________________
भगवती सूत्र - श. ५ उ ६ धनुर्धर की क्रिया
हेतु होने से 'महाकर्मतर है। अग्नि का जलना एक प्रकार की क्रिया है । इसलिये वह 'महाक्रियातर' है । वह नवीन कर्मों के ग्रहण करने में कारणभूत है। इसलिये वह 'महाआश्रवतर' है । इसके पश्चात् होने वाली तथा उस कर्म से उत्पन्न होने वाली पीड़ा (वेदना) के कारण अथवा परस्पर शरीर संघात से उत्पन्न होने वाली पीड़ा के कारण वह 'महावेदनातर' है । प्रज्वलित हुई अग्नि बुझने लगती हैं, तब क्रमश: अंगार आदि अवस्था को प्राप्त होती हुई वह अल्पकर्म, अल्यक्रिया, अल्प आश्रव और अल्प वेदना वाली होती है । बुझते बुझते जब वह सर्वथा बुझकर भस्म अवस्था को प्राप्त हों जाती है, तब वह कर्म आदि रहित हो जाती है ।
मूलपाठ में 'अल्प' शब्द आया है, सो अग्नि की अंगारादि अवस्था की अपेक्षा 'अल्प' का अर्थ 'स्तोक' अर्थात् थोड़ा करना चाहिये और भस्म (राख) अवस्था की अपेक्षा 'अल्प' का अर्थ 'अभाव' करना चाहिये ।
धनुर्धर की क्रिया
१० प्रश्न - पुरिसे णं भंते ! धणुं परामुसह, परामुसित्ता उसुं परामुसह, परामुसित्ता ठाणं ठाइ, ठिच्चा आययकण्णाययं उसुं करेह; आययकण्णाययं उसे करेत्ता उड्ढं वेहासं उसे उव्विहह, तरणं से उसुं उड्ढे वेहासं उव्विहिए समाणे जाई तत्थ पाणाई, भूयाई, जीवाई, सत्ताइं अभिहणइ, वत्तेइ, लेसेइ, संघाएह, संघट्टेह, परितावे, किलामेह, ठाणाओ ठाणं संकामेह, जीवियाओ ववरोवेह, तए णं भंते ! से पुरिसे कह किरिए ?
१० उत्तर - गोयमा ! जावं च णं से पुरिसे धणुं परामुसह, परामुसित्ता जाव - उब्विहह, तावं च णं पुरिसे काइयाए जाव
८५२
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org