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भगवती सूत्र-श. ५ उ. ९ पापित्य स्थविर और श्री महावीर
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जिस प्रकार नैरयिक जीवों के विषय में कहा गया है, उसी प्रकार वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिकों के लिये भी कहना चाहिये।
विवेचन-पुद्गल द्रव्य है। इसलिये उनका विचार करने पर उनसे सम्बन्धित काल द्रव्य का विचार किया जाता है। समय, आवलिका आदि काल के विभाग हैं । इसमें अपेक्षा कृत सूक्ष्म काल 'मान' कहलाता है और अपेक्षा कृत प्रकृष्ट सूक्ष्म काल 'प्रमाण' कहलाता है । जैसे कि-मुहूर्त 'मान' है। मुहूर्त की अपेक्षा मूक्ष्म होने से लव 'प्रमाण' है और लव की अपेक्षा स्तोक प्रमाण' है । और स्तोक की अपेक्षा लव 'मान' है। इस तरह समय तक जान लेना चाहिये । समयादि की अभिव्यक्ति सूर्य की गति से होती है और सूर्य की गति मनुष्य लोक में ही है, नरकादि में नहीं है । इसलिये वहां समयादि का ज्ञान नहीं होता है ।
मनुष्य लोक में रहे हुए ही मनुष्यों को समयादि का ज्ञान होता है, किंतु मनुष्य लोक से बाहर रहे हुए जीवों को समय आदि का ज्ञान नहीं होता। क्योंकि मनुष्य लोक से बाहर समय आदि काल न होने से वहाँ उसका व्यवहार नहीं होता है । यद्यपि कितनेक पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच, भवनपति, वाणव्यन्तर और ज्योतिषी, मनुष्य लोक में हैं, तथापि वे स्वल्प हैं और वे काल के अव्यवहारी हैं। और मनुष्य लोक से वाहर वे बहुत हैं । उन बहतों की अपेक्षा से यह कहा गया है कि पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च, भवनपति, वाणव्यन्तर और ज्योतिषी देव ममय आदि काल को नहीं जानते हैं।
पापित्य स्थविर और श्री महावीर
, १५ प्रश्न-तेणं कालेणं तेणं समएणं पासावचिन्जा थेरा भगवंतो जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते ठिच्चा, एवं वयासी-से णूणं भंते ! असंखेजे लोए अणंता राइंदिया उप्पजिंसु वा, उप्पजंति वा, उप्पजिस्संति वा; विगच्छिसु वा, विगच्छंति वा,
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