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भगवती सूत्र-श. ५ उ. ६ आचार्य उपाध्याय की गति
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उनका स्वयं सेवन करना, दूसरे साधुओं को देना और सभा में उन आधाकर्मादि के विषय में निर्दोष रूप से प्ररूपणा करना-ये सब विपरीत श्रद्धानादिरूप होने से मिथ्यात्वादि रूप हैं । इससे ज्ञान आदि की विराधना स्पष्ट ही है ।
आचार्य उपाध्याय की गति
१७ प्रश्न-आयरिय-उवज्झाए णं भंते ! सविसयंसि गणं अगिलाए संगिण्हमाणे; अगिलाए उवगिण्हमाणे कइहिं भवग्गहणेहिं सिज्झइ, जाव-अंतं करेइ ? . ____१७ उत्तर-गोयमा ! अत्थेगइए तेणेव भवग्गहणेणं सिज्झइ, अत्थेगइए दोच्चेणं भवग्गहणेणं सिज्झइ, तच्चं पुण भवग्गहणं णाइकमइ ।
कठिन शब्दार्थ-सविसयंसि-अपने विषय में, संगिण्हमाणे-स्वीकार करते हुए, उवगिण्हमाणे-सहायता करते हुए. गाइक्कमइ-अतिक्रमण नहीं करते।
भावार्थ-१७ प्रश्न-हे भगवन् ! अपने विषय में शिष्य वर्ग को अग्लान (खेद रहित) भाव से स्वीकार करने वाले और अग्लान भाव से सहायता करने वाले आचार्य और उपाध्याय, कितने भव ग्रहण करके सिद्ध होते हैं, यावत् सभी दुःखों का अन्त करते हैं ?
१७ उत्तर-हे गौतम ! कितने ही आचार्य, उपाध्याय उसी भव से सिद्ध होते हैं और कितनेक दो भव ग्रहण करके सिद्ध होते हैं, किन्तु तीसरे भव का उल्लंघन नहीं करते।
विवेचन-आधाकर्मादि पदों का अर्थ प्रायः आचार्य और उपाध्याय, सभा में प्ररूपित ।
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