विमान में रहते हैं। For Personal & Private Use Only Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ६ उ. ५ लोकान्तिक देव १०२१ ४० प्रश्न-हे भगवन् ! आदित्य देव कहाँ रहते हैं ? ४० उत्तर-हे गौतम ! आदित्य देव अचिमाली विमान में रहते हैं। इस प्रकार यथानुपूर्वी से यावत् रिष्ट विमान तक जान लेना चाहिए। ४१ प्रश्न-हे भगवन् ! रिष्ट देव कहाँ रहते हैं ? ४१ उत्तर-हे गौतम ! रिष्ट देव रिष्ट विमान में रहते हैं। ४२ प्रश्न-हे भगवन् ! सारस्वत और आदित्य-इन दो देवों के कितने देव और कितने सौं देवों का परिवार है ? . __ ४२ उत्तर-हे गौतम ! सारस्वत और आदित्य-इन दो देवों के ७ देव स्वामी और ७०० देवों का परिवार है । वह्नि और वरुण देव, इन दो देवों के १४ देवस्वामी और १४००० देवों का परिवार है । गर्दतोय और तुषित-इन दो देवों के ७ देवस्वामी और ७००० देवों का परिवार है । अव्याबाध, आग्नेय और रिष्ट, इन तीन देवों के ९ देव स्वामी और ९०० देवों का परिवार है। इन देवों के परिवार की संख्या को सूचित करने वाली गाथा का अर्थ इस प्रकार है-प्रथम युगल में ७०० देवों का परिवार, दूसरे यगल में १४००० देवों का परिवार, तीसरे युगल में ७००० देवों का परिवार और शेष तीन देवों के ९०० देवों का परिवार है। .... ४३ प्रश्न-लोगंतियविमाणा णं भंते ! किंपइट्ठिया पण्णत्ता ? . ४३ उत्तर-गोयमा ! वाउपइट्ठिया पण्णत्ता, एवं णेयव्वं विमा. णाणं पइट्टाणं, बाहुल्लुच्चत्तमेव संठाणं; बंभलोयवत्तव्वया णेयव्वा, जहा जीवाभिगमे देवुद्देसए, जाव-हंता, गोयमा ! असई अदुवा अणंतक्खुत्तो, णो चेव णं देवित्ताए लोगंतियविमाणेसु । · ४४ प्रश्न-लोगंतियविमाणेसु णं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णता ? For Personal & Private Use Only Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १०२२ भगवती सूत्र - श. ६ उ. ५ लोकान्तिक देव ४४ उत्तर-गोयमा ! अट्ठ सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। ४५ प्रश्न-लोगंतियविमाणेहिंतो णं भंते ! केवइयं अबाहाए लोगंते पण्णत्ते ? ४५ उत्तर-गोयमा ! असंखेजाइं जोयणसहस्साई अबाहाए लोगंते पण्णत्ते । * सेवं भंते ! मेवं भंते ! त्ति । * ॥ छट्ठसए पंचमो उद्देसो सम्मत्तो॥ कठिन शब्दार्थ- पइट्ठिया-प्रतिष्ठित, अबाहाए--अन्तर से । ४३ प्रश्न-हे भगवन् ! लोकान्तिक विमान किसके आधार पर रहे हुए हैं ? ___४३ उत्तर-हे गौतम! लोकान्तिक विमान, वायुप्रतिष्ठित हैं अर्थात् वायु के आधार पर रहे हुए हैं। इस तरह जिस प्रकार विमानों का प्रतिष्ठान, विमानों का बाहल्य, विमानों की ऊंचाई और विमानों का संस्थान आदि का वर्णन जीवाभिगम सूत्र के देवोद्देशक में ब्रह्मलोक की वक्तव्यता कही है, उसी प्रकार यहाँ भी कहनी चाहिए । यावत् हाँ, गौतम ! समी प्राग, मत, जीव और सत्त्व यहाँ अनेक बार अथवा अनन्त बार पहले उत्पन्न हो चुके हैं, किन्तु लोकान्तिक विमानों में देवी रूप से उत्पन्न नहीं हुए हैं। ___४४ प्रश्न-हे भगवन् ! लोकान्तिक विमानों में कितने काल को स्थिति कही गई है ? . ४४ उत्तर-हे गौतम ! लोकान्तिक विमानों में आठ सागरोपम की स्थिति कही गई है ? ४५ प्रश्न-हे भगवन् ! लोकान्तिक विमानों से लोकान्त कितना दूर है ? For Personal & Private Use Only Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र श. ६ उ. ५ लोकान्तिक देव ४५ उत्तरर - हे गौतम ! लोकान्तिक विमानों से असंख्य हजार योजन की दूरी पर लोकान्त है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । ऐसा कह कर यावत् गौतम स्वामी विचरते हैं । विवेचन - लोकान्तिक देवों के अचि आदि नो विमान हैं। पूर्व और उत्तर के बीच में अर्चि विमान है। पूर्व में अनिमाली विमान है। इसी क्रम से शेष विमान भी हैं । नववाँ रिष्टाभ विमान कृष्णराजियों के बीच में है । इन देवों का परिवार ऊपर बताया गया है। सारस्वत और आदित्य आदि दो दो युगलों का परिवार शामिल है और अव्याबाध, आग्नेय और रिष्ट, इन तीन देवों का परिवार शामिल है । १०२३ ये देव ब्रह्मलोक नामक पांचवें देवलषेक के पास रहते हैं, इसलिए इन्हें लोकान्तिक कहते हैं । अथवा ये उदयभाव रूप लोक के अन्त में रहे हुए हैं, क्योंकि ये सब स्वामी देव एक भवावतारी ( एक भव के बाद मोक्ष जाने वाले ) होते हैं, इसलिए इन्हें लोकान्तिक कहते हैं । इनके विमान वायु पर प्रतिष्ठित हैं। इनका बाहुल्य २५०० योजन है । इनकी ऊंचाई ७०० योजन है। जो विमान आवलिका प्रविष्ट होते हैं, वे वृत्त (गोल), व्यस (त्रिकोण) या चतुरस्र ( चतुष्कोण) होते हैं, किन्तु ये विमान आवलिकाप्रविष्ट नहीं हैं, इसलिए इनका आकार नाना प्रकार का है । इनका वर्ण लाल, पीला और सफेद है । ये प्रकाश युक्त हैं। ये इष्ट गन्ध और इष्ट स्पर्श वाले हैं । सर्वरत्नमय हैं। इन विमानों में रहने वाले देव, समचतुरस्र संस्थान वाले और पद्म लेश्या वाले हैं । जीवाभिगम सूत्र के दूसरे वैमानिक उद्देशक में ब्रह्मलोक विमानवासी देवों के सम्बन्ध में जो कथन किया है, वह वक्तव्यता यहाँ कहनी चाहिए। सभी प्राण, भूत, जीव और सत्त्व, लोकान्तिक विमानों में पृथ्वीकाय, अकाय, तेउकाय, वायुकाय और वनस्पतिकाय एवं देव रूप से अनेक बार अथवा अनन्तबार उत्पन्न हो चुके हैं, किन्तु देवी रूप से उत्पन्न नहीं हुए हैं, क्योंकि लोकान्तिक विमानों में देवियाँ उत्पन्न नहीं होती है । लोकान्तिक विमानों से असंख्यात हजार योजन की दूरी पर लोक का अन्त है । ॥ इति छठे शतक का पांचवां उद्देशक समाप्त ॥ For Personal & Private Use Only Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२४ भगवती सूत्र -श. ६ उ ६ पृथ्वियाँ और अनुत्तर विमान शतक उद्देशक ६ पृथ्वियाँ और अनुत्तर विमान णं भंते ! पुढवीओ पण्णत्ताओ ? १ प्रश्न - क १ उत्तर - गोयमा ! सत्त पुढवीओ पण्णत्ताओ, तं जहा - रयणपभा, जाव- तमतमा; रयणप्पभाईणं आवासा भाणिय अहे सत्तमाए, एवं जे जत्तिया आवासा ते भाणियव्वा जाव । २ प्रश्न - क णं भंते ! अणुत्तरविमाणा पण्णत्ता ? : जाव , २ उत्तर - गोयमा ! पंच अणुत्तरविमाणा पण्णत्ताः तं जहाविजए, जाव - सव्वसिदधे । " कठिन शब्दार्थ आवासा - आवास, जत्तिया - जितने । भावार्थ - १ प्रश्न - हे भगवन् ! कितनी पृथ्वियाँ कही गई हैं ? १ उत्तर - हे गौतम ! सात पृथ्वियाँ कही गई है। यथा-रत्नप्रभा यावत् तमस्तमःप्रभा । रत्नप्रभा पृथ्वी से लेकर यावत् अधः सप्तम ( तमस्तमः प्रभा ) तक जिस पृथ्वी के जितने आवास हों, उतने कहने चाहिए यावत् । २ प्रश्न - हे भगवन् ! कितने अनुत्तर विमान कहे गये हैं । २ उत्तर - हे गौतम! पांच अनुत्तर विमान कहे गये हैं । यथा - विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्ध विमान । विवेचन - पांचवें उद्देशक में विमानों की वक्तव्यता कही गई है। अब इस छठे उद्देशक में भी इसी तरह की वक्तव्यता कही जाती है । यहाँ पर 'पृथ्वी' शब्द से रत्नप्रभा आदि सात पृथ्वियों का ही ग्रहण किया गया है। यहाँ आठवीं ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी का ग्रहण नहीं For Personal & Private Use Only Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ६ उ. ६ मारणान्तिक समुद्घात १०२५ किया, क्योंकि यहाँ उसकी चर्चा का अधिकार नहीं है। यद्यपि इन सात पृथ्वियों का कथन पहले आ चुका है, तथापि समुद्घात-जिसका कि वर्णन आगे किया जा रहा है, उस वर्णन के साथ इन पृथ्वियों के वर्णन का अधिक सम्बन्ध होने से फिर इनका यहाँ कथन किया गया है । इसलिए इसमें पुनरुक्ति दोष नहीं है । मारणान्तिक समुद्घात ३ प्रश्न-जीवे णं भंते ! मारणंतियसमुग्घाएणं समोहए, समोहणित्ता जे भविए इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए णिरयावाससयसहस्सेसु अण्णयरंसि णिरयावासंसि गेरइयत्ताए उववजित्तए, से णं भंते ! तत्थगए चेव आहारेज वा परिणामेज वा, सरीरं वा बंधेजा ? ३ उत्तर-गोयमा ! अत्थेगइए तत्थगए चेव आहारेज वा परिणामेज वा सरीरं वा बंधेजा; अत्यंगइए तओ पडिणियत्तइ, तओं पडिणियत्तित्ता इहमागच्छइ, आगच्छित्ता दोच्चं पि मारणंतियसमुग्याएणं समोहणइ, समोहणित्ता इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए णिरयावाससयसहस्सेसु अण्णयरंसि णिरयावासंसि णेरड्यताए उववजित्तए, तओ पच्छा आहारेज वा परिणामेज वा सरीरं । वा बंधेजा, एवं जाव-अहे सत्तमा पुढवी। ४ प्रश्न-जीवे णं भंते ! मारणंतियसमुग्धाएणं समोहए समोहणित्ता जे भविए चउसट्ठीए असुरकुमारावाससयसहस्सेसु अण्णयरंसि असुर For Personal & Private Use Only Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२६ भगवती सूत्र-श. ६ उ. ६ मारणान्तिक समुद्घात कुमारावासंसि असुरकुमारत्ताए उववजित्तए ? ४ उत्तर-जहा गेरइया तहा भाणियव्वा, जाव-थणियकुमारा । कठिन शब्दार्थ-मारणंतियसमुग्धाएणं-मारणान्तिक समुद्घात- मृत्यु के समय होने वाली आत्मा की विशिष्ट-उग्र क्रिया, तत्थगए-वहां जाकर, समोहए-समवहत, आहारेज्जआहार करता है, परिणामेज्ज-परिणमाता है, बंधेज्जा-बांधता है, पडिनियत्तइ-पीछा फिरे। . भावार्थ-३ प्रश्न-हे भगवन् ! जो जीव, मारणान्तिक समुद्धात द्वारा समवहत हुआ है और समवहत होकर इस रत्नप्रमा पृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में से किसी एक नरकावास में नरयिक रूप से उत्पन्न होने के योग्य हैं क्या वह वहां जाकर आहार करता है ? आहार को परिणमाता है ? और शरीर बांधता है ? ३ उत्तर-हे गौतम ! कोई जीव वहाँ जाकर ही आहार करता है, परिणमाता है, तथा शरीर बांधता है और कोई एक जीव वहां जाकर वापिस लौटता है, वापिस लौट कर यहां आता है, यहां आकर फिर दूसरी बार मारणान्तिक समुद्घात द्वारा समवहत होता है । समवहत होकर इस.रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में से किसी एक नरकावास में नैरयिक रूप से उत्पन्न होता है । इसके बाद आहार ग्रहण करता है, परिणमाता है और शरीर बांधता है। इस प्रकार यावत् अधःसप्तम (तमस्तमः प्रभा) पृथ्वी तक कहना चाहिये । " ४ प्रश्न-हे भगवन् ! जो जीव मारणान्तिक समद्घात से समवहत हुआ है और समवहत होकर असुरकुमारों के चौसठ लाख आवासों में से किसी एक आवास में उत्पन्न होने के योग्य है, क्या वह जीव वहाँ जाकर ही आहार करता है? उस आहार को परिणमाता है और शरीर बांधता है ? ४ उत्तर-हे गौतम ! जिस प्रकार नरयिकों के विषयों में कहा, उसी प्रकार असुरकुमारों के विषय में भी कहना चाहिये । यावत् स्तनितकुमारों तक इसी प्रकार कहना चाहिये। For Personal & Private Use Only Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ६ उ. ६ मारणान्तिक समुदघात ५ प्रश्न - जीवे णं भंते ! मारणंतियसमुग्घाएणं समोहए, समोहणित्ता जे भविए असंखेजेस पुढविकाइयावाससंयसहस्मे सु, अण्णयरंसि पुढविकाइयावासंसि पुढविकाइयत्ताए उववज्जित्तए, सेणं भंते! मंदरस पव्वयस्स पुरत्थिमेणं केवइयं गच्छेज्जा, केवइयं पाउणिज्जा ? ५ उत्तर - गोयमा ! लोयंत गच्छेजा, लोयंतं पाउणिज्जा । ६ प्रश्न - से णं भंते ! तत्थगए चेव आहारेज्ज वा, परिणामेज्ज वा, सरीरं वा बंधेज्जा ? ६ उत्तर - गोयमा ! अत्थेगइए तत्थगए चेव आहारेज वा परिणामेज्ज वा, सरीरं वा बंधेज्जा; अत्थेगइए तओ पडिणियत्त, पडिणियत्तित्ता इहं हव्वं आगच्छछ, आगच्छत्ता दोच्चं पि मारणंतियसमुग्धारणं समोहण्णइ, समोहणित्ता मंदरस्स पव्वयस्स पुरत्थि - मेणं अंगुलस्स असंखेज्जइ भागमेत्तं वा, संखेज भागमेत्तं वा, वालग्गं वा, वालग्गपुहुत्तं वा; एवं लिक्खं, जूयं, जव अंगुलं जावजोयणकोडिं वा, जोयणकोडा कोडिं वा, संखेज्जेसु वा, असंखेजेसु वा, जोयणसहस्सेसु, लोगंते वा, एगपएसियं सेटिं मोत्तूण असंखेजेसु पुढविकाइयावाससयसहस्सेसु अण्णयरंसि पुढविकाइयावासंसि पुढविकाइयत्ताए उववज्जित्ता, तओ पच्छा आहारेज्ज वा, परिणामेज्ज वा, सरीरं वा बंधेज्जा; जहा पुरत्थिमेणं मंदरस्स १०२७ For Personal & Private Use Only Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२८ भगवती सूत्र-श. ६ उ. ६ मारणान्तिक समुद्घात पबयस्त आलाव ओ भणिओ, एवं दाहिणेणं, पञ्चत्थिमेणं, उत्तरेणं, उड्ढे अहे । जहा पुढविकाइया तहा एगिदियाणं सव्वेसि एक्केकस्स छ आलावगा भाणियब्वा। कठिन शब्दार्थ-लोयंतं-लोक के अन्त में, पाउणिज्जा–प्राप्त करता है। ___भावार्थ-५ प्रश्न-हे भगवन् ! जो जीव, मारणान्तिक समुद्घात से समवहत हुआ है और समवहत होकर पृथ्वीकाय के असंख्यात लाख आवासों में से किसी एक आवास में पृथ्वीकायिक रूप से उत्पन्न होने के योग्य है, वह जीव मेरुपर्वत से पूर्व में कितनी दूर जाता है और कितनी दूरी को प्राप्त करता है ? ५ उत्तर-हे गौतम ! वह लोकान्त तक जाता है. और लोकान्त को प्राप्त करता है। ६ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या उपर्युक्त पृथ्वीकायिक जीव, वहां जाकर ही आहार करता है, परिणमाता है और शरीर बांधता है ? . ६ उत्तर--हे गौतम ! कोई जीव, वहां जाकर ही आहार करता है, परिणमाता है और शरीर बांधता है और कोई जीव वहां जाकर वापिस लौटता है, वापिस लौट कर यहां आता है, यहां आकर फिर दूसरी बार मारणान्तिक समुद्घात से समवहत होता है, समवहत होकर मेरुपर्वत के पूर्व में अंगुल के असंख्येय भाग मात्र, संख्येय भाग मात्र, बालाग्र, बालान-पृथक्त्व (दो से नव तक बालाग्र) इसी तरह लिक्षा (लोख) यूका (जू) यव (जो धान्य) अंगुल यावत् करोड़ योजन, कोटाकोटि योजन, संख्येय हजार योजन और असंख्येय हजार योजन में अथवा एक प्रदेश श्रेणी को छोड़कर लोकान्त में पृथ्वीकाय के असंख्य लाख आवासों में से किसी आवास में पृथ्वीकायिक रूप से उत्पन्न होता है और पीछे आहार करता है, परिणमाता है और शरीर बांधता है। जिस प्रकार मेरा पर्वत की पूर्व दिशा के विषय में कपन किया गया, उसी प्रकार से दक्षिण, पश्चिम, उत्तर, ऊर्ध्व और अधोदिशा के विषय में कहना चाहिये। जिस प्रकार पृथ्वी. For Personal & Private Use Only Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ६ उ. ६ मारणान्तिक समुद्घात कायिक जीवों का कथन किया गया है, उसी प्रकार से सभी एकेन्द्रियों के विषय में कहना चाहिये । एक एक के छह छह आलापक कहने चाहिये। __७ प्रश्न-जीवे णं भंते ! मारणंतियसमुग्धाएणं समोहणइ, समोहणित्ता जे भविए असंखेजेसु बेइंदियावाससयसहस्सेसु अण्णयरंसि बेइंदियावासंसि बेइंदियत्ताए उववजित्तए, से णं भंते ! तत्थगए चेव ? ____७ उत्तर-जहा णेरइया, एवं जाव-अणुत्तरोववाइया। ८ प्रश्न-जीवे णं भंते ! मारणंतियसमुग्घाएणं समोहए, समोह- णित्ता जे भविए पंचसु अणुत्तरेसु महइमहालएसु महाविमाणेसु अण्णयरंसि अणुत्तरविमाणंसि अणुत्तरोववाइयदेवत्ताए उववजित्तए से णं भंते ! तत्थगए चेव ? ८ उत्तर-तं चेव जाव-आहारेज वा, परिणामेज वा, सरीरं वा बंधेजा। * सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति 8 ॥ छट्ठसए छट्ठो उद्देसो सम्मत्तो ॥ भावार्थ-७ प्रश्न-हे भगवन् ! जो जीव, मारणान्तिक समुद्घात से समवहत हुआ है और समवहत होकर बेइन्द्रिय जीवों के असंख्य लाख आवासों में से किसी एक आवास में उत्पन्न होने के योग्य है, क्या वह जीव, वहां जाकर ही आहार करता है, परिणमाता है और शरीर बांधता है ? For Personal & Private Use Only Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०३० भगवती सूत्र - - श. ६ उ. ६ मारणान्तिक समुद्घात ७ उत्तर - हे गौतम! जिस प्रकार नैरयिकों के लिये कहा गया, उसी प्रकार बेइन्द्रियों से लेकर अनुत्तरौपपातिक देवों तक सब जीवों के लिये कथन करना चाहिये । ८ प्रश्न - हे भगवन् ! जो जीव मारणान्तिक समुद्घात से समवहत हुआ है और समवहत होकर महात् से महान् महाविमान रूप पांच अनुत्तर विमानों में से किसी एक अनुसर विमान में अनुत्तरोपपातिक वेव रूप से उत्पन्न होने के योग्य है, क्या वह जीव वहाँ जाकर ही आहार करता है, परिणमाता है और शरीर बांधता है ? ८ उत्तर - हे गौतम ! पहले कहा उसी प्रकार कहना चाहिये । यावत् आहार करता है, परिणमाता है और शरीर बांधता है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । ऐसा कह कर यावत् गौतमस्वामी विचरते हैं । विवेचन - जो जीव, मारणान्तिक समुद्घात करके नरकावासादि उत्पत्ति स्थान पर जाता है, उनमें से कोई एक जीव अर्थात् जो समुद्घात में ही मरण को प्राप्त हो जाता है, वह जीव वहाँ जाकर वहाँ से अथवा समुद्घात से निवृत्त होकर वापिस अपने शरीर में आता है और दूसरी बार मारणान्तिक समुद्घात करके पुनः उत्पत्ति स्थान पर जाता है, फिर आहार योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है। उसके बाद ग्रहण किये हुए उन पुद्गलों को पचा कर उनका खल रूप और रस रूप विभाग करता है । फिर उन पुद्गलों द्वारा शरीर की रचना करता है । वह जीव अपने उत्पत्ति स्थान के अनुसार अंगुल के असंख्येय भाग आदि रूप से उत्पन्न होता है । जीव असंख्य प्रदेशावगाहन स्वभाव वाला है । इसलिए वह एक प्रदेशश्रेणी से नहीं जाता है, किन्तु असंख्य प्रदेशावगाहन द्वारा ही उसकी गति होती है, क्योंकि जीव का ऐसा ही स्वभाव है ! ॥ इति छठे शतक का छठा उद्देशक समाप्त ॥ For Personal & Private Use Only Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र - श. ६ उ. ७ धान्य की स्थिति शतक उद्देशक ७ धान्य की स्थिति १ प्रश्न-अह भंते ! मालीणं, वीहीणं, गोधूमाणं, जवाणं, जवजवाणं-एएसि णं धण्णाणं कोहाउत्ताणं, पल्लाउत्ताणं, मंचाउत्ताणं, मालाउत्ताणं, उल्लित्ताणं, लित्ताणं, पिहियाणं, मुद्दियाणं, लंछियाणं केवइयं कालं जोणी संचिट्ठइ ? १ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं तिणि मंबच्छराई, तेण परं जोणी पमिलायइ, तेण परं जोणी पविद्धंसइ, तेण परं बीए अबीए भवइ, तेण परं जोणीवोच्छेए पण्णत्ते समणाउसो ! - २ प्रश्न-अह भंते ! कलाय-मसूर-तिल-मुग्ग-मास-णिप्पावकुलत्थ-आलिसंदग-सईण-पलिमंथगमाईणं-एएसि णं धण्णाणं ? . २ उत्तर-जहा सालीणं तहा एयाणि वि, गवरं-पंच संवच्छराई, सेसं तं चेव । ३ प्रश्न-अह भंते ! अयसि-कुसुंभग-कोदव-कंगु-वरग-रालगकोदूसग-सण-सरिसव-मूलगबीयमाईणं-एएसि णं धण्णाणं ? ३ उत्तर-एयाणि वि तहेव, णवरं-सत्त संवच्छराई, सेसं तं चेव । For Personal & Private Use Only Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०३२ भगवती सूत्र-श. ६ उ. ७ धान्य की स्थिति कठिन शब्दार्थ--कोट्टाउत्ताणं-कोठे में रखे हुए, पल्लाउत्ताणं-पल्य अर्थात् बांस के छबड़े में रखे हुए, मंचाउत्ताणं-मंच पर रखे हुए, मालाउत्ताणं-माल-मंजिल पर रखे हुए, उल्लित्ताणं-उल्लिप्त-लीपे हुए, लित्ताणं-लिप्त, पिहियाणं-ढके हुए, मुद्दियाणं-मुद्रित-छापकर बंद किये, लंछियाण-लांछित किये, तेण परं-उसके बाद, पमिलायइ - म्लान हो जाती. है, जोणीवच्छेदे-योनि व्युच्छेद-नष्ट-योनि, नवरं-विशेष में । भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! शाली (कलमादि जाति सम्पन्न चावल), वीहि (सामान्य चावल), गोधूम (गेहूँ), यव (जौ) और यवयव (विशिष्ट प्रकार का जौ) इत्यादि धान्य कोठे में, बांस के छबडे में, मंच में या माल में डाल कर उनके मख गोबर आदि से उल्लिप्त हों, लिप्त हों, ढके हुए हों, मिट्टी आदि से मुख पर छांदण दिये हुए हों, लांछित-चिन्हित किये हुए हों, इस प्रकार सुरक्षित रखे हुए उपरोक्त धान्यों की योनि (अंकुरोत्पत्ति की हेतुभूत शक्ति) कितने समय तक रहती है ? १ उत्तर-हे गौतम ! उनको योनि जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तीन वर्ष तक कायम रहती है। उसके बाद उनकी योनि म्लान हो जाती है, विध्वंस को प्राप्त हो जाती है । इसके बाद वह बीज, अबीज हो जाता है । इसके बाद हे श्रमणायुष्मन् ! उस योनि का विच्छेद हो जाता है। . २ प्रश्न-हे भगवन् ! कलाय, मसूर, तिल, मूंग, उनद, बाल, कुलथ, आलिसंबक (एक प्रकार का चंवला), सतीण (तुअर), पलिमंथक (गोल चना अथवा काला चना) इत्यादि धान्य पूर्वोक्त रूप से कोठा आदि में रखे हुए हों, तो इन धान्यों की योनि कितने काल तक कायम रहती है ? २ उत्तर-हे गौतम ! जिस प्रकार शाली के लिये कहा, उसी प्रकार इन धान्यों के लिए भी कहना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि यहां उत्कृष्ट पांच वर्ष कहना चाहिए । शेष सारा वर्णन उसी तरह कहना चाहिए। __ ३ प्रश्न-हे भगवन् ! अलसी, कुसुंभ, कोद्रव, कांगणी, बरटी, राल, सण, सरसों, मूलक बीज, (एक जाति के शाक के बीज) आदि धान्यों की योनि कितने काल तक कायम रहती है ? For Personal & Private Use Only Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ६ उ ७ गणनीय कॉल ३ उत्तर - हे गौतम! जिस प्रकार शाली धान्य के लिये कहा, उती प्रकार इनके लिये भी कहना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि इनकी योनि उत्कृष्ट सात वर्ष तक कायम रहती है। शेष वर्णन पहले की तरह कहना चाहिये । विवेचन - छठे उद्देशक में जीव की वक्तव्यता कही गई है। इस सातवें उद्देशक में योनि से सम्बन्धित वक्तव्यता कही जाती है। उपर्युक्त तीन प्रश्नों में शाली आदि धान्यों की योनि के विषय में प्रश्न किया गया, जिसका उत्तर दिया गया कि इन सब धान्यों की योनि जघन्य अन्तर्मुहूर्त की है और उत्कृष्ट शाली आदि की तीन वर्ष कलाय (मटर) आदि की पांच वर्ष और अलसी आदि की सात वर्ष तक योनि कायम रहती है। इसके बाद योनि विध्वस्त हो जाती है । वह बीज अबीज हो जाता है गणनीय काल ४ प्रश्न - एगमेगस्स णं भंते! मुहुत्तस्स केवइया ऊसासद्धा वियाहिया ? १.०३३ ४ उत्तर-गोयमा ! असंखेज्जाणं समयाणं समुदयसमिइ समागमेणं - सा एगा 'आवलिय' त्ति पवुच्चह, संखेज्जा आवलिया ऊसासो, संखेज्जा आवलिया णिस्सासो 'हटुस्स अणवगल्लस्स, णिस्वकिटुस्स जंतुणो । एगे ऊसास-णीसासे, एग पाणु त्ति वुच्च ॥ १ ॥ सत्त पाणि से थोवे, सत्त थोवाइं से लवे । लवाणं सत्तहत्तरिए, एस मुहुत्ते वियाहिए ॥ २ ॥ तिणि सहस्सा सत्त य सयाई, तेवत्तारं च ऊसासा । एस मुहुत्तो दिट्ठो, सव्वेहिं अनंतणाणीहिं ॥ ३ ॥ For Personal & Private Use Only Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ६ उ. ७ गणनीय काल एएणं मुहुत्तपमाणेणं तीसमुहुत्तो अहोरत्तो, पण्णरस अहोरत्ता पक्खो, दो पक्खा मासो, दो मासा उऊ, तिष्णि उउए अयणे, दो अयणे संवच्चरे, पंचसवच्छरिए जुगे, वीसं जुगाईं वाससयं, दस वाससयाई वाससहस्सं, सयं वाससहस्साणं वाससयसहस्सं चउरासी इं वाससयसहस्साणि से एगे पुवंगे, चउरासीइं पुवंगा सयसहस्साई से एगे पुव्वे; एवं तुडिअंगे, तुडिए, अडडंगे, अडडे; अववंगे, अववे, हूहूअंगे, हूहूए; उप्पलंगे, उप्पले; पउमंगे, पउमे, णलिणंगे, णलिणे; अत्थणि उरंगे, अत्थणिउरे; अउअंगे, अउए, पउअंगे, पउए य; णउअंगे, णउए य, चूलिअंगे, चूलिआ य, सीसपहेलिअंगे, सीसपहेलियाएताव ताव गणिए, एताव ताव गणियस्स विसए: तेण परं उवमिए । १०३४ कठिन शब्दार्थ - मुहुसल्स - मुहूर्त - १-४८ मिनिट का समय, उसासद्धा उच्छ्वास समय, समुदयसमिति – समूहों का समागम, आवलिया - ब्राबलिका- असंख्यात समय की एक आवलिका होती है, हट्टुस्स - हृष्ट-पुष्ट-- स्वस्थ, अणवगल्ला - अनवकल्प्य - वृद्धावस्था की शिथिलता से रहित, निश्वकिटुस्स व्याधि रहित, उऊऋतु, गणिए -- मणित का विषय - गणनीय काल, उबलिए औपमिक-उपमा से जानने योग्य काल । भावार्थ - ४ प्रश्न -- हे भगवन् ! एक एक मुहूर्त के कितने उच्छ्वास कहे गये हैं ? ४ उत्तर- है गौतम ! असंख्येय समय के समुदाय की समिति समागम से जितना काल होता है, उसे एक 'आलिका' कहते हैं । संख्पेय आवलिका का एक 'उच्छ्वास' होता है और संख्येय आवलिका का एक 'निःश्वास' होता है । हृष्ट पुष्ट तथा वृद्धावस्था और व्याधि से रहित प्राणी का एक उच्छ्वास और एक निःश्वास में दोनों मिलकर एक 'प्राण' कहलाता है । सात प्राण का For Personal & Private Use Only Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र--- . ६ उ. ७ गणनीय काल एक 'स्तोक' होता है। मात स्मोक का एक 'लव' होता है । ७७ लव का एक 'मुहूर्त' होता है। अथवा ३७७३ उच्छ्वा : का एक 'महूर्त' होता है। इस मुहूर्त के अनुसार तीस मुहूर्त का एक 'अहोरात्र' होता है । पन्द्रह अहोरात्र का एक 'पक्ष' होता है । वो पक्ष का एक 'मास' होता है। दो मास की एक 'ऋतु' होती है । तीन ऋतुओं का एक 'अयन' होता है। दो अयन का एक संवत्सर' (वर्ष) होता है। पांच वर्ष का एक 'युग' होता है । बीस युग का एक 'वर्षशत' (सौ वर्ष) होता है । दस वर्षशत का एक वर्षसहस्र' (एक हजार वर्ष) होता है। सौ वर्ष सहस्रों का एक 'वर्षशतसहस्र' (एक लाख वर्ष) होता है । ८४ लाख वर्षों का एक 'पूर्वाग' होता है। ८४ लाख पूर्वांग का एक 'पूर्व' होता है। ८४ लाख पूर्व का एक 'त्रुटितांग' होता है और ८४ लाख त्रुटितांग का एक 'टित' होता है। इस प्रकार पहले की राशि को ८४ लाख से गणा करने से उत्तरोत्तर राशियां बनती हैं । वे इस प्रकार हैं-अटटांग, अटट, अववांग, अवय, हूहूकांग, हूहूक, उत्पलांग, उत्पल, पद्मांग, पद्म, नलिनांग, नलिन, अर्थनिपूरांग, अर्थनिपूर, अयुतांग, अयुत, प्रयुतांग, प्रयप्त, नयुतांग, नयुत, चूलिकांग, चूलिका, शीर्षप्रहेलिकांग, शीर्षप्रहेलिका। इस संख्या तक गणित है। यह गणित का विषय है। इसके बाद औपमिक काल है, अर्थात् वह उपमा का विषय है, गणित का नहीं। विवेचन-पहले के प्रकरण में धान्यों की योनि की काल-स्थिति कही गई है। अब इस प्रकरण में काल स्थिति रूप मुहुर्तादि का स्वरूप कहा जाता है । ऊपर भावार्थ में गणमीय-गणित योग्य काल परिमाण के ४६ भेद कहे गये हैं। काल के सूक्ष्मतम भाग को 'समय' कहते हैं । असंख्यात समय की एक श्रावलिका होती है। २५६ आवलिका का निगोद का एक क्षुल्लक भव ग्रहण होता है, जिसमें १७ से कुछ अधिक क्षुल्लक भव ग्रहण, एक उच्छपास निःश्वामकाल में होते हैं । सात उच्छ्वास का एक 'स्तोक' होता है और सात स्तोक का एक 'लव' होता है। लव को सात गुणा करने से एक लव के ४९ उच्छ्वास होते हैं। इन ४९ उच्छ्वासों को ७७ लव के साथ गुणा करने से (क्योंकि ७७ लव का एक मुहर्त होता है)३७७३ संख्या होती है। यह एक मुहूर्त के उच्छ्वासों की संख्या है । शीर्षप्रहेलिका For Personal & Private Use Only Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ६ उ. ७ उपमेय काल तक का काल गणनीय काल है। शीर्षप्रहेलिका १९४ अंकों की संख्या है । यथा-७५८२६३२५३०७३०१०२४११५७९७३५६९९७५६९६४०६२१८९६६८४८०८०१८३२९६ इन ५४ अंकों पर १४० बिन्दियां लगाने से शीर्षप्रहेलिका संख्या का प्रमाण आता है । यहाँ तक का काल गणित का विषय माना गया है । इसके आगे भी काल का परिमाण बतलाया गया है, परन्तु वह उपमा का विषय है, गणित का नहीं । उपमेय काल ५ प्रश्न-से किं तं उवमिए ? ५ उत्तर-उवमिए दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-पलिओवमे य, सागरोवमे य। - ६ प्रश्न-से किं तं पलिओवमे, से किं तं सागरोवमे ? ६ उत्तर'सत्येण सुतिखेण वि छेत्तुं, भेत्तुं च जं किर न सका । तं परमाणु सिद्धा वयंति आई पमाणाणं' ॥ १॥ अणंताणं परमाणुपोग्गलाणं समुदयसमिइसमागमेणं सा एगा उस्सण्हसण्हिया इ वा, सहसण्हिया इ वा, उड्ढरेणू इ वा, तसरेणू इ वा, रहरेणू इ वा, वालग्गा इवा, लिक्खा इ वा, जूया, इ वा, जवमज्झे इ वा, अंगुले इ वा, अट्ठ उस्सण्हसण्हियाओ सा एगा सण्हसण्हिया, अट्ठ सहसण्हियाओ सा एगा उड्ढरेणू, अट्ठ उड्ढरेणूओ सा एगा तसरेणू, अट्ठ तसरेणूओ सा एगा रहरेणू, अट्ठ रहरेणूओ For Personal & Private Use Only Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - ६ उ ७ उपमेय काल मे एगे देवकुरु- उत्तरकुरुगाणं मणुस्माणं वालग्गे; एवं हरिवास - रम्मग-हेमवय- एरण्णवयाणं, पुव्वविदेहाणं मणूसाणं अट्ठ वालग्गा माएगा लिक्खा, अड लिक्खाओ सा एगा जूया, अट्ट जूयाओ मे एगे जवमज्झे, अट्ट जवमज्झाओ मे एगे अंगुले, एएणं अंगुलपमाणे छ अंगुलाणि पाओ, बारस अंगुलाई विहत्थी, चउवीसं अंगुलाई रयणी, अडयालीसं अंगुलाई कुच्छी, छण्णउड़ अंगुलाणि से एगे दंडे इ वा, धणू इवा, जूए इ वा णालिया ड़वा, अक्खे इवा, मुसले इ वा एएणं धणुष्पमाणेणं, दो धणुसहस्साई गाउयं चत्तारि गाउयाइं जोयणं: एएणं जोयणप्पमाणेणं जे पल्ले जोयणं आयाम-विक्खंभेणं, जोयणं उड्ढं उच्चत्तेणं, तं तिउणं सवितेसं परिरक्षणं-ने णं एगाहिय - बेयाहिय तेयाहिया, उक्कोसं सत्तरत्तप्पढाणं संमद्रे, सणिचिए, भरिए वालग्गकोडीनं ते णं वालग्गे णो अग्गी दहेज्जा, णो वाउ हरेज्जाः णो कुत्थेना, णो परिविदुधंसेज्जा, णो पूइताए हब्वं आगच्छेजा; तओ णं वाससए, वाससए एगमेगं वालग्गं अवहाय जावहणं काले से पल्ले खीणे, णिरए, णिम्मले गिट्टिए, पिल्लेवे, अवहडे, विसुधे भवइ से तं पलिओवमे । , 4 - १०३७ गाहा - 'एएसिं पल्ला कोडाकोडी हवेज दसगुणिया, तं सागरोवमस्स उ एक्कस्सम भवे परिमाणं । कठिन शब्दार्थ -- सत्थेण सुतिक्खण सुतीक्ष्ण शस्त्र से, पमाणाणं आई - प्रमाणों का For Personal & Private Use Only Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०३८ भगवती सूत्र-श. ६ उ. ७ उपमेय काल आदिभूत, विहत्थी-वितस्ति-एक बेंत अर्थात् बारह अंगुल प्रमाण । भावार्थ-५ प्रश्न-हे भगवन् ! औपमिक काल किसे कहते हैं ? ५ उत्तर-हे गौतम ! औपमिक काल दो प्रकार का कहा गया है । यथापल्योपम और सागरोपम ।। ६ प्रश्न-हे भगवम् ! पल्योपम किसे कहते हैं और सागरोपम किसे कहते हैं ? ६ उत्तर-हे गौतम ! जो सुतीक्ष्ण शस्त्रों के द्वारा भी छेदा भेदा न जा सके, ऐसे परम-अणु (परमाणु) को केवली भगवान् सब प्रमाणों का आदिभूत प्रमाण कहते हैं । ऐसे अनन्त परमाणुओं के समुदाय की समिति के समागम से एक उच्छलक्ष्णश्लक्ष्णिका, श्लक्ष्णश्लक्षिणका, ऊर्वरेणु, त्रसरेणु, रथरेणु, बालाग्र, लिक्षा, यूका, यवमध्य और अंगुल होता है। आठ उच्छ्लक्ष्णश्लक्षिणका के मिलने से एक श्लक्ष्णश्लक्षिणका होती है । आठ इलक्ष्णश्लक्षिणका से एक ऊर्ध्वरेणु, आठ ऊर्ध्वरेणु से एक प्रसरेणु, आठ त्रसरेणु से एक रथरेणु और आठ रथरेणु से देवकुरु उत्तरकुरु के मनुष्यों का एक बालाग्र होता है। देवकुरु उत्तरकुरु के मनुष्यों के आठ बालानों से हरिवर्ष रम्यवर्ष के मनुष्यों का एक बालाग्र होता है । हरिवर्ष रम्यवर्ष के मनुष्यों के आठ बालानों से हेमवत ऐरावत के मनुष्यों का एक बालाग्र होता है । हमवत ऐरावत के मनुष्यों के आठ बालानों से पूर्व विदेह के मनुष्यों का एक बालाग्र होता है । पूर्व विदेह के मनुष्यों के आठ बालानों से एक लिक्षा (लोख), आठ लिक्षा से एक यूका (जू), आठ यूका से एक यवमध्य और आठ यवमध्य से एक अंगुल होता है । इस प्रकार के छह अंगुल का एक पाद (पैर), बारह अंगुल को एक वितस्ति (बेत), चौबीस अंगुल का एक हाथ, अड़तालीस अंगुल को एक कुक्षी, छियानवें अंगुल का एक दण्ड, धनुष, युग, नालिका, अक्ष अथवा मूसल होता है । दो हजार धनुष का एक गाऊ होता है। चार गाऊ का एक योजन होता है । इस योजन के परिमाण से एक योजन लम्बा एक योजन चौड़ा और एक योजन गहरा तिगुणी से अधिक परिधिवाला एक पल्य हो, उस पल्य में देवकुर उत्तरकुरु के मनुष्यों के एक दिन के उगे For Personal & Private Use Only Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ६ उ ७ उपमेय काल हुए, दो दिन के उगे हुए, तीन दिन के उगे हुए और अधिक से अधिक सात दिन . के उगे हुए करोडों बालाग्र ठूंस-ठूंस कर इस प्रकार भरा जाय कि उन बालानों को न अग्नि जला सके और न हवा उड़ा सके । एवं वे बालाग्र न दुर्गन्धित हों, न नष्ट हों और न सड़ सकें। इस तरह से भर दिया जाय। इसके बाद इस प्रकार बालाग्रों से ठसाठस भरे हुए उस पल्य में से सौ-सौ वर्ष में एक-एक बाला को निकाला जाय। इस क्रम से जितने काल में वह पल्य क्षीण हो, नीरज हो, निर्मल हो, निष्ठित हो, निर्लेप हो, अपहरित हो और विशुद्ध हो, उतने काल को एक 'पल्योपम काल' कहते हैं । सागरोपम के प्रमाण को बतलाने वाली गाथा का अर्थ इस प्रकार हैपत्योपम का जो प्रमाण ऊपर बतलाया गया है, वैसे दस कोटाकोटि पल्योपम का एक सागरोपम होता है । १०३९ एएणं सागरोवमपमाणेणं चत्तारि सागरोवमकोडाकोडीओ कालो सुसमसुसमा तिष्णि सागरोवम कोडाकोडीओ कालो सुसमा, दो सागरोवमकोडाकोडीओ कालो सुसमदुसमा, एगसागरोवमकोडाकोडी, बायालीसाए वाससहस्सेहिं ऊणिया कालो दुसमसुसमा; एक्कवीसं वाससहस्साई कालो दुसमा एकवीस वाससहस्सा इं कालो दुसमदुसमा, पुणरवि उस्सप्पिणीए एक्कवीस वाससहस्साई कालो दुसमदुसमा, एकवीसं वाससहस्साई, जाव - चत्तारि सागरो - कोडाकोडीओ कालो सुसमसुसमा दस सागरोवमकोडाकोडीओ कालो ओमप्पिणी, दस सागरोवमकोडाकोडीओ कालो उस्सप्पिणी, मागमको डाकोडीओ अवसप्पिणी, उस्मप्पिणी य । For Personal & Private Use Only Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४० भगवती सूत्र-श. ६ उ. ७ उपमेय काल भावार्थ-चार कोटाकोटि सागरोपम का एक 'सुषमसुषमा' आरा होता है। तीन कोटाकोटि सागरोपम का एक 'सुषमा' आरा होता है । दो कोटाकोटि सागरोपम का एक 'सुषमदुःषमा' आरा होता है । बयालीस हजार वर्ष कम एक कोटाकोटि सागरोपम का एक 'दुःषम-सुषमा' आरा होता है । इक्कीस हजार वर्ष का एक 'दुःषम' आरा होता है और इक्कीस हजार वर्ष का एक 'दुःषम-दुःषमा' आरा होता है । इसी प्रकार उत्सपिणी काल से इक्कीस हजार वर्ष का पहला दुःषमदुःषमा आरा होता है और इक्कीस हजार वर्ष का दूसरा दुःषम आरा होता है। बयालीस हजार वर्ष कम एक कोटाकोटि सागरोपम का तीसरा दुःषमसुषमा आरा होता है। दो कोटाकोटि सागरोपम का चौथा सुषमदुःषमा आरा होता है । तीन कोटाकोटि सागरोपम का पांचवां सुषमा आरा होता है । चार कोटाकोटि सागरोपम का छठा सुषमसुषमा आरा होता है । इस प्रकार बस कोटाकोटि सागरोपम का एक 'अवसर्पिणी काल' होता है और दस कोटाकोटि सागरोपम का एक 'उत्सपिणी काल' होता है। बीस कोटाकोटि सागरोपम का एक 'अबसपिणी उत्सपिणी काल चक्र' होता है। विवेचन-पहले प्रकरण में गणनीय काल का विवेचन किया गया है। अब इस प्रकरण में उपमेय काल का वर्णन करने के लिये परमाणु आदि का स्वरूप बतलाया जाता है। परमाणु से लेकर योजन तक का प्रमाण बतला कर फिर पल्यापम का स्वरूप बतलाया गया है। यहां जो पल्योपम का स्वरूप बतलाया गया है, वह व्यावहारिक अद्धा पल्योपम का स्वरूप समझना चाहिये । क्योंकि पल्योपम के तीन भेद कहे गये हैं । यथा-१ उद्धार पल्योपम, २ अद्धा पल्योपम और ३ क्षेत्र पल्योपम । १ उत्सेधांगुल परिमाण से एक योजन लम्बा, एक योजन चौड़ा और एक योजन गहरा गोलाकार कूप हो । उसमें देवकुरू उत्तरकुरू के युगलिया के मुण्डित मस्तक पर एक दिन के उगे हुए, दो दिन के उगे हुए, यावत् सात दिन के उगे हुए, करोड़ों बालानों से उस कप को ठूस ठूस कर इस प्रकार भरा जाय कि वे बालाग्र न आग से जल सकें और न हवा से उड़सकें। उनमें से प्रत्येक को एक एक समय में निकालते हुए जितने काल में वह कुओं सर्वथा खाली हो जाय, उस काल परिमाण को व्यावहारिक 'उद्धार पल्योपम' कहते हैं । यह पल्योपम संख्यात समय परिमाण होता है। For Personal & Private Use Only Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - -श. ६ उ ७ उपमेय काल २ उक्त बाला के असंख्यात अदृश्य खण्ड किये जाय, जो कि विशुद्ध नेत्र वाले प्रस्थ पुरुष के दृष्टिगोचर होने वाले सूक्ष्म पुद्गल द्रव्य के असंख्यातवें भाग एवं सूक्ष्म पनक (लीलण, फूलण ) शरीर से असंख्यात गुणा हो । उन सूक्ष्म बालाग्र खण्डों से वह - २०४१ कुआँ ठूंस-ठूंस कर भरा जाय और उनमें से प्रति समय एक एक बालाग्र खण्ड निकाला जाय । इस प्रकार निकालते निकालते जितने काल में वह कुआँ खाली हो जाय, उसे 'सूक्ष्म उद्धार पल्योपम' कहते हैं। इसमें संख्यात वर्ष कोटि परिमाण काल होता है । ३ उपर्युक्त रीति से भरे हुए उपरोक्त परिमाण के कूप में से एक एक बालाग्र सौसौ वर्ष में निकाला जाय इस प्रकार निकालते निकालते जितने काल में वह कुआँ सर्वथा खाली हो जाय, उस काल परिमाण को 'व्यवहार अद्धा पल्योपम' कहते हैं । यह अनेक संख्यात वर्ष कोटि प्रमाण होता है । यदि यही कूप उपर्युक्त सूक्ष्म वालाग्र खण्डों से भरा हुआ हो और उनमें से प्रत्येक बाला खण्ड, सौ सौ वर्ष में निकाला जाय। इस प्रकार निकालते निकालते वह कुआँ जितने काल में खाली हो जाय । वह 'सूक्ष्म अद्धा पल्योपम है। इसमें असंख्यात वर्ष कोटि परिमाण काल होता है । उपर्युक्त परिमाण का कूप उपर्युक्त रीति से बालायों से भरा हो उन बालायों से जो आकाश प्रदेश छुए हुए हैं, उन छुए हुए आकाश प्रदेशों में मे प्रत्येक को प्रति समय निकाला जाय। इस प्रकार छुए हुए सभी आकाश प्रदेशों को निकालने में जितना समय लगे, वह 'व्यवहार क्षेत्र पत्योपम' है। इसमें असंख्यात अवसर्पिणी उत्सर्पिणी परिमाण काल होता है। यदि यही कुआँ बालाय के सूक्ष्म खण्डों से ठूंस-ठूंस कर भरा हो। उन बालाय खण्डों से जो आकाश प्रदेश छुए हुए हैं और जो नहीं छुए हुए हैं । उन छुए हुए और नहीं छुए हुए सभी आकाश प्रदेशों में से प्रत्येक को एक एक समय में निकालते हुए सभी को निकालने में जितना काल लगे - वह 'सूक्ष्म क्षेत्र पत्योपम' । इसमें भी असंख्यात अवपण उत्सर्पिणी परिमाण काल होता है । परन्तु इसका काल व्यवहार क्षेत्रपल्योपम से असंख्यात गुणा जानना चाहिये । पल्योपम की तरह सागरोपम के भी तीन भेद हैं । यथा १ - उद्धार सागरोपम, २ अद्धा सागरोपम और ३ क्षेत्र सागरोपम । उद्धार सागरोपम के दो भेद हैं- व्यवहार और सूक्ष्म । दस कोडाकोड़ी व्यवहार उद्धार पल्योपम का एक व्यवहार उद्धार सागरोपम होता है। दस कोड़ाकोड़ी सूक्ष्म उद्धार For Personal & Private Use Only Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४२ भगवती सूत्र-श. ६ उ. ७ सुषमसुषमा काल पल्योपम का एक 'सूक्ष्म उद्धार सागरोपम' होता है। ढाई सूक्ष्म उद्धार सागरोपम या पच्चीस कोड़ाकोड़ी सूक्ष्म उद्धार पल्योपम में जितने समय होते हैं, उतने ही लोक में द्वीप और समुद्र हैं। अद्धा सागरोपम के भी दो भेद हैं-व्यवहार और सूक्ष्म । दस कोडाकोड़ी व्यवहार अद्धा पल्योपम का एक 'व्यवहार भद्धा सागरोपम' होता है। दस कोड़ाकोड़ी सूक्ष्म भद्धा पल्पोपम का एक 'सूक्ष्म अद्धा सागरोपम' होता है, जीवों की कर्म स्थिति, कायस्थिति और भवस्थिति और आरा का परिमाण सूक्ष्म अद्धा पल्योपम और सूक्ष्म अद्धासागरोपम से मापा जाता है। क्षेत्र सागरोपम के भी दो भेद हैं - व्यवहार और सूक्ष्म । दस कोड़ाकोड़ी व्यवहार क्षत्र पल्योपम का एक 'व्यवहार क्षेत्र सागरोपम' होता है । दस कोडाकोड़ी सूक्ष्म क्षेत्र पल्योपम का एक 'सूक्ष्म क्षेत्र सागरोपम' होता है । सूक्ष्म क्षेत्र पल्योपम से और सूक्ष्म क्षेत्र सागरोपम से दृष्टि वाद में द्रव्य मापे जाते हैं । सुषमसुषमा काल ७ प्रश्न-जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे इमीसे उस्सप्पिणीए सुसमसुसमाए समाए उत्तमट्ठपत्ताए, भरहस्स वासस्स केरिसए आयारभावपडोयारे होत्था ? ___७ उत्तर-गोयमा ! बहुसमरमणिजे भूमिभागे होत्था, से जहा णामए आलिंगपुक्खरे इ वा, एवं उत्तरकुरुवत्तव्वया णेयव्वा जावआसयंति, सयंति; तीसे णं समाए भारहे वासे तत्थ तत्थ देसे देसे तहिं तहिं बहवे उद्दाला कुद्दाला, जाव-कुसविकुसविसुद्धरुक्खमूला, जाव-छविहा मणुस्सा अणुसजित्या । तं जहा-पम्हगंधा, मिय. For Personal & Private Use Only Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ६ उ. ७ सुषमसुषमा काल १०४३ गंधा, अममा, तेयली, सहा, सर्णिचारी। ॐ सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति । ॐ ॥ छट्ठसए सत्तमो उद्देसो सम्मत्तो॥ कठिन शब्दार्थ--उत्तमट्ठपत्ताए-उत्तम अर्थ को प्राप्त, आयारभावपडोयारेआकार मात्र प्रत्यवतार-आविर्भाव, आलिंगपुक्खरे--आलिंग पुष्कर-तबले के मुख के पट के समान, आसयंति--बैठते हैं, सयंति-सोते हैं, उद्दाला-वृक्ष विशेष, अणुसज्जित्थापूर्वकाल से चला आया हुआ। भावार्थ-७. प्रश्न-हे भगवन् ! इस जम्बूद्वीप नामक द्वीप में उत्तमार्थ प्राप्त इस अवसर्पिणी काल में सुषमसुषमा नामक आरे में भरतक्षेत्र के किस प्रकार के आकार भाव प्रत्यवतार अर्थात् आकारों का और पदार्थों का आविर्भाव था? ७ उत्तर-हे गौतम ! भमिभाग बहुत सम होने से अत्यन्त रमणीय था। जैसे कि-मरज अर्थात् तबले का मुखपट हो वैसा बहुसम भरतक्षेत्र का भूमि भाग था। इस प्रकार उस समय के भरतक्षेत्र के लिए उत्तरकुरू की वक्तव्यता के समान वक्तव्यता कहनी चाहिए, यावत् बैठते हैं, सोते हैं। उस काल में भरतक्षेत्र के उन उन देशों के उन उन स्थलों में उद्दालक यावत् कुश और विकुश से विशुद्ध वृक्षमूल थे, यावत् छह प्रकार के मनुष्य थे। यथा-१ पम गन्ध-पद्म के समान गन्ध वाले, २ मृग गन्ध-कस्तूरी के समान गन्ध वाले, ३ अमस-ममत्व रहित, ४ तेजस्तलो अर्थात् तेजस्वी और रूपवान्, ५ सहा-सहनशील, ६ शनैश्चर अर्थात् उत्सुकता रहित होने से मन्द मन्द (धीरे धीरे) गति करने वाले-गज गति वाले। इस तरह छह प्रकार के मनुष्य थे। - हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। ऐसा कहकर यावत् गौतमस्वामी विचरते हैं। For Personal & Private Use Only Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ६ उ ८ पृथ्वियों के नीचे ग्रामादि नहीं है विवेचन-- काल का अधिकार चलता है इसलिए अब फिर काल के विषय में ही कहा जाता है - इस अवसर्पिणी काल में सुषमसुषमा नामक पहले आरे के समय इस भरतक्षेत्र के कैसे भाव थे ? इसके उत्तर में जीवाभिगम सूत्र में कही गई उत्तरकुरू की वक्तव्यता की भलामण दी गई है। उसके अनुसार यहाँ भी कथन करना चाहिए। उस समय वहाँ का भूमिभाग बड़ा समतल था। उद्दालक आदि वृक्ष थे, यावत् पद्म और कस्तूरी के समान गन्ध वाले मनुष्य थे । वे ममत्व रहित थे, बड़े तेजस्वी और रूपवान् थे । वे बड़े सहनशील । उतावल और किसी प्रकार की उत्सुकता न होने से वे हाथी के समान धीरे-धीरे गम्भीर गति वाले थे । इत्यादि सारा वर्णन जीवाभिगम सूत्र की दूसरी प्रतिपत्ति में वर्णित उत्तरकुरू वर्णन के समान जान लेना चाहिए । ॥ इति छठे शतक का सातवां उद्देशक समाप्त || १०४४ शतक उद्देशक ६ पृथ्वियों के नीचे ग्रामादि नहीं है १ प्रश्न - क णं भंते! पुढवीओ पण्णत्ताओ ? १ उत्तर - गोयमा ! अट्ट पुढवीओ पण्णत्ताओ, तं जहा - रयणप्पभा, जाव - ईसिप भारा । २ प्रश्न - अस्थि णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए अहे गेहा इवा, गेहावणा इ वा ? For Personal & Private Use Only Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ६ उ. ८ पृस्चियों के नीचे ग्रामादि नहीं है १०४५ २ उत्तर-गोयमा ! णो इणटे समटे । ३ प्रश्न-अस्थि णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए अहे गामा इ वा, जाव-सण्णिवेसा इ वा ? . ३ उत्तर-णो इणटे समढे। . ., ४ प्रश्न-अस्थि णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए अहे उराला बलाहया संप्तेयंति, संमुच्छंति, वासं वासंति ? ४ उत्तर-हंता, अस्थि । तिण्णि वि पकरेइ, देवो वि पकरेइ, असुरो वि पकरेइ, णागो वि पकरेइ ।। ५ प्रश्न-अस्थि णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए बायर थणियसद्दे ? ५ उत्तर-हंता अत्थि, तिण्णि वि पकरेंति। ६ प्रश्न-अस्थि णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए अहे बायरे अगणिकाए ? ६ उत्तर-गोयमा ! णो इणटे समढे, णण्णत्य विग्गहगइसमा. वण्णएणं। ७ प्रश्न-अस्थि णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए अहे. चंदिम, जाव-तारारूवा ? ७ उत्तर-णो इणटे समटे । ८ प्रश्न-अस्थि णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए चंदाभा For Personal & Private Use Only Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४६ • भगवती सूत्र - य. ६ उ. ८ पृथ्वियों के नीचे ग्रामादि नहीं हैं। इवा, सूराभा इ वा ? ८ उत्तर - गो इट्टे समट्टे, एवं दोच्चार पुढवीए भाणियव्वं, एवं तच्चाए वि भाणियव्वं, नवरं - देवो वि पकरेइ, असुरो विपकरेs, णो णागो पकरेइ । चउत्थीए वि एवं णवरं - देवो एक्को पकरेs, णो असुरो, णो णागो पकरेह, एवं हेट्टिल्लासु सव्वासु देवो एक्को पकड़ | कठिन शब्दार्थ - ईसीप भारा- ईषत्प्राग्भारा, अहे - अधः-नीचे, अस्थि-अस्तित्व । भावार्थ - १ प्रश्न - हे भगवन् ! कितनी पृथ्वियां कही गई हैं ? १ उत्तर - हे गौतम! आठ पृथ्वियाँ कही गई हैं। यथा-१ रत्नप्रभा, २ शर्कराप्रभा, ३ बालुकाप्रभा, ४ पङ्कप्रभा, ५ धूमप्रभा, ६ तमः प्रभा ७ महातमः प्रभा और ईषत्प्राग्भारा । २ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या रत्नप्रभा पृथ्वी के नीचे गृह (घर) या गृहापण ( दूकाने ) हैं ? २ उत्तर - हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं हैं । अर्थात् इस रत्नप्रभा पृथ्वी के नीचे गृह या गृहापण नहीं हैं । ३ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या इस रत्नप्रभा पृथ्वी के नीचे ग्राम यावत् सन्निवेश हैं ? ३ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । इस रत्नप्रभा पृथ्वी के नीचे ग्राम यावत् सन्निवेश नहीं है । ४ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या इस रत्नप्रभा पृथ्वी के नीचे महामेध संस्वेद को प्राप्त होते हैं, सम्मूच्छित होते हैं और वर्षा बरसाते हैं ? ४ उत्तर - हाँ गौतम ! महामेघ संस्वेद को प्राप्त होते हैं, सम्मूच्छित होते हैं और वर्षा बरसाते हैं । यह सब कार्य देव भी करते हैं, असुरकुमार भी For Personal & Private Use Only Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - ६ उ ८ देवलोकों के नीचे करते हैं और नागकुमार भी करते हैं । ५ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या इस रत्नप्रभा पृथ्वी के नीचे बादर स्तनित शब्द है ? १०४७ ५ उत्तर - हां, गौतम ! है । इसको देव आदि तीनों करते हैं । क्या इस रत्नप्रभा पृथ्वी के नीचे बावर अग्नि ६ प्रश्न - हे भगवन् ! काय है ? ६ उत्तर - हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। यह निषेध विग्रह गति समापन्न जीवों के सिवाय दूसरे जीवों के लिए समझना चाहिए । i ७ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या इस रत्नप्रभा पृथ्वी के नीचे चन्द्र, नक्षत्र और तारारूप हैं ? सूर्य, ग्रह, ७ उत्तर - हे गौतम! यह अर्थ समर्थ नहीं है । ८ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या इस रत्नप्रभा पृथ्वी के नीचे चन्द्राभा चन्द्र का प्रकाश) या सूर्याभा ( सूर्य का प्रकाश) है ? ८ उत्तर - हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । इसी प्रकार दूसरी पृथ्वी के लिए भी कहना चाहिए । इसी तरह तीसरी पृथ्वी के लिये भी कहना चाहिए, किन्तु इतनी विशेषता है कि वहाँ देव भी करते हैं, असुर भी करते हैं, किन्तु नागकुमार नहीं करते हैं । इसी तरह चौथी पृथ्वी के लिये भी कहना चाहिये, किन्तु इतनी विशेषता है कि वहाँ केवल देव ही करते हैं, किन्तु असुरकुमार और नागकुमार दोनों नहीं करते हैं। इस प्रकार शेष सब नीचे की पृथ्वियों में केवल देव ही करते हैं, किन्तु असुरकुमार और नागकुमार दोनों नहीं करते हैं । देवलोकों के नीचे ९ प्रश्न - अस्थि णं भंते ! सोहम्मी-साणाणं कप्पाणं अहे गेहा इवा हावणा हवा ? For Personal & Private Use Only Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४८ भगवती सूत्र-श. ६ उ. ८ देवलोकों के नीचे ९ उत्तर-णो इणटे समटे । १० प्रश्न-अस्थि णं भंते ! उराला बलाहया ? १० उत्तर-हंता, अस्थि । देवो पकरेइ, असुरो वि पकरेइ, णो णागो पकरेइ, एवं थणियसद्दे वि । ११ प्रश्न-अस्थि णं भंते ! बायरे पुढवीकाए, बायरे अगणिकाए ? ११ उत्तर-णो इणटे समढे, णण्णत्थ विग्गहगइसमावण्णएणं । १२ प्रश्न-अस्थि णं भंते ! चंदिम-० ? १२ उत्तर-णो इणढे समझे। १३ प्रश्न-अस्थि णं भंते ! गामा इ वा ? १३ उत्तर-णो इणढे समढे । १४ प्रश्न-अस्थि णं भंते ! चंदाभा इ वा ? १४ उत्तर-गोयमा ! णो इणटे समटे, एवं सणंकुमारमाहिदेसु, णवरं-देवो एगो पकरेइ; एवं बंभलोए वि, एवं बंभलोगस्स उवरि सव्वेहिं देवो पकरेइ; पुच्छियव्यो य बायरे आउकाए, बायरे अगणिकाए, बायरे वणस्सइकाए; अण्णं तं चेव । गाहा-तमुक्काए कप्पपणए अगणि-पुढवी य अगणि पुढवीसु, आऊ तेऊ वणस्सई कप्पुवरिमकण्हराईसु । कठिन शब्दार्थ-एगो-अकेला, उवरि- ऊपर । For Personal & Private Use Only Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . भगवती सूत्र-श. ६ उ. ८ देवलोकों के नीचे भावार्थ-९ प्रश्न-हे भगवन ! क्या सौधर्म देवलोक और ईशान देवलोक के नीचे गृह या गृहापण हैं ? ९ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। अर्थात् वहाँ गृह और गृहापण नहीं हैं। १० प्रश्न-हे भगवन् ! क्या सौधर्म देवलोक और ईशान देवलोक के नीचे महामेघ हैं ? १० उत्तर-हाँ, गौतम ! महामेघ हैं। उनको देव भी करते हैं, असुरकुमार भी करते हैं किन्तु नागकुमार नहीं करते हैं । इसी तरह स्तनित शब्द के लिए भी कहना चाहिए। ११ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या वहाँ (सौधर्म देवलोक और ईशान देवलोक के नीचे) बादर पृथ्वीकाय और बादर अग्निकाय है ? ११ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । यह निषेध विग्रहगति समापन्न जीवों के सिवाय दूसरे जीवों के लिए जानना चाहिए। १२ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या वहाँ चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और तारा १२ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। १३ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या वहाँ प्रामादि हैं ? १३ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। १४ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या वहां चन्द्रामा और सूर्यामा है ? १४ उत्तर-हे गौतम! यह अर्थ समर्थ नहीं है । इसी प्रकार सनत्कुमार और माहेन्द्र देवलोक के नीचे कहना चाहिए, किन्तु इतनी विशेषता है कि वहां केवल देव ही करते हैं । इसी प्रकार ब्रह्मदेवलोक और ब्रह्मदेवलोक से ऊपर सब जगह देव करते हैं । सब जगह बादर अप्काय, बादर अग्निकाय और बादर वनस्पति. काय के विषय में प्रश्न करना चाहिए। शेष सब पहले की तरह कहना चाहिए। गाथा का अर्थ इस प्रकार है-तमस्काय में और पांच देवलोकों तक में अग्निकाय और पृथ्वीकाय के सम्बन्ध में प्रश्न करना चाहिए । रत्नप्रभा आदि For Personal & Private Use Only Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'भगवती सूत्र-श. ६ उ. ८ देवलोकों के नीचे पृथ्वियों में अग्निकाय के सम्बन्ध में प्रश्न करना चाहिए । पांचवें देवलोक से ऊपर सब स्थानों में तथा कृष्णराजियों में अप्काय, ते उकाय और वनस्पतिकाय के सम्बन्ध में प्रश्न करना चाहिये। विवेचन-सातवे उद्दशक के अन्त में भरत क्षत्र का वर्णन किया गया है । अब इम आठवें उद्देशक के प्रारम्भ में रत्नप्रभा आदि पश्वियों का वर्णन किया जाता है। रत्नप्रभा आदि सात पृथ्वियाँ नीचे हैं और ईषत्प्रागभारा पथ्वी ऊपर है । रत्नप्रभा आदि पवियों के नीचे बादर पृथ्वीकाय और बादर अग्निकाय नहीं है । किन्तु वहां घनोदधि आदि होने से अप्काय, वायुकाय और वनस्पतिकाय है । दूसरी नारकी लक महामेघ, स्तनित शब्द आदि को देव, असुर और नाग तीनों करते हैं, किन्तु तीमरी पृथ्वी के नीचे देव और असुर कुमार ही करते हैं, नागकुमार नहीं करते हैं। इससे ज्ञात होता है कि दूसरी पृथ्वी की सीमा में आग नागकुमार नहीं जाते हैं । चौथी पृथ्वी के नीचे केवल दव हा करते है। इससे ज्ञात होता है कि तीसरी पृथ्वी की सीमा से आगे अमुरकुमार नहीं जा सकते । ऊपर मोधर्म देवलोक और ईशान देवलोक के नीचे तो चमरेन्द्र की तरह अमरकुमार जान हैं, किन्तु नागकुमार नहीं जा सकते । सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्मलोक और आग सब जगह केवल देव करते हैं । क्योंकि सौधर्म और ईशान देवलोक मे आगे असुरकुमार भी नहीं जाते हैं । यहाँ बादर पृथ्वीकाय नहीं है। क्योंकि वहाँ उसका स्वस्थान नहीं होने से उत्पत्ति भी नही है। बादर अकाय, वायुकाय और वनस्पतिकाय का मभाव है क्योंकि सौधर्म और ईशान देवलोक उदधि प्रतिष्ठित है, इसलिये वहाँ अप्काय और वनस्पतिकाय का होना सम्भव है और वायकाय तो सभी जगह है । इस तरह मनत्कुमार ओर माहेन्द्र में भी तमम्काय होने से वादर अप्काय और बादर वनस्पतिकाय का सद्भाव सुसंगत है । बारहवें अच्युत देवलोक तक मेघादि को देव करते हैं । इससे आगे देव की जाने की शक्ति नहीं है और मेघ आदि का भी सद्भाव नहीं है। संग्रह गाथा द्वारा संक्षिप्त में यह बतला दिया गया है कि तमस्काय में और पांचवें देवलोक तक बादर अग्निकाय और बादर पृथ्वीकाय का निषध है । शष तीन का सद्भाव है । बारहवें देवलोक तक इसी तरह जान लेना चाहिये । सातों पृथ्वियों के नीचे बादर अग्नि कायादि का निषेध है । पांचवें देवलोक से ऊपर के स्थानों में तथा कृष्णराजियों में भी बादर अप्काय, ते उकाय और वनस्पति काय का निषेध है, क्योंकि उनके नीचे वायुकाय, का ही सद्भाव है। For Personal & Private Use Only Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ६ उ. ८ आयुष्य का बन्ध १०५ आयुष्य का बन्ध १५ प्रश्न-कइविहे णं भंते ! आउयबंधे पण्णत्ते ? १५ उत्तर-गोयमा ! छविहें आउयबंधे पण्णत्ते, तं जहाजाइणामणिहत्ताउए, गइणामणिहत्ताउए, ठिइणामणिहत्ताउए, ओगाहणाणामणिहत्ताउए, पएसणामणिहत्ताउए, अणुभागणामणिहत्ताउए; दंडओ जाव-वेमाणियाणं । १६ प्रश्न-जीवा णं भंते ! किं जाइणामणिहत्ता जाव-अणुभागणामणिहत्ता ? ____ १६ उत्तर-गोयमा ! जाइणामणिहत्ता वि, जाव-अणुभागणामणिहत्ता वि, दंडओ जाव-वेमाणियाणं । १७ प्रश्न-जीवा णं भंते ! किं जाइणामणिहत्ताउया, जाव- . अणुभागणामणिहत्ताउया ? १७ उत्तर-गोयमा ! जाइणामणिहत्ताउया वि, जाव-अणुभागणामणिहत्ताउया वि; दंडओ जाव-वेमाणियाणं; एवं एए दुवालस दंडगा भाणियव्वा । ____ १८ प्रश्न-जीवाणं भंते ! किं १ जाइणामणिहत्ता, २ जाइणामणिहत्ताउया; जीवा णं भंते ! किं ३ जाइणामणिउत्ता, ४ जाइ. णामणिउत्ताउया; ५ जाइगोयणिहत्ता, ६ जाइगोयणिहत्ताउया For Personal & Private Use Only Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०५२ भगवती सूत्र-श. ६ उ. ८. आयुष्य का बन्ध ७ जाइगोयणिउत्ता, ८ जाइगोयणिउत्ताउया; ९ जाइणामगोय. णिहत्ता, १० जाइणामगोयणिहत्ताउया; ११ जाइणामगोयणिउत्ता, जीवा णं भंते ! किं १२ जाइणामगोयणिउत्ताउया; जाव-अणुभागः णामगोयणिउत्ताउया ? ____१८ उत्तर-गोयमा ! जाइणामगोयगिउत्ताउया वि, जाव. अणुभागणामगोयणिउत्ताउया वि; दंडओ जाव-वेमाणियाणं । ___ कठिन शब्दार्थ--आउयबंधे--आयुष्य बन्ध, जाइणामणिहत्ताउए--एकेंद्रियादि जाति के साथ आयु का निधत्त-निषेकित करना-बांधना, अणुभागणामणिहत्ताउए-- अनुपाक-विपाक - फल भोग रूप कर्म को आयु के साथ बांधना। ___ भावार्थ-१५ प्रश्न-हे भगवन् ! आयुष्य बन्ध कितने प्रकार का कहा गया है ? १५ उत्तर-हे गौतम ! आयुष्य बन्ध छह प्रकार का कहा गया है। यथा---१ जाति नाम-निधत्ताय. २ गतिनामनिधत्तायु, ३ स्थितिनामनिधत्तायु, . ४ अवगाहनानामनिधत्ताय, ५ प्रदेशनामनिधतायु और ६ अनुभागनामनिधताय । यावत् वैमानिकों तक दण्डक कहना चाहिए। १६ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या जीव, जाति-नाम-निधत हैं ? यावत् अनुभाग-नाम-निधत्त हैं ? १६ उत्तर-हे गौतम ! जीव जातिनामनिधत्त भी हैं, यावत् अनुभागनामनिधत भी हैं । यह दण्डक यावत् वैमानिक देवों तक कहना चाहिए। १७ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या जीव, जातिनामनिधत्तायु हैं, यावत् अनुभागनामनिधत्ताय हैं ? - १७ उत्तर-हे गौतम ! जीव, जातिनामनिधत्तायु भी हैं, यावत् अनुभागनामनिधत्तायु भी हैं। यह दण्डक, यावत् वैमानिकों तक कहना चाहिये। इस प्रकार ये बारह रण्डक हुए। For Personal & Private Use Only Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ६ उ. ८ आयुष्य का बन्ध. . १०५३ १८ प्रश्न-हे भगवन ! क्या जीव, जातिनामनिधत्त हैं ? जातिनामनिधतायु है ? जातिनामनियुक्त हैं ? जातिनामनियुक्तायु हैं ? जातिगोत्रनिधत्त हैं ? जातिगोत्रनिधतायु हैं ? जातिगोत्रनियुक्त हैं ? जातिगोत्रनियक्तायु हैं ? जातिनामगोत्रनिधत हैं ? जातिनाम्गोत्रनिधत्तायु हैं ? जातिनामगोत्रनियुक्त है ? जातिनामगोत्रनियुक्तायु हैं ? यावत् अनुभागनामगोत्रनियुक्ताय हैं ? १८ उत्तर-हे गौतम ! जीव, जातिनामनिधत्त भी हैं । यावत् अनुभागनामगोत्रनियुक्तायु भी हैं । यह दण्डक यावत् वैमानिकों तक कहना चाहिये । विवेचन-पहले प्रकरण में बादर अप्काय आदि का वर्णन किया गया है। वे आयुष्य का बन्ध हाने पर ही हो सकते हैं । इसलिये अब आयुष्य के बन्ध के विषय में कहा जाता है-जाति का अर्थ है एकेद्रिय आदि पाँच प्रकार की जाति। तदरूप जो नाम उसे 'जातिनाम' कहते हैं । अर्थात् जातिनाम-यह एक नाम कर्म की उत्तर प्रकृति है । अथवा जीव का एक प्रकार का परिणाम है । उसके साथ निधन (निषिक्त-निषक को प्राप्त) जी आयु, उसे जातिनामनिधत्ताय कहते हैं। प्रतिसमय अनभव में आने के लिये कम पूदगलों की जो रचना होती है. उस 'निषेक' कहते हैं । नरयिक आदि चार प्रकार की गति' कहलाती है । अमुक भव में विवक्षित ममय तक जीव का रहना 'स्थिति' कहलाती है। इस रूप आयु को क्रमशः 'गनिनामनिधत्तायु' और स्थितिनामनिधनायु' कहते है । अथवा इस सूत्र में जातिनाम, गति नाम और अवगाहना नाम का ग्रहण करने में केवल जाति, गति और अवगाहना रूप प्रकृति का कथन किया गया है । स्थिति, प्रदेश और अनुभाग का ग्रहण होने से पूर्वोक्त प्रकृतियों की स्थिति आदि कही गई है। वह स्थिति जात्यादि नाम सम्बन्धित होने से नाम कर्म रूप ही कहलाती है। इसलिय यहाँ सब जगह 'नाम' का अय 'कर्म' घटित होता है । अर्थात् स्थिति रूप नाम कर्म जो हो, वह स्थितिनाम । उसके साथ जो निधत्तायु, उसे 'स्थिति-नामनिधुत्तायु' कहते हैं। जीव, जिसमें अवगाहित होता है-रहता है, उसे अवगाहना कहते हैं अर्थात् औदारिक आदि शरीर । उसका नाम अर्थात् अवगाहना नाम । अथवा अवगाहना रूप जो नाम (परिणाम) वह अवगाहना नाम । उसके साथ निधत्तायु 'अवगाहना-नामनिधत्तायु' कहलाती है। प्रदेशों का अथवा आयुष्य कर्म के द्रव्यों का उस प्रकार का नाम (परिणमन) वह प्रदेशनाम अथवा प्रदेश रूप जो कि एक प्रकार का नाम कर्म वह प्रदेशनाम, उसके साथ निधत्तायु प्रदेशनाम-निधतायु' कहलाती है । अनुभाग अर्थात् आयुष्य कर्म के द्रव्यों का विपाक तद्प जो नाम (परिणाम) वह अनुभाग-नाम' अथवा अनुभाग For Personal & Private Use Only Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-श. ६ उ. ८ आयुष्य का बन्ध . . . . रूप जो नाम कर्म है. वह अनुभागनाम, उसके साथ निधत्त जो आयु वह 'अनुभागनामनिधताय' कहलाती है। शंका-यहाँ आयुष्य को जात्यादि नाम कर्म द्वारा क्यो विशेषित किया है ? समाधान-आयष्य की प्रधानता बतलाने के लिये आयुष्य को विशेष्य रखा गया है .. और जाति आदि नाम को विशेषण रूप से प्रयुक्त किया है । यहाँ आयुष्य की प्रधानता बतलाने का कारण यह है कि जब नरकादि आयुष्य का उदय होता है, तभी जात्यादि नाम कर्म का उदय होता है । अकेला आयु-कर्म ही नैयिकादि का भवोपग्राहक हैं। इसी बात को इसी शास्त्र में पहले इस प्रकार बतलाया गया है-- "हे भगवन् ! क्या नैरयिक जीव, . . नैरयिकों में उत्पन्न होता है अथवा अनैरयिक जीव, नैरयिको में उत्पन्न होता है ? उत्तरहे गातम ! नैरयिक जीव ही नैरयिकों में उत्पन्न होता है, किन्तु अनरयिक जीव, नैरयिकों में उत्पन्न नहीं होता।" इसका तात्पर्य यह है कि नैरयिक सम्बन्धी आयुष्य के समवेदन के प्रथम समय में ही समवेदन करने वाला वह जीव, जो कि अभी नरक में पहुँचा नहीं है, किन्तु नरक में जाने के लिये विग्रह गति में चल रहा है, वह नैरयिक कहलाता है । इस समवेदन के समय ही नैरयिक आयुष्य के सहचर पञ्चेन्द्रिय जात्यादि नाम कर्मों का भी उदय हो जाता है । यहाँ मूल में प्रश्न कार ने यद्यपि आयुष्य बन्ध के छह प्रकारों के विषय में पूछा है, तथापि उत्तरकार ने आयुष्य के छह प्रकार बतलाय हैं। इसका कारण यह है कि आयुष्य और बन्ध इन दोनों में अव्यतिरेक-अभेद है, इसलिये इन दोनों में यहाँ भेद की कल्पना नहीं की है। क्योंकि जो बन्धा हुआ हो, वही 'आयुष्य,' इस व्यवहार से व्यवहृत होता है । अतएव आयुष्य शब्द के साथ बन्ध शब्द का भाव सम्मिलित है। 'हे भगवन् ! नरयिकों में कितने प्रकार का आयुबन्ध कहा गया है' ? इस प्रकार. नैरयिकों से लेकर वैमानिक पर्यन्त चौबीम ही दण्डकों का कथन करना चाहिये । यहां एक प्रकार के कर्म का प्रकरण चल रहा हैं । इसलिये कर्म से विशेषित जीवादि पदों के बारह दण्डक कहे गये हैं । १ जिन जीवों ने जातिनाम निषिक्त किया है अथवा विशिष्ट बन्धवाला किया है, वे जीव 'जाति-नाम-निधत्त' कहलाते हैं। इसी प्रकार गति-नाम-निधत्त, स्थिति-नाम-निधत्त अवगाहना-नाम-निधत्त, प्रदेश-नाम-निधत्त और अनुभाग-नाम-निधत्त, इन सबकी व्याख्या भी जान लेनी नाहिये । विशेषता यह है कि जात्यादि नामों की जो स्थिति, जो प्रदेश तथा जो अनुभाग हैं, वे स्थित्यादि नाम अवगाहना नाम और शरीर नाम, यह एक दण्डक वैमानिकों तक जान लेना चाहिये । For Personal & Private Use Only Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-श. ६ उ. ८ आयध्य का बन्ध : १०५५ २ जिन जीवों ने जाति नाम के साथ आयुष्य को निधत्त किया है, वे जातिनाम:निधत्तायु' कहलाते हैं । इसी तरह दूसरे पदों का अर्थ भी जान लेना चाहिये । यह दूसरा दण्डक है । इसी प्रकार ये बारह दण्डक होते हैं । ३ जातिनामनियुक्त-यह तीसरा दण्डक है । इसका अर्थ यह है कि जिन जीवों ने जातिनाम को नियुक्त (सम्बद्ध-निकाचित किया है अथवा घेदन प्रारंभ किया है, वे 'जातिनाम-नियुक्त' कहलाते हैं । इसी प्रकार दूसरे पदों का भी अर्थ जान लेना चाहिये। ४ जाति-नाम नियुक्त-आयु-यह चौथा दण्डक है। इसका अर्थ है कि जिन जीवों ने जातिनाम के साथ आयुष्य नियुक्त (सम्बद्ध-निकाचित) किया है अथवा उसका वेदन प्रारम्भ किया है, वे 'जातिनामनियुक्तायु' कहलाते हैं। इसी प्रकार दूसरे पदों का अर्थ भी जान लेना चाहिये। ५ 'जाति-गोत्र-निधत्त'-यह पांचवां दण्डक है । इसका अर्थ यह है कि जिन जीवों ने एकेन्द्रिय आदि रूपं जाति और गोत्र अर्थात् एकेन्द्रिय आदि जाति के योग्य नीचगोत्र आदि को निधत्त किया है, वे 'जातिगोत्रनिधत्त' कहलाते हैं । इसी प्रकार दूसरे पदों का भी अर्थ जान लेना चाहिये। ६ 'जातिगोत्रनिधत्तायु'- यह छठा दण्डक है । इसका अर्थ है जिन जीवों ने जाति और गोत्र के साथ आयष्य को निधत्त किया है, वे 'जातिगोत्र-निधत्तायु' कहलाते हैं । इसी तरह अन्य पदों का भी अर्थ जानलेना चाहिये । ७ 'जाति गोत्र नियुक्त'-यह सातवाँ दण्डक है। जिन जीवों ने जाति और गोत्र को नियुक्त किया है, वे 'जातिगोत्र-नियुक्त' कहलाते हैं । इसी तरह दूसरे पदों का भी अर्थ जान लेना चाहिये। ८ “जातिगोत्र-नियुक्तायु"- यह आठवां दण्डक है। जिन जीवों ने जाति और गोत्र के साथ आयुष्य को नियुक्त कर लिया है, वे 'जातिगांत्रनियुक्तायु' कहलाते हैं । इसी तरह दूसरे पदों का भी अर्थ जान लेना चाहिये। ९ "जातिनाम-गोत्र-निधत्त"-यह नौवां दण्डक है । जिन जीवों ने जाति, नाम और गोत्र को निधत्त किया है, वे 'जातिनामगोत्रनिधत्त' कहलाते हैं । इसी तरह दूसरे पदों का अर्थ भो जान लेना चाहिये .! १० "जातिनामगोत्र-निधत्तायु"-यह दसवां दण्डक है । जिन जीवों ने जाति, नाम और गोत्र के साथ आयुष्य को निधत किया है, वे 'जातिनामगोत्र-निधत्तायु' कहलाते हैं। For Personal & Private Use Only Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०५६ भगवती सूत्र-श. ६ उ. ८ असंख्य द्वीप समुद्र इसी तरह दूसरे पदों का भी अर्थ जान लेना चाहिये। ११ "जातिनामगोत्रनियुक्त"-यह ग्यारहवां दण्डक है। जिन जीवों ने जाति नाम और गोत्र को नियुक्त किया है, वे 'जाति-नाम-गोत्र-नियुक्त' कहलाते हैं । इसी तरह दूसरे पदों का अर्थ भी जान लेना चाहिये । १२ “जातिनामगोत्र-नियुवतायु"-यह बारहवां दण्डक है। जिन जीवों ने जाति. नाम और गोत्र के साथ आयुष्य को नियुक्त किया है, वे "जाति-नाम-गोत्र-नियुक्तायु" कहलाते हैं । इसी प्रकार दूसरे पदों का अर्थ भी जान लेना चाहिये । . यहाँ पर जात्यादि नाम और गोत्र का तथा आयुष्य का भवोपग्रह में प्रधानता बतलाने के लिये यथायोग्य जीवों को विशेषित किया गया है। किन्ही किन्हीं प्रतियों में तो आठ दण्डक ही पाये जाते हैं । असंख्य द्वीप समुद्र १९ प्रश्न-लवणे णं भंते ! समुद्दे किं उसिओदए, पत्थडोदए, खुब्भियजले, अखुब्भियजले ? १९ उत्तर-गोयमा ! लवणे णं समुद्दे उसिओदए, णो पत्थडोदए, खुब्भियजले, णो अखुब्भियजले; एत्तो आढत्तं जहा जीवाभिगमे; जाव-से तेणगोयमा ! बाहिरिया णं दीव-समुद्दा पुण्णा, पुण्णप्पमाणा, वोलट्टमाणा, वोसट्टमाणा, समभरघडताए चिटुंति; संठाणओ एगविहिविहाणा, वित्थारओ अणेगविहिविहाणा; दुगुणा, दुगुणप्पमाणाओ, जाव-अस्सि तिरियलोए असंखेजा दीव-समुद्दा सयंभूरमणपजवसाणा पण्णत्ता समणाउसो !। २० प्रश्न-दीव-समुद्दा णं भंते ! केवइया णामधेनेहिं पण्णता ? For Personal & Private Use Only Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ६ उ. ८ असख्य द्वीप समुद्र १०५७ २० उत्तर-गोयमा ! जावइया लोए सुभा णामा, सुभा रूवा, सुभा गंधा, सुभा रसा, सुभा फासा एवइया णं दीवसमुद्दा णामधेजेहिं पण्णता, एवं णेयव्वा सुभा णामा, उद्धारो, परिणामो सव्वजीवाणं । 8 सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति* ॥ छट्ठसए अट्ठमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ कठिन शब्दार्थ--उसिओदए--उच्छितोदक-उछलते हुए पानी वाला, पत्थडोदएप्रस्तृतोदक-सम जल वाला, खुभियजले--क्षुब्ध जल वाला, अखुब्भियजले-अक्षुब्ध जल वाला, आढत्तं--प्रारम्भ करके, पुण्णा-पूर्ण, वोलट्टमाणा-वोलट्टमान, बोसट्टमाणाछलकते हुए, पज्जवसाणा-पर्यवसान-अंत। भावार्थ-१९ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या लवण समुद्र उच्छ्रितोदक (उछलते हुए जल वाला) है, या प्रस्तृतोदक (सम जल वाला) है, या क्षब्ध जल वाला है, अथवा अक्षुब्ध जल वाला है ? १९ उत्तर-हे गौतम ! लवणसमुद्र उच्छितोदक अर्थात् उछलते हुए जल वाला है, किन्तु प्रस्तृतोदक-सम जल वाला नहीं है। क्षुब्ध जल वाला है, किन्तु अक्षुब्ध जल वाला नहीं है। यहां से प्रारम्भ करके जिस प्रकार जीवाभिगम सूत्र में कहा है, उसी प्रकार से जान लेना चाहिए, यावत् इस कारण हे गौतम ! बाहर के समुद्र पूर्ण, पूर्ण प्रमाण वाले, छलाछल भरे हुए, छलकते हुए और समभर घट रूप से अर्थात् परिपूर्ण भरे हुए घडे के समान तथा संस्थान से एक ही तरह के स्वरूप वाले हैं, किन्तु विस्तार की अपेक्षा अनेक प्रकार के स्वरूप वाले हैं। द्विगण द्विगुण प्रमाण वाले हैं, अर्थात् अपने पूर्ववर्ती द्वीप से दुगुने प्रमाण वाले हैं । यावत् इस तिर्छा लोक में असंख्य द्वीप समुद्र हैं । सब के अन्त में स्वयम्भूरमण समुद्र है । हे श्रमणायुष्मन् ! इस प्रकार द्वीप और समुद्र कहे For Personal & Private Use Only | Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०५८ भगवती सूत्र-श. ६ उ. ८ असंख्य द्वीप समुद्र गये हैं। २० प्रश्न-हे भगवन् ! द्वीपों और समुद्रों के कितने नाम कहे गये हैं ? २० उत्तर-हे गौतम ! इस लोक में जितने शुभ नाम हैं, शुभ रूप, शुभ गन्ध, शुभ रस और शुभ स्पर्श हैं, उतने ही द्वीप और समुद्रों के नाम कहे गये हैं। इस प्रकार सब द्वीप समुद्र शुभ नाम वाले हैं। उद्धार परिणाम और सब जीवों का उत्पाद कहना चाहिए । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । ऐसा कह कर यावत् विचरते हैं। विवेचन-पहले प्रकरण में जीवों के स्वधर्म का कथन किया गया है। अब स्वधर्म से लवणसमुद्र का कथन किया जाता है । लवण समुद्र उच्छ्रितोदक है, क्योंकि सोलह हजार योजन से कुछ अधिक उसकी जलवृद्धि ऊपर को होती है । इसीलिए वह प्रस्तृतोदक अर्थात् सम जल वाला नहीं है। महापाताल कलशों में रही हुई वायु के क्षोम से लवणसमुद्र में वेला आती है । इसीलिए लवणसमुद्र का पानी क्षुब्ध होता है। इससे आग का वर्णन जिस प्रकार जीवाभिगम सूत्र में कहा है, उस तरह से कहना चाहिए । अढ़ाई द्वीप दो समुद्रों से बाहर के समुद्र उच्छ्रितोदक अर्थात् उछलते हुए पानी वाले नहीं हैं, किन्तु सम जल वाले हैं। वे क्षुब्ध जल वाले नहीं, किन्तु अक्षुब्ध जल वाले हैं। वे पूर्ण, पूर्ण प्रमाण वाले, यावत् पूर्ण भरे हुए घड़े के समान सम हैं । लवणसमुद्र में महामेघ संस्वेदित होते हैं, सम्मूच्छित होते हैं और वर्षा बरसाते हैं, किन्तु बाहर के समुद्रों में महामेघ संस्वेदित नहीं होते हैं, सम्मूच्छित नहीं होते हैं, वर्षा नहीं बरसाते हैं। बाहर के समुद्रों में बहुत से उदक योनि जीव और पुद्गल, उदकपने अपक्रमते हैं, व्युत्क्रमते हैं, चवते हैं और उत्पन्न होते हैं। इन सब समुद्रों का संस्थान एक सरीखा है, किन्तु विस्तार की अपेक्षा दुगने दुगने होते गय हैं। ये समुद्र उत्पल, पद्म, कुमुद, नलिन, सुन्दर और सुगन्धित पुण्डरीक महा-पुण्डरीक, शतपत्र, सहस्रपत्र, केशर एवं विकसित पदों आदि द्वारा युक्त हैं । स्वस्तिक श्रीवत्स आदि सुन्दर शब्द शक्ल, पीत आदि सुन्दर रूपों के सूचक शब्द अथवा देवादि के सुन्दरं रूपों के सूचक शब्द, सुरभिगन्ध वाचक शब्द अथवा कपूर आदि पदार्थों के वाचक शब्द, मधर रस वाचक शब्द, मृदु स्पर्श वाले नवनीत (मक्खन) आदि पदार्थों के वाचक शब्द जितने इस संसार में हैं, उतने ही शुभ नामों वाले दीप और समुद्र हैं। इन द्वीप और For Personal & Private Use Only Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र--श.६ उ. कर्मबन्ध के प्रकार १०५९ समुद्रों की उपमेय संख्या को बतलाने के लिये कहा गया है कि-अढ़ाई सूक्ष्म उद्धार सागरो. पम या पच्चीस कोड़ाकोड़ी सूक्ष्म उद्धार पल्योषम मे जितने समय होते हैं, उतने ही लोक में द्वीप और समुद्र हैं। ये द्वीप मनुद, पृथ्वी, पानी, जीव और पुदगलों के परिणाम वाले है । इन द्वीप और समुद्रों में भी प्राण, भूत, जीव और सत्त्व, पृथ्वीकायिकपने यावत् श्रसकायिकपने अनेक बार अथवा अनन्त बार पहले उत्पन्न हो चुके हैं । ॥ इति छठे शतक का आठवां उद्देशक समाप्त ॥ शतक ६ उद्देशक कर्मबन्ध के प्रकार १ प्रश्न-जीवे णं भंते ! णाणावरणिजं कम्मं बंधमाणे कइ कम्मप्पगडीओ बंधइ । १ उत्तर-गोयमा ! सत्तविहबंधए वा, अट्ठविहबंधए वा, छबिहबंधए वा; बंधुद्देसो पण्णवणाए णेयन्यो । ___ कठिन शब्दार्थ-बंधमाणे-बांधता हुआ। भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! ज्ञानावरणीयकर्म बांधता हुआ जीव, कितनी कर्म प्रकृतियों को बांधता है ? - - १ उत्तर-हे गौतम ! सात प्रकार की प्रकृतियों को बांधता है, आठ प्रकार की बाँधता हे और छह प्रकार की बांधता है। यहाँ प्रज्ञापना सूत्र का For Personal & Private Use Only Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६० भगवती सूत्र - श. ६ उ. ९ महद्धिक देव और विकुर्वणा बंध उद्देशक (पद) कहना चाहिये । विवेचन-आठवें उद्देशक के अन्त में यह कहा गया था कि सभी प्राण, भूत, जीव ओर सत्त्व, द्वीप-समुद्रों में अनेक बार अथवा अनन्तबार पहले उत्पन्न हो चुके हैं । जीवों का भिन्न-भिन्न गतियों में उत्पन्न होने का कारण उनका कर्म बन्ध है । इसलिये इस नववें उद्देशक में कर्मबन्ध के विषय में कथन किया जाता है । जिस समय जीव का आयुष्यबन्ध काल नहीं होता है, तब वह सात कर्म प्रकृतियों को बाँधता है । आयुष्य के बन्ध-काल में आठ कर्म प्रकृतियों को बांधता है । सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान की अवस्था में मोहनीय कर्म और आयुष्य कर्म को नहीं बांधता है, इसलिये ज्ञानावरणीय कर्म बांधता हुआ जीव, छह कर्म प्रकृतियों को बांधता है। इस विषय में प्रज्ञापनासूत्र के चौबीसवें पद में आये हुए बंध वर्णन में जिस प्रकार कथन किया है, उस प्रकार यहां भी सारा कथन करना चाहिये। महद्धिक वेव और विकर्वणा २ प्रश्न-देवे णं भंते ! महिड्ढीए, जाव-महाणुभागे बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता पभू एगवण्णं, एगरूवं विउवित्तए ? २ उत्तर-गोयमा ! णो इणटे समटे । ३ प्रश्न-देवे णं भंते ! बाहिरए पोग्गले परियाइत्ता पभू ? ३ उत्तर-हंता, पभू ! ४ प्रश्न-से णं भंते ! कि इहगए पोग्गले परियाइत्ता विउब्बइ, तत्थगए पोग्गले परियाइत्ता विउव्वइ, अण्णस्थगए पोग्गले परियाइत्ता विउव्वइ ? ४ उत्तर-गोयमा ! णो इहगए पोग्गले परियाइत्ता विउव्वइ, तत्थगए पोग्मले परियाइत्ता विउव्वइ, णो अण्णत्थगए पोग्गले For Personal & Private Use Only Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ६ उ ९ महद्रिक देव और विकुर्वणा परियाइता विउव्वहः एवं एएणं गमेणं जाव - एगवण्णं एगरूवं, एगवणं अगरूवं अणेगवणं एगरूवं अणेगवणं अणेगरूवं " " भंगो । ५ प्रश्न - देव णं भंते ! महिड्दीए, जाव - महाणुभागे बाहिरए पोगले अपरियाड़ता पभू कालगपोग्गलं णीलयपोग्गलत्ताए परिणा har, णीलगपोग्गलं वा कालगपोग्गलत्ताए परिणामेत्तए ? " १०३१ ५ उत्तर - गोयमा ! णो णट्टे समट्टे । परियाइत्ता पभू । ६ प्रश्न - से णं भंते! किं इहगए पोग्गले० ? ६ उत्तर - तं चैव वरं - परिणामेइ ति भाणियव्वं एवं कालगपोग्गलं लोहियपोग्गलत्ताए, एवं कालगएणं जाव - सुक्किल्लं, एवं णीलएणं जाव - सुक्किल्लं, एवं लोहियपोग्गलं जाव सुविकल्लत्ताए, एवं हालिएणं जाव सुविकल्लं, तं एवं एयाए परिवाडीए गंध रसफास० कक्खडफासपोग्गलं मउय- फासपोग्गलत्ताए, एवं दो दो गरुयलहुय-सी उसिण- णिलुकखवण्णाई - सव्वत्थ परिणामे | आलावगा दो दो पोग्गले अपरियाइत्ता, परियाइत्ता । कठिन शब्दार्थ- परियाइत्ता - ग्रहण करके, लोहिय- लाल, सुक्किल्ल - श्वेत - शुक्ल, हालिद्द - पीला हलदी जैमा, कक्खडफास-कर्कश - कठोर स्पर्श, मउय-मृदु- कोमल, द्धिलक्ख - स्निग्ध रूक्ष । भावार्थ-२ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या महद्धिक यांवत् महानुभाग वाला देव, बाहर के पुद्गलों को ग्रहण किये बिना एक वर्ण वाले और एक आकार For Personal & Private Use Only Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६२ भगवती सूत्र - श. ६ उ. ९ महद्धिक देव और विकुर्वणा वाले स्वशरीर आदि की विकुर्वणा कर सकता है ? २ उत्तर - हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । ३ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या वह देव, बाहर के पुद्गलों को ग्रहण करके उपर्युक्त रूप से विकुर्वणा कर सकता ? ३ उत्तर - हाँ, गौतम ! कर सकता है । ४ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या वह देव, इहगत अर्थात् यहाँ रहे हुए पुद्गलों को ग्रहण करके विकुर्वणा करता है ? या तत्रगत अर्थात् वहाँ देवलोक में रहे हुए पुलों को ग्रहण करके विकुर्वगा करता है ? या अन्यत्रगत अर्थात् किसी दूसरे स्थान पर रहे हुए पुद्गलों को ग्रहण कर के विकुर्वणा करता है ? ४ उत्तर - हे गौतम ! यहाँ रहे हुए और दूसरे स्थान पर रहे हुए पुद्गलों को ग्रहण करके विकुर्वणा नहीं करता, किन्तु वहाँ देवलोक में रहे हुए तथा जहाँ विकुर्वणा करता है, वहाँ के पुद्गलों को ग्रहण करके बिकुर्वणा करता है । इस प्रकार इस गम (आलापक) द्वारा विकुर्वणा के चार भंग कहना चाहिये । यथा१ एक वर्णवाला एक आकार वाला, २ एक वर्णवाला अनेक आकार वाला, ३ अनेक वर्ण वाला एक आकार वाला और ४ अनेक वर्ण वाला अनेक आकार वाला । ५ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या महद्धिक यावत् महानुभाग वाला देव, बाहर के पुद्गलों को ग्रहण किये बिना काले पुद्गल को नील पुद्गलपने और नील पुद्गल को काले पुद्गलपने परिणमाने में समर्थ है ? ५ उत्तर - हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । किन्तु बाहरी पुद्गलों की ग्रहण करके वैसा करने में समर्थ है । ६ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या वह देव, इहगत पुद्गलों को या तत्रगत पुद् - गलों को या अन्यत्रगत पुद्गलों को ग्रहण करके वैसा करने में समर्थ है ? ६ उत्तर - हे गौतम ! वह इहगत और अन्यत्रगत पुद्गलों को ग्रहण करके वैसा नहीं कर सकता, किन्तु तत्रगत पुद्गलों को ग्रहण करके वैसा करने में समर्थ है। इसी प्रकार काले पुद्गल को लाल, पीला और शुक्ल परिणमाने में समर्थ है। इसी प्रकार नीले पुद्गल के साथ यावत् शुक्ल, लाल पुद्गल के For Personal & Private Use Only Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ६ उ. ९ देव का जानना ओर देखना साय यावत् शुक्ल, हारिद्र (पीला) के साथ शुक्ल तक कहना चाहिये । इसी क्रम से गन्ध, रस और स्पर्श के विषय में भी कहना चाहिये यावत् कर्कश स्पर्श वाले पुद्गल को कोमल स्पर्शवाले पुद्गलपने परिगमाने में समर्थ है। इस प्रकार दो-दो विरुद्ध गुणों को अर्थात् गुरु और लघु, शीत और उष्ण, स्निग्ध और रुक्ष वर्णादि को सर्वत्र परिणमाता है । 'परिणमाने' इस क्रिया के साथ यहां दो-दो आलापक कहने चाहिये । यथा-१-पुद्गलों को ग्रहण करके परिणमाता है । २-पुद्गलों को ग्रहण नहीं करके नहीं परिगमाता है। विवेचन-यहाँ जीव का प्रकरण चल रहा है, इसलिय यहाँ देव रूप जीव के विषय में कथन किया जाता है । देव प्राय: उत्तर वैक्रिय रूप करके ही दूसरे स्थान पर जाता है । इमलिय यह कहा गया है कि देव, देवलोक में रहे पूदगलों को ग्रहण करके किर्वणा करता है। किन्तु इहगत अर्थात् प्रश्न कार के समीपस्थ क्षेत्र में रहे हुए पुद्गलों को तथा अन्यत्रगत अर्थात् प्रज्ञापक का क्षेत्र और देव का स्थान, इन दोनों मे भिन्न स्थान में रहे हए पुदगलों को ग्रहण करके देव विकुणा नहीं करता । ___काला, नीला, लाल, पीला और सफेद-इन पांच वर्गों के द्विक संयोगी दस सूत्र कहने चाहिये । सुरभिगन्ध और दुरभिगन्ध-इन दोनों का एक सूत्र कहना चाहिये । तीखा, कड़वा, कषेला. खट्टा और मीठा-इन पांच रसों के द्विक संयोगी दस सूत्र कहने चाहिये । गुरु और लघु, शीत और उष्ण, स्निग्ध और रुक्ष, कर्कश और कोमल-इस प्रकार आठ स्पों के चार सूत्र कहने चाहिय । क्योंकि परस्पर विरुद्ध दो स्पर्शों का एक सूत्र बनता है । इसलिये आठ स्पर्शो के चार सूत्र होते हैं । देव का जानना और देखना , ७ प्रश्न-अविसुद्धलेसे णं भंते ! देवे असम्मोहएणं अप्पाणएणं अविसुद्वलेसं देवं, देविं, अण्णयरं जाणइ पासइ ? ७ उत्तर-णो इणटे समढे; एवं २ असुद्धलेसे असम्मोहएणं For Personal & Private Use Only Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६४ भगवती सूत्र-श. ६ उ. ५ देव का जानना और देखना अप्पाणेणं विसुद्धलेसं देवं, ३ अविसुद्धलेसे सम्मोहएणं अप्पाणेणं अविसुद्धलेमं देवं, ४ अविसुद्धलेसे देवे सम्मोह एणं अप्पाणेणं विसुद्धलेसं देवं, ५ अविसुद्वलेसे समोहया-ऽसम्मोहएणं अप्पाणेणं अविसुद्धलेसं देवं, ६ अविसुद्वलेसे समोहया-ऽसम्मोहएणं अप्पाणेणं विसुद्धलेसं देवं, ७ विसुद्धलेसे असम्मोहएणं अप्पाणेणं अविसुद्धलेसं देवं, ८ विसुद्धलेसे असम्मोहएणं अप्पाणेणं विसुद्धलेसं देवं । ८ प्रश्न–९ विसुद्धलेसे णं भंते ! देवे समोहएणं० अविसुद्धलेसं देवं जाणइ ? ८ उत्तर-हंता, जाणइ। ९ प्रश्न-एवं १० विसुद्धलेसे समोहएणं विसुद्धलेसं देवं जाणइ ? ९ उत्तर-हंता, जाणइ०। १० प्रश्न-११ विसुद्धलेसे समोहयाऽसमोहएणं० अविसुद्धलेसं देवं ? १२ विसुद्धलेसे समोहयाऽसमोहएणं० विसुद्धलेसं देवं ? १० उत्तर-एवं हेडिल्लएहिं अहिं ण जाणइ, ण पास; उवरिल्लएहिं चाहिं जाणइ, पासइ । . ® सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । ® ॥ छट्ठसए नवमो उद्देतो सम्म तो ॥ कठिन शब्दार्य-अविसुद्धलेसे-जिसकी लेश्या शुद्ध नहीं हो, असम्मोहएणं-उपयोग रहित, अप्पाणेणं-आत्मा से, जाणइ-जानता है, पासइ-देखता है, हेटिल्लएहि-नीचे के। For Personal & Private Use Only Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. 3.दव को जानना और देखना १०६५ भावार्थ-७ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या अविशद्ध लेश्या वाला देव, अनुपयोग युक्त आत्मा से अविशुद्ध लेश्या वाले देव को या देवी को या अन्यतर को अर्थात् देव और देवी में से किसी एक को जानता और देखता है ? ७ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ- समर्थ नहीं है। २-इसी तरह अविशुद्ध लेश्यावाला देव, अनुपयुक्त आत्मा से, विशुद्ध लेश्या वाले देव को, देवी को या अन्यतर को जानता है और देखता है ?३-अविशुद्ध लेश्या वाला देव, उपयुक्त आत्मा द्वारा अविशुद्ध लेश्या वाले देव को इत्यादि ?४-अविशुद्ध लेश्या वाले देव, उपयुक्त आत्मा द्वारा विशुद्ध लेश्या वाले देव को इत्यादि ? ५-अविशुद्ध लेश्या वाला देव, उपयुक्तानुपयुक्त आत्मा द्वारा अविशुद्ध लेश्या वाले देव को इत्यादि । ६-अविशुद्ध लेश्या वाला देव, उपयुक्तानुपयुक्त आत्मा द्वारा विशुद्ध लेश्या वाले वाले देव को इत्यादि। ७-विशुद्ध लेश्या वाला देव, अनुपयुक्त आत्मा द्वारा अविशुद्ध लेश्या वाले देव को इत्यादि । ८-विशुद्ध लेश्या वाला देव, अनु. पयुक्त आत्मा द्वारा विशद्ध लेश्या वाले देव, देवी या अन्यतर को जानता और देखता है ? इन आठों प्रश्नों का उत्तर यह है कि-यह अर्थ समर्थ नहीं है अर्थात् नहीं जानता और नहीं देखता है । ८ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या विशुद्ध लेश्यावाला देव, उपयुक्त आत्मा द्वारा अविशुद्ध लेश्या वाले वाले देव, देवी और अन्यतर को जानता और देखता है ? ८ उत्तर-हां गौतम ! जानता और देखता है । ९ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या विशुद्ध लेश्यावाला देव, उपयुक्त आत्मा द्वास विशुद्ध लेश्या वाले देव, देवी या अन्यतर को जानता और देखता है ? ९ उत्तर-हां गौतम ! जानता और देखता है । १० प्रश्न-हे भगवन् ! क्या विशुद्ध लेश्या वाला देव, उपयुक्तानुपयुक्त आत्मा द्वारा अविशुद्व लेश्या वाले देवादि तो जानता देखता है ? तथा विशुद्ध लेश्या वाला देव, उपयुक्तानुपयुक्त आत्मा द्वारा विशुद्ध लेश्या वाले देवादि को जानता और देखता है ? For Personal & Private Use Only Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १.६६ भगवती सूत्र-श. ६ उ. १० दुख सुख प्रदर्शन अशक्य १० उत्तर-हां गौतम ! जानता और देखता है। पहले जो आठ भंग कहे गये हैं, उनमें नहीं जानता और नहीं देखता है । पीछे जो चार भंग कहे गये हैं, उनमें जानता और देखता है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। विवेचन-देव का अधिकार होने के कारण यहाँ भी देव के सम्बन्ध में ही कहा जाता है । यहाँ अविशुद्ध लेश्या का अर्थ विभंग ज्ञान समझना चाहिये । ५ 'अविशुद्ध लेश्या वाला (विभंगज्ञानी) देव २ अनुपयुक्त आत्मा द्वारा । ३ अविशुद्ध लेश्या वाले देवादि को, इन तीन पदों के बारह विकल्प होते हैं। जो ऊपर मूल पाठ में बतला दिये गये हैं। पहले जो आठ विकल्प बतलाये गये हैं, उनमें कथित देव नही जानता और नहीं देखता है । क्योंकि आठ विकल्पों में से पहले के छह विकल्पों में कथित देव का मिथ्यादृष्टिपन कारण है और शेष दो विकल्पों में कथित देव का अनुपयुक्तपन कारण है। पीछे कहे हुए चार (नौवां, दसवां, ग्यारहवां और बारहवां) विकल्पों में जानता और देखता है, क्योंकि इन विकल्पों में कथित देव का सम्यग्दृष्टिपन कारण है । ग्यारहवें और बारहवें विकल्प में उपयुक्तानुपयुक्तपन में उपयुक्तपन-सम्यग्ज्ञान कारण है । इसलिये वह जानता और देखता है। ॥ इति छठे शतक का नौवां उद्देशक समाप्त ॥ शतक उद्देशक १० दुःख सुख प्रदर्शन अशक्य १ प्रश्न-अण्णउत्थिया णं भंते ! एवं आइ.खते, जाव-परूवेंति जावइया रायगिहे णयरे जीवा, एवइयाणं जीवाणं णो चकिया For Personal & Private Use Only Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . भगवता सूत्र-श. : 3. १०८ सुख प्रदर्शन अशक्य २०६७ केइ मुहं वा, दुहं वा, जाव-कोलट्ठिगमायमवि, गिप्पावमायमवि, कल(म)मायमवि; मासमायमवि, मुग्गमायमवि, जूयामायमवि, लिक्खामायमवि अभिणिवतॄत्ता उवदंसित्तए-से कहमेयं भंते ! एवं ? १ उत्तर-गोयमा ! ज णं ते अण्णउत्थिया एवं आइवखंति, जाव-मिच्छं ते एवं आहंसु, अहं पुण गोयमा ! एवं आइक्खामि, जाव-परूवेमि सव्वलोए वि य णं सव्वजीवाणं णो चकिया, केइ सुहं वा, तं चेव, जाव-उवदंसित्तए । २ प्रश्न-मे केणटेणं ? २ उत्तर-गोयमा ! अयं णं जंबुद्दीवे दीवे, जाव-विसेसाहिया परिक्खेवेणं पण्णत्ता; देवे णं महिड्ढीए, जाव-महाणुभागे एगं महं, मविलेवणं, गंधसमुग्गगं गहाय तं अवदालेइ, तं अवदालेता जावइणामेव कटु केवलकप्पं जंबुद्दीवं दीवं तिहिं अच्छराणिवाएहिं तिसत्तखुत्तो अणुपरियट्टित्ता णं हव्वं आगच्छेजा, से णूणं गोयमा ! से केवलकप्पे जंबुद्दीवे दीवे तिहिं घाणपोग्गलेहिं फुडे ? हंता, फुडे । चकिया णं गोयमा ! केइ तेसिं घाणपोग्गलाणं कोलटिगमायमवि जाव-उवदंसित्तए ? णो इणटे समढे। से तेणटेणं जाव-उवदंसित्तए । कठिन शब्दार्थ-चक्किया-सकता है. के लट्ठिगमायमवि-बेर को गुठली जितना भी, णिप्पावमायमवि-बाल जितना भी, अभिणिवठूत्ता-निकालकर, सविलेवणं-विलेपन करने का, गंधसमुग्गगं-गन्ध द्रव्य का डिब्बा, अबदालेइ-उघाड़ता है, घाणपोग्गलेहि-गंध के पुद्गलों का। भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! अन्यतीथिक इस प्रकार कहते हैं, यावत् For Personal & Private Use Only Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६८ भगवर्ती सूत्र-शः ६ उ. १० दुःख सुख प्रदर्शनं अशक्य प्ररूपणा करते हैं कि राजगृह नगर में जितने जीव हैं, उन सब के दुःख या सुख को बोर गुठली प्रमाण, बाल (एक प्रकार का धान्य) प्रमाण, कलाय (मटर) प्रमाण, चावल प्रमाण, उडद प्रमाण, मूंग प्रमाण, यूका (जू) प्रमाण, लिक्षा (लोख) प्रमाण भी बाहर निकालकर नहीं दिखा सकता है । हे भगवन् ! यह बात किस प्रकार हो सकती है ? १ उत्तर-हे गौतम ! जो अन्यतीथिक उपरोक्त रूप से कहते हैं और प्ररूपणा करते हैं, वे मिथ्या कहते हैं। हे गौतम ! मैं इस प्रकार कहता हूं यावत् प्ररूपणा करता हूं कि सम्पूर्ण लोक में रहे हुए सब जीवों के सुख या दुःख को कोई भी पुरुष उपर्युक्त रूप से किसी भी प्रमाण में बाहर निकाल कर नहीं दिखा सकता। २ प्रश्न-हे भगवन् ! इसका क्या कारण है ? २ उत्तर-हे गौतम ! यह जम्बूद्वीप नाम का द्वीप एक लाख योजन का लम्बा और एक लाख योजन का चौड़ा है। इसकी परिधि तीन लाख तोलह हजार दो सौ सत्ताईस योजन तीन कोश, १२८ धनुष, १३३ अंगुल से कुछ अधिक है। कोई महद्धिक यावत् महानुभाग वाला देव, एक बडे विलेपन वाले गन्ध द्रव्य के डिब्बे को लेकर उघाडे और उघाड़ कर तीन चुटकी बजावे उतने समय में उपर्युक्त जम्बूद्वीप की इक्कीस बार परिक्रमा करके वापिस शीघ्र आवे, तो हे गौतम ! उस देव की इस प्रकार की शीघ्र गति से गन्ध-पुद्गलों के स्पर्श से यह सम्पूर्ण जम्बूद्वीप स्पृष्ट हुआ या नहीं ? . 'हां भगवन् ! वह स्पष्ट हो गया।' ___ 'हे गौतम ! कोई पुरुष उन गन्ध पुद्गलों को बोर की गुठली प्रमाण यावत् लिक्षा प्रमाण भी दिखलाने में समर्थ है ?' ___'हे भगवन् ! यह अर्थ समर्थ नहीं है।' - 'हे गौतम । इसी प्रकार जीवों के सुख स को बाहर निकाल कर बतलाने में कोई भी व्यक्ति समर्थ नहीं है।' For Personal & Private Use Only Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ६ उ. १० जीव और प्राण विवेचन-नौवें उद्देशक में अविशुद्ध लश्या वाले को ज्ञान का अभाव बतलाया गया है । इस दसवें उद्देशक में भी ज्ञान के अभाव को बतलाने के लिए अन्यतीथिकों की प्ररूपणा का वर्णन किया जाता है । ऊपर जो दृष्टान्त दिया गया है, उसका सार यह है कि गन्ध पुद्गल अति सूक्ष्म होने के कारण मूर्त होते हुए भी अमूर्त तुल्य हैं । इसलिए उन पुद्गलों को दिखाने में कोई समर्थ नहीं है । इसी प्रकार सभी जीवों के सुख दुःख को भी कोई बाहर निकाल कर दिखलाने में समर्थ नहीं है । जीव और प्राण . ३ प्रश्न-जीवे णं भंते ! जीवे, जीवे जीवे ? ३ उत्तर-गोयमा ! जीवे, ताव णियमा जीवे, जीवे वि, णियमा जीवे । ४ प्रश्न-जीवे णं भंते ! णेरइए, णेरइए जीवे ? ४ उत्तर-गोयमा ! णेरइए ताव णियमा जीवे, जीवे पुण सिय णेरइए, सिय अणेरइए। ५ प्रश्न-जीव णं भंते ! असुरकुमारे, असुरकुमारे जीवे ? . ५ उत्तर-गोयमा ! असुरकुमारे ताव णियमा जीवे, जीवे पुण सिय असुरकुमारे, सिय णो असुरकुमारे; एवं दंडओ भाणियव्यो, जाव-वेमाणियाणं । ६ प्रश्न-जीवइ भंते ! जीवे, जीवे जीवइ ? ६ उत्तर-गोयम, ! जीवइ ताव णियमा जीवे, जीवे पुण सिय For Personal & Private Use Only Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १.७० भगवती सूत्र-श. ६ उ. १० जीव और प्राण... जीवइ, सिय णो जीवइ । ७ प्रश्न-जीवइ भंते ! णेरइए, णेरइए जीवइ ? ७ उत्तर-गोयमा ! णेरइए ताव णियमा जीवइ, जीवइ- पुण सिय णेरइए, सिय अणेरइए, एवं दंडओ णेयन्वो, जाव-वेमाणि याणं। प्रश्न-भवसिद्धिए णं भंते ! गैरइए, गेरइए भवसिद्धिए ? ८ उत्तर-गोयमा ! भवसिद्धिए सिय गैरइए, सिय अणेरइए; णेरइए वि य सिय भवसिद्धिए, सिय अभवसिद्धिए; एवं दंडओ, जाव-वेमाणियाणं। कठिन शब्दार्थ-जीवइ-जीता है, सिय-कदाचित् । भावार्थ-३ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या जीव चैतन्य है, या चैतन्य जीव है ? ३ उत्तर-हे गौतम ! जीव, नियमा जीव (चैतन्य ) है और जीव (चैतन्य) भी नियमा जीव है। . ४ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या जीव नरयिक है, या नैरयिक जीव है ? .४ उत्तर-हे गौतम ! नैरयिक तो नियमा जीव है और जीव तो नरयिक भी होता है, तथा अनरयिक भी होता है। ५ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या जीव, असुरकुमार है, या असुरकुमार जीव है ? ५ उत्तर-हे गौतम ! असुरकुमार तो नियमा जीव है और जीव तो असुरकुमार भी होता है तथा असुरकुमार नहीं भी होता है। इस प्रकार वैमा. निक तक सभी दण्डक कहने चाहिये। ६ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या - जो जीता है-प्राण धारण करता है, वह जीव कहलाता है, या जो जीव है, वह जीता है-प्राण धारण करता है ? ६ उत्तर-हे गौतम ! जो जीता है-प्राण धारण करता है वह नियमा For Personal & Private Use Only Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूप-श. ६ ७.१० जीव और प्राण जीव कहलाता है और जो जीव होता है, वह प्राग धारण करता भी है और नहीं भी करता है। ____७ प्रश्न-हे भगवन् ! जो जीता है, वह नरयिक कहलाता है, या जो नरयिक होता है, वह जीता है-प्राण धारण करता है ? . ७ उत्तर-हे गौतम ! नरयिक तो नियमा जीता है, किन्तु जो जीता है वह नैयिक भी होता हैं और अनेरयिक भी होता है । इस प्रकार यावत् वैमानिक तक सभी दण्डक कहने चाहिये । ८ प्रश्न-हे भगवन् ! जो भवसिद्धिक है, वह नरयिक होता है, या जो नरयिक होता है, वह भवसिद्धिक होता है ? ८ उत्तर-हे गौतम ! जो भवसिद्धिक होता है, वह नरयिक भी होता हैं मोर अनेरयिक भी होता है। तया जो नरयिक होता है, वह भवसिद्धिक भी होता हैं और अमवसिद्धिक भी होता है । इस प्रकार यावत् वैमानिक पर्यन्त सभी दण्डक कहने चाहिये। विवेचन-जीव का अधिकार होने से जीवों के विषय में ही कथन किया जाता है। यहाँ तीसरे प्रश्न में दो बार जीव शब्द का प्रयोग हुआ है। उनमें से एक जीव शब्द का अर्थ 'जीव' है और दूसरे जीव शब्द का अर्थ चैतन्य' है। इसका उत्तर स्पष्ट है कि जो जीव है, वह चैतन्य रूप है और जो चैतन्य रूप है, वह जीव है । क्योंकि जीव और चैतन्य में परस्पर अविनामाव सम्बन्ध है। जो नैरयिक है, वह तो नियम से जीव है ही, किन्तु जो जीव है, वह नरयिक भी होता है और अनरयिक भी होता है । जो प्राणों को धारण करता है, वह नियम से जीव है, क्योंकि अजीव के आयुष्य कर्म न होने से वह प्राणों को धारण नहीं करता । जो जीव है, वह कदाचित् प्राणों को धारण करता है और कदाचित् प्राणों को धारण नहीं करता है, क्योंकि सिद्ध भगवान जीव तो हैं, किन्तु प्राणों को (द्रव्य प्राणों को) धारण नहीं करते हैं। नरयिकादि सभी जीव, नियमा प्राणों को धारण करते हैं । क्योंकि सभी संसारी जीवों का स्वभाव प्राण धारण करने का है, किन्तु जो प्राण धारण करता है, वह नरयिक भी होता है और अनरयिक भी होता है । क्योंकि नरयिक और अनैरयिक सभी संसारी जीव, प्राणों को धारण करते हैं। For Personal & Private Use Only Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०७२ भगवती सूत्र-श. ६ उ. १. अभ्यधिक और जीवों का सुख दुःख अन्ययूथिक और जीवों का सुख दुःख ९ प्रश्न-अण्णउत्थिया णं भंते ! एवं आइपखंति, जाव-परू. वेंति एवं खलु सब्वे पाणा, भूया, जीवा, सत्ता एगंतदुक्खं वेयणं वेयंति, से कहमेयं भंते ! एवं ? ९ उत्तर-गोयमा ! जं णं ते अण्णउत्थिया, जाव-मिच्छं ते एवं आहंसु, अहं पुण गोयमा ! एवं आइक्खामि, जाव-परूवेमि अत्थेगइया पाणा, भया, जीवा, सत्तार एगंतदुक्खं वेषणं वेयंति, आहच्च सायं; अत्थेगइया पाणा, भूया, जीवा सत्ता एगंतसायं वेयणं वेयंति, आहच्च अस्सायं वेयणं वेयंति; अत्थेगइया पाणा, भया, जीवा, सत्ता वेमायाए वेयणं वेयंति, आहन्च सायमसायं । __१० प्रश्न-से केणटेणं ? १० उत्तर-गोयमा ! णेरइया एगंतदुक्खं वेयणं वेयंति आहच्च सायं, भवणवइ-वाणमंतर जोइस-वेमाणिया एगंतसायं वेयणं वेवंति, आहच असाय; पुढविक्काइया, जाव-मणुस्सा वेमायाए वेयर्ण वेयंति, आहच्च सायमसायं-से तेणद्वेणं। . . कठिन शग्दार्थ-आहश्च-कदाचित्, वेमायाए-विमात्रा से-कभी कुछ कभी कुछ । - भावार्थ-९ प्रज-हे भगवन् ! अन्यनीथिक इस प्रकार कहते हैं, यावत् प्ररूपणा करते हैं कि सभी प्राण, भूत, जीव और सत्त्व, एकांत दुःसा कम वेदना को For Personal & Private Use Only Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... भगवती सूत्र - श. ६ उ. १० अन्ययूथिक और जीवों का सुख दुःख वेदते हैं । हे भगवन् ! यह किस प्रकार हो सकता है ? ९ उत्तर - हे गौतम ! अन्यतीर्थिक जो यह कहते हैं और प्ररूपणा करते हैं, वह मिथ्या है। हे गौतम! में इस प्रकार कहता हूं यावत् प्ररूपणा करता हूं कि कितने ही प्राण, भूत, जीव और सत्त्व, एकान्तं दुःख रूप वेदना वेदते है और कदाचित् सुख को वेदते हैं। तथा कितने ही प्राण, भूत, जीव और सत्त्व, एकान्त सुख रूप वेदना वेदते हैं और कदाचित् दुःख को वेदते हैं। कितने ही प्राण, भूत, जीव और सत्त्व, विमात्रा ( विविध प्रकार ) से वेदना वेदते हैं । अर्थात् कदाचित् सुख और कदाचित् दुःख वेदते हैं 1 १० प्रश्न - हे भगवन् ! इसका क्या कारण है ? १०७३ १० उत्तर - हे गौतम! नैरयिक जीव, एकान्त दुःख रूप वेदना वेदते हैं और कदाचित् सुख वेदते हैं । भवनपति, वागव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक ये एकान्त सुख रूप वेदना वेदते हैं और कदाचित् दुःख वेदते हैं । पृथ्वीकाय से लेकर यावत् मनुष्य तक के जीव विमात्रा ( विविध प्रकार ) से वेदना वेदते हैं । अर्थात् कदाचित् सुख और कदाचित् दुःख वेदते हैं । इस कारण हे गौतम ! उपर्युक्त रूप से कहा गया है । विवेचन - जीव का प्रकरण होने से जीव के सम्बन्ध में अन्यतीर्थियों की वक्तव्यता कहीं जाती है । अन्यतीर्थियों की वक्तव्यता को मिथ्या बतला कर वास्तविकता की प्ररूपणा की है। नैरयिक जीव, एकान्त असाता वेदना वेदते हैं, किन्तु तीर्थंकर भगवान् के जन्मदि के प्रसंग पर तथा देव प्रयोग द्वारा कदाचित् साता वेदना भी वेदते हैं । देव एकान्त साता वेदना वेदते हैं, किन्तु पारस्परिक आहनन में और प्रिय वस्तु के वियोगादि में असाता वेदना भी वेदते हैं । पृथ्वीका से लेकर मनुष्य तक के जीव, कदाचित् ( किसी समय ) साता वेदना भी वेदते हैं और कदाचित् असाता वेदना भी वेदते हैं । For Personal & Private Use Only Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०७४ भगवती सूत्र-शं. ६ उ. १० नैरयिकादि का आहार - नरयिकादि का आहार ११ प्रश्न-णेरड्या णं भंते ! जे पोग्गले अत्तमायाए आहारेवि ते किं आयसरीरखेत्तोगाढे पोग्गले अत्तमायाए आहारेंति, अणंतरखेतोगाढे पोग्गले अत्तमायाए आहारेंति, परंपरखेत्तोगाढे पोग्गले अत्तमायाए आहारेंति ? . ११ उत्तर-गोयमा ! आयसरीरखेत्तोगाढे पोग्गले अत्तमायाए आहारेंति, णो अणंतरखेत्तोगमढे पोग्गले अत्तमायाए आहारेंति, णो परंपरखेतोगाढे; जहा णेरड्या तहा जाव-वेमाणियाणं दंडओ। कठिन शब्दार्थ-अत्तमायाए-आत्मा द्वारा। भावार्थ-११ प्रश्न-हे भगवन् ! नरयिक जीव, आत्मा द्वारा ग्रहण करके जिन पुद्गलों का आहार करते हैं, क्या वे आत्मशरीरक्षेत्रावगाढ पुद्गलों को आत्मा द्वारा ग्रहण करके आहार करते हैं ? या अनन्तरक्षेत्रावगाढ पुद्गलों को आत्मा द्वारा ग्रहण करके आहार करते हैं ? या परम्परक्षेत्रावगाढ पुद्गलों को आत्मा द्वारा ग्रहण करके आहार करते हैं ? ११ उत्तर-हे गौतम! आत्म-शरीर-क्षेत्रावगाढ पुद्गलों को आत्मा द्वारा ग्रहण करके आहार करते हैं, परन्तु अनन्तरक्षेत्रावगाढ और परम्परक्षेत्रावगाढ पुद्गलों को आत्मा द्वारा ग्रहण करके आहार नहीं करते। जिस प्रकार नरयिकों के लिये कहा, उसी प्रकार यावत् वैमानिक पर्यन्त सभी दण्डकों में कहना चाहिये। विवेचन-जीव के सम्बन्ध में ही कहा जाता है। जीव स्व-शरीर क्षेत्र में रहे हुए पुद्गलों को आत्मा द्वारा ग्रहण करके आहार करता है, किन्तु आत्म. शरीर से अनन्तर और परम्पर क्षेत्र अर्थात् आत्मा क्षेत्र से अनन्तर क्षेत्र से परक्षेत्र में रहे हुए पुद्गलों को आत्मा द्वारा ग्रहण करके आहार नहीं करता है। For Personal & Private Use Only Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ६ उ. १० केवली अनिन्द्रिय होते हैं १०७५ केवली अनिन्द्रिय होते हैं १२ प्रश्न केवली णं भंते ! आयाणेहिं जाणइ, पासइ ? १२ उत्तर-गोयमा णो ! इणटे समटे । १३ प्रश्न-से केणटेणं? १३ उत्तर-गोयमा ! केवली णं पुरथिमेणं मियं पि जाणइ, अमियं पि जाणइ, जाव-णिव्वुडे दंसणे केवलिस्स, से तेगडेणं । - गाहाः-'जीवाण य सुहं दुक्खं जीवे जीवइ तहेव भविया य, एगंतदुक्खं वेयण अत्तमायाय केवली ।' * सेवं भंते !, सेवं भंते ! त्ति ॥ छट्सए दसमो उद्देसो सम्मतो ॥ कठिन शब्दार्थ-आयाणेहि-इन्द्रियों द्वारा, मियं-मित-सीमित, अमियं-असीम, णिवुडे दंसणे-निवृत दर्शन । ___ भावार्य-१२ प्रश्न-हे भावन् ! क्या केवली भगवान् ! इन्द्रियों द्वारा जानते हैं और देखते हैं ? १२ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। १३ प्रश्न-हे भगवन् ! इसका क्या कारण है ? १३ उत्तर-हे गौतम ! केवली भगवान् पूर्व दिशा में मित (परिमित) को भी जानते हैं और अमित को भी जानते हैं, यावत् केवली का दर्शन निर्वत है । हे गौतम ! इसलिये ऐसा कहा जाता है । For Personal & Private Use Only Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०७६ भगवती सूत्र-श. ६ उ. १० केवली अनिन्द्रिय होते हैं गाथा का अर्थ इस प्रकार हैं:-जीवों का सुख दुःख, जीव, जीव का प्राणधारण, भव्य, एकान्त दुःख वेदना, आत्मा द्वारा पुद्गलों का ग्रहण और केवली, इतने विषयों का विचार इस दसवें उद्देशक में किया गया है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। ऐसा कह कर यावत् गौतम स्वामी विचरते हैं। विवेचन-केवली भगवान् का ज्ञान और दर्शन निर्वृत, परिपूर्ण और आवरण रहित होता है । इसलिये वे इन्द्रियों द्वारा नहीं जानते और नहीं देखते हैं । इस विषय का विशेष विवेचन पांचवें शतक के चौथे उद्देशक में दे दिया गया है। ॥ इति छठे शतक का दसवां उद्देशक सम्पूर्ण ॥ ॥ छठा शतक समाप्त ॥ द्वितीय भाग सम्पूर्ण For Personal & Private Use Only Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जस DR संघ त्यावर राज) nita H स्वस्तिक प्रिन्टर्स प्रेम भवन हाथी भाटा, अजमेर For Personal & Private Use Only