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भगवती सूत्र
-श. ६ उ. ४ जीव- प्रदेश निरूपण
savarat में मी तीन ही भंग क्यों नहीं कहे गये ? एक ही भंग क्यों कहा गया ? समाधान - सकषायी जीव पद में तो उपशम श्रेणी से गिरते हुए एकादि जीव पाये इस प्रकार सम्भावित नहीं है । यहाँ को प्राप्त होते हुए जीव बहुत ही प्रकार यहां एकादि का सम्भव न
जाते हैं, किन्तु यहां क्रोध - कषायी के अधिकार में तो मान, माया और लोभ से निवृत्त होकर क्रोध कषाय पाये जाते हैं, और उन सब को राशि अनन्त है। इस होने से सकषायी जीव की तरह तीन भंग नहीं हो सकते ।
देव पद में देवों सम्बन्धी तेरह ही दण्डकों में छह भंग कहने चाहिये, क्योंकि उनमें starrer के उदयवाले जीव अल्प होने से एकत्व और बहुत्व का सम्भव है । अतएव सप्रदेश और अप्रदेशत्व का भी सम्भव है। मान कषाय और माया कषाय वाले जीवों के भी एकवचन और बहुवचन ये दो दण्डक, क्रोध कषाय की तरह कहने चाहिये। उनमें से दूसरे cuss में नैरयिकों में और देवों में छह भंग कहने चाहिये क्योंकि इन दोनों में मान और माया के उदय वाले जीव शाश्वत नहीं पाये जाते हैं। लोभ कषाय का कथन, क्रोधकषाय की तरह करना चाहिये । लोभकषाय के उदयवाले नैरयिक शाश्वत नहीं होने से उनमें छह भंग पाये जाते हैं । कहा गया है कि
कोहे माणे माया बोधव्वा सुरगणेहि छन्भंगा । माणे माया लोभे नेरहएहि पिछभंगा ||
• अर्थ - क्रोध, मान और माया में देवों के छह भंग कहने चाहिये और मान, माया तथा लोभ में नैरयिकों के छह भंग कहने चाहिये। क्योंकि देवों में लोभ बहुत होता है और नैरयिकों में क्रोध बहुत होता है। अकषायी द्वार के भी एकवचन और बहुवचन ये दो दण्डक कहनें चाहिये। उनमें से दूसरे दण्डक में जीव, मनुष्य और सिद्ध पद में तीन भंग कहने चाहिये । इनके सिवाय अन्य दण्डकों का कथन नहीं करना चाहिये, क्योंकि दूसरे जीव, अकषायी नहीं हो सकते ।
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९ ज्ञान द्वार-मत्यादि भेद से अविशेषित ज्ञान को औधिक ज्ञान कहते हैं । उस औधिक ज्ञान में, मतिज्ञान में और श्रुतज्ञान में एकवचन और बहुवचन की अपेक्षा दो दण्डक कहने चाहिये | उनमें से दूसरे दण्डक में जीवादि पदों में तीन भंग कहने चाहिये । इनमें औधिकज्ञानी, मतिज्ञानी और श्रुतज्ञानी सदा अवस्थित होने से वे सप्रदेश हैं, इसलिये 'सभी
प्रदेश' यह एक भंग हुआ । मिथ्याज्ञान से निवृत्त होकर मात्र मत्यादि ज्ञान को प्राप्त होने बाले तथा मंतिअज्ञान से निवृत्त होकर मतिज्ञान को प्राप्त होने वाले तथा श्रुतअज्ञान से
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