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भगवती
सूत्र - श ३ उ. २ चमरेन्द्र की चिन्ता और वीर वन्दन
ओहयमणसंकपे चिंतासोगसागरसंपविडे, करयल पल्हत्थमुहे अट्टज्झाणो गए भूमिगयाए दिट्ठीए झियाइ, तरणं चमरं असुरिंद असुररायं सामाणियपरिसोववण्णया देवा ओहयमणसंकल्पं जावझियायमाणं पासंति, पासित्ता करयल - जाव एवं वयासी - किं णं देवाणुप्रिया ! ओहयमण संकप्पा जाव - झियायह ? तरणं से चमरे असुरिंदे असुरराया ते सामाणियपरिसोववण्णा देवे एवं वयासीएवं खलु देवाणुप्पिया ! मए समणं भगवं महावीरं णीसाए सक्के देविंदे देवराया संयमेव अचासाइए, तओ तेणं परिकुविएणं समा
णं ममं वहाए वज्जे णिसिट्टे । तं भदं णं भवतु देवाणुप्पिया ! समणस्स भगवओ महावीरस्स, जस्स म्हि पभावेणं अकिंट्टे, अव्वहिए, अपरिताविए, इहमागए, इह समोसढे; इह संपत्ते, इहेव अज्ज उवसंपज्जित्ता णं विहरामि ।
कठिन शब्दार्थ - वज्जनयविप्प मुक्के - वज्र के भय से मुक्त होकर, अवमाणेणंअपमान से, ओहयमणसं कप्पे अपहृतमनः संकल्प अर्थात् जिसके मन का संकल्प नष्ट हो गया है, चितासोगसागरसंपविट्ठे - चिंता और शोक रूपी सागर में डुबा हुआ, करयलपल्हत्य मुहे - मुख को हथेली पर रख कर, अट्टज्झाणो गए - आर्त्तध्यान को प्राप्त, भूमिगया दिट्ठी - पृथ्वी की ओर नीची दृष्टि किये, अव्वहिए - बिना व्यथा के - अव्यथित, अकिट्ठे - क्लेश पाये बिना, अपरिताविए - बिना संताप के ।
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भावार्थ - इसके बाद वज्ज्र के भय से मुक्त बना हुआ, देवेद्र देवराज श द्वारा महान् अपमान से अपमानित बना हुआ, नष्ट मानसिक संकल्प वाला, चिन्ता और शोक समुद्र में प्रविष्ट, मुख को हथेली पर रखा हुआ, दृष्टि को नीची झुका
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