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________________ भगवती सूत्र- श. ३ उ. .१ ईशानेन्द्र का भगवद् वदन यद्यपि टीकाकार ने सनत्कुमार इन्द्र के लिए ' अग्रमहिषी' की संगति बिठाई है। तथापि यह शब्द प्रमादापतित ही संभव लगता है । क्योंकि पहले देवलोक की दस पल्योपम तक की स्थिति वाली देवियाँ इनके उपभोग में तो आती हैं किन्तु उनकी विकुर्वणा शक्ति का विषय संख्यात द्वीप समुद्र ही है । सागरोपम की स्थितिवालों का हो असंख्यात द्वीप समुद्र जितना विषय बताया गया है । अतः ‘अग्रमहिषी' का विकुर्वणा का विषय संख्यात द्वीप समुद्र से अधिक नहीं हो सकता है । मूलपाठ से असंख्यात द्वीप समुद्र का विषय स्पष्ट होता है जो उचित नहीं है। इसलिए यहां पर 'अग्रमहिषी' पाठ नहीं होना चाहिए। क्योंकि इसके आगे के पाठ में ही लोकपालों के लिए असंख्यात द्वीप समुद्र विषय होना बताया है। इसमें 'अग्रमहिषी' को ग्रहण नहीं किया गया है। इस प्रकार इस पाठ को गहराई से देखने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि वहाँ 'अग्रमहिषी' पाठ नहीं होना चाहिए। प्रायः सभी प्रतियों में होने के कारण मूलपाठ से इस शब्द को नहीं निकाला है। इन देवलोकों के विमानों की संख्या बताने वाली गाथाएँ इस प्रकार है बत्तीस अट्ठावीसा बारस अट्ठ चउरो सयसहस्सा। आरणे बंभलोया विमाणसंखा भवे एसा ।। पण्णासं चत्त छच्चेव सहस्सा लंतक सुक्क सहस्सारे । सय चउरो आणय पाणएसु तिणि आरण्णच्चुयओ ।। अर्थ-(१) सौधर्म में बत्तीस लाख, (२) ईशान में अट्ठाईस लाख, (३) सनत्कुमार में बारह लाख, (४) माहेन्द्र में आठ लाख, (५) ब्रह्मलोक में चार लाख, (६) लान्तक में पचास हजार, (६) महाशुक्र में चालीस हजार, (८) सहस्रार में छह हजार, (९-१०) आणत और प्राणत में चार सौ, (११-१२) आरण और अच्युत में तीन सौ विमान हैं। . इनके सामानिक देवों की संख्या बतलाने वाली गाथा यह है; चउरासीई असीई बावत्तरी सत्तरी य सट्ठी य.।। पण्णा चत्तालीसा तीसा वीसा दस सहस्सा ॥ अर्थ-पहले देवलोक में इन्द्र के चौरासी हजार, दूसरे में अस्सी हजार, तीसरे में बहत्तर हजार, चौथे में सित्तर हजार, पाँचवें में साठ हजार, छठे में पचास हजार, सातवें में चालीस हजार, आठवें में तीस हजार, नववें और दसवें देवलोक के इन्द्र के बीस हजार, ग्यारहवें और बारहवें देवलोक के इन्द्र के दस हजार सामानिक देव हैं। यहां शक्रेन्द्र आदि एकान्तरित पांच इन्द्रों के विषय में अग्निभूति अनगार ने पूछा और ईशानेन्द्र आदि एकान्तरित पाँच इन्द्रों के विषय में वायुभूति अनगार ने पूछा है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004087
Book TitleBhagvati Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages560
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size10 MB
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