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________________ भगवती सूत्र-- श. ६ उ. ४ जीव-प्रदेश निरूपण ९८९ ये दो ही कहने चाहिये । क्योंकि दूसरे जीवों में संयतपने का अभाव है । असंयत जीवों के एकवचन और बड़वचन से दो दण्डक कहने चाहिये। उनमें से बहवचन से दूसरे दण्डक में तोन भंग कहने चाहिए, क्योंकि असंयतपने को प्राप्त बहुत जीव होते हैं और संयतपने से गिर कर असंयतपने को प्राप्त करते हुए एकादि जीव होते हैं । इसलिए उनमें तीन भंग घटित हो जाते हैं । एकेंद्रिय जीवों में पूर्वोक्त युक्ति अनुसार 'बहुत सप्रदेश और बहुत अप्रदेश'-यह एक भंग पाया जाता है । इस असंयत प्रकरण में 'सिद्ध पद' नहीं कहना चाहिए, क्योंकि सिद्धों में असंयतत्व नहीं होता। संयतासंयत पद में भी एकवचन और बहुवचन से दो दण्डक कहने चाहिए। उनमें से बहुवचन की अपेक्षा दूसरे दण्डक में पूर्वोक्त तीन भंग कहने चाहिए, क्योंकि संयतासंयतत्व अर्थात् देशविरतपने को प्राप्त बहुत जीव होते हैं और संयम से गिर कर तथा असंयम का त्याग कर संयतासंयतपने को प्राप्त होते हुए एकादि जीव होते हैं । अतः तीन भंग घटित होते हैं । इस संयतासंयत द्वार में जीव, पञ्चेंद्रिय तिर्यञ्च और मनुष्य, ये तीन पद ही कहने चाहिए। क्योंकि इन तीन पदों के सिवाय दूसरे जीवों में संयतासंयतपन नहीं पाया जाता । नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत द्वार में जीव और सिद्ध, ये दो पद ही कहने चाहिए । इनमें पूर्वोक्त तीन भंग पाये जाते हैं। ८ कषाय द्वार-सकषायी जीवों में तीन भंग पाये जाते हैं, क्योंकि सकषायी जीव. सदा अवस्थित होने से वे 'सप्रदेश' होते हैं । यह एक भंग हुआ । उपशमश्रेणी से गिर कर सकषाय अवस्था को प्राप्त होते हुए एकादि जीव पाये जाते हैं । इसलिए 'बहुत सप्रदेश और एकादि अप्रदेश' तथा 'बहुत सप्रदेश और बहुत अप्रदेश'-ये दो भंग और पाये जाते हैं। नरयि कादि में तीन भंग पाये जाते हैं। एकेंद्रिय जीवों में अभंग है अर्थात् अनेक भंग नहीं पाये जाते हैं, किन्तु 'बहुत सप्रदेश और बहुत अप्रदेश'-यह एक ही भंग पाया जाता है, क्योंकि एकेंद्रिय जीवों में बहुत जीव अदस्थित और बहुत जीव उत्पद्यमान पाये जाते हैं। जहां यह एक ही भंग पाया जाता है, उसको शास्त्रीय परिभाषा में 'अभंगक' कहते हैं । इस सकषायी द्वार में 'सिद्ध' पद नहीं कहना चाहिए, क्योंकि सिद्ध, कषाय रहित होते हैं । इसी तरह क्रोधादि कषायों में भी कहना चाहिए। क्रोधकषाय के एक वचन और बहुवचन, ये दो दण्डक कहने चाहिए । उनमें से बहुवचन के दूसरे दण्डक में जीव पद में और पृथ्वीकायिक आदि पदों में बहुत सप्रदेश और बहुत अप्रदेश'-यह एक भंग ही कहना चाहिए । शेष में तीन भंग कहने चाहिये । शंका-जिस प्रकार सकषायी जीव पद में तीन भंग कहे गये हैं, उसी प्रकार यहां Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004087
Book TitleBhagvati Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages560
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size10 MB
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