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भगवती मूत्र-श. ३ उ. २ चमरेन्द्र का उत्पात
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विहरइ, एवं संपेहेइ, संपेहित्ता सामाणियपरिसोववण्णए देवे सद्दावेइ, एवं वयासी-के स णं एस देवाणुप्पिया ! अपत्थियपत्थए, जाव-मुंजमाणे विहरइ ? तएणं ते सामाणियपरिसोववण्णगा देवा चमरेणं असुरिंदेणं असुररण्णा एवं वुत्ता समाणा हट्टतुट्ठा जाव-हयहियया करयलपरिग्गहियं दसणहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु जएणं विजएणं वद्धावेंति, एवं वयासी-एसणं देवाणुप्पिया ! सक्के देविंदे देवराया जाव-विहरइ। .
कठिन शब्दार्थ-वीससाए -स्वाभाविकरूप से, आभोएइ-उपयोग लगाकर-जानकर, मघवं - मघवा, पाकसांसणं-पाकशासन, सयक्कउं-शतक्रतु, सहस्सक्खं-सहस्राक्ष-हजार आंख वाला, वज्जपाणि-वज्रपाणी-हाथ में वज्र रखने वाला, पुरंदरं-पुरन्दर, अपत्थियपत्थएमृत्यु को चाहने वाला, दुरंतपंतलक्खणे-बुरे लक्षणवाला, हिरिसिरिपरिवज्जिए-लज्जा और शोभा से रहित, हीणपुण्णचाउद्दसे-अपूर्ण चतुर्दशी के दिन जन्मा हुआ, अप्पुस्सुए-घबराहट रहित, हयहियया-हृत हृदयवाले ।
भावार्थ-तत्काल उत्पन्न हुआ वह असुरेन्द्र असुरराज चमर, पांच प्रकार को पर्याप्तियों से पर्याप्त बना । वे पांच पर्याप्तियां इस प्रकार हैं-आहारपर्याप्ति, शरीरपर्याप्ति, इन्द्रियपर्याप्ति, श्वासोच्छ्वासपर्याप्ति और भाषा-मनः पर्याप्ति (देवों के भाषा पर्याप्ति और मनः पर्याप्ति शामिल बंधती है) । जब असुरेन्द्र असुरराज चमर, उपर्युक्त पांच पर्याप्तियों से पर्याप्त होगया, तब स्वाभाविक अवधिज्ञान के द्वारा सौधर्मकल्प तक ऊपर देखा । सौधर्मकल्प में देवेन्द्र देवराज मघवा, पाकशासन, शतक्रतु, सहस्राक्ष, वज्रपाणि, पुरन्दर, शक, को यावत् दस दिशाओं को उदयोतित एवं प्रकाशित करते हुए सौधर्म कल्प में सौधर्मावतंसक नामक विमान में, शक नाम के सिंहासन पर बैठकर यावत् दिव्य भोग भोगते हुए देखा । देखकर उस चमरेन्द्र के मन में इस प्रकार का आध्यात्मिक, चितित प्रार्थित मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ कि-अरे! यह अप्रार्थितप्रार्थक अर्थात् मरण
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