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________________ भगवती सूत्र---श. ३ उ. १ मनत्कुमारेन्द्र को भवामिद्धिकता ६०३ उच्चत्त विमाणाणं, पाउम्भव पेच्छणा य संलावे । किचि विवादुप्पत्ती, सणंकुमारे य भवियत्तं ॥ ॥ मोया सम्मत्ता ॥ कठिन शब्दार्थ - परित्तसंसारए—संसार परिमित करनेवाला, विराहए-विराधक, चरिमे-अंतिम, पसत्यं णेयव्वं-प्रशस्त जानना चाहिए, हियकामए-हित चाहनेवाले, पत्थकामए --पथ्य चाहने वाले, आणुकंपिए-अनुकम्पा-कृपा करनेवाले, णिस्सेयसिएनिःश्रेयस-मोक्ष चाहने वाले । भावार्थ-३३ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या देवेन्द्र देवराज सनत्कुमार भवसिद्धिक है, या अभवसिद्धिक है ? सम्यग्दृष्टि है या मिथ्यादृष्टि है ? परित्त संसारी (परिमित संसारी) है, या अनन्त संसारी है ? सुलभबोधि है, या दुर्लभबोधि है ? आराधक है, या विराधक है ? चरम है, या अचरम है ? ___ ३३ उत्तर-हे गौतम ! देवेन्द्र देवराज सनत्कुमार, भवसिद्धिक है, अभवसिद्धिक नहीं। इसी तरह वह सम्यगदृष्टि है, मिथ्यादृष्टि नहीं, परित्तसंसारी है, अनन्त संसारी नहीं, सुलभबोधि है, दुर्लभबोधि नहीं, आराधक है, विराधक नहीं, चरम है, अचरम नहीं। अर्थात् इस सम्बन्ध में सब प्रशस्त पद ग्रहण करने चाहिए। ३४ प्रश्न-हे भगवन् ! इसका क्या कारण है ? ३४ उत्तर-हे गौतम ! देवेन्द्र देवराज सनत्कुमार, बहुत साधु, बहुत साध्वी, बहुत श्रावक, बहुत श्राविका, इन सब का हितकामी (हितेच्छु-हित चाहने वाला), सुखकामी (सुखेच्छु-सुख चाहने वाला), पथ्यकामी (पथ्येच्छुपथ्य का चाहने वाला), अनुकम्पक (अनुकम्पा करने वाला), निःश्रेयस्कामी (निःश्रेयस् अर्थात् कल्याण चाहने वाला) है। हित, सुख और निःश्रेयस् का कामी (चाहने वाला) है । इस कारण हे गौतम ! सनत्कुमार देवेन्द्र देवराज भव Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004087
Book TitleBhagvati Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages560
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size10 MB
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