________________
भगवती सूत्र-श. ३ उ. ४ प्रमादी मनुष्य विकुर्वणा करते हैं
६८३
है कि वह बाहर के पुद्गलों को ग्रहण करके पूर्वोक्त प्रकार से कर सकता है ।
विवेचन-पहले के प्रकरण में देवों के लेश्या-परिणाम के सम्बन्ध में कहा है। अब आगे के प्रकरण में भव्य-द्रव्य-देवरूप अनगारों द्वारा कृत पुद्गल परिणाम को सूचित किया जाता है।
__ कोई भी भावित आत्मा अनगार, बाहरी अर्थात् औदारिक शरीर से भिन्न वैक्रिय पुद्गलों को ग्रहण किये बिना राजगृह नगर के समीपस्थ क्रीड़ा स्थल रूप वैभार पर्वत को उल्लंघन (एक बार उल्लंघना) और प्रलंघन (बार बार उल्लंघन करना) नहीं कर सकता। इसका कारण यह है कि वैक्रिय पुद्गलों को ग्रहण किये बिना वैक्रिय शरीर बन नहीं सकता और पर्वत का उल्लंघन करने वाले मनुष्य का शरीर पर्वतातिकमी बड़ा वैक्रिय शरीर हुए निना पर्वत का उल्लंघन और प्रलंघन नहीं हो सकता और इतना बड़ा वैक्रिय शरीर बाहरी वैक्रिय पुद्गलों को ग्रहण किये बिना बन ही नहीं सकता है। इसलिये बाहरी वैक्रिय पुद्गलों को ग्रहण करने के पश्चात् ही वह पर्वत का उल्लंघन और प्रलंघन करने में समर्थ होता है।
प्रमादी मनुष्य विकुर्वणा करते हैं
२३ प्रश्न-से भंते ! किं माई विउब्वइ, अमाई विउब्वइ ? २३ उत्तर-गोयमा ! माई विउव्वइ, णो अमाई विउव्वइ ।
२४ प्रश्न-से कणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ, जाव-णो अमाई विउव्वइ ?
२४ उत्तर-गोयमा ! माई णं पणीयं पाण-भोयणं भोच्चा भोचा वामेइ, तस्स णं तेणं पणीएणं पाणभोयणेणं अट्ठि-अट्ठिः मिंजा बहलीभवंति, पयणुए मंस-सोणिए भवइ; जे वि य से अहाबायरा पोग्गला ते वि य से परिणमंति, तं जहा-सोइंदियत्ताए,
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org