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भगवती सूत्र ----श. ६ उ. ४ जीव-प्रदेश निरूपण
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निवृत्त होकर श्रुतज्ञान को प्राप्त होने वाले एकादि जीव पाये जाते हैं । इसलिये 'बहुत सप्रदेश और एकादि अप्रदेश' तथा 'बहुत सप्रदेश और बहुत अप्रदेश' ये दो भंग होते हैं । इस प्रकार ये तीन भंग पाये जाते हैं। विकलेन्द्रियों में छह भंग कहने चाहिये । क्योंकि उन में सास्वादन समकित होने से मत्यादि ज्ञानवाले एकादि जीव पाये जाते हैं । इसलिये छह भंग घटित हो जाते हैं । यहाँ पृथ्वीकायिकादि जीव तथा सिद्ध नहीं कहने चाहिए, क्योंकि उन में मत्यादिज्ञान नहीं पाया जाता हैं। इसी प्रकार अवधि आदि में भी तीन भंग घटित कर लेने चाहिए। इसमें इतनी विशेषता है कि 'अवधिज्ञान के एक वचन और बहुवचन, इन दोनों दण्डकों में एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और सिद्धों का कथन नहीं करना चाहिये । मनःपर्यय ज्ञान के दोनों दण्डकों में तो जीव और मनुष्य का ही कथन करना चाहिये, क्योंकि इन के सिवाय दूसरों को मनःपर्ययज्ञान नहीं होता। केवलज्ञान के एकवचन और बहुवचन इन दोनों दण्डकों में जीव, मनुष्य और सिद्ध का ही कथन करना चाहिये ।
मति आदि अज्ञान से अविशेषित सामान्य अज्ञान (औधिक अज्ञान) मति अज्ञान और श्रुत अज्ञान इन में जीवादि पदों में तीन भंग कहने चाहिये, क्योंकि ये सदा अवस्थित होने से 'सभी सप्रदेश' यह प्रथम भंग घटित होता है । अवस्थित के सिवाय जब दूसरे जीव, . ज्ञान को छोड़ कर मति अज्ञानादि को प्राप्त होते हैं, तब उनमें एकादि का सम्भव होने से . दूसरे दो भंग भी घटित हो जाते हैं। इस प्रकार इनमें तीन भंग होते हैं । एकेन्द्रियों में 'बहुत सप्रदेश और बहुत अप्रदेश' यह एक ही भंग पाया जाता है । इन तीनों अज्ञानों में सिद्ध का कथन नहीं करना चाहिये। विभंगज्ञान में जीवादि पदों में तीन भंग कहने चाहिये। जिनकी घटना मति अज्ञानादि की तरह करनी चाहिये । यहाँ एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और सिद्धों का कथन नहीं करना चाहिये ।
१० योग द्वार-सयोगी जीवों के दोनों दण्डक औधिक जीवादिक की तरह कहने चाहिये । यथा-सयोगी जीव, नियमा सप्रदेशी होते हैं । नरयिकादि तो सप्रदेश भी होते हैं और अप्रदेश भी होते हैं । बहुत जीव, सप्रदेश ही होते हैं । नैरयिकादि जीवों में तीन भंग होते हैं । एकेन्द्रियादि जीवों में तो केवल तीसरा भंग पाया जाता है । यहाँ सिद्ध का कथन नहीं करना चाहिये । मनयोमी अर्थात् तीनों योगों वाले संज्ञी जीव, वचनयोगी अर्थात् एकेन्द्रियों को छोड़कर शेष सभी जीव, काययोगी अर्थात् एकेंद्रियादि सभी जीव । इनमें जीवादि में तीन भंग होते हैं । मन योगी आदि जीव, जब अवस्थित होते हैं, तब उनमें 'सभी सप्रदेश' यह प्रथम भंग पाया जाता है और जब अमनयोगोपन आदि को छोड़कर मन-योगीफ्न आदि
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