SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 48
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भगवती सूत्र-श. ३ उ. १ कुरुदत्तपुत्र देव आदि की ऋद्धि ५६५ समझना चाहिए, किंतु इतनी विशेषता है कि ये सम्पूर्ण चार जम्बूद्वीप से कुछ अधिक स्थल को भरने में समर्थ हैं । इसी तरह ब्रह्मलोक नामक पांचवें देवलोक में भी जानना चाहिए, किंतु इतनी विशेरुता है कि वे सम्पूर्ण आठ जम्बूद्वीप जितने स्थल को भरने में समर्थ हैं। इसी प्रकार लान्तक नामक छठे देवलोक में भी जानना चाहिए, किंतु इतनी विशेषता है कि ये सम्पूर्ण आठ जम्बूद्वीप से कुछ अधिक स्थल को भरने में समर्थ हैं। इसी तरह महाशुक्र नामक सातवें देवलोक के विषय में भी जानना चाहिए, किंतु इतनी विशेषता है कि ये सम्पूर्ण सोलह जम्बूद्वीप जितने क्षेत्र को भरने में समर्थ हैं। इसी तरह सहस्रार नामक आठवें देवलोक के विषय में जानना चाहिए, किंतु इतनी विशेषता है कि ये सम्पूर्ण सोलह जम्बूद्वीप से कुछ अधिक क्षेत्र को भरने में समर्थ हैं। इसी तरह प्राणत देवलोक के विषय में भी कहना चाहिए, किंतु इतनी विशेषता है कि ये सम्पूर्ण बत्तीस जम्बूद्वीप जितने क्षेत्र को भरने में समर्थ हैं। इसी तरह अच्युत देवलोक के विषय में भी जानना चाहिए, किंतु इतनी विशेषता है कि ये सम्पूर्ण बत्तीस जम्बूद्वीप से कुछ अधिक क्षेत्र को भरने में समर्थ हैं । बाकी सारा वर्णन पहले की तरह कहना चाहिए। __ सेवं भंते ! सेवं भंते !! हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । ऐसा कह कर तृतीय गौतम वायुभूति अनगार श्रमण भगवान महावीर स्वामी को वन्दना नमस्कार कर यावत् विचरने लगे। _ विवेचन-ईशानेन्द्र के पश्चात् उसके सामानिक देवों के विषय में प्रश्न पूछना प्रसंग प्राप्त है । तत्पश्चात् प्रश्नकार ने अपने परिचित कुरुदत्तपुत्र अनगार, जो काल करके ईशानेन्द्र के सामानिक देव रूप से उत्पन्न हुए हैं, उनकी ऋद्धि और विकुर्वणा शक्ति आदि के विषय में पूछा है, जो कि प्रसंग प्राप्त ही है। सनत्कुमार के प्रकरण में मूलपाठ में 'अग्गमहिसीणं' शब्द दिया है । इसका कारण यह है कि यद्यपि सनत्कुमार देवलोक में देवियों की उत्पत्ति नहीं होती है, तथापि सौधर्म देवलोक में जो अपरिगृहीता देवियां उत्पन्न होती है और जिनकी स्थिति समयाधिक पल्योपम से लेकर दस पल्योपम तक की होती है, वे अपरिगृहीता देवियाँ सनत्कुमार देवों के भोग के काम में आती है । इसलिए यहां 'अग्रमहिषी' का उल्लेख हुआ है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004087
Book TitleBhagvati Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages560
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy