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________________ भगवती सूत्र-श. ३ उ. ३ कायिकी आदि पांच क्रिया यथा-१ अनुपरत-काय क्रिया और २ दुष्प्रयुक्त-काय क्रिया। ३ प्रश्न-हे भगवन् ! आधिकरणिको क्रिया कितने प्रकार की कही गई ३ उत्तर-हे मण्डितपुत्र ! आधिकरणिकी क्रिया दो प्रकार की कही गई है । यथा-१ संयोजनाधिकरण क्रिया और २ निर्वर्तनाधिकरण क्रिया। ४ प्रश्न-हे भगवन् ! प्राद्वेषिकी क्रिया कितने प्रकार की कही गई है ? ४ उत्तर-हे मण्डितपुत्र ! प्राद्वेषिकी क्रिया दो प्रकार की कही गई है। यथा-१ जीव प्राद्वेषिकी क्रिया और २ अजीव प्राद्वेषिकी क्रिया। ५ प्रश्न-हे भगवन् ! पारितापनिकी क्रिया कितने प्रकार की कही गई है ? ५ उत्तर-हे मण्डितपुत्र ! पारितापनिकी क्रिया दो प्रकार की कही गई है। यथा-१ स्वहस्त पारितापनिकी और २ परहस्त पारितापनिकी। ६ प्रश्न-हे भगवन् ! प्राणातिपात क्रिया कितने प्रकार की कही गई है। ६ उत्तर-हे मण्डितपुत्र ! प्राणातिपात क्रिया दो प्रकार की कही गई है । यथा-१ स्वहस्त प्राणातिपात क्रिया और २ परहस्त प्राणातिपात क्रिया। विवेचन-दूसरे उद्देशक में चमर के उत्पात. के सम्बन्ध में कथन किया गया है। उत्पात. का अर्थ है-ऊपर जाना। यह एक प्रकार की क्रिया है। इस पर यह सहज शंका हो सकती है कि क्रिया किसे कहते हैं ? इस शंका के समाधान के लिए इस तीसरे उद्देशक के प्रारम्भ में ही क्रिया का स्वरूप बताया जाता है। कर्म बन्ध की कारण रूप चेष्टा को क्रिया कहते हैं । यहाँ क्रिया के पाँच भेद बतलाये गये हैं। यथा-कायिकी, आधिकरणिकी प्रादेषिकी, पारितापनिकी और प्राणातिपातिकी । जो चय रूप हो, संगृहीत हो उसे 'काय' (शरीर) कहते हैं। उस काया में होने वाली अथवा काया द्वारा होने वाली क्रिया को 'कायिकी क्रिया' कहते हैं । इसके दो भेद हैं-अनुपरत-काय क्रिया और दुष्प्रयुक्त-काय क्रिया । विरति (त्याग वृत्ति) रहिस प्राणी की जो शारीरिक क्रिया होती है, 'उसे अनुपरत-काय क्रिया' कहते हैं । यह क्रिया विरति रहित सब प्राणियों को लगती है । दुष्ट रीति से प्रयुक्त शरीर द्वारा होने वाली क्रिया को, अथवा दुष्ट मनुष्य की काया द्वारा होने वाली क्रिया को 'दुष्प्रयुक्त-काय क्रिया' कहते हैं । यह क्रिया प्रमत्त संयत तक होती है, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004087
Book TitleBhagvati Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages560
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size10 MB
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