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________________ 'भगवती सूत्र-श. ६ उ. ८ देवलोकों के नीचे पृथ्वियों में अग्निकाय के सम्बन्ध में प्रश्न करना चाहिए । पांचवें देवलोक से ऊपर सब स्थानों में तथा कृष्णराजियों में अप्काय, ते उकाय और वनस्पतिकाय के सम्बन्ध में प्रश्न करना चाहिये। विवेचन-सातवे उद्दशक के अन्त में भरत क्षत्र का वर्णन किया गया है । अब इम आठवें उद्देशक के प्रारम्भ में रत्नप्रभा आदि पश्वियों का वर्णन किया जाता है। रत्नप्रभा आदि सात पृथ्वियाँ नीचे हैं और ईषत्प्रागभारा पथ्वी ऊपर है । रत्नप्रभा आदि पवियों के नीचे बादर पृथ्वीकाय और बादर अग्निकाय नहीं है । किन्तु वहां घनोदधि आदि होने से अप्काय, वायुकाय और वनस्पतिकाय है । दूसरी नारकी लक महामेघ, स्तनित शब्द आदि को देव, असुर और नाग तीनों करते हैं, किन्तु तीमरी पृथ्वी के नीचे देव और असुर कुमार ही करते हैं, नागकुमार नहीं करते हैं। इससे ज्ञात होता है कि दूसरी पृथ्वी की सीमा में आग नागकुमार नहीं जाते हैं । चौथी पृथ्वी के नीचे केवल दव हा करते है। इससे ज्ञात होता है कि तीसरी पृथ्वी की सीमा से आगे अमुरकुमार नहीं जा सकते । ऊपर मोधर्म देवलोक और ईशान देवलोक के नीचे तो चमरेन्द्र की तरह अमरकुमार जान हैं, किन्तु नागकुमार नहीं जा सकते । सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्मलोक और आग सब जगह केवल देव करते हैं । क्योंकि सौधर्म और ईशान देवलोक मे आगे असुरकुमार भी नहीं जाते हैं । यहाँ बादर पृथ्वीकाय नहीं है। क्योंकि वहाँ उसका स्वस्थान नहीं होने से उत्पत्ति भी नही है। बादर अकाय, वायुकाय और वनस्पतिकाय का मभाव है क्योंकि सौधर्म और ईशान देवलोक उदधि प्रतिष्ठित है, इसलिये वहाँ अप्काय और वनस्पतिकाय का होना सम्भव है और वायकाय तो सभी जगह है । इस तरह मनत्कुमार ओर माहेन्द्र में भी तमम्काय होने से वादर अप्काय और बादर वनस्पतिकाय का सद्भाव सुसंगत है । बारहवें अच्युत देवलोक तक मेघादि को देव करते हैं । इससे आगे देव की जाने की शक्ति नहीं है और मेघ आदि का भी सद्भाव नहीं है। संग्रह गाथा द्वारा संक्षिप्त में यह बतला दिया गया है कि तमस्काय में और पांचवें देवलोक तक बादर अग्निकाय और बादर पृथ्वीकाय का निषध है । शष तीन का सद्भाव है । बारहवें देवलोक तक इसी तरह जान लेना चाहिये । सातों पृथ्वियों के नीचे बादर अग्नि कायादि का निषेध है । पांचवें देवलोक से ऊपर के स्थानों में तथा कृष्णराजियों में भी बादर अप्काय, ते उकाय और वनस्पति काय का निषेध है, क्योंकि उनके नीचे वायुकाय, का ही सद्भाव है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004087
Book TitleBhagvati Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages560
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size10 MB
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