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भगवती सूत्र - ५ उ. ४ प्रमाण
प्रकार अनुयोगद्वार सूत्र में कहा गया है, उसी प्रकार यहाँ भी कहना चाहिये, यावत् नोआत्मागम, नोअनन्तरागम किन्तु परम्परागम है वहां तक कहना चाहिये ।
विवेचन - प्रमाण के द्वारा भी छद्मस्थ मनुष्य जानता है । प्रमाण के चार भेद है । यथा - प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम । इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना साक्षात् आत्मा से जो ज्ञान हो, वह 'प्रत्यक्ष प्रमाण' है । यह व्याख्या निश्चय दृष्टि से है । व्यावहारिक दृष्टि से तो इन्द्रिय और मन से होने वाले ज्ञान को भी प्रत्यक्ष कहते हैं । लिंग अर्थात् हेतु के ग्रहण और सम्बन्ध अर्थात् व्याप्ति के स्मरण के पश्चात् जिससे पदार्थ का ज्ञान होता है, उसे 'अनुमान प्रमाण' कहते हैं । अर्थात् साधन से साध्य के ज्ञान को अनुमान कहते हैं । जिसके द्वारा सदृशता से उपमेय पदार्थों का ज्ञान होता है, उसे 'उपमान प्रमाण' कहते हैं । जैसे गवय ( रोझ) गाय के समान होता है । शास्त्र द्वारा होने वाला ज्ञान- 'आगम प्रमाण' कहलाता है ।
प्रत्यक्ष प्रमाण के दो भेद हैं-इन्द्रिय प्रत्यक्ष और नो-इन्द्रिय प्रत्यक्ष । प्रत्यक्ष शब्द का शब्दार्थ इस प्रकार है- 'अक्ष' शब्द का अर्थ आत्मा और इन्द्रिय है । इन्द्रियों की सहायता के बिना जीव के साथ सीधा सम्बन्ध रखने वाला ज्ञान 'प्रत्यक्ष प्रमाण' है । उसके तीन भेद हैं यथा - अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान । इन्द्रियों से सीधा सम्बन्ध रखने वाला अर्थात् इन्द्रियों की सहायता द्वारा जीव के साथ सम्बन्ध रखने वाला ज्ञान -' इन्द्रिय प्रत्यक्ष' कहलाता है । इन्द्रिय प्रत्यक्ष, श्रोत्रेन्द्रिय आदि पांच इन्द्रियों की अपेक्षा पांच प्रकार का है। नो-इन्द्रिय प्रत्यक्ष के अवधिज्ञानादि तीन भेद ऊपर बता दिये गये हैं । अनुमान प्रमाण के तीन भेद हैं । यथा- पूर्ववत् शेषवत् और दृष्ट साधर्म्यवत् । जैसे अपने खोए हुए पुत्र को कालान्तर में प्राप्त कर उसकी माता आदि उसके शरीर के पूर्व चिन्ह से पहिचा - नती है । उसे 'पूर्ववत्' अनुमान कहते हैं। कार्य आदि के चिन्हों से परोक्ष पदार्थ का ज्ञान 'शेषवत्' अनुमान कहलाता है। जैसे—केकायित ( मयूर का शब्द ) सुनकर अनुमान करना कि यहाँ मयूर होना चाहिये । एक पदार्थ के स्वरूप को जानकर उस स्वरूप वाले दूसरे पदार्थों का ज्ञान करना 'दृष्टसाधर्म्यवत्' अनुमान कहलाता है । 'जैसे-एक कार्षापण (अस्सी रति का एक तोला) को देखकर दूसरे कार्षापण का ज्ञान करना । जैसी गाय होती है, वैसा ही गवय होता है।' इत्यादि ज्ञान को 'उपमान ज्ञान' कहते हैं । आगम ज्ञान के दो भेद हैं। यथालौकिक और लोकोत्तर । अथवा आगम ज्ञान के तीन भेद हैं। यथा-सूत्र, अर्थ और सूत्रार्थ । मूलरूप आगम को 'सूत्रागम' कहते हैं। शास्त्र के अर्थरूप आगम को 'अर्थागम' कहते हैं ।
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