SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 137
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६५४ भगवती सूत्र-श. ३ उ. ३ कायिकी आदि पांच क्रिया क्योंकि विरति वाले प्राणी के भी प्रमाद होने से उसकी काया दुष्प्रयुक्त हो जाती है । "जिस अनुष्ठान से अथवा बाह्य खड्गादि शस्त्र से आत्मा नरकादि दुर्गतियों का अधिकारी होता है, उसे 'अधिकरण' कहते हैं । उस अधिकरण द्वारा होने वाली क्रिया को 'आधिकरणिकी क्रिया' कहते हैं । इसके दो भेद हैं-संयोजनाधिकरण क्रिया और निर्वर्तनाधिकरण क्रिया । संयोजन का अर्थ है-जोड़ना । जैसे कि हल के अलग अलग विभागों को इकट्ठे करके हल तैयार करना, किसी पदार्थ में विष (जहर) मिला कर एक मिश्रित पदार्थ तैयार करना, तथा पक्षियों को और मृगों को पकड़ने लिए तैयार किये जाने वाले यन्त्र के अलग अलग भागों को जोड़कर एक यन्त्र तैयार करना । इन सब क्रियाओं का समावेश 'संयोजन' शब्द के अर्थ में होता है । इस प्रकार संयोजन रूप अधिकरण क्रिया को 'संयोजनाधिकरण क्रिया' कहते हैं। तलवार, भाला, बर्डी इत्यादि शस्त्रों को बनाने को 'निर्वतन' कहते हैं, उस निर्वर्तन रूप अधिकरण क्रिया को निर्वर्तनाधिकरण क्रिया' कहते हैं । प्राद्वेषिकी क्रिया-मत्सर भाव को प्रदेष कहते हैं। मत्सर रूप निमित्त को लेकर होने वा क्रिया अथवा मत्सर द्वारा होने वाली क्रिया अथवा मत्सर रूप क्रिया को 'प्राद्वेषिकी' क्रिया कहते हैं। इसके दो भेद हैं-'जीव प्राद्वेषिकी' क्रिया और 'अजीव प्राद्वेषिकी' क्रिया। अपने जीव पर तथा दूसरे जीव पर द्वेष करने से लगने वाली क्रिया को 'जीव प्राद्वेषिकी' क्रिया कहते हैं । अजीव पर द्वेष करने से लगने वाली क्रिया को 'अजीव प्राद्वेषिकी' क्रिया कहते हैं। पारितापनिकी क्रिया-परिताप अर्थात् पीड़ा पहुंचाने से लगने वाली क्रिया अथवा परिताप रूप क्रिया को 'पारितापमिकी' क्रिया कहते हैं । इसके दो भेद हैं-स्वहस्त पारितापनिकी और परहस्त पारितापनिकी । अपने हाथ से अपने जीव को, दूसरे के जीव को तथा दोनों को परिताप (दुःख की उदीरणा) पहुंचाने से लगने वाली क्रिया को 'स्वहस्त पारितापनिकी क्रिया' कहते हैं । इसी तरह परहस्तपारितापनिकी क्रिया भी समझनी चाहिए । प्राणातिपात क्रिया-श्रोत्रेन्द्रिय आदि पांच इन्द्रियां, मनोबल, वचन बल और कायाबल, ये तीन बल, श्वासोच्छ्वास बल-प्राण और आयुष्य बलप्राण, इन दस प्राणों को जीव से सर्वथा पृथक् कर देना 'प्राणातिपात' कहलाता है । प्राणातिपात से लगने वाली अथवा प्राणातिपात रूप क्रिया को 'प्राणातिपात क्रिया' कहते हैं । इसके भी दो भेद हैं-स्वहस्त प्राणातिपात क्रिया और परहस्त प्राणातिपात क्रिया । अपने हाथ से अपने प्राणों का तथा दूसरों के प्राणों का एवं दोनों के प्राणों का अतिपात करना, स्वहस्त प्राणातिपात क्रिया कहलाती है। इसी तरह परहस्त प्राणातिपात क्रिया के विषय में भी समझना चाहिए । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004087
Book TitleBhagvati Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages560
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy