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________________ भगवती सूत्र – श. ५ उ. ६ आधाकर्मादि आहार का फल जो बहुत से मनुष्यों के बीच में कहता है और स्वयं भी आधाकर्म आहारादि का सेवन करता है । उस स्थान की आलोचना और प्रतिक्रमण किये बिना, क्या उसके आराधना होती है ? १४ उत्तर - हे गौतम ! यह भी उसी प्रकार जानना चाहिए यावत् राजपिण्ड तक इसी प्रकार जानना चाहिए । अर्थात् आधाकर्म यावत् राजपिण्ड पर्यन्त दूषित आहारादि का सेवन करने वाले के उसकी आलोचना और प्रतिक्रमण किये बिना आराधना नहीं होती । ८६० १५ प्रश्न - आधाकर्म आहारादि 'अनवदय (निष्पाप ) है - ऐसा कह कर जो साधु परस्पर देता है । हे भगवन् ! क्या उसके आराधना है ? १५ उत्तर - हे गौतम ! यह भी पूर्वोक्त प्रकार से जानना चाहिए, यावत् राजपिण्ड तक इसी प्रकार जानना चाहिए । अर्थात् उसके आराधना नहीं है । १६ प्रश्न - 'आधाकर्म आहारादि अनवदय-निष्पाप है' - इस प्रकार जो बहुत से मनुष्यों के बीच में प्ररूपणा करता है । हे भगवन् ! क्या उसकी आराधना है ? १६ उत्तर - यावत् राजपिण्ड तक पूर्वोक्त प्रकार से जानना चाहिये । विवेचन - जिसने ज्ञानादि की आराधना नहीं की है, उसको पूर्वोक्त प्रकार से वेदना होती है । इसलिये आराधना के अभाव को बतलाने के लिये आधाकर्म आदि सूत्र कहे गये हैं । आधाकर्म- 'आधा साधुप्रणिधानेन यत्सचेतनमचेतनं क्रियते, अचेतनं वा पच्यते, चीयते वा गृहादिकं वयते वा वस्त्रादिकं तदाधाकर्म ।' अर्थात् साधु के निमित से जो सचित्त को अचित्त बनाया जाता है, अचित-दाल आदि को पकाया जाता है, मकान आदि बनाये जाते हैं, या वस्त्रादि बनाये जाते हैं, उसे 'आधाकर्म दोष' कहते हैं । रचितक-टूटे हुए लड्डू के चूरे को साधु के लिये फिर लड्डू बांधकर देना, 'रचितक दोष' है । यह औदेशिक का भेद रूप है । कीकृत स्थापित आदि शब्दों का अर्थ भावार्थ में कर दिया है । ये सब आहारादि के दोष हैं। इन आगमोक्त दोषों से युक्त आधाकर्म आदि आहारादि को निर्दोष मानना, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004087
Book TitleBhagvati Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages560
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size10 MB
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