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________________ __ भगवती सूत्र-श. ५ उ. ४ दो देवों का भ. महावीर से मौन प्रश्न ८११ रियाए वट्टमाणस्स इमेयारूवे अज्झथिए, जाव समुप्पजित्था-एवं खलु दो देवा महिड्ढिया, जाव-महाणुभागा समणस्स भगवओ महावीरस्म अंतियं पाउन्भूया, तं णो खलु अहं ते देवे जाणामि, कयराओ कप्पाओ वा सग्गाओ वा विमाणाओ वा कस्स वा अत्थस्स अट्ठाए इहं हव्वं आगया; तं गच्छामि णं भगवं महावीरं वंदामि णमंसामि, जाव-पज्जुवासामि; इमाइं च णं एयारूवाइं वागरणाई पुच्छिस्सामि त्ति कटु एवं संपेहेइ, संपेहित्ता उट्ठाए उढेइ, जाव-जेणेव समणे भगवं महावीरे, जाव-पज्जुवासइ । “गोयमाई!" समणे भगवं महावीरे भगवं गोयमं एवं वयासी-“से. णूणं तव गोयमा ! झाणंतरियाए वट्टमाणस्स इमेयारूवे अज्झथिए, जावजेणेव ममं अंतिए तेणेव हव्वं आगए, से पूर्ण गोयमा ! अटे समटे ?” "हंता, अस्थि ।” “तं गच्छाहि णं गोयमा ! एए चेव देवा इमाइं एयारूवाइं वागरणाइं वागरेहिति ।” कठिन शब्दार्थ-झाणंतरियाए-ध्यानान्तरिका-ध्यान की समाप्ति के बाद और दूसरा ध्यान प्रारंभ करने के पूर्व, वट्टमाणस्स-वर्तते हुए, पाउन्भूया-प्रादुर्भूत हुए-प्रकट हुए। भावार्थ-उस काल उस समय में श्रमण भगवान महावीर स्वामी के ज्येष्ठ अन्तेवासी इन्द्रभूति नामक अनगार यावत् उत्कुटुक आसन से बैठे हए भगवान् की सेवा में रहते थे। वे ध्यान कर रहे थे। चालू ध्यान की समाप्ति हो जाने पर और दूसरा ध्यान प्रारम्भ करने से पहले उनके मन में इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ कि 'भगवान् की सेवा में महाऋद्धि सम्पन्न यावत Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004087
Book TitleBhagvati Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages560
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size10 MB
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